Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 13
________________ मा निर्धारण करने के लिए सापेक्ष दृष्टि का प्रयोग करना अकेला हूं-इस सिद्धांत के आधार पर सृष्टि-संतुलन की चाहिए। स्थापना नहीं की जा सकती। 'मैं अकेला नहीं हूं', दूसरे का सापेक्षता भी अस्तित्व है। हम दोनों में संबंध है। उस संबंध के आधार पर ही हमारी जीवन-यात्रा चलती है। इस संबंध की अनेकांत का पहला सिद्धांत है सापेक्षता। एक जाति __ अवधारणा के आधार पर सृष्टि-संतुलन की व्याख्या की जा को दूसरी जाति से निरपेक्ष मानकर ही परस्पर विरोधी हितों सकती है। की कल्पना की जा सकती है। एक संप्रदाय को दूसरे संप्रदाय से निरपेक्ष मानकर ही विरोध का ताना-बाना बुना सह-अस्तित्व जा सकता है। एक व्यक्ति, एक जाति और एक संप्रदाय, यह अनेकांत का तीसरा सूत्र है। जिसका अस्तित्व है, दूसरे व्यक्ति, दूसरी जाति और दूसरे संप्रदाय से सापेक्ष उसका प्रतिपक्ष अवश्यंभावी है यत् सत् तत् सप्रतिपक्षम्। होकर ही जी सकता है, सापेक्ष हितों को सिद्ध कर सकता प्रतिपक्ष के बिना नामकरण नहीं होता और लक्षण का है। वास्तव में मिल मालिक और मजदूर दोनों के हित निर्धारण भी नहीं होता। चेतन और अचेतन में अत्यंताभाव विरोधी नहीं हैं। मजदूर के हित की अपेक्षा रखी जाती है तो है। चेतन कभी अचेतन नहीं होता और अचेतन कभी उत्पादन अधिक बढ़ता है, मिल मालिक का हित सधता है। अचेतन नहीं होता। फिर भी उनमें सह-अस्तित्व है। शरीर मिल मालिक के हित की अपेक्षा रखी जाती है तो मजदूर का अचेतन है। आत्मा चेतन है। शरीर और आत्मा-दोनों एक हित भी अधिक सधता है। यदि एक-दूसरे से निरपेक्ष हो तो साथ रहते हैं। न मिल मालिक का हित सधता, न मजदूर का हित सधता। नित्य और अनित्य, सदृश और विसदृश, भेद और वर्गभेद और विरोधी हितों अभेद-ये परस्पर विरोधी हैं फिर के सिद्धांत की सापेक्षता के संदर्भ भी इनमें सह-अस्तित्व है। एक में समीक्षा करना जरूरी है। प्रणाली, रुचि, मान्यता-ये भिन्न वस्तु में ये एक साथ रहते हैं। सापेक्षता के आधार पर विरोधी भिन्न होती हैं, इनमें विरोध भी होता नित्य अनित्य से सर्वथा वियुक्त हितों में भी समन्वय स्थापित है। सह-अस्तित्व का नियम इन सब नहीं है और अनित्य नित्य से किया जा सकता है। विरोधी हितों पर लागू होता है। लोकतंत्र और सर्वथा वियुक्त नहीं है। की निरपेक्षता के आधार पर अधिनायकवाद, पूंजीवाद और यह सह-अस्तित्व का मीमांसा की जाए तो उसका फलित साम्यवाद--ये भिन्न विचार वाली सिद्धांत जितना दार्शनिक है, होता है संघर्ष, हिंसा और राजनीतिक प्रणालियां हैं। इनमें सह उतना व्यावहारिक है। प्रणाली, साधनशुद्धि के सिद्धांत का अस्तित्व हो सकता है। ‘या तू रहेगा रुचि, मान्यता ये भिन्न-भिन्न परिहार। या मैं', हम दोनों एक साथ नहीं रह होती हैं, इनमें विरोध भी होता है। सकते—यह एकांतवाद है। इस समन्वय सह-अस्तित्व का नियम इन सब धारणा ने समस्या को जटिल बना अनेकांत का दूसरा सूत्र है दिया। एक धार्मिक विचारधारा के पर लागू होता है। लोकतंत्र और समन्वय। वह भिन्न प्रतीत होने लोग यह सोचें-'मेरे धर्म की अधिनायकवाद, पूंजीवाद और वाले दो वस्तु-धर्मों में एकता की विचारधारा को मानने वाला ही इस साम्यवादये भिन्न विचार खोज का सिद्धांत है। जो वस्तु- दुनिया में रहे, शेष सबको समाप्त वाली राजनीतिक प्रणालियां हैं। धर्म भिन्न हैं, वे सर्वथा भिन्न नहीं कर दिया जाए'-इस विचारधारा ने इनमें सह-अस्तित्व हो सकता है। हैं। उनमें अभिन्नता भी है, एकता धार्मिक जगत की पवित्रता को नष्ट 'या तू रहेगा या मैं', हम दोनों एक भी है। उस अभिन्नता के सूत्र को किया है। साथ नहीं रह सकते यह जानकर ही समन्वय स्थापित एकांतवाद है। इस धारणा ने किया जा सकता है। सृष्टि समस्या को जटिल बना दिया। संतुलन (इकोलॉजी) का सिद्धांत समन्वय का सिद्धांत है, एक धार्मिक विचारधारा के लोग यह सोचें-'मेरे धर्म की एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ के संबंध का सिद्धांत है। 'मैं विचारधारा को मानने वाला ही इस दुनिया में रहे, शेष ::::: स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 12. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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