Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 124
________________ श्लोक २१५-१६ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः । छंदन करती है, उसी प्रकार वेदनीयकर्म थोड़े समय के लिये साता दिखाकर अन्तमें असाता से पीड़ित रहता है। मोहनीयका स्वभाव मदिरा शराब ) के समान है, अर्थात् जिस प्रकार मदिरा जीवोंको सावधान कर देती है, उसी प्रकार मोहनीयकर्म म्रात्माको संसार में पागल सा बना देता है । आयुका स्वभाव खोड़े के समान है, जैसे खोड़ेमें ( काठमें ) चोर प्रादिका पाँव अटका देते हैं, और जिस प्रकार काठके रहते चोर श्रादि निकल नहीं सकते, उसी प्रकार प्रयुकर्म के पूर्ण हुए विना नरकादिकसे नहीं निकल सकते । नामका स्वभाव चित्रकारके समान है अर्थात् जिस प्रकार चित्रकार नाना प्रकारके श्राकार बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म प्रात्मासे सम्बन्ध करके नाना प्रकार मनुष्य तिर्यञ्चादि बनता है । गोत्रका स्वभाव कुम्भकारके समान है, प्रर्थात् जिस प्रकार कुम्भकार छोटे बड़े नाना प्रकार के बर्तन बनाता है, उसी प्रकार गोत्रकर्म उच्च नीच गोत्रों में उत्पन्न करता है और अन्तिम अन्तरायका स्वभाव उस राजभंडारीके समान है, जो राजाके दिलानेपर भी किसीको दान नहीं देता, जैसे भंडारी भिक्ष ुकोंको लाभ नहीं होने देता, वैसे अन्तरायकर्म दान लाभादिमें प्रन्तराय डाल देता है । आठों कर्मोंका स्वरूप भलीभाँति हृदयाङ्कित करके अब जानना चाहिये, कि कर्मोंका उपर्य ुक्त स्वभावके सहित जीवके सम्बन्ध होने को प्रकृतिबन्ध कहते हैं । पृथक् पृथक् कर्मपरमाणुमों का पृथक् पृथक् मर्यादाको लिषे स्थिति होने को स्थितिबन्ध कहते हैं। ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनी और प्रन्तराय कर्मों की स्थिति तीस कोड़ा कोड़ीसाग रकी तथा मोहनीयके दो भेद दर्शन मोहनीय, चारित्रमोहनीय, इनमें से दर्शन मोहनीय सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर तथा चारित्रमोहनीयकी चालीस कोड़ाकोड़ी सागरकी और नामगोत्रकर्मकी बीस कोडाकोड़ी सागरकी और प्रायुकमंकी तेतीस ' सागरकी होती है । यह सम्पूर्ण कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है, और जघन्य स्थिति अर्थात् कमसे कम मर्यादा वेदनीयकी बारह मुहूर्त तथा नाम गोत्रकी आठ मुहूर्त की है । अवशेष सबकी प्रन्तमुहूर्त की है । ६६ उपर्युक्त प्राठों कर्मो के विपाक होनेको अर्थात् उदयमें श्राकार रस देनेको अनुभागबन्ध कहते हैं। यह विपाक शुभविपाक और प्रशुभविपाक ऐसे दो भेदरूप है। नीम, कांजी विष और हालाहल इन चारोंकी कटुता तथा गुड़, खांड़ मिश्री, प्रमृतकी मधुरता जिस प्रकार उत्तरोत्तर अधिक है, उसी प्रकार शुभविपाकका और शुभविपाकका रस भी उत्तरोत्तर अधिक होनेसे अनेक भेदरूप होता है । आत्मा के प्रसंख्य प्रदेश हैं । इन श्रसंख्य प्रदेशों में से एक एक प्रदेशपर अनन्तानन्त कर्म्मवर्गणाओ के श्रर्थात् बंधजीव के प्रदेशों, और पुद्गल के प्रदेशोंके एक क्षेत्रावगाही होकर स्थिर होनेको प्रदेशबन्ध कहते हैं । यह चारों प्रकार के बंघका संक्षित स्वरूप है । इन्हीं चारोंमेंसे प्रकृतिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध योगोंसे और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध कषायों से होता है । दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ।। २१६ ।। १ - तेतीस सागरसे अधिक आयु किसी भी जीवकी किसी भी गतिमें नहीं है ।

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