Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 126
________________ लोक २१७-२२१ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः । १०१ मावार्थ – सम्यक्त्व और चारित्र विद्यमान योग- कषायोंसे तीर्थ कर श्रौर प्राहारक प्रकृतिके बंधक हैं, क्योंकि सम्यक्त्व चारित्र के विना यह बंध नहीं होता; परन्तु स्मरण रहे कि सम्यक्त्व तथा चारित्र इस बंधन तो कर्त्ता ही हैं, और न श्रकर्त्ता ही हैं, उदासीन हैं। जैसे महामुनियों के समीपवर्ती जातिविरोधी जीव अपना अपना वैर-भाव छोड़ देते हैं, परन्तु जानना चाहिये कि महामुनि इस वैरभाव त्यागरूप कार्यके न तो कर्त्ता ही हैं और न प्रकर्त्ता । कर्त्ता इस कारण नहीं हैं, कि वे योगारूढ़ उदासीन वृत्तिके धारक बाह्यकार्योंसे पराङमुख हैं । प्रकर्त्ता इस कारण नहीं हैं, कि यदि वे न होते, तो उक्त जीव - विरोध त्यागी भी नहीं होते, अतएव कर्त्ता प्रकर्त्ता न होकर उदासीन हैं, इसी प्रकार तीर्थ कर श्राहारकप्रकृतिबंधरूप कार्य में सम्यक्त्वचारित्रको जानना चाहिये । ननु कथमेवं सिद्धयति देवायुःप्रभृतिमत्प्रकृतिबन्धः । सकलजन सुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ॥ २१६ ॥ अन्वयार्थी - [ ननु ] शंका- कोई पुरुष शंका करता है कि [ रत्नत्रयधारिणां ] रत्नत्रयधारी [ मुनिवराणाम् ] श्रेष्ठ मुनियोंके [ सकल जनसुप्रसिद्धः ] समस्त जनसमूह में भलीभाँति प्रसिद्ध [ देवायुः प्रकृतिबन्धः ] देवायु आदिक उत्तम प्रकृतियोंका बन्ध [ एवं ] पूर्वोक्त प्रकार से [ कथम् ] कैसे [ सिध्यति ] सिद्ध होगा ? भावार्थ - रत्नत्रयधारी मुनियोंके देवायु श्रादिक पुण्य प्रकृतियोंका बन्ध होता है, यह सब लोग अच्छी तरहसे जानते हैं, परन्तु अब आप जब रत्नत्रयको निर्बंन्ध सिद्ध कर चुके हैं, तब यह बतलाइये के इनके बंधका कारण क्या कोई और हैं अथवा यही रत्नत्रय है ? शिष्यका यह प्रश्न है । रत्नत्रयमिह हेतु निर्धारणस्यैव भवति नान्यस्य । प्रात्रवति यत्त पुण्यं शुभोवयोगोऽयरपराधः ।। २२० ।। ܒ प्रन्वयार्थी - [ इह ] इस लोक में [ रत्नत्रयम् ] रत्नत्रयरूप धर्म [ निर्वाणस्य एव ] निर्वाणका ही [ हेतु ] हेतु [ भवति ] होता है. [ अन्यस्य ] अन्य गतिका [ न ] नहीं, [तु ] और [ यत् जो रत्नत्रय में पुष्यं श्रास्रवति ] पुण्यका प्रास्रव होता है, सो [ अम् ] यह [ अपराधः ] अपराव [भोपयोगः ] शुभोपयोगका है । भावार्थ- पूर्व की प्रार्या में किये हुए प्रश्नका उत्तर है कि गुणस्थानोंके अनुसार मुनिजनोंके जहाँ रत्नत्रयकी श्राराधना है, वहाँ देव, गुरु, शास्त्र, सेवा, भक्ति, दान, शील, उपवासादि रूप शुभोपयोगका भी अनुष्ठान है । यही शुभोपयोगका अनुष्ठान देवायु प्रमुख पुण्यप्रकृति बंधका कारण है, अर्थात् इस पुण्यप्रकृतिबन्ध में शुभोपयोगका अपराध है, रत्नत्रयका नहीं । सांरांश - रत्नत्रय पुण्यप्रकृतिबन्धका भी कारण नहीं है । एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि । इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः ॥ २२१॥

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