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रघुवंश
3. श्रोत्र :-[श्रूयतेऽनेन-श्रु करणे+ष्ट्रन्] कान।
श्रोत्रभिरामध्वनिना रथेन स धर्म पत्नी सहितः सहिष्णुः। 2/72 सहनशील राजा दिलीप अपनी धर्मपत्नी के साथ रथ पर चढ़कर चले, उसकी ध्वनि कानों में बड़ी मीठी लग रही थी। इत्युद्गताः पौरबधूमुखेभ्यः शृण्वन्कथाः श्रोत्रसुखाः कुमारः। 7/16 नगर की महिलाओं के मुँह से इस प्रकार की बातें सुनते हुए कुमार अज। श्रोत्रेषु संमूर्च्छति रक्तमासां गीतानुगं वारिमृदंग वाद्यम्। 16/64 ये गा-गाकर जो मृदंग बजाने के समान थपकी दे देकर जल ठोक रही हैं, उसे सुनकर मोर।
कर्म
1. कर्म :-नपुं० [कृ+मनिन्] कृत्य, कार्य, कर्म।
पर कर्मापहः सोऽभूदुद्यतः स्वेषु कर्मसु। 17/61
शत्रुओं का उद्योग नष्ट करके वे अपने उद्योग में लग गए। 2. कार्य :-[कृ+ण्यत्] काम, मामला, बात, कर्म, पेश।
एवमिन्द्रिय सुखानि निर्विशन्नन्यकार्य विमुखः स पार्थिवः। 19/47 इस प्रकार वह कामी राजा राज-काम छोड़कर इन्द्रिय सुखों का रस लेता हुआ ऋतुएँ बिताने लगा।
कल्पदुम 1. कल्पतरु :-[कृप्+अच्, घञ् वा+तरु:] स्वर्गीय वृक्षों में एक या इन्द्र का
स्वर्ग आसीत्कल्परुच्छायामाश्रिता सुरभिः पथि। 1/75 तब मार्ग में कल्पवृक्ष की छाया में कामधेनु बैठी हुई थी। विरराजोदिते सूर्ये भेरौ कल्पतरोरिव। 17/26 मानो सूर्योदय के समय सुमेरु पर्वत पर कल्पवृक्ष का प्रतिबिंब पड़ रहा हो। कल्पदुम् :-[कृप्+अच्-घञ् वा द्रुमः] स्वर्गीय वृक्षों में एक या इन्द्र का स्वर्ग। रराज धाम्ना रघुसूनुरेव कल्पदुमाणामिव पारिजातः। 6/6
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