Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
॥ अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥
॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ॥
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
Websiet : www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org
www.kobatirth.org
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद
राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
श्री
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक : १
महावीर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249
जैन
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
अमृतं
आराधना
तु
केन्द्र कोबा
विद्या
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
卐
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
त्रिभुवन नाथ शुक्ल
For Private And Personal Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पर्याय या समानार्थक शब्द एक से होते हुए भी उनकी अर्थच्छायाओं में सूक्ष्मान्तर होता है उदाहरण के लिए सब के हृदय में मद (आनन्द) उत्पन्न करने के कारण कामदेव 'मदन' कहलाता है, वैसे ही सब प्राणियों के दर्द को दलने के कारण वह कंदर्प' की संज्ञा पाता है, अंग से रहित होने के कारण वही 'अनंग', प्राणियों के मन में उत्पन्न होने से 'मनसिज' तथा फूलों के धनुष से युक्त होने से 'पुष्पधन्वा' कहलाता है। जब तक अर्थच्छायाओं एवं सूक्ष्मान्तरों का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होगा, तब तक कृति की समग्र अभिव्यक्ति को पहचानना संभव हो ही नहीं सकता। ____ इसी तथ्य को दृष्टिगत करते हुये कालिदास के काव्यों में उनके द्वारा प्रयुक्त शब्दों तथा उनके पर्यायों को अकारादि क्रम से प्रस्तुत करते हुये उन शब्दों की व्युत्पत्ति, अर्थ, उद्धरण, सन्दर्भ तथा उद्धरणों का हिन्दी में अनुवाद भी इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है।
- यह कार्य लगभग तीन लाख कार्डों पर किया गया। प्रत्येक शब्द की प्रयोगावृत्तियों, एवं संदर्भो को यथाक्रम, यथास्थान प्ररोचित किया गया है। संस्कृत साहित्य के भाषीय विश्लेषण की दिशा में किया गया, यह एक महनीय प्रयास है।
यह कोश संस्कृत के गहन अध्येताओं, प्राध्यापकों अनुसंधित्सुओं के लिए उपयोगी है।
23cm. xx + 904, दो भाग, 2008 रु० 2000 सेट
For Private And Personal Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
प्रथम भाग (रघुवंशम्)
सम्पादक डॉ० त्रिभुवननाथ शुक्ल
आचार्य एवं अध्यक्ष हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विभाग रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय
जबलपुर (म०प्र०)
RATIBHAI
प्रतिभा प्रकाशन
दिल्ली
For Private And Personal Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
प्रथम संस्करण : 2008
सम्पादक
ISBN : 978-81-7702-180-X (सेट) 978-81-7702-181-8 (प्रथम भाग)
मूल्य : 2000.00 (सेट)
www. kobatirth.org
प्रकाशक :
डॉ० राधेश्याम शुक्ल
एम. ए., पी-एच.डी.
प्रतिभा प्रकाशन (प्राच्यविद्या-प्रकाशक एवं पुस्तक-विक्रेता)
7259/20, अजेन्द्र मार्केट, प्रेमनगर,
शक्तिनगर, दिल्ली-110007
दूरभाष : (O) 47084852 (R) 23848485, 09350884227
e-mail : info@pratibhabooks.com Web: www.pratibhabooks.com
टाईप सेटिंग : एस० के० ग्राफिक्स दिल्ली - 84
मुद्रक : बालाजी ऑफसेट, दिल्ली
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
A COMPREHENSIVE DICTIONARY
OF SYNONYMS OF KĀLIDĀSA
VOLUME - I (Raghuvamsam)
By
Prof. T. N. Shukla Head, Deptt. of Hindi & Linguistics
R.D. University Jabalpur (M.P.)
RATIBHA!
PRATIBHA PRAKASHAN
DELHI
For Private And Personal Use Only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
First Edition : 2008
© Editor
ISBN : 978-81-7702-180-X (Set)
978-81-7702-181-8 (Vol. I)
Rs. : 2000.00 (Set)
Published by : Dr. Radhey Shyam Shukla
M.A., Ph.D. PRATIBHA PRAKASHAN
(Oriental Publishers & Booksellers) 7259/20, Ajendra Market, Prem Nagar, Shakti Nagar, Delhi-110007 (India) Ph. : (0) 47084852, (R) 23848485, 09350884227 e-mail : info@pratibhabooks.com Web: www.pratibhabooks.com
Laser Type Setting : S.K. Graphics, Delhi
Printed at : Balaji Offset, Delhi
For Private And Personal Use Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
समर्पण
हरिं गायं गायं गतिमतिरती रातुमुदितः
सुधां पायं पायं रघुवरभवां नामरसिकः।। कथां श्रावं श्रावं श्रवणगतभक्त्यै धृततनुः
गुरुर्भद्राचार्यो धुरि भुवि सरामो विजयते।। 1।। वयो बाल्ये याते परपितरमाराध्य परमोऽ
करोद्यः कण्ठस्थं मनसि ललितं रामचरितम्।। अहोरात्रं वाण्या वितरति गुरुर्मानसरसम्
स मां भद्राचार्योऽवतु पुरि सरामो भवभयात्।। 2 ।। विरागी वैरागी त्रिभुवनपते रागरसिकः
__शरण्योऽरण्येऽस्मिन्नपि यतिवरो रामशरणः।। कलापूर्णः काव्ये विकलजनसेवाव्रतधरः
कुलाधीशो विद्यालयजगति मान्यो विजयते।।3।। सुकोशो विद्याया विलसति गुरोस्ते वचसि यः
प्रतोषः शिष्याणां प्रभवति वचोभिनतिमताम्।। सपर्या पर्यायस्त्रिभुवनकृता या कविमणे:
कृतार्था स्यात्साऽतः करकमलयोरर्पणमिदम्।।4।।
For Private And Personal Use Only
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रीमद्राघवो विजयते श्री तुलसीपीठ सेवा न्यास
(पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट रजि०) संस्थापक एवं अध्यक्ष - धर्मचक्रवर्ती, महामहोपाध्याय, वाचस्पति तुलसीपीठाधीश्वर जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य महाराज संचालित प्रतिष्ठान
श्रीतुलसी प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन)
सीतारामौ नमस्यामि तौ यथा रोहिणी विधू। उच्चतर माध्यमिक
यावासाद्य बुधोऽप्येषु कालिदासो बुधायते ।। 1। विद्यालय
त्रिभुवननाथनिबद्ध कोशंकमनीयकल्पनाक्लुप्तम्।
पर्यायाणां पूतं श्रीकालिदास काव्यानाम्।।2। सन्त सेवा |मोमोत्ति मम स्वान्तं शान्तं विबुधप्रतिभयातुष्टम्।
श्रीमत् त्रिभुवननाथं स्वाशीर्भिर्मण्डयत्येतत।। 3 । श्रीतुलसी पीठसौरभ शुक्लस्त्रिभुवननाथःशास्त्राभ्यासी सुधी सुशीलश्च। मासिक पत्रिका प्रकाशन | ग्रन्थनिबन्धनचुचर्विलसति विद्यानभश्चन्द्रः।। 4 ।
सिंहालोकनविधिना मयका किंचिद्वयपूर्वमादृश्य। गौशाला ग्रन्थललाम सुललितं स्वाशीर्भिश्चर्च्यते चैत्यम्।।5।
इति मंगलमाशास्ते भारतीय संस्कृति उत्थान
राघवीयोहेतु साहित्य प्रकाशन
जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्यः
सम्पर्कसूत्र
श्रीतुलसी पीठ आमोदवन, जानकीकुण्ड
चित्रकूट धाम, जनपद-सतना (म०प्र०) दूरभाष-07671-654781
For Private And Personal Use Only
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सम्पादकीय उपोद्घात
रामचरितमानस के शब्दों पर कार्य करते समय कालिदासीय शब्द-प्रयोगों पर बार-बार ध्यान जाता रहा। इसी क्रम में कालिदास की काव्यकृतियों का पारायण होता चला गया। मुझे कालिदास के शब्द-प्रयोगों ने कुछ ऐसा चमत्कृत किया कि पढ़ते-पढ़ते मैंने "कालिदास का भाषीय औदात्य" शीर्षक से एक बृहद् निबन्ध लिख डाला। इस निबन्ध को पढ़कर कुछ सुधी मित्रों ने कालिदास के पूरे साहित्य पर कार्य करने का सद्परामर्श दिया। यही इस कार्य का बीजभाव है। ___अर्थ की दृष्टि से समानता रखने वाले शब्दों को पर्याय कहते हैं, फिर भी प्रत्येक शब्द की अर्थच्छाया अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए सब के हृदय में मद (आनन्द) उत्पन्न करने के कारण कामदेव 'मदन' कहलाता है। वैसे ही सब प्राणियों के दर्प के दलने के कारण वह कंदर्प की संज्ञा पाता है। अंग से रहित होने के कारण वही 'अनंग', प्राणियों के मन में उत्पन्न होने से 'मनसिज' तथा फूलों के धनुष से युक्त होने से 'पुष्पधन्वा' कहलाता है। इन्हीं अर्थच्छायाओं के सूक्ष्मान्तर से रचना में अर्थविच्छित्ति आती है। इन्हीं अर्थविच्छित्तियों का संधान प्रस्तुत कार्य का मुख्य प्रयोजन है।
यह कार्य कुल दो भागों में प्ररोचित है। जिसके प्रथम भाग में 'रघुवंश' के पर्यायों को अकारादि क्रम से प्रस्तुत किया गया है जबकि द्वितीय भाग के तीन खण्डों में से प्रथम में 'कुमारसम्भव', द्वितीय में 'मेघदूत' तथा तृतीय खण्ड में 'ऋतुसंहार' के पर्यायों का संकलन किया गया है। ___इस कोश के प्रथम भाग में रघुवंश के कुल 291 शब्दों के 1343 पर्यायों का एवं द्वितीय भाग के प्रथम खण्ड में 'कुमारसम्भवम्' के 151 शब्दों के कुल 660 पर्यायों का संदर्भ सहित विवेचन किया गया है। इसी प्रकार द्वितीय भाग के द्वितीय खण्ड में 'मेघदूतम्' के 107 शब्दों के 371 पर्यायों एवं तृतीय खण्ड में 'ऋतुसंहारम्' के 85 शब्दों के 352 पर्यायों का अकारादि क्रम से सन्दर्भ एवं उद्धरण सहित संग्रह किया गया है। इस प्रकार कालिदास के सम्पूर्ण काव्य-साहित्य में कुल 634 शब्दों के 2726 पर्यायों का प्रयोग हुआ है।
For Private And Personal Use Only
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(viii)
यह कोश विद्यार्थियों, अध्यापकों, लेखकों एवं व्याख्यानदाताओं के लिए उपयोगी होगा ऐसा मेरा विश्वास है। इस कार्य में मेरे अत्यंत प्रिय शिष्य डॉ० सत्येन्द्र कुमार वर्मा [तदर्थ व्याख्याता, हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर, (म०प्र०)] एवं मेरी ज्येष्ठ पुत्री डॉ० (कु०) सुरुचि शुक्ला [सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, केसरवानी महाविद्यालय, जबलपुर, (म०प्र०)] का विशेष योगदान रहा। मैं इसके लिए इन दोनों सरस्वती उपासकों को आशीष प्रदान करता हूँ। इस कार्य के यथासमय निष्पादन में मेरी सहधर्मिणी श्रीमती विद्या शुक्ला का अपूर्व सहयोग रहा है।
मेरे परमपूज्य गुरु धर्मचक्रवर्ती महामहोपाध्याय कविकुल रत्न वाचस्पति श्री चित्रकूट तुलसी पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जीवन पर्यन्त कुलाधिपति जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट (उ०प्र०) ने इस ग्रन्थ को अपना आशीर्वचन प्रदान किया है। मैं उनकी इस अहेतुकी कृपा के लिए आजीवन कृतज्ञ रहूँगा।
प्रतिभा प्रकाशन के प्रबन्धक डॉ० राधेश्याम शुक्ल द्वारा कोश के प्रकाशन में जो शीघ्रता एवं समुत्सुकता दिखाई गई है, उसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं।
रक्षाबन्धन वि०सं० 2065 16-8-2008
प्रो० त्रिभुवननाथ शुक्ल 56, अशोकनगर, अधारताल, जबलपुर-482004 (म०प्र०)
मोबाइल 09425044685
For Private And Personal Use Only
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अ
अंक
1. अंक :- पुं० [ अङ्क + अच्] गोद, चिह्न, संकेत ।
तदंक शय्याच्युतनाभिनाला कच्चिन्मृगीणामनघा प्रसूतिः । 5/7 हिरणियों के छोटे-छोटे बच्चे तो कुशल हैं न, जिनकी नाभि का नाल ऋषियों की गोद में ही सूखकर गिरता है ।
इत्युक्त्वा मैथिलीं भर्तुरंकेनिविशतीं भयात्। 12/38 सीताजी तो यह सुनते ही डर के मारे राम की गोद में जा छिपीं। 2. उत्संग : - [ उद् + सञ्ज्+घञ् ] गोद, आलिंगन, संपर्क ।
रहस्त्वदुत्संगनिषण्ण मूर्धा स्मरामि वानीर गृहेषुसुप्तः । 13 / 35
मुझे वे दिन स्मरण हो रहे हैं, जब मैं यहाँ एकांत में, बेंत की झोंपड़ी में, तुम्हारी गोद में सिर रखकर सोया करता था ।
अंशुक
1. अंशुक :- [ अंशु + क- अंशवः सूत्राणि विषया यस्य ] कपड़ा, पोशाक । नितंबवि मेदिन्या स्वस्तांशुक मलंघयत् । 4/52
मानो, वह पथ्वी का नितंब हो और जिस पर से कपड़ा हट गया हो । वातोऽपि नास्त्रं सयदंशुकानि कोलंबयेदाहरणाय हस्तम् । 6/75
स्त्रियों के वस्त्रों को वायु भी नहीं हिला सकता था, फिर उन्हें हटाने का साहस तो भला कौन करता ।
अरुण राग निषेधिभिरंशुकैः श्रवणलब्ध पदैश्च यवांकुरैः । 9/43 प्रात:काल की ललाई से भी अधिक लाल वस्त्रों ने कान पर रक्खे हुए जौ के अंकुरों ने ।
प्रबुद्ध पुंडरीकाक्षं बालात् निभांशुकम् । 10/9
वैसे ही खिले हुए कमल जैसी आँखों वाले, प्रात:काल की धूप के समान सुनहरे वस्त्र पहने विष्णु भी बड़े सुंदर लग रहे थे ।
For Private And Personal Use Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश 2. क्षौम :-[क्षु+मन्+अण्] रेशमी कपड़ा, ऊनी कपड़ा।
श्रियः पद्मनिषण्णायाः क्षौमांतरित मेखले। 10/8 उन्हीं के पास कमल पर लक्ष्मी बैठी हुई थीं, जिनकी कमर में रेशमी वस्त्र पड़ा हुआ था। दधतो मंगलक्षौमे वसानस्य च वल्कले। 12/8 जैसे राज्याभिषेक के रेशमी वस्त्र पहनते समय था, ठीक वैसा ही वन जाने
लिए पेड़ की छाल के वस्त्र पहनते समय भी था। 3. दुकूल :-[दु+ऊलच्, कुक्] रेशमी वस्त, अत्यंत महीन वस्त्र।
भोजोपनीतं च दुकूल युग्मं जग्राह सार्धं वनिताकटाक्षैः। 7/18 भोज ने उन्हें रेशमी वस्त्रों के एक जोड़े के साथ जो भेंट किया, उसे उन्होंने वहाँ की बाँकी चितवन के साथ-साथ स्वीकार किया। दुकूलवासः स वधू समीपं निन्ये विनीतैखरोधरः। 7/19 वैसे ही रनिवास के नम्र सेवक रेशमी वस्त्र पहने हुए इंदुमती के पास अज को ले गए। आमुक्ताभरणः स्रग्वी हंस चिह्नदुकूल वात्। 17/25 आभूषण और माला पहने हुए, हंस छपा हुआ दुपट्टा ओढ़े हुए राजा अतिथि। पट :-[पटं वेष्टने करणे घबर्थे कः] वस्त्र, पहनावा, कपड़े। ध्वजपटं मदनस्य धनु तश्छविकरं मुखचूर्णमृतुश्रियः। 9/45 मानो धुनषधारी कामदेव का झंडा हो या वसंत श्री के मुख पर लगाने का
शृंगार चूर्ण हो। 5. वसन :-[वस+ल्युट्] वस्त्र, कपड़ा, परिधान ।
जह्वराप्रथनमोक्ष लोलुपं हैमुनैर्निवसनैः सुध्यमाः। 19/41 जाड़े के ऐसे कपड़े पहनती थीं, जिन्हें बाँधने और खोलने के लिए लालायित रहने वाला वह राजा, मोहित हो जाता था। वस्त्र :-[वस्+ष्ट्रन्] परिधान, कपड़ा, कपड़े, पहनावा। संदष्टवस्त्रेष्वबला नितंबेष्विंदु प्रकाशांतरितोडुतुल्याः। 16/65 इन रानियों ने अपने नितंबों पर श्वेत वस्त्र लपेट लिया है, चाँदनी से ढके हुए तारों के समान धुंघरू हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश 7. वास :-[वास्+घञ्] कपड़े, पोशाक।
नाभिप्रविष्टाभरणप्रभेण हस्तेन तटस्थाववलंब्य वासः। 7/9 वह अपने कपड़े हाथ से थामे इस प्रकार खड़ी थी कि उसके हाथ के आभूषणों की चमक, उसकी नाभि तक पहुँच रही थी। पदवीं तरु वल्कवाससां प्रयताः संयमिनां प्रपेदिरे। 8/11 नियम से पेड़ों की छालों का वस्त्र पहनने वाले संन्यासियों के समान जंगल में चले जाते थे। श्येन पक्षपरिधूसरालकाः सांध्यमेघरुधिरावाससः। 11/60 जैसे रुखे, मैले बालों वाली तथा रक्त से लाल कपड़ों वाली रजस्वला स्त्री देखने में अच्छी नहीं लगती।
अकिंचन
1. अकिंचन :-[नास्ति किंचन यस्य न०ब०] जिसके पास कुछ भी न हो,
बिल्कुल गरीब, नितांत निर्धन। स्थाने भवानेक नराधिपः सन्नकिंचनत्वं मखजं व्यनक्ति। 5/16 .
चक्रवर्ती होते हुए भी यज्ञ में सब कुछ देकर और दरिद्र होकर। 2. कार्य :-[कृश+ष्यञ्] पतलापन, दुर्बलता, छोटापन, अल्पता। निर्बन्धसंजातरुषार्थ कार्यमचिन्तयित्वा गुरुणाहमुक्तः। 5/21 जब मैंने बार-बार दक्षिणा माँगने के लिए उनसे हठ किया, तो वे बिगड़ खड़े हुए और मेरी दरिद्रता का विचार किए बिना ही बोल उठे।
अग्नि
1. अग्नि :-[अंगति ऊर्ध्वं गच्छति-अङ्गग्+नि नलोपश्च] आग, अग्नि।
यथा विधिहुताग्नीनां यथाकामार्चितार्थिनाम्। 1/6 जो शास्त्रों के नियम के अनुसार ही यज्ञ करते थे, जो माँगने वालों को मन चाहा दान देते थे। हेम्नः सलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामि कापि वा। 1/10 सोने का खरापन या खोटापन आग में डालने पर ही जाना जाता है। पूर्ये माणमदृश्याग्नि प्रत्युद्यातैस्तपस्विभिः। 1/49
For Private And Personal Use Only
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश वहाँ पहुँचकर वे देखते क्या है; कि संध्या के अग्निहोत्र के लिए बहुत से तपस्वी। अभ्युत्थिताग्निपिशुनैरतिथीनाश्रमोन्मुखानम्। 1/53 अग्निहोत्र के धुएँ ने आश्रम की ओर आते हुए इन अतिथियों को भी पवित्र कर दिया। हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु। 1/62 हे यज्ञ करने वाले ! आप जब शास्त्रीय विधि से अग्नि में हवन करते हैं। दिशः प्रसेदुर्मरुतो वतुः सुखाः प्रदक्षिणार्चिहविरग्निराददे। 3/14 बालक के उत्पन्न होने के समय आकाश खुल गया था, शीतल मन्द सुगन्ध वायु चल रहा था और हवन की अग्नि की लपटें दक्षिण की ओर घूमकर हवन की सामग्रियाँ ले रही थीं। सत्वं प्रशस्ते महिते मदीये वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्न्यगारे। 5/2 आप हमारी यज्ञशाला में चलिए वहाँ तीन पूजनीय अग्नि स्थापित हैं, आप भी चौथी अग्नि के समान पूजनीय होकर। उद्यन्तमग्निं शमयांबभूवुर्गजा विविग्नाः करसीकरण। 7/48 तब चिंगारी निकलने लगी, उस चिंगारी से हाथी इतने डर गए कि अपनी सूंड के जल से उस आग को बुझाने लगे। तत्रार्चितो भोजपतेः पुरोधा हुत्वाग्निभाज्यादिभिरग्निकल्पः। 7/2 वहाँ विदर्भ राज के अग्नि के समान तेजस्वी पुरोहित ने घी आदि सामग्रियों से हवन करके। पवनाग्नि समागमो ह्ययं सहितं ब्रह्म यदस्त्रतेजसा। 8/4 जब क्षात्र तेज के साथ ब्रह्म तेज मिल जाता है, तब वह वैसा ही बलशाली हो जाता है जैसे वायु का साहारा पाकर अग्नि। न चकार शरीरमग्निसात्सहदेव्या न तु जीविताशया। 8/7 वे इन्दुमती के साथ इसलिए चिता पर नहीं चढ़े, कि कहीं लोग यह न कहने लगें कि राजा अज ने विद्वान् होकर भी अपनी स्त्री के पीछे प्राण दे दिए। स्वयमेव हि वातोऽग्नेः सारथ्यं प्रतिपद्यते। 10/40 आग की सहायता के लिए वायु से कहना नहीं पड़ता, वह तो स्वयं आग को उभाड़ देता है।
For Private And Personal Use Only
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
पुरुषः प्रबभूवाग्नेविस्मयेन सहविजाम्। 10/50 यज्ञ की अग्नि में से एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसे देखकर यज्ञ करने वाले सभी ऋषि बड़े अचरज में पड़ गए। त्रेताग्निधूमाग्रमग्निन्द्यकीर्तेस्तस्येदमाक्रान्त विमानमार्गम्। 13/37 उसी यशस्वी ऋषि की, गार्हपत्य और आहवनीय अग्नियों से हवन सामग्री की गन्ध से मिला हुआ वह धुआँ विमान के पास तक । चिराय संतर्प्य समिद्भिरग्नि यो मंत्रपूतां तनुमप्यहौषीत्। 13/45 जिन्होंने बहुत दिनों तक अग्नि को समिधा से तृप्त करके, अंत में अपना पवित्र शरीर भी उसमें हवन कर दिया। क्रव्याद्गणपरीवारश्चिताग्निरिव जंगमः। 15/16 वह उस चिता की अग्नि के समान लग रहा था, जो धुएँ से धुंधली हो, जिसमें से चर्बी की गंध निकलती हो, जिसमें लपटें निकल रही हों और जिसके आसपास कुत्ते और गिद्ध आदि मांसभक्षी पशु-पक्षी घूम रहे हों। उदक्प्रतस्थे स्थिरधीः सानुजोऽग्नि पुरः सरः। 5/98 फिर अग्निहोत्र की अग्नि आगे करके, भाईयों के साथ वे उत्तर की ओर चल
पड़े।
ववृधे वैद्युतस्याग्नेर्वृष्टि सेकादिव द्युतिः। 17/16 उनके शरीर का तेज वैसे ही बढ़ गया, जैसे वर्षा के जल से बिजली की चमक बढ़ जाती है। धूमादग्नेः शिखा: पश्चायुदयादंशवो रवेः। 17/34 आग की लपट धुआँ निकलने के पीछे उठती हैं और किरणें सूर्य के उदय होने
के पीछे दिखाई देती हैं। 2. अनल :-[नास्ति अल: पर्याप्तिर्यस्य-न०ब०] आग, अग्नि, अग्निदेवता।
नाराचक्षेपणी याश्मनिष्पेषोत्पतितानलम्। 4/77 जब लोहे और पत्थर की भिड़न्त हो जाती थी, तो कभी-कभी आग उत्पन्न हो जाया करती थी। श्रियम वेक्ष्य स रंध्रचलामभूदनलसोऽनलसोमसमद्युतिः। 9/19 चारों ओर के राजाओं का मंडल उनके हाथ में आ गया, जिससे वे अग्नि और चन्द्रमा के समान तेजस्वी लगने लगे। वे जानते थे कि जहाँ एक भी दोष आया कि लक्ष्मी हमें छोड़कर भागी।
For Private And Personal Use Only
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
6
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
तस्यानलौजास्तनयस्तदन्ते वंशश्रियं प्राप नलाभिधानः । 18 /5
उनके पीछे उनके अग्नि के समान तेजस्वी पुत्र नल राजा हुए। 3. कृशानु :- [ कृश् + आनुक्] आग।
अथैकधेनोरपराधचंडान्दुरोः कृशानुप्रतिमाद्धिभेषि । 2/49
यदि तुम गौ के स्वामी और अग्नि के समान तेजस्वी गुरुजी से डरते हो तो । प्रदक्षिणप्रक्रमणात्कृशानोरुदर्चिषस्तन्मिथुनं चकासे । 7/24
अज और इन्दुमती जब हवन की अग्नि के फेरे देने लगे, उस समय ऐसा जान पड़ता था ।
हविः शमीपल्लवलाजगन्धीत्पुण्यः कृशानोरुदियाय धूमः ।
घी, शमी के पत्तों और धान की खील की गंध से भरा हुआ पवित्र धुआँ अग्नि से निकलकर ।
कृशानुरपधूमत्वात्प्रसन्नत्वात्प्रभाकरः । 10/74
अग्नि का धुआँ निकल गया और सूर्य भी निर्मल हो गए।
4. कृष्णवर्त्म : - [ कृष्+नक्+वर्त्मन्] आग।
आयोधने कृष्णगतिं सहायमवाप्य यः क्षत्रिय कालरात्रिम् | 6/42
ये राजा इतने बलवान हैं कि अग्नि की सहायता पा लेने से युद्ध में क्षत्रियों का संहार कर डालने वाले ।
श्रद्दधे त्रिदश गोपमात्रके दाहशक्तिमिव कृष्णवर्त्मनि । 11 /42
जैसे बीरबहूटी के बराबर नन्हीं सी चिंगारी में भी जलाने की शक्ति छिपी रहती है ।
5. जातवेद :- [ जन्+त+वेदः] अग्नि का विशेषण, आग ।
रघुपतिरपि जातवेदो विशुद्धां प्रगृह्य प्रियां विभीषणे संगमय्य श्रियं वैरिणः ।
12/104
राम ने रावण की राज्यश्री विभीषण को सौंप दी और फिर सीता जी को अग्नि शुद्ध करके ।
For Private And Personal Use Only
तात शुद्धा समक्षं नः स्नुषा ते जातवेदसि । 15/72
राम जी ने कहा कि आपकी पतोहू सीता हमारे सामने ही अग्नि में शुद्ध हो चुकी हैं।
6. ज्वलन : - [ ज्वलत् + ल्युट् ] आग, अग्नि, तीन की संख्या ।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश कृष्यां दहन्नपि खलु क्षितिमिन्धनेद्धो बीज प्ररोहजननी ज्वलनः करोति।
9/80 जंगल की लकड़ी की आग चाहे एक बार पृथ्वी को भले ही जला दे, किन्तु वह पृथ्वी को इतनी उपजाऊ बना देती है कि आगे उसमें बड़ी अच्छी उपज होती है। अन्तर्निविष्टपदमात्मविनाश हेतुंशापंदधज्ज्वलनमौर्वमिवाम्बुराशिः। 9/82 जैसे समुद्र के हृदय में बड़वानल जला करता है, वैसे ही अपने पाप से अधीर
हृदय में मुनि का शाप लिए हुए वे घर लौटे। 7. धूमकेतु :-[धू+म+केतु] आग। निष्प्रभश्च रिपुरास भूभृतां धूमशेष इव धुमकेतनः। 11/81 वैसे ही क्षत्रियों के शत्रु परशुरामजी उस अग्नि के समान निस्तेज हो गए, जिसमें
केवल धुआँ भर रह गया हो। 8. पावक :-[पू+वुल्] आग।
पावकस्य महिमा स गण्यते कक्षज्ज्वलति सागरेऽपियः। 11/75 अग्नि का प्रताप तभी सराहनीय है, जब वह समुद्र में भी वैसे ही भड़ककर जले जैसे सूखी घास के ढेर में। तस्याः स्पृष्टे मनुजपतिना साहचर्याय हस्ते मांगल्योर्णा वलयिनि पुरः पावकस्योच्छिखस्य। 16/87 जब राजा कुश ने अग्नि के आगे उस कन्या का ऊनी कंगन बँधा हुआ हाथ
पकड़ा। 9. मरुत्सखा :-[मृ+उति+सखः] अग्नि का विशेषण।
मरुतप्रयुक्ताश्च मरुत्सखाभं तमय॑माराद्भिवर्तमानम्। 2/10 जिधर-जिधर राजा दिलीप जाते थे उधर-उधर की लताएँ, अग्नि के समान तेजस्वी और पूजनीय राजा दिलीप के ऊपर। तावदाशु विदधै मरुत्सखैः सा पुष्प जलवर्षिभिर्घनैः। 1/
इतने में वायु ने फूल और बादलों ने जल लाकर सड़कों पर बरसा ही तो दिया। 10. वह्नि :-[व+निः] अग्नि।
अथ नयन समुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः सुरसरिदिव तेजो वह्निनिष्ठयूतमैशम्। 2/75 जैसे अत्रि ऋषि के नेत्र से निकली हुई चन्द्रमारूपी ज्योति को आकाश ने धारण
For Private And Personal Use Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
किया और जैसे स्कन्द को उत्पन्न करने वाले शंकर जी के उस तेज को गंगा जी ने धारण किया, जिसे अग्नि भी नहीं संभाल सकी थी। शशाक निर्वापयितुं न वासवः स्वतश्च्युतंवह्नि मिवाद्भिरम्बुदः। 3/58 जैसे बादल घोर वर्षा करके भी अपने हृदय में उत्पन्न बिजली को नहीं बुझा सकता। तस्मै सम्यग्धुतो वह्निर्वाजिनीराजनाविधौ। 4/25 यात्रा के लिए चलने से पहले घोड़ों की पूजा के लिए हवन होने लगा। धूमो निव]न समीरणेन यतस्तु कक्षस्तत एव वह्निः। 7/55 क्योंकि वायु धुएँ को भले ही उड़ा दे, पर आग तो उसके सहारे घास-फूस को पकड़ती ही चली जाती है। इतरो दहने स्वकर्मणां ववृते ज्ञानमेयन वह्निना। 8/20 रघु ने ज्ञान की अग्नि से अपने सारे कर्मों को राख कर डाला। अबिन्धनं वह्निमसौ बिभर्ति प्रह्लादनं ज्योतिरजन्यनेन। 13/4 अपने शत्रु बड़वानल को भी यह अपनी गोद में पालता है और सुखकारी प्रकाश वाला चंद्रमा भी इसी से उत्पन्न हुआ है। रराज शुद्धेति पुनः स्वपुर्यै संदर्शिता वह्निगतेव भा। 14/14 अग्नि के समान प्रकाशमान उनका शरीर ऐसा दिखाई पड़ रहा था, मानो पुरवासियों को सीताजी की शुद्धता दिखलाने के लिए राम ने उन्हें फिर अग्नि में बैठा दिया हो। वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्समक्षम् 14/61 राजा से जाकर तुम मेरी ओर से कहना आपने अपने सामने ही मुझे अग्नि में
शुद्ध पाया था। 11. विभावसु :- अग्नि। विभावसुः सारथिनेव वायुना घन व्यापायेन गभस्तिमानव। 3/37 जैसे वायु की सहायता से अग्नि, शरद ऋतु के खुले हुए आकाश को पाकर
सूर्य।
यथा वायु विभवस्वोर्यथा चन्द्र समुद्रयोः। 10/82
जैसे वायु और अग्नि तथा चन्द्रमा और समुद्र का जोड़ा कभी अलग नहीं होता। 12. शिखी :-[शिखा अस्त्यस्य इनि] अग्नि।
For Private And Personal Use Only
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
रोगशान्तिमपदिश्य मंत्रिणः संभृते शिखिनि गूढमादधुः। 19754 मंत्रियों ने रोग शान्ति के बहाने से राजा के शव को राजभवन के उपवन में ही
चुपचाप जलती अग्नि में रख दिया। 13. हवि :-[हूयते हु कर्मणि असुन्] अग्नि।
अन्वासितमरुन्धत्या स्वाहयेव हविर्भुजम्। 1/56 जिनके पीछे देवी अरुंधती जी भी उसी प्रकार बैठी थीं, जैसे अग्नि के पीछे स्वाहा। हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु। 1/62 हे यज्ञ करने वाले! आप जब शास्त्रीय विधि से अग्नि में हवन करते हैं, तो आप आहुतियाँ। मुमूर्छ सहजं तेजो हविवेष हविर्भुजां। 10/79
जैसे घी आदि पड़ने से हवन की अग्नि का स्वाभाविक तेज बढ़ जाता है। 14. हुताशन :-[हु+क्त+अशन:] अग्नि।
प्रदक्षिणी कृत्य हुतं हुताशमनन्तरं भर्तुररुंधतीं च। 2/72 पहले हवन कुण्ड की, फिर गुरु वशिष्ठ जी की, तब माता अरुंधती की प्रदक्षिणा की। दिनान्ते निहितं तेजः सवित्रेव हुताशनः। 4/1 जैसे साँझ के सूर्य से तेज लेकर आग चमक उठती है। हुतहुताशनदीप्ति वनश्रियः प्रतिनिधिः कनकाभरणस्य यत्। 9/40 हवन की अग्नि के समान चमकते हुए कनैर के फूल वनलक्ष्मी के कानों के कर्णफूल जैसे जान पड़ते थे। एधान्हुताशनवतः स मुनिर्ययाचे पुत्रं परा सुमनुगन्तुमनाः सदारः। 9/81 यह सुनकर उस मुनि ने कहा हम और हमारी स्त्री, अब अपने पुत्र के साथ ही मर जाएँगे, इसलिए अब हमारे लिए ईंधन और अग्नि जुटाओ।
अग्रज
1. अग्रज :-[अङ्ग+रन् नलोपश्च+ज] पहले पैदा या उत्पन्न हुआ।
उन्मुखः सपदि लक्ष्मणाग्रजो बाणमाश्रयमुखात्समुद्धरन्। 11/2 उसी समय राम ने अपने तूणीर से बाण निकाले और ऊपर मुँह करके आकाश की ओर देखा।
For Private And Personal Use Only
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
10
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
प्रत्यग्रहीदग्रजशासनं तदाज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया । 14 / 46
इसलिए उन्होंने पिता के समान राम की आज्ञा सिर चढ़ा ली, क्योंकि बड़ों की आज्ञा में मीन मेख निकालना ठीक नहीं है।
विडौजषा विष्णुरिवाग्रजेन भ्रात्रा यदित्थं परवानसि त्वम् | 14 / 9
जैसे इन्द्र के छोटे भाई विष्णु सदा अपने बड़े भाई की आज्ञा मानते हैं, वैसे ही तुम बड़े भाई की आज्ञा मानने वाले हो ।
शशंस सीता परिदेवनान्तमनुष्ठितं शासनमग्रजाय । 14 / 83
सीताजी ने रो-रोकर जो बातें कहीं थीं, वे सब लक्ष्मण जी ने यह सोचकर राम से कह दीं कि ।
तमभ्यनन्दत्प्रणतं लवणान्तकमग्रजः । 15/40
जब लवणासुर को मारने वाले शत्रुघ्न जी उन्हें प्रणाम करने को झुके, तब राम ने भी उनका अभिनंदन किया।
2. प्रथमज :- [ प्रथ्+अमच्+ज ] सबसे पहले पैदा हुआ।
स हि प्रथमजे तस्मिन्नकृत श्री परिग्रहे । 12/16
