Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 104
________________ ७६ श्लोक १७४-१८२) पुरुषार्थसिद्धय पायः। अन्वयार्थी -[ सम्यक्त्वे ] सम्यक्त्वमें [ व्रतेषु ] व्रतोंमें और [ शोलेषु ] शीलोंमें [ पञ्च पञ्चेति ] पांच पांच के क्रमसे [ अमी ] ये [ सप्ततिः ] सतर (जो आगे कहे जाते हैं। [ यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनः ] यथार्थ शुद्धिके रोकनेवाले [ अतिचाराः ] प्रतीचार' [ हेयाः ] त्याग करने योग्य हैं । भावार्थ-सम्यग्दर्शनके ५, पाँच अणुव्रोंके पाँच पाँचके हिसाबसे २५,दिग्वतादि सात शीलोंके ३५ और सल्लेखनाके २ ५, इस प्रकार ७० प्रतीचार होते हैं, जिनका निरूपण आगे श्लोकोंमें क्रमसे किया जावेगा। प्रतीचारोंका त्याग परमावश्यक है, क्योंकि इनसे व्रतादिक दूषित होते हैं। शङ्का' तथैव कांक्षा विचिकित्सा संस्तवोऽन्यदृष्टीनाम् । मनसा च तत्प्रशंसा सम्यग्दृष्टरतीचाराः ॥१८२॥ अन्वयाथों-[ शङ्का ] सन्देह [ कांक्षा ] वांछा [ विचिकित्सा ] ग्लानि [ तथैव ] वैसे ही [ अन्यदृष्टीनाम् ] मिथ्यादृष्टियोंकी [ संस्तवः ] स्तुति [च ] और [ मनसा ] मनसे [ तत्प्रशंसा ] उन अन्यदृष्टियोंकी प्रशंसा करना, [ सम्यग्दृष्टेः ] सम्यग्दृष्टिके [ प्रतीचाराः ] अतीचार हैं। भावार्थ-१ सर्वज्ञप्रणीत अनेकान्तात्मक मतमें सन्देह करना, २ इस लोक परलोकसम्बन्धी भोगोंकी इच्छा करनी, ३ अनिष्ट तथा दुर्गधित वस्तुयें देखकर घृणा करनी, ४ पाखंडी विमियोंकी वचनसे स्तुति करनी और ५ उन्हींकी चित्तसे सराहना करनी, ये सम्यक्त्वके पाँच प्रतीचार हैं। अब यहाँपर यह शंका उत्पन्न होती है, कि सम्यक्त्वके तो शंकादिक पाठ मल हैं ही; जिनके प्रभावसे निर्मल सम्यक्त्व प्रसिद्ध होता है । यहाँपर पाँच क्यों कहे ? सो इसका समाधान केवल इतना ही है कि अन्यत्र जो पाठ मल कहे हैं वे सब यदि विचारपूर्वक देखे जावें, तो इन पाँचोंमें ही घटित हो जावेंगे, ऐसा कोई बाकी नहीं रहेगा; जो इन पाँचोंमेंसे किसीमें गर्भित न हो। बुद्धिमानोंको चाहिये कि वे विचारपूर्वक गभित कर देखें । जैसे अन्यदृष्टिकी प्रशंसा करनेमें मूढदृष्टि नामक सम्यक्त्वका प्रतीचार होता है; इस प्रकार अन्य भी जानना चाहिये। १-अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिय॑तिक्रमो यो विषयाभिलाषः । तथातिचार करालसत्वं भङ्गो ह्यनाचारमिह व्रतानाम् ॥ भावार्थ-इन व्रतोंके प्रति कम करनेरूप विकारसे मनशुद्धिमें मलिनताके प्रवेश होनेको अतिक्रम विषयाभिलाषारूप मलिनताके प्रवेशको व्यतिक्रम, इन व्रतोंके चरित्रमें प्रालस्य अर्थात् शिथिलता होनेको प्रतीचार पौर सर्वथा व्रत भङ्ग होनेको अर्थात तोड़ देनेको अनाचार कहते हैं। श्रावकाचारके इस वचनसे चरित्रमें किंचिन्मात्र शिथिलता होनेको प्रतीचार कहते हैं। यह शिथिलता हरएक व्रतमें जितने, भेदरूप होती है, वह क्रमसे बतलाई है। उन प्रत्येक प्रतीचारका उक्त लक्षण भलीभांति घटित होता है, वह विचारपूर्वक घटा लेना चाहिये । अतिक्रम और व्यति कम भी व्रतोंके दूषण हैं परन्तु उनके भेद प्रभेद अतिशय सूक्ष्म होते हैं। इसलिये उनका विवरण इस छोटेसे ग्रन्थ में नहीं किया जा सकता। २-यहाँ शीलोंमें सल्लेखनाका भी ग्रहण किया है। ३-शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवः सम्यादृष्टेरतीचाराः ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ७, सूत्र २३ )। ४-स्नानादि ब विवर्जित मुनियोंके मलिन शरीरको देखकर ग्लानिसे नाक भौंह सिकोड़नेका भी यहाँ अभिप्राय है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140