Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 117
________________ ६२ श्रीमद् राजचन्द्रमशास्त्रमालायाम् [५- द्वादशा प्रेक्षा दबाकर गर्मीके द्वारा पकाया जाना प्रविपाकनिर्जराका उदाहरण है। सविपाकनिर्जरा सम्पूर्ण समारी जीवोंके होती है, परन्तु अविपाकनिर्जरा' सम्यग्दृष्टि सत्पुरुषों तथा व्रतधारियों के ही होती है। निर्जराके स्वरूपका इस प्रकार चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। १०-लोकानुप्रेक्षा-दशों दिशागत शन्यरूप अनन्त प्रलोकाकाश है। इस प्रलोकाकाशके बहुमध्यवर्ती देश में पुरुषोंके आकार (सदृश) लोक स्थित है, यह लोक अनादिनिधन स्वयंसिद्ध रचनाके द्वारा स्थिर है। इसका न कोई कर्ता है और न कोई हर्ता है। इस पुरुषाकार लोकका उरुजंघादिदेश प्रघोलोक है । कटितटप्रदेश मध्यलोक है; उदर प्रदेश माहेन्द्र म्वर्गान्त है, हृदयप्रदेश ब्रह्म ब्रह्मोतर स्वर्ग है, स्कन्ध प्रदेश प्रारणाच्युत स्वर्ग है, महाभुजायें दोनों ओरकी मर्यादा हैं, कण्ठदेश नवप्रैवेथिक है, दाँढीदेश अनुदिशि है, ललाटदेश सिद्धक्षेत्र है और मस्तक सिद्धस्थान है । इस प्रकार पुरुषाकार लोककी पाकृति ध्यान में स्थितकर बारम्बार चिन्तवन करमेको लोकानुप्रेक्षा कहते हैं । १५-बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-इस घोर दुःखरूप संसारमें निगोद राशिमे निकलकर त्रस जन्मकी प्राप्ति दुर्लभ है। त्रस जन्ममें भी पंचेन्द्रिय महासमुद्र में गिरी हुई वज्रकणिकाकी प्राप्ति के तुल्य महादुर्लभ है, पंचेन्द्रियमें भी मनुष्य होना सब गुणोंमें कृतजता गुणकी नाई अति दुर्लभ है । एक मनुष्यपर्यायके पूर्ण होनेपर उसका पुनः प्रप्त करना मुख्यमार्गमें पड़े हुए रत्नके समान अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य जन्म म भा उत्तम कुल, उत्तम देश इन्द्रियोंकी पूर्णता, आरोग्यता, और सम्पत्ति पाना भस्मीभूत वृक्षकी भस्मसे वृक्षकी फिरसे उत्पत्तिके समान उत्तरोत्तर दुर्लभ है । अन्त में जाकर परम अहिंसामयी धर्म, धर्म में उत्तम श्रद्धा, गृहस्थधर्म, यतिधर्म तथा समाधिमरण पाना तो अतिशय दुर्लभ है। इस प्रकार रत्नत्रय रत्नके चिन्तवन करनेको बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं, अथवा परवस्तुकी प्राप्ति जो अपने वशमें नहीं है, वह होवे अथवा न होवे, परन्तु अपना स्वभाव आपमें ही है, कहींसे लाना नहीं है: उसकी प्राप्ति दुर्लभ क्यों मानना चाहिये ? इस प्रकारके चिन्तवनको भो दुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं। १२-धर्मानुप्रेक्षा-यह सर्वज्ञप्रणीत जैनधर्म अहिंसालक्षणयुक्त है । सत्य, शौच ब्रह्मचर्यादि इसके अङ्ग हैं। इनकी अप्राप्तिसे जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करता है, पापके उदयसे दुःखी होता है, परन्तु इसकी प्राप्तिसे अनेक सांसारिक सम्पदामोंका भोग करके मुक्ति प्राप्तिसे सुखी होता है. इस प्रकार चिन्तवन करनेको धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं । क्षुत्तृष्णा हिममुष्णं नग्नत्वं याचनारतिरलाभः । दंशो मशकादीनामाकोशो व्याधिदुःखमङ्गमलम् ।।२०६॥ १-इसके भी दो भेद हैं, एक शुभानुबन्धा और दूसरी निरनुबन्धा, जिसमें स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है, उसे शुभानुबन्धा और जिससे मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है, उम निरन्बन्धा कहते हैं। २-जैनधर्मका पुरुषाकार लोक जाननेके लिये तिल्लोयपण्णत्ति,धवलसिद्धान्त ग्रन्थ, त्रिलोकसार, जम्बूदीपप्रज्ञप्ति, मूर्यप्रजप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति प्रादि महान पन्थ देखना चाहिए। ३-क्षुत्पिपासाशीतोष्ण दशमशकनान्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याकोशबघयाचनालाभारोगतृणस्पर्शासक परकारप्रजाजानादर्शनानि ( त० म० अ० ६ सू. ६)

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