जिस राज्य को बड़े भाई ने स्वीकार नहीं किया, उसे लेना मैं उतना ही बड़ा पाप समझता हूँ।
अद्रिराज
1. अद्रिराज : - [ अद्+क्रिन्+राज] आद्रि, पहाड़ राज, हिमालय । आभाति बालात परक्त सानुः सनिर्झरोद्गार इवाद्रिराज: 16/60
इस वेश में ये उस हिमालय के शिखर के समान सुन्दर लग रहे हैं, जो प्रात:काल धूप में लाल हो गया हो और जिस पर से अनेक पानी के झरने गिर रहे हों । 2. गौरीगुरू :- [ गौर ङीष् + गुरुः] हिमालय पहाड़ ।
गंगा प्रपातांतविरूढशष्पं गौरी गुरोर्गह्वरमाविवेश । 2 / 26
वह झट हिमालय की उस गुफा में बैठ गई, जिसमें गंगाजी की धारा गिर रही थी और जिसके तट पर घनी हरी-भरी घास खड़ी हुई थी ।
For Private And Personal Use Only
ततो गौरी गुरुं शैलमारुरोहाश्वसाधनः । 4 / 71
अपने घोड़ों की टापों से उठी धूल से हिमालय की चोटियों को और भी ऊँची करना चाहते
I
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
11 3. तुहिनादि :-[तुह्+इनन्, ह्रस्वश्च+अद्रिः] हिमालय पहाड़।
ज्वलितेन गुहागतं तमस्तुहिनादेरिव नक्तमोषधिः। 8/5 जैसे रात में चमकने वाली बूटियाँ अपने प्रकाश से हिमालय की अंधेरी गुफा में
भी चाँदनी कर देती हैं। 4. हिमाद्रि :-[हि+म+अद्रिः] हिमालय पहाड़।
राज्ञा हिमवतः सारो राज्ञः सारो हिमाद्रिणा। 4/79 रघु ने हिमालय के अतुल धन का अनुमान किया और हिमालय ने भी युद्ध में
रघु के पराक्रम का अनुमान किया। 5. हिमवत :-[हिम+मतुप] हिमालय पहाड़।
राज्ञा हिमवतः सारो राज्ञः सारो हिमाद्रिणा। 4/79 रघु ने हिमालय के अतुल धन का अनुमान किया और हिमालय ने भी युद्ध में रघु के युद्ध में पराक्रम का अनुमान किया।
अध्वर 1. अध्वर :-[अध्वानं सत्पथं राति-इति अध्वन्+रा+क] यज्ञ, धार्मिक संस्कार।
पत्नी सुदक्षिणेत्यासीदध्वरस्येव दक्षिणा। 1/31 जैसे यज्ञ की पत्नी दक्षिणा प्रसिद्ध है, वैसे ही उनकी पत्नी सुदक्षिणा प्रसिद्ध थी। तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं निःशेषविश्राणितकोषजातम्। 5/1 जिस समय रघु विश्वजित यज्ञ में अपना सब कुछ दान किए बैठे थे। ततो यथावद्विहिताध्वराय तस्मै स्मयावेशविवर्जिताय। 5/19 विश्वजित यज्ञ करने पर भी रघु को अभिमान छू नहीं गया। अधिवसंस्तनुमध्वर दीक्षिताम समभासम भासयदीश्वरः। 9/21 जब वे यज्ञ की दीक्षा लेकर बैठे, उस समय भगवान महादेव उनके शरीर में पैठ गए, जिससे उनकी शोभा और भी अधिक बढ़ गई। कौशिकेन स किल क्षितीश्वरो राममध्वरविघात शान्तये। 11/1 एक दिन विश्वामित्र जी राजा दशरथ के पास आए और उन्होंने कहा कि मेरे यज्ञ की रक्षा के लिए राम को हमारे साथ भेज दीजिए। तमध्वराय मुक्ताश्वं रक्षः कपिनरेश्वराः। 15/58
For Private And Personal Use Only
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
12
कालिदास पर्याय कोश कुछ दिन पीछे राम ने अश्वमेघ यज्ञ के लिए घोड़ा छोड़ा वैसे ही सुग्रीव, विभीषण आदि ने। वेदिप्रतिष्ठान्वितताध्वराणां यूपानपश्यच्छतशो रघूणाम्। 16/35 वहाँ उन्हें बड़े-बड़े यज्ञ करने वाले रघुवंशी राजाओं के गाड़े हुए सैकड़ों यज्ञ के
खंभे दिखाई दिए। 2. इष्टि :-[इष्+क्तिन्] यज्ञ, कामना, प्रार्थना ।
आरेभिरे जितात्मनः पुत्रीयामिष्टि मृत्विजः। 10/4
ऋषियों ने राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करना प्रारंभ कर दिया। 3. क्रतु :-[कृ+क्तु] यज्ञ।
अजस्त्रु दीक्षाप्रयतः स मद्गुरुः क्रतो रक्षेषेण फलेन युज्यताम्। 3/65 यही वरदान दीजिए कि इस घोड़े के बिना ही सौ अश्वमेध यज्ञ करने का फल पा जायें। क्रतुषु तेन विसर्जितमौलिना भुजसमाह्यतिदग्वसुना कृताः। 9/20 उन्होंने अपने बाहुबल से चारों ओर का धन इकट्ठा किया था, उन्होंने ही अपना मुकुट उतार कर अश्वमेध यज्ञ करते समय। तस्या एव प्रतिकृतिसखो यत्क्रतूनाजहार। 14/87 अश्वमेध यज्ञ करते समय उन्होंने सीता जी की सोने की मूर्ति को ही अपने बाएँ
बैठाया था। 4. मख :-[मख् संज्ञायां घ] यज्ञ, यज्ञविषयक कृत्य।
ततः परं तेन मखाय यज्वना तुरंग मुत्सृष्टमनर्गलं पुनः। 3/39 तब दिलीप ने सौवाँ यज्ञ करने के लिए घोड़ा छोड़ा। मखांशभाजा प्रथमो मनीषिभिस्त्वमेव देवेन्द्र सदा निगद्यसे। 3/44 हे देवेन्द्र ! विद्वानों का कहना है कि यज्ञ का भाग सबसे पहले आपको ही मिलता है। त्रिलोकनाथेन सदा मखद्विषस्त्वया नियम्या ननु दिव्य चक्षुषा। 3/49 संसार में जो कोई भी यज्ञ में विघ्न डाले, उसे आप स्वयं दण्ड दें क्योंकि आप तो तीनों लोकों के स्वामी हैं। स्थाने भवानेक नराधिपः सन्मकिंचनत्वं मखजं व्यनक्ति। 5/16 चक्रवर्ती होते हुए भी यज्ञ में सब कुछ देकर और दरिद्र होकर आप।
For Private And Personal Use Only
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
13 इत्यपास्तमख विजयोस्तयोः सांयुगीनमभिनंद्य विक्रमम्। 11/30 जब यज्ञ करने वाले ऋषियों ने देखा कि थोड़े ही समय में राम ने सब विघ्न दूर कर दिए, तो उन्होंने राम-लक्ष्मण के पराक्रम की प्रशंसा की। शंस किं गति मनेन पत्रिणा हन्मि लोकमुतते मखार्जितम्। 11/84 बताइये कि अब इस बाण से मैं आपकी गति रोकूँ या आपका उन दिव्य लोकों में पहुँचना रोकूँ, जो आपने यज्ञ करके जीत लिए हैं। विधेरधिक संभारस्ततः प्रववृते मखः। 15/62 इस प्रकार वह प्रसिद्ध यज्ञ प्रारंभ हुआ, जिसमें आवश्यकता से अधिक सामग्री
इकट्ठी हुई थी। 5. यज्ञ :-[यज्+[भावे] नड्०] याग या मख, यज्ञ संबंधी कृत्य।
ददोहगां स यज्ञाय सस्याय मधवा दिवम्। 1/26 राजा दिलीप प्रजा से जो कर लेते थे, वह इंद्र को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ में लगा देते थे। स विश्वजितभाज हे यज्ञं सर्वस्वदक्षिणम्। 4/86 रघु ने विश्वजित नाम का यज्ञ किया, जिसमें उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दक्षिणा में दे दी। सवन :-[सु (सु)+ल्युट्] यज्ञ, सोमरस का निकालना या पीना। अथ तं सवनाय दीक्षितः प्राणिधानाद् गुरुराश्रमस्थितः। 8/75 उन दिनों वशिष्ठ जी यज्ञ कर रहे थे, उन्होंने आश्रम में ही योगबल से राजा के शोक का कारण जान लिया।
अनुकंपा 1. अनुकंपा :-[अनु+कंप्+अच्+टाप्] करुणा, दया।
भूतानुकंपा तव चेदियं गौरेका भवेत्स्वस्तिमती त्वदंते। 2/48 यदि तुम केवल प्राणियों पर दया करने के विचार से ही ऐसा कर रहे हो, तो भी यह त्याग ठीक नहीं है, इस समय यदि तुम मेरे भोजन बनते हो तो केवल एक गौ की रक्षा होगी। धुरि स्थिता त्वं पतिदेवतानां किंतन्न येनासि ममानुकंप्या। 14/74 तुम स्वयं पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हो और फिर तुममें ऐसा दोष ही कौन सा है, जो मैं तुम्हारे ऊपर कृपा न करूँ।
For Private And Personal Use Only
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
14
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
2. दया :- [दय्+अ+टाप् ] करुणा, तरस, अनुकंपा, सहानुभूति ।
अनुग्रह प्रत्यभिनंदिनीं तां वाल्मीकिरादाय दयार्द्र चेताः । 14/79 सीताजी ने उनकी कृपा को बहुत सराहा और दयालु वाल्मीकि के साथ उनके आश्रम में चली गईं।
I
अनुग्रह
1. अनुग्रह :- [ अनु + ग्रह् + अप्, ल्युट् वा ] प्रसाद, कृपा, उपकार । कैलास गौरं वृषमारुरुक्षोः पादार्पणानुग्रह पूतपृष्ठम् । 2/35
जब शंकरजी कैलास पर्वत के समान उजले नंदी पर चढ़ते हैं, तब उसके पहले अपने चरणों से मेरी पीठ पवित्र करते हैं।
अनुग्रह प्रत्यभिनंदिनीं तां वाल्मीकिरादाय दयार्द्र चेताः । 14/79 सीताजी ने उनके अनुग्रह को बहुत सराहा और दयालु वाल्मीकि के साथ उनके आश्रम में चली गईं।
2. प्रसाद : - [ प्र+सद्+घञ्] अनुग्रह, कृपा, प्रसाद, उपकार । भक्तयोपन्नेषु हि तद्विधानां प्रसादचिह्ननि पुरः फलानि । 2/22
नंदिनी के समान मनोरथ पूर्ण करने वाले यदि भक्त पर प्रसन्न हो जायँ, तो समझ लो कि काम पूरा हो गया।
निशाचरोप्लभर्तृकाणां तपस्विनीनां भवतः प्रसादात् । 14/64 पिछले बार आपकी कृपा से मैंने बनवास के समय बहुत सी ऐसी तपस्विनियों को अपने यहाँ आश्रय दिया था, जिनके पतियों को राक्षसों ने सता रखा था ।
अनुचर
1. अनुचर : - [ अनु + चर्+ट ] सहचर, नौकर, सेवक, अनुयायी । व्रताय तेनानुचरेण धेनोर्न्यषेधि शेषोऽप्यनुयायिवर्गः । 2/4
राजा दिलीप ने केवल रानी को ही नहीं वरन् सब नौकर-चाकरों को भी लौटा दिया, क्योंकि उन्होंने तो गौ की सेवा का व्रत ही ले लिया था ।
For Private And Personal Use Only
2. अनुजीवी : - [ अनुजीव+ णिनि] सेवक, अनुचर । मूर्तिमंतममन्यत विश्वास मनुजीविनः । 17/31
इसलिए उनके सेवक उन्हें साक्षात् विश्वास के समान मानते थे ।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
15
तं कृतप्रणतयोऽनुजीविनः कोमलात्मनखरागरुषितम्। 19/8 राजकर्मचारी उनके नखों की लाली वाले उस चरण का नमस्कार करके आराधना
करते थे। 3. अनुप्लव :-[अनु+प्लु+अच्] अनुयायी, सेवक।
सानुप्लव: प्रभुरपि क्षणदाचराणां भेजे रथांदशरथप्रभवानु शिष्टः। 13/75 राम की आज्ञा से विभीषण और उनके साथी भी रथों पर चढ़ गए। अनुयायी :-[अनु+या+णिनि] अनुगामी, सेवक, अनुवर्ती। व्रताय तेनानुचरेण धेनोर्म्यषेधि शेषोऽप्यनुयायिवर्गः। 2/4 राजा दिलीप ने केवल रानी को ही नहीं वरन् सब नौकर-चाकरों को भी लौटा दिया, क्योंकि उन्होंने तो गौ की सेवा का व्रत ही ले लिया था। वशिष्ठधेनोरनुयायिनं तमावर्तमानं वनिता वनांतात्। 2/19 जब सांझ को राजा दिलीप नंदिनी के पीछे-पीछे लौटे तब सुदक्षिणा। किंकर :- नौकर-चाकर, अनुयायी, सेवक। अवेहि मां किंकरमष्टमूर्तेः कुंभोदरं नाम निकुंभमित्रं। 2/35 मैं सर्वशक्तिशाली शंकर जी का कृपापात्र और सेवक कुंभोदर नाम का गण हूँ
और शिवजी के शक्तिशाली गण निकुंभ का मित्र हूँ। 7. परिजन :-नौकर चाकर, अनुयायी, अनुचर।
ताः स्वमंकमधिरोप्य दोलया पेंखयन्परिजनापविद्धया। 19144 उन स्त्रियों को गोद में बैठाकर वह उन झूलों में झूलने लगा, जिन्हें नौकर झुला
रहे थे। 8. पार्श्वग :-[पशूनां समूहः+ग:] टहलुआ, सेवक।
व्यादिदेश गणशोऽथ पार्श्वगान्कार्मुकाभिहरणाय मैथिलः। 11/43 इसलिए जनकजी ने अपने सेवकों को उसी प्रकार धनुष लाने की आज्ञा दी। पार्श्वचर :-[पशूनां समूहः+चरः] सेवक, टलहुआ। अथ जातु रूरोहीतवा विपिने पार्श्वचरैरलक्ष्यमाणः। 9/7 एक दिन जंगल में रुरु मृग का पीछा करते हुए, वे अपने साथियों से दूर भटक गये। तस्यै प्रतिश्रुत्य रघुप्रवीरस्तदीप्सितं पार्श्वचरानुयातः। 14/29 उनकी बातें सुनकर रामचंद्र जी वहाँ से उठकर अपने सेवकों के साथ।
For Private And Personal Use Only
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
16
कालिदास पर्याय कोश
10. पार्श्ववर्ती :-[पशूनां+समूहः+वर्तिन्] सेवक, पास होने वाला।
नर्तकीरभिनयातिलंघिनी: पार्श्ववर्तिषु गुरुष्वलज्जयत्। 19/14 नर्तकियाँ सुध-बुध खोकर नाचना भी भूल जाती थीं और अपने गुरुओं के आगे
वे अपनी इसी बात पर लजा जाती थीं। 11. भृत्य :--[भृ+क्यप् तक् च] नौकर, आश्रयी, दास।
युयोज पाकाभिमुखै त्यान्विज्ञापना फलैः। 17/40 राजा अतिथि के प्रसन्न मुख को देखकर ही उनके सेवक जान जाते थे कि हमें इतना धन मिलेगा।
अन्तर्वत्नी
..
1. अन्तर्वत्नी :-[अस्+अरन् तु डागमश्च+वत्नी] गर्भवती स्त्री।
तस्यामेवास्य यामिन्यामन्तर्वत्नी प्रजावती। 15/13 उसी रात को इनकी गर्भिणी, भाभी सीता ने दो तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया। आपन्नसत्त्वा :-[आ+पद्+क्त+सत्त्वा] गर्भवती, गर्भवती स्त्री। सममापन्नसत्त्वास्ता रेजुरापांडुरत्विषः। 10/59 एक साथ गर्भ धारण करने वाली ये रानियाँ गर्भ से पीली पड़ने के कारण।
अन्यभृत 1. अन्यभृत :-दूसरे से पाला हुआ, कोयल की उपाधि ।
कलमन्यभृतासु भाषितं कलहंसीषु मदालसं गतम्। 8/59 तुम्हारी मीठी बोली कोयलों ने ले ली, तुम्हारा धीरे-धीरे चलना कलहंसियों ने ले लिया। प्रथममन्य भृताभिरुदीरिताः प्रविरला इव मुग्धवधूकथाः। 9/34 जब कोयल ने कूक सुनाई तो ऐसा जान पड़ा, मानो कहीं कोई मुग्धा नायिका ही
बोल उठी हो। 2. कोकिल :-[कुक्+इलच्] कोयल।
कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पदकोकिल कूजितम्। 8/26 पहले फूल खिले, फिर नई कोंपले फूटी, फिर भौरे गूंजने लगे और तब कोयल की कूक भी सुनाई पड़ने लगी।
For Private And Personal Use Only
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
लक्ष्मणः प्रथमंश्रुत्वा कोकिला मंजुवादिनीम्। 12/39
लक्ष्मण ने पहले कोयल की मीठी बोली के समान बोली सुनी। 3. परभृत :-[पृ०+अप्, कर्तरि अच् वा+भृतः] कोयल।
परभृता विरुतैश्च विलसिनः स्मरबलैरबलैकरसाः कृताः। 9/4 कोयल की कूकों की सेना लेकर चलने वाले कामदेव ने ऐसा जाल बिछाया कि सभी विलासी पुरुष युवती स्त्रियों के प्रेम में सुध-बुध खो बैठे। परभृताभिरितीव निवेदिते स्मरमते रमते स्म वधूजनः। 9/41 उन दिनों कोयल की कूक मानो कामदेव का यह आदेश सुना रही थी, हे स्त्रियो! रूठना छोड़ दो।
अपचार
1. अपचार :-[अप्+च+घञ्] कमी, अभाव, दोष, अपराध, दुष्कर्म।
राजन्ग्रजासु ते कश्चिदपचारः प्रवर्तते। 15/47
हे राजन् ! आपकी प्रजा में कुछ वर्ण संबंधी दोष आ गया है। 2. विक्रिया :-[वि+कृ+श+टाप्] विक्षोभ, उद्वेग, क्रोध, दोष, अपराध।
इत्याप्त वचनाद्रामो विनेष्यन्वर्ण विक्रियाम्। 15/48 इस विश्वास भरे वचन को सुनकर यह देखने के लिए कि वर्ण-धर्म में कहाँ दोष आया है।
अपसर्प 1. अपसर्प :-[अप+सृप्+ण्वुल्, स्वार्थे कन् च] गुप्तचर, जासूस, दूत।
सोधिराजोरुभुजोऽपसर्प पप्रच्छ भद्रं विजितारिभद्रः। 14/31 शेषनाग के समान बड़ी-बड़ी बाँहों और जाँघों वाले शत्रु विजयी राम ने अपने
भद्र नाम के दूत से पूछा कि हमारे विषय में प्रजा क्या कहती हैं। 2. प्रणिधि :-[प्र+नि+धा+कि] जासूस, भेदिया, दूत।
न तस्य मंडले राज्ञो न्यस्त प्रणिधिदीधितेः। 17/48 अतिथि ने चारों ओर दूतों का ऐसा जाल बिछा दिया कि प्रजा की कोई बात उनसे छिपी नहीं रह पाती थी।
For Private And Personal Use Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
18
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
अभिक
1. अभिक : - [ अभि+कन् ] कामी, लपंट, विलासी ।
सोऽधिकारमभिकः कुलोचितं काश्चन स्वयमवर्तयत्समाः । 19/4
इसका फल यह हुआ कि वे कामुक हो गए, कुछ दिनों तक तो उन्होंने स्वयं राज काज देखा ।
2. कामयान : - | - [ कम्+ णिङ् + शानच्, पक्षे भुक् तृच् वा ] कामासक्त, कामुक । राजयक्ष्मपरिहानिराययौ कामयान समवस्थया तुलाम् | 19/50 यक्ष्मा रोग से सूखकर वह ठीक विरहियों के समान दिखाई देने लगा। 3. कामी : - [ कम्+ णिनि ] कामासक्त, कामुक ।
कामिनी सहचरस्य कामिनस्तस्य वेश्मसु मदंगनादिषु । 19/5
वह कामी राजा कामिनियों के साथ उन भवनों में दिन रात पड़ा रहने लगा, जिनमें बराबर मृदंग बजते रहते थे ।
4. कामुक : - [ कम्+उकञ् ] कामासक्त, कामातुर ।
वंचयिष्यसि कुतस्तमोवृतः कामुकेति चकृषुस्त मंगनाः । 19 / 33 रात को वह संभोग की इच्छा से जब बाहर जाने को होता था, तो उसकी स्त्रियाँ यह कहते हुए खींच लाती थीं कि कहिए चकमा देकर रात को किधर चले । 5. प्रमत्त :- [ प्र+मद्+क्त] नशे में चूर, उन्मत्त, पागल ।
तं प्रमत्तमपि न प्रभावतः शेकुराक्रमितुमन्यपार्थिवाः । 19/48
इतना व्यसन में लीन होने पर भी दूसरे राजा उसके राज्य पर आक्रमण नहीं करते थे ।
6. लोलुप :- [ लुभ + यङ् अच्] लालायित, लालची ।
जह्नुराप्रथनमोक्षलोलुपं हैमुनैर्निवसनैः सुमध्यमः । 19/41
सोने की तगड़ी को बांधने और खोलने के लिए लालायित रहने वाला वह राजा मोहित हो जाता था ।
For Private And Personal Use Only
अभिजात
1. अभिजात : - [ अभि + जन+क्त] उत्पन्न, जन्मा हुआ, पैदा हुआ। जात्यस्तेनाभिजातेन शूरः शौर्यवता कुश: । 17/4
अतिथि भी कुश के समान ही कुलीन, शूर और जितेन्द्रिय थे।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश 2. जात्य :-[जाति+यत्] उत्मकुलोद्भव, कुलीन, सत्कुलोत्पन्न।
जात्यस्तेना भिजातेन शूरः शौर्यवता कुशः। 17/4 अतिथि भी कुश के समान ही कुलीन, शूर और जितेन्द्रिय थे।
अभी
1. अभी :-निर्भय, निडर। व्याघ्रान भीरभिमुखोत्पतितान्गुहाभ्यः फुल्लासनानविटपानिव वायुरुग्णान्।
9/63 उन सिंहों के खले हए मुँह उनके बाणों के तूणीर बन गए और वे ऐसे जान पड़ने लगे जैसे आँधी से उखड़े हुए फूले आसन के पेड़ की फुनगियाँ हो । ययौ वनस्थली: पश्यन्पुष्पिता: सुरभीरभीः। 15/8
वे सुगंधित वनों की छटा निहारते हुए निर्भय चल पड़े। 2. वीतभय :-[ति+ई+क्त+ भय] निर्भय, निडर।
तपस्विसंसर्ग विनीत सत्त्वे तपोवने वीत्भया वसास्मिन्। 14/75 देखो तपस्वियों के साथ रहते-रहते यहाँ के सब जीव बड़े सीधे हो गए हैं, इसी आश्रम में तुम भी निर्भय होकर रहो।
अमृत
1. अमृत :-अमरता, अमृत, सुधा, पीयूष।
उत्तिष्ठ वत्सेत्यमृताय मानं वचो निशोम्योत्थित मुत्थितः सन्। 2/61 इसी बीच अमृत के समान मीठे वचन सुनाई दिए-उठो बेटा। राजा दिलीप ने सिर उठाया। जनाय शुद्धांत चराय शंसते कुमार जन्मामृत संमिताक्षरम्। 3/16 झट अंत:पुर के सेवक के राजा दिलीप के पास आकर पुत्र होने का अमृत समाचार सुनाया। तमंकमारोप्य शरीर योगजैः सुखैर्निषिंचंतं भिवामृतं त्वचि। 3/26 जब राजा उसे गोद में उठाते तब उसके शरीर को छूने से ही उन्हें जान पड़ता था मानो उनके शरीर पर अमृत की फुहारें बरस रही हों। विषमप्यमृतं क्वचिद्भवेदमृतं वा विषमीश्वरेच्छया। 8/46
For Private And Personal Use Only
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
20
कालिदास पर्याय कोश यह ईश्वर की इच्छा ही तो है, कहीं विष भी अमृत हो जाता है और कहीं अमृत
भी विष हो जाता है। 2. सुधा :-[सुष्ठु धीयते, पीयते धे [धा]+क+टाप्] पीयूष, अमृत।
उपस्थिता शोणित पारणा मे सुरद्विषश्चां द्रमसी सुधवे। 2/39 जैसे चन्द्रमा का अमृत राहु को मिलता है, वैसे ही यह गौ आ गई है।
अयोध्या 1. अयोध्या :-अयोध्या नगरी।
पुरमविशद अयोध्यां मैथिली दर्शिनीनां कुवलयति गवाक्षां लोचनै रंगना नाम्। 11/93 फिर वे उस अयोध्या नगरी में पहुँचे, जहाँ सीताजी को देखने के लिए उत्सुक,
नगर की सुंदर स्त्रियों की आँखें झरोखों में कमल के समान दिखाई पड़ रही थीं। 2. कौशल :- अयोध्या नगरी।
तस्मैविसज्योत्तरकोशलानां धर्मोत्तरस्तप्रभवे प्रभुत्वम्। 18/7
धर्मात्मा नल ने उस पुत्र को उत्तर कौशल राज्य सौंप दिया। 3. साकेत :-[सह आकेतेन] अयोध्या नगरी का नाम।
जनस्य साकेत निवासिनस्तौ द्वावष्य भूतामभिनयसत्त्वौ। 5/31 अयोध्या निवासियों ने इन दोनों की बड़ी प्रशंसा की।
अर्णव
1. अर्णव :-[अर्णासि सन्ति यस्मिन्-अर्णस्+व, सलोपः] समुद्र, सागर।
अधृष्यश्चाभिगम्यश्च यादोरलैरिवार्णवः। 1/16 किन्तु समुद्र के सुन्दर और मनोहर रत्नों को पाने के लिए, जैसे लोग समुद्र में पैठ ही जाते हैं। धियः समग्रैः स गुणैरुदारधीः क्रमाच्चस्त्रश्चतुरर्णवोपमाः। 3/30 बुद्धिमान् रघु ने अपनी तीव्र बुद्धि की सहायता से शीघ्र ही चारों समुद्रों के समान विस्तृत चारों विद्याएँ सीख लीं। ततः प्रकोष्ठे हरिचंदनांकित प्रमथ्यमानार्णव धीरनादिनीम्। 3/59 जिसमें से बाण चलाते समय ऐसा प्रचण्ड शब्द होता था, जैसे मथे जाने के समय क्षीर-समुद्र में होता था।
For Private And Personal Use Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
21
रामास्त्रोत्सारितोऽप्यासीत्सह्यलग्नं इवार्णवः ।1 4 / 53
यद्यपि परशुराम ने अपने फरसे से ही समुद्र को सह्य पर्वत से हटा दिया था, फिर भी ऐसा लगता है, मानो समुद्र फिर सह्याद्रि के पास से होकर बह रहा हो I निवारयामास महावराहः कल्पक्षयोद्वृत्तमिवार्णवाम्भः । 7/56 जैसे प्रलय के समय वराह भगवान् समुद्र के बढ़े हुए जल को चीरते हुए चलते
थे ।
विजयदुंदुभितां ययुरर्णवा घनरवा नरवाहन संपदः । 9 / 11
उस समय बादल के समान गरजता हुआ समुद्र उनकी विजय दुंदुभी बजाता था । प्राङ्मन्थादनभिव्यक्त रत्नोत्पत्तिरिवार्णवः । 10/3
जैसे समुद्र को रत्न उत्पन्न करने के लिए मथे जाने तक ठहरना पड़ा था । सप्तसामोपगीतं त्वां सप्तार्णवजलेशयम् । 10/21
सामवेद के सातों प्रकार के गीतों में आपके ही गुणों के गीत हैं, आप ही सातों समुद्रों के जल में निवास करते हैं।
त्वय्येव निपतंत्योधा जाह्नवीया इवार्णवे । 10/26
जैसे गंगाजी की सभी धाराएँ समुद्र में ही गिरती हैं, उसी प्रकार सभी मार्ग अलग-अलग होने पर भी आप में ही पहुँचते हैं।
तस्मिन्गते द्यां सुकृतोपलब्धां तत्संभवं शंखणमर्णवान्ता । 18 / 22 उन्होंने अपने पुण्य के बल से स्वर्ग प्राप्त किया और उनके पीछे शंखण नाम का उनका पुत्र शासक हुआ ।
तस्याननादुच्चरितो विवादश्चस्खाल वेलास्वपि नार्णवानाम् । 18 / 43 इस बालक अवस्था में भी उन्होंने जो आज्ञाएँ दीं, उन्हें समुद्र के तट वाले लोगों ने भी नहीं टाला।
2. अम्बुराशि : - [ अम्ब्+उण्+राशिः] समुद्र।
अनेन सार्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवनमर्मरेषु । 6 / 57
तुम चाहो तो इनके साथ विवाह करके समुद्रों के उन तटों पर विहार करो, , जहाँ दिन रात ताड़ के जंगलों की तड़तड़ाहट सुनाई देती है ।
For Private And Personal Use Only
अन्तर्निर्विष्ट पदमात्मविनाशहेतुं शापं दधज्ज्वलनमार्विमाम्बुराशिः । 9/82 जैसे समुद्र के हृदय में बड़वानल जला करता है वैसे ही, अपने पाप से अधीर हृदय में मुनि का शाप लिए हुए वे घर लौटे।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
22
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
वैदेहि पश्यामलयाद्विभक्तं मत्सेतुना फेनिलमम्बुराशिम् । 13 / 2
हे सीते ! इस फेन से भरे हुए समुद्र को तो देखो, जिसे मेरे बनाए हुए पुल ने मलय पर्वत तक दो भागों में बाँट दिया है।
3. अम्भस् :- [ आप् (अम्भ्)+असुन्] जल, समुद्र ।
वृद्धौ नदीमुखेनैव प्रस्थानं लवणाम्भसः । 17/54
ज्वार के समय जब समुद्र बढ़ता है तब नदियों के मार्ग से ही बढ़ता है दूसरे मार्गों से नहीं ।
4. उदधि :- [ उन्द+कनिन् उदक् इत्यस्य उदन् आदेशः +धि: ] समुद्र । आरुढमदीनुरधीन्वितीर्णं भुजंगमानां वसतिं प्रविष्टम् । 6/77 पर्वतों पर, समुद्र के तीर, पाताल में नागों के देश में, आकाश में। उदधेरिव निम्नगाशतेष्व भवन्नास्य विमानना क्वचित् । 8/8 जैसे समुद्र सैकड़ों नदियों से एक सा ही व्यवहार करता है, वैसे ही वे किसी का बुरा नहीं चाहते थे और न किसी से बैर करते थे ।
अथ रोधसि दक्षिणोदधेः श्रितगोकर्ण निकेतमीश्वरम् । 8/33
उसी समय दक्षिणी समुद्र के किनारे पर बसे हुए शंकरजी को । उदधेरिव रत्नानि तेजांसीव विवस्वतः । 10/30
जैसे समुद्र के रत्न और सूर्य की किरणें गिनी नहीं जा सकतीं।
भयमप्रलयोद्वेलादाच रव्युनैर्ऋतोदधेः । 10/34
जिन्होंने बिना प्रलयकाल आए ही सारे संसार की मर्यादा भंग करके चारों ओर हाहाकार मचा दिया है।
अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्णमेघस्तिरो दधे । 10 / 48
जैसे सूखे के दिनों में कोई बादल धान के खेत पर जल बरसाकर निकल जाय । निवातस्तिमितां वेलां चन्द्रोदय इवोदधेः । 12/36
जैसे वायु के रुके रहने से शान्त समुद्र का तट चन्द्रमा के निकलने पर हिलोरें लेने लगता है।
For Private And Personal Use Only
निविष्टमुदधेः कूले तं प्रपेदे विभीषणः । 12/68
जब राम समुद्र के तट पर पहुँचे, तो रावण का भाई विभीषण उनसे मिलने
आया ।
उदधेरिव जीमूताः प्रापुर्दातृत्वमर्थिन; । 17/72
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
23 जैसे बिना पानी के मेघ समुद्र के पास जाते हैं और वह इन्हें इतना जल दे देता
है कि वे संसार भर को जल बाँटने लगते हैं। 5. उदन्वान् :-[उन्द+कनिन्-उदक इत्यस्य उदन् आदेश:+वान्] समुद्र।
अवकाशं किलोदवानरामायाभ्यर्थितो ददौ। 4/58 वरन् उस प्रतापी समुद्र ने ही कर दिया, जिसने बहुत प्रार्थना करने पर परशुराम जी को थोड़ी सी भूमि दी थी। वेलासकाशं स्फुटफेनराजिनवैरुदन्वानिव चन्द्रपादैः। 7/19 जैसे चन्द्रमा की नई किरणें समुद्र की उजली झागवाली लहरों को खींचकर दूर किनारे तक ले आती हैं। ते च प्राहुरुदन्वन्तं बुबुधे चादिपुरुषः। 10/6 ज्यों ही देवता लोग क्षीर सागर में पहुँचे, त्यों ही विष्णु भगवान भी योग निद्रा से जाग उठे। वृषेव पयसां सारमाविष्कृत मुदवता। 10/52 जैसे इन्द्र ने समुद्र में से निकले हुए अमृत के कलश को थाम लिया। बभौ बलौघः शशिनोदितेन वेला मुदन्वानिव नीयमानः। 16/27
जैसे चन्द्रमा उदित होकर समुद्र को तट तक खींच लाता है। 6. उर्मिमाली :- समुद्र
प्रत्युज्जगामम क्रथकैशिकेन्द्रश्चंद्र प्रवृद्धोर्मिरिवोर्मिमाली। 5/6
जैसे समुद्र अपनी लहरें ऊँचे उठाकर चंद्रमा का स्वागत करता है। 7. क्षीरनिधि :-[धस्यते अद्यसे, घस्+ईरन्, उपधालोपः , घस्य ककारः षत्वं
च+निधि] दुग्ध सागर। दिलिप इति राजेन्द्ररिंदुःक्षीर निधाविव। 1/12 राजा दिलीप ने वैसे ही जन्म लिया, जैसे क्षीर सागर में चन्द्रमा ने जन्म लिया
था। 8. जलनिधि :-[जल्+अक्+निधि] समुद्र। शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्तं जलनिधिमनरूपं जहु कन्यावतीर्णा।
6/85 यह तो चाँदनी और चंद्रमा का मेल हुआ है और गंगाजी समुद्र में मिल गई हैं। 9. पयोधि :-[पय्+असुन्, पा+असुन्, इकारादेश +धि:] समुद्र।
For Private And Personal Use Only
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
24
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
एते वयं सैकतभिन्नशुक्तिपर्यस्त मुक्ता पटलं पयोधेः । 13/17
समुद्र के उस तट पर पहुँच गए, जहाँ बालू पर सीपों के फैल जाने से मोती बिखरे पड़े थे ।
10. महार्णव : - [ मह् + घ+टाप् + अर्णवः ] महासागर ।
पश्चात्पुरो मारुतयोः प्रवृद्धो पर्यायवृत्त्येव महार्णवोर्मी। 7/54
जैसे समुद्र की दो लहरें आगे-पीछे झोंका लेने वाले वायु से हटती बढ़ती रहती हैं।
तमेव चतुरन्तेशं रत्नैरिव महार्णवाः । 10/85
जैसे चारों समुद्रों ने रत्न देकर चारों दिशाओं के स्वामी राजा दशरथ को प्रसन्न कर लिया था ।
महार्णव परिक्षेपं लंकायाः परिखालघुम् । 12/66
उत्साह में लंका के चारों ओर का चौड़ा और गहरा समुद्र खाई से भी कम चौड़ा लगने लगा ।
11. महोदधि : - [ मह् + घ+टाप् + उदधि : ] महासागर ।
महोदधेः पूस इवेन्दुदर्शनाद् गुरुः प्रहर्षः प्रबभूवनात्मनि । 3/17
जैसे चन्द्रमा को देखकर महासमुद्र में ज्वार आ जाता है, वैसे ही पुत्र को देखकर
राजा को इतना आनंद हुआ कि वह उनके हृदय में न समा सका।
प्रापतालीवन श्याममुपकण्ठं महोदधेः । 4/34
उस समुद्र के किनारे पहुँचे, जो तट पर खड़े हुए वृक्षों की छाया पड़ने से काला दिखाई पड़ रहा था ।
ताम्रपर्णी समेतस्य मुक्तासारं महोदधेः । 4/50
ताम्रपर्णी और समुद्र के संगम से जितने मोती बटोरे थे ।
असौ महेन्द्राद्रिसमान सारः पतिमहेन्द्रस्य महोदधेश्च । 6 / 54
इनको देखती हो ! ये महेन्द्र पर्वत के समान शक्तिशाली हैं और महेन्द्र पर्वत और समुद्र दोनों पर इनका अधिकार है।
For Private And Personal Use Only
12. रत्नाकर :- [ रमतेऽत्र, रम+न, तान्तादेशः + आकार: ] समुद्र ।
रत्नाकरं वीक्ष्य मिथः स जायां रामाभिधानो हरिरित्युवाच । 13/1 गुणी तथा राम कहे जाने वाले विष्णु भगवान्, समुद्र को देखकर सीता जी से एकान्त में बोले ।
कृत सीता परित्यागः स रत्नाकरमेखलाम् । 15/1
सीताजी को छोड़ देने पर राम ने केवल समुद्रों से घिरी हुई।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
25
13. समुद्र :-[सह मुद्रया-ब०स०, सम्+उद्+रा+क] सागर, महासागर।
