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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ उत्थानिका परम्परा जैनसिद्धान्तोंके निरूपणपूर्वक [ अस्माभिः ] हमारेसे [ विदुषां ] विद्वानोंके अर्थ [ अयं ] यह [ पुरुषार्थसिद्धय पायः ] पुरुषार्थसिद्धय पाय ग्रन्थ [ उपोध्रिते ] उद्धार किया जाता है।
मुख्योपचारविवरण-निरस्तदुस्तरविनेयदुर्योधाः ।
व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥ ४॥ अन्वयार्थी-[ मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधाः ] मुख्य और उपचार कथनके प्रकटपनेसे नष्ट किया है शिष्योंका दुर्निवार अज्ञानभाव जिन्होंने तथा [ व्यवहारनिश्चयज्ञाः ] व्यवहारनय और निश्चनयके जाननेवाले ऐसे प्राचार्य [ जगति ] जगत्में [ तीर्थम् ] धर्मतीर्थको [ प्रवर्तयन्ते ] प्रवाते हैं।
भावार्थ--उपदेशदाता प्राचार्य में जिन जिन गुणोंकी आवश्यकता है, उन सबमें मुख्य गुण व्यवहार और निश्चयनयका ज्ञान है । क्योंकि जीवोंका अनादि अज्ञानभाव मुख्यकथन और उपचरितकथनके ज्ञानसे ही दूर होता है, सो मुख्यकथन तो निश्चयनयके अधीन है, और उपचरितकथन व्यवहारनयके अधीन है।
निश्चयनय– स्वाश्रितो निश्चयः ' अर्थात् जो स्वाश्रित' ( अपने आश्रयसे ) होता है उसे निश्चयनय कहते हैं, और इसीके कथनको मुख्यकथन कहते हैं। इसके जानने से शरीरादिक अनादि परद्रव्यों के एकत्वश्रद्धानरूप अज्ञानभावका अभाव होता है, भेदविज्ञानकी प्राप्ति होती है तथा सर्व परद्रव्योंसे भिन्न अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूपका अनुभव होता है, और तब जीव परमानन्ददशामें मग्न होकर केवलदशाकी प्राप्ति करता है। जो अज्ञानी पुरुष इसके जाने बिना धर्ममें लवलीन होते हैं, वे शरीरादिक क्रियाकाण्डको उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) जानकर संसारके कारणभूत शुभोपयोगको ही मुक्तिका कारण मानकर स्वरूपसे भ्रष्ट होकर संसारमें परिभ्रमण करते हैं। इसलिये मुख्य कथनका जानना निश्चयनयके अधीन है, निश्चयनयके जाने विना यथार्थ उपदेश भी नहीं हो सकता। जो आप ही अनभिज्ञ है, वह कैसे शिष्यजनोंको समझा सकता है ? किसी प्रकार भी नहीं।
व्यवहारनय-" पराश्रितो व्यवहारः" जो परद्रव्यके आश्रित होता है, उसे व्यवहार कहते हैं और पराश्रितरूप कथन उपचारकथन कहलाता है। उपचारकथनका ज्ञाता शरीरादिक सम्बन्धरूप संसारदशाको जानकर संसारके कारण पासव बंधोंका निर्णय कर मुक्ति होनेके उपायरूप संवर निर्जरा तत्त्वोंमें प्रवृत्त होता है । परन्तु जो अज्ञानी जीव इस ( व्यवहारनय ) को जाने विना शुद्धोपयोगी होनेका प्रयत्न करते हैं, वे पहिले ही व्यवहार साधनको छोड़ पापाचरणमें मग्न हो नरकादि दुःखोंमें जा पड़ते हैं । इसलिये व्यवहारनयका ( जिसके अधीन उपचारकथन है ) जानना परमावश्यक है। अभिप्राय यह कि उक्त दोनों नयोंके जाननेवाले उपदेशक ही सच्चे धर्मतीर्थके प्रवर्तक होते हैं।
१-जिस द्रव्यके अस्तित्वमें ( मौजूदगीमें ) जो भाव पाये जावें, उसी द्रव्यमें उसीका स्थापन कर किंचिन्मात्र भी अन्य कल्पना नहीं करनेको स्वाश्रित कहते हैं। २-किञ्चित् मात्र कारण पाकर किसी द्रव्यका भाव किसी द्रव्यमें स्थापन करनेको पराश्रित कहते हैं।