Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 42
________________ १७ श्लोक २२ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः। ४. बन्धतत्त्व-जीवकी रागादिकरूप अशुद्धताके निमित्तसे आये हुए कर्मवर्गणाओंका ज्ञानावरणादिरूप स्वस्थिति सहित अपने रस संयुक्त प्रात्मप्रदेशोंसे सम्बन्धरूप होना बंधतत्त्व कहलाता है। ५. संवरतत्त्व-जीवके रागादिक अशुद्ध परिणामोंके अभावसे कर्मवर्गणाओंके प्रास्रवका रुकना संवरतत्त्व कहलाता है। ६. निर्जरातत्त्व-जीवके शुद्धोपयोगके बलसे पूर्वसंचित कर्मवर्गणाओंके एकोदेश नाश होनेको निर्जरा कहते हैं। ७. मेक्षितत्त्व-जीवके कर्मोके सर्वथा नाश होने और निज स्वभावके प्रकट होनेको मोक्ष कहते हैं। उल्लिखित सप्त तत्त्वोंके अर्थका उक्त प्रकारसे यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। यहाँ पर यदि कोई यह प्रश्न करे कि सम्यग्दर्शनके उपयुक्त लक्षणमें अव्याप्तिदूषणका प्रादुर्भाव होता है, क्योंकि जिस समय सम्यग्दृष्टि जीव विषय कषायकी तीव्रतासंयुक्त होता है, उस समय उसका यह श्रद्धान नहीं रहता । लक्षण ऐसा कहना चाहिये 'जो लक्ष्य में निरन्तर पाया जावे' तो इसका उत्तर नोचे लिखे अनुसार जानकर समाधान करना चाहियेः-- ____ जीवके श्रद्धानरूप और परिणमनरूप दो भाव हैं, इनमें से श्रद्धानरूप सम्यक्त्वका लक्षण है, और परिणमनरूप चारित्रका लक्षण है। जो सम्य दृष्टि जीव उस विषय कषायकी तीव्रतामें परिणमन स्वरूप होता है, न कि श्रद्धानरूप, उसका तत्त्वार्थमें यथावर विश्वास है, इसका स्पष्टीकरण नीचे लिखे उदाहरणसे शीघ्र हो जावेगा: एक गुमाश्ता जो किसी सेठकी दूकानपर नौकर है, अपने हृदयमें सेठको सम्पत्तिको पृथक् जानता हुअा भी उसके हानि-लाभमें हर्ष विषाद करता है, उसे निरन्तर मेरी मेरी कहकर सम्बोधित करता है, और अन्तरंगमें जो परत्त्वका विश्वास है, उसे कभी बाहिर नहीं लाता है, परन्तु यह । स उसके हृदयमें शक्तिरूप रहता है, इसलिये जिस समय सेठके सन्मुख अपना हिसाव पेश करता है, उस समय अन्तरंगका विश्वास प्रत्यक्ष प्रकट कर देता है। जैसे गुमाश्ता इस नौकरीके कार्यको यद्यपि पराधीन दुःख जानता है, परन्तु धनसे शक्तिहीन होनेसे आजीविकाके वश लाचारीसे उसे दास-कर्म करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार ज्ञानी जीव उदयमें आये हुए कर्मोके परिपाकको भोगता है । वह अपने हृदयमें इसे प्रौदयिक ठाठ तथा अपने स्वरूपको भिन्न जानता हुआ भी इष्ट अनिष्ट संयोगमें हर्ष विषाद करता है। उस प्रौदयिक सम्बन्धको बाह्यमें मेरा मेरा भी कहता है, और अपनी प्रतीतिका बारम्बार स्मरण भी नहीं करता, क्योंकि वह प्रतीति कर्मके उदयमें शक्तिरूप रहती है, परन्तु जिस समय उस कर्मका और अपने स्वरूपका विचार करता है, उस समय अन्तरंगकी प्रतीतिको ही प्रकट करता है । ज्ञानी जीव कर्म के उदयको यद्यपि पराधीन दुःख जानता है, परन्तु अपनी शुद्धोपयोगरूप शक्तिकी हीनताके कारण पूर्वबद्ध कर्मोंके वश हो लाचारीसे कर्मके औदयिकभावोंमें प्रवृत्ति करता है। इस भांति सम्यक्त्वधारी जीवके तत्त्वार्थश्रद्धान सामान्यरूप और विशेषरूप शक्तिअवस्था अथवा व्यक्तअवस्थाको लिये निरन्तर पाया जाता है । यहाँपर प्रश्न उठता है कि, “इस लक्षणमें अव्याप्तिदूषणका

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