आसमुद्रक्षती शाना मानाकरथवर्त्मनाम्। 1/5 जिनका राज्य समुद्र के ओर-छोर तक फैला हुआ था, जिनके रथ पृथ्वी से सीधे स्वर्ग तक आया-जाया करते थे। पयोधरीभूत चतुःसमुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम्। 2/3 मानो साक्षात् पृथ्वी ने ही गौ का रूप धारण कर लिया हो और जिसके चारों थन ही पृथ्वी के चार समुद्र हो। लिपेर्यथावद्ग्रहणेन वाङ्मयं नदी मुखेनेव समुद्रमाविशत्। 3/28 पहले वर्णमाला लिखना-पढ़ना सीखा और फिर साहित्य का अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया मानो नदी के मुहाने से होकर समुद्र में पैठ गए हों। यथा वायुविभावस्वोर्यथा चंद्रसमुद्रयोः। 10/82 जैसे वायु और अग्नि का तथा चंद्रमा और समुद्र का जोड़ा कभी अलग नहीं होता। आभाति भूयिष्ठमयं समुद्रः प्रमथ्यमानो गिरिणेव भूयः। 13/14 इस समय यह समुद्र ऐसा जान पड़ रहा है, मानो मंदराचल फिर इसे मथ रहा हो। एषा विदूरी भवतः समुद्रात्सकाननां निष्पततीव भूमिः। 13/18 दूर निकल आने से यह जंगलों से भरी हुई भूमि ऐसी दिखाई पड़ रही है, मानो समुद्र में से अभी अचानक निकल पड़ी हो। सरित्समुद्रान्सरसीश्च गत्वा रक्षः कपीन्द्रैरुपपादितानि। 14/8 राक्षसों और वानरों के नायकों ने नदियों, समुद्रों और तालों से जो जल लाकर दिया। ददौ दत्तं समुद्रेण पीतेनेवात्मनिष्क्रयम्। 15/55 उन्हें समुद्र ने उस समय दण्ड के रूप में दिए थे, जब उन्होंने समुद्र को पी डाला था। समुद्ररसना साक्षात्प्रादुरासीद्वसुंधरा। 15/83 समुद्र की तगड़ी पहने साक्षात् धरती माता प्रकट हुईं। तस्मात्समुद्रादिव मथ्य मानादुवृत्तनक्रात्सहसोन्ममज्ज। 16/79 उस जल को समुद्र के समान मथा जाता देखकर घड़ियाल आदि जीव घबरा उठे।
For Private And Personal Use Only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
26
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
प्रवृद्धौ हीयते चन्द्रः समुद्रोऽपि तथा विध: 117/71
पूरा बढ़ चुकने पर चंद्रमा घटने लगता है और समुद्र की भी यही दशा होती है। 14. सरित्पति :- [ सृ + इति + पतिः ] समुद्र ।
कावेरीं सरितां पत्युः शंकनीया मिवाकरोत्। 4 / 45
इस प्रकार कावेरी नदी की ऐसी दुर्गति कर दी गई कि जब वह अपने पति समुद्र के पास जाय तो उसे उसके चरित्र में संदेह होने लगे ।
15. सागर :- [ सगरेण निर्वृत्तः +अण्] समुद्र, उदधि, सागर ।
तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपे नास्मि सागरम् । 1/2
तिनकों से बनी छोटी नाव लेकर अपार समुद्र को पार करने की बात सोच रहा
हूँ।
स वेलावप्रवलयां परिखीकृतसागराम् । 1/30
जिसका परकोटा समुद्र का तट था और जिसकी खाई का काम स्वयं समुद्र
करता था ।
महीधरं मार्गवशादुपेतं स्त्रोतोवहा सागरगामिनीव । 6 / 52
राजा सुषेण को छोड़कर उसी प्रकार आगे बढ़ गए, जैसे समुद्र की ओर बढ़ती हुई नदी बीच में पड़ते हुए पहाड़ को छोड़ जाती है ।
तमलभन्त पतिं पतिदेवताः शिखरिणामिव सागरपगाः । 9/17
जैसे पर्वत से निकलने वाली नदियाँ समुद्र को पा लेती हैं, वैसे ही उन्हें पति के रूप में पा लिया।
पावकस्य महिमा स गव्यते कक्षवज्ज्वलति सागरेऽपियः । 11/1
अग्नि का प्रताप तभी सराहनीय है जब वह समुद्र में भी वैसे ही भड़ककर जले जैसे सूखी घास के ढेर में I
भस्मसात्कृतवतः पितृद्विषः पात्रसाच्च वसुधांससागराम् । 11/8
पिता के शत्रुओं का नाश करने वाले और सागर तक फैली हुई पृथ्वी ब्राह्मणों को दान देने वाले मुझे ।
For Private And Personal Use Only
पौत्रः कुशस्यापि कुशेशयाक्षः ससागरां सागर धीरचेताः । 18/4 समुद्र के समान गंभीर चित्त वाले निषध ने भी सागर तक फैली पृथ्वी का भोग किया ।
16. सिंधुराज : - [ स्यन्द + उद् संप्रसारणं दस्य धः ] समुद्र, सागरराज ।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
27
विन्ध्यस्य संस्तम्भयिता महादेनिःशेषपीतोज्झित सिन्धुराजः। 6/61 जिन्होंने विन्ध्याचल को आगे बढ़ने से रोक दिया था और पूरे समुद्र को पीकर फिर मुंह से निकाल दिया था। अनन्यसामान्य कलत्र वृत्तिः पिबत्यसौ पाययते च सिन्धूः। 13/9 देखो ! दूसरे लोग केवल स्त्रियों का अधर पान करते हैं, अपना अधर उन्हें नहीं पिलाते। पर समुद्र इस बात में भी औरों से बढ़ कर है।
अलक
1. अलक :-[अल्+क्वुन्] धुंघराले बाल, जुल्फें, बाल।
रजोभिस्तुरगोत्कीर्णैरस्पृष्टालक वेष्टनौ। 1/42 घोड़ों के खुरों से उठी धूल न तो सुदक्षिणा के बालों को छू पाती थी और न राजा दिलीप की पगड़ी को। अलकेषु चमूरेणुश्चूर्ण प्रतिनिधी कृतः। 4/54 उनके बालों पर जो धूल बैठ गई थी, वह ऐसी लगती थी मानो कस्तूरी का चूरा लगा हो। शच्याश्चिरं पांडुकपोललंबांमंदाररन्यानलं कांश्चकार। 6/23 इंद्राणी के सिर की चोटी कल्पवृक्ष के फूलों का शृंगार न होने से उसके पीले गालों पर झूलने लगी। कुसुमोत्खचितान्वलीभृतश्चलयन्झंग रुचस्तवालकान्। 8/53 फूलों से गुंथी हुई और भौरों के समान काली तुम्हारी लटें जब वायु से हिलती
हैं।
इदमुच्छ्वसितालकं मुखं एव विश्रांत कथं दुनोति माम्। 8/55 तुम्हारा बिखरी अलकों से ढका मौन मुख देखकर मेरा हृदय फटा जा रहा है। अलकाभरणं कथं नु तत्तव नेष्यामि निवापमाल्यताम्। 8/62 तब तुम्हारे केशों को सजाने वाले उनके फूलों को मैं जलदान की अंजलि में कैसे ले सकूँगा। युवतयः कुसुमं दधुराहितं तदलके दलकेसरपेशलम्। 9/40 अपने प्रियतमों के हाथ से जूड़ों में खुंसे हुए वे सुंदर पंखड़ी वाले और पराग वाले फूल स्त्रियों के केशों में बड़े सुंदर लग रहे थे।
For Private And Personal Use Only
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
28
कालिदास पर्याय कोश सदृश कांतिरलक्ष्यत मंजरी तिलक जालक मौक्तिकैः। 9/44 वे ऐसे सुन्दर लगने लगे, जैसे किसी स्त्री ने अपने सिर पर मोतियों की माला पहन ली हो। वक्रेतराग्रैरलकैस्तरुष्यश्चूर्णारुणान्वारिलवान्वमंति। 16/66 तब इनके सीधे लटके हुए बालों से कुंकुम मिली हुई लाल रंग की बूंदे चूने
लगती हैं। 2. कच :-[कच्+अच्] बाल, सिर के बाल।
शापयंत्रित पौलस्त्यबलात्कार कच ग्रहैः। 10/47 रावण ने स्वर्ग की जिन स्त्रियों को अपने यहाँ बंदी किया है, उन बंदी स्त्रियों के जूड़े अपने हाथों से खोलेंगे। विद्महे शठ पलायनच्छलान्यंजसेति रुरुधः कचग्रहैः। 19/31 यह सुनकर रानियाँ ताड़ जाती और कहने लगतीं कि हम भी भली-भाँति जानती
हैं कि तुम किस मित्र के यहाँ जा रहे हो फिर बाल पकड़कर उसे रोक लेतीं। 3. केश :-[क्लिश्यते क्लिश्नाति वा-क्लिश्+अन् लोलोपश्च] बाल, सिर के
बाल। लताप्रतानोद्ग्रथितैः स केशैरधिज्यधन्वा विचचार दावम्। 2/8 उनकी शिर की लटें जंगल की लताओं के समान उलझ गई थीं, जब वे हाथ में धनुष लेकर जंगल में घूमते थे। चुकोप तस्मै स भृशं सुरश्रियः प्रसह्य केशव्य परोपणादिव। 3/56 उससे इंद्र को ऐसा क्रोध हुआ, मानो किसी ने देवताओं की राज-लक्ष्मी के सिर के बाल काट लिए हों। रोमांच लक्ष्येण स गात्रयष्टिं भित्वा निराक्रामदरालकेश्याः। 6/81 धुंघराले बालों वाली इंदुमती के हृदय का प्रेम छिपाने पर भी न छिप सका मानो खड़े हुए रोंगटों के रूप में वह प्रेम शरीर फोड़कर निकल आया हो। लद्धं न संभावित एव तावत्करेण रुद्धोऽपि च केशपाशः। 7/6 उस हड़बड़ी में अपना जूड़ा बांधने की भै उसे सुध न रही और वह अपने केश हाथों में थामे ही खिड़की पर पहुँच गई। हृतान्यपि श्येन नखाग्रकोटि व्यासक्तकेशानि चिरेण पेतुः। 7/46 उनके लंबे-लंबे बाल बाजों के नखें में उलझने से बहुत देर तक ऊपर ही टंगे रह जाते थे।
For Private And Personal Use Only
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
29 उद्वन्ध केशश्च्युत पत्रलेखो विश्लेषिमुक्ताफल पत्रवेष्टः। 16/67 यद्यपि स्नान के कारण बाल खुल जाने से, चित्रकारी के धुल जाने से, तथा मोतियों के कर्ण फूल कान से निकल जाने से। तं धूपाश्यान के शान्तं तोयनिर्णिक्त पाणयः। 17/22
धूप से सुगंधित केश वाले राजा अतिथि को। 4. शिरोरुह :-बाल।
धूम धुम्रो वसागंधी ज्वालाबभ्र शिरोरुहः। 5/16 उसका रंग धुएँ जैसा काला था, देह से चर्बी के गंध निकल रही थी, आग की लपटों के समान उसके बिखरे हुए बाल थे।
अलक्तक
1. अलक्तक :-[न रक्तोऽस्मात्, यस्य लत्वम्-स्वार्थे कन्] महावर, कुछ वृक्षों
से निकलने वाली राल। चूर्णं ब्र(लुलितस्रगाकुलं छिन्नमेखलमलक्तकांकितम्। 19/25 फैले हुए केशर के चूर्ण से सुनहरा दिखाई देता था, मसली हुई मालाएँ और टूटी
हुई तगड़ियाँ पड़ी रहती थीं और महावर की छाप पड़ी रहती थी। 2. चरणराग :- महावर।
स चरणरागमादधे योषितां न च तथा समाहितः। 19/26 कभी-कभी वह स्वयं स्त्रियों के पैरों में महावर लगाने बैठ जाता था, पर
भली-भाँति नहीं लगा पाता था। 3. द्रवराग :- महावर।
प्रसाधिकालंबितमग्र पादमाक्षिप्य काचिद्वरागमेव। 7/7 एक दूसरी स्त्री अपनी शृंगार करने वाली दासी से पैरों में महावर लगवा रही थी, वह भी उससे पैर खींचकर।
अवतंस
1. अवतंस :-[अव+तंस्+घञ्] हार, कर्णाभूषण, कान का गहना।
यवांकुरापांडु कपोल शोभी मयावतंस: परिकल्पितस्ते। 13/49 जिसकी कोंपल का कर्णफूल बनाकर मैंने तुम्हारे कान में पहनाया था और जो तुम्हारे जौ के अंकुर के समान पीले गालों पर लटकता हुआ।
For Private And Personal Use Only
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
30
कालिदास पर्याय कोश
अमी शिरीष प्रसवावतंसाः प्रभ्रंशिनो वारि विहारिणी नाम्। 16/61 इन जल-क्रीड़ा करने वाली रानियों के कानों से सिरस के कर्णफूल खिसककर
नदी में गिर कर तैर रहे हैं। 2. कर्णपूर :-[कर्ण+अप्+पूरः] कान का आभूषण, कान की बाली।
तदंजनक्लेदसमाकुलाक्षं प्रम्लान बीजांकुर कर्णपूरम्। 7/27 आँखों से आँजन मिला हुआ आँसू निकलने लगा, कानों के कर्णफूल कुम्हला
गए। 3. कर्णोत्पल :- कर्णफूल, काम का आभूषण।
कपोल संसर्पि शिखः स तस्या मुहूर्त कर्णोत्पलतां प्रपेदे। 7/26 जब इंदुमती के कपोल तक पहुँचा तब ऐसा जान पड़ा, मानो उन्होंने नीले कमल का कर्णफूल पहन रखा हो।
अवलेप
1. अवलेप :-[अव+लिप्+घञ्] अहंकार, घमण्ड, अत्याचार, अपमान।
मतंग शापादवलेप मूलादवाप्तवानस्मि मतंगजत्वम्। 5/53 एक बार मैंने अभिमान में आकर मतंग ऋषि का अपमान किया था उन्हीं के
शाप से मैं हाथी हो गया। 2. गंध :-[गन्ध+अच्] घमण्ड, अभिमान।
पक्षच्छिदा गोत्रभिदात्तगंधाः शरण्यमेनं शतशो महीध्राः। 13/7 उन सैकड़ों पहाड़ों ने भी इसकी शरण ली थी, जिनके पंख इन्द्र ने काट दिए थे
और जिनका अभिमान इन्द्र ने चूर कर दिया था। 3. दर्प :-[दृप्+घञ्, अच् वा] घमण्ड, अहंकार, अभिमान।
एताः करोत्पीडितवारिधारा दर्यात्सखीभिर्वदनेषु सिक्ताः। 16/66 जब इनकी सखियाँ इनके मुँह पर पानी डालती हैं और अहंकार से अपनी
सखियों पर पानी उछालती हैं। 4. मद :-[मद्+अच्] मादकता, घमण्ड, अहंकार, अभिमान।
वयोरूपविभूतिनामेकैकं मदकारणम्। 17/43 यौवन, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इनमें से एक भी वस्तु जिसके पास होती है, वह मतवाला हो जाता है।
For Private And Personal Use Only
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
31
रघुवंश 5. स्मय :-[स्मि+अच्] अभिमान, घमण्ड, गर्व।
ततो यथाव द्विहिताध्वराय तस्मै स्मया वेशविवर्जिताय। 5/19 ब्रह्मचारी कौत्स ने देखा कि विश्वजित यज्ञ करने पर भी रघु को अभिमान छू नहीं गया।
अविघ्न 1. अविन :-निर्वाध।
अविजमस्तु ते स्थेयाः पितेव धुरि पुत्रिणाम्। 1/91 ईश्वर करे तुम्हें कोई बाधा न हो और जिस प्रकार तुम अपने पिता के योग्य पुत्र हो, वैसे ही तुम्हें भी सुयोग्य पुत्र प्राप्त हो। साध्यम्यहमविघ्नमस्तु ते देवकार्यमुप पादयिष्यतः। 11/91 मैं अब जाता हूँ। आप देवताओं के जो कार्य करने के लिए आए हैं, वह बिना
विघ्न के पूरा हो। 2. अनघ :-निष्पाप, निरपराध, अक्षत, घात रहित, सुरक्षित।
तदंक शय्याच्युतनाभिनाला कच्चिन्मृगीणामनघा प्रसूतिः। 5/7 हरिणियों के वे छोटे-छोटे बच्चे तो कुशल से हैं न, जिनकी नाभि का नाल
ऋषियों की गोद में ही सूखकर गिरता है। 3. निरातंक :-[नृ+क्विप्, इत्वम्+आतंक] भय से मुक्त।
पुरुषात्युष जीविन्यो निरातंका निरीतयः। 1/63 मेरी प्रजा में कोई भी न तो बरस से कम आयु पाता और न किसी को किसी प्रकार की ईति तथा विपत्ति का डर रहता है।
अश
1. अश्रु :-[नपुं०] [अश्नुते व्याप्नोति नेत्रमदर्शनाय-अश्+क्रुन्] आँसू।
रघुभ्रशं वक्षसि तेन ताडितः पपात भूमौ सह सैनिकाश्रुभिः। 3761 उस वज्र की मार से रघु पृथ्वी पर गिर पड़े। उनके गिरते ही सैनिकों ने रोना-पीटना प्रारंभ कर दिया। श्रुत देह विसर्जनः पितुश्चिरमश्रूणि विमुच्य राघवः। 8/25 अपने पिता के देह त्याग का समाचार सुनकर अग्निहोत्र करने वाले अज बहुत रोए।
For Private And Personal Use Only
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
32
कालिदास पर्याय कोश अमुना कुसुमाश्रुवर्षिणा त्वम शोकेन सुगात्रि शोच्यसे। 8/63 यह अशोक वृक्ष फूलों के आँसू बरसाकर तुम्हारे लिए रो रहा है। मणि व्याजेन पर्यस्ताः पृथिव्यामश्रुविंदवः। 10/75 कुछ मणि पृथ्वी पर गिर पड़े मानो राक्षसों की लक्ष्मी के आँख ही ढुलक पड़े हों। मौलेरानाय या मासुभरतं स्तंभिताश्रुभिः। 12/12 भरत को उनकी ननिहाल से बुलाया, जिन्होंने अपने आँसू निकलने नहीं दिये
थे।
प्रत्युद्नत मिवानुष्णैस्तदा नंदाश्रु बिंदुभिः। 12/62 जिसका स्वागत सीताजी ने आनंद के ठण्डे आँसुओं से किया। तमश्रु नेत्रावरणं प्रभृज्य सीता विलापा द्विरता ववन्दे। 14/71 उन्हें देखकर सीता जी ने आँसू पोंछकर चुपचाप उन्हें प्रणाम किया। तद्गीतश्रवणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ। 15/66 सारी सभा गूंगी होकर उनका गीत सुनती जा रही थी और आँखों से आँसू बहाती जा रही थी। कदंब मुकुल स्थूलैरभितृष्टां प्रजाश्रुभिः। 15/99 जिस मार्ग से राम चल जा रहे थे, वह मार्ग राम के पीछे-पीछे जाने वाली जनता के आँसुओं से गीला हो गया था। प्रच्छदांत गलिताश्रु बिन्दुभिः क्रोध भिन्नवलयैर्विवर्तनैः। 19/22 तब वे कामिनियाँ बिना बोले ही बिस्तर के कोने पर आँसू गिराती हुईं क्रोध से
कंगन तोड़कर उनसे पीठ फेरकर सो जाती थीं। 2. नयनवारि :-[नी+ल्युट्+वारि] आँसू।
सोऽभूत्परासुरथ भूमिपतिं शशाप हस्तार्पितैर्नयनवारि भिरेववृद्धः। 9/18 इस पर बूढ़े तपस्वी ने अपने आँसुओं से अपनी अंजलि भरकर राजा को यह शाप दिया। तौ पितुर्नयनेन वारिणा किंचिदुक्षित शिखण्डकावुभौ। 11/5
पिता दशरथ की आँसुओं से दोनों राजकुमारों की चोटियाँ भीग गईं। 3. वाष्प :-[बाध्-पृषो०सत्वं पत्वं वा] आँसू, भाप।
विललाप स वाष्प गद्गदं सहजामप्यपहाय धीरताम्। 8/43
For Private And Personal Use Only
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
उनका स्वाभाविक धीरज जाता रहा, गला भर आया और वे डाढ़ मार कर रोने लगे। भूपतेरपि तयोः प्रवत्स्यतोर्नम्रयो रुपरि वाष्प बिंदवः। 11/4 दशरथ जी की आँखों से उन दोनों पर आँसू टपक पड़े।
अश्व 1. अश्व :-[अंश्+क्वन्] घोड़ा
पुनः पुनः सूत निषिद्धचापलं हरंतमश्वं रथरश्मिसंयताम्। 3/42 वह घोड़ा भी उनके रथ के पीछे बँधा हुआ, तुड़ाकर भागने का यत्न कर रहा है, जिसे इन्द्र का सारथी बार-बार संभालने का यत्न कर रहा है। अतोऽयमश्वः कपिलानुकारिणा पितुस्त्वदीयस्य मयासपहारितः। 3/50 जैसे कपिल मुनि ने तुम्हारे पुरखे सगर के घोड़े को हर लिया था, वैसे ही मैंने तुम्हारे पिता के इस घोड़े को हर लिया है। अमोच्य मश्वं यदि मन्यसे प्रभो ततः समाप्ते विधिनैव कर्मणि। 3/65 हे इन्द्र ! यदि आप घोड़े को नहीं देना चाहते हैं तो यही वरदान दीजिए कि मेरे पिता विधिपूर्वक यज्ञ को समाप्त करके। संग्रामस्तुमुलस्तस्य पाश्चात्त्यैरश्व साधनैः। 4/62 वहाँ पश्चिम देश के घुड़सवार राजाओं से रघु की घनघोर लड़ाई हुई। तेषां सदश्व भूयिष्ठास्तुंगा द्रविण राशयः। 4/70 उन राजाओं ने रघु को बहुत से घोड़े और बहुत सा धन दिया। ततो गौरी गुरुं शैलमाकरो हाश्व साधनः। 4/71 वहाँ से वे अपने घोड़ों की सेना लेकर हिमालय पहाड़ पर चढ़ गए। उत्थापितः संयति रेणुरश्वैः सान्द्रीकृतः स्यंदन वंश चक्रैः। 7/39 युद्ध-क्षेत्र में घोड़ों की टापों से जो धूल उठी, उसमें रथ के पहियों से उठी हुई धूल मिलकर और भी घनी हो गई। शस्त्रक्षता द्विपवीर जन्मा बालारुणोऽभूदुधिरप्रवाहः। 7/42 शस्त्रों से घायल घोड़ों, हाथियों और योद्धाओं के शरीर से निकला हुआ लहू प्रातः काल के सूर्य की लाली जैसा लगने लगा। तुरंगम स्कंधनिषण्ण देहं प्रत्याश्वसंतं रिपुमाचकांक्ष। 7/47
For Private And Personal Use Only
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
34
कालिदास पर्याय कोश एक घुड़सवार ने अपने शत्रु घुड़सवार पर पहले चोट की, चोट खाते ही वह घोड़े के कंधे पर झुक गया और इसमें इतनी भी शक्ति न रही कि सिर तक उठा सके। गगनमश्व खुरोद्धतरेणुभिर्नुसविता स वितान मिवाकरोत्। 9/50 उनके घोड़ों की टापों से इतनी धूल उठी कि आकाश में चंदोवा सा तन गया। चमरान्तपरितः प्रवर्तिताश्वः क्वचिता कर्ण विकृष्ट भल्लवर्षी। 9/66 चामर मृगों के चारों ओर अपना घोड़ा दौड़ाते हुए भाले की नोक वाले बाण बरसाकर उन मृगों की चँवर वाली पूँछे काट डाली। तमध्वराय मुक्ताश्वं रक्षः कपिनरेश्वरः। 15/58 कुछ दिन पीछे राम ने अश्वमेघ यज्ञ के लिए घोड़ा छोड़ा तो सुग्रीव-विभीषण ने। तस्यावसाने हरिदश्व धामा पित्र्यं प्रपेदे पदमश्विररूपः। 18/28 उनके पीछे उनके अश्विनी कुमार के समान सुंदर और सूर्य के समान तेजस्वी
पुत्र राजा हुए, जिन्होंने अपने घोड़ों को समुद्र के तट पर ठहराया। 2. तुरंग :-[तुर+गम्+खच् मुम् व ङिच्च्] घोड़ा। नियुज्य तं होमतुरंग रक्षणे धनुर्धरं राजसुतैरनुद्रुतम्। 3/38 यज्ञ के घोड़े की रक्षा का भार रघु और अन्य धनुर्धर राजकुमारों को सौंपकर। ततः परं तेन मखाय यज्वना तुरंग मुत्सृष्टत्सृमनर्गलं पुनः। 3/39 तब दिलीप ने सौवां यज्ञ करने के लिए घोड़ा छोड़ा, इंद्र को यह बात खटकी। पत्तिः पदातिं रथिनं रथेशस्तुरंग सादी तुरगाधिरूढम्। 7/37 पैदल-पैदलों से, रथवाले रथवालों से और घुड़सवार-घुड़सवारों से जूझ पड़े। तुरंगस्कंधनिषण्ण देहं प्रत्यश्वसंतं रिपुमाचकांक्ष। 7/47 चोट खाते ही वह घोड़े के कंधे पर झुक गया, उसने यह देखकर फिर उस पर हाथ नहीं उठाया, उल्टे मनाने लगा कि वह फिर से जी उठे। स्थिरतुरंगमभूमि निपानवन्मृगयोगवयोपचितं वनम्। 9/53 वहाँ की पृथ्वी घोड़ों के लिए पक्की थी, वहाँ बहुत से ताल थे, जिनके चारों ओर बहुत से हरिण, पक्षी और बनैली गाएँ घूमा करती थीं। श्रमफेन मुचा तपस्विगाढां तमसां प्राप नदीं तुरंगमेण। 9/72 थकावट के कारण उनका घोड़ा मुँह से झाग फेंकने लगा, उसी पर चढ़े हुए वे तमसा नदीके उस तट पर निकल गए, जहाँ बहुत से तपस्वियों के आश्रम बने हुए थे।
For Private And Personal Use Only
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
35
अथानुकूल श्रवण प्रतीतामत्रस्नुभिर्युक्तधुरं तुरंगैः । 14/47
जिसके घोड़े ऐसे सधे हुए थे कि रथ के चलते समय गर्भिणी सीता को तनिक भी हचक नहीं लगने पाती थी ।
गुरोर्ययक्ष कपिलेन मेध्ये रसातलं संक्रमिते तुरंगे । 13 / 3
जब हमारे पुरखे महाराजा सगर अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। तब कपिल जी उनका घोड़ा पाताल लोक में चुरा ले गए।
सा मंदुराश्रयिभिस्तुरंगैः शालाविधिस्तंभगतैश्च नागै: । 16/41 अयोध्या में घुड़साल में घोड़े बँधे हुए थे, हथसारों के खंभों से हाथी बँधे हुए थे । तद्गमग्र्यं मघवन्महाक्रतोरमुं तुरंग प्रतिमोक्तुमर्हसि । 3 / 46
इसलिए हे इन्द्र आप मेरे पिता के अश्वमेध यज्ञ के लिए घोड़े को छोड़ दीजिए ।
3. तुरग : - [ तुरेण वेगेन गच्छति - तुर+ गम् + इ] घोड़ा ।
रजो भिस्तुरगोत्कीर्णैरस्पृष्टालकवेष्टनौ । 1/42
घोड़ों के खुरों से उठी हुई धूल न तो सुदक्षिणा के बालों को छू पाती थी और न राजा दिलीप की पगड़ी को ।
ततः प्रहस्यापभयः पुरंदरं पुनर्वभाषे तुरगस्य रक्षिता । 3 / 51
यह सुनकर अश्व के रक्षक रघु ने निडर होकर हँसते हुए इन्द्र से कहा ।
पत्तिः पदातिं रथिनं रथेशस्तुरंगसादी तुरगाधिरूढम् । 7/37 पैदल-पैदलों से, रथवाले रथवालों से और घुड़सवार घुड़सवारों से उलझ पड़े। रथतुरगरजोभिस्तस्य रूक्षलकाग्रा । 7/70
उनके रथ के घोड़ों की टापों से उठी हई धूल से इंदुमती के केश भर गए । तुरग वलान चंचल कुण्डलो विरुरुचे रुरुचेष्टित भूमिषु । 9 / 51 घोड़ों के वेग से चलने के कारण, उनके कानों के कुण्डल भी हिल रहे थे, इस वेष में चलते-चलते वे उस जंगल में पहुँचे जहाँ रुरु जाति के बहुत हरिण घूमा करते थे।
For Private And Personal Use Only
अपि तुरग समीपादुत्य तन्तं मयूरं । 9/67
कभी-कभी उनके घोड़े के पास से सुंदर मोर भी उड़ जाते थे 1
तेनावतीर्य तुरगात्प्रथितान्वयेन पृष्ठान्वयः स जल कुंभ निसण्ण देहः ।
9/76
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
36
कालिदास पर्याय कोश जब उन्होंने ने घोड़े पर से उतरकर घड़े पर झुके हुए मुनिपुत्र से उसका वंश
परिचय पूछा। 4. धुर्य :-[धुर+यत्] घोड़ा या बैल।
अथ यंतारमादिश्य धुर्यान्विश्रामयेति सः। 1/54
तब राजा दिलीप ने अपने सारथी को आज्ञा दी कि घोड़ों को ठण्डा करो। 5. वाजि :-पुं० [वाज्+इनि] घोड़ा।
शतैस्त्रभक्ष्णामनिमेषवृत्तिभिर्हरिं विदित्वा हरिभिश्च वानिभिः। 3/43 घोड़े के हरने वाले के शरीर पर आँखें ही आँखें हैं, उन आँखों की पलकें कभी नहीं गिरती हैं और उनके रथ के घोड़े भी हरे-हरे हैं। तस्मै सम्यग्घुतो वह्निर्वाजिनीराजनाविधौ। 4/25 चलने से पहले घोड़ों की पूजा के लिए हवन होने लगा और हवन की आग भी। अस्य प्रयाणेषु समग्र शक्तेरग्रेसरैर्वाजिभिरुत्थितानि। 6/33 जब ये शत्रुओं पर चढ़ाई करते हैं, तब सेना के आगे चलने वाले घोड़ों की टापों से उठी हुई धूल से। तत्प्रार्थितं जवनवाजि गतेन राज्ञा तूणीमुखोद्धृत शरेण विक्षीर्ण पंक्ति।
9/56 राजा ने ज्यों ही अपने वेग गामी घोड़े पर चढ़कर और अपने तूणीर में से बाण
निकालकर, उनका पीछा किया कि वह झुंड तितर-बितर हो गया। 6. वाहन :- [वाहयति-वह+णिच् ल्युट्] घोड़ा।
स दुष्प्रापयशाः प्रापदाश्रमं श्रान्त वाहनः । 1/48 इतने थोड़े समय में इतनी दूर की यात्रा करने के कारण उनके घोड़े भी थक चुके थे। वक्त्रोष्मणा मलिनर्यति पुरोगतानि लेह्यानि सैंधवशिला शकलानि वाहाः।
5/73 घोड़े नींद छोड़कर सेंधे नमक के उन टुकड़ों को अपने मुँह की भाप से मैला कर रहे हैं, जो चाटने के लिए उनके आगे रखे हुए हैं। जिगामिषुर्धनपाध्युषितां दिशं रथयुजा परिवर्तित वाहनः। 9/29 सूर्य भी उत्तर की ओर घूम जाना चाहते थे, इसलिए उनके सारथी अरुण ने घोड़ों की रास उधर ही मोड़ दी।
For Private And Personal Use Only
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
37
रघुवंश
तं वाहनादवनतोत्तारकायमीषद् विध्यंतमुद्धतसयः प्रतिहंतुमीषुः। 9/60 ज्यों ही उन्होंने घोड़े पर चढ़े हुए अपने शरीर को आगे झुकाकर उन सुअरों पर
बाण चलाए, त्यों ही वे भी अपने कड़े बाल खड़े करके उन पर झपटे। 7. हरि :-[ह+इन्] घोड़ा।
ततार विद्याः पवनाति पातिभिर्दिशो हरिद्भिहरितामिवेश्वरः। 3/30 जैसे सूर्य अपने सरपट दौड़ने वाले घोड़ों की सहायता से शीघ्र ही चारों दिशाओं को पार कर लेता है, वैसे ही उन्होंने विद्या सीख ली। नामांक रावण शरांकित केतुयष्टिमूर्ध्वं रथं हरि सहस्रयुजं विनाय। 12/103 मातलि उनसे आज्ञा लेकर अपना सहस्रों घोड़ों वाला रथ लेकर स्वर्ग में चला गया, उस रथ की ध्वजा पर अभी तक रावण के नाम खुदे हुए बाणों के चिह्न पड़े हुए थे।
अश्वमेध 1. अश्वमेध :-[अंश्+क्वन्+मेधः] एक यज्ञ जिसमें घोड़े की बलि चढ़ाई जाती
प्रीत्याश्व मेधावभृथाई मूर्तेः सौस्नाति को यस्यभवत्यगस्त्यः। 6/61 जब ये अश्वमेध यज्ञ करके स्नान करते हैं, तब इनसे वे महाप्रतापी अगस्त्य ऋषि आकर कुशल पूछते हैं। जिगीषोरमेधाय धर्म्यमेव बभूव तत्। 17/76 अश्वमेध के लिए जब वे दिग्विजय करने निकले, उस समय भी उन्होंने धर्म से
ही काम लिया। 2. महाक्रतु :-[महा+क्रतु] महायज्ञ।
तदंग मग्रंयं मधवन्महाक्रतोरमुं तुरंगं प्रतिभोक्तृमर्हति। 3/46 इसलिए हे इन्द्र ! आप मेरे पिता के अश्वमेध यज्ञ के लिए इस घोड़े को छोड़ दीजिए। ऋत्विजः स तथाऽऽनर्च दक्षिणाभिर्महाक्रतौ । 17/80 अश्वमेध के समय जिन ब्राह्मणों ने यज्ञ कराया था, उनका इतना सत्कार किया।
For Private And Personal Use Only
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
38
कालिदास पर्याय कोश
आ
आकाश गंगा 1. आकाश गंगा :-[आ+काश्+घञ्+गंगा] दिव्य गंगा, आकाश गंगा।
नदत्याकाश गंगाया: स्रोतस्युद्दामदिग्गजे। 1/78 उस समय बड़े-बड़े मतवाले दिग्गज आकाश गंगा में खेलते हुए बहुत चिंघाड़ रहे थे। आकाश गंगारतिरप्सरोभिवृतो मरुत्वाननुयातलीलः। 16/71
मानो देवराज इन्द्र अप्सराओं के साथ आकाश गंगा में जलक्रीड़ा कर रहे हों। 2. व्योमगंगा :-[व्ये+मनिन्+गंगा] स्वर्गीय गंगा।
तमाधूत ध्वज पटं व्योम गंगोर्मिवायुभिः। 12/85
उस रथ की ध्वजा आकाश गंगा की लहरों के पवन से। 3. त्रिमार्गगा :- आकाशगंगा।।
असौ महेन्द्र द्विपदा नगंधिस्त्रिमार्गगा वीचि विमर्दशीतः। 13/20 ऐरावत के मद की गंध में बसा हुआ और आकाशगंगा की लहरों से ठंडाया हुआ
आकाश का वायु। 4. त्रिस्तोतस :- आकाश गंगा।
कृताभिषेकैर्दिव्यायां त्रिस्तोतसि च सप्तभिः। 10/63 आकाश गंगा में स्नान करके सप्तर्षि भी।
आगम 1. आगम :-[आ+गम्+घञ्] धार्मिक लेख, धर्मग्रन्थ, शास्त्र।
आकारसदृश प्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः। आगमैः सदृशारंभ आरंभसदृशोद यः। 4/15 जैसा सुंदर उनका रूप था, वैसे ही तीखी उनकी बुद्धि थी, जैसी तीखी बुद्धि थी वैसी ही शीघ्रता से उन्होंने सब शास्त्र पढ़ डाले थे। इसलिए वे शास्त्र के अनुसार ही किसी काम में हाथ डालते थे। फल यह होता था कि उन्हें वैसे बड़ी सफलता भी अवश्य हाथ लगती थी।
For Private And Personal Use Only
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
39
रघुवंश
बहुधा प्यागमैर्भिन्नाः पंथानः सिद्धहेतवः। 10/26 परमानंद पाने के जितने मार्ग बताए गए हैं, वे अलग-अलग शास्त्रों में
अलग-अलग रूप से बताए जाने पर भी सब आप में पहुँचते हैं। 2. शास्त्र :-[शिष्यतेऽनेन-शास्+ष्ट्रन्] धार्मिक ग्रंथ, वेद, धर्मशास्त्र।
शास्त्रेष्वकुंठिता बुद्धिौर्वी धनुषि चातता। 1/19 शास्त्रों का उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था और धनुष चलाने में भी वे एक ही थे। अथ विधिमवसाय्य शास्त्रदृष्टं दिवस मुखोचित मंचिताक्षिप्क्षमा। 5/76 सुंदर पलकों वाले राजकुमार अज ने उठकर शास्त्र से बताई हुई प्रात:काल की
सब उचित क्रियाएँ की। 3. श्रुत :-[श्रु+क्त] वेद, पवित्र अधिगम, पुनीत ज्ञान।
श्रुत प्रकाशं यशसा प्रकाशः प्रत्युज्जगामातिथिमातिधेयः। 5/2 शास्त्र के जानने वाले सम्माननीय रघु ने बड़ी विधि से उनकी पूजा की और हाथ जोड़कर उनसे बोले। गुर्वर्थम श्रुत पारदृश्वा रघोः सकाशादनवाप्यकामम्। 5/24 जब वैदिक ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ कौत्स ने यह कहा, तब चन्द्रमा के समान सुंदर परम धार्मिक रघु बोले।
आतपत्र
1. आतपत्र :-[आ+तप्+घञ्+त्रम्] छाता, छत्र।
तमातपक्लान्तमनातपत्रमाचार पूतं पवनः सिषेवे। 2/13 वायु उन सदाचारी राजा दिलीप को ठंडक देता चल रहा था, जिन्हें छत्र न होने के कारण धूप से कष्ट हो रहा था। पुंडरीकातपत्रस्तं विकसत्काशचामरः। 4/17 शरदऋतु भी रघु के छत्र और चँवर को देखकर कमल के छत्र और फूले हुए काँस के चँवर लेकर होड़ करने चली। ते रेखाध्वज कुलिशातपत्र चिह्न सम्राजश्चरणयुगं प्रसाद लभ्यम्। 4/88 जाते समय उन राजाओं ने रघु के उन चरणों में झुककर प्रणाम किया, जिन पर
ध्वजा, वज्र और छत्र आदि की रेखाएँ बनी थीं। 2. छत्र :-[छादयति अनेन इति-छद्+णिच्+ वन्] छाता, छतरी।
For Private And Personal Use Only
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
40
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
रजो विश्रामयन्राज्ञां छत्रशून्येषु मौलिषु । 4 / 85
उठी हुई धूल पीछे-पीछे चलने वाले हारे हुए राजाओं के छत्र-रहित सिर पर बैठती चलती थी ।
आप्त
1. आप्त :- [ आप्+क्त] संबंधी, मित्र, विश्वसनीय ।
निग्रहात्स्व सुराप्तानां वधाच्चधनदानुजः । 12 /52
बहन का अपमान और खरदूषण आदि अपने संबंधियों का वध रावण को इतना अपमानजनक लगा ।
2. स्वजन :- [ स्वन् +ड+जन: ] बंधु, रिश्तेदार ।
स्वजनाश्रु किलति संततं दहति प्रेतमिति प्रचक्षते । 8/86 जब कुटुंबी बहुत रोते हैं, तब उससे प्रेतात्मा को कष्ट होता है। आपद
1. अंतराय :- [ अन्तर् + अय् +अच्] अवरोध, बाधा, रुकावट । आपाद्यते न व्ययमन्तरायैः कच्चिन्महर्षेस्त्रिविधंतपस्तत् । 5/5 जो कठिन तप करना प्रारंभ किया था, वह तप तो ठीक चल रहा है। 2. आपद : - [स्त्री० ] [ आ + पद्+क्विप्] संकट, मुसीबत। दैवीनां मानुषीणां च प्रतिहर्ता त्वमापदाम् । 1/60
दैवी विपत्तियों और मानुषी आपत्तियों को दूर करने वाले आप हैं ही। सानुबंधाः कथं नु स्युः संपदो मे निरापदः । 1/64 तो हमारी संपत्ति निर्विध्न होकर क्यों न रहे ।
