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श्लोक ११४-१२० ]
पुरुषार्थसिद्धय पायः। अथ निश्चित्तसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदौ द्वौ।
नैषः' कदापि सङ्गः सर्वोऽप्यतिवर्तते हिंसाम् ॥ ११७ ।। अन्वयार्थी-[अथ] इसके अनन्तर [बाह्यस्य] बहिरङ्ग [परिग्रहस्य] परिग्रहके [निश्चित्तसचित्तौ] अचित्त और सचित्त ये [ द्वौ ] दो [ भेदौ ] भेद हैं, सो [एषः] ये [सर्वः] समस्त [अपि] ही [सङ्गः] परिग्रह [ कदापि ] किसी कालमें भी [हिंसाम्] हिंसाको [न] नहीं [प्रतिवर्तते] उल्लङ्घन करते अर्थात् कोई भी परिग्रह किसी समय हिंसारहित नहीं है ।
उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्याः सूचयन्यहिंसेति ।
द्विविधपरिग्रहवहनं हिंसेति जिनप्रवचनज्ञाः ॥ ११८ ॥ अन्वयाथों-[ जिनप्रवचनज्ञाः ] जैनसिद्धान्तके ज्ञाता [प्राचार्याः ] प्राचार्य [ उभयपरिग्रहवर्जनम् ] दोनों प्रकारके परिग्रहके त्यागको [ अहिंसा ] अहिंसा [इति] ऐसे और [द्विविधपरिग्रहवहनं ] दोनों प्रकारके परिग्रहके धारणको [ हिंसा इति ] हिंसा ऐसा [ सूचयन्ति ] सूचन करते हैं।
हिंसापर्यायत्वात् सिद्धा हिंसान्तरङ्गसङ्गषु ।
बहिरङ्गषु तु नियतं प्रयातु मूडूंव हिंसात्वम् ।। ११६ ।। अन्वयार्थी -[ हिंसापर्यायत्वात् ] हिंसाके पर्यायरूप होनेसे [अन्तरङ्गसङ्गषु] अन्तरङ्ग परिग्रहोंमें [हिंसा] हिंसा [सिद्धा] स्वयंसिद्ध है, [तु] और [बहिरङ्गषु] बहिरङ्ग परिग्रहोंमें [मूर्खा] ममत्व परिणाम [एव] ही [हिंसात्वम्] हिंसा भावको [नियतम्] निश्चयसे [प्रयातु] प्राप्त होते हैं ।
__भावार्थ-अन्तरङ्ग परिग्रहके जो चौदह भेद हैं, वे सब ही हिंसाके पर्याय हैं, क्योंकि विभावपरिणाम हैं, अतएव अन्तरङ्ग परिग्रह स्वयं हिसारूप हुआ और बहिरङ्ग परिग्रह ममत्व परिणामोंके बिना नहीं होता, इस कारण उसमें भी हिंसा है। यहां ध्यान रखना चाहिये कि ममत्व परिणामोंसे हो परिग्रह होता है, निर्ममत्वसे नहीं, केवली तीर्थकरके समवसरणको विभूति ममत्वरहित होनेसे परिग्रह नहीं है।
एवं न विशेषः स्यादुन्दुरुरिपुहरिणशावकादीनाम् ।
नैवं भवति विशेषस्तेषां मूर्खाविशेषेण ॥ १२० ॥ अन्वयाथी -[एवं] यदि ऐसा ही है अर्थात् बहिरङ्ग में ममत्व परिणामका नाम ही मूर्छा है, तो [ उन्दुरु रिपुहरिणशावकादीनाम् ] बिल्ली तथा हरिणके बच्चे आदिकोंमें [विशेष] कुछ विशेषता [ न स्यात् ] न होवे, सो [ एवं ] ऐसा [न] नहीं [ भवति ] होता, क्योंकि [मू विशेषेण ] ममत्वपरिणामोंकी विशेषतासे [ तेषां ] उन बिलाव तथा हरिणके बच्चे प्रमुख जीवोंके [ विशेषः ] विशेषता है, अर्थात् समानता नहीं है।
१-नैष कदाचित्सङ्ग इत्यपि पाठः । २-सुवर्ण, रजत, मन्दिर वस्त्रादिक चेतनाहीन पदार्थ । ३-पुत्र, कलत्र, दासी, दास, प्रमुख सचेतन पदार्थ । ४-चूहेका बैरी अर्थात् बिलाव ।