Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 41
________________ श्रीमद् राजचन्द्रजनशानालायाम् । [ प्रथमाधिकार श्रावक-धर्म (३) मिश्रजीव-जिन जीवोंके सम्यक्त्वादि गुण कुछ विमलरूप हुए हों और कुछ समल हों, __ अर्थात् ज्ञानादि गुणोंकी कुछ शक्तियाँ शुद्ध हुई हों, अवशेष सर्वं अशुद्ध हों और परिणति जिनकी शुद्ध परिणमन करती हो, उन्हें मिश्रजीव कहते हैं । २-अजीवतत्त्व-जो पदार्थ चैतन्यगुणरहित हो, उसे अजीव कहते हैं । इसके पांच मेद हैंपुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। (१) पुद्गल-जो द्रव्य स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इन चार-गुणोंसे संयुक्त हो उसे पुद्गल कहते हैं । इसके भेद दो हैं-अणु और स्कन्ध । एकाकी अविभागी परमाणुको अणु और अनेक अणुओंके एकत्वपरिणामको स्कन्ध कहते हैं । पुद्गलद्रव्यके अणु और स्कन्धोंके सिवाय १ स्थूलस्थूल, २ स्थूल, ३ स्थूलसूक्ष्म, ४ सूक्ष्मस्थूल, ५ सूक्ष्म और ६ सूक्ष्मसूक्ष्म, ये छह भेद और भी हैं । स्थूलस्थूल-जो काष्ट पाषाणादिकोंके समान छेदे भेदे जा सकें, स्थूल - जो जल दुग्धादि द्रव पदार्थोंके समान छिन्न भिन्न होनेपर पुनः मिल सकें, स्थूलसूक्ष्म-जो आतप चांदनी छायादि पर्यायके समान दृष्टिगत होवें, परन्तु पकड़े न जा स, सूक्ष्मस्थूल-जो शब्द गंधादिके समान दिखाई न देवें, और पकड़े न जा सकें, परन्तु श्रवण नासिकादि अन्य इन्द्रियों से ग्रहण किये जा सकें, सूक्ष्म-जो काउणवर्गणादिक बहुत परमाणुबों के स्कस्थ हों, और सूक्ष्मसूक्ष्म'-अविभागी परमाणुओं को कहते हैं। (२) धर्म–जो द्रव्य जीव और पुद्गलकी गतिमें सहकारी हो उसे धर्मद्रव्य कहते हैं। यह - लोकप्रमाण अमूर्तीक एकद्रव्य है। (३) अधर्म-जो द्रव्य जीव और पुद्गलकी स्थितिमें सहकारी हो, उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं । यह भी लोकप्रमाण अमूर्तीक एकद्रव्य है । (४) आकाश-जो द्रव्य जीवादिक समस्त पदार्थो को अवकाश देने में समर्थ हो, उसे आकाश कहते हैं । इसके लोकाकाश और अलोकाकाश ये दो भेद हैं। जिसमें सम्पूर्ण द्रव्य पाये जावें, उसे लोकाकाश कहते हैं, और जहां केवल आकाश पाया जावे उसे अलोकाकाश कहते हैं । इन दोनोंका सत्त्व पृथक् पृथक् नहीं है, एक ही द्रव्य है। (५) काल-जो द्रव्य सम्पूर्ण द्रव्योंके परिवर्तन करनेमें समर्थ है और जो वर्तनाहेतुत्व लक्षणसे संयुक्त हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं । यह लोकके एक एक प्रदेशपर स्थित एक एक अणुमात्र असंख्यात द्रब्य हैं । कालद्रव्यके परिणमन निमित्तसे प्रावलिकादि व्यवहारकाल होता है। ३. प्रास्रवतत्त्व-जीवके रागादिक परिणामोंसे मन, वचन, कायके योगोंद्वारा पुद्गलस्कन्धोंके पानेको प्रास्रव कहते हैं। १-कहीं कहीं कर्मवर्गणामोंसे प्रतिसूक्ष्म व्यणुकस्कन्धपर्यन्तको भी कहा है । २-सात तत्त्व और पुण्य पाप ये दो तत्त्व मिलकर नव पदार्थ होते हैं । ३-धर्म. अधर्म, प्राकाश, काल, पुद्गल और जीव ये छह द्रव्य हैं और कालरहित अर्थात् धर्म अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव इन पांचकी पंचास्तिकाय संज्ञा होती है।

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