Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 127
________________ श्रीमद् राजचन्द्रर्जनशास्त्रमालायाम् [ ५- सम्यक्त्व भौर चारित्र बंधके कर्ता नहीं किन्तु उदासीन अन्वयार्थी - [हि ] निश्चयकर [ एकस्मिन् ] एक वस्तु में [ श्रत्यन्तविरुद्वकार्ययोः ] अत्यन्त विरोधी दो कार्यों के [ अपि ] भी [ समवायात् ] मेलसे [ तादृशः श्रपि ] वैसा ही [ व्यवहारः ] व्यवहार [ रूढिम् ] रूढिको [ इतः ] प्राप्त है, [ यथा ] जैसे [ इह ] इस लोक में "[ घृतम् घी [ दहति ] जलाता हैं" [ इति ] इस प्रकारकी कहावत है । १०२ भावार्थ - जैसे अग्नि दाहकरूप कार्यमें कारण है, और घृत अदाहरूप कार्यमें कारण है परन्तु जब इन दोनों अत्यन्त विरोधी कार्योंका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है; तब कहा जाता है, कि इस पुरुषको घुतने जला दिया । इसी प्रकार शुभोपयोग पुण्यबंधरूप कार्य में कारण है प्रौर रत्नत्रय मोक्षरूप कार्य में कारण है, परन्तु जब गुणस्थानकी चढ़न परिपाटीमें दोनों एकत्र होते हैं, तब व्यवहारसे संसार में कहा है कि रत्नत्रय बन्ध हुआ । यदि यथार्थ में रत्नत्रय बन्धका कारण मान लिया जावेगा तो मोक्षका सर्वथा प्रभाव ही हो जावेगा । सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ।।२२२ ।। अन्वयार्थी - [ इति ] इस प्रकार [ एषः ] यह पूर्वकथित [ मुख्योपचाररूपः ] निश्चय और व्यवहाररूप [ सम्यक्त्वबोध चारित्रलक्षणः ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान मौर सम्यक्चारित्र लक्षणवाला [ मोक्षमार्गः ] मोक्षका मार्ग [ पुरुषम् ] ग्रात्माको [ परं पदं ] परमात्माका पद [ प्रापयति ] प्राप्त करता है । मावार्थ - अष्टांग सम्यग्दर्शन, अष्टांग सम्यग्ज्ञान और मुनियोंके महाव्रतरूप आचरणको व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं, तथा अपने श्रात्मतत्त्वका परिज्ञान और आत्मतत्त्वमें ही निश्चल होनेको निश्चय रत्नत्रय कहते हैं। यह दोनों प्रकारका रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है। जिसमेंसे निश्चल रत्नत्रय समुदाय साक्षात् मोक्षमार्ग है, और व्यवहार रत्नत्रय परम्परा मोक्षमार्ग है । पथिकके ( बटोहीके) उस मार्गको जिससे कि वह अपने प्रभीष्ट देशको क्रमसे स्थान स्थानपर ठहरके पहुँचता है, परम्परामार्ग, और जिससे अन्य किसी स्थान में ठहरे विना सीधा ही इष्ट देशको पहुँचता है, उसे साक्षात् मार्ग कहते हैं । नित्यमपि निरुपलेपः स्वरूपसमवस्थितो निरुपघातः । गगनमिव परमपुरुष: परमपदे स्फुरति विशदतमः ।। २२३॥ अन्वयार्थी - [ नित्यम् प्रपि ] सदा ही [ निरूपलेपः ] कर्मरूपी रजके लेपसे रहित [स्वरूपसमवस्थितः ] अपने अनन्त दर्शन ज्ञानस्वरूप में भले प्रकार ठहरा हुआ [ निरुपघातः ] उपघातरहित ' [विशदतमः ] अत्यन्त निर्मल [ परमपुरुषः ] परमात्मा [ गगनम् इव ] आकाशकी तरह [ परमपदे ] लोकशिखर स्थित मोक्षस्थान में [ स्फुरति ] प्रकाशमान होता है । १- स्वभाव से किसी के द्वारा घात नहीं किया जाता ।

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