Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 73
________________ ४८ श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [५-अचौर्य व्रत भावार्थ-'चोरी करना भी हिंसा है, क्योंकि अन्य जीवके प्राण घात करनेके हेतुसे प्रमादका प्रादुर्भाव होते ही चोरी करनेवाले पुरुषके भावप्राणोंका घात होता है और चोरीके प्रकट होजानेपर उसके द्रव्यप्राणोंका भी घात होता है, इसी प्रकार इष्ट वस्तुकी वियोगजनित पीड़ासे जिसकी चोरी हुई है, उस पुरुषके भावप्राणोंका घात होता है और चौर्य वस्तुके हरण होनेसे द्रव्यप्राणोंका घात भी संभव है, क्योंकि चोरी की हुई वस्तु उसके द्रव्य प्राणोंकी पोषक थी। . अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।। १०३ ।। अन्वयाथों-[ यः ] जो [ जनः ] पुरुष [ यस्य ] जिस जीवके [अर्थान् ] पदार्थोंको या धनको [ हरति ] हरण करता है, [ सः ] वह पुरुष [ तस्य ] उस जीवके [प्राणान् ] प्राणोंको [ हरति ] हरण करता है, क्योंकि जगतमें [ ये ] जो [ एते ] ये [अर्था नाम] धनादिक पदार्थ प्रसिद्ध हैं, [ एते ] वे सब ही [ पुंसां ] पुरुषोंके [ बहिश्चराः प्राणाः ] बाह्य प्राण [ सन्ति ] हैं। भावार्थ-संसारी जीवोंके जिस प्रकार जीवनके कारणभूत इन्द्रिय श्वासोच्छ वासादि अन्तः प्राण हैं, उसी प्रकार धन, धान्य, सम्पदा, बैल, घोड़ा, दास, दासी, मन्दिर, पृथ्वी आदिक जितने पदार्थ पाये जाते हैं, वे सब उनके जीवनका कारणभूत बाह्य प्राण हैं। इसलिये उनमेंसे एक भी पदार्थका वियोग होनेसे जीवोंको प्राणघात सदृश दुःख होता है, इसीसे कहते हैं चोरी साक्षात् हिंसा है। हिसाया. स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघटामेव सा यस्मात् । ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यः ।। १०४ ॥ अन्वयाथों-हिसायाः] हिंसा के [च] और [स्तेयस्य] चोरी के [ अव्याप्तिः ] अव्याप्ति दोष [न ] नहीं है [ सा सुघटामेव ] वह हिंसा सुघट ही है, [ यस्मात् ] क्योंकि [अन्यैः ] दूसरों के द्वारा [ स्वीकृतस्य ] स्वीकृत किये [ द्रव्यस्य ] द्रव्य के [ ग्रहणे ] ग्रहण करने में [प्रमत्तयोगः ] प्रमाद का योग है। भावार्थ-न्यायके प्रकरणमें कह चुके हैं कि जो लक्षण पदार्थके एकदेशमें व्याप्त हो, दूसरे में नहीं हो, उसे अव्याप्ति कहते हैं । अव्याप्तिदोष “यत्र यत्र स्तेयं तत्र तत्र हिंसा" अर्थात् “जहाँ चोरी होती है, वहाँ हिंसा अवश्य होती है" इस लक्षण में नहीं पाता है। इसलिए यह लक्षण पदार्थ में सर्वदेशव्याप्त है, क्योंकि प्रमादयोगके विना चोरी होती ही नहीं और जिसमें प्रमादयोग है, वही हिंसा है। नातिव्याप्तिश्च तयोः प्रमत्तयोगककारणविरोधात्। अपि कर्मानुग्रहणे नीरागारणामविद्यमानत्वात् ॥ १०५॥ १-निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम् । न हरति याच दरो तवकृशचौर्यादुपारमरणम् ॥५७॥ रत्नकरंडश्रावकाचार अर्थात्-धरा हुआ, पड़ा हुआ, भूला हुआ, और दूसरे का बिना दिया हुआ पदार्थ ग्रहण नहीं करना और न दूसरे को देना, सो स्थूल चोरीत्याग-व्रत है।

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