Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 81
________________ श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् [३-परिग्रहप्रमाण व्रत भावार्थ-प्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया और लोभ सकल संयमको रोकते हैं, इसलिये इनके नाशसे ही मुनिपद प्राप्त होता है, और संज्वलन संयमके साथ दैदीप्यमान रहता है; तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ तथा हास्यादिक छह व तीन वेदके नाशसे यथाख्यातचारित्रकी प्राप्ति होती है, इसलिये जहांतक बने, इन सबका त्याग करना चाहिये और जो न बने, तो श्रावकधर्म में मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चतुष्क और अप्रत्याख्यानावरणी चतुष्कका त्याग तो अवश्य ही करना चाहिये । बहिरङ्गादपि सङ्गात् यस्मात्प्रभवत्यसंयमोऽनुचितः । परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा ॥ १२७ ॥ अन्वयाथी -[वा] तथा [तम्] उस बाह्यपरिग्रहको चाहे वह [अचित्त] अचित्त हो [वा] अथवा [सचित्त] सचित्त हो, [अशेषं] सम्पूर्ण ही [परिवर्जयेत्] छोड़ देना चाहिये [यस्मात्] क्योंकि [बहिरङ्गात्] बहिरंग [सङ्गात्] परिग्रहसे [अपि] भी [अनुचितः] अयोग्य अथवा निंद्य [असंयमः] असंयम [प्रभवति] होता है। भावार्थ-बाह्य परिग्रहका त्याग किये विना संयम चारित्र नहीं हो सकता इसलिये सचित्त प्रचित्त दोनों प्रकारके बाह्य परिग्रहोंका सर्वथा त्याग करना ही कल्याणकारी है। योऽपि न शक्यस्त्यक्तु धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिः । सोऽपि तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम् ॥ १२८ ॥ अन्वयार्थों-[अपि ] और [ यः ] जो [ धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिः ] धन, धान्य, मनुष्य, गृह, सम्पदादिक [ त्वक्तु] छोड़नेको [ न शक्यः ] समर्थ न हो, [ सः ] वह परिग्रह [ अपि ] भी [ तनू ] न्यून [ करणीयः ] करना चाहिये, [ यतः ] क्योंकि [ निवृत्तिरूपं ] त्यागरूप ही [ तत्त्वम् ] वस्तुका स्वरूप है। रात्री भुजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा । हिंसाविरतेस्तस्मात् त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥ १२६ ।। अन्वयाथौ - यस्मात् ] क्योंकि, [ रात्रौ ] रात्रिमें [ भुञ्जानानां ] भोजन करनेवालोंके [ हिंसा ] हिंसा [ अनिवारिता ] अनिवारित अर्थात् जिसका निवारण न हो सके [ भवति ] होती है, [ तस्मात् ] इसजिए। हिंसाविरतैः ] हिंसाके त्यागियोंको [रात्रिभुक्तिः अपि] रात्रिको भोजन करना भी [त्यक्तव्या] त्याग करना चाहिये। भावार्थ-जो पुरुष हिंसाके त्यागी हैं, उन्हें रात्रिभोजनका त्याग अवश्य करना चाहिये । रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्ति तिवर्तते हिंसाम् । रात्रि दिवमाहरतः कथं हि हिंसा न संभवति ॥ १३० ॥ अन्वयाथौं -[अनिवृत्तिः ] अत्याग भाव [ रागायु दयपरत्वात् ] रागादिक भावोंके उदयकी उत्कटतासे [ हिंसाम् ] हिंसाको [ न प्रतिवर्तते ] उल्लंघन करके नहीं वर्तते हैं, तो [ रात्रि दिवम् ]

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