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श्रीमद् राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ ३-अहिंसा तत्त्व
मध मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः ।
वल्भ्यन्ते न वतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र' ।। ७१ ॥ अन्वयाथों-[ मधु ] शहद, [ मद्यं ] मदिरा, [ नवनीतं ] मक्खन [ च ] और [ पिशितं ] मांस [ महाविकृतयः ] महा विकारोंको धारण किये हुए [ ताः ] ये चारों पदार्थ [ वतिना ] व्रती पुरुष करके [ न वल्भ्यन्ते ] भक्षण करने योग्य नहीं हैं । क्योंकि [ सत्र ] उन वस्तुओंमें [ तद्वर्णाः ] उस ही जातिके [ जन्तवः ] जीव रहते हैं। .
भावार्थ-मधुमें मधुके, मदिरामें मदिराके, मक्खनमें मक्खनके और मांसमें मांसके रंगके जीव उत्पन्न होते रहते हैं, जो कि दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। इस कारण इन वस्तुओंको खाना उचित नहीं है। विकारयुक्त वस्तुओंमें चर्मस्पर्शित घी, तैल, जल तथा अचार, संधाणा, विष, माटी आदि और भी जानना।
योनिरुदुम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि ।
त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ॥ ७२ ॥ अन्वयाथों-( उदुम्बरयुग्मं ) ऊमर, कठूमर अर्थात् अंजीर ( प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि ) पाकर, बड़ और पीपलके फल ( त्रसजीवानां ) त्रस जीवोंकी [ योनिः ) योनि या खानि है, [तस्मात्] इस कारण [ तद्भक्षणे ] उनके भक्षणमें [ तेषां ] उन त्रस जीवोंकी [ हिंसा ] हिंसा होती है ।
यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसारिण शुष्कारिण ।
भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्ट रागादिरूपा स्यात् ॥ ७३ ॥ अन्वयाथौ-(तु पुनः ) और फिर भी ( यानि ) जो पाँच उदुम्बर ( शुष्कारिण) सूखे हुए ( कालोच्छिन्नत्रसारिण) काल पाकर त्रस जीवोंसे रहित ( भवेयुः ) हो जावे, ( तान्यपि ) उनको भी ( भजतः ) भक्षण करनेवालेके (विशिष्टरागादिरूपा) विशेषरागादिरूप ( हिंसा ) हिंसा ( स्यात् ) होती है।
___ भावार्थ-जो पुरुष ऐसे निंद्य पदार्थोंको सुखाकर खावेगा, उसके राग भावोंकी विशेषता अवश्य ही होगी। क्योंकि ये पदार्थ रागकी अधिकताके विना गेहूं चना आदि अन्नोंके समान साहजिक प्रकृतिसे नहीं सुखाये जाते, अतएव इन फलोंको सुखाकर त्रस जीव नहीं रहे, ऐसा बहाना बनाकर कभी भक्षण नहीं करना चाहिये, क्योंकि त्रसजीवोंकी विराधनासे भी इसके भक्षणमें अधिक हिंसा होती है।
* १-किसी किसी प्रतिमें यह एक श्लोक और भी पाया जाता है परन्तु पं० टोडरमलजीने इसका अर्थ नहीं लिखा। वह यह है:
मधुशकलमपि प्रायो मोक्तव्यं शुद्धबुद्धिभिः सततम् ।। वस्तुनि मधुवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ॥