Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 88
________________ श्लोक १४७ - १५१ पुरुषार्थसिद्धय पायः देकर एक शिरोनति करे । अनन्तर कालका प्रमाणकर साम्यभाव संयुक्त शुभोपयोग या शुद्धोपयोगरूप रहे । इसको सामायिक कहते हैं । सामायिकके साधनसे सहज स्वरूपानंदकी प्राप्ति होती है । रजनीदिनयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् । इतरत्र पुनः समये न कृतं दोषाय तद्गुरणाय कृतम् ।। १४६ ।। अन्वयार्थी -- [ तत् ] वह सामायिक [ रजनीदिनयोः ] रात्रि और दिनके [ते] अन्त में ' [ अविचलितम् ? एकाग्रतापूर्वक [ श्रवश्यं ] अवश्य ही [ भावनीयं ] करना चाहिये। [ पुनः ] फिर दि [ इतरत्र समये ] अन्य समय में [ कृतं ] किया जावे तो, [ तत् कृतं ] वह सामायिक कार्य [दोषाय ] दोष के हेतु [न] नहीं, किन्तु [ गुणाय ] गुण के लिये ही होता है । सामायिकश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् । भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य ।। १५० ।। ६३ भावार्थ - यद्यपि सामायिक सदाकाल करना परमोत्कृष्ट है, परन्तु गृहस्थ के दिनमें दो बार की आज्ञा दी गई है। गृहस्थको इस प्राज्ञाका लोप कदापि न करना सन्ध्याओं के सिवाय अधिक अतिरिक्त समय में भी करे, तो निषेध नहीं है । सामायिक के लिये १ यग्य क्षेत्र २ २ योग्य कांल, ३ योग्य प्रासन, ४ योग्य विनय, ५ मनः द्धि, ६ वचनशुद्धि, ७ भावशुद्धि और = कायशुद्धि, इन बातों की अनुकूलता होना परमावश्यक है, क्योंकि इनके बिना मनुष्य के भाव निर्मल और निश्चल नहीं हो सकते । निर्वाह के लिये चाहिये । इन दो श्रन्वयार्थी - [ एषाम् ] इन [ सामायिकश्रितानां ] सामायिक दशाको प्राप्त हुए श्रावकों के [ चरित्रमोहस्य ] चरित्र मोहके [ उदये श्रपि ] उदय होते भी [ समस्तसावद्ययोगपरिहारात् ] समस्त पाप के योगों के त्यागसे [ महाव्रतम् ] महाव्रत [ भवति ] होता है । सामायिक संस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षाद्ध योद्ध योरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ।। १५१ ।। भावार्थ - जिसमें हिंसादिक पापोंका एकोदेश त्याग होता है, उसे अणुव्रत और जिसमें सर्वथा त्याग होता है, उसे महाव्रत कहते हैं । सामायिक करते समय सर्वथा पाप - क्रियाकी निवृत्ति है । श्रावकके प्रत्याख्यानावरणी चारित्रमोहनीयका उदय होता है, परन्तु वह सामायिकके समय में समस्तसावद्ययोगपरिहारात्' महाव्रती ही है। इस ही सामायिक के बलसे निर्ग्रन्थ लिङ्गधारी ग्यारह अङ्गका पाठी अभव्य जीव भी अहमेन्द्रपदको पाता है । १ - प्रातः काल और संध्याकालमें । २ - तथाचोक्तमः - योग्यकालासन स्थानमुद्रावर्त शिरोनतिः । विनयेन यथाजातः कृतिकर्म्मामलं भजेत् ॥ अर्थ - योग्यकाल योग्यप्रासन, योग्यस्थान बोग्यमुद्रा, योग्यप्रावर्त्त, योग्यशिरोनति ( मस्तक नमन ) जिसके हो वह पुरुष यथाजात अर्थात् जिस प्रकार माता के गर्भ से उत्पन्न होनेपर बच्चा परिग्रहरहित होता है, उसी प्रकार होकर एक वस्त्र मात्र परिग्रह के धारणपूर्वक निर्मल सामायिक-क्रिया के विधान को करे ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140