Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 68
________________ श्लोक ८३-८८] पुरुषार्थसिद्धय पायः। भावार्थ-रोग अथवा दारिद्रयादि दुःखोंसे अतिशय दुःखी जीव यदि मार डाले जावेंगे, तो तत्कालीन दुःखोंसे वे छूट जावेंगे, ऐसा विश्वास कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि एक तो कोई जीव शरीरत्याग करनेसे दुःखसे नहीं छूट सकता, उसके अशुभ कर्मोंका फल उसे भोगना ही पड़ेगा; चाहे इस शरीरसे भोगे, चाहे दूसरे शरीरसे भोगे, और दूसरे के घात करनेसे प्राणपीड़न होता ही है, जो घातक को और उस वध्यजीवको हिंसाजनित अशुभबन्धका कारण होता है । कृच्छे रण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति तर्कमण्डलानः सुखिनां घाताय नादेयः ॥ ८६ ॥ अन्दयाथौं-[ सुखावाप्तिः ] "सुखको प्राप्ति [ कृच्छे,ण ] कष्टसे होती है, इसलिये [हताः] मारे हुए [ सुखिनः ] सुखी जीव [ सुखिनः एव ] सुखी ही [ भवन्ति ] होवेंगे" [ इति ] इस प्रकार [ तर्कमण्डलानः ] कुतर्कका खङ्ग [ सुखिनां घाताय ] सुखियोंके घातके लिये [ नादेयः ] अंगीकार नहीं करना चाहिये। ___ भावार्थ-उग्र तपश्चरणादि बड़े कष्टोंसे सुख प्राप्त होता है, इसलिये सुख दुर्लभ है। जैसे सरकंडेके (मूजके) वनमें आग लगा देनेसे वह फिर बहुत हरा हो जाता है, इसी प्रकार जीव सुखमें मार डालनेसे विना ही कष्टके सुखको प्राप्त हो जाता है, ऐसा श्रद्धान भी कभी नहीं करना चाहिये । क्योंकि सुखी सत्यधर्मके साधनसे होते हैं न कि इस प्रकार सुखमें मरने मारनेसे । उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोःशिष्येण शिरो न कर्तनीयं सुधर्ममभिलषिता ॥७॥ अन्वयाथों-[ सुधर्मम् अभिलषिता ] सत्य धर्मके अभिलाषी [ शिष्येण ] शिष्यके द्वारा [ भूयसः अभ्यासात् ] अधिक अभ्याससे [ उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्य ] ज्ञान और सुगति करनेमें कारणभूत समाधिका सार प्राप्त करनेवाले [ स्वगुरोः ] अपने गुरुका [ शिरः ] मस्तक [ न कतनीयं ] नहीं काटा जाना चाहिये। भावार्थ-गुरुमहाराज अधिक कालतक अभ्यास करके अब समाधि में मग्न हो रहे हैं, इस समय यदि ये मार दिये जावें, तो उच्चपद प्राप्त कर लेंगे; ऐसा मिथ्या श्रद्धान करके शिष्यको अपने गुरुका शिरच्छेदन करना अनुचित है। क्योंकि उन्होंने जो कुछ साधना की है, उसका फल तो वे आगे पीछे आप ही पा लेवेंगे, शिरच्छेदन करनेवाला प्राणपीड़ाजनित हिंसाका भागी होकर पापबंध करनेके अतिरिक्त और क्या पा लेगा? धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् । झटितिघटचटकमोक्षं श्रद्धयं नैव खारपटिकानाम् ॥८॥ १-श्रीअमृतचन्दसूरि ग्रंथकर्ताके समय 'खारपटिक' नामक कोई मत भारत में प्रचलित था, जिसमें मोक्षका स्वरूप एक विलक्षण प्रकारसे माना जाता था। जिस प्रकार घड़ेमें कैद की हुई चिड़िया घड़ेके फूट जानेसे मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार शरीर छूट जानेसे जीव मुक्त हो जाता है ।

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