Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 91
________________ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [३-प्रोषघोपवास अन्वयाथों- [यः ] जो जीव [ इति ] इस प्रकार [ परिमुक्तसकलसावद्यः सन् ] सम्पूर्ण पाप क्रियाओंसे रहित होकर [ षोडशयामान् ] सोलह प्रहरीको [ गमयति ] गमाता है, अर्थात् व्यतीत करता है, [ तस्य ] उसके [ तदानी ] उस समय [ नियतं ] निश्चयपूर्वक [ पूर्णम् ] सम्पूर्ण [ अहिंसावतं ] अहिंसाव्रत [ भवति ] होता है। ..., भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिसा भवेत्किलामोषाम् । भोगोपभोगविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिसायाः ॥१५८।। वाग्गुप्ते स्त्यन्तं न समस्तादानविग्हतः स्तेयम् । नाब्रह्म मैथुनमुचः सङ्गो नाङ्ग प्यमूर्छस्य ॥१५॥ (युग्मम् ) अन्वयाथौं-[किल ] निश्चय करके [ अमीषाम् ] इन देशव्रती श्रावकोंके [ भोगोपभोगहेतोः ] भोगोपभोगके हेतुसे [स्थावरहिंसा ] स्थावरजीवोंकी हिंसा [ भवेत् ] होती है, किन्तु [ भोगोपभोगविरहात् ] भोगोपभोगके विरहसे अर्थात् त्यागसे [हिंसायाः ] हिंसाका [लेशः अपि ] लेश भी [न ] नहीं [ भवति ] होता, और उपवासधारी पुरुषके [वाग्गुप्तेः ] वचनगुप्तिके होनेसे [अनृतं ] झूठ वचन [ नास्ति ] नहीं है, [समस्तादानविरहतः] सम्पूर्ण प्रदत्तादानके त्यागसे [स्तेयम् चोरी [ न ] नहीं है, [ मैथुनमुचः ] मेथुनके छोड़ देनेवालेके [अब्रह्म ] अब्रह्म [न] नहीं है, और [अङ्ग ] शरीर में [ अमूर्छस्य ] निर्ममत्वके होनेसे [ सङ्गः ] परिग्रह [अपि] भी [न नहीं है। भावार्थ-यद्यपि देशव्रती गृहस्थ त्रसजीवोंकी हिंसाका त्यागी होता है, तथा भोगोपभोगके निमित्तसे स्थावरजीवोंकी रक्षा नहीं कर सकता, परन्तु उपवासके दिन वह भी हिंसाका पूर्णरूपसे त्यागी हो जाता है, क्योंकि उस दिन भोगोपभोगके त्यामसे स्थावर जीवों के वध होने का भी कोई कारण नहीं रहता, और उपवासमें पूर्ण अहिंसावतकी पालना होनेके अतिरिक्त शेष चारों व्रत ( अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रहत्याग) भी स्वयमेव पलते हैं। इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महावतित्वमुपचारात् । उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम् ॥१६०॥ अन्वयाथों-[ इत्थम् ] इस प्रकार [ अशेषितहिंसः ] सम्पूर्ण हिंसाप्रोंसे रहित [सः] वह प्रोषधोपवास करनेवाला पुरुष [ उपचारात् ] उपचारसे या व्यवहारनयसे [ महावतित्वं ] महाव्रती पनेको [प्रयाति ] प्राप्त होता है, [तु ] परन्तु [चरित्रमोहे ] चारित्रमोहके [ उदयति ] उदयरूप होनेके कारण संयमस्थानम्] संयमके स्थानको अर्थात् प्रमत्तादिगुणस्थानको [न] नहीं [लभते] पाता। भावार्थ-उपवासधारी पुरुषके पांच प्रकारके पापोंमेंसे किसी प्रकारका भी पाप नहीं होता, प्रतएव महाव्रती न होनेपर भी उसे उतने समयतक उपचाररूप कथनसे महाव्रती कह सकते हैं, परन्तु प्रत्याख्यानावरणी तथा संज्वलन प्रकृति का उदय उससे दूर नहीं हुआ है, इसलिये वह छ8 प्रमत्तगुणस्थानको नहीं पा सकता, तथा सकलसंयमघातनी प्रकृतिके उदयसे उक्त देशव्रती श्रावकको महाव्रती नहीं कह सकते, हां महाव्रतीके समान कह सकते हैं।

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