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श्लोक ३२-३३-३४-३५-३६ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः।
कर्तव्योऽध्यवसायः सदनेकान्तात्मकेषु तत्त्वेषु । संशयविपर्यायानध्यवसायविविक्तमात्मरूपं तत् ॥३५॥
अन्वयाथों--[सदनेकान्तात्मकेषु] प्रशस्त अनेकान्तात्मक अर्थात् अनेक स्वभाववाले [तत्त्वेषु] तत्त्वों या पदार्थोंमें [ अध्यवसायः ] उद्यम करना [ कर्तव्यः ] कर्तव्य है, और [ तत् ] वह सम्यग्ज्ञान [ संशयविपर्ययानध्यवसायविविक्तम् ] संशय, विपर्यय और विमोह रहित [प्रात्मरूपं] अात्माका निज स्वरूप है।
भावार्थ- पदार्थके स्वरूपको यथार्थ जानना ( पदार्थ जिन अनेक स्वभावोंसे संयुक्त है, उनको भलीभाँति जानना ) सम्यग्ज्ञान कहलाता है, और यह सम्याज्ञान आत्माका निजस्वरूप है । सम्यग्ज्ञान संशय, विपर्यय और विमोह इन तीन भावोंके रहिन होना चाहिये:
संशय-विरुद्ध दो धर्मरूप ज्ञानको संशय कहते हैं, जैसे रात्रिमें किसीको देखकर संदेह कर कि न जाने यह पदार्थ मनुष्य है, कि राक्षस है, अथवा व्यन्तर है।
विपर्यय-अन्यथारूप इकतरफी ज्ञानको विपर्यय कहते हैं, जैसे मनुष्य में व्यन्तरकी प्रतीति ।
जिमोह—'कुछ हैं, केवल इतना जाननेको विमोह कहते हैं। जैसे गमन करते समय तृणका स्पर्श।
ग्रन्थार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम् ॥ ३६ ॥
अन्वयाथी -- [ ग्रन्थार्थोभयपूर्ण ] ग्रन्थरूप ( शब्दरूप ), अर्थरूप और उभय अर्थात् शब्द अर्थरूप शुद्धतासे परिपूर्ण [ काले ] कालमें अर्थात् अध्ययनकालमें आराधने योग्य [विनयेन] मन, वचन, कायको शुद्धतास्वरूप विनय [ च ] और [ सोपधानं ] धारणायुक्त [ बहुमानेन ] अतिशय सम्मानकर अर्थात् देव गुरु शारूकी वन्दना नमस्कारादि कर [समन्वितम्] सहित, तथा [अनिह्नवं] विद्यागुरुकी गोपनीसे रहित [ज्ञानम्] ज्ञान [माराध्यम्] अराधन करने योग्य है ।
भावार्थ-१ शब्दाचार, २ अर्थाचार, ३ उभयाचार, ४ कालाचार, ५ विनयाचार, ६ उपधानाचार, ७ बहुमानाचार और ८ अनिह्नवाचार, ये ज्ञानके पाठ अङ्ग हैं:
१ शब्दाचार- शब्द-शास्त्र (व्याकरण) के अनुसार अक्षर, पद, वाक्यका यत्नपूर्वक शुद्ध पठनपाठन करनेको कहते हैं । व्यञ्चनाचार, श्रुताचार, अक्षराचार, ग्रन्थाचार आदि सब एकार्थवाची हैं।
__ २ अर्थाचार-यथार्थ शुद्ध अर्थक अवधारण करनेको कहते हैं ।