Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 79
________________ ५४ श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् हरित तृणाङ, कुरचारिणमन्दा मृगशावके भवति मूर्छा । उन्दुरुनिक रोन्माfथनि मार्जारे सेव जायते तीव्रा ।। १२१ ।। [ ३ - परिग्रहणप्रमाण व्रत अन्वयार्थी – [ हरिततृरणाङ्कुर चारिणि ] हरे घासके अंकुर चरनेवाले [ मृगशावके] हरिणके बच्चेमें [मूर्छा] मूर्छा [मन्दा] मन्द [भवति ] होतो है, और [सा एव] वही हिंसा [ उन्दुरुनिकरोन्माfatt] चूहों के समूहका उन्मथन करनेवाले [मार्जारे] बिलाव में [तीव्रा ] तीव्र [जायते ] होती है । भावार्थ - हरिणका बच्चा एक तो स्वभावसे ही हरित तृणोंके पानेके अधिक शोध में नहीं रहता, दूसरे जब उसे हरी घास मिल भी जाती है; तो थोड़ीसी आहट पाकर छोड़के भाग जाता है; परन्तु बिल्ली एक तो अपने खाद्य की खोज में स्वभावसे ही अधिक चेष्टित रहती है, दूसरे खाद्य मिल जानेपर बह उसमें इतनी अनुरक्त होती है कि सिरपर लठ्ठ पड़ जावें तो भी उसे नहीं छोड़ती, प्रतएव हरिण और बिल्ली ये दो मन्द मूर्छा और तीव्र मूर्छाके अच्छे सरल और प्रकट उदाहरण हैं । इन ममत्वपरिणामोंको विशेषता से ही परिग्रह विशेष होता है, ऐसा निश्चय जानना चाहिये । निर्बाधं संसिध्येत् कार्यविशेषो हि काररणविशेषात् । श्रधस्यखण्डयोरिह माधुर्य्यप्रीतिभेद इव ।। १२२ ॥ श्रन्वयार्थी - [ श्रौधस्यखण्डयोः ] दूध और खांड (शक्कर) में [ माधुर्यप्रीतिभेद इव] मधुरता के प्रीतिभेदके समान [ इह ] इस लोकमें [हि ] निश्चयकर [ कारणविशेषात् ] कारणकी विशेषतासे [कार्यविशेषः ] कार्यका विशेषरूप [निर्बाधं] बाधा रहित [ संसिध्येत् ] भले प्रकार सिद्ध होता है । माधुर्यप्रीतिः किल दुग्धे मन्देव मन्दमाधुर्ये । सैवोत्कटमाधुर्ये खण्डे व्यपदिश्यते तीव्रा ।। १२३ ॥ अन्वयार्थी – [ किल ] निश्चयकर [ मन्दमाधुर्ये ] अल्प मिठासवाले [ दुग्धे ] दूधमें [ माधुर्यप्रीतिः ] मिठासकी रुचि [मन्दा] थोड़ी [ एव ] ही [ व्यपदिश्यते ] कही जाती है, और [सा एव ] वही मिठासकी रुचि [उत्कटमाधुर्ये ] अत्यन्त मिठासवाली [ खण्डे ] खांड अर्थात् शक्कर में [ तीव्रा ] अधिक की जाती है । भावार्थ - जो पुरुष मिष्ठरसका लोलुपी होता है, उसे दूधकी अपेक्षा शक्कर में अधिक प्रीति होती है; इसी प्रकार बाह्य परिग्रहोंका अल्प रुचिकर और विशेष रुचिकर कारण पाकर अन्तरंग परिणाम होते हैं । बहुत प्रारम्भ परिग्रह व्यापार होता है, तो ममत्व भी अधिक होता है, और जो परिग्रह अल्प होता है, ममत्व भी अल्प होता है । हां, किसी किसी पुरुषके परिग्रहके अल्प होते हुए भी अभिलाषारूप ममत्वभाव अधिक होते हैं । परन्तु इसमें आगामी काल में होनेवाले बाह्य परिग्रहका सङ्कल्प कारणभूत समझना चाहिये, परन्तु यदि कोई पुरुष परिग्रहको अंगीकार करता जावे और कहे कि मेरे अन्तरंग में ममत्वभाव नहीं है तो इसे सर्वथा झूठ समझना चाहिये, क्योंकि हिंसा तो परिणामोंके

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