Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ ५२ श्रीमद् राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् [३-परिग्रहप्रमाण व्रत क्योंकि मूर्छालक्षण अन्तरंग परिणामोंसे ही सम्बन्ध रखता है" ऐसा यदि कोई तर्क करे, तो उसका समाधान यह है कि मूर्छाकी उत्पत्तिमें बाह्य धन धान्यादि पदार्थ ही कारणभूत हैं, अतएव बाह्य पदार्थों में कारणमें कार्यके उपचारसे, परिग्रहत्व मुख्यतासे सिद्ध होता ही है और 'मूर्छा परिग्रहः' यह लक्षण भी अबाधित एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिग्रहस्येति चेद्भवेन्नं वम् । यस्मादकषायारणां कर्म ग्रहणे न मूर्छास्ति ॥ ११४ ।। अन्वयार्थी-[एवं] इस प्रकार [परिग्रहस्य] बाह्य परिग्रहकी [अतिव्याप्तिः] अतिव्याप्ति [स्यात्] होती है, [इति चेत् ] ऐसा कदाचित् कहो तो [एवं] ऐसा [न] नहीं [भवेत् हो सकता, [यस्मात् ] क्योंकि [अकषायारणां] कषाय रहित अर्थात् वीतराग पुरुषोंके | कर्मग्रहणे] कार्मणवर्गणाके ग्रहणमें [मूर्छा] मूर्छा [नास्ति] नहीं है। भावार्थ- "बाह्यपदार्थों में द्रव्यपरिग्रहत्व मान लेनेसे अतिव्याप्तिदोषका सद्भाव होता है, (क्योंकि, उक्त लक्षण लक्ष्यके अतिरिक्त अलक्ष्यमें भी पाया जाता है,) अर्थात् वीतरागी पुरुषोंके कार्मणवर्गणाके ग्रहण में द्रव्यपरिग्रहत्व सिद्ध होता है" ऐसा यदि कोई प्रश्न करे, तो कहना चाहिये कि "वीतराग पुरुषोंके कार्मणवर्गणाके ग्रहण में सर्वथा ही मूर्छा नहीं है और 'जहां जहां मूर्छा नहीं है, वहां वहां परिग्रह नहीं है, तथा जहां जहां परिग्रह है वहां वहां मूर्छा अवश्य है,' इस प्रकार इसकी व्याप्ति होती है, अतएव तुम्हारा दिया हुअा दोष नहीं लग सकता। अतिसंक्षेपाद् द्विविधः स भवेदाभ्यन्तरश्च बाह्यश्च । प्रथमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु ॥ ११५ ॥ अन्वयाथों-[सः] वह परिग्रह [अति संक्षेपात्] अत्यन्त संक्षिप्ततासे [प्राभ्यन्तरः] अन्तरङ्ग [च] और [बाह्यः] बहिरङ्ग [ द्विविधः ] दो प्रकार [ भवेत् ] होता है, [च] और [प्रथमः] पहिला अन्तरङ्ग परिग्रह [चतुर्दशविधः] चौदह प्रकार [तु] तथा [द्वितीयः] दूसरा हिरङ्ग परिग्रह [द्विविधः] दो प्रकार [भवति] होता है। मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड् दोषाः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ॥ ११६ ॥ अन्वयाथों-[मिथ्यात्ववेदरागाः ] मिथ्यात्व', स्त्री, पुरुष, और नपुंसक वेदके राग [तथैव च] इसी प्रकार [ हास्यादयः ] हास्यादिक अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा' ये [षड् दोषाः] छह दोष [च और [चत्वारः] चार अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी, और संज्वलन ये चार [कषायाः] कषायभाव इस प्रकार [प्राभ्यन्तरा ग्रन्थाः] अन्तरङ्गके परिग्रह [चतुर्दश] चौदह हैं। १-तत्त्वार्थका अश्रद्धान । २-पुरुषकी अभिलाषारूप परिणाम । ३-स्त्रीकी अभिलाषारूप परिणाम | ४-स्त्री पुरुष दोनोंकी अभिलाषारूप परिणाम । ५-ग्लानि ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140