2. उपप्लव : - [ उप + प्लु+अप्] विपत्ति, संकट, दुख, आपदा । जीवन्पुनः शश्वदुपप्लवेभ्यः प्रजाः प्रजानाथ पितेव पासि । 2/46
पर यदि जीते रहोगे, तो पिता के सामन तुम अपनी पूरी प्रजा की रक्षा कर सकोगे।
For Private And Personal Use Only
कच्चिन वाय्वादिरुपप्लवे वः श्रमच्छिदामाश्रम पादपानाम् । 5/16 जिनसे पथिकों को छाया मिलती है, उन वृक्षों को आँधी पानों से कोई हानि तो नहीं पहुची है।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश 4. विज :-[वि+हन्+क] बाधा, रुकावट, अड़चन।
प्रतिशुश्राव काकुत्स्थस्तेभ्यो विघ्नपति क्रियाम्। 15/4 राम ने उनके विघ्न दूर करने की प्रतिज्ञा की।
आई
1. आर्द :-[अर्द+र+दीर्घश्च] गीला, हरा, ताजा, नया, मृदु, कोमल।
स्वेद्यनुविद्धानखक्षतांके भूयिष्ठ संदृष्टशिखं कपोले। 16/48 स्त्रियों के गालों पर प्रियतम के हाथों से बने नखक्षतों पर पसीने की बूंदे फैल जाती थीं। स्नानार्दमुक्तेष्वनुधूपवासं विन्यस्त सायंतनमल्लिकेषु। 16/50 जो स्नान करने पर खोल दिए जाते थे और जिनमें शाम को फूलने वाली चमेली
के सुगंधित फूल खोंस लिए जाते थे। 2. नव :-[नु+अप्] नया, ताजा, नवीन।
विडंब्यमाना नवकंदलैस्ते विवाह धूमारुणलोचनं श्रीः। 13/29 उससे कंदलियो की कलियाँ खिल उठी और वैसी ही लाल-लाल हो गईं, जैसे विवाह के सामय हवन का धुआँ लगने से तुम्हारी आँखें लाल हो गई थीं।
आश्रम 1. आश्रम :-[आ+श्रम्+घञ्] पर्णशाला, संन्यासियों का आवास या कक्ष।
तौ दंपती वशिष्ठस्य गुरोर्जग्मतराश्रमम्। 1/35 वे दोनों पति-पत्नी अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी के आश्रम की ओर चले। अभ्युत्थिताग्नि पिशुनैर तिथीनाश्रमोन्मुखान्। 1/53 उस धुएँ ने आश्रम की ओर आते हुए अतिथियों को भी पवित्र कर दिया। पप्रच्छ कुशलं राज्ये राज्याश्रममुनिं मुनिः। 1/58 मनि वशिष्ठ जी ने राजर्षि दिलीप से पूछा कि आपके राज्य में सब कुशल तो है। सिक्तं स्वयमिव स्नेहा द्वन्ध्यमाश्रम वृक्षकम्। 1/70 जैसे अपने हाथों से प्रेम से सींचे हुए आश्रम के वृक्ष में फल लगता न देखकर बड़ा दुःख होता है। तदन्विता हैमवताच्च कुक्षेः प्रत्याययावश्रमश्रमेण। 2/67
For Private And Personal Use Only
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
42
www. kobatirth.org
कालिदास पर्याय कोश
राजा के साथ ही हिमालय की उस कंदरा से बिना थके ही आश्रम की ओर
लौटी।
मा भूदाश्रम पीडेति परिमेय पुरःसरौ । 1 / 37
उन्होंने अपने साथ बहुत से सेवक नहीं लिये थे क्योंकि उन्हें ध्यान था कि बहुत भीड़-भाड़ ले जाने पर आश्रम के काम में बाधा होगी ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कच्चिन वाय्वादिरुपप्लवोवः श्रमच्छिदामाश्रम पादपानाम् । 5/6
आप लोगों ने आश्रम के जिन वृक्षों के थाँवले बाँधकर उन्हें पुत्र के समान पाला था, उन वृक्षों का आँधी-पानी से कोई हानि तो नहीं पहुँची है। सिद्धाश्रमं शांतमिवैत्य सत्वैनैसर्गिकोऽप्युत्ससृजे विरोध: । 6/46 जैसे ऋषियों के शांत आश्रम में सब जीव बैर छोड़कर एक साथ रहते हैं। अथ तं सवनाय दीक्षितः प्रणिधानाद् गुरूराश्रम स्थितः । 8/75 उन दिनों वशिष्ट जी यज्ञ कर रहे थे, उन्होनें आश्रम में ही योग बल से । तं क्षुर प्रशकलीकृतं कृती पत्रिणांब्यभजदाश्रमाद्वहिः । 11/29 अपने बाणों से टुकड़े-टुकड़े करक आश्रम के बाहर मार गिराया, जिसे पक्षियों क्षण भर में बाँट खाया ।
तैः शिवेषु वषतिर्गताध्वमिः सायमाश्रमतरुष्वगृहयत् । 11/33
वे उस आश्रम के सुंदर वृक्षों के तले टिक गए, जहाँ अहल्या थोड़ी देर के लिए इंद्र की पत्नी बन गई थीं ।
पयोघटैराश्रम बाल वृक्षान्संवर्धयंती स्वबालानुरूपैः । 14/78
जो जल के घड़े तुम से उठ सकें, उन्हें लेकर तुम आश्रम के पौधों को प्रेम से सींचा करो ।
सायं मृगाध्यासितवेदि पार्श्व स्वमाश्रमं शांत मृगं निनाय । 14 / 79 उनके आश्रम मे चली गई, जहाँ साँझ हो जाने के कारण बहुत से मृग वेदी को घेरकर बैठे हुए थे और सिंह आदि जंतु भी चुपचाप आँख मूँदे पड़े थे। अनिनाय भुवः कंपं जहाराश्रमवासिनाम्। 15/24
धरती काँप उठी पर हाँ, आश्रम वासियों का काँपना दूर हो गया।
2. ऋषिकुल : - [ ऋष्+इन्, कित+कुल ] आश्रम ।
प्रययावातिथेयेषु वसन् ऋषि कुलेषु सः । 12/25
www
अतिथि सत्कार करने वाले ऋषियों के आश्रमों में टिकते हुए राम भी दक्षिण ओर बढ़ चले।
For Private And Personal Use Only
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
44
रघुवंश 3. तपोवन :-[तप्+असुन्+वनम्] तपोभूमि, पवित्रवन।
वधूभक्तिमती चैनामर्चितामा तपोवनात्। 1/90 तुम्हारी वधू को चाहिए कि वह नित्य प्रातः काल बड़ी भक्ति से इसकी पूजा किया करे और जब यह वन का जाने लगे तब ये तपोवन के बाड़े तक। उभावलंचक्रतुरंचिताभ्यां तपोवनावृत्तिपथं गताभ्याम्। 2/18 उन दोनों को धीरे-धीरे चलते देखकर तपोवन का मार्ग बस देखते ही बनता था। स जात कर्मण्यखिले तपस्विना तथेनादेत्य पुरोधसाकृते। 3/18 वशिष्ट जी ने जब यह समाचार पाया, तब वे भी आए और स्वभाव से ही सुंदर उस बालक के जाति कर्म आदि संस्कार किये। बद्ध पल्लव पुटांजलिदुमं दर्शनोन्मुख मृगं तपोवनम्। 11/23 उस आश्रम में वृक्ष भी अपने पत्तों की अंजली बाँधे खड़े थे और मृग भी बड़ी उत्सुकता से इन लोगों को देख रहे थे। इयेषुभूयः कुशवंति गंतुं भागीरथीतीरतपोवनानि। 14/28 मै गंगा जी के तट के उन तपोवनों को देखना चाहती हूँ, जहाँ कुश की झोपड़ियाँ चारों ओर खड़ी हैं। प्रजावती दोहदशंसिनी ते तपोवनेषु स्पृहयालुरेव। 14/45 तुम्हारी गर्भिणी भाभी तपोवन देखना चाहती ही हैं। तपस्विसंसर्ग विनीतसत्त्वे तपोवने वीतभ्यावसादस्मिन्। 14/75 देखो तपस्वियों के साथ रहते-रहते यहाँ के सब जीव बड़े सीधे हो गए हैं। इसी आश्रम में तुम भी निर्भय होकर रहो।
आसन
1. आसन :-[आस्+ल्युट्] बैठना, आसन, स्थान।
सुरेन्द्रमात्राश्रित गर्भ गौरवात्प्रयत्न मुक्तासनया गृहागतः। 3/11 जब धीरे-धीरे रानी सुदक्षिणा का वह गर्भ बढ़ने लगा, जिसमें लोकपालों के अंश भरे थे, तब उन्हें उठने-बैठने में भी कठिनाई होने लगी। नपतिः प्रकृतीरवेक्षितुं व्यवहारासनमाददे युवा। 8/18 इधर युवा राजा अज जनता के कामों की देखभाल करने के लिए न्याय के आसन पर बैठते थे।
For Private And Personal Use Only
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
44
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
तत्र नागफणोत्क्षिप्त सिंहासन निषेदुषी । 15/83 उसमें से नाग के फण पर रक्खे हुए सिंहासन पर बैठी हुई । 2. विष्टर : - [ वि + स्तृ+अप् + षत्वम् ] आसन, तह, परत । परिचेतुमुपांशु धारणां कुश पूतं प्रवयास्तु विष्टरम् । 8 / 18 बूढ़े रघु अपने मन को साधने का अभ्यास करने के लिए अकेले में पवित्र आसन पर बैठते थे ।
तां दृष्टिविषये भर्तुर्मुनिरास्थित विष्टरः । 15 / 79
आसन पर बैठे हुए वाल्मीकि जी ने सीता जी से कहा ।
इन्दु
कुशा के
1. इन्दु :- [ उनन्ति क्लेद यति चन्द्रिकया भुवनम् - उन्द् + उ आदेरेच्चि ] चंद्रमा ।
दिलीपइति राजेन्दुरिन्दः क्षीरनिधा विव । 1 / 12
राजाओं में चन्द्रमा समान सबको सुख देने वाले राजा दिलीप ने वैसे ही जन्म लिया जैसे क्षीरसागर में चन्द्रमा ने जन्म लिया था ।
तस्याः प्रसन्नेन्दुमुखः प्रसादं गुरुर्नृपाणां मुखे निवेद्य | 2/68
निर्मल चंद्रमा के समान संदर मुख वाले राजाधिराज दिलीप जब वशिष्ठ जी के पास पहुँचे, तब उनकी प्रसन्नता को देखते ही वशिष्ठ जी सब बातें पहले से
समझ गए।
महोदधेः पूर इवेन्दुदर्शनाद् गुरुः प्रहर्षः प्रभूवनात्मनि । 3/17 जैसे चन्द्रमा को देखकर महासमुद्र में ज्वार आ जाता है, वैसे ही पुत्र को देखकर राजा को इतना अधिक आनंद हुआ कि वह उनके हृदय में समा न सका । नभसा निभृतेन्दुना तुलामुदितार्केण सामरुरोह तत् । 8/15
For Private And Personal Use Only
जिसमें एक ओर चंद्रमा छिप रहे हों और दूसरी और सूर्य निकल रहे हों आभाति पर्यन्तवनं विदूरान्मेघान्तरालक्ष्यमिवेन्दु बिंबम् | 13 / 38 काले-कले जंगलों से घिरा हुआ दूर से ऐसा दिखाई पड़ रहा है, मानों बादलों के बीच मे कुछ-कुछ दिखाई देने वाला चंद्रमा हो ।
अतिष्ठन्मार्गमावृत्य रामस्येन्दोरिव ग्रहः । 12 / 28
जैसे चंद्रमा का मार्ग राहु रोक लेता है, वैसे ही वह भी राम का मार्ग रोककर खड़ा हो गया ।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
45
ग्घुवंश
महौजसा संयुयुजे शरत्काल इवेन्दुना। 15/54 जैसे चन्द्रमा शरद ऋतु से मिलता है। इन्दोरगतयः पद्मे सूर्यस्य कुमुदऽशवः। 17/75 चंद्रमा की किरणें कमल में तथा सूर्य की किरणें कुमुदों में नही पैठ पातीं। सुते शिशावेव सुदर्शनाख्ये दर्शात्ययेन्दु प्रियदर्शने सः। 18/35 उस समय तक द्वितीय के चंद्रमा के समान सुन्दर लगने वाला सुदर्शन नाम का उनका पुत्र बालक ही था। नवेन्दुना तन्नभसोपमेयं शावैक सिंहने च काननेन। 18/37 जैसे द्वितीय के चंद्रमा से आकाश, सिंह के बच्चे से वन शोभा देता है। व्योम पश्चिम कला स्थितेन्दु वा पंकशेषमिव धर्मपल्वलम्। 19/51 जैसे एक कला भर बचा हुए कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का चंद्रमा हो या कीचड़
भर बचा हुआ गर्मी के दिनों का ताल या तनिक सी बची हुई दीपक की लौ हो। 2. उडुपति :-[उड्-कुबा०+पतिः] चंद्रमा।
योषितामुडुपतेरिवार्चिषां श्पर्षनिर्वृतिमसाववाप्नुवन। 19/34
स्त्रियों के श्पर्ष से उसे वैसा ही आनंद मिलता था, जैसे चंद्रमा की किरणों से। 3. औषधीनाथ :-सोम, औषधियों का स्वामी, चंद्रमा।
नेत्रैः पपुस्तृप्तिमनाप्नुवद्भिर्नवोदयं नाथमिवौषधीनाम। 2/73 इतने दिनों पर लौटने से उनकी प्रजा उन्हें ऐसा एकटक होकर देखने लगी, जैसे
लोग द्वितीय चंद्रमा के उदय होने पर से ध्यान उसे देखते हैं। 4. चन्द्र :-[चन्द+णिच्+रक्] चंद्रमा।
यथा प्रह्लादनाच्चन्द्रः प्रतापात्तपनी यथा। 4/12 जैस सबको आनंद देकर चंद्रमा ने अपना चन्द्र नाम सार्थक किया और सबको तपाकर सूर्य ने अपना तपन नाम सार्थक किया। प्रसाद सुमुखे तस्मिंश्चंद्रे च विशद प्रभे। 4/18 शरद ऋतु में रघु के खिले हुए मुख और उजले चन्द्रमा दोनों को। प्रत्युज्जगाम क्रथकैशिकेन्द्रश्चंद्र प्रवृद्धोमिरिवोर्मिमाली। 5/61 जैसे समुद्र अपनी लहरें उँचे उठाकर चंद्रमा का स्वागत करता है, वैसे ही उन्होंने भी नगर के बाहर अज के पड़ाव में उनका स्वागत किया।
For Private And Personal Use Only
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
4A
कालिदास पर्याय कोश लक्ष्मीविनोदयति येन दिगन्तलंबी सोऽपि त्वदाननरूचिं विजहाति चन्द्रः। 5/67 सौंदर्यलक्ष्मी तुम्हें चाहते रहने पर भी रुष्ट होकर तुम्हारे ही मुख के सामन सुंदर चंद्रमा के पास चली गई थी। वेलासकाशं स्फुटफेनराजिन वैरुदन्वानिव चन्द्रपादैः। 7/19 जैसे चंद्रमा की नई किरणें समुद्र की उजली भाग वाली लहरों को खींचकर दूर किनारे तक ले जाती है। समदुखसुख: सखीजनः प्रदिपच्चन्द्रनिभोऽयमात्मजः। 8/65 तुम्हारे सुख दुख की साथी ये सखियाँ खड़ी हैं, शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान प्रसन्न मुख वाला तुम्हारा पुत्र भी यहीं है। उवास प्रतिमा चन्द्रः प्रसन्नानामपामिव। 10/65 जैसे निर्मल जल में चन्द्रमा के अनेक प्रतिबिंब पड़ जाते हैं। यथा वायु विभावस्वोर्यथा चन्द्र समुद्रयोः। 10/82 जैसे वायु और अग्नि का तथा चन्द्रमा और समुद्र का जोड़ा कभी अलग नहीं होता। निवातस्तिमितां वेलां चन्द्रोदय इवोदधेः। 12/36 जैसे वायु के रुके रहने से शांत समुद्र का तट चंद्रमा के निकलने पर हिलोरें लेने
लगता है। 5. चन्द्रमा :-[चन्द्र+मि+असुन, मा आदेश:] चाँद, चन्द्रमा।
हिमनिर्मुक्तयोर्योगे चित्रा चन्द्रमसोरिव। 1/46 जैसे चैत के पूनों के दिन चित्रा नक्षत्र के साथ उजला चन्द्रमा आँखों को भला लगता है। पुपोष वृद्धि हरिदश्व दीधिते रनु प्रवेशादिव बाल चन्द्रमाः। 3/22 जैसे शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चन्द्रमा सूर्य की किरणें पाकर दिन-दिन बढ़ने लगता है। नक्षत्र तारा ग्रह संकुलापि ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः। 6/22 जैसे तारों, ग्रहों और नक्षत्रों से भरी रहने पर रात तभी चाँदनी रात कहलाती है जब चन्द्रमा खिला हुआ हो। समलक्ष्यत बिभ्रदा विलां मृगलेखामुषसीव चन्द्रमाः। 8/42
For Private And Personal Use Only
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
उस प्रातः काल के चन्द्रमा के समान दिखाई दे रहे थे, जिसकी गोद में धुंधली मृग की छाया हो। रेखाभावदुपारूढ़ः सामग्यमिव चन्द्रमाः। 17/30
मानो एक कला वाले चन्द्रमा में तुरंत सोलहों कलाएँ आ गई हों। 6. तमोनुद :-[तम्+असुन्+ नुदः] सूर्य, चन्द्रमा।
नरेन्द्र कन्यास्तमवाप्य सत्पतिं तमोनुदं दक्षसुता इवाबभुः। 3/33 जैसे दक्ष कन्याएँ चन्द्रमा जैसे पति को पाकर प्रसन्न हुई थीं, वैसे ही राजकुमारियाँ
भी रघु को पाकर प्रसन्न हुईं। 7. द्विजराज :-चन्द्रमा का विशेषण।
इत्थंद्विजेन द्विजराज कांतिरावेदितो वेदविदांवरेण। 5/23 जब वैदिक ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ कौत्स ने यह कहा तब चन्द्रमा के समान सुंदर
परम धार्मिक रघु बोले। 8. नक्षत्रनाथ :-[न+अत्रन्+नाथः] चन्द्रमा।
दिवाकरादर्शनबद्धकोशे नक्षत्रनाथांशुरिवारविन्दे। 6/66
जैसे सूर्य के न रहने पर बंद कमल के भीतर चन्द्रमा की किरणें नहीं पहुच पातीं। १. शशांक :-[शश्+अच्+अङ्कः] चाँद, चन्द्रमा।
रघुः शशांकार्धमुखेन पत्रिणा शरासनज्याममलुनाद्विडौजसः। 3/59 तब रघु ने अर्द्धचन्द्र के आकर के बाण से इन्द्र की ठीक कलाई के पास धनुष की वह डोरी काट डाली। निमीलितानामिव पंकजानां मध्ये स्फुरन्तं प्रतिमाशशांकम्। 7/64 मानो मुँदे हुए कमलों के बीच में चंद्रमा चमकता हो।। अन्वगात्कुमुदानंदं शशांकमिव कौमुदी। 17/6 जैसे कुमुदों को खिलाने वाले चन्द्रमा के अस्त होने के साथ-साथ चाँदनी भी छिप जाती है। 10. शशि :-पुं० [शशोऽस्त्यस्य इनि] चाँद, चन्द्रमा। बिभ्रती श्वेतरोमांकं संध्येव शशिनं नवम्। 1/83 वह ऐसी जान पड़ती थी जैसे लाल संध्या के माथे पर द्वितीया का चन्द्रमा चढ़ आया हो। तनुप्रकाशेन विचेयतारका प्रभातकल्पा शशिनेव शर्व। 3/2
For Private And Personal Use Only
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
48
कालिदास पर्याय कोश
वे पौ फटते समय की उस रात जैसे लगने लगीं, जब थोड़े से तारे बचे रह जाते हैं और चन्द्रमा भी पीला पड़ जाता है। अदेयमासीत्रयमेव भूपतेः शशिप्रभं क्षत्रमुभे च चामरे । 3/16 छत्र और दोनों चँवर तो न दे सके, शेष सब आभूषण उन्होंने उतार कर उसे दे डाले। शरत्प्रमृष्टाम्बुधरोपरोधः शशीव पर्याप्तक्लो नलिन्याः। 6/44 जैसे खुले आकाशवाली शरद ऋतु का मनोहर चन्द्रमा भी कमलिनी को नहीं भाता। शशिन मुपगतेयं कौमुदी। 6/85 यह तो चाँदनी और चन्द्रमा का मेल हो गया। शशिनं पुनरेति शर्वरी दायिता द्वन्द्वचरं पतत्त्रिणम्। 8/56 देखो चन्द्रमा को रात्रि फिर मिल जाती है, चकवे चकवी भी प्रातः मिल ही जाती
है।
लोकमन्धतमसात्क्रमोदितौ रश्मिभिः शशि दिवाकराविव। 11/24 जैसे सूर्य और चन्द्रमा बारी-बारी से अपनी किरणों से पृथ्वी का अंधेरा दूर करते है। पश्यति स्मजनता दिनात्यये पार्वणौ शशिदिवाकराविव। 11/82 इस प्रकार वे दोनों ऐसे जान पड़ने लगे, जैसे वे संध्या समय के चन्द्रमा और सूर्य
हों।
छाया हिभूमेः शशिनो मलत्वेनारोपिता शुद्धिमतः प्रजाभिः। 14/40 देखो! निर्मल चंद्र बिम्ब के ऊपर पड़ी हुई पृथ्वी की छाया को चन्द्रमा का कलंक कहते हैं और झूठ होने पर भी सारा संसार इसे ठीक मानता है। तापापनोदक्षमपाद सैवो स चोदस्स्थो नृपतिः शशी च। 16/53 एक तो सेवा से प्रसन्न होकर निर्धनता आदि संतापों को दूर करने वाले राजा
कुश और दूसरे शीतल किरणों से गर्मी का ताप दूर करने वाला चन्द्रमा। 11. सोम :-[सू+मन्] चन्दमा, सोम।
तथे त्युषस्पृश्य पयः पवित्रं सोमोद्भवायाः सरितोनृसोमः। 5/59 अज ने गंधर्व का कहना माना, उन्होंने पहले चन्द्रमा से निकली हुई नर्मदा के जल का आचमन किया।
For Private And Personal Use Only
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
अथ स्तुते बन्दिभिरन्व यज्ञैः सोमार्कवंश्ये नरदेतलोके। 6/8 इतने मे सब राजाओं का वंश जानने वाले भाटों ने सूर्य और चन्द्रमा वंश से उत्पन्न होने वाले सब राजाओं की प्रशंसा की। तस्माद्पावर्तत कुंडिनेशः पर्वात्य सोमइवोष्णरश्मेः। 7/33 फिर कुंडिनपुर के राजा वैसे ही लौट आए, जैसे अमावस्या होने से सूर्य के पास से चन्द्रमा लौट आता है। श्रियमवेक्ष्य स रंध्रचलामभूदनलसोऽनल सोम समद्युतिः। 9/15 वे अग्नि और चन्द्रमा के सामन तेजस्वी लगने लगे। वे जानते थे कि जहाँ एक भी दोष आया कि लक्ष्मी हमें छोड़कर भागी। यः ससोम इव धर्म दीधितिः सद्विजिह्व इव चंदन दुमः। 11/64 इस वेश में ऐसे जान पड़ते थे जैसे सूर्य के साथ चन्द्रमा हो या चंदन के पेड़ से साँप लिपटे हों। तस्यौरसः सोमसुतः सुतोऽभून्नेत्रोत्सवः सोमइव द्वितीयः। 18/27 उनको कौशल्य नाम का पुत्र हुआ, जो सबकी आँखों को उसी प्रकार आनंद देने
वाला था, मानो दूसरा चंद्रमा ही हो। 12. हिमकर :-[हि+म+करः] चाँद, चंद्रमा।
उपययौ तनुतां मधुखंडिता हिमकरोदयपांडु मुखाच्छविः। 9/38 जैसे अपने प्रियतम से समागम न होने के कारण खंडिता नायिका सूखती जाती
है, वैसे ही उसका चन्द्रमावाला मुख भी पीला पड़ता गया। 13. हिमांशु :-[हि+म+अंशुः] चाँद, चन्द्रमा।
पर्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाघ्यतरोहिवृद्धेः। 5/16 उस चंद्रमा के समान बड़े सुंदर लग रहे हैं, जिसकी सारी कलाएँ धीरे-धीरे देवताओं ने पी डाली हो। यस्यात्मगेहे नयनाभिरामाकांतिर्हिमांशोरिव संनिविष्टा। 6/47 चंद्रमा की चाँदनी के समान आँखों को सुख देने वाला इनका प्रकाश तो घर में रहता है।
इन्दुमती 1. इन्दुमती :-[इन्दु+मतुप्+ङीप्] अज की पत्नी, भोज की बहन इन्दुमती।
For Private And Personal Use Only
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
50
कालिदास पर्याय कोश अथेश्वरेणक्रथकैशिकानां स्वयंवरार्थं स्वसुरिन्दुमत्याः। 5/39 इसी बीच में विदर्भ के राजा भोज ने अपनी बहन इन्दुमती के स्वयं वर में। काकुत्स्थमालोकयतां मनोबभूवेन्दुमती निराशम्। 6/2 जब दूसरे राजाओं ने अज को देखा, तब उन्होंने इन्दुमती को पाने की सब आशाएँ छोड़ दीं। निदर्शयामास विशेषदृश्यमिन्दुं नवोत्थानमिवन्दुमत्यै। 6/31 सुनंदा ने इन्दुमती को दूसरे राजा को दिखाया जिसका रूप और यौवन पूनो के
उठते हुए चंद्रमा के समान सुंदर था। 2. विदर्भाधिपस्वसा :-[विगतादर्भाः कुशा यतः अधिप्+स्वसा] इंदुमती।
स्वसुर्विदर्भाधिपतेस्तदीयो लेभेऽन्तरं चेतसिनोपदेशः। 6/66 सुनंदा की बातें इन्दुमती के मन में वैसे ही नहीं घर कर सकी।
इन्द्रायुध
1. इन्द्रायुध :-[इन्द्र+रन्+आयुधम्] इन्द्र का शस्त्र, इन्द्रधनुष ।
स नादं मेघनादस्य धनुश्चेन्द्रायुप्रभम्। 12/79 वैसे ही लक्ष्मण भी मेघनाथ के गर्जन और इन्द्रधनुष के समान धनुष को ले बीते। त्रिदशचाप :-इन्द्र का धनुष । केवलोऽपि सुभगो नवाम्बुदः किं पुनस्त्रिदशचाप लांछितः। 11/80 एक तो नया बादल यों ही सुन्दर लगता है, फिर यदि उसमें इन्द्रधनुष भी बन
जाय तो उसकी शोभा का कहना ही क्या। 3. त्रिदशायुध :-इन्द्र का वज्र, इन्द्र का धनुष।
अथ नभस्य इव त्रिदशायुध कनक पंगितडितगुण संयुतम्। 9/54 उस समय वे उस भादों के आसमान के समान लग रहे थे, जिसमें इन्द्रधनुष निकला हुआ हो और उसमें सोने के रंग की पीली बिजली की डोरी बंधी हो।
इन्द्रिय 1. इन्द्रिय :-[इन्द्र+घ+इय] बल, शक्ति, इन्द्रिय, शारीरिक शक्ति, ज्ञान शक्ति,
वीर्य।
For Private And Personal Use Only
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
51
तथाहि शेषेन्द्रियवृत्तिरासां सर्वात्मना चक्षुरिव प्रविष्टा। 17/12 मानों उनकी सब इन्द्रियों की शक्ति एकाएक आँखों में ही आ बसी हो। समुपास्यत पुत्र भोग्यया स्नुष्वाविकृतेन्द्रियः श्रिया। 8/14 जिस भूमि पर उनके पुत्र राज्य कर रहे थे, वह जितेन्द्रिय रघु का फल-फूल देकर उसी प्रकार सेवा कर रही थी, मानों उनकी पतोहू ही हो। इति शत्रुषु चेन्द्रियेषु च प्रतिषिद्धप्रसरेषु जाग्रतौ। 8/23_ अज ने अपने शत्रुओं का बढ़ना रोककर और रघु ने इन्द्रियों को वश मे करके अपनी-अपनी सिद्धियाँ प्राप्त की। अपिस्वेदेहात्किमुतेन्द्रियार्थाद्य शोधनानां हि यशोगरीयः। 14/35 यशस्वियों को अपना यश अपने शरीर से भी अधिक प्यारा होता है,फिर स्त्री
आदि भोग की वस्तुओं की तो बात ही क्या। 2. करण :-इन्द्रिय, प्राण। .
वपुषा करणोज्झितेन सा निपतन्ती पतिमप्यपातयात्।8/38 प्राणहीन होने से वह गिर पड़ी और उनके साथ-साथ अज भी गिर पड़े।
उत्तर
1. उत्तर :-[उद्+तरप्] उत्तर दिशा, उत्तरीय, उच्चतर।
कीर्तिस्तंभद्वयमिव गिरौ दक्षिणेचोत्तरे च। 15/103 उत्तर गिरि हिमालय पर हनुमान जी को तथा दक्षिणगिरि त्रिकूट पर विभीषण जी
को अपने दो कीर्तिस्तंभों के रूप में स्थापित करके। 2. उदीचि :-[उद्+अञ्च्+क्विन्+ङीप्] उत्तर दिशा।
शरैरुस्ौरिवोदीच्यानुद्धरिष्यन् रसानिव। 4/66 जैस सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचने के लिए उत्तर ओर घूम जाता
उपांत
1. अंतिक :-[अन्तः सामीप्यमस्यातीति-अन्त+ठन्] निकट, समीप।
रजः कणैः खुरोधूतैः स्पृशद्भिर्गात्रमंतिकात्। 1/85 उसके खुरों से उड़ी हुई धूल के लगने से राजा दिलीप वैसे ही पवित्र हो गए, जैसे किसी तीर्थ में स्नान करके लौटे हों।
For Private And Personal Use Only
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश 2. अदूर :-जो दूर न हो, समीप।
अदूरवर्तिनीं सिद्धिं राजन्वि गणयात्मनः। 1/87 हे राजन्! तुम्हारा मनोरथ बहुत शीघ्र ही पूरा होगा। असौ महाकाल निकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः। 6/34 इनका राज-भवन महाकाल मंदिर में बैठे हुए सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
शिवजी के पास ही है। 3. उपकंठ :-[उपगतः कण्ठम्+अत्या० स०] सामीप्य, के निकट।
प्राप्त तालीवन श्याममुपकंठ महोदधेः। 4/34 उस समुद्र के किनारे पहुँचे जो तट पर खड़े हुए ताड़ के वृक्षों की छाया पड़ने से काला दिखाई पड़ रहा था। मंदाकिनी भाति नगोपकंठे मुक्तावली कंठगतेव भूमेः। 13/48 चित्रकूट पर्वत के नीच बहती हुई मंदाकिनी ऐसी जान पड़ती है, मानो पृथ्वी रूपी नयिका के गले में मोतियों की माला पड़ी हुई हो। उपांत :-[उपान्त]-किनारा, छोर, सिरा, सान्निध्य, पडौस। तयोरुपान्त स्थित सिद्धसैनिकं गुरूत्मदाशी विषभीम दर्शनैः। 3/57 ऊपर देवता और नीचे रघु के सैनिक इस अचरज भरे युद्ध को देख रहे थे। मेरोरुपान्तेष्विव वर्तमानमन्योन्य संसक्तमहस्त्रियामम्। 7/24 मानो दिन और रात का जोड़ा सुमेरू पर्वत की फेरी दे रहा हो। उपान्त वानीर बनोप गूढान्यालक्ष्य पारिप्लव सारसानि। 13/30 देखो बहुत ऊँचे से देखने के कारण और बेंत के जंगलो से ढका होने के कारण ठीक से नही दिखाई दे रहा फिर भी जल पर तैरते हुए सारस कुछ-कुछ दिखाई दे जाते हैं। उपान्त वानीर गृहाणि दृष्ट्वा शून्यानि दूये सरयूजलानि। 16/21 सरयू के तट पर बनी हई बेंत की झोपड़ियाँ भी सूनी पड़ी रहती हैं।
उषा
1. उषा :-[ओषत्यन्धकारम्-उष्+क] प्रभात काल, पौ फटना।
उषसि सर इव प्रफुल्लपद्मं कुमुदवनप्रतिपन्न निद्रामासीत्। 6/86 प्रातः काल के उस सरोवर जैसा लगने लगा जिसमें एक ओर खिले हुए कमल दिखाई दे रहे हों और दूसरी ओर मुँदे कुमुदों का झुंड खड़ा हो।
For Private And Personal Use Only
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
समलक्ष्यत् बिभ्रदाविलां मृगलेखामुषसीव चन्द्रमाः । 8/42
उस प्रात:काल के चन्द्रमा के समान दिखाई दे रहे थे, जिसकी गोद में धुंधली मृग की छाया हो ।
उषसि स गजयूथ कर्णतालैः पटुपटहध्वनिभिर्विनीतनिद्रः । 9/71
प्रातः काल जब नगाड़ों के समान शब्द करने वाले हाथियों के कानों की फटकार होती थी, तब उनकी आँखें खुलती थीं।
आसीदासन्न निर्वाणः प्रदीपार्चिरिवोषसि । 12/1
53
अब उनकी दशा प्रात:काल के उस दीपक जैसे हो गई थी, जिसका तेल चुक गया हो और बस बुझने ही वाला हो ।
2. दिनपूर्वभाग :- प्रभातकाल ।
नीहारमग्नो दिनपूर्वभाग: किंचित्प्रकाशेन विवस्वतेव । 7/60
जैसे कोहरे के दिन, प्रभात होने का ज्ञान धुंधले सूर्य को देखकर होता है। 3. दिनमुख :- [ द्युतितमः, दो [दी ] + नक् ह्रस्वः+मुखम्] प्रात:काल। दिन मुखानि रविर्हिमनिग्रहैर्विमलयन्मलयं नगमत्यजत् । 9/25
सर्दी दूर करके, प्रात:काल का पाला हटाकर उसे और भी अधिक चमकाते हुए सूर्य ने मलय पर्वत से विदा ली।
4. प्रभात : - [ प्र+भा+क्त] दिन निकलना, पौ फटना
अथ प्रजानामधिपः प्रभाते जाया प्रतिग्राहितगंधमाल्याम् । 2/1
दूसरे दिन प्रातः काल रानी सुदक्षिणा ने पहले फूल माला चन्दन लेकर नंदिनी की पूजा की।
For Private And Personal Use Only
तनु प्रकाशेन विचेय तारका प्रभातकल्पा शशिनेव शर्वरी । 3 / 2
वे पौ फटते समय की उस रात जैसे लगने लगीं, जब थोड़े से तारे बचे रह जाते हैं और चंन्द्रमा भी पीला पड़ जाता है।
5. प्रात : - [ प्र + अत् + अरन्] तड़के, प्रभात काल में, प्रातः काल ।
प्रयता प्रातरन्वेत् सायं प्रत्युद्व्रजेदपि । 1/90
प्रातः काल जब ये वन को जाने लगे, तब ये बाड़े तक उसके पीछे-पीछे जायँ और सायंकाल लौटते समय वहीं से आगवानी कर के ले आवें ।
क्रमेण सुप्तामनु संविवेश सुप्तोत्थितांप्रातरनूदतिष्ठत् । 2/24
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
54
कालिदास पर्याय कोश जब वह सो गई तब ये दोनों भी सोने लगे और ज्यों ही प्रात: वह सोकर उठीं, त्यों ही इन दोनों की भी नींद टूट गई। प्रातर्येथोक्तव्रतपारणान्ते प्रास्थानिकं स्वस्त्ययनं प्रयुज्य ।। 2/70 दूसरे दिन प्रात:काल वशिष्ठ जी ने समझ लिया कि गौ की सेवा का व्रत तो पूरा
हो ही गया। 6. विभात :-[वि+भा+क्त] प्रभात, पौ फटना। स्वभाविकं परगुणेन विभात वायुः सौरेभ्यमीप्सुरिव ते मुख मारुतस्य।
5/29 प्रात:काल का पवन तुम्हें जगा हुआ न देखकर, वह तुम्हारे मुख की स्वाभाविक सुगंधि को दूसरों से लेने का प्रयास कर रहा है। सेनानिवेशान्पृथिवी क्षितोऽपि जग्मुर्विभातग्रहमंदभासः।7/2 दूसरे राजा लोग भी प्रातः काल के तारों के समान अपना उदास मुँह लेकर अपने डेरों में यह कहते हुए चले गए।
एनस 1. एनस :-[इ+असुन्, नुडागमः] पाप, अपराध, निन्दा।
एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिरेनं जगाद भूयो जगदेकनाथः। 5/23 आप जैसे वेदपाठी ब्राह्मण गुरुदक्षिणा के लिए हमारे पास आवें और यहाँ से निराश लौटकर किसी दूसरे का द्वार झाँके, यह नहीं हो सकता। किल्विष :-[किल्+टिषच्, वुक्] पाप, अपराध, क्षति, दोष। स्वं वपुः स किल किल्विषच्छिदां रामपादरजसामनुग्रहः। 11/34 राम के चरणों की धूल सब पापों को हरने वाली थी, इसलिए उसके छूते ही उन्हें
पहले वाला सुंदर शरीर मिल गया। 3. तमस् :-[तम्+असुन्] रंज, शोक, पाप, अंधकार।
अशून्य तीरां मुनिसंनिवेशैस्तमोपही तमसां वगाह्य। 14/76 पाप मिटाने वाली जिस तमसा के किनारे तपस्वी लोग सदा संध्या पूजा करते हैं। पातक :-[पत्+णिच्+ण्वुल्] पाप, जुर्म। ममैव जन्मांतर पातकानां विपाकविस्फूर्जथुरप्रसाः। 14/62
For Private And Personal Use Only
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
ऐ ऐरावत
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यह सब मेरे पूर्व जन्म के पापों का ही फल है।
5. वृजिन :- [ वृजे : इनज् कित् च] दुष्ट, पापी, पाप, पीड़ा, दुःख ।
न चावदद् भर्तृरवर्णमार्या निराकरिष्णोर्वृजिनादृतेऽपि । 14/57
वे इतनी साध्वी थीं कि निरपराध पत्नी को निकालने वाले अपने पति को उन्होंने कुछ भी बुरा-भला नहीं कहा।
55
1. ऐरावत :- [ इरा आप: तद्वान् इरावान् समुद्रः तस्मादुत्पन्नः अण् ] इंद्र का हाथी, श्रेष्ठ हाथी, पूर्व दिशा का दिग्गज ।
प्रावृषेण्यं पयोवाहं विद्युदैरावताविव । 1/36
उस पर बैठे हुए वे दोनों ऐसे जान पड़ते थे, मानो वर्षा के बादल पर ऐरावत और बिजली दोनों चढ़े चले जा रहे हों ।
