Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 76
________________ श्लोक १०८ - ११३ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः । ५१ भावार्थ - ब्रह्मका त्याग भी एकोदेश त्याग और सर्वदेश त्याग रूप दो प्रकारका है । सर्वदेश त्यागके अधिकारी मुनि हैं, सो जहांतक हो सके सर्वदेश त्याग करना चाहिये, और जो इतना सामर्थ्य न हो, तो एकोदेश त्याग रूप श्रावकधर्म तो अवश्य ही धारण करना चाहिये और उस श्रावकधर्म में अपनी विवाहिता स्त्रीके अतिरिक्त वेश्या, दासी, परस्त्री, कुमारिकायोंके सर्वथा त्यागका वर्णन किया है । या मूर्च्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्य ेषः । महोदयादुदीर्णो मूर्च्छा तु ममत्वपरिणामः ।। १११ ॥ अन्वयार्थी - [ इयं ] यह [ या ] जो [ मूर्च्छानाम] मूर्च्छा है [एषः ] इसको ही [हि] निश्चय करके [ परिग्रहः ] परिग्रह [विज्ञातव्यः ] जानना चाहिये, [तु] और [ मोहोदयात्] मोहके उदयसे [ उदीर्णः ] उत्पन्न हुआ [ ममत्वपरिणामः ] ममत्वरूप परिणाम ही [ मूर्च्छा ] मूर्च्छा है । भावार्थ - मोहके उदयसे भावोंका ममत्वरूप परिणमन होना मूर्च्छा है, और मूर्च्छा ही परिग्रह है । मूर्छालक्षरण करणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य । ग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसङ्गभ्यः ।। ११२ ।। अन्वयार्थी - [ परिग्रहत्वस्य ] परिग्रहत्वपनेका [ मूर्छालक्षणकररणात् ] मूर्च्छा लक्षण करनेसे [ व्याप्तिः ] व्याप्ति [ सुघटा ] भले प्रकार घटित होती है, क्योंकि, [ शेषसङ्ग ेभ्यः ] अन्य सम्पूर्ण परिग्रह [ विनापि ] विना भी [मूर्छावान् ] मूर्च्छा करनेवाला पुरुष [किल] निश्चयकर [ सग्रन्थः ] बाह्य परिग्रह संयुक्त है । भावार्थ - यदि कोई पुरुष सर्वथा नग्न अर्थात् सब प्रकारके परिग्रहोंसे रहित हो, परन्तु उसके अन्तरंग में मूर्छाका सद्भाव हो, तो वह परिग्रहवान् ही कहलावेगा, -- परिग्रह रहित नहीं; क्योंकि "जहां जहां मूर्च्छा होती है, वहां वहां परिग्रह अवश्य ही होता है" ऐसा नियम है, और परिग्रहके उक्त लक्षण में अव्याप्तिदोषका प्रादुर्भाव नहीं हो सकता । यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरङ्गः । भवति नितरां यतोऽसौ धत्त े मूर्छानिमित्तत्वम् ।। ११३ ।। श्रन्वयार्थी – [ यदि ] जो [एवं ] ऐसा [भवति ] होता अर्थात् मूर्छा ही परिग्रह होता, [तदा ] तो [ख] निश्चय करके [बहिरङ्गः परिग्रहः ] बाह्य परिग्रह [कः श्रपि ] कोई भी [न] न [भवति ] होता । सो ऐसा नहीं है, [ यतः ] क्योंकि [ असौ ] यह बाह्य परिग्रह [ मूर्छानिमित्तत्वम् ] मूर्च्छाके निमित्तपनेको [नितरां ] प्रतिशयतासे [धत्ते ] धारण करता है । भावार्थ - " परिग्रह के अन्तरङ्गपरिग्रह और बहिरङ्गपरिग्रह ऐसे दो भेद किये गये हैं, सो यदि परिग्रहका लक्षण 'मूर्च्छा वा इच्छा' करोगे, तो फिर बाह्य पदार्थोंमें परिग्रहत्व सिद्ध ही नहीं होगा, १ - जहां लक्षण हो, वहां लक्ष्य भी हो इस प्रकार साहचर्यके नियमको व्याप्ति कहते हैं ।

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