Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 116
________________ श्लोक २०५ ] पुरुषार्थसिद्धच पायः ६ १ चमकीला बनाया करते हैं; परन्तु यह' भीतर से सम्पूर्ण कुथित जीवोंका पिंड, कृमि समूहसे लिप्त, प्रतीव दुर्गंधित मल मूत्र श्लेष्मादि मलिन पदार्थोंका घर है, जिस प्रकार मलनिर्मित घड़ा धोने से किसी प्रकार पवित्र नहीं हो सकता उसी प्रकार यह शरीर स्नान विलेपनादिसे कभी विशुद्ध नहीं हो सकता, संसार यदि इसके पवित्र करनेका कोई उपाय है तो वह यही है, कि सम्यग्दर्शन की भावना निरन्तर की जावे । ७- श्रात्रवानुप्रेक्षा- पाँच मिथ्यात्व २, बारह प्रव्रत, पच्चीस कषाय", और पन्द्रह योग* इस प्रकर सत्तावन द्वारोंसे जीवके शुभाशुभ कर्मोंका आगमन होता है, यही प्रस्रव है । यह शुभ और शुभरूप दो प्रकारका है। शुभयोगजन्य कर्मों के प्रास्रवको शुभास्रव और अशुभयोगजन्य कर्मोंके प्रसवको शुभाव कहते हैं । इस प्रास्रवसे बंध होता है, श्रौर बंध संसारका मूलकारण है, इसलिये मोक्षाभिलाषी नको इससे विमुख रहना चाहिये, इस प्रकार भावनापूर्वक प्रास्रवके' स्वरूपका चिन्तवन करने को प्रासवानुपेक्षा कहते हैं । ८- संवरानुप्रेक्षा- " श्रास्रवनिरोधः संवरः " अर्थात् कर्मोंके प्रास्रवके रोकनेको संवर कहते हैं, इस संवर के कारणभूत पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दशलाक्षणिक धर्म द्वादशानुप्रेक्षा, और बावीस पर षहोंके चिन्तवन करनेको संवरानुप्रेक्षा कहते हैं । ६- निर्जरानुप्रेक्षा - पूर्वसंचित कर्म समूहके उदय में म्राकर तत्काल ही निर्जर जाने प्रर्थात् झड़ निरा कहते हैं । यह दो प्रकाकी होती है, एक सविपाकनिर्जरा दूसरी श्रविपाक निर्जरा । पूर्वसंचित की स्थिति पूर्ण होकर उनके रस (फल) देकर स्वयं झड़ जानेको सविपाकनिर्जरा कहते हैं, श्रौर तपश्चर्या परीषह विजयादिके द्वारा कर्मोंके स्थिति पूरे किये विना ही झड़ जानेको श्रविपाकनिर्जरा कहते हैं । ग्राम्रफलका वृक्ष में लगे हुए काल पाकर स्वयं पक जाना सविपाकनिर्जराका और पदार्थ विशेषमें १ - सयल - कुहियारण पिंडं किमि-कुल कलियं श्रपुव्व- दुग्गंधं । मल-मुत्ताणं गेहं जाणेहि श्रसुइमयं ॥ ८३ ॥ सकलकुथितानां पिण्डं कृमिकुलकलितमपूर्व दुर्गन्धम् । मलमूत्राणां च गेहं देहं जानीहि अशुचिमयम् ॥ ८३ ॥ ( स्वा० का० प्रे० ) २- एकान्तमिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, विनयमिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व, प्रज्ञानमिथ्यात्व । ३ - पाँच इन्द्रियजन्य तथा एक मनोजन्य असंयम और छह कायके जीवोंकी प्रदया । ४ - प्रनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ, भौर संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, ये १६ कषाय और हास्य, रति, भरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुरुष, नपुंसक ये 8 नो कषाय, ५-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग, श्रदारिककाययोग, श्रदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग, श्राहारक काययोग, प्राहारकमिश्रकाययोग, कार्मारणकाययोग । ६-मण-वयरण - कायजोया जीवपयेसारण फंदरण-विसेसा । मोहोर जुत्ता विजुदा वि य प्रासवा होंति ॥८८॥ मनोवचन काययोग जीव प्रदेशानां स्पन्दन विशेषाः । मोहोदयेन युक्ताः वियुताः अपि च श्रास्रवाः भवन्ति ॥ ८८ ॥ स्वा० का०प्रे०

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