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श्रीमद् राजचन्द्रजंन शास्त्रमालायाम्
[३-अहिंसा तत्त्व एकः करोति हिसां भवन्ति फलभागिनो बहवः ।
बहवो विदधति हिंसा हिंसाफलभुग भवत्येकः ।।५।। अन्वयाथों-[ एकः ] एक पुरुष [ हिंसां ] हिंसाको [ करोति ] करता है, परन्तु [ फलभागिनः ] फल भोगनेके भागी [ बहवः ] बहुत [ भवन्ति ] होते हैं, इसी प्रकार [ हिंसां ] हिंसाको [ बहवः ] बहुत जन [ विदधति ] करते हैं, परन्तु [ हिंसाफलभुक् ] हिंसाके फलका भोक्ता [ एकः ] एक पुरुष होता है। :
भावार्थ-किसी जीवको मारते देखकर अन्य देखनेवाले जी अच्छा कहते और प्रसन्न होते हैं, वे सब ही हिंसाफलके भागी होते हैं । इसीसे कहते हैं कि एक करता है और फल अनेक भोगते हैं । तथा इसी प्रकार संग्राममें हिंसा तो अनेक पुरुष करते हैं, परन्तु उनपर आज्ञा करनेवाला राजा उस सब हिंसाके फलका भागी होता है, अर्थात् अनेक करते हैं और फल एक भोगता है। .
कस्यापि दिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फलकाले ।
अन्यस्य सैव हिंसा दिशाहंसाफलं विपुलम् ।। ५६ ॥ अन्वयायौं -[ कस्यापि ] किसी पुरुषको तो [ हिंसा ] हिंसा [ फलकाले ] उदयकालमें [ एकमेव ] एक ही [ हिंसाफलम् ] हिंसाके फलको [ दिशति ] देती है, और [ अन्यस्य ] किसी पुरुषको [ सैव ] वही [ हिंसा ] हिंसा [ विपुलम् ] बहुतसे [ अहिंसाफलं ] अहिंसाके फलको [ विशति ] देती है।
हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे।
इतरस्य पुनहिंसा दिशयहिंसाफलं नान्यत् ॥ ५७ ॥ अन्वयाथों-[तु अपरस्य ] और किसी को [ अहिंसा ] अहिंसा [ परिणामे ] उदयकालमें [ हिंसाफलम् ] हिंसाके फलको [ ददाति ] देती है, [ तु पुनः ] तथा [ इतरस्य ] अन्य किसीको [हिंसा] हिंसा [ अहिंसाफलं ] अहिंसाके फलको [दिशति ] देती है, [अन्यत् न ] अन्य फलको नहीं।
भावार्थ-कोई जीव किसी जीवके बुरा करनेका यत्न कर रहा हो, परन्तु उस ( जीव ) के पुण्यसे कदाचित् बुरेकी जगह भला हो जावे, तो भी बुराईका यत्न करनेवाला बुराईके फलका भागी होगा। इसी प्रकार कोई वैद्य नीरोग करनेके अर्थ किसी रोगीकी औषध कर रहा हो और बह रोगी कदाचित् कारणवश मर जावे, तो वैद्य अहिंसाके ही फलको भोगेगा।
इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः ॥ ५८ ॥