Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 115
________________ ६० श्रीमद् रामचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [५-द्वादशानुप्रेक्षा जन्ममें पुत्र होता है. सेवक स्वामी होता है, स्त्री माता होती है और माता स्त्री होती है, और तो क्या आप ही मरकर अपने वीर्यसे अपना ही पुत्र होता है, फिर ऐसे संसारमें विश्वास करना कैसा ? संसारमें कहीं भी सुख नहीं है। किसीके' धन धान्य सेवक हस्ती घोटकादि समस्त वैभवकी सामग्री है, परन्तु पुत्र न होनेसे अत्यन्त दुखी है, जिसके पुत्री पुत्रादिक हैं, वह लक्ष्मीके न होनेसे दुखी है, जिसके सम्पत्ति और संतति दोनों हैं, वह शरीरसे नीरोगी न रहनेके कारण दुखी है, कोई स्त्रीकी अप्राप्तिसे दुखी है, तथा जिसके स्त्री है, वह उसके कठोर स्वभावसे दुखी है, किसीका पुत्र कुमार्गगामी है, किसी की पुत्री दुश्चरित्रा है, सारांश संसार में कोई भी सुखी नहीं है । ४-एकत्वानुप्रक्षा-यह जीव सदाका अकेला है, परमार्थदृष्टिसे इसका मित्र कोई नहीं है. अकेला पाया है, अकेला दूसरी योनिमें चला जायगा। अकेला ही बूढा होता है। अकेला ही जवान होता है, और अकेला ही बालक होकर क्रीड़ा करता फिरता है । अकेला ही रोगी होता है, अकेला ही दुखी होता है. अकेला ही पाप कमाता है, और अकेला ही उसके फलको भोगता है, बंधु वर्गादिक कोई भी स्मशानभूमिसे प्रागेके साथी नहीं है, एक धर्म ही साथ जानेवाला है। ५-अन्यत्वानुप्रेक्षा–यद्यपि इस शरीरसे मेरा अनादि कालसे सम्बन्ध है, परन्तु यह अन्य है और मैं अन्य ही हूं। यह इन्द्रियमय है, मैं अतीन्द्रिय हूं, यह जड़ हैं, मैं चैतन्य हूं। यह अनित्य है, मैं नित्य हूं। यह आदि अन्त संयुक्त है, मैं अनादि अनन्न हं। सारांश, शरीर और मैं सर्वथा भिन्न हूं। इसलिये जब अत्यन्त समीपस्थ शरीर भी अपना नहीं है, तो फिर स्त्री कुटुम्बादिक अपने किस प्रकार हो सकते हैं ? ये तो प्रत्यक्ष ही दूसरे हैं । ६-अशुचित्वानुप्रेक्षा-यह शरीर अतिशय अपवित्रताका योनिभूत और बीभत्सयुक्त है। माता पिताके मलरूप रज और वीर्यसे इसकी उत्पत्ति है, इसके संसर्गमात्रसे अन्य पवित्र सुगन्धित पदार्थ महा अपवित्र तथा घिनावने हो जाते हैं। शरीर इतना निंद्य पदार्थ है, कि यदि इसके ऊपर त्वचाजाल नहीं होता, तो इसकी ओर देखना भी कठिन हो जाता। विषयाभिलाषी जीव यद्यपि इसे ऊपरसे नाना प्रकारके वस्त्राभूषणों तथा सुगन्धि द्रव्योंसे १-कस्स वि रणत्थि कलत्त अहव कलत्तण पुत्त-संपत्ती। अह तेंसि संपत्ती तह वि सरोश्रो हवे देहो ॥५१॥ अह पोरोमो देहो तो धरण-धण्णाण णेयसंपत्ती। ग्रह धरण-धण्णं होदि हु तो मरणं झत्ति ढुक्केदि ॥२॥ ..... . कस्स वि दुट्ट-कलत्त कस्स वि दुव्वसा-वसरिणो पुत्तो। कस्स वि अरि-सम-बंधू कस्स वि दुहिदा वि दुच्चरिया ॥५३॥ कस्यापि नास्ति कलत्रं प्रथवा कलत्रं न पुत्रसम्प्राप्तिः । अथ तेषां सम्प्राप्तिः तथापि सरोगः भवेत् देहः ॥५१।। अथ नीरोगः देहः तदा धनधान्यानां नैव सम्प्राप्तिः । अथ धनधान्यं भवति खलु तदा मरणं झटिति ढौकते॥५२॥ कस्यापि दुष्टकलत्रं कस्यापि दुर्व्यसनव्यसनिकः पुत्रः । कस्यापि अरिसमबन्धुः कस्य अपि दुहितापि दुश्चरिता ।। ५३।। (स्वा० का०) ....: २-देहात्मकोऽहमिति चेतसि मा कृथास्त्वं, त्वत्तो यतोऽस्य वपुषः परमो विवेकः ॥ त्वं धर्मशर्मवसतिः परितोऽवसायः, काय: पूनर्जड़तया गतधीनिकायः ॥ (य० ति च०१२३)

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