ऐरावतास्फालन विश्लथं यः संघट्टयन्नंगदमंगदेन । 6/73
ऐरावत को बार-बार अंकुश लगाने से इन्द्र के जो भुजबंध ढीले पड़ गए थे, वे ककुत्स्थ के भुजबंध से रगड़ खाते थे ।
क्रममाणश्चकार द्यां नागेनैरावतौजसा । 17/32
इंद्र के समान ऐश्वर्यशाली राजा अतिथि जब ऐरावत के समान बलवान हाथी पर चढ़कर अयोध्या में घूमने निकले।
2. द्विपेन्द्र : - हाथी ।
आसीदनाविष्कृत दानराजिरंतर्मदावस्थ इव द्विपेन्द्रः 1 2/7
किसी मतवाले हाथी के माथे से मद की धारा न भी निकलती हो, तो भी उसको देखते ही उसके तेज का अनुमान हो जाता है।
महोक्षतां वत्सतरं स्पशन्निव द्विपेन्द्र भवंकलभः श्रयन्निव । 3 / 32
जैसे गाय का बछड़ा बड़ा होकर सांड़ हो जाता है और हाथी का बच्चा बढ़कर गजराज हो जाता है।
For Private And Personal Use Only
सोढुं न तत्पूर्वमवर्णमीशे आलानिकं स्थाणुमिव द्विपेन्द्रः । 14/38 जैसे हाथी अपने अलान से खीझकर उसे उखाड़ने की चेष्टा करता है, वैसे ही मैं भी इस कलंक को अब नहीं सह सकता।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
56
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
3. महेन्द्र द्विप :- इन्द्र का हाथी ऐरावत ।
असौ महेन्द्र द्विपानगंधिस्त्रिमार्गगावीचिविमर्दशीतः । 13/20 ऐरावत की मद की गंध में बसा हुआ और आकाशगंगा की लहरों से ठंडाया हुआ ।
4. सुरगज :- [ सु+रा+क+गजः ] देवों का हाथी ।
मदपटुनिनदद्भिर्बोधितो राजहंसैः सुरगजइव गांगंसैकतं सुप्रतीकः 15/75 जैसे आकाशगंगा की रेती में लेटा हुआ सुप्रतीक नाम का देवताओं का हाथी, राजहंसों का शब्द सुनकर जाग उठता है।
सुरगज इव दतैर्भग्नदैत्यासिधारैर्नय इव पणबंध व्यक्त यौगैरुपायैः । 10/86 जैसे असुरों की तलवारों की धार कुण्ठित करने वाले अपने चार दांतों से ऐरावत शोभा देता है, जैसे चार उपायों से राजनीति शोभा देती है ।
5. सुरद्विप :- [ सु+रा+क + द्विपः ] देवों का हाथी ।
हरेः कुमारोऽपि कुमारविक्रमः सुरद्विपास्फालनकर्कशांगलौ । 3/55 कार्तिकेय के समान पराक्रमी रघु ने भी इन्द्र की उस बाँईं भुजा में मारा, जिसकी उँगलियाँ ऐरावत को बार-बार थपथपाने से कड़ी हो गई थीं।
क
कंटक
1. कंटक :- [ कण्ट् + ण्वुल्] काँटा, फाँस, डंक ।
उत्खात लोकत्रयकंटकेऽपि सत्यप्रतिज्ञेऽप्यविकत्थनेऽपि । 14 / 73
For Private And Personal Use Only
यद्यपि राम तीनों लोकों का दुःख दूर करने वाले हैं, अपनी प्रतिज्ञा के पक्के हैं और अपने मुँह से अपनी बड़ाई भी नहीं करते ।
2. शंकु : - [ खङक् + उण् ] काँटा, कील, फाँस I
तस्य प्रसह्य हृदयं किल शोक शंकुः प्लक्ष प्ररोह इव सौधतलं बिभेद ।
8/93
जैसे बड़ की जटाएँ भवन की तली को छेद कर नीचे घुस जाती हैं, वैसे ही शोक की बर्धी ने राजा के हृदय को बलपूर्वक आर-पार बेध दिया था ।
3. शल्य : - [ शल्+ यत्] काँटा, खपची ।
ब्राह्ममस्त्रं प्रिया शोक शल्य निष्कर्षणौषधम् । 12 / 97
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
57
वह ब्रह्मास्त्र चढ़ाया जो कभी व्यर्थ ही नहीं जाता, वह ऐसा था मानो सीता के शोकरूपी काँटों को निकालने की अचूक औषधि हो ।
कट
1. कट :- [ कट्+अच्] हाथी का गंडस्थल ।
कंडू मानेन कटं कदाचिद्वन्य द्विपेनोन्मथिता त्वगस्य । 2/37
एक बार एक जंगली हाथी आकर इससे रगड़, रगड़कर अपनी कनपटी खुजलाने लगा, उससे इसकी थोड़ी छाल छिल गई।
बभूव तेनातिरां सुदुः सहः कट प्रभेदेन करीव पार्थिवः । 3 / 37
जैसे मद बहने के कारण हाथी प्रचण्ड हो जाता है, वैसे ही प्रतापी रघु की सहायता से दिलीप भी इतने शक्तिशाली हो गए कि उनके शत्रु उनसे काँपने लगे ।
तुल्यंर्गधिषु मत्तेभकटकेषु फलरेणवः । 4/47
हाथियों के उन गालों पर चिपक गए जहाँ उन्हीं के गंध जैसी मद की गंध निकल रही थी ।
कटेषु करिणां पेतुः पुंनागेभ्यः शिलीमुखाः । 4/57
नागकेशर के फूलों पर बैठे हुए भौरें हाथियों के कपालों पर आ टूटे ।
भेजे भिन्न कटैर्नागैरन्यानुपरुरोध यैः । 4/83
उन्हीं मदमत्त हाथियों को उसने इन्द्र से भी अधिक पराक्रमी रघु को दे दिया । 2. कपोल : - [ कपि + ओलच्] गाल ।
तस्यैक नागस्य कपोलभित्त्योर्जलावगाहक्षणमात्रशान्ता । 5 / 47 यद्यपि नदी में नहाने से उस हाथी के माथे का सब मद धुल चुका था । 3. गंड : - [ गण्ड्+अच्] गाल, हाथी की कनपटी ।
निर्धौतदानामल गण्डभित्तिर्वन्यः सरितो गज उन्ममज्ज । 5/43
जल में स्नान करने के कारण हाथी के माथे के दोनों ओर का मद धुल गया था। कपीन्द
1. कपीन्द्र : - [ कम्प्+इ, न लोपः+ इन्द्र:] बंदरों का मुखिया, सुग्रीव का विशेषण, हनुमान का विशेषण ।
कुंभकर्णः कपीन्द्रेण तुल्यावस्थः स्वसुः कृतः । 12/80
For Private And Personal Use Only
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
58
कालिदास पर्याय कोश उधर सुग्रीव ने कुम्भकर्ण की नाक-काटकर उसे शूर्पणखा के समान बना दिया था। सरित्समुद्रान्सरसीश्च गत्वा रक्षः कपीन्द्ररुपपादितानि। 14/8 राक्षसों और वानरों के नायकों ने नदियों, समुद्रों और तालों से जो जल लाकर दिया। सीतास्वहस्तो पहृताध्यपूजान् रक्षः कपीन्द्रान्विससर्जरामः। 14/19 सीता जी ने स्वयं अपने हाथों से उन राक्षसों और वानर सेनपातियों की पूजा की
ओर राम ने विदा किया। 2. कपीश्वर :-[कम्प+इ, न लोपः+ईश्वरः] सुग्रीव का विशेषण।
तमध्वराय मुक्ताश्वं रक्षः कपिनरेश्वराः। 15/58
राम ने अश्वमेध के लिए घोड़ा छोड़ा, तो सुग्रीव विभीषण आदि ने। 3. रविसुत :-[रु+इ+सुतः] सुग्रीव का विशेषण।
रविसुतसहितेन तेनानुयातः स्त्रसौ मित्रणा। 12/104
सुग्रीव, विभीषण और लक्ष्मण के साथ। 4. सुग्रीव :-[सु+डु ग्रीव] सुग्रीव, नायक, हंस, अच्छी गर्दन वाला।
धातोः स्थान इवादेशं सुग्रीवं संन्यवेशयत्। 12/58 सुग्रीव को वैसे ही बैठा दिया जैसे कोई वैयाकरण, लिट्, लुट्, आदि लकारों में अस् धातु के बदले भू धातु को बैठा देता है। तथैव सुग्रीवविभीषणादीनुपाचरत्कृत्रिभसंविधाभिः। 14/17 वहाँ से आकर उन्होंने सुग्रीव और विभीषण आदि मित्रों का भली-भाँति स्वागत सत्कार किया। हरीश्वर :-[हृ+इन्+ईश्वरः] बंदरों का नायक, सुग्रीव का विशेषण। तस्मात् सरविभीषण सेना विचक्षणहरीश्वरदत्त हस्तः। 13/69 सेवा में चतुर सुग्रीव के हाथों के सहारे उतरे और विभीषण आगे-आगे मार्ग दिखाते चले।
कमलिनी
1. कमलिनी :-[कमल इनि+ङीप्] कमल का पौधा, कमलों का समूह ।
अभिययुः सरसो मधु संभृतां कमलिनीमलिनीरतपत्रिणः। 9/27
For Private And Personal Use Only
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
वैसे ही वसंत की शोभा से लदी हुई ताल की कमलिनी के आसपास भरे और हंस भी मंडराने लगे ।
59
अभ्यपद्यत स वासितासखः पुष्पिताः कमलिनीरिव द्विपः । 19/11 हाथी जैसे खिली हुई कमलनियों की गंध से भरे सरोवर में हथिनियों के साथ पैठता है ।
2. नलिनी : - [ नल् + इनिङीप् ] कमल का पौधा, कमलों का समूह । शरत्प्रमृष्टाम्बुधरो परोधः शशीव पर्याप्तकलो नलिन्याः । 6/44 जैसे खुले आकाशवाली शरद ऋतु का मनोहर चन्द्रमा भी कमलिनी को नहीं
भाता ।
हिमसेवक विपत्तिरत्र मे नलिनी पूर्व निदर्शनंमता । 8/45
मैंने पहले ही देख लिया है कि नलिनी को नष्ट करने के लिए पाला ही बहुत होता है।
3. पद्मिनी :- [ पद्म+ इनि + ङीप् ] कमल का पौधा, कमलों का समूह । स्कंधावालग्नोद्धृत पद्मिनीकः करेणुभिर्वन्य इव द्विपेन्द्रः । 16/68 जैसे कमलिनियों को उखाड़कर कंधे पर लटकाए हुए हाथी, हथनियों के साथ जलक्रीड़ा करता है।
कर
1. कर :- [कृ+अप्] लगान, शुल्क, भेंट, हाथी की सूँड, हाथ । अपरान्त महीपाल व्याजेन रघवे करम् । 5 / 58
पश्चिम के राजाओं ने जो रघु के अधीन होकर उन्हें कर दिया था ।
2. बलि : - [ बल् + इनि] आहुति, भेंट चढ़ावा, कर, लगान । प्रजानामेव भूत्पर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत् । 1 / 18
राजा दिलीप भी अपनी प्रजा से जितना कर लेते थे, वह सब प्रजा की भलाई में ही लगा देते थे ।
For Private And Personal Use Only
करेणु
1. करेणु : - [कृ + एणु अथवा के मस्तके रेणुस्य तारा०] हाथी, हथिनी । चित्रद्विपाः पद्मवनावतीर्णाः करेणुभिर्दत्तमृणालभंगाः । 16/16
जिन चित्रों में ऐसा दिखाया गया था कि हाथी कमल के ताल में उतर रहे हैं और हथिनियाँ उन्हें सूँड से कमल की डंठल तोड़कर दे रही हैं।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
60
कालिदास पर्याय कोश स्कंधावलग्नोद्धृत पद्मिनीकः करेणुभिर्वन्यइव द्विपेन्द्रः। 16/68 जैसे कमलिनियों को उखाड़ कर कंधे पर लटकाए हुए हाथी, हथिनियों के साथ जल क्रीड़ा करता है। 2. वासिता :-[वास्+क्त+टाप्] हथिनी।
अभ्य पद्यत स वासिता सख: पुष्पिता: कमलिनी रिवद्विपः। 19/11 हाथी जैसे खिली हुई कमलिनियों की गंध से भरे सरोवर में हथिनियों के साथ पैठता है।
कर्ण
1. कर्ण :-[कर्ण्यते आकर्ण्यते अनेन-कर्ण+अप्] कान।
तद्गुणैः कर्णमागत्य चापलाय प्रचोदितः। 1/19 ये गुण जब मेरे कान में पड़े, तब इन्होंने ही मुझे यह ढिठाई करने को उकसाया। कामं कर्णांत विश्रांते विशाले तस्य लोचने। 4/13 यद्यपि रघु के नेत्र कानों तक फैले हुए और बहुत बड़े-बड़े थे। तं कर्णभूषण निपीडित पीव रांसं शय्योत्तरच्छदविमर्द कृशांगरागम्। 5/65 एक करवट सोने के कारण अज के भरे हुए कंधों पर कुंडल के दबने से उसका चिह्न पड़ गया और बिछौने की रगड़ से उनके शरीर पर लगा हुआ अंगराग भी पुछ गया था। कपोल संसर्पितया य एषां व्रजन्ति कर्णक्षण चामर त्वम्। 13/11 इनके गालों पर क्षण भर के लिए लगी हुई यह फेन ऐसी दिखाई देती है मानो इनके कानों पर चंवर टंगे हुए हों। च्युतं न कर्णादपि कामिनीनां शिरीषपुष्पं सहसापपात्। 16/48 स्त्रियों के कान पर रखे हुए सिरस के फूल कान पर से गिरते भी थे, तो सहसा
पृथ्वी पर नहीं गिर पाते थे। 2. श्रवण :-[श्रु+ल्युट] कान।
श्रवणकटु नृपाणामेक वाक्यं विवब्रुः। 6/85 ज्यों-ज्यों ये सब बातें सुनते जा रहे थे, त्यों-त्यों मन में कुढ़ते चले जा रहे थे। अरुण राग निषेधिभिरंशुकैः श्रवणलब्धपदैश्च यवांकुरैः। 9/43 प्रात:काल की ललाई से अधिक लाल वस्त्रों ने, कान पर रखे हुए जौ के अंकुरों
ने।
For Private And Personal Use Only
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
3. श्रोत्र :-[श्रूयतेऽनेन-श्रु करणे+ष्ट्रन्] कान।
श्रोत्रभिरामध्वनिना रथेन स धर्म पत्नी सहितः सहिष्णुः। 2/72 सहनशील राजा दिलीप अपनी धर्मपत्नी के साथ रथ पर चढ़कर चले, उसकी ध्वनि कानों में बड़ी मीठी लग रही थी। इत्युद्गताः पौरबधूमुखेभ्यः शृण्वन्कथाः श्रोत्रसुखाः कुमारः। 7/16 नगर की महिलाओं के मुँह से इस प्रकार की बातें सुनते हुए कुमार अज। श्रोत्रेषु संमूर्च्छति रक्तमासां गीतानुगं वारिमृदंग वाद्यम्। 16/64 ये गा-गाकर जो मृदंग बजाने के समान थपकी दे देकर जल ठोक रही हैं, उसे सुनकर मोर।
कर्म
1. कर्म :-नपुं० [कृ+मनिन्] कृत्य, कार्य, कर्म।
पर कर्मापहः सोऽभूदुद्यतः स्वेषु कर्मसु। 17/61
शत्रुओं का उद्योग नष्ट करके वे अपने उद्योग में लग गए। 2. कार्य :-[कृ+ण्यत्] काम, मामला, बात, कर्म, पेश।
एवमिन्द्रिय सुखानि निर्विशन्नन्यकार्य विमुखः स पार्थिवः। 19/47 इस प्रकार वह कामी राजा राज-काम छोड़कर इन्द्रिय सुखों का रस लेता हुआ ऋतुएँ बिताने लगा।
कल्पदुम 1. कल्पतरु :-[कृप्+अच्, घञ् वा+तरु:] स्वर्गीय वृक्षों में एक या इन्द्र का
स्वर्ग आसीत्कल्परुच्छायामाश्रिता सुरभिः पथि। 1/75 तब मार्ग में कल्पवृक्ष की छाया में कामधेनु बैठी हुई थी। विरराजोदिते सूर्ये भेरौ कल्पतरोरिव। 17/26 मानो सूर्योदय के समय सुमेरु पर्वत पर कल्पवृक्ष का प्रतिबिंब पड़ रहा हो। कल्पदुम् :-[कृप्+अच्-घञ् वा द्रुमः] स्वर्गीय वृक्षों में एक या इन्द्र का स्वर्ग। रराज धाम्ना रघुसूनुरेव कल्पदुमाणामिव पारिजातः। 6/6
For Private And Personal Use Only
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश जैसे नंदन वन के वृक्षों में परिजात ही सबसे अधिक सुंदर है, वैसे ही अकेले अज ही खिल रहे हैं। नाबुद्धकल्पदुमतां विहाय जातं तमात्मन्यसिपत्रवृक्षम्। 14/48 उन्हें क्या पता था कि इस समय वे मेरे लिए मनोरथ पूरा करने वाले कल्पवृक्ष के बदले असि पत्र के वृक्ष के समान कष्टदायक हो गए हैं, जिसके पत्ते तलवार के समान पैने होते हैं। स पुरं पुरुहूतश्री: कल्पदुमनिभध्वजाम्। 17/32 तब कल्पवृक्ष के समान ध्वजाओं वाली अयोध्या नगरी स्वर्ग के समान लगने
लगी। 3. कल्पवृक्ष :-[कृप्+अच्, घञ् वा+वृक्ष:], स्वर्गीय वृक्षों में से एक या इन्द्र
का स्वर्ग। सद्यएव सुकृतां हि पच्यते कल्पवृक्षफलधर्मिकांक्षितम्। 11/50 ठीक भी है, पुण्यवानों की अभिलाषा कल्पवृक्ष के समान तत्काल फल देने वाली होती है।
काकपक्ष 1. काकपक्ष :-[कै+कन्+पक्षः] बालकों और तरुणों की कनपटियों के लंबे
बाल [विशेषकर क्षत्रियों के] । सवृत्तचूलश्चलकाकपक्षकैरमात्यपुत्रैः सवयोभिरन्वितः। 3/28 मुंडन संस्कार हो जाने पर रघु ने चंचल लटों वाले तथा समान आयु वाले मंत्रियों के पुत्रों के साथ। काकपक्षधरमेत्य याचितस्ते जसां हि नवयः समीक्ष्यते। 11/1 काकपक्षधारी राम को माँगा, ठीक ही है, जो तेजस्वी होते हैं, उनके लिए यह विचार नहीं किया जाता कि वे छोटे हैं या बड़े। तौ प्रणाम चलकाकपक्षको भ्रातरावभृथाप्लुतो मुनिः। 11/31 महर्षि विश्वामित्र ने उन राम और लक्ष्मण को बड़ा आशीर्वाद दिया, जिनकी लटें प्रणाम करते समय झूल रही थीं। एव माप्त वचनात्स पौरुषं काकपक्षकधरेऽपि राघवे। 11/42 वैसे ही काक पक्षधारी राम में भी धनुष उठाने की शक्ति अवश्य होगी।
For Private And Personal Use Only
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
2. शिखंडक :-[शिखण्ड इव+कन्] कलंगी, बालों का गुच्छा, चूड़ा या शेखर,
चूडाकर्म संस्कार के अवसर पर रखी गई चोटी। तौ पितुर्नयनेन वारिणाकिंचिदुक्षित शिखंडकाकुभौ। 11/5 उन आँसुओं से दोनों राजकुमारों की चोटियाँ भीग गईं।
काल 1. काल :-[कुईषत् कृष्णत्वं लाति ला+क, कोः कादेशः] समय।
यथापराध दंडानां यथाकाल प्रबोधिनाम्। 1/6 जो अपराधियों को अपराध के अनुसार ही दण्ड देते थे, जो अवसर देखकर ही काम करते थे। विलंबित फलैः कालं स निनाय मनोरथैः। 1/33 पर दिन बीतते जा रहे थे और मन की साध पूरी नहीं हो पा रही थी। पतिः प्रतीतः प्रसवोन्मुखीं प्रियां ददर्शकाले दिवमभ्रितामिव। 3/12 दसवें महीने में राजा ने देखा कि शीघ्र ही पुत्र को जन्म देने वाली रानी ऐसी लग रही थी, जैसे तत्काल बरसने वाले बादलों से घिरा हुआ आकाश हो। परिकल्पित सांनिध्या काले काले च बंदिषु। 4/6 समय-समय पर उनके चारणों के कंठों में बैठकर। कालोपपन्नातिथि कल्प्य भागं वन्यं शरीर स्थिति साधनं वः। 5/9 तिन्नी के जिस अन्न और जिन फलों से आप लोग समय-समय पर अतिथियों का सत्कार करते हैं और जिन्हें खाकर ही आप लोग रह जाते हैं। व्यतीतकालस्त्वहमभ्युपेतस्त्वामर्थिभावादिति मे विषादः। 5/14 मैं आपके पास कुछ मांगने आया था, पर मैं समझता हूँ कि मुझे आने में कुछ विलंब हो गया है, इसी का मुझे खेद है। परस्परेण क्षतयोः प्रहोरुत्कांतवारवोः समकालमेव। 7/53 दो वीर एक दूसरे के प्रहार से एक साथ मारे गए। स पौरकार्याणि समीक्ष्य काले रेमे विदेहाधिपतेर्दुहित्रा। 14/24 वे ठीक समय पर प्रजा का काम देख-भालकर सीताजी के साथ रमण भी करते
2. समय :-[सम्+इ+अच्] काल, अवसर, मौका।
For Private And Personal Use Only
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
64
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
असूत् पुत्रं समये शची समा त्रिसाधना शक्तिरिवार्थमक्षयम् । 3/13 जिस प्रकार राजा अपनी तीन साधनों वाली शक्ति से अचल संपत्ति पा लेता है, वैसे ही इंद्राणी के समान तेजवाली सुदक्षिणा ने भी वह पुत्र उत्पन्न किया । स राजलोकः कृतपूर्व संविदारंभसिद्धौ समयोपल्भ्यम्। 7/31
इन राजाओं ने मिलकर पहले ही निश्चय कर लिया था, कि जब अज ।
किरीट
1. किरीट :- [ कृ + कीटन् ] मुकुट, ताज, चूड़ा, शिरोवेष्टन । वज्रांशुगर्भांगुलिरंध्रमेकं व्यापारयामास करं किरीटे। 6/19
एक दूसरा राजा बार-बार अपने हाथ से उस मुकुट को सीधा कर रहा था, जो पहले से ही सीधा था ।
दशाननकिरीटेभ्यस्तत्क्ष्णं राक्षस श्रियः ।
उसी समय रावण के मुकुट के मणि गिर पड़े मानो राक्षसों की लक्ष्मी । 2. मुकुट :- [ मंक्+उटन, पृषो०] ताज, किरीट, राजमुकुट ।
चरणयोर्नखरागसमृद्धिभिर्मुकुटरत्न मरीचिभिरस्पृशन् । 9 / 13
वे मुकुट वाले सिर रख दिए, जिनके मणि दशरथजी के पैर के नखों की ललाई दमक उठते थे।
3. मौलि :- [ मूलस्या दूर भवः इञ् ] ताज, किरीट, मुकुट ।
जो विश्रामयन्राज्ञां छत्रशून्येषु मौलिषु । 4 / 85
धूल हारे हुए राजाओं के छत्र-रहित मुकुटों पर बैठती चलती थी। प्रस्थान प्रणतिभिरंगुलीषु चक्रुमलिस्रकच्युतमकरंदरेणु गौरम् | 4 / 88 उस समय उन राजाओं के सिर की मालाओं से जो पराग गिर रहा था, उससे रघु के चरणों की उँगलियाँ गोरी हो गईं।
कुबेर
1. अलकेश्वर : - [ अल्+क्वन्+ईश्वरः ] अलका का स्वामी कुबेर ।
न मैथिलेयः स्पृह्यांबभूव भर्त्रे दिवो नाप्यलेकश्वराय । 16/42
न तो कुश को सुंदर-सुंदर अप्सराओं से भरे स्वर्ग के स्वामी बनने की इच्छा रह गई और न असंख्य रत्नों वाली अलकापुरी को ही लेने की ।
For Private And Personal Use Only
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
65
रघुवंश
प्रेमदत्तवदनानिलः पिवन्नत्यजीवदमराललेकश्वरो। 1975 तब राजा अग्निवर्ण प्रेमपूर्वक फूंक मार-मारकर उनके मुख चूमने लगता था, उस समय वह समझता था कि मैं इन्द्र और कुबेर से भी बढ़कर सुखी और भाग्यवान हूँ। कुबेर :-[कुत्सितं बे[वे]रं शरीरं यस्य सः] धन दौलत और कोष का स्वामी, उत्तर दिशा का स्वामी। गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्यतिष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्। 5/26 रघु ने भी देखा कि पृथ्वी पर तो धन नहीं हैं, इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि कुबेर से ही धन लिया जाय। तं भूपतिर्भासुर हेमराशिं लब्धं कुबेराद भियास्यमानात्। 5/30 रघु की चढ़ाई की बात कान में पड़ते ही कुबेर ने रात को ही सोने की वर्षा कर दी थी, वह सोने का ढेर ऐसा चमक रहा था। यम कुबेर जलेश्वरवज्रिणां समधुरं मधुरं चित विक्रमम्। 9/24 यम, कुबेर, वरुण और इन्द्र के समान पराक्रमी उन एकच्छत्र राजा का अभिनंदन
करने के लिए वसंत ऋतु भी। 3. कैलासनाथ :-[के जले लासो दीप्तिरस्य-कैलास+अण्+नाथ] कुबेर का
विशेषण, शिव का विशेषण। सामंत संभावनयैव धीरः कैलासनाथं तरसा जिगीषुः। 5/28 मैं अकेला ही महाप्रतापी कैलास के स्वामी कुबेर को छोटे से राजा के समान सहज में जीत लूँगा। कैलास नाथोद्वहनाय भूयः पुष्पं दिवः पुष्पकन्वमंस्त। 14/20 तब राम ने उस स्वर्ग के फूल के समान पुष्पक विमान को कुबेर के पास जाने
की आज्ञा दी। 4. धनद् :-[धन्+अच्+दः] कुबेर का विशेषण।
यथा साधारणीभूतं नामास्य धनदस्य। 17/80
उनका अतिथि ने इतना सत्कार किया कि लोग इन्हें भी दूसरा कुबेर कहने लगे। 5. नरवाहन :-[नृ+अच्+वाहनः] कुबेर का विशेषण। विजय दुंदुभितां ययुरर्णवा घनरवानरवाहन संपदः। 9/11 कुबेर के समान संपत्तिशाली दशरथ जी चलते थे तो बादल के समान गरजता हुआ समुद्र उनकी विजय दुंदुभी बजाता था।
For Private And Personal Use Only
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
66
www. kobatirth.org
-:
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कुश
1. कुश :- [ कु+ शी+ड] राम के बड़े पुत्र का नाम ।
यत्कुंभ योनेरधिगम्य रामः कुशाय राज्येन समं दिदेश । 16 / 72
राम को अगस्त्य ऋषि ने जो जैत्र आभूषण दिया था, उसे राम ने राज्य के साथ ही कुश को दे दिया था ।
2. मैथिल
कुश का विशेषण |
इत्थं नागस्त्रिभुवन गुरो रौरसं मैथिलीयं लब्ध्वा बन्धुं तमपि च कुशः चमं तक्षकस्य । 16/88
इस प्रकार नागराज कुमुद ने त्रिलोकीनाथ विष्णु के सच्चे पुत्र कुश को अपना संबंध बनाकर गरुड़ से डरना छोड़ दिया, कुश ने भी नागराज तक्षक के ।
केतु
कालिदास पर्याय कोश
1. केतन :- [ कित् + ल्युट् ] पताका, झंडा, घर, आवास ।
कुसुमचापतेजयदंशुभि हिमकरो मकरोर्जितकेतनम् । 9 / 39
उसकी ठण्डी किरणों से कामदेव के फूलों के धनुष को मानो और भी अधिक बल मिल गया हो ।
2. केतु : - [ चाय् + तु, की आदेश: ] पताका, झंडा ।
अहिताननलिोद्भूतैस्तर्जयन्निव केतुभिः । 4/28
वायु के लगने से सेना की जो झंडिया फरफरा रही थीं, वे मानो शत्रुओं को उँगली उठा-उठाकर डाट रही थीं।
निवेशयामास विलंघिताध्वा क्लान्तं रजोधूसरकेतु सैन्यम् । 5/42
अपनी उस थकी हुई सेना का पड़ाव डाला, जिसकी पताकाएँ मार्ग की धूल लगने से मटमैली हो गई थीं।
For Private And Personal Use Only
यैः सादिता लक्षित पूर्वकेतूंस्तांनेव सामर्षतया निजघ्नुः । 7/44
वे अपने सारथियों को बहुत बुरा-भला कहन लगे और जिनकी मार से वे घायल हुए थे, उन्हें रथ के झण्डों से पहचान-पहचान कर मारने लगे । सशोणितैस्तेन शिलीमुखाग्रैर्निक्षेपिताः केतुषु पार्थिवानाम् । 7/65 उन मूर्च्छित पड़े हुए राजाओं की ध्वजाओं पर रुधिर से सने बाणों की नोकों से यह लिख दिया गया।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
67
नामांकरावण शरांकित केतु यष्टिर्मूर्ध्वं रथं हरिसहस्त्र युजं निनाय। 12/103 मातलि अपना सहस्रों घोड़ों वाला रथ लेकर स्वर्ग में चला गया, उस रथ की ध्वजा पर अभी तक रावण के नाम खुदे हुए बाणों के चिह्न पड़े हुए थे। अथाभिषेकं रघुवंश केतो: प्रारब्ध मानन्द जलैर्जनन्योः। 14/7 जिस राज्याभिषेक का आरंभ माताओं के हर्ष भरे आँसुओं से हुआ था। दिशः पपात पत्त्रेण वेग निष्कंप केतुना। 15/48 काँपती हई ध्वजा वाले पुष्पक विमान पर चढ़कर राम यह देखने के लिए सब
दिशाओं में चक्कर काटने लगे। 2. ध्वज :-[ध्वज्+अच्] ध्वज, झण्डा, पताका, वैजयन्ती।
ते रेखाध्वज कुलिशात पत्र चिह्न सम्राजश्चरणयुगं प्रसादलभ्यम्। 4/88 जाते समय उन राजाओं ने रघु के उन चरणों में झुककर प्रणाम किया, जिन पर ध्वजा, वज्र और छत्र आदि की रेखाएँ बनी हुई थीं। कुशेशयाताम्र तलेन कश्चित्करेण रेखाध्वज लांछनेन। 6/18 जिनकी हथेली कमल के समान लाल थी और जिस पर ध्वजा की रेखाएँ बनी हुई थीं। मत्स्यध्वजा वायुवशाद्विदीर्णैर्मुखैः प्रवृद्धध्वजिनीरजांसि। 7/40 वायु के कारण सेना की मछली के आकार वाली झंडियों के मुँह खुल गये थे। उनमें जल धूल घुस रही थी। तस्य जातु मरुतः प्रतीपगा वर्त्मसु ध्वज तरु प्रमाथिनः। 11/58 वैसे ही एक दिन मार्ग में सेना के ध्वजा रूपी वृक्षों को झकझोरने वाले वायु ने
सारी सेना को व्याकुल कर दिया। 3. पताका :-[पत्यते ज्ञायते कस्य चिद्भेदोऽनया-पत्+आ+टाप] झण्डा, ध्वज।
पुरंदर श्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरेरभिनन्द्यमानः। 2/74 इन्द्र के समान संपत्तिशाली राजा दिलीप ने प्रजा का आदर पाकर उस अयोध्या
नगरी में प्रवेश किया, जिसमें उनके स्वागत के लिए झंडे ऊँचे कर दिए गए थे। 4. वैजयंती :-[वि+जि+अच्-वैजयन्त+अण्+ङीप्] झंडा, पताका।
संचारिते चागुरुसारयोनौ धूपे समुत्सर्पति वैजयंतीः। 6/8 अगर के सार से बनाई हुई धूपबत्तियों का धुआँ चारों ओर उड़ता हुआ फहराती हुई झंडियों तक चढ़ गया।
For Private And Personal Use Only
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
68
www. kobatirth.org
कुसुमरेणु
1. कण : - [ कण्+अच्] पराग, अनाज का दाना । उपचितावयवा शुचिभिः कणैरलिकदम्बकयोगमुपेयुषी । 9/44
तिलक के फूलों के गुच्छे उजले पराग से भरे बढ़ चुके थे । उन पर मंडराते हुए भौरों के कारण ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
2. कुसुमरेणु :- [ कुष्+उम्+रेणु] पराग ।
कुसुम केसर रेणुमलि व्रजाः सपवनो पवनोत्थितमन्वयुः । 9/45 उपवनों के फूलों का पराग जो वायु ने उड़ाया, तो भौरों के झुंडं भी उसके पीछे-पीछे उड़ चले ।
4. पुष्परज :- [पुष्प्+अच्+रजस्] पराग ।
कालिदास पर्याय कोश
3. केसर : - [ के+सृ (शृ) + अच्, अलुक् स०] फूल का रेशा या तन्तु । युवतयः कुसुमं दधुराहितं तदलके दलकेसर पेशलम् 19/40
अपने प्रियतमों के हाथों से जूड़ों में खँसे हुए वे सुन्दर पंखड़ी वाले और पराग वाले फूल स्त्रियों के केशों में बड़े सुंदर लग रहे थे ।
5. पुष्परेणु :- [पुष्प्+अच्+रेणु] पराग।
गात्रं पुष्परजः प्राप न शाखी नैऋतेरितः । 15/20
वह वृक्ष तो उनके शरीर तक नहीं पहुँच सका केवल उसके फूलों का पराग भर उन तक पहुँच पाया।
पुष्परेणूत्किरैर्वातैराधूत वनराजिभि: 1 / 38
फूलों के पराग उड़ाता हुआ और वन के वृक्षों की पाँतों को धीरे-धीरे कँपाता हुआ पवन ।
6. मकरंद : - [ मकरमपि द्यति कामजनकत्वात् दो - अखण्डनेक पृषो० मुम् - तारा०] मधु, शहद, फूलों का रस ।
1. केयूर भुजबंद |
प्रस्थन प्रणतिभिरंगुलीषु चक्रमौलिकच्युतमकरंद रेणु गौरम् | 4/68 उस समय उन राजाओं के सिर की मालाओं से जो पराग गिर रहा था, उससे रघु के चरणों की उँगलियाँ गोरी हो गईं।
केयूर
:- [के बाहौ शिरसि वा याति, या +ऊर किच्च ] टाड, बाजूबंध,
For Private And Personal Use Only
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
69
रघुवंश
सा तीर सोपान पथावतारादन्योन्य केयूर विघट्टिनीभिः। 16/56 जब कुश की रानियाँ सीढ़ियों से पानी में उतरने लगी, उस समय उनके भुजबंद
एक दूसरे से रगड़ खाने लगे। 2. बाहु :- [बाध्+कु, धस्य हः] भुजा, बाजूबंद, बाजूबंध।
गाढांग दैर्बाहुभिरप्सु बालाः क्लेशोत्तरं रागवशात्पलवन्ते। 16/60 खेल में सम्मिलित होने के कारण ये मोटे-मोटे भुजबंदों वाली बाँहों से जल में बड़ी कठिनाई से तैर रही हैं।
केशपाश
1. केशपाश :-[क्लिश्यते क्लिश्नाति वा-क्लिश+अन, लोलोपश्च+पाश:] बालों
का जूड़ा, संवारे हुए बाल, बहुत अधिक बाल। बद्धं न संभावित एव तावत्करेण रूद्धोऽपि च केशपाशः। 7/6 उस हड़बड़ी में अपना जूड़ा बाँधने की भी सुध न रही और वह अपने केश हाथ
में थामे ही खिड़की पर पहुँच गई। 2. प्रवेणी :-[प्र+वेण्+इन्, प्रवेणि ङीष्] बालों का जूड़ा।
हेम भक्तिमती भूमिः प्रवेणीमिव पिप्रिये। 15/30 ऐसी सुदंर लगी, मानो वह सुनहरी फन्दों वाली पृथ्वी की चोटी हो।
केसर 1. केसर :-[के+सृ (शृ)+अच्, अलुक् स०] बकुल वृक्ष का फूल।
ललित विभ्रमबन्ध विचक्षणं सुरभि गंध पराजित केसरम्।9/36 चितवन आदि मधुर हावभाव कराने को उकसाने वाले और बकुल को भी
अपनी गन्ध से हराने वाले। 2. बकुल :-[बङ्कर+उरच्, रेफस्य लत्वम्, न लोप:] मौलसिरी वृक्ष का सुगंधित
फूल, मौलसिरी वृक्ष, बकुल। मधु करैर करोन्मधुलोलुपैर्बकुल माकुलमायत पंक्तिभिः। 9/30 बकुल के वृक्षों को झुण्ड बनाकर उड़ते हुए मधु के लोभी भौरों ने बड़ा झक झोरा
For Private And Personal Use Only
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
10
कालिदास पर्याय कोश
कोष 1. आकर :-[आ कुर्वन्त्यस्मिन्-आ+कृ+घ] खान।
बभूव वज्राकर भूषणायाः पतिः पृथिव्याः किल वज्रणाभः। 18/21 उनके पीछे उनके पुत्र वज्रनाभ, हीरे की खानों का भूषण पहनने वाली पृथ्वी के
स्वामी हुए। 2. कोष :-[कुश् (ष)+घञ्, अच् वा] पात्र, भांडार, ढेर।
तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं निःशेष विश्राणित कोष जातम्। 5/1 जिस समय रघु विश्वजित यज्ञ में अपना सब कुछ दान किए बैठे थे। प्रातः प्रयाणाभिमुखाय तस्मै सविस्मयाः कोषगृहे नियुक्ताः। 5/29 दूसरे दिन तड़के जैसे ही रघु चलने को हुए, वैसे ही राजकोश के रक्षकों ने
आकर यह अचरज-भरा समाचार दिया। 3. खनि (अनि):-[खन्+इ] खान।
खनिभिः सुषुवे रतं क्षेत्रैः सस्यं वनैर्गजान्। 17/66 खानों ने रत्न, खेतों ने अन्न और वनों ने हाथी उन्हें दिए। उत्खात शत्रु वसुधोपतस्थे रलोपहारैरुदितैः खनिभ्यः। 18/22 उनका शत्रु विनाशक पुत्र सारी पृथ्वी का शासक हुआ और खानों से रत्न उपहार में प्राप्त किए।
कौत्स 1. कौत्स :- उपात्त विद्यो गुरुदक्षिणार्थी कौत्सः प्रपेदे वरतन्तु शिष्यः। 5/1
उसी समय वरतन्तु के शिष्य कौत्स ऋषि गुरुदक्षिणा के लिए धन माँगने को उनके पास आ पहुँचे। दिदेश कौत्साय समस्तमेव पादं सुमेरोरिव वज्र भिन्नम्। 5/30 वह सोने का ढेर ऐसा चमक रहा था, जैसे किसी ने वज्र से सुमेरु पर्वत का एक टुकड़ा काटकर गिरा दिया हो। रघु ने वह सारा सोना कौत्स को भेंट कर दिया। स्पृशन्करेणानत पूर्वकार्य संप्रस्थितो वाचुमुवाच कौत्सः। 5/32 जब कौत्स चलने लगे, तब राजा ने उन्हें प्रणाम किया। कौत्स बड़े प्रसन्न थे और उन्होंने राजा के सिर पर हाथ धरते हुए कहा।
