Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 53
________________ श्रीमद् राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्। [ तृतीय अधिकार सम्यरुचारित्र हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः। कात्स्न्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ॥ ४०॥ अन्वयाथी -[ हिंसातः ] हिंसासे, [ अनतवचनात् ] असत्य भाषणसे, [स्तेयात् ] चोरीसे, [अब्रह्मतः ] कुशीलसे, और [ परिग्रहतः | परिग्रहसे [ कात्स्न्यै कदेशविरतेः ] सर्वदेश पोर एकोदेश त्यागसे वह [ चारित्रं ] चारित्र [ द्विविधम् ) दो प्रकारका [ जायते ] होता है। भावार्थ-हिंसादिक पापोंके सर्वथा त्यागको सकलचारित्र और एकोदेश त्यागको देशचारित्र कहते हैं। निरतः कात्य॑निवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम् । या त्वेकदेशविरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥ ४१ ।। अन्वयाथों-[ कात्य॑निवृत्तौ ] सर्वथा सर्वदेशत्यागमें [ निरतः ] लवलीन [ अयम् यतिः ] यह मुनि [ समयसारभूतः ] शुद्धोपयोगरूप स्वरूप में आचरण करनेवाला [ भवति ] होता है। [या तु एकदेशविरतिः ] और जो एकदेशविरति है, [ तस्याम् निरतः ] उसमें लगा हुआ [ उपासकः ] उपासक अर्थात् श्रावक [ भवति ] होता है। भावार्थ-सकलचारित्रका स्वामी मुनि और देश चारित्रका स्वामी श्रावक है । प्रात्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।। ४२ ॥ अन्वयाथों-[प्रात्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात् ] आत्माके शुद्धोपयोगरूप परिणामोंके घात होनेके हेतुसे [ एतत्सर्वम् ] ये सब [ हिंसा एव ] हिंसा ही हैं, [ अनृतवचनादि ] अनृत वचनादिक भेद [ केवलम् ] केवल [ शिष्यबोधाय ] शिष्योंको समझानेके लिये [ उदाहृतं ] उदाहरणरूप कहे हैं। भावार्थ-पाँचों पाप ( हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रह ) हिंसामें ही गर्भित हैं। क्योंकि इन सब पापोंसे प्रात्माके शुद्ध परिणामोंका घात होता है, इस कारण पाँचों पाप हिंसाके ही भेद हैं। यत्खलुकषाययोगात्प्रारणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिसा ।। ४३ ।। अन्वयार्थी -[ कषाययोगात् ] कषायरूप परिणमन हुए मन वचन कायके योगोंसे [यत् ] जो [ द्रव्यभावरूपारणम् ] द्रव्य और भावरूप दो प्रकारके [ प्राणानां ] प्राणोंका [ व्यपरोपरणस्य करणं ] व्यपरोपणका या घातका करना है, [ खलु ] निश्चयसे [ सा] वह [ सुनिश्चिता ] अच्छी तरह निश्चय की हुई [ हिंसा ] हिंसा [ भवति ] होती है।

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