Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 129
________________ श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ ५-रत्नत्रय मोक्षका कारण और ग्रंथकारकी लघुता०-२२६ भावार्थ - जिस नयके कथनका प्रयोजन द्रव्यसे हो उसे द्रव्यार्थिक और जिसका प्रयोजन पर्य्यायसे ही हो उसे पर्य्यायार्थिक नय कहते हैं । इन दोनों नयोंसे ही वस्तुके यथार्थ स्वरूपका साधन होता है, अन्य मान्य न्यायोंसे वस्तुका साधन कदापि नहीं हो सकता । अब यहाँपर यह बतलाने के लिये, कि इन दोनोंसे जैनियों की नीति वस्तुस्वरूपका साधन किस तरह करती है, प्राचार्य्यं महाराजने एक विलक्षण उदाहरण दिया है, कि जिस तरह ग्वालिनी मक्खन वनानेरूप कार्यकी सिद्धि के लिये दही में मथानी चलाती है और उसकी रस्सीको जिस समय एक हाथसे अपनी ओर खींचती है, उस समय दूसरे हाथको शिथिल कर देती है और फिर जब दूसरे से अपनी ओर खींचती है, तब पहिलेको शिथिल करती है; एकके खींचनेपर दूसरेको सर्वथा छोड़ नहीं देती। इसी प्रकार जैनीनीति जब द्रव्यार्थिकनय से वस्तुका ग्रहण करती है, तब पर्य्यायार्थिकनयकी अपेक्षा वस्तु में उदानीन भाव धारण करती है, और जब पर्यायार्थिकनय से ग्रहण करती है, तब द्रव्यार्थिककी अपेक्षा उदासीनता धारण करती है, जिस किसीको सर्वथा छोड़ नहीं देता और अन्त में वस्तुके यथावत् स्वरूप कार्यकी सिद्धि करती है। जैनी जिस समय द्रव्यार्थिकको मुख्य मानके जीवका स्वरूप नित्य कहते हैं, उस समय पर्यायकी अपेक्षा उदासीन रूपसे अनित्य भी कहते हैं । १०४ वर्णैः कृतानि चित्रः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि । वाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ।। २२६ ।। अन्वयार्थी - [ चित्रः ] नाना प्रकारके [ वर्णै: ] अक्षरोंसे [ कृतानि ] किये हुए [ पदानि ] पद, [ पद: ] पदोंसे [ कृतानि ] बनाये गये [ वाक्यानि ] वाक्य हैं, [तु ] और [ वाक्यैः ] उन वाक्योंसे [ पुनः ] पश्चात् [ इदं ] यह [ पवित्रं ] पवित्र पूज्य [ शास्त्रम् ] शास्त्र [कृतं ] बनाया गया है, [ श्रस्माभिः ] हमने [ न 'किमपि कृतं' ] कुछ भी नहीं किया । भावार्थ- 'थकर्त्ता प्राचार्य अपनी लघुता प्रकट करनेके लिये कहते हैं कि प्रकारादि सम्पूर्ण अक्षर पौद्गलिक हैं, अनादि निधन हैं. इन्हींका जब विभक्त्यन्त समुदाय होता है, तब पद कहलाता है, तथा अर्थ सम्बन्धपर्यन्त क्रियापूर्ण पदोंका समूह वाक्य कहलाता है, और उन्हीं वाक्योंका वह एक समुदायरूप ग्रन्थ हो गया है। इसलिये इसमें मेरो कृति कुछ भी नहीं है, सब स्वाभाविक रचना है। शुभमस्तु । इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिणां कृतिः पुरुषार्थसिद्धय पायोऽयं नाम जिनप्रवचन रहस्यकोषः समाप्तः ॥ १- इसी भावका श्लोक वर्णाः पदानां कर्तारो वाक्यानां त पदावलिः । तु वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृ रिण न पुनर्वयम् ।। २३ ।। -- श्रीअमृतचन्द्रसूरिकृत तत्त्वार्थसार ।

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