For Private And Personal Use Only
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
-:
रघुवंश
2. वरतन्तु शिष्य
कौत्स ऋषि ।
उपात्तविद्यो गुरुदक्षिणार्थी कौत्सः प्रपेदे वरतन्तु शिष्यः । 5 / 1 उसी समय वरतन्तु के शिष्य कौत्स ऋषि गुरुदक्षिणा के लिए धन माँगने को उनके पास आ पहुँचे।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
71
स्वार्थोपपत्तिं प्रति दुर्बलाशस्तमित्यवोचद्वरतन्तु शिष्यः । 5 / 12
उन्होंने समझ लिया कि यहाँ हमारा काम नहीं बनेगा, यह सोचकर वरतन्तु के शिष्य कौत्स बोले ।
कौमुदी
1. इन्दुप्रकाश :- [ उनत्ति क्लेदयति चन्द्रिकया भुवनम् - उन्द् + उ आदेरिच्च + प्रकाश] चाँदनी ।
संदष्ट
वस्त्रेष्वबलानितम्बेष्विन्दुप्रकाशान्तरितोडुतुल्याः । 16 / 65
इन रानियों ने अपने नितम्बों पर श्वेत वस्त्र लपेट लिया है, जिसके नीचे तगड़ी के घुंघरू चाँदनी से ढके हुए तारों के समान दिखते हैं।
2. कौमुदी : - [ कौमुद+ ङीप् ] चाँदनी ।
शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्तं जलनिधि मनुरूपं जन्हु कन्यावतीर्णा ।
6/85
यह तो चाँदनी और चंद्रमा का मेल हुआ और गंगाजी समुद्र में मिल गई हैं। निमिमील नरोत्तम प्रिया हृतचंद्रा तमसेव कौमुदी । 8/37
उसने व्याकुल होकर आँखें मूद लीं, मानों चंद्रमा को राहु ने ग्रस लिया हो । 3. चंद्रिका :- [ चन्द्र+उन्+टापू] चाँदनी, ज्योत्स्ना ।
अन्वभुक्तं सुरतश्रमापहाँ मेघमुक्त विशदां स चंद्रिकाम् | 19/39
उस चाँदनी का आनंद लेता था, जो संभोग का श्रम दूर करती है और जो बादलों के न रहने से बराबर फैली रहती है।
For Private And Personal Use Only
4. चान्द्रमसी प्रभा : - [ चन्द्रमस्+अण्+प्रभा ] चाँदनी ।
क्वचित्प्रभा चान्द्रमसी तमोभिश्छाया विलीनैः शबलीकृतेव । 13/56 कहीं-कहीं ये वृक्ष के नीचे की उस चाँदनी के समान लगती हैं, जिसके बीच-बीच में पत्तों की छाया पड़ी हो।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
कौलीन 1. कौलीन :-[कुल+[खम्] खानदानी, कुलीन, लोकापवाद, कुत्सा, दुराचरण।
कौलीनमात्माश्रयमाचचक्षे तेभ्यः पुनश्चेदमुवाच वाक्यम्। 14/36 वे भी अपने भाई की दशा देखकर सन्न रह गए, अपने भाइयों से राम बोले। कौलीन भीतेन गृहान्निरस्ता न तेन वैदेह सुता मनस्तः। 14/84
उन्होंने सीताजी को अपनी अच्छा से नहीं वरन कलंक के डर से ही छोड़ा था। 2. परीवाद :-[परि+वद्+घञ्, पक्षे उपसर्गस्य दीर्घः] कलंक, निन्दा, बदनामी।
तामेक भार्यां परीवादभीरोः साध्वीमपि त्यक्तवतो नृपस्य। 14/86
राजा ने कलंक के डर से अपनी रानी सीता को सती होते हुए भी छोड़ दिया। 3. लोकवाद :-[लोक्यतेऽसौ लोक+ घञ्+वादः] अफवाह, सामान्य चर्चा ।
मां लोकवाद श्रवणादहासीः श्रुतस्य किं तत्सदृशं कुलस्य। 14/61 इस समय अपजस के डर से जो आपने मुझे छोड़ दिया है, वह क्या उस प्रसिद्ध
कुल को शोभा देता है, जिसमें आपने जन्म लिया है। 4. लोकापवाद :-[लोक्यतेऽसौ लोक+घञ्+अपवादः] सार्वजनिक निन्दा।
अवैमि चैनामनघेति किंतु लोकापवादो बलवान्मतो मे। 14/40 मैं जानता हूँ कि वह निर्दोष है पर बदनामी सत्य से भी अधिक बलवती होती है।
क्रंद 1. क्रंद :- रोना, क्रंदन करना, विलाप करना।
सा मुक्त कंठं व्यसनातिभाराच्चक्रंदविग्ना कुररीव भूयः। 14.68 विपत्ति के भार से व्याकुल होकर सीता जी, डरी हुई कुररी के समान डाढ़ मार-मारकर रोने लगीं। अवतीर्यांकशय्यास्थं द्वारि चक्रंद भूपतेः। 15/42
राजा की ड्योढी पर गोद से उतारकर यह कह कहकर फूट-फूटकर रोने लगा। 2. रुद् :-क्रंदन करना, रोना, विलाप करना, शोक मनाना।
तस्याः प्रपन्ने सम दुःख भावमत्यंतभासीदुदितं वनेऽपि। 14/69 सीताजी के दुःख से दुखी होकर सारा जंगल रोने लगा।
For Private And Personal Use Only
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
73
क्षय 1. राजयक्ष्मा :-[राज् + कनिन् + यक्ष्मन्] क्षयरोग, तपेदिक।
राजयक्ष्मपरिहानिराययौ कामयान समवस्थया तुलाम्। 19/50
यक्ष्मा रोग से सूखकर वह ठीक विरहियों के समान दिखाई देने लगा। 2. क्षय :-[क्षि + अच्] तपेदिक, रोग।
राज्ञि तत्कुलमभूक्षयातुरे वामनार्चिरिव दीप भाजनम्। 19/51 राजा के क्षय रोग से रोगी होने पर सूर्य कुल ऐसा रह गया, जैसे तनिक सी बची हुई दीपक की लौ हो।
क्षीर
1. औधस्यम् :-[ऊधस् + ष्यञ्] दूध, दूध (औड़ी) से प्राप्त।
औधस्यमिच्छामि तवोप भुक्तुं षष्ठांशमुफ् इव रक्षिताः। 2166 मैं उसी प्रकार तुम्हारा दूध ग्रहण करना चाहता हूँ, जैसे मैं राज्य रक्षा करके
उसका छठा भाग ग्रहण करता हूँ। 2. क्षीर :-[घस्यते अद्यसे घस् + ईरन्, उपघालोपः, घस्य ककारः षत्वं च] दूध।
पृषतैर्मन्दरोद्भुतः क्षीरोर्मय इवाच्युतम्। 4/27 जैसे मंदराचल से मथते समय, क्षीर सागर की लहरों की उछलती हुई उजली फुहारें विष्णु भगवान् के ऊपर बरस रही थीं। सप्तच्छदक्षीर कटुप्रवाहमसह्यमाघ्राय मदं तदीयम्। 5/48 जब अज के हाथियों ने उसके छितवन के दूध के समान कसैले मद की गंध
पाई, तब वे। 3. दुग्ध :-[दुह + क्त] दूध।
दुग्ध्वा पयः पत्रपुटे मदीयं पुत्रोपुभुक्ष्वेति तमादि देश। 2/65 नंदिनी ने कहा कि मैं तेरी इच्छा पूर्ण करूँगी और यह आज्ञा दी कि तू एक दोने
में मेरा दूध दूहकर पी ले। 4. पयस :-[पय + असुन्, पा + असुन, इकारादेश्च] पानी, दूध।
न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि मां कामदुधां प्रसन्नाम्। 2/6 तुम मुझे केवल दूध देने वाली साधारण गौ न समझना, मैं प्रसन्न हो जाऊँ, तो मुझसे जो माँगा जाय, वही फल दे सकती हूँ।
For Private And Personal Use Only
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
74
www. kobatirth.org
ग
गंगा
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दुग्ध्वा पयः पत्रपुटे मदीयं पुत्रोपभुङ्क्ष्वेति तमादिदेश | 2/65
नंदिनी ने कहा मैं तेरी इच्छा पूर्ण करूंगी और यह आज्ञा दी कि तू एक दोने में मेरा दूध दुहकर पी ले।
कालिदास पर्याय कोश
1. गंगा :- [ गम् + गन्+टाप्] गंगा नदी ।
गंगा प्रपातान्त विरूढ शष्पं गौरी गुरोर्गह्वरमाविवेश | 2/26
वह झट हिमालय की उस गुफा में बैठ गई, जिसमें गंगाजी की धारा गिर रही थी और जिसके तट पर घनी हरी-हरी घास खड़ी हुई थी ।
art हाभ्रष्टां गंगामिव भगीरथः । 4/32
मानो शंकरजी की जटा से निकली हुई गंगाजी को साथ लिए हुए भागीरथ जी चले जा रहे हों ।
गंगा शीकरिणो मार्गे मरुतस्तं शिषेविरे । 4/73
गंगाजी की फुहारों से ठंडा हुआ वायु रघु की सेवा करता जा रहा था। कलिन्दकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मिसंसक्त जलेव भाति । 6/48
उस समय मथुरा में भी यमुनाजी का रंग ऐसा प्रतीत होता है, मानों वहीं पर उनका गंगा जी की लहरों से संगम हो गया हो ।
For Private And Personal Use Only
निर्यात शेषा चरणाद्गंगेवोर्ध्व प्रवर्तिनी । 10/37 मानो उनके चरणों से निकलकर गंगाजी ऊपर को जा रही हों । पश्यानवद्यांगि विभाति गंगा भिन्न प्रवाहा यमुना तरंगैः । 13/57 गंगां निषादाहृतनौविशेषस्ततार संधामिव सत्यसंधः । 14/52 har ने जो नाव लाकर दी उस पर चढ़कर सीताजी के साथ गंगाजी से भी पार हो गए और अपनी उस प्रतिज्ञा से भी पार हो गए, जो उन्होंने सीता को गंगा पार छोड़ने के लिए राम से की थी ।
तीर्थे तदीये गजसेतुबंधात्प्रतीपगामुत्तरतोऽस्य गंगाम् । 16/33 वहाँ पास ही उल्टी पश्चिम की ओर बहने वाली गंगाजी पर हाथियों का पुल बनाकर वे पार उतरने लगे।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
75
रघुवंश
सशब्दमभिषेकश्रीगंगेव त्रिपुरद्विषः। 17/14 अभिषेक के जल की धारा शिवजी के सिर पर गंगाजी की धारा के सामन गिर रही थी। 2. जहु कन्या :-[हा+नु, द्वित्वमाकारलोपश्च+कन्या] गंगा। शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्तं जलनिधि मनुरूपं जह्वकन्यावतीर्णा।
6/85 यह तो चंद्रमा और चाँदनी का मेल हुआ है और गंगा जी समुद्र में मिल गई हैं। 3. जह दुहिता :-[हा+नु, द्वित्वमाकारलोपश्च+दुहिता] गंगा।
अवार्यतेवोत्थितवीचिहस्तैर्जनोर्दुहित्रास्थितया पुरस्तात्। 14/51 मार्ग में गंगाजी पड़ीं, उनमें जो लहरे उठ रही थीं, मानों हाथ हिलाकर कह रही
थीं कि ऐसा न करो, ऐसा न करो। 4. जाह्नवी :-[जहनु+अण+ङीप्] गंगा नदी का विशेषण।
त्वय्येव निपतन्त्योघा जाह्नवीया इवार्णवे। 10/26 जैसे गंगाजी की सभी धाराएँ समुद्र में ही गिरती हैं, वैसे ही सभी मार्ग आप में ही पहुँचते हैं। सैकताम्भोज बलिना जाह्नवीव शरत्कृशा। 10/69 जैसे शरदऋत में पतली धार वाली गंगाजी के तट पर किसी का चढ़ाया हुआ
नीला कमल रक्खा हुआ हो। 5. भागीरथी:-[भगीरथ+अण+ङीप] गंगा नदी का नामान्तर।
इयेषभूयः कुशवंति गन्तुं भागीरथीतीर तपोवनानि। 14/28 मैं गंगाजी के तट के उन तपोवनों को देखना चाहती हूँ, जहाँ कुशा की झोपड़ियाँ
चारों ओर खड़ी हैं। 6. सुरसरि :-[सु+रा+क+सरित्] गंगा।
सुरसरिदिव तेजो वह्नि निष्ठ्यूतमैशम्। 1/75 जैसे स्कंद को उत्पन्न करने वाले शंकरजी के उस तेज को गंगाजी ने धारण किया, जिसे अग्नि भी नहीं संभाल सका था।
गज
1. अनेकप :- हाथी।
For Private And Personal Use Only
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
76
कालिदास पर्याय कोश वन्येतरानेकपदर्शनेन पुनर्दिदीपे मददुर्दिनश्रीः। 5/47 सेना के हाथियों को देखकर वह बलवान हाथी क्रोध से तमतमा उठा और उसके
माथे से फिर धुआँधार मद बरसने लगा। 2. करि :-[कर+इनि] हाथी।
करीव सिक्तं पृषतैः पयोमुचां शुचि व्यपाये वनराजि पल्वलम्। 3/3 जैसे गर्मी के अंत में पहली बार वर्षा होने से जंगल के छोटे-छोटे तालों की मिट्टी सोंधी हो जाती है और हाथी उसे बार-बार सूंघते हैं। बभूव तेनातिरां सुदुः सहः कटप्रभदैन करीव पार्थिवः। 3/37 जैसे मद बहने के कारण हाथी प्रचंड हो जाता है, वैसे ही प्रतापी रघु को सहायता से दिलीप भी इतने शक्तिशाली हो गए कि उनके शत्रु उनसे काँपने लगे। नास्त्रसत्करिणां ग्रैवं त्रिपदीछेदिनामपि। 4/48 जिनमें बंधे हुए रस्सों को वे हाथीभी न तोड़ सके, जो पैर के रस्सों को झटके से तोड़ डालते थे। कटेषु करिणां पेतुः पुनांगेभ्यः शिलीमुखाः। 4/57 हाथियों के कपोलों से टपकते हुए मदकी गंध नागकेसर के फूलों पर बैठे हुए भँवरों को मिली। रोधांसि निजत्नवपातमग्नः करीव वन्यः परुष ररास। 16/18 तट को तोड़ता हुआ ऐसे गरजने लगा, जैसे गड्ढे में पड़ा हुआ कोई हाथी
चिंग्घाड़ रहा हो। 3. कलभ :-[कल्+अभच्, करेण शुण्डयाभाति भ+क रस्य लत्वम्-तारा०]
हाथी, हाथी का बच्चा। महोक्षतां वत्सतरः स्पृशन्निव द्विपेन्द्रभावं कलभः श्रयन्निव। 3/32 जैसे गाय का बछड़ा बड़ा हो कर साँड़ हो जाता है और हाथी का बच्चा बढ़कर गजराज हो जाता है। दृष्टो हि वृण्वन्कलभप्रमाणोऽप्याशाः पुरोवातमवाप्य मेघः। 18/32 हाथी के बच्चे के समान छोटा दिखाई देने वाला बादल भी पुरवा पवन का
सहारा पाकर चारों दिशाओं में फैल जाता है। 4. कुंजर :-[कुञ्जो हस्तिहनुः सोऽस्यास्ति-कुञ्ज+र] हाथी।
विस्तारितः कुंजर कर्ण तालैर्ने क्रमेणो पुरुरोध सूर्यम्। 7/39
For Private And Personal Use Only
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
हाथियों के कानों के डुलने से ऐसी धूल चारों ओर फैल गई, मानो सूर्य को
कपड़े से ढक दिया गया हो। 5. गज -[गज्+अच्] हाथी।
रजोभिः स्यंदनोद्भूतैर्गजैश्च घन संनिभैः। 4/29 पृथ्वी पर चलती हुई सेना के काले-काले हाथी बादल जैसे लग रहे थे, जिससे पृथ्वी भी आकाश जैसी लगने लगी। प्रतिजग्राह कलिंगस्तमस्त्रैर्गज साधनः। 4/40 कलिंग नरेश ने हाथियों की सेना लेकर और अस्त्र बरसाकर रघु का सामना किया। स सैन्य परिभोगेण गजदान सुगंधिना। 4/45 राजा रघु के सैनिक जी भरकर नहाए और जल को मथ दिया। फिर हाथियों के नहाने से मद की गंध भी आने लगी। गजालान परिक्लिष्टैरखोटैः सार्धमानताः। 4/69 हाथियों के बाँधने से जैसे वहाँ के अखरोट की डालियाँ झुक गई थीं, वैसे ही वे राजा भी रघु के आगे झुक गए। गजवर्ज़ किरातेभ्यः शशंसुर्देवदारवः। 4/76 (4/76) देवदार की ऊँची-ऊँची शाखाओं पर हाथियों के गले की साँकली से बनी रेखाओं को देखकर ही जंगली किरातों ने हाथियों की ऊँचाई का अनुमान किया। निधीत दानामल गंड भित्तिर्वन्यः सरितो गज उन्ममज्ज। 5/43 एक जंगली हाथी नर्मदा के जल में से झूमता हुआ निकला। जल में स्नान करने के कारण उसके माथे के दोनों ओर का मद धुल गया था। यस्य क्षरत्सैन्यगजच्छलेन यात्रासु यातीव पुरो महेन्द्रः। 6/54 उस समय इनके आगे चलने वाले मतवाले हाथी ऐसे लगते हैं, मानो हाथियों का वेश बनाकर स्वयं महेन्द्र पर्वत चला आ रहा हो। यंता गजस्याभ्यपतद् गजस्थं तुल्य प्रति द्वन्द्वि बभूव युद्धम्। 7/37 हाथी-सवार हाथी-सवारों पर टूट पड़े इस प्रकार बराबर जोर की लड़ाई होने लगी। आधो रणानां गजसंनिपाते शिरांसि चक्रैर्निशितैः क्षुराग्रैः। 7/46
For Private And Personal Use Only
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
78
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
जहाँ हाथियों का युद्ध हो रहा था, वहाँ पैने छुरे वाले चक्रों से जिन हाथीवानों के
सिर कट गए थे।
उद्यतमग्निं शमयांबभूवुर्गजा विविग्नाः करशीकरेण । 7/48
उन्होंने नंगी तलवार से जब हाथियों के दाँतों पर चोटें की तब चिनगारी निकलने लगी ।
आत्मानं रणकृतकर्मणां गजानामनृण्यं गतमिव मार्गणैरमंस्त । 9/65 मानो अपने बाणों से उन हाथियों का ऋण चुका दिया, जो युद्ध में उनकी सेना के काम आ रहे थे ।
उषसि स गजयूथकर्णतालैः पटुपटहध्वनिभिर्विनीत निद्रः । 9 /71
प्रात: काल जब नगाड़ों के समान शब्द करने वाले हाथियों के कानों की फटफट होती थी, तब उनकी आँखें खुलती थीं।
ते सुतेवार्ता गजबंधमुख्यैरभ्युच्छ्रिताः कर्मभिरप्यवंध्यैः । 16/2
वे सभी पुल बाँधने वाले, कृषि की रक्षा करने वाले और हाथियों को इकट्ठा करने में कुशल थे I
न हि सिंहो गजास्कंदीभयाद् गिरिगुहाशयः । 17/52
हाथियों को मारने वाला सिंह गुफा में हाथियों के भय से नहीं सोता है, वरन् उसका स्वभव ही वैसा होता है ।
खनिभिः सुषुते रत्नं क्षेत्रैः सस्यं वनैर्गजान् । 17/66
खानों ने रत्न, खेतों ने अन्न और वनों ने हाथी दिए ।
यो नड्वलानीव गजः परेषां बलान्यमृद्गान्नलिना भवक्रतः । 18 /5
कमल के समान सुंदर मुखवाले राजा ने शत्रु के बल को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी नरकट के गट्ठे को तोड़ डालता है।
6. दंती :- [ दम्+ न् + ङीप् ] हाथी ।
अरुंतुदमिवालानमनिर्वाणस्य दंतिनः । 1/71
हे भगवान्! जिस प्रकार हाथी को उसका खूँटा अत्यंत कष्ट देता है, वैसे ही जो पितरों का भार मेरे सिर पर चढ़ रहा है, वह भी मुझे ।
तस्यासी दुल्वणो मार्गः पादपैरिव दंतिनः । 4/33
जैसे कोई बलवान जंगली हाथी किसी वृक्ष को धक्का मारकर छोड़ देता है, किसी को उखाड़कर फेंकता है और किसी को तोड़ देता है ।
For Private And Personal Use Only
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
79
रघुवंश
रणो गंध द्विपस्येव गंधभिन्नान्यदंतिनः। 17/70
जैसे बिना मदवाले हाथी, मतवाले हाथी से नहीं लड़ पाते। 7. द्विप :-हाथी।
कंडयमानेन कटं कदा चिद्वन्य द्विपेनोन्मथिता त्वगस्य। 2/37 एक बार एक जंगल हाथी आकर इससे रगड़-रगड़कर अपनी कनपटी खुजलाने लगा, उससे इसकी थोड़ी छाल छिल गई। तदा प्रभृत्येव वनद्विपानां त्रासार्थमस्मिन्नहमद्रिकुक्षै। 2/38 तब से शंकरजी ने जंगली हाथियों को डराने के लिए मुझे यहाँ पहाड़ के ढाल पर रखवाला बनाकर रख छोड़ा है। मदोत्कटे रेचितपुष्पवृक्षा गंधद्विपे वन्य इव द्विरेफाः। 6/7 जैसे फूलवाले वृक्षों को छोड़कर मद बहाने वाले जंगली हाथियों पर भौरे झुक पड़ते हैं। शस्त्रक्षताश्व द्विपवीरजन्मा बालारुणोऽभूदुधिर प्रवाहः। 7/42 शस्त्रों से घायल घोड़ों, हाथियों और योद्धाओं के शरीर से निकला हुआ लहू, प्रातः काल के सूर्य की लाली जैसा लगने लगा। अथ मद गुरूपौर्लोकपालद्विपानाम्। 12/102 मद से भीगी हुई पंखों वाले भौरे हाथियों के मद बहाने वाले कपोलों को छोड़कर। तस्य द्विपानां मदवारिसेकात्खुराभिघाताच्च तुरंगमाणाम्। 16/30 कुश के हाथियों के मद जल से और घोड़ों की टापों से। रणों गंध द्विपस्येव गंध भिन्नान्य दंतिनः। 17/70 जैसे बिना मदवाले हाथी, मतवाले हाथी से नहीं लड़ पाते। तेन द्विपानमिव पुंडरीको राज्ञामजय्योऽजनि पुंडरीकः। 18/8 जैसे हाथियों में पुंडरीक नाम का हाथी सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही उस समय के राजाओं में पुंडरीक ही सर्वश्रेष्ठ थे। अभ्यपद्यत स वासिता सखः पुष्पिता: कमलिनीरिव द्विपः। 19/11 हाथी जैसे खिली हुई कमलिनी की गंध से भरे हुए सरोवर में हथिनियों के साथ
पैठता है। 8. द्विरद :- हाथी।
For Private And Personal Use Only
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
80
कालिदास पर्याय कोश सममेव समाक्रांतं द्वयं द्विरदगामिना। 4/4 हाथी के समान मस्त चाल से चलने वाले राजा रघु ने दोनों पर। अंकुशं द्विरदस्येव यन्ता गंभीरवेदिनः। 4/39 जैसे मतवाले हाथी के माथे में हाथीवान अंकुश गड़ाता है। स तीर्वाकपिशां सैन्यैर्बद्ध द्विरद सेतुभिः। 4/38 वहाँ से चलकर रघु ने हाथियों का पुल बनाकर अपनी पूरी सेना को कपिशा नदी के पार कर दिया। तत्र स द्विरदबंहित शंकी शब्दपातिन मिषं विससर्ज। 9/73 इन्होंने समझा कि यह कोई हाथी है और उन्होंने झट शब्द-भेदी बाण चला ही तो
दिया। 9. नाग :-[नाग+अण] हाथी
असूयमेव तन्नागाः सप्तधैव प्रसुनुवुः। 4/23 रघु को हाथियों ने भी रीस के मारे अपनी सूंड़ के नथुनों से, दोनों कपोलों से, कमर से और दोनों आँखों से मद बहाने लगे। भेजे भिन्नकटै गैरन्यानुपरुरोध यैः। 4/83 उन्हीं हाथियों को उसने इंद्र से भी अधिक पराक्रमी रघु को भेंट में दे दिया। तस्यैक नागस्य कपोल भित्त्योर्जलावगाह क्षणमात्र शान्ता। 5/47 यद्यपि नदी में नहाने से उस हाथी के माथे का सब मद धुल चुका था। विनीतनागः किल सूत्रकारैन्द्रं पदं भूमिगतोऽपि भुक्ते। 6/27 हाथियों की विद्या के बड़े-बड़े गुणी लोग इनके हाथियों को सिखाते हैं, ये पृथ्वी पर रहते हुए भी इन्द्र ही समझे जाते हैं। सा केतुमालो पवना बृहद्भिर्विहारशैलानुगतेव नागैः। 16/26 उसका ध्वजाओं वाला भाग लता वाले उपवनों जैसे लग रहा था, बड़े-बड़े हाथी बनावटी पर्वतों जैसे जान पड़ते थे। सा मंदुरासंश्रयिभिस्तुरंगैः शालाविधिस्तंभगतैश्च नागैः। 16/41 उसके घुड़साल में घोड़े बँधे हुए थे, हथसारों के खंभों से हाथी बँधे हुए थे। क्रममाणश्चकार द्यां नागेनैरावतौजसा। 17/32
राजा अतिथि जब ऐरावत के समान बलवान हाथी पर चढ़कर। 10. मतंगज :-[मतङ्ग जन्+ज्] हाथी।
For Private And Personal Use Only
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
81
अतिशस्त्रनखन्यासः शैलरुग्ण मतंगजः। 12/73 अपने नखों से ऐसे भयंकर घाव करते थे कि शस्त्रों से भी वैसे घाव नहीं हो
सकते थे और लड़ाकू हाथियों के सिरों पर बड़ी चट्टाने पटक-पटककर। 11. मत्तेभ :-[मद्+क्त एभ्] मदवाला भीषण हाथी।
तुल्य गंधिषु मत्तेभकटेषु फलरेणवः। 4/47 हाथियों के उन गालों से चिपक गए, जहाँ उन्हीं के गंध जैसी मद की गंध
निकल रही थी। 12. मातंग :-[मतङ्गस्य मुनरेयम् अण्] हाथी।
सरलासक्त मातंगग्रैवेय स्फुरितत्विषः। 4/75 हाथियों के गले में जो साँकलें पड़ी थीं, वे रात को चमकने वाली बूटियों के प्रकाश से चमचमा उठती थीं। मतंगशापाद वलेप मूला दवाप्तवानस्मि मातंगजत्वम्। 5/53 मैंने अभिमान में आकर मतंग ऋषि का अपमान किया था, उन्हीं के शाप से मैं हाथी हो गया। मातंगनः सहसोत्पतद् भिभिन्नान्द्विधा पश्य समुद्रफेनान्। 13/11
इन मगरमच्छों के अचानक उठने से समुद्र की फटी हुई फेन को तो देखो। 13. वारण :-[वृ+णिच्+ल्युट्] हाथी।
जयश्रीरन्तरा वेदिमत्तवारणयोरिव। 12/93 विजयश्री की दशा वैसी ही हो गई, जैसे लड़ते हुए मतवाले हाथियों के बीच की
दीवाल की है। 14. वासिता सख:-[वास्+क्त+टाप्+सख:] हाथी।
अभ्यपद्यत स वासितासख: पुष्पिता: कमलिनीरिव द्विपाः। 19/11 हाथी जैसे खिली हुई कमलिनी की गंध से भरे हुए सरोवर में हथिनियों के साथ
पैठता है। 15. स्तम्बरमा :-[स्तम्बे वृक्षादीनां काण्डे गुल्मे गुच्छे वा रमते रम्+अच्] हाथी। शय्यां जहत्युभयपक्ष विनीत निद्राः स्तम्बेरमा मुखरशृंखल कर्षिणस्ते।
5/72 तुम्हारी सेना के हाथी, दोनों ओर करबटें बदलकर खनखनाती हुई साँकल को खींचते हुए उठ खड़े हुए हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
1. आमय :-[आ+मी+करणेअच्-तारा०, अमिन वा अय्यते इति आमय:] रोग, 'बीमारी, मनोव्यथा। आमयस्तु रतिराग संभवो दक्षशाप इव चन्द्रमक्षिणोत्।19/48 जैसे दक्ष के शाप से चन्द्रमा को क्षय रोग हो गया था, वैसे ही अधिक भोग-विलास
करने से उसे भी क्षयरोग हो गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा। 2. गद :-[गद्+अच्] रोग, बीमारी।
जनपदे न गदः पदमादधावभिभवः कुत एव सपत्नजः। 9/4 रोग भी उनके राज्य की सीमा में पैर न रख सके, फिर शत्रुओं के आक्रमण की संभावना ही कहाँ थी। इन्द्रादृष्टि नियमित गदोद्रेक वृत्तिर्यमोऽभूत्। 17/81 इन्द्र ने उनके साम्राज्य पर वर्षा की, यमराज ने रोगों का बढ़ना रोका वैद्ययत्न परिभाविनं गदं न प्रदीप इव वायुमत्य गात्। 19/53 जैसे वायु के आगे दीपक का कुछ भी वश नहीं चलता, वैसे ही राजा भी वैद्य
के प्रयत्न से भी रोग से नहीं बचाया जा सका। 3. रुजा :-[रुज्+टाप्] बीमारी, व्याधि, रोग।
इत्यदर्शित रुजोऽस्य मंत्रिणः शश्वद्चुरघशंकिनीः प्रजाः। 19/52 जब प्रजा पूछती थी कि राजा को कोई भयानक रोग तो नहीं है, तो मंत्री लोग
प्रजा से राजा के रोग की बात छिपा रहे थे। 4. रोग :-[रुज्+घञ्] रुजा, बीमारी, व्याधि, मनोव्यथा।
रोगशांतिमपदिश्य मंत्रिणः संभृते शिखिनि गूढमादधुः। 19/54 मंत्रियों ने रोग शांति के बहाने से शव को चुपचाप जलती अग्नि में रख दिया कि कहीं बाहर ले जाने से यह रोग प्रजा में न फैल जाय।
गर्भ
1. कुक्षि :-[कुष्+क्सि] पेट, गर्भाशय, गर्भ।
विभक्तात्मा विभुस्तासामेकः कुक्षिष्वनेकधा। 10/65 यद्यपि विष्णु का एक ही रूप है, तो भी वे तीनों रानियों के गर्भो में अलग-अलग निवास कर रहे थे।
For Private And Personal Use Only
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
2. गर्भ :- [गृ + भन्] गर्भाशय, गर्भस्थ बच्चा, गर्भाधान, पेट । नरपति कुल भूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी | 2/75
रानी ने राजा का वंश चलाने के लिए गर्भ धारण किया। निधान गर्भामिव सागराम्बरां शमीमिवाभ्यन्तरलीन पावकाम् । 3/9 गर्भिणी रानी को, अमूल्य रत्नों से भरी पृथ्वी और अपने भीतर अग्नि रखने वाले शमी के वृक्ष के समान ।
सुरेन्द्र मात्राश्रित गर्भ गौरवात्प्रयत्न मुक्तासनया गृहागतः । 3/11
जब धीरे-धीरे रानी का वह गर्भ बढ़ने लगा, जिसमें लोकपालों के अंश भरे थे तब उन्हें उठने-बैठने में कठिनाई होने लगी, जब रनिवास में राजा आते । कुमारभृत्या कुशलैरनुष्ठिते भिषग्भिराप्तैरथ गर्भभर्मणि । 3 / 12
83
बच्चों की चिकित्सा करने वाले बहुत से चतुर वैद्य वे सब उपाय कर रहे थे, जिनसे गर्भिणी सुख से बच्चा जनती है और गर्भ-पुष्ट होता है ।
ताभिर्भः प्रजाभूत्यै दधे देवांश संभवः । 10 / 58
उन तीनों रानियों ने लोककल्याण के लिए विष्णु के अंश से भरे गर्भ को धारण किया ।
3. प्रजानिषेकं :- [ प्र+जन्+ड+टाप् + निषेकं ] गर्भाधान ।
प्रजानिषेकं मयि वर्तमानं सुनोरनुध्यायत चेतसेति । 14 / 60
मेरे गर्भ में आपके पुत्र का तेज है, इसलिए आप लोग हृदय से उसकी कुशल मनाते रहिएगा।
गवाक्ष
1. गवाक्ष : - [ गो + अक्षः ] रोशनदान, झरोखा |
उत्सृष्टलीलागति रागवाक्षादलक्तकांकां पदवीं ततान । 7/7
गीले पैरों से ही झरोखे की ओर दौड़ी, जिससे झरोखे तक लाल पैरों के छाप की पाँत सी बनती चल गई।
For Private And Personal Use Only
विलोलनेत्र भ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपत्रा भरणा इवासन् । 7/11
मानो झरोखों में बहुत से कमल सजे हुए हों और उन पर बहुत से भरे बैठे हुए हों क्योंकि उनके सुंदर मुखों पर आँखें ऐसी जान पड़ती थीं, जैसे कमल पर भौरे बैठे हों ।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
84
कालिदास पर्याय कोश
कुवलयति गवाक्षां लोचनैरंगनानाम्। 11/93 सुंदर स्त्रियों की आँखें झरोंखों में कमल के समान दिखाई पड़ रही थीं। तिरस्क्रियन्ते कृमितंतुजालैर्विच्छिन्न धूम प्रसरा गवाक्षाः। 16/20 न कहीं से अगरूका धुआँ ही निकलता है, अब वे झरोखे मकड़ियों के जालों से ढक गए हैं। जाल :-[जल्+ण] गवाक्ष, झिलमिली, खिड़की। प्रासाद जालैर्जलवेणिरभ्यां रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति कामः। 6/43 तुम यदि राजभावन के झरोखों से उस सुंदर लहरों वाली नर्मदा का मनोहर दृश्य देखना चाहती हो। ततस्तदालोकनतत्पराणां सौधेषु चामीकरजालवत्सु। 7/5 उनको देखने के लिए अपने भवनों के झरोखों की ओर दौड़ीं। जालान्तर प्रेषित दृष्टिरन्या प्रस्थान भिन्नां न बबन्ध नीवीम्। 7/9 एक और स्त्री झरोखे में आँख लगाए खड़ी थी, उसका नाड़ा खुल गया था पर
उसे बाँधने की सुध ही उसे नहीं थी। 3. वातायन :-[वा+क्त+अयनम्] खिड़की, झरोखा।
प्रासादवातायनसंश्रितानां नेत्रोत्सवं पुष्पपुरांगनानाम्। 6/24 वहाँ की स्त्रियाँ झरोंखों में बैठकर तुम्हे देखेंगी और तुम्हारी सुंदरता देखकर उनकी आँखों का सुख मिलेगा। प्रसादवातायनदृश्यवीचिः प्रबोधयत्यर्णव एव सुप्तम्। 6/56 उसकी लहरें राजभावन से स्पष्ट दिखाई देती हैं, जब ये अपने राजभवन में सोते हैं, तब वह समुद्र ही इन्हें प्रातः जगा देता है। तथैववातायनसंनिकर्ष ययौ शलाकामपरा वहती। 7/8 वह सलाई लिए हुए ही झरोखे की ओर दौड़ पड़ी। प्रासाद वातायन दृश्यबंधैः साकेतनार्योऽञ्जलिभिः प्रणेमुः। 14/13 भवनों के झरोखों में हाथ बाँधे दिखाई पड़ने वाली अयोध्या की महिलाओं ने हाथ जोड़कर उनको प्रणाम किया।
गुहा
1. कुक्ष :- [कुष्+स] पेट, गुफा, गुहा।
For Private And Personal Use Only
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
85
रघुवंश
तदा प्रभृत्येव वनद्विपानां त्रासार्थमस्मिन्नहमद्रिकुक्षौ। 2/38 तब से शंकर जी ने जंगली हाथियों को डराने के लिए मुझे यहाँ पहाड़ के ढाल पर रखवाला बनाकर रख छोड़ा है। तदन्विता हैमवताच्च कुक्षैः प्रत्याय यावाश्रममश्रमेण। 2/67 राजा के साथ ही हिमालय की उस कंदरा से बिना थके ही आश्रम की ओर
लौटी। 2. कंदरा :-[कम्+दृ+अच] गुफा, घाटी।
कलापिनां प्रावृषि पश्य नृत्यं कांतासु गोवर्धन कंदरासु। 6/51 वर्षा के दिनों में गोवर्धन पर्वत की सुहावनी गुफाओं में पानी की फुहारों से भीगी
हुई पत्थर पर बैठकर नृत्य देखना। 3. गह्वर :-[गह+वरच्] गुफा, कंदरा।
गंगाप्रपातांत विरूढशष्पं गौरीगुरोर्गह्वरमाविवेश। 2/26 वह झट हिमालय की उस गुफा में बैठ गई, जिसमें गंगाजी की धारा गिर रही थी और जिसके तट पर घनी हरी-हरी घास खड़ी हुई थी। अथाधंकारं गिरि गह्वराणां दंष्ट्रा मयूखैः शकलानि कुर्वन्। 2/46
गुफा के अंधेरे में दाँत की चमक से उजाला करता हुआ। 4. गुहा :-[गुह+टाप्] गुफा, कंदरा, छिपने का स्थान।
तदीयमादित मार्त साधो हा निबद्धप्रतिशब्द दीर्घम्। 2/28 सिंह की झपट से नंदिनी रंभाने लगी और उसकी ध्वनि गुफा में गूंज उठी। एतावदुक्त्वा विरते मृगेन्द्र प्रतिस्वनेनास्य गुहागतेन। 2/51 इतना कहकर सिंह चुप हो गया, तब पर्वत की कंदरा से भी उसकी गूंज सुनाई पड़ी। गुहाशयानां सिंहानां परिवृत्त्यावलोकितम्। 4/72 बलवान सिंह गुफाओं में लेटे-लेटे आँखें घुमाकर रघु की सेना को देख रहे थे। ज्वलितेन गुहागतं तमस्तुहिनादेरिव नक्तमोषधिः। 8/54 जैसे रात में चमकने वाली बूटियाँ अपने प्रकाश से हिमालय की अंधेरी गुफा में भी चाँदनी कर देती हैं। व्याघ्रान भीरभिमुखोत्पतितागुहाभ्यः। 9/63 जब सिंह अपनी माँदों से निकलकर उनकी ओर झपट।
For Private And Personal Use Only
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
86.
