Book Title: Purusharth Siddhyupay
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 44
________________ श्लोक - २३-२४-२५-२६ ] पुरुषार्थसिद्धय पायः । ३. निर्विचिकित्सा' क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव कररणीया ॥ २५ ॥ १६ अन्वयार्थी - [ क्षुत्तष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु ] भूख, प्यास, शीत, उष्ण आदि [ नानाविधेषु ] नाना प्रकार के [ भावेषु ] भावोंमें और [ पुरीषादिषु ] विष्टादिक [ द्रव्येषु ] पदार्थों में [ विचिकित्सा ] ग्लानि [नैव ] नहीं [करणीया ] करना चाहिये । भावार्थ- पापके उदयसे अथवा दुःखदायक भावोंके संयोगसे उद्वेग रूप नहीं होना चाहिये, क्योंकि उदयकार्य अपने वशका नहीं है, और इससे अपने प्रमूर्तीक आत्माका घात भी नहीं होता । विष्टादिक निद्य अपवित्र वस्तुओंोंको देखकर अथवा स्पर्श होनेपर ग्लानि नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस वस्तुका ऐसा ही स्वभाव है, और शरीर तो जिसमें आत्माका निवास है, इससे भी अधिकतर निंद्य वस्तुमय है । इस ग्लानि रहित रूप अंगका नाम निर्विचिकित्सा है ।. ४. श्रमूढत्व लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥२६॥ अन्वयार्थौ ं–[लॊकॆ] लोकमें [शास्त्राभासे] शास्त्राभासमें [समयाभासे] धर्माभासमें [च] र [देवताभासे] देवताभासमें [तत्त्वरुचिना ] तत्त्वों में रुचि रखनेवाले सम्यग्दृष्टि पुरुषको [ नित्यमपि ] सदा ही [ अमूढदृष्टित्वम् ] मूर्खतारहित दृष्टित्व अर्थात् श्रद्धान [कर्त्तव्यम् ] करना चाहिये । भावार्थ - लोकके जन विपरीतरूप प्रवृत्ति करते हैं, उनकी देखादेखी सम्यग्दृष्टिको न चलना चाहिये । ज्ञानसे विचारकर कार्य करना उचित है । इस ही प्रकार अन्य कपोलकल्पित ग्रन्थ सद्ग्रन्थोंके समान मालूम हों, झूठे मत सच्चे सरीखे मालूम हों, झूठे देव सुदेव समान मालूम हों, तो धोखे में न आना चाहिये, और उनमें श्रद्धान न करना चाहिये । सारांश ज्ञानसे भ्रष्ट होनेके कारणोंसे हमेशा सावधान रहना उचित है । प्रमूढदृष्टि शब्द में 'दृष्टि' शब्दका ग्रर्थ दर्शन या श्रद्धान है । मूर्खतापूर्ण या विवेकरहित विश्वासको मूढदृष्टि कहते हैं । सम्यग्दृष्टिकी ऐसी कोई प्रवृत्ति न होनी चाहिए जो इस मूढदृष्टिपनेको प्रकट करती हो । सम्यक्त्वका यह प्रमूढदृष्टित्व नामक चौथा अंग है । १ - स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निजुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता ॥१३॥ ( २०क० ) अर्थात्-रत्नत्रय से पवित्र किन्तु स्वाभाविक अपवित्र शरीर में ग्लानि नहीं करके उसके गुणोंमें प्रीति करना इसको निर्जुगुप्सा कहते हैं । २- कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेप्यसम्मतिः । असम्पृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥ १४ ॥ ( २० क० ) अर्थात् दुःखदायक कुत्सित मार्गों में या धर्मो में और कुमार्गो में स्थित पुरुषोंमें मनसे प्रमाणता, कायसे प्रशंसा, और वचनसे स्तुति न करनेको प्रमूढदृष्टि कहते हैं । ३ - प्राभास - यथार्थ में जो पदार्थ जैसा नहीं है, वह भ्रमबुद्धिसे वैसा दिखलाई देने लगे, जैसे मिथ्यादृष्टियों के बनाये हुए शास्त्र यथार्थ में शास्त्र नहीं हैं, परन्तु भ्रमसे शास्त्र प्रतीत होवें, यह शास्त्राभास है ।

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