Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 75
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् . [३- ब्रह्मचर्य व्रत __ भावार्थ-पुरुष, स्त्री और नपुंसक ये तीन वेद हैं। इन तीन वेदोंकी रागभावरूप उत्तेजनासे मिथुन अर्थात् जोड़ेका सहवास होना अब्रह्म कहलाता है। अब्रह्ममें हिंसाका सब स्थानोंमें सद्भाव है; बल्कि यों कहना चाहिये, कि विना हिंसाके अब्रह्म होता ही नहीं है, अब्रह्ममें हिंसा कई प्रकारसे घटित होती है, यथा १ स्त्रीके योनि, नाभि, कुच, काँख आदि स्थानोंमें सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय जीव सर्वदा उत्पन्न होते रहते हैं; और मैथुनमें उनके द्रव्यप्राणोंका घात अवश्य ही होता है।... हिस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ।। १०८ ।। अन्वयार्थी-[ यद्वत् ] जिस प्रकार [ तिलनाल्यां ] तिलोंकी नलीमें [तप्तायसि विनिहिते] तप्त लोहके डालनेसे [ तिला: ] तिल [ हिंस्यन्ते ] नष्ट होते हैं-भुन जाते हैं, [ तद्वत् ] उसी प्रकार [मैथुने] मैथुनके समय [योनौ] योनिमें भी [बहवो जीवाः] बहुतसे जीव [हिंस्यन्ते] मरते हैं। यदपि क्रियते किञ्चिन्मदनोद्रकावनङ्गरमरणादि । तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात् ॥ १०६ ।। अन्वयाथों-ौर [अपि] इसके अतिरिक्त [मदनोद्रेकात्] कामकी उत्कटतासे [यत् किञ्चित्] जो कुछ [अनङ्गरमणादि ] अनङ्गरमणादि' [क्रियते ] किया जाता है [ तत्रापि ] उसमें भी [रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात्] रागादिकोंकी उत्पत्तिके वशसे [हिंसा] हिंसा [भवति] होती है । भावार्थ-रागादिक भावोंकी तीव्रताके विना अनंगक्रीड़ाका होना असंभव है, और जहां रागादिकोंकी अधिकता है वहां हिंसा है, अतएव अनङ्गक्रीड़ा भी हिंसा है। ये निजकलत्रमात्रं परिहतु शक्नुवन्ति न हि मोहात् । निःशेषशेषयोषिनिषेवरणं तैरपि न कार्यम् ॥ ११० ॥ अन्वयाथों-[ये] जो जीव [ मोहात् ] मोहके कारण [ निजकलत्रमानं ] अपनी विवाहिता स्त्रीमात्रको [ परिहतु] छोड़नेको [ हि ] निश्चय करके [न शक्नुवन्ति] समर्थ नहीं हैं, [ तैः ] उन्हें [निःशेषशेषयोषिनिषेवरणं अपि ] अवशेष स्त्रियोंका सेवन तो अवश्य ही [ न ] नहीं [ कार्यम् ] करना चाहिये। १- सहवास करनेके योग्य योनि आदि अंगोंसे भिन्न गुदा हस्त आदि अंगोंके द्वारा तथा गाय, भैस आदि पशुओंमें जो काम क्रीड़ाकी जाती है, उसे अनंगक्रीड़ा कहते हैं । २-न च परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसंतोषनामापि ॥ ५९॥-रत्नकरण्डश्रावकाचारे ।। अर्थात्-जो मनुष्य पापके भयसे परस्त्रीके पास न जाता है और न दूसरेको जाने देता है, यह परस्त्रीत्यागी अथवा स्वदारसंतोष व्रती है । जाना अर्थात् सहवास करना।

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