कालिदास पर्याय कोश
चकार रेवेव महाविरावा बद्धप्रतिश्रुन्ति गुहामुखानि। 16/31 उस सेना ने नर्मदा के समान जो गंभीर गर्जन किया उससे पर्वत की गुफाएँ भी गूंज उठीं। न हि सिंहो गजास्कन्दी भयाद गिरिगहाशयः। 17/52 हाथियों को मारने वाला सिंह गुफा में हाथियों के भय से नहीं सोता है, वरन्
उसका स्वभाव ही वैसा होता है। 5. शैलरंध्र :-[शिला+अण्+रन्ध्रम्] गुफा, कन्दरा।
अथ वेलासमासन्न शैल रंधानुनादिना। 10/35 क्षीर सागर के तट पर खड़े हुए पहाड़ो की गुफाओं में उनके शब्द गूंज उठे।
गृध 1. गृध :-[गृध्+क्र:] गिद्ध, जटायुनाम का गिद्ध।
तौ सीतान्वेषिणौ गृधं लून पक्षम पश्यताम्। 12/54 राम और लक्ष्मण अब सीता को ढूँढ़ने लगे, उन्होंने मार्ग में जटायु को देखा,
उसके पंख कटे हुए थे। 2. पक्षीन्द्र :-[पक्ष इनि+इन्द्रः] गिद्धराज जटायु का विशेषण, गरुड़ का विशेषण।
जहार सीतां पक्षीन्द्र प्रयासक्षण विनितः। 12/53 रावण ने सीताजी को चुरा लिया, मार्ग में गृद्धराज जटायु उससे लड़ा भी, पर वह कुछ कर न सका।
गृह 1. अगार :-[अगं न गच्छन्तम् ऋच्छति प्राप्नोति-अग+ऋ+अण] घर।
स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये वसश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्न्यगारे। 5/25 इसलिए आप हमारी यज्ञ शाला में चलिए, और चौथी अग्नि के समान पूजनीय होकर दो चार दिन ठहरिये। अथानपोढार्गलमप्यगारं छायामिवादर्शतलं प्रविष्टाम्। 16/6 जैसे दर्पण में मुँह का प्रतिबिंब पैठ जाता है, वैसे ही द्वार बंद रहने पर भी वह स्त्री
घर के भीतर आ गई थी। 2. आवास :-[आ+वस्+घञ्] घर, निवास।
स पल्वलोत्तीर्णवराह यूथान्यावास वृक्षोन्मुख बर्हिणानि। 2/17
For Private And Personal Use Only
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
कहीं तो छोटे-छोट तालों में से सुअरों के झुंड निकल-निकल कर चले जा रहे
हैं, कहीं मोर अपने बसेरों की ओर उड़े जा रहे हैं। 3. गृह :--[ग्रह+क] घर, निवास, आवास, भवन।
सुरेन्द्र मात्रा गर्भ गौरवात्प्रयत्न मुक्तासनया गृहागतः। 3/11 जब धीरे-धीरे रानी का वह गर्भ बढ़ने लगा, जिसमें लोकपालों के अंश भरे थे, तब उन्हें उठने-बैठने में भी कठिनाई होने लगी। अपि प्रसन्नेन महर्षिणा त्वं सम्यग्विनी यानुमतो गृहाय। 5/10 क्या ऋषि ने आपकी विद्वता से प्रसन्न होकर आपको गृहस्थ बन जाने की आज्ञा दे दी है। अन्वितः पतिवात्सल्याद्गृह वर्जमयोध्यया। 15/98 जब अयोध्यावासियों ने यह सुना तो राम के प्रेम में वे सब केवल अपने-अपने घर पीछे छोड़कर उनके साथ हो लिए। शिला विशेषानधिशय्य निन्युर्धारा गृहेष्वातपमृद्धिमंतः। 16/49 धनी लोग गर्मी में ठंडी रहने वाली उन विशेष प्रकार की शिलाओं पर सोकर दुपहरी बिताते थे। गेह :-[गो गणेशो गंधर्वो वा इहः ईप्सितो यत्र तारा०] घर, आवास। यस्यात्म गेहे नयनाभिरामा कांतिर्हिमांशोरिव संनिविष्टा। 6/47 चंद्रमा की चाँदनी के समान आँखों को सुख देने वाला इनका प्रकाश तो घर में रहता है। लब्धान्तस सावरणेऽपि गेहे योग प्रभावो न च लक्ष्यते ते। 16/7 तुम हमारे इस बंद भवन में घुस तो आई हो, पर तुम्हारे मुख से यह नहीं प्रकट
होता कि तुम योगिनी हो। 5. निकेतन :-[नि+कित्+ल्युट्] भवन, घर, आलय।
असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चंद्रमौलेः। 6/34 इनका राज-भवन महाकाल मंदिर में बैठे हुए सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले शिवजी के पास ही है। बाष्पायमाणो बलिमनिकेतमालेख्यशेषस्य पितुर्विवेश। 14/15 तब वे अपने पिताजी के पूजाघर में गए, वहाँ दशरथजी का अकेला चित्र देखकर राम की आँखों में आँसू आ गए।
For Private And Personal Use Only
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
88
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
तन्मा व्यथिष्टा विषयान्तरस्थं प्राप्तसि वैदेहि पितुर्निकेतम् । 14 / 72 बेटी ! यहाँ भी तुम अपने पिता का ही घर समझो और शोक छोड़ दो। गौर
1. गौर :- [ गु+र, नि० ] श्वेत ।
कैलासगौरं वृषभारुरुक्षोः पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम् । 2 / 35
जब शंकर जी कैलास पर्वत के समान उजले नंदी पर चढ़ते हैं, तब उसके पहले अपने चरणों से मेरी पीठ पवित्र करते हैं। प्रस्थानप्रणतिभिरंगुलीषु चक्रुमलिस्रक्च्युतमकरंदरेणुगौरम् | 4 / 88
समय उन राजाओं ने जब रघु के चरणों में झुके तो उनके सिर की मालाओं से जो पराग गिर रहा था, उससे रघु के चरणों की उंगलियाँ गोरी हो गईं। इंदीवर श्याम तनुर्नृपोऽसौत्वं रोचना गौरशरीर यष्टिः । 6/65
ये नीलकमल के समान साँवले हैं और तुम गोरोचन जैसी गोरी हो । सा चूर्णगौर रघुनंदनस्य धात्रीकराभ्यां करभोपमोरुः । 6/83
हाथी की सूँड़ के समान जंघाओं वाली इंदुमती ने वह स्वयंवर की माला सुनंदा हाथों रघु के पुत्र अज के गले में पहनवा दी।
2. शुचि : - [ शुच् + कि ] विमल, विशुद्ध, स्वच्छ, श्वेत ।
उपचितावयवा शुचिभिः कणैरलिक दंब कयोगमुपेयषी। 9/44, तिलक के फूलों के गुच्छे उजले पराग से भरे बढ़ चुके थे और ऐसे सुदंर लगने लगे ।
ततः कक्ष्यांतरन्यस्तं गजदंतासनं शुचिः । 17/21
तब वह हाथीदांत के बने उजले सिंहासन पर बैठा, जो राजभवन में एक ओर रक्खा हुआ था।
श्वेत ।
3. शुभ्र : - [ शुभ्+रक् ] चमकीला, उज्ज्वल,
पपौ वशिष्ठेन कृताभ्यनुज्ञः शुभ्रं यशो मूर्तमिवातितृष्णः । 2/69
वशिष्ठजी की आज्ञा से नंदिनी के दूध को पी लिया, वह दूध ऐसा जान पड़ता था कि स्वयं उजला यश ही दूध बनकर चला आया हो।
अन्यत्र शुभ्रा शरदभ्रलेखा रंध्रेष्विवालक्ष्यनभः प्रदेशा। 13 /56 कहीं पर शरद ऋतु के उन उजले बादलों के समान जान पड़ती हैं, जिनके बीच-बीच में नीला आकाश झाँक रहा हो ।
For Private And Personal Use Only
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
89
रघुवंश 4. सित :-[सो(सि)+क्त] सफेद।
उपगतोऽपि च मंडलनाभितामनुदितान्यसितातपवारणः। 9/15 चारों ओर के राजाओं का मंडल उनके हाथ में आ गया, जिससे वे अग्नि और चंद्रमा के समान तेजस्वी लगने लगे।
गौरी
1. अद्रितनया :-[अद्+क्रिन्+तनया] आदि पार्वती।
अथैनमनेस्तनया शुशोच सेनान्यमालीढमिवासुरास्त्रैः। 2/37 बस, इतने पर ही पार्वतीजी को ऐसा शोक हुआ, जैसा दैत्यों के बाणों से घायल स्वामि कार्तिकेय को देखकर हुआ था। उमा :-[ओ: शिवस्य मा लक्ष्मीरिव, उं शिवं माति मन्यते पतित्वेन मा+क वा तारा०] पार्वती, उमा। उमावृषांकौ शर जन्मना यथा यथा जयंतेन शची पुरंदरौ। 3/23 जैसे कार्तिकेय के समान पुत्र को पाकर शंकर और पार्वती, और जयन्त जैसे
प्रतापी पुत्र को पाकर इन्द्र और शची प्रसन्न हुए थे। 3. गौरी :-[गौर ङीष्] पार्वती।
गंगा प्रपातांत विरूढशष्पं गौरीगुरोर्गह्वरमाविवेश। 2/26 वह झट हिमालय की उस गुफा में बैठ गई, जिसमें गंगाजी की धारा गिर रही थी
और जिसके तट पर घनी हरी-हरी घास खड़ी हुई थी। ततो गौरी गुरुं शैलमारुरोहाश्व साधनः। 4/71
वहाँ से अपने घोड़ों की सेना लेकर हिमालय पहाड़ पर चढ़ गए। 4. पार्वती :-[पार्वत+ङीप्] हिमालय की पुत्री पार्वती, दुर्गा का नाम।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ। 1/1
मैं संसार के माता-पिता पार्वतीजी और शिवजी को प्रणाम करता हूँ। 5. स्कंदमाता :-[स्कन्द्+अच्+माता] कार्तिकेय की माता पार्वती।
यो हेमकुंभस्तननिः सृतानां स्कंदस्य मातुः पयसां रसज्ञः। 2/36 स्वयं पार्वतीजी ने अपने सोने के घट रूपी स्तनों के रस से सींच-सींच कर इसे इतना बड़ा किया है।
For Private And Personal Use Only
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
90
www. kobatirth.org
ग्रह
1. ग्रह :- पकड़ना, लेना, ग्रहण करना, लेना । अमोघाः प्रतिग्रह्णन्तावर्ध्यनुपदमाशिषः । 1/44
3.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
ब्राह्मणों ने पहले तो अर्ध्य भेंट करके उनकी पूजा की और फिर उनको ऐसे आशीर्वाद दिए जो कभी निष्फल हो ही नहीं सकते थे ।
तयोर्जगृहतुः पदान्राजा राज्ञी च मागधी । 1/57
राजा दिलीप और मगध की राजकुमारी सुदक्षिणा ने चरण छूकर उन्हें प्रणाम
किया।
तदुपस्थितमग्रहीदजः पितुराज्ञेति न भोगतृष्णया । 8/2
उसी राज्य को अज ने केवल पिता की आज्ञा मानकर ही स्वीकार किया, भोग की इच्छा से नहीं ।
पश्चाद्वनाय गच्छेति तदाज्ञां मुदितोऽग्रहीत्। 12/7
जब उनसे कहा गया कि वन चले जाओ, तब राम ने इस आज्ञा को हँसते-हँसते स्वीकार कर लिया ।
अन्वग्रहीत्प्रणमतः शुभदृष्टि पातैर्वार्तानुयोग मधुराक्षरया च वाचा। 13/71 राम ने प्रेम भरी आँखों से मधुर भाषा में उनसे कृपापूर्वक कुशल मंगल पूछा। न्यस्ताक्षराम क्षरभूमिकायां कार्त्स्न्येन गृह्णाति लिपिं न यावत् । 18/46 अभी वे पटिया पर भली भाँति अक्षर भी लिखना नहीं सीख पाए थे। 2. दद् :- देना, प्रदान करना ।
For Private And Personal Use Only
धनुरधिज्यमनाधिरूपाददे नरवरो रवरोषितकेसरी । 9/54
तब उस सुंदर स्वस्थ राजा ने अपना वह चढ़ा हुआ धनुष उठाया, जिसकी टंकार सुनकर सिंह भी गरज उठे ।
शीर्षच्छेदं परिच्छद्य नियंता शस्त्रमाददे | 15 / 51
राम ने निश्चय कर लिया कि इसका सिर काटना ही होगा, उन्होंने हाथ में शस्त्र उठा लिया।
दा: - देना, स्वीकार करना ।
मायाविभिरनालीढमादास्यध्वे निशाचरैः । 10 / 45
उसे अब राक्षस लोग छीनकर नहीं खा सकेंगे, सब आप लोगों को ही मिलेगा।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
चरण
1. चरण :-[च+ल्युट्] पैर।
ते रेखाध्वज कुलिशात पत्र चिन्हं सम्राजश्चरणयुगं प्रसादलभ्यम्। 4/88 उन राजाओं ने रघु के उन चरणों में झुककर जिन पर ध्वजा, वज्र और छत्र आदि की रेखाएँ बनी हुई थी। स्मरतेव सशब्दनूपुरं चरणानुग्रहमन्यदुर्लभम्। 8/63 तुम्हारे झुनझुनाते बिछुओं वाले चरण की ठोकर किसी को नहीं मिलती, पर तुमने बड़ी कृपा करके उस अशोक को ठोकर लगाई थी, उसे स्मरण करके ही। निर्यात शेषा चरणाद् गंगेवोर्ध्व प्रवर्तिनी। 10/37 मानो उनके चरणों से गंगाजी निकलकर ऊपर को जा रही हैं। तौ निदेशकरणाद्यतौ पितुर्धन्विनौ चरणयोर्निपेततुः। 11/4 पिताकी आज्ञा पालन करने को प्रस्तुत होकर दोनों राजकुमार अपने पित्य के चरणों में झुके ही थे। राघवोऽपि चरणौ तपोनिधेः सभ्यतामिति वदन्समस्पृशत्। 11/89 तब राम ने भी परशुरामजी से क्षमा माँगते हुए उनके चरणों में प्रणाम किया। लंकेश्वर प्रणति भंगदृढ़व्रतं तबद्यं युगं चरण योर्जनकात्मजायाः। 13/78 सीताजी के जिन पवित्र चरणों ने रावण की प्रणय-प्रार्थना को दृढ़तापूर्वक ठुकरा दिया था। सोपानमार्गेषु च येषु रामा निक्षप्तवत्यश्चरणान्सरागान्। 16/15 पहले जिन सीढ़ियों पर सुंदरियाँ अपने महावर लगे लाल पैर रखती चलती थीं। तद्गवाक्षविवरालंबिना केवलेन चरणेन कल्पितम्। 19/17
बस इतना ही कि झरोखे से एक पैर लटका देता था। 2. पद (पु०) :- [पद्+क्विप्] पैर, चरण।
सुव्यक्तभाई पदपंक्तिभिरायताभिः। 9/59
पैर की गीली छापों की पाँत को देखकर जान पड़ता था। 3. पाद :--[पद+घञ्] पैर, चरण।
गुरोः सदारस्य निपीड्य पादौ समाप्य सांध्यं च विधिं दिलीपः। 2/23 गौ की पूजा हो जाने पर दिलीप ने पहले वशिष्ठजी और अरुंधती जी के चरणों की वंदना की, फिर अपने संध्या के नित्य कर्मों को समाप्त किया।
For Private And Personal Use Only
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
92
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
आपादपद्मप्रणताः कलमा इव ते रघुम् । 4 / 37
वैसे ही रघु ने उन राजाओं को फिर राज पर बैठा दिया, जो उनके पैरों पर आकर गिर पड़े थे ।
रत्नपुष्पोपहारेण च्छायामानर्च पादयोः । 4 / 84
इस प्रकार अज उन राजाओं के सिरों पर बायाँ पैर रखकर ।
स्वं वपुः स किल किल्विषच्छिदां रामपादरज सामनुग्रहः । 11/34
राम के चरणों की धूल के छूते ही, उसे इतने दिनों पीछे वही सुंदर शरीर मिल
गया।
राघव: शिथिलं तस्थौ भुवि धर्मस्त्रिपादिव । 15/96
राम उसी प्रकार ढीले पड़ गए जैसे पृथ्वी पर त्रेतायुग में तीन पैर वाला धर्म ढीला पड़ जाता है।
सालक्तकौ भूपतयः प्रसिद्धैर्ववन्दिरे मौलिभिरस्य पादौ । 18/41 राजाओं ने अपने प्रसिद्ध मुकुटों से उन महावर लगे पैरों का वंदन किया।
चातक
1. चातक :- [ चच् + ण्वुल् ] चातक, पपीहा ।
स्वस्त्यस्तु ते निर्गलितांबु गर्भं शरद्धनं नार्दति चातकोऽपि। 5/17 पपीहा भी बिना जल वाले बादलों से पानी नहीं माँगता, आपका कल्याण हो । अंबुगर्भो हि जीमूतश्चातकैरभिनन्द्यते । 17/60
चातक उन्हीं बादलों का स्वागत करते हैं, जिनमें पानी भरा होता है ।
2. सारंग : - [ सृ + अङ्गच्+अण्] चातक, पपीहा ।
प्रवृद्ध इव पर्जन्यः सारंगैरभिनंदितः। 17/15
मानो बहुत से चातक मिलकर बादल के गुण गा रहे हों ।
चामर
For Private And Personal Use Only
1. चामर :- [ चमर्याः विकारः तत्पुच्छनिर्मितत्वात् चमरीः+अण्] चौरी, चंवर । अदेयमासीत्त्रयमेव भूपतेः शशिप्रभं छत्रमुभे च चामरे । 3/16
वे इतने प्रसन्न हुए कि छत्र और दोनों चँवर तो न दे सके, शेष सब आभूषण उतार कर उसे दे डालें।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पुंडरीकात पत्रस्तं विकसत्काश चामरः । 4/17
कमल के छत्र और फूले हुए कास के चँवर लेकर रघु से होड़ करने चली । चमरान्परितः प्रवर्तिताश्वः क्वचिदाकर्णविकृष्ट भल्लवर्षी । 9/66 चामर मृग के चारों ओर अपना घोड़ा दौड़ाते हुए, भाले की नोकवाले बाण बरसाकर उन्होंने उन मृगों की चँवरवाली पूँछें काट डालीं । कपोल संसर्पितया य एषां व्रजन्ति कर्णक्षणचामरत्वम् । 13/11
93
इनके गालों पर क्षण भर के लिए लगी हुई यह फेन ऐसी दिखाई देती है, मानों इनके कानों पर चँवर टँगे हुए हों ।
पर्यंत संचारति चामरस्य कपोललोलो भयकाकपक्षात्। 19/43 उनके आस-पास चँवर डुलाए जाते थे और उनके गालों पर लटें लटकती रहती थीं ।
2. बाल : - [ बल्+ण या बाल्+अच्] बाल, पूँछ, चँवर । नृपतीनिव तान्वियोज्य सद्यः सितबालव्यजनैर्जगाम शांतिम् । 9/66 इससे उन्हें ऐसा संतोष हुआ मानो चँवरधारी राजाओं के चँवर ही उन्होंने छीन लिए हों ।
ज
जरा
1. जरा :-- [जृ + अङ्ग+टाप्] बुढ़ापा, क्षीणता ।
तस्य धर्मरतेरासीदवृद्धत्वं जरसा बिना। 1/23
छोटी ही अवस्था में वे इतने चतुर हो गए थे, कि बिना बुढ़ापा आए ही उनकी गिनती बड़े बूढ़ों में होने लगी।
कैकेयी शंकवाह पलितच्छद्मना जरा । 12/2
मान बुढ़ापा, कैकेयी से शंकित होकर यह कह रहा हो ।
3. वृद्धत्व : - [ वृध+क्त+त्व ] बुढ़ापा ।
तस्य धर्मरतेरासीद् वृद्धत्वं जरसा बिना । 1 / 23
2. वार्द्धक :- [ वृद्धानां समूहः तस्य भावः कर्म वा घुञ्] बुढ़ापा ।
वार्द्धके मुनिवृत्तिनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् । 1/8
बुढ़ापे में मुनियों के समान जंगलों में जाकर तपस्या करते थे और अंत में
परमात्मा का ध्यान करते हुए अपना शरीर छोड़ते थे ।
For Private And Personal Use Only
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
94
www. kobatirth.org
कालिदास पर्याय कोश
छोटी ही अवस्था में वे इतने चतुर हो गए थे, कि बिना बुढ़ापा आए ही उनकी गिनती बड़े बूढ़ों में होने लगी ।
जल
पानी ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
1. अंबु : - [ अम्ब् + उण्] जल,
विश्वासाय विहंगानामालबालाम्बु पायिनाम् । 1 / 51
जिससे पक्षी उन वृक्षों के थावलों का जल निडर होकर पी सकें । अनेन सार्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवन मर्मरेषु । 6 / 57 समुद्र के उन तटों पर विहार करो, जहाँ दिन रात ताड़ के जंगलों की तड़तड़ाहट सुनाई देती है।
तौ सरांसि रसबद्धभिरम्बुभिः कूजितै: श्रुति सुखैः पतत्रिणः । 11/11 सरोवरों ने अपना मीठा जल पिलाकर, पक्षियों ने मधुर गीत सुनाकर । एषा त्वया पेशल मध्ययापि घटाम्बुसंविर्धत बालचूता । 13/34 यहीं पर तो तुमने पतली कमर पर घड़े ले लेकर आम के वृक्षों को सींचकर पाला-पोसा था।
प्रांशुमुत्पाटयामास मुस्तास्तम्बमिव दुमम् । 15/19
एक बड़ा भारी पेड़ ऐसे धीरे से उखाड़ लिया, जैसे मोथा उखाड़ लिया जाता है। अंबुगर्भो हि जीमूत चातकैरभिनन्द्यते । 17/60
चातक उन्हीं बादलों का स्वागत करते हैं, जिनमें पानी भरा होता है ।
गूढ़ मोहन गृहास्तदम्बुभिः स व्यगाहत विगाढमन्मथः । 19/9
वह महाकामी राजा उन बावलियों में सुंदर स्त्रियों के साथ विहार करता था, जिनमें विलास - घर भी बने हुए थे।
2. अंभस् :- [आप् (अम्भू)+असुन्] जल, पानी ।
निषण्णायां निषीदास्यांपीताम्भसि पिबेरपः । 1 /89
जब बैठे तुम भी बैठ जाना और जब वह पानी पीने लगे, तभी तुम भी पानी पीना ।
मरुपृष्ठान्युदं भासि नाव्याः सुप्रतरा नदीः । 4 / 31
मरुभूमि में भी जल की धाराएँ बहने लगीं, गहरी नदियों पर पुल बँध गए। अध्यास्य चाम्भः पृषतो क्षितानि शैलेय गंधीनि शिलातलानि । 6/51
For Private And Personal Use Only
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
पानी की फुहारों से भीगी हुई शिलाजीत की गंध वाली पत्थर की पाटियों पर बैठकर ।
95
विहर्तुमिच्छा वनितासखस्य तस्यांभसि ग्रीष्मसुखे बभूव । 16/54 गर्मी में सुख देने वाले सरयू के जल में अपनी रानियों के साथ विहार करें। 3. अप : - [ आप्+क्विय् + ह्रस्वश्च ] पानी |
निषण्णायां निषीदास्यां पीताम्भसिपिबेरपः । 1 /89
जब बैठे तब तुम भी बैठ जाना और जब यह पानी पीने लगे, तभी तुम भी पानी पीना ।
कौस्तुभारव्यमपां सारं विभ्राणं बृहतोरसा । 10/10 उनके चौड़े वक्षस्थल पर वह कौस्तुभमणि चमक रहा था । आविर्भूतमपां मध्ये पारिजातमिवा परम् । 10/11 मानो समुद्र में एक दूसरा कल्पवृक्ष निकल आया हो । उवास प्रतिमाचन्द्रः प्रसन्नानामपामिव । 10/65 जैसे निर्मल जल में चंद्रमा के बहुत से प्रतिबिंब पड़ जाते हैं। तस्यापतन्मूर्ध्नि जलानि जिष्णोर्विध्यस्य मेथप्रभवा इवाप: । 14/4
राम के सिर पर वैसे ही बरस रहा था जैसे विंध्याचल की चोटी पर बादलों का लाया हुआ जल बरसा करता है ।
पौरेषु सोऽहं बाहुली भवन्तमपां तरंगेष्विव तैलबिंदुम् । 14/38
जैसे पानी की लहरों के ऊपर तेल की बूँद फैल जाती है, वैसे ही इस समय घर-घर मेरी निंदा फैल रही है।
पुरं नवीचकुरपां विसर्गान्मेघा विदाघग्लपितामिवोर्वीम् । 16/38
जैसे इंद्र की आज्ञा से बादल, जल बरसाकर गरमी से तपी हुई पृथ्वी को हरी भरी कर देते हैं, वैसे ही अयोध्या का कायापलट कर दिया।
स नौविमानादवतीर्य रेमे विलोलहारः सह ताभिरप्सु । 16 / 68
यह कहकर कुश भी पानी में उतर पड़े और उन स्त्रियों के साथ जल-विहार करने लगे ।
For Private And Personal Use Only
4. उदक : - [ उन्द् + ण्वुल् नि० नलोपः ] पानी ।
बभुः पिबन्तः परमार्थमत्स्याः पर्याविलानीव नवोदकानि । 7/40 उनमें जब धूल घुस रही थीं, तब वे ऐसी जान पड़ती थीं, मानो वर्षा का गंदला पानी पीती हुई सच्ची मछलियाँ हों ।
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश 5. जल :-[जल्+अक्] पानी।
जलाभिलाषी जलमाददानं छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत्। 2/6 जब वह जल पीने की इच्छा करती, तभी राजा को भी प्यास लग आती थी, वे छाया के समान ही उसके पीछे चल रहे थे। तदंगनिष्यंदजलेन लोचने प्रमृज्य पुण्येन पुरस्कृतः सताम्। 3/41 उन्होंने तत्काल नंदिनी के मूत्र को अपनी आँखों से लगाया। तान्युञ्छषष्ठांकित सैकतानि शिवानि वस्तीर्थजलानि कच्चित्। 5/8 उन नदियों का जल तो ठीक है न, जिनकी रेती पर आप लोग अपने चुने हुए अन्न का छठा भाग राजा का अंश समझकर रख छोड़ते हैं। तस्यैकनागस्य कपोलभित्त्योर्जलावगाह क्षण मात्र शांता। 5/47 यद्यपि नदी में नहाने से उस हाथी के माथे का सब मद जल से धुल चुका था। उष्णत्वमग्न्यात्यसंप्रयोगाच्छैत्यं हि यत्सा प्रकृतिर्जलस्य। 5/54 जल तो आग की गर्मी पाकर ही गर्म होता है, उसका अपना स्वभाव तो ठंडा ही होता है। कलिंदकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मिसंसक्तजलेव भाति। 6/48 उस समय मथुरा में भी यमुना का रंग ऐसा प्रतीत होता है, मानों वहीं पर उनका गंगाजी की लहरों से संगम हो गया हो। अनुपास्यसि बाष्वदूषितं परलोकोपनतं जलांजलिम्। 8/68 अब तुम आँसुओं के जल से मिली हुई गेंदली जलांजलि को परलोक में कैसे पी सकोगे। तेनावतीर्य तुरगात्प्रथितान्वयेन पृष्टान्वयः स जलकुंभनिषण्णदेहः। 9/76 राजा दशरथ ने घोड़े पर से उतरकर घड़े पर झुके हुए मुनि पुत्र से उसका वंश परिचय पूछा। तावदाशु विदधे मरुत्सखैः सासपुष्पजलवर्षिभिर्घनैः। 11/3 इतने में वायु ने फूल और बादलों ने जल लाकर सड़कों पर बरसा दिया। अमी शिरोभिस्तिमयः सरंधैरूज़ वितन्वन्ति जलप्रवाहन्। 13/10 फिर मुँह बंद करके अपने सिर के छेदों से पानी की जल-धाराएँ छोड़ने लगते
समुद्रपन्योर्जलसंनिपाते पूतात्मनामंत्र किलाभिषेकात् 13/58
For Private And Personal Use Only
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
समुद्र की इन दो पत्नियों के संगम में जो स्नान करके पवित्र होते हैं। जलानि या तीर निखातयूपा वहत्ययोध्यामनु राजधानीम्। 13/61 यह नदी अयोध्या से लगी बहती है, इसके तट पर जहाँ-तहाँ यज्ञों के खंभे गड़े हुए हैं। अथाभिषेकं रघुवंश केतोः प्रारब्धमानंद जलैर्जनन्योः। 14/17 जिस राज्याभिषेक का आरंभ माताओं के हर्ष भरे आँसुओं से हुआ था। तस्यापतन्मूर्ध्नि जलानि जिष्णोविंध्यस्य मेघप्रभवाइवापः। जल राम के सिर पर वैसे ही बरस रहा था, जैसे विंध्याचल की चोटी पर बादलों का लाया हुआ जल बरसा करता है। उपांतवानीर गृहाणि दृष्ट्वा शून्यानि दूये सरयूजलानि। 16/21 सरयू के जल के तट पर बनी हुई बेंत की झोपड़ियाँ सूनी पड़ी रहती हैं। आसां जलास्फालन तत्पराणां मुक्ताफलस्पर्धिषु शीकरेषु। 16/62 जल क्रीड़ा में लगी हुई इन रानियों को यह भी नहीं पता कि हमारे हार टूट गए हैं और मोती बिखर गए हैं। अमी जलापूरित सूत्रमार्गा मौनं भजन्ते रशना कलापाः। 16/65 तगड़ी के डोरों में जल भर जाने से इन स्त्रियों के इधर से उधर दौड़ने पर भी ये बज नहीं रहे हैं। यावन्नाश्यायते वेदिरभिषेक जलाप्लुता। 17/37
अभी अभिषेक के जल से भीगी हुई वेदी सूखने भी न पाई थी। 6. तोय :-[तु+विच्, तवे पूत्यें याति-या+क नि० साधुः] पानी।
तोयदागम इवोद्ध्यभिद्ययोर्ना मथेयसदृशं विचेष्टितम्। 11/8 मानों वर्षा ऋतु में दोनों उद्ध्य और भिद्य नदियाँ लहराती इठलाती तटों को ढाती चली जा रही हैं। तं धूपाश्यानकेशान्तं तोयनिर्णिक्तपाणयः। 17/22 धूप से सुगन्धित केशवाले राजा को स्वच्छ हाथों से जल दिया। रघोः कुलं कुड्मलपुष्करेण तोयेन चा प्रौढनरेन्द्रमासीत्। 18/37 इस बालक से राजा रघु का कुल वैसे ही शोभा देने लगा जैसे कमल की कली
से ताल शोभा देता है। 7. पय :-[पय+असुन्, पा+असुन्, इकारादेश्च] पानी।
For Private And Personal Use Only
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
98
कालिदास पर्याय कोश
पयः पूर्वैः स्वनिःश्वासैः कवोष्णमुपभुज्यते। 1/67 मेरे पीछे उन्हें जल नहीं मिलेगा और फिर वे अपनी साँसों से गरम हुए जल को ही पी डालते हैं। तथेत्युषस्पृश्य पयः पवित्रं सोमोद्भवायाः सरितो नृसोमः। 5/59 उन्होंने पहले चंद्रमा से निकली हुई नर्मदा के जल का आचमन किया। रसान्तराण्येकरसं यथा दिव्यं पयोऽश्नुते। 10/17 जैसे एक स्वादवाला वर्षा का जल अलग-अलग देशों में बरसकर अलग-अलग स्वाद वाला हो जाता है। वृषेक पयसां सारमाविष्कृतमुदन्वता। 10/52 जैसे इन्द्र ने समुद्र में से निकले हुए अमृत के कलश को थाम लिया था। प्रवृत्तमात्रेण पयांसि पातुमावर्तवेगाद्धमता घनेन। 13/14 काले-काले बादल समुद्र का पानी लेने आए हैं और समुद्र की भंवर के साथ-साथ बड़ी तीव्र गति से चक्कर काट रहे हैं। यां सैकतोत्संगसुखो चितानां प्राज्यैः पयोभिः परिवर्धितानाम्। 13/62 इसी के बालू में खेल खेलकर वे सब पलते हैं और इसी का मीठ जल पीकर पुष्ट होते हैं। अथ वाल्मीकि शिष्येण पुण्यमाविर्जितं पयः। 15/80
वाल्मीकि जी के शिष्य ने पवित्र जल लाकर दिया। 8. वारि :-[वृ+इञ्] जल, पानी।
अमी शिरीष प्रसवावतं साः प्रभ्रंशिनो वारि विहारिणीनाम्। 16/61 इन जल क्रीड़ा करने वाली रानियों के कानों से सिरस के कर्णफूल खिसककर नदी में गिर कर तैर रहे हैं। श्रोत्रेषु संमूर्च्छति रक्तमासां गीतानुगं वारिमृदंगवाद्यम्। 16/64 ये गा-गाकर जो मृदंग बजाने के समान थपकी दे-देकर जल ठोक रही हैं, उसे सुनकर। एताः करोत्पीडित वारिधारा दातसखीभिर्वदनेषु सिक्ताः। 16/66 जब इनकी सखियाँ इनके मुँह पर पानी डालती हैं और यह अहंकारसे अपनी
सखियों पर पानी उछालती हैं। १. सलिल :-[सलति गच्छति निम्नम्-सल्+इलच्] पानी।
For Private And Personal Use Only
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
99
रघुवंश
नदीमिवान्तः सलिलां सरस्वती नृपः ससत्वां महिषीममन्यत्। 3/9 राजा दिलीप रानी सुदक्षिणा को वैसी ही महत्त्व वाली समझते थे, जैसे भीतर ही भीतर जल बहाने वाली सरस्वती नदी। अथोपरिष्टाभ्रमरैर्भमद्भिः प्राक्सूचितान्तः सलिल प्रवेशः। 5/43 जिसके जल में घुसने की सूचना जल के ऊपर ही भनभनाने वाले भंवरें दे रहे
अनुभूय वशिष्ठ संभृतैः सलिलैस्तेन महाभिषेचनम्। 8/3 अज के राज्याभिषेक के समय वशिष्ठजी ने उनके ऊपर जो पवित्र जल छिड़का, वह पृथ्वी पर भी पड़ा। दूरावतीर्ण पिबतीव खेदादमूनि पंपासलिलानि दृष्टिः। 13/30 बहत ऊँचे से देखने के कारण और बेंत के जंगलों से ढका होने के कारण पंपा सरोवर का जल ठीक-ठीक नहीं दिखाई दे रहा है। तदस्यजैत्राभरणं विहर्तुरज्ञातपातं सलिले ममज्ज। 16/72 जल-क्रीड़ा करते समय वह आभूषण पानी में गिर पड़ा और किसी को इसका पता नहीं चला। तत्र तीर्थसलिलेन दीर्घिकास्तल्पमन्तरितभूमिभिः कुशैः। 19/2 वहाँ वे तीर्थ जल के आगे घर की बावलियों को, भूमि पर बिछे हुए कुश के आगे राजसी पलंग को भूल गये।
ज्या
1. ज्या :-[ज्या+अ+टाप्] धनुष की डोरी।
रघुः शशांकार्धमुखेन पत्रिणा शरासन ज्यामलुनाद्विडौजसः। 3/59 तब रघु ने अर्द्धचन्द्र के आकार के बाण से इंद्र की ठीक कलाई के पास धनुष की वह डोरी काट डाली। निर्घातोग्रैः कुंजलोनांजिघांसुा निर्घोषैः क्षोभयामास सिंहान्। 9/64 झाड़ियों में लेटे हुए सिंहो को मारने के लिए पहले उन्होंने आँधी के समान भयंकर शब्द करने वाली अपने धनुष की डोरी से टॅकार की, जिसे सुनते ही सिंह भड़क उठे। यन्ता हरेः सपदि संहृतकार्मुकज्याम पृच्छय राघवमनुष्ठित देवकार्यम्।
12/103
For Private And Personal Use Only
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
100
कालिदास पर्याय कोश
राम ने धनुष को डोरी उतार दी क्योंकि उन्होंने देवताओं का काम पूरा कर दिया था। दग्ध्वापि देहं गिरिशेन रोषाखंडी कृता ज्येव मनोभवस्य। 16/51 मानो कामदेव का शरीर भस्म करने के पश्चात् शिवजी के हाथ से तोड़ी हुई कामदेव के धनुष की डोरी हो। ततः स कृत्वा धनुराततज्यं धनुर्धरः कोपविलोहिताक्षः। 16/77 यह सुनते ही कुश की आँखें क्रोध से लाल हो गईं और वहीं तट पर खड़े होकर उन्होंने धनुष की डोरी को ठीक किया। मौर्वी :-[मूर्वाया विकारः अण्+ङीप्] धनुष की डोरी। शास्त्रेष्व कुंठिता बुद्धिौर्वी धनुषि चातता। 1/19 शास्त्रों का उन्हें अच्छा ज्ञान था और धनुष चलाने में भी वे एक ही थे। वे अपना सब काम तीखी बुद्धि और धनुष पर चढ़ी हुई डोरी इन दो से ही निकाल लेते थे। अनश्नुवानेन युगोपमानम बद्धमौर्वी किणलांछनेन। 18/48 यद्यपि उनकी भुजा जुए के समान मोटी और लंबी नहीं हुई थी, धनुष की डोरी खींचने से कड़ी भी नहीं हो पाई थी।
तट
1. उपकूल :-[उप+कूल+अच्] किनारा, तट।
उपकूलं स कालिन्द्याः पुरीं पौरुषभूषणः। 15/28
तब पराक्रीम, संयमी और सुंदर शत्रुघ्न ने यमुना के किनारे। 2. कूल :-[कूल+अच्] किनारा, तट।
महोदग्राः ककुद्भन्तः सरितां कूलमुगुजाः। 4/22 कहीं-कहीं ऊँचे कंधों वाले मतवाले साँड़ नदियों के कगार ढाते हुए। साभूद्रामाश्रयाभूयो नदीवोभय कूलभाक। 12/35 राम और लक्ष्मण के पास आते-जाते उसकी दशा उस नदी के समान हो गई, जो बारी-बारी से अपने दोनों तटों को छूती हुई बह रही हो। निविष्टमुदधेः कूले तं प्रपेदे विभीषणः। 12/68 जब राम समुद्र के तट पर पहुंचे, तो विभीषण उनसे मिलने आया।
For Private And Personal Use Only
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
101
3.
