Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ ३१ श्लोक ४६-४७-४८-४६ ] पुरुषार्थसिद्धयु पायः। हिंसायाविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा तस्मात्प्रमत्तयोगे प्रारणव्यपरोपरणं नित्यम् ॥ ४८ ।। अन्वयाथों-[ हिंसायाः ] हिंसासे [ अविरमणं ] विरक्त न होना [ हिंसा ] हिंसा, और [ हिंसापरिणमनम् ] हिंसारूप परिणमना [ अपि ] भी [ हिंसा ] हिंसा [ भवति ] होती है। [ तस्मात् ] इसलिये [ प्रमत्तयोगे ] प्रमादके योगमें [ नित्यम् ] निरन्तर [ प्राणव्यपरोपणं ] प्राणघातका सद्भाव है। भावार्थ-परजीवके घातरूप हिंसा दो प्रकार की होती है-पहली अविरमणरूप और दूसरी परिणमनरूप । १-अविरणरूप हिंसा उसे कहते हैं, जो जीवके परघातमें प्रवृत्त न होनेपर भी हिंसा त्यागकी प्रतिज्ञाके बिना हुआ करती है। क्रियाके बिना ही यह हिंसा क्यों होती है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जिस पुरुषके हिंसाका त्याग नहीं है, वह यद्यपि सोते हुए बिलावकी तरह किसी समय हिंसामें प्रवृत्ति नहीं भी करता, परन्तु उसके अन्तरंगमें हिंसा करनेके भावका सद्भाव है, अतएव वह अविरमणरूप हिंसाका भागी होता है। २--परिणमनरूप हिंसा उसे कहते हैं, जो जीवको परजीवके घातमें मन, वचन, कायसे प्रवृत्त होनेपर होती है। इन दोनों प्रकारकी हिंसाओंमें प्रमादसहित योगका अस्तित्व पाया जाता है, और जबतक प्रमाद पाया जाता है, तबतक हिंसाका अभाव किसी प्रकार नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमादयोगमें सदाकाल परजीवकी अपेक्षा भी प्राणघातका सद्भाव होता है। अतएव प्रमादके परिहारार्थ परजीवोंकी हिंसाके त्यागमें दृढ़प्रतिज्ञ होना चाहिये, जिससे दोनों प्रकार की हिंसाोंसे बचा रहे। सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुसः । हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।। ४६ ॥ अन्वयाथों-[खलु] निश्चयकर [ पुसः ] आत्माके [ परवस्तुनिबन्धना ] पर वस्तुका है, निबंधन (कारण) जिसमें ऐसी [ सूक्ष्महिंसा अपि ] सूक्ष्महिंसा भी [ न भवति ] नहीं होती है, [तदपि] तो भी [ परिणामविशुद्धये ] परिणामोंकी निर्मलताके लिए [ हिंसायतननिवृत्तिः ] हिंसाके पायतन परिग्रहादिकोंका त्याग [ कार्या ] करना उचित है। भावार्थ-रागादिक कषाय भावोंका होना ही हिंसा है । परवस्तुका इससे कोई सम्बन्ध नहीं; परन्तु रागादिक परिणाम परिग्रहादिकके निमित्तसे ही होते हैं, इस कारण परिणामोंकी विशुद्धताके अर्थ परिग्रहादिका भी त्याग करना चाहिये; क्योंकि, जिस माताका सुभट पुत्र होता है, उससे यह कहा जाता है कि मैं तेरे सुभटको मारूंगा। परन्तु जिस बाँझके पुत्र ही नहीं है, उसपर यह परिणाम क्योंकर हो सकते हैं कि मैं तेरे पुत्रको मारूगा ? सारांश परिग्रहादिका अवलम्बन होनेसे ही कबायकी उत्पत्ति होती है, परन्तु जब उनसे सम्बन्ध ही नहीं है तो कहाँसे हो ?

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140