Book Title: Kalidas Paryay Kosh Part 01
Author(s): Tribhuvannath Shukl
Publisher: Pratibha Prakashan

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Page 462
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 450 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिदास पर्याय कोश अगस्त्य चिह्ना दयनात्समीपं दिगुत्तरा भास्वति संनिवृत्ते । 16/44 मानो दक्षिण दिशा से सूर्य के लौट आने की प्रसन्नता में उत्तर दिशा ने आनंद के ठंडे आँसुओं के समान । 18. रवि :- [ रु+ इ] सूर्य । दिशि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि । 4/49 दक्षिण दिशा में महाप्रतापी सूर्य का तेज भी मंद पड़ जाता है। दिन मुखानि रविर्हिमनिग्रहैर्विमलयन्मलयं नगमत्यजत् । 9/25 सर्दी दूर करके, प्रातः काल का पाला हटाकर उसे और भी अधिक चमकाते हुए, सूर्य ने मलय पर्वत से विदा ली। न खलु तावदशेषमपो हितुं रविरलं विरलं कृतवाह्निमम् । 9/32 अभी वह ठंड भली प्रकार दूर नहीं हुई थी, पर हाँ सूर्य ने कुछ जाड़ा कम अवश्य कर दिया था । लक्ष्यते स्म तदनन्तरं रविर्बद्ध भीमपरिवेषमण्डलः । 11/59 उससे सूर्य के चारों ओर एक बड़ा भारी मंडल बन गया और वह ऐसा लगने लगा। राजर्षिवंशस्य रविप्रसूतेरुपस्थितः पश्यत कीदृशोऽयम् । 14 / 37 वैसे ही देखो, सूर्यवंशी राजर्षियों के कुल में मेरे कारण कैसा कलंक लग रहा है। धूमादग्नेः शिखाः पश्चादुदया दंशवो रवेः । 17/34 आग की लपट धुआँ निकलने के पीछे उठती हैं और किरणें सूर्य के उदय होने के पीछे दिखाई देती हैं। For Private And Personal Use Only 19. विवस्वत : - [ विशेषेण वस्ते आच्छादयति :- वि + वस् + क्विप् + मतुप् ] सूर्य । नीहार मग्नो दिन पूर्व भाग: किंचित्प्रकाशेन विवस्वतेव । 7/60 जैसे कोहरे के दिन, प्रभात होने का ज्ञान धुंधले सूर्य को देखकर होता है। उदधेरिव रत्नानि तेजांसीव विवस्वतः । 10/30 जैसे समुद्र के रत्न और सूर्य की किरणें गिनी नहीं जा सकती । अदृष्टम भवत्किंचिद्वयभ्रस्येव विवस्वतः । 17/48 जैसे खुले आकाश में सूर्य की किरणों के फैल जाने से कुछ भी छिपा नहीं रह जाता ।

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