Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 85
________________ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [३-दिग्वत इति विरतो बहुदेशात् तदुहिताविशेषपरिहारात् । तत्कालं विमलमतिः श्रययहिंसा विशेषेण ॥१४०।। अन्वयाथों-[ इति ] इस प्रकार [ बहुदेशात् विरतः ] बहुन क्षेत्रका त्यागी [ विमलमतिः ] निर्मल बुद्धिवाला श्रावक [ तत्कालं ] उस नियमित कालमें [ तदुहिसाविशेषपरिहारात् ] मर्यादाकृत क्षेत्रसे उत्पन्न हुई हिंसा विशेषके त्यागसे [ विशेषेण ] विशेषतास [ अहिंसां ] अहिंसाव्रतको [श्रयति] अपने प्राश्रय करता है। ___ भावार्थ-दिग्द्रतमें क्षेत्र बहुत होता है, उसमें से किञ्चित् कालकी मर्यादापूर्वक थोडासा क्षेत्र देशव्रतमे रक्खा जाता है, अतएव बाह्य क्षेत्रकी अपेक्षा पूर्वाक्त रीतिसे सकल संयमीपनेका सद्भाव होता है । जिस प्रकार दिग्वतमें हिंसाका सर्व त्याग है, उस प्रकार देशवतमें कदाचित् सर्व हिंसाका त्याग है, यही अन्तर है। पापद्धिजयपराजयसङ्गरपरदारगमनचौर्याद्याः । न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात् ॥१४॥ अन्वयाथों-[पापद्धि-जय-पराजय-सङ्गर-परदारगमन-चौर्याद्याः ] शिकार, नय. पराजय, पद्ध, परस्त्री-गमन; चोरी प्रादिक' [ कदाचनापि ] किसी समयभे भी [ न चिन्त्याः ] नहीं चिन्तवन करना चाहिये, [ यस्मात् ] क्योंकि इन अपध्यानोंका [ केवलं ] केवल [ पापफलं ] पाप ही फल है । भावार्थ-यह तीसरे अनर्थदंडव्रतका वर्णन है । विना प्रयोजन पाप करने को अनर्थदंड कहते हैंमौर विना प्रयोजन पाप करने के त्यागको अनर्थदडविरति कहते हैं। इसके पांच भेद हैं। १ अपव्यान, २ पापोपदेश, ३ प्रमादचर्या, ४ हिंसादान और ५ दुःश्रुति, जिनमेंसे यह प्रथम प्राध्यान कहा गया है। विद्यावारिणज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुसाम् । पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ।।१४२।। अन्वयाथों-[ विद्या वारिणज्य-मषी-कृषि-सेवा-शिल्पजीविनां ] विद्या, व्यापार, लेखनकला, ती. नौकरी और कारीगरीसे जीविका करने वाले [पुसाम् ] पुरुषों को [ पापोपदेशदानं ] पापका उपदेश मिले ऐसा [ वचनं ] वचन [ कदाचित् अपि ] किसी समय भी [नैव ] नहीं [ वक्तव्यम् ] बोलना चाहिये। भावार्थ-किमी पुरुषको प्राजीविकाके करनेवाले नाना प्रकारके कर्म क ग्नेका उपदेश देना, इमको पापोपदेश नामक अनर्थदंड कहते हैं । क्योंकि इससे आपको लाभ कुछ नहीं होता, केवल पाप बंध होता है। भूखननवृक्षमोट्टनशाडवलदलनाम्बुसेचनादीनि । निष्कारणं न कुर्याद्दल फलकुसुमोच्चयानपि च ।।१४३।। १-प्रादि शब्दस बध, बन्धन, अगछेदन, सर्वस्व हरण दि दुष्ट चितवन भी जानना । २-ज्योतिष, वैद्यक, सामुद्रिकादि विद्या । ३-पशुपालनादि ।

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