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श्लोक १३४-३६]
पुरुषार्थसिद्धय पायः । अन्वयायौ -[ सुप्रसिद्ध : ] अच्छे प्रसिद्ध [ अभिज्ञानैः ] ग्राम, नदी, पर्वतादि नाना चिह्नोंसे [ सर्वतः ] सब ओर [ मर्यादां ] मर्यादाको [ प्रविधाय ] करके [ प्राच्यादिभ्यः ] पूर्वादि [दिग्भ्यः] दिशामों से [ अविचलिता विरतिः ] गमन न करने को प्रतिज्ञा [ कर्तव्या ] करना चाहिये।
भावार्थ- प्रथम गुणव्रतका नाम दिग्व्रत है। दिग्व्रत उसे कहते हैं जिसमें उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, अवः और ऊर्ध्व इन दश दिशाओं में गमन न करने की प्रतिज्ञा यावज्जीवके लिये धारण की जाती है। यह प्रतिज्ञा दिशाओं और विदिशामों में नदी, पर्वत, नगरादिक प्रसिद्ध स्थानों के सकेतसे की जाती है। जैसे उत्तर में गंगानदी, दक्षिण में नीलगिरि पर्वत, पूर्व में छत्तीसगढ़, पश्चिममें खंभात, ईशानमें पटना, प्राग्नेयमें कटक, नैऋत्य में कावेरी नदी, और वायव्य में प्राबू पर्वत तक जानेकी यदि किसी पुरुषकी प्रतिज्ञा होगी, तो वह इन नियमित स्थानोंसे आगे नहीं जासकेगा। और अधोदिशाकी प्रतिज्ञा कूप, खातिकादिकों की गहराईसे तथा ऊर्ध्व दिशाकी मन्दिर, पर्वतादिकोंकी ऊंचाई से की जाती है, जैसे यदि किसी पुरुषके अधो दिशामें ५० गज और ऊर्ध्वदिशामें २०० गज जानेकी प्रतिज्ञा हो, तो वह ५० गजसे नीचे कुपादिकोंमें तथा २०० गजसे ऊचे मंदिर पर्वतों पर नहीं जासकेगा।
__ इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य ।
सकलासंयमविरहावयाहिंसाव्रतं पूर्णम् ।।१३८। अन्वयार्थी - [ यः ] जो [ इति ] इस प्रकार [ नियमित दग्भागे ] मर्यादाकृत दिशात्रों के हिस्से में [ प्रवर्तते ] बर्ताव करता है, [ तस्य ] उस पुरुषके [ ततः ] उस क्षेत्रसे [ बहिः ] बाहिर [ सकलासंयमविरहात् ] समस्त ही असंयमके त्यागके कारण [ पूर्णम् ] परिपूर्ण [ अहिंसावतं ] अहिंसावत [ भवति ] होता है ।
भावार्थ- जहाँतककी मर्यादा की जाती है, उसके बहिर्गत समस्त त्रस स्थावरोंके घातका त्याग हो जाता है और इस कारण मर्यादासे बाहिर महाव्रत कहे गये हैं, अतएव दिग्व्रत धारण करना परमावश्यक है।
तत्रापि च परिमारणं ग्रामापरणभवनपाटकादीनाम् ।'
प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमरणं देशात् ॥१३॥ अन्वयार्थी- [च ] और [ तत्र प्रपि ] उस दिग्व्रत में भी [ ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् ] ग्राम, बाजार, मन्दिर, मुहल्लादिकोंका [ परिमाणं ] परिमाण [ प्रविधाय ] करके [देशात्] मर्यादा कृत क्षेत्र से बाहिर [ नियतकालं ] किसी नियत समयपर्यन्त [ विरमरणं ] त्याग [ करणीयं ] करना चाहिये।
भावार्थ-दूसरे गुणव्रतको देशवप्त कहते हैं । दिग्व्रत और देशव्रतमें इतना अन्तर है कि दिग्वत में जो त्याग होता है, वह सदाकालके लिये अर्थात् यावज्जीव होता है, और देशव्रतमें कालकी मर्यादा पूर्वक वर्ष, छह महीना, मास, पक्ष वा दो दिन, चार दिन, घड़ी दो घड़ी आदिका त्याग किया जाता है, तथा दिग्व्रतमें जितने क्षेत्रकी मर्यादा की जाती है, देशव्रतमें उसके मध्यवर्ती थोड़े से क्षेत्रकी प्रतिज्ञा की जाती है, जैसे अमुक प्रदेश से बाहिर कभी नहीं जावेंगे, यह दिग्व्रत और इतने दिन या इतने समय तक अमुक ग्राम तथा मुहल्लेसे बाहिर नहीं जावेंगे, यह देशवत है। १-ग्रामापणभवनवाटिकादीनामित्यपि पाठः ।