Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 94
________________ ६१ श्लोक १६३-१६५ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः। भावार्थ-मोक्षाभिलाषी पुरुषको अपने पदस्थ के विरुद्ध समस्त बाह्य पदार्थ त्यागने योग्य हैं, प्रतएव जिस प्रकार वह अयोग्य पदार्थों का त्याग करता है, उसी प्रकार अपनी शक्त्यनुसार योग्य पदार्थोका भी त्याग करे। यदि कदाचित् योग्य पदार्थों के छोड़ने में समर्थ न हो, तो उन पदार्थोंको नियमित मर्यादा करके दिन, दो दिनके लिये ही छोड़ा करे।' - त्याग दो प्रकारके' होते हैं, एक यमरूप दूसरे नियमरूप । किसी पदार्थके यावज्जीव त्यागको यम और दिन, रात्रि, मास, ऋतु, अयन, वर्षादिककी मर्यादारूप त्यागको नियम कहते हैं। माय भोमोपभोगोका त्याग यावज्जीव अर्थात् यमरूप किया जाता है, और यदि शक्ति हो, तो योग्य मार भोगोंका त्याग भी यमरूप किया जाता है; परन्तु जब योग्य भोगोपभोगोंमें यमरूप त्यागकी शक्ति नहीं होती है, तब दिवस पक्षादिकके प्रमाणसे नियमरूप त्याग ग्रहण किया जाता है, जैसे "परस्त्री यावज्जीव त्याज्य है और मोक्षाभिलाषीका स्वस्त्री भी यावज्जीव त्याज्य है, किन्तु जो पुरुष मोहके उदयसे स्वस्त्रीके छोडने में असमर्थ है, उन्हें चाहिये कि. ऋतुःदिवसों में स्त्रस्त्रीका नियम का त्याग करे।" इसी प्रकार समस्त भोग्योपभोग्य पदार्थोंमें यम नियमरूप त्याग किया जाता है। पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्ष्य तात्कालिकों निवां शक्तिम् । सामन्यन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्तव्या ॥१६५॥ अन्वयार्थी-[ पूर्वकृतायां ] प्रथम की हुई [ सोमनि ] सीमामें [ पुनः ] फिर [अपि] भी [ तात्कालिकों ] उस समयकी प्रर्थात् विद्यमान समयकी [ निजां ] अपनी [ शक्तिम् ] शक्तिको [ समीक्ष्य ] विचार करके [ प्रतिदिवसं ] प्रतिदिन [ अन्तरसीमा ] अन्तरसीमा अर्थात् सीमामें भी थोड़ी सीमा [ कर्तव्या ] करने योग्य [ भवति ] होती है। भावार्थ-पहिले किये हुए भोगोपभोग परिमाणमें अपनी शक्तिके अनुसार मर्यादामें भी मर्यादा करना चाहिये और उसका यथाशक्ति अर्थात् जितना बन सके, उतना पालन करना चाहिये। गृहस्थ जो प्रतिदिन नियम ग्रहण करते हैं, उन्हें अन्तरसमावर्ती नियम कहते हैं। १-नियमो यमश्च विहितौ द्वधा भोगोपभोगसंहारात् । नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते ॥७॥ भोजनवाहनशयनस्नानपवित्राङ्गरागकुसुमेषु । ताम्बूलवसनभूषरणमन्मथसङ्गीतगीतेषु ॥ ८ ॥ प्रद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथतुरयनं वा ॥ इति कालपरिच्छित्या प्रत्याख्यानं भवेनियमः॥८६॥-रत्नकरण्डधा. २-निशा षोडश नारीणामुक्तः स्यात्तासु चादिमा। तिस्राः सर्वैरपि त्याज्या प्रोक्तास्तुर्यापि केनचित् ॥ अर्थात्-स्त्रियोंका ऋतुकाल सोलह रात्रि होता है, उसमेंसे आदिकी तीन रात्रि तो सबने ही त्याज्य कही है किमी किसी प्राचार्यने चौथी रात्रि भी त्याज्य कही है। ३- निम्नलिखित सत्रह अन्सरसीमावर्ती नियम गृहस्थको निरन्तर ग्रहण करना चाहियेभोजने' षट्रसे पाने कुङकुमादिविलेपने । पुष्प'- ताम्बूल'- गीतेषु नृत्यादौ ब्रह्मचर्यके ॥१॥ भूस्नान'-षण''-वस्त्रादौ वाहने शयना"सने। सचित्त''-वस्तु-संख्यादौ प्रमाणं भज प्रत्यहा२।

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