Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 18
________________ यामां का पक्का वा खादति ः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । ....... स निहन्ति सततनिचित्तं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ।। ६६ ।।.. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेत्ति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। ४४ ॥ जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।। १२ ।। इन अनुवादित पद्यों को देखकर पहले हमने यह अनुमान किया था कि अमृतचन्द्रका पुरुषार्थसिद्धय पाय जैसा ही कोई प्राकृत ग्रन्थ भी होमा और अपने ही ग्रन्थका उन्होंने संस्कृत अनुवाद कर लिया होगा । परन्तु अब ऐसा मालूम होता है कि उक्त प्राकृत पद्य किसी प्राचीन ग्रन्थके हैं और उनकी ही छाया पुरुषार्थसिद्धय पाबमें ले ली गई है। क्योंकि राजवार्तिकमें उद्धत पूर्वोक्त पद्यको अमृतचन्द्रका माननेसे वे अकलंकदेवके भी पूर्ववर्ती सिद्ध होंगे, और उनको इतना प्राचीन मानने के लिए और कोई प्रमाण नहीं हैं । तत्त्वार्थसारके 'मोक्षतत्त्व' अध्यायका 'दग्धे बीजे यथात्यन्तं' पादि सातवां श्लोक पौर २० से लेकर ५४ तकके श्लोक प्रकलंकदेवके राजवार्तिकसे लिये गये जान पड़ते हैं। इसके सिवाय ये सब श्लोक तत्त्वार्वाधिगमभाष्यमें भी दो चार शब्दोंके हेर-फेरके साथ मिलते हैं। अतएव कमसे कम ये स्वयं अमृतचन्दके तो नहीं जान पड़ते श्वेताम्बराचार्य मेघविजयजीने अपने युक्तिप्रबोध में अमृतचन्द्र के नामसे कई पद्य उद्धत किये हैं। उनमें भी नीचे लिख दो पद्य प्राकृतके हैं । अतएव इनसे भी हमने अनुमान किया था कि अमृतचंद्र का कोई प्राकृत ग्रन्थ होगा-- १-“यदुवाच अमृतचन्द्र : सव्वे भावा जम्हा पच्चक्खाई परित्ति नाऊण । तम्हा पच्चक्खाणं जाण णियमा मुणेयव्वं ॥" .:. -सातवीं गाथाकी टोका २-"श्रावकाचारे अमृतचन्द्रोप्याह संघो कोवि न तारइ कट्ठो मूलो तहेब निप्पिच्छो। प्रप्पा तारह अप्पा तम्हा प्रप्पा दु झायव्वो ॥" इनमेंसे पिछली गाथा तो 'ढाढसी गाथा' नामक ग्रन्थकी है, अमृतचन्द्रकी नहीं। इसी तरह पहली गाथा भी अमृतचन्द्र के किसी ग्रन्थमें नहीं मिलती, यह भी किसी प्राचीन अन्धकी जान पड़ती है और इसे भी अमृतचन्द्रकी बतलाने में मेघविजयजीका कुछ प्रमाद हुआ है। ____ 'ढाढसी गाथा' ३८ गाथानोंका एक छोटा-सा प्रकरण है। बम्बईको रायले एशियाटिक सोसाइटीकी लाइब्रेरीमें जो हस्तलिखित प्रत्योंका संग्रह है, उसमें इसकी एक संस्कृतटीकासहित प्रति (नं० १६१० ) भी है। अभी हाल ही हमने बड़ी उत्सुकतासे इस प्रतिको देखा। सोचा कि टीकासे

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