प्राप्ता मुहूर्तेन विमानवेगात्कूलं फलावर्जितपूगमालम्। 13/17 विमान के तीव्र चलने के कारण क्षण भर में ही समुद्र के उस तट पर पहुँच गए, जहाँ फलों के भार से सुपारी के पेड़ झुके खड़े हैं। इत्यध्वनः कैश्चिदहोभिरन्ते कूलं समसाद्य कुशः सरय्वाः। 16/35 इस प्रकार मार्ग में कुछ दिन बिताकर कुश, सरयू के किनारे पहुँचे। तट :- [तट्अच्] किनारा, कूल। ततो वेलातटेनैव फलवत्यूगमालिना। 4/44 तब समुद्र के उस तट पर होते हुए, जिस पर पकी हुई सुपाड़ियों के पेड़ लगे हुए थे। स निर्विश्य यथाकामं तटेष्वालीन चंदनौ। 4/51 उन्हें जीतकर रघु ने उन पहाड़ियों के तट पर बहुत दिनों तक पड़ाव डाला, जिन पर चंदन के पेड़ लगे हुए थे। निःशेषविक्षालित धातुनापि वप्रक्रियामृक्षवतस्तटेषु। 5/44 यद्यपि नहाने से उसके दाँतों में लगी गेरू की लाली तो छूट गई थी, फिर भी टीलों पर टक्कर मारने से। पूर्वं तदुत्पीडितवारिराशिः सरित्प्रवाहस्तटमुत्ससर्प। 5/46 इससे जल में जो लहरें उठी थीं, वे उससे भी पहले तट पर पहुंच चुकी थीं। येषां विभान्ति तरुणारूण राग योगाद्भिन्नाद्रिगैरिकतटा इव दन्तकोशाः।
5/72 लाल सूर्य की किरणें पड़ने से उनके दाँत ऐसे लगते हैं, मानो वे अभी गेरु के पहाड़ को खोदकर चले आ रहे हों। चिल्किशुभ्रशतया वरुधिनी मुत्तटा इव नदीरयाः स्थलीम्। 11/58 जैसे बढ़ी हुई नदी की धारा आस-पास की भूमि को उजाड़ देती है। खातमूलमनिलो नदीरयैः पातयत्यपि मृदुस्तटदुमम्। 11/76 जिस वृक्ष की जड़ नदी की प्रचंड धारा ने पहले ही खोखली कर दी हो, उसे वायु
के तनिक से झोंके में ही ढह जाने में क्या देर लगती है। 4. तीर :-[ती+अच्] तट, किनारा, नदीतीर, सागरतीर आदि।
विनीताध्वश्रमास्तस्य सिन्धुतीर विचेष्टनैः। 4/67 सिंधु नदी के तट पर पहुँचकर रघु के घोड़े, वहाँ की रेती में लोट-लोटकर अपनी थकान मिटाने लगे।
For Private And Personal Use Only
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
102
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
संहार विक्षेपलघुक्रियेण हस्तेन तीराभिमुखः सशब्दम् । 5 / 45
वह हाथी ज्यों-ज्यों तट की ओर आने लगा, त्यों-त्यों अपनी सूँड़ फैलाकर और सिकोड़कर चिंग्घाड़ता हुआ ।
अनेनसार्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवन मर्मरेषु । 6 / 57
जहाँ
तुम चाहो तो इनके साथ विवाह करके समुद्र में उन तटों पर विहार करो, दिन- -रात ताड़ के जंगलों की तड़तड़ाहट सुनाई देती है ।
जलानि या तीरनिखात यूपा वहत्ययोध्यामनु राजधानीम् । 13/61 यह नदी इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की राजधानी अयोध्या से लगी बहती है। इसके तट पर जहाँ-तहाँ यज्ञों के खंभे गड़े हुए हैं।
इयेषभूयः कुशवन्ति गन्तुं भागीरथी तीर तपोवनानि । 14 / 28
मैं गंगाजी के तट के उन तपोवनों को देखना चाहती हूँ, जहाँ कुशा की झोपड़ियाँ चारों ओर खड़ी हैं।
तीरस्थली बर्हिभिरुत्कलापैः प्रस्निग्धकेकैरभिनन्द्यमानम्। 16/64
उसे सुनकर तट पर बैठे हुए मोर अपनी पूँछ उठाकर और बोलकर उनका अभिनंदन कर रहे हैं।
5. रोधस : - [ रुध् + असुन्] तट, पुश्ता, बाँध ।
स नर्मदारोधसि सीकराट्रैर्मरुद्धिरानर्तितनक्तमाले । 5/42
अज ने नर्मदा नदी के किनारे जहाँ बड़ा शीतल वायु बह रहा था और उसके झोकों में करंजक के पेड़ झूम रहे थे ।
अथ रोधसि दक्षिणो दधेः श्रित गोकर्ण निकेतमीश्वरम् । 8 / 33
उसी समय दक्खिनी समुद्र के किनारे पर गोकर्ण में बसे हुए शंकर जी को । निववृते स महावर्णरोधसः सचिव कारित बाल सुतांजलीन् । 9/14 उन देशों के मंत्रियों ने उन राजपुत्रों को दशरथ के आगे हाथ जोड़कर खड़ा कर दिया और राजा दशरथ उस महासमुद्र के तट से लौट आए।
रोधांसि निघ्नन्नवपातमग्नः करीव वन्यः परुषं ररास । 16 / 78 तट को छोड़ता हुआ ऐसे गरजने लगा, जैसे गड्ढे में पड़ा हुआ कोई हाथी चिंघाड़ रहा हो ।
For Private And Personal Use Only
6. वेला :- [ वेल्+टाप् ] समुद्र तट, समुद्री किनारा, सीमा, हदबंदी । अथ वेला समासन्नशैलरंध्रानुनादिना । 10/35
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
103 तब क्षीरसागर के तट पर खड़े हुए पहाड़ों की गुफाओं में उनके शब्द गूंज उठे। वेलानिलायप्रसृता भुजंगा महोर्मिविस्फूर्जथुनिर्विशेषाः। 13/12 ये जो बड़ी-बड़ी लहरों के जैसे तट पर दिखाई दे रहे हैं, ये साँप हैं जो तट का वायु पीने के लिए बाहर निकल आए हैं। वेलानिलः केतकरेणुभिस्ते संभावत्याननमायताक्षि। 13/16 समद्र तट का वायु तुम्हारे मुख पर केतकी का पराग छिड़क रहा है, मानो वह यह जान गया है कि मैं तुम्हारे अधरों को चूमने ही वाला हूँ। अन्योन्य देश प्रविभाग सीमां वेला समुद्रा इव न व्यतीयुः। 16/2 जैसे समुद्र अपने तट का उल्लंघन नहीं करता है, वैसे ही उनमें से किसी ने भी अपने राज्य की सीमा लांघकर, दूसरे भाई के राज्य की सीमा में प्रवेष करने का यत्न नहीं किया। बभौ बलौघः शशिनोदितेन वेला मुदन्वानिव नीयमानः। 16/27 जैसे चंद्रमा उदित होकर समुद्र को तट तक खींच लेता है।
तपस्वी 10. तपस्वी :-[तपस्+विनि] तपस्वी, भक्तिनिष्ठ ।
पूर्यमाणम दृश्याग्नि प्रत्युद्यातैस्तपस्विभिः। 1/49 वहाँ पहुँचकर वे देखते क्या हैं कि संध्या के अग्निहोत्र के लिए बहुत से तपस्वी हाथ में। स जातुकर्मण्यखिले तपस्विना तपोवनादेत्य पुरोधसा कृते। 3/18 पुरोहित वशिष्ठजी ने भी जब यह समाचार पाया, तब वे भी तपोवन से आए और
स्वभाव से ही सुंदर उस बालक के जातकर्म आदि संस्कार किए। 2. तापस :-वानप्रस्थ, भक्त, संन्यासी।
त्राणाभावे हि शापास्त्राः कुर्वन्ति तपसो व्ययम्। 15/3 वे तपस्वी तपस्या से बटोरे हुए तेज को ऐसे काम में तभी लगाते हैं, जब कोई दूसरा उसका रक्षक न हो।
तपोनिधि 1. तपोधन :-[तप्+असुन्+धनः] साधना का धनी, तपस्वी।
प्रतिप्रयातेषु तपोधनेषु सुखाद विज्ञातगतार्धमासान्। 14/19
For Private And Personal Use Only
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
104
कालिदास पर्याय कोश ऋषियों के चले जाने पर राम ने उनको विदा किया, जो अयोध्या में इतने आनंद
से रहे कि उन्हें पता ही न चला कि आधा मास कब बीत गया। 2. तपोनिधि :-[तप्+असुन्+निधिः] धर्मप्राणव्यक्ति, संन्यासी, तपस्वी।
विधेः सायंतनास्यान्ते स ददर्श तपोनिधिम्। 1/56 जब संध्या की सब क्रियाएँ हो चुकीं, तब उन्होंने उन तपस्वी महामुनि वशिष्ठ को देखा। संयोक्ष्यसे स्वेन वपुर्महिम्ना तदेत्यवोचत्स तपोनिधिर्माम्। 5/55 तब प्रसन्न होकर उस तपस्वी ने कहा, तब तुम्हें फिर से अपना वास्तविक शरीर प्राप्त हो जावेगा।
तम
1. अंधकार :-[अन्ध्+अच्+कारः] अंधेरा। - आवृण्वतो लोचनमार्गमाजौ रजोऽन्धकारस्य विजूंभितस्य। 7/42
आँखों के आगे अंधेरा छा देने वाली और युद्ध भूमि में फैली हुई धूल के
अंधियारे में। 2. अंधतम :-[अन्ध+अच्+तमः] गहन अंधकार, पूरा अंधेरा।
लोकमंधतमसात्क्रमोदिती रश्मिभिः शशि दिवाकारा विवा। 11/24 जैसे सूर्य और चंद्रमा बारी-बारी से अपनी किरणों से पृथ्वी का अंधेरा दूर करते
3. तम :-[तम्+असुन्] अन्धकार, अंधेरा।
यावत्प्रतापनिधिराक्रमते न भानुरहाय तावदरुणेन तमो निरस्तम्। 5/71 सूर्य के उदय होने के पहले ही उनका चतुर सारथी अरुण संसार से अंधेरे को भगा देता है। ज्वलितेन गुहागतं तमस्रुहिनादेरिव नक्तमोषधिः। 8/54 जैसे रात में चमकने वाली बूटियाँ अपने प्रकाश से हिमालय की अंधेरी गुफा में
चाँदनी कर देती हैं। 4. तमिस्त्र :-[तमिस्रा+अच्] काला, अंधकार।
सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टेः कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्रा। 5/13 जैसे सूर्य के रहते हुए संसार में अंधेरा नहीं ठहर पाता।
For Private And Personal Use Only
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
105 तमिस्रपक्षेऽपि सहप्रियाभिर्योत्स्नावतो निर्विशति प्रदोषान्। 6/34 इसलिए अंधेरे पक्ष में भी शिवजी के सिर पर बने चंद्रमा की चाँदनी से ये अपनी स्त्रियों के साथ सदा उजले पक्ष का आनंद लेते हैं।
तरंग
1. उर्मि :- तरंग, लहर।
कलिन्दकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मि संसक्त जलेव भाति। 6/48 उस समय मथुरा में भी यमुनाजी का रंग ऐसा प्रतीत होता है, मानों वहीं पर
उनका गंगाजी की लहरों से संगम हो गया हो। 2. तरंग :-[तृ+अङ्गच्] लहर।
प्रत्यग्रहीत्पार्थिव वाहिनीं तां भागीरथीं शोण इवोत्तरंगः। 7/36 स्वयं उस सेना को रोककर उसी प्रकार खड़े हो गए जैसे बाढ़ के दिनों में ऊँची तरंगों वाला शोणनद गंगाजी के धारा को रोक लेता है। मुखार्पणेषु प्रकृतिप्रगल्भाः स्वयं तरंगाधरदानदक्षः। 13/9 जब नदियाँ ठीक होकर चुम्बन के लिए अपना मुख इनके सामने बढ़ाती हैं, तब यह बड़ी चतुराई से अपना तरंग रूपी अधर उन्हें पिलाता है। दूरे वसन्तं शिशिरानिलैमी तरंग हस्तैरूप गहतीव। 13/63 यह सरयू अपने ठंडे वायु वाले तरंग रूपी हाथ उठा रही है, मानो इतने ऊँचे पर
से ही मुझे गले लगाना चाहती हो। 3. वीचि :-[वेईचि, डिच्च] लहर।
प्रासादवातायनदृश्यवीचिः प्रबोधयत्यर्णवः एव सुप्तम्। 6/56 समुद्र की लहरें राजभवन के झरोखों से स्पष्ट दिखाई देती हैं, जब ये अपने राजभवन में साते हैं, तब वह समुद्र ही नगाड़े की ध्वनि से भी गंभीर अपने गर्जन से इन्हें प्रातः जगा देता है।
तरस
1. ओज :-[उब्+असुन् बलोपः, गुणश्च] बल, शक्ति, वीर्य।
विद्धि चात्तबलमोजसा हरेरैश्वरं धनुरभाजि यत्त्वया। 11/76 तुम्हें यह समझ रखना चाहिए कि शिवजी के जिस धनुष को तोड़कर तुम ऐंठ रहे हो, उसकी कठोरता तो विष्णुजी ने पहले ही हर ली थी।
For Private And Personal Use Only
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
106
कालिदास पर्याय कोश स हत्वा लवणं वरीरस्तदा मेने महौजसः। 15/26 शत्रुघ्नजी जब लवणासुर को मार चुके, तब उन्हें यह संतोष हुआ कि अब मैं
तेजस्वी। 2. तरस :-[तृ+असुन्] वीर्य, शक्ति, ऊर्जा।
सामन्तसंभावनयैव धीरः कैलासनाथं तरसा जिगीषुः। 5/28 रघु ने सोचा कि उसी रथ पर चढ़कर मैं अकेला ही महाप्रतापी कैलास के स्वामी कुबेर को छोटे से राजा के समान सहज में जीत लूँगा। तिष्ठतु प्रधनमेवमप्यहं तुल्य बाहुतरसा जितस्त्वया। 11/77 यदि तुम इतना भी कर लोगे, तो मैं समझेंगा कि तुम मेरे ही समान बलवान हो
और मैं इतने से ही हार मानकर लौट जाऊंगा। 3. बल :-[बल्+अच्] सामर्थ्य, शक्ति, ताकत, वीर्य, ओज।
विद्धि चात्तबल मोजसा हरेरैश्वरं धनुरभजि यत्त्वया। 11/76 तुम्हें यह समझ रखना चाहिए कि शिवजी के जिस धनुष को तोड़कर तुम ऐंठ रहे हो, उसकी कठोरता तो विष्णुजी ने पहले ही हर ली थी।
तस्कर 1. तस्कर :-[तद्+कृ+अच्,सुट्, दलोपः] चोर, लुटेरा।
व्यावृत्तायत्पर स्वेभ्यः श्रुतौ तस्करता स्थिता। 1/27 राजा दिलीप का अपने राज्य में ऐसा दबदबा था कि चोरी का शब्द केवल कहने-सुनने को ही रह गया था, उस राज्य में कोई भी किसी का धन नहीं चुरा
पाता था। 2. दस्यु :-[दस्+पुच्] चोर, लुटेरा, उचक्का ।
श्वगणिवागुरिकैः प्रथमा स्थितं व्यपगतानलदस्युविवेशसः। 9/53 तब वे उस जंगल में पहुँचे, जहाँ पहले से ही जाल और शिकारी कुत्ते लेकर उनके सेवक पहुँच चुके थे, वहाँ न तो अग्नि का भय था, न चोरों का।
ताड़का 1. ताड़का :-[तङ्:णिच्+ण्वुल्+टाप्] एक राक्षसी, सुकेत की पुत्री, सन्द की
पत्नी, मरीच की माता, ताड़का।
For Private And Personal Use Only
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
107
रघुवंश
ताडका चलकपालकुण्डला कालिकेव निविडा बलाकिनी। 11/15 कानों में लटकी हुई मनुष्य की खोपड़ियों का कुंडल हिलाती हुई अमावस्या की
रात्रि के समान काली कलूटी ताड़का, उनके आगे इस प्रकार खड़ी हो गई। 2. सुकेतसुता :-ताड़का।
तौ सुकेत सुतया खिलीकृते कौशिकाद्विदित शापया पथि। 11/14 वहीं मार्ग में उन्हें वह सुकेतु की कन्या ताड़का राक्षसी मिली, जिसने सारे मार्ग को उजाड़ बना दिया था और जिसके शाप की कथा महर्षि विश्वामित्र ने पहले ही राम को सुना दी थी।
ताम्र
1. अरुण :-[ऋ+उनन्] अर्धरक्त या कुछ-कुछ लाल, भूरा, पिंगल, लाल गुलाबी। येषां विभान्ति तरुणारुणरागयोगाद्भिन्नाद्रिगैरिकतटा इव दन्तकोशाः।
5/72 लाल सूर्य की किरणें पड़ने से उनके दाँत ऐसे लगते हैं, मानो वे अभी गेरु के पहाड़ को खोदकर चले आ रहे हों। विडम्ब्यमाना नवकन्दलैस्ते विवाहधूमारुण लोचनश्रीः। 13/29 उससे कंदलियों की कलियाँ खिल उठी और वैसी ही लाल-लाल हो गईं, जैसे विवाह के समय हवन का धुआँ लगने से तुम्हारी आँखें लाल हो गई थीं। उन्हें
देखकर तुम्हार स्मरण हो आने से मैं बेचैन हो गया था। 2. ताम्र :-[तम्+रक्,दीर्घः] ताँबे के रंग का, लाल।
प्रचक्रमे पल्लवराग ताम्रा प्रभा पतंगस्य मुनेश्च धेनुः। 2/15 उधर लाल रंग की नंदिनी भी अपने खरों के स्पर्श से मार्ग को पवित्र करती हई तपोवन की ओर लौट पड़ी और दिन ढलने पर नये पत्तों की ललाई के सामने। ताम्रोदरेषु पतितं तरुपल्लवेषु निर्धीतहारगुलिकाविशदं हिमाम्भः। 5/70 हार के उजले मोतियों के समान निर्मल ओस के कण वृक्षों के लाल पत्तों पर गिरकर वैसे ही सुदंर लग रहे हैं। कुशेशया ताम्रतलेन कश्चित्करेण रेखाध्वजलां क्षनेन। 6/18 जिनकी हथेली कमल के समान लाल थी और जिस पर ध्वज की रेखाएँ बनी
हुई थीं।
For Private And Personal Use Only
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
108
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
अथ धूमाभिताम्राक्षं वृक्षशाखावलम्बिनम् | 15/49
एक पेड़ की शाखा पर उल्टा लटके हुए मनुष्य की आँखें धुआँ लगने से लाल हो गई हैं।
3. पाटल : - [ पट् + णिच्+कलच् ] पीतरक्त वर्ण, गुलाबी रंग ।
स पाटलायां गवि तस्थिवांसं धनुर्धरः केसरिणं ददर्श । 2/29
धनुषधारी राजा दिलीप ने देखा कि उस लाल गौ पर बैठा हुआ सिंह, ऐसा लग रहा है
I
तुषार
1. तुषार : - [ तुष्+आरक्] ठंडा, शीतल, तुषाराच्छन्न, ओसयुक्त । पृक्तस्तुषारैर्गिरिनिर्झराणां मनोकहाकम्पित पुष्पगन्धी । 2 / 13
पहाड़ी झरनों की ठंडी फुहारों से लदा हुआ और मंद-मंद कँपाए हुए वृक्षों के फलों की गंध में बसा हुआ ।
2. नीहार : - [ नि+ह्+घञ्, पूर्वदीर्घः ] कुहरा, धुंध, पाला, भारी ओस । नीहारमग्नो दिनपूर्वभाग: किंचित्प्रकाशेन विवस्वतेव । 7/60
जैसे कोहरे के दिन, प्रभात होने का ज्ञान धुंधले सूर्य को देखकर होता है । 3. हिम : - [ हि+मक्] ठंडा, शीतल, सर्द, तुषार युक्त, ओसीला ।
हिमनिर्मुक्तयोर्योगे चित्राचन्द्रम सोरिव। 1/46
जैसे चैत की पूनों के दिन चित्रा नक्षत्र के साथ उजला चन्द्रमा आँखों को भला लगता है।
For Private And Personal Use Only
त्याग
1. त्याग : - [ त्यज्+घञ् ] छोड़ना, परित्याग, छोड़ देना ।
त्यागाय संभृतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम् । 1 /7
जो दान करने के लिए ही धन बटोरते थे, जो सत्य की रक्षा के लिए बहुत कम बोलते थे ।
ज्ञाने मौनं क्षमाशक्त त्यागे श्लाघाविपर्ययः । 1 / 22
वे सब कुछ जानकर भी चुप रहते थे, शत्रुओं से बदला लेने की शक्ति रहते हुए भी उन्हें क्षमा कर देते थे, और त्याग करके भी अपनी प्रशंसा कराने की इच्छा नहीं करते थे ।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
109
रघुवंश 2. परित्याग :-[परित्यज्+घञ्] छोड़ना, परित्याग, छोड़ देना।
रामं सीतापरित्यागाद सामान्यपतिं भुवः। 15/39 सीताजी को छोड़ देने पर अब वे राम एक मात्र पृथ्वी के ही स्वामी रह गए हैं।
त्र्यम्बक 1. अष्टमूर्ति :-[अंश् + कनिन्, तुट् च + मूर्तिः] अष्टरूप, शिव का विशेषण।
अवेहि मां किंकरमष्टमूर्तेः कुम्भोदरं नाम निकुम्भमित्रम्। 2/35 मैं सर्वशक्तिशली शंकर जी का कृपापात्र और सेवक कुंभोदर नाम का गण हूँ
और शिवजी के शक्तिशाली गण निकुंभ का मित्र हूँ। 2. ईश्वर :-[ईश् + वरः] परमेश्वर, शिव।
अतिष्ठदालीढ विशेष शोभिना वपुः प्रकर्षेण विडम्बितेश्वरः। 3/52 उस समय वे ऐसे लग रहे थे, मानो इंद्र से युद्ध करने के लिए स्वयं शंकर भगवान् आ डटे हों। रतेहीतानुनयेन कामं प्रत्यर्पितस्वाङ्गमिवेश्वरेण। 6/2 क्योंकि अज ऐसे लग रहे थे मानो साक्षात् कामदेव हों, जिसे शिवजी ने रति की प्रार्थना पर फिर से जीवित कर दिया हो। अधिवसंस्तनुमध्वरदीक्षिताम् समभासमभासयदीश्वरः। 9/21 जब वे यज्ञ की दीक्षा लेकर बैठे, उस समय भगवान अष्टमूर्ति महादेव उनके शरीर में पैठ गए, जिससे उनकी शोभा और भी अधिक बढ़ गई। जेतारं लोकपालानां स्वमुखैरर्चितेश्वरम्। 12/89 जिस रावण ने इंद्र आदि लोकपालों को जीत लिया था, जिसने अपने सिर
काट-काटकर शिवजी को चढ़ा दिए थे। 3. गिरीश :-[गृ + इ किच्च + ईश:] शिव का विशेषण।
प्रत्याहतास्त्री गिरिशप्रभावादात्मन्यवज्ञां शिथिली चकार। 2/41 शंकरजी के प्रभाव से ही हम अस्त्र नहीं चला सके, तब उनके मन की आत्मग्लानि कुछ कम हुई। दग्ध्वापि देहं गिरिशेन रोशाखण्डीकृता ज्येव मनोभवस्य। 16/51 मानो कामदेव का शरीर भस्म करने के पश्चात् शिवजी के हाथ से तोड़ी हुई कामदेव के धनुष की डोरी हो।
For Private And Personal Use Only
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
110
कालिदास पर्याय कोश 4. चंद्रमौलि :-[चन्द् + णिच् + रक् + मौलि:] शिव का विशेषण।
असौ महाकाल निकेतनस्य वसन्न दूरे किल चन्द्रमौलेः। 6/34 इनका राजभवन महाकाल मंदिर में बैठे हुए, सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
शिवजी के पास ही है। 5. त्रिपुरद्विष :-[त्रि + पुरं + द्विष्] शिव का विशेषण।
सशब्दमभिषेकश्रीगङ्गेव त्रिपुरद्विषः। 17/14 अभिषेक के जल की धारा ऐसी सुंदर लगती थी, मानो शिवजी के सिर पर
गंगाजी की धारा गिर रही हो। 6. त्रिलोचन :-[त्रि + लोचनः] शिव का विशेषण।
यथा च वृत्तान्तमिमं सदोगत स्त्रिलोचनैकांशतया दुरासदः। 3/66 मेरे पिता यज्ञ मंडप में अष्टमूर्ति शिवजी के एक अंश के रूप में बैठे हुए हैं, इसलिए ऐसा उपाय कीजिए जिससे आपका ही कोई दूत जाकर उनको यह
समाचार सुना आवे। 7. त्र्यम्बक :-[त्रि + अम्बकः] तीन आँखों वाला, शिव।
जडीकृतस्त्र्यम्बक वीक्षणेन वजं मुमुक्षन्निव वज्रपाणिः। 2/42 किसी समय इंद्र ने शिवजी पर वज्र चला दिया था, शिवजी ने केवल उनकी
ओर देख भर लिया, कि इंद्र कठमारे से हो गए। हरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मृतो महेश्वरस्त्र्यम्बक एव नापरः। 3/49 देखो! जिस प्रकार पुरुषोत्तम केवल विष्णु ही हैं, त्र्यम्बक केवल शंकर ही हैं। प्रवर्तयामास किलानुसूया त्रिस्रोतसं त्र्यम्बकं मौलि मालाम्। 13/51 अनुसूयाजी ऋषियों के स्नान के लिए उन त्रिपथगा गंगाजी को यहाँ ले आई हैं,
जो शिवजी के सिर पर माला के समान सुन्दर लगती हैं। 8. परमेश्वर :-[परं परत्वं माति :-क तारा० ईश्वरः] शिव का विशेषण।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ। 1/1 मैं संसार के माता-पिता पार्वती जी और शिवजी को प्रणाम करता हूँ। तस्यालमेषा क्षुधितस्य तृप्त्यै प्रदिष्टकाला परमेश्वरेण। 4/39 शिवजी की कृपा से ठीक भोजन के समय पर यह गौ आ गई है और मेरे आज
के भोजन के लिए पर्याप्त है। 9. पिनाकी :-[पिनाक + इनि] शिव का विशेषण।
For Private And Personal Use Only
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
111
महेन्द्रमास्थाय महोक्षरूपं यः संयति प्राप्त पिनाकिलीलः। 6/72 तब बैल पर चढ़े हुए वे राजा शिवजी के समान लगते थे, स्वयं इंद्र उनके लिए
बैल बने हुए थे। 10. भूतनाथ :-[भू + क्त + नाथः] शिव का विशेषण।
तद्भूतनाथानुग नार्हसि त्वं संबंधिनो मे प्रणयं विहन्तुम्। 2/58
हे शिवजी के सेवक अपने मित्र की प्रार्थना न ठुकराओ। 11. भूतेश्वर :-[भू + क्त + ईश्वरः] शिव का विशेषण।
भूयः स भूतेश्वर पार्ववर्ती किंचिद्विहस्यर्थ पतिं बभाषे। 2/46
यह सुनकर वह शिवजी का सेवक सिंह कुछ हँसकर राजा से बोला। 12. महेश्वर :-[महा + ईश्वरः] शिव का नामान्तर।
हरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मृतो महेश्वर त्र्यम्बक एव नापरः। 3/49
देखो! जिस प्रकार पुरुषोत्तम केवल विष्णु ही हैं, त्र्यम्बक केवल शंकर ही हैं। 13. रुद्र :-[रोदिति-रुद् + रक्] शिव का नाम, देवसमूह विशेष ।
इमामनूनां सुरभेरवेहि रुद्रौजसा तु प्रहृतं त्वयां स्याम्। 2/54 यह किसी भी प्रकार कामधेनु से कम नहीं है। आज शंकर जी का बल लेकर ही तुमने इस पर आक्रमण किया है, नहीं तो तुममें इतनी शक्ति कहाँ। दृष्ट सारमथ रुद्रकार्मुके वीर्यशुक्लमभिनन्द्य मैथिलः। 11/47 राजा जनक ने जब देखा कि धनुष तोड़कर राम ने अपना पराक्रम दिखला दिया
है, तब उन्होंने राम का बड़ा आदर किया। 14. विश्वेश्वर :-[विश् + व + ईश्वरः] शिव का विशेषण, परमात्मा।
आराध्य विश्वेश्वरमीश्वरेण तेन क्षितेर्विश्वसहो विजज्ञे। 18/24 उन्होंने काशी के विश्वेश्वर शंकरजी की आराधना करके विश्व सह नामक पुत्र
पाया।
15. वृषभध्वज :-[वृष् + अभच किच्च + ध्वजः] शिव का विशेषण।
अमुं पुरः पश्यसि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वजेन। 2/36 यह जो तुम्हारे सामने देवदारु का पेड़ दिखाई देता है, इसे शंकर जी अपने पुत्र
के समान मानते हैं। 16. वृषाङ्क :-[वृष् + क् + अङ्कः] शिव का विशेषण।
उमावृषाङ्कौ शरजन्मना यथा यथा जयन्तेन शची पुरंदरौ। 3/23
For Private And Personal Use Only
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
112
कालिदास पर्याय कोश जैसे कार्तिकेय के समान पुत्र को पाकर शंकर और पार्वती और जयंत जैसे
प्रतापी पुत्र को पाकर इंद्र और शची प्रसन्न हुए थे। 17. वृषध्वज :-[वृष + क + ध्वजः] शिव का विशेषण।
विदुतक्रतुमृगानुसारिणं येन बाणम सृजवृषध्वजः। 11/44 जिसे हाथ में लेकर शंकर जी ने मृग के रूप में दौड़ने वाले यज्ञ देवता के ऊपर
बाण छोड़े थे। 18. शूलभृत :-[शूल् + क + भृत्] शिव का विशेषण।
व्यापारितः शूलभृता विधाय सिंहत्वमङ्कागतसत्त्ववृत्ति। 2/38 शंकर जी ने यहाँ रखवाला बनाकर मुझे रख छोड़ा है और मेरा पेट भरने के लिए मुझे आज्ञा दे दी है, कि यहाँ जो जीव आवे, उसे सिंह के स्वभावानुसार मारकर
खा जाया करो। 19. स्थाणु :-[स्था + नु, पृषो० णत्वम्] शिव का विशेषण।
स्थाणु दग्धवपुषस्तपोवनं प्राप्य दाशरथिरात्तकार्मुकः। 11/13 जिस तपोवन में शिवजी ने कामदेव को भस्म किया था, वहाँ जब राम धनुष
उठाए हुए पहुंचे। 20. हर :-[ह + अच्] शिव।
बभौ हरजटा भ्रष्टां गङ्गामिव भगीरथः। 4/32 मानो शंकरजी की जटा से मिलती हुई गंगाजी को साथ लिए भागीरथ जी चले जा रहे हों। अस्त्रं हरादाप्तवता दुरापं येनेन्द्रलोकावजयाय दृप्तः। 6/62 कहीं ऐसा न हो कि मेरी पीठ पीछे ये मेरे देश को तहस-नहस कर दें, क्योंकि इन्होंने भी शिवजी से बड़ा प्रतापी अस्त्र प्राप्त किया है।
दंत
1. दंत :-[दम्+तन्] दाँत।
नीलोर्ध्वरेखा शबलेन शंसन्दन्तद्वयेनाश्म विकुण्ठितेन। 5/54 टीलों पर टक्कर मारने से उसकी दाँत पर जो नीली-नीली रेखाएँ बन गई थीं, उनसे जान पड़ता था।
For Private And Personal Use Only
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
113
तनुत्याजां वर्मभृतां विकोशैर्वृहत्सु दंतेष्वसिभिः पतद्भिः। 7/48 जो कवचधारी योद्धा अपने प्राण हथेली पर लिए लड़ रहे थे, उन्होंने नंगी तलवार से जब हाथियों के दाँतों पर चोटें की, तब चिनगारी निकलने लगी। दंष्ट्रा :-[दंश्+ष्ट्रन्+टाप्] बड़ा दाँत। अथान्धकारं गिरिगह्वराणां दंष्ट्रा मयूखैः शकलानि कुर्वन्। 2/46 यह सुनकर वह शिवजी का सेवक सिंह गुफा के अंधेरे में दाँत की चमक से
उजाला करता हुआ कुछ हँसकर। 3. दशन :-[दंश्+ल्युट् [नि० नलोपः] दाँत।
उवाच वाग्मी दशनप्रभामिः संवर्धितोरः स्थलतारहारः। 5/52 जब उसने बोलने के लिए मुँह खोला, तब उसके दाँतों की चमक से उसके गले में पड़ा हुआ हार दमक उठा। आभाति लब्धपरभाग तयाधरोष्ठे लीलास्मितं सदशनार्चिरिव त्वदीयम्।
5/70 जैसे तुम्हारे हँसने के समय तुम्हारे लाल-लाल ओठों पर पड़ी हुई तुम्हारे दाँतों की चमक सुन्दर लगती है। बभौ सदशन ज्योत्सना सा विभोर्वदनोग्दता। 10/37 उनके दाँतों की चमक से जगमगाती हुई उनकी वाणी, जब मुख से निकली। रदन :-[रद्+ल्युट] दाँत। मत्तेभरदनोत्कीर्णव्यक्त विक्रमलक्षणम्। 4/59 वहाँ रघु के मतवाले हाथियों ने अपने दाँतों की चोटों से जो रेखाएँ बनाई थीं, वह उनके जयस्तम्भ के समान थीं।
दंपति
1. जायापति :-[जाया च पति श्च] पति और पत्नी।
उभौ विरोध क्रियया विभिन्नौ जायापती सानुशयाविवास्ताम्। 16/45 ये दोनों उन पछताते हुए पति-पत्नी के समान दिखाई देने लगे, जो आपस में
झगड़ा करके एक दूसरे से रूठे बैठे हों। 2. दंपति :-[जाया च पतिश्च द्व० स०-जाया शब्दस्य दमादेशः द्विवचन] पति
और पत्नी।
For Private And Personal Use Only
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
114
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
तौ दम्पति वशिष्ठस्य गुरोर्जग्मतुराश्रमम् । 1/35
वे दोनों पति-पत्नी, वहाँ से अपने कुलगुरु वशिष्ठजी के आश्रम की ओर चले । तौ दंपती स्वां प्रति राजधानीं प्रस्थापयामास वशी वशिष्ठः । 2/70 जितेन्द्रिय वशिष्ठ जी ने राजा और रानी दोनों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा मार्ग आनंद से कटे और उन्हें अयोध्या के लिए विदा कर दिया ।
तौ दंपती बहु विलप्य शिशोः प्रहर्त्रा । 9 /78
वे दोनों पति-पत्नी डाढ़ मारकर रोने लगे और अपने पुत्र के हत्यारे को । 3. मिथुन :- जोड़ा, दंपती ।
प्रदक्षिणप्रक्रमणात्कृशानोरुदर्चिषस्तन्मिथुनं चकासे । 7/24
अ और इन्दुमती जब अग्नि का फेरा देने लगे, उस समय ऐसा जान पड़ता था ।
दक्षिण
1. दक्षिण :- [ दक्ष् +इनन् ] दायाँ, दाहिना, दक्षिण, योग्य, सुहावना, सुखकर, रुचिकर, सक्षम, शिष्ट, नागर ।
आददे नाति शीतोष्णो नभस्वानिव दक्षिणः । 4/8
जैसे वसंत का वायु बहुत शीत या गरम न होने के कारण सब को भाता है
1
दिशि मंदायते तेजो दक्षिणस्यां खेरपि । 4/49
दक्षिण दिशा में प्रतापी सूर्य का तेज भी मंद पड़ जाता है।
स विश्वजितमाज यज्ञं सर्वस्वदक्षिणम् । 4/86
रघु ने विश्वजित् नामका यज्ञ किया जिसमें उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दक्षिणा में दे दी।
For Private And Personal Use Only
अक्षबीजवलयेन निर्बभौ दक्षिणश्रवण संस्थितेन यः । 11/66
उनके दाएँ कान पर इक्कीस दाने की रूद्राक्ष की माला लटक रही थी ।
दक्षिणां दिशमृक्षेषु वार्षिकेष्विव भास्करः । 12/25
जैसे वर्षा के दश नक्षत्रों में ठहरता हुआ सूर्य दक्षिण को घूम जाता है, वैसे ही वे दक्षिण की ओर बढ़ चले ।
तमुपाद्रवदुद्यम्य दक्षिणं दोर्निशाचरः । 15/23
तब वह राक्षस, अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाए हुए झपटा। 2. वामेतर : - [ वा+मन् + इतर] दाहिना, दक्षिणी, सही, ठीक ।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
115
वामेतरस्तस्य करः प्रहर्तुर्नुखप्रभा भूषितं कंक पत्रे। 2/31 उनके दाहिने हाथ की उँगलियाँ, उनके नखों से चमकने वाले बाणों के पंखों से चिपक गईं। वामेतरः संशयमस्य बाहुः केयूरबंधोच्छ्वसितैर्नुनोद। 6/68 पर उसी समय भुजबंध के पास उनकी दाईं भुजा फड़क उठी, जिससे उनकी शंका दूर हो गई। सव्येतर :-[सू+य+इतर] सही, ठीक, दक्षिणी, दाहिना। निचरवानाधिकक्रोधः शरं सव्येतरे भुजे। 12/90 रावण ने क्रोध करके राम की उस दाहिनी भुजा में बाण मारा। सभाजने मे भुज मूर्ध्वबाहुः सव्येतरं प्राध्वमितः प्रयुक्ते। 13/43 देखो! वे मुझे देखकर अपनी दाहिनी भुजा उठाकर मेरा स्वागत कर रहे हैं। जुगूह तस्याः पथि लक्ष्मणो यत्सव्येतरेण स्फुरता तदक्ष्णा। 14/49 पर सीताजी के दाहिने नेत्र ने फड़ककर आगे आने वाले दुःख की सूचना दे ही तो दी।
दद 1. दद् :-[दा०+श] देने वाला, प्रदान करने वाला।
महीध्र पक्षव्य परोपणोचितं स्फुरत्प्रभामण्डलमस्त्रमाददे। 3/60 अपने प्रबल शत्रु रघु को मारने के लिए पर्वतों के पंख काटने वाले अग्नि के
समान चमकीले वज्र को उठा लिया। 2. सज्ज :-[सस्ज्+अच्] तत्पर, तैयार किया हुआ, पूर्णतः सुसज्जित, किलेबन्दी
करके। भुजे भुजंगेन्द्रसमान सारे भूयः स भूमे(रमाससन्न। 2/74 वहाँ पहुँचकर उन्होंने शेषनाग के समान अपनी बलवती भुजाओं से फिर राजकाज सँभाल लिया।
दर्पण 1. आदर्श :-[आ+दृश्+घञ्] आईना, दर्पण।
अथानपोदार्गलमप्यगारं छायामिवादर्शतलं प्रवष्टिाम्। 16/6 जैसे दर्पण में मुँह का प्रतिबिंब पैठ जाता है, वैसे ही द्वार बंद रहने पर भी वह स्त्री घर के भीतर आ गई थी।
For Private And Personal Use Only
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
116
कालिदास पर्याय कोश नेपथ्यदर्शिनश्छाया तस्यादर्श हिरण्मये। 17/26 सोने की चौखटवाले दर्पण में जब वे अपनी सजावट देखने लगे, उस समय
उनका प्रतिबिंब ऐसा लग रहा था। 2. दर्पण :-[दृप्+णिच् ल्युट्] आईना, दर्पण, शीशा (मुँह देखने का)।
प्रभानुलिप्तश्रीवत्सं लक्ष्मी विभ्रमदर्पणम्। 10/10 जिस दर्पण में लक्ष्मीजी शृंगार के समय अथवा हाव-भाव करते हुए अपना मुँह देखा करती हैं और जिसकी चमक से श्रीवत्स चिह्न भी चमक उठता था। दर्पणेषु परिभोग दर्शिनीनर्मपूर्व मनुपष्ठ संस्थितः। 19/28 जब कभी स्त्रियाँ दर्पण के आगे खड़ी होकर दाँत काटने या छूटने आदि संभोग के चिह्नों को देखने लगती थीं, तब राजा उनके पीछे चुपके से आकर खड़ा हो जाता। प्रेक्ष्य दर्पण तलस्थमात्मनो राजवेशमति शक्रशोभिनम्। 19/30 वह राजा इन्द्र के वस्त्रों से भी सुंदर अपने राजसी वस्त्र को दर्पण में देखकर उतना प्रसन्न नहीं होता था।
दह
1. दह :-जलाना, झुलसाना, उड़ा देना, पीड़ा देना, सताना, कष्ट देना, दुःखी
करना। इति तौ विरहान्तरक्षमौ कथमत्यन्तगता न मां दहेः। 8/56 तुम तो सदा के लिए चली जा रही हो, फिर बताओ मैं विरह की आग में जलकर
क्यों न भस्म हो जाऊँ। 2. दु:- जलाना, आग में भस्म करना, सताना, कष्ट देना, दुःख देना।
इदमुच्छ्वसितालकं मुखं तव विश्रान्तकथं दुनोति माम्। 8/55 तुम्हारा बिखरी अलकों से ढका मौन मुख देखकर मेरा हृदय फटा जा रहा है।
दिक्
1. दिक् :-दिशा, ओर, तरफ।
षड्विधं बलमादाय प्रतस्थे दिग्जिगीषया। 4/26
छः प्रकार के सेना लेकर वे दिग्विजय के लिए चल पड़े। 2. दिशा :- [दिश्+अङ्कटाप्] ओर, तरफ।
For Private And Personal Use Only
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
117
रघुवंश
दिशः प्रसेदुर्मरुतो ववुः सुखा:प्रदक्षिणार्चिहविरग्निरादरे। 3/14 आकाश खुल गया था, शीतल मंद-सुगंध वायु चल रहा था और हवन की अग्नि की लपटें दक्षिण की ओर घूमकर हवन की सामग्रियाँ ले रही थीं। प्रतापस्तस्य भानोश्च युपगद्व्यानशे दिशः। 4/15 खुले आकश में चमकते हुए प्रचंड सूर्य के प्रकाश के समान ही शत्रुओं के नष्ट हो जाने पर, रघु का प्रचंड प्रताप भी चारों ओर फैल गया। इति जित्वा दिशो जिष्णुर्यवर्तत रथोद्धतम्। 4/85 इस प्रकार विजयी रघु सारी पृथ्वी को जीतकर लौटे, तो उनके रथ के पहियों से उठी हुई।
दिन
1. अहन् :-[न जहाति त्यजति सर्वथा परिवर्तनं, न+हा+कनिन् न० त०] दिन।
द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम्। 5/25 दो चार दिन ठहरिये, तब तक मैं आपकी गुरुदक्षिणा के लिए कुछ न कुछ जतन करता हूँ। मेरोरूपान्तेष्विव वर्तमानमन्योन्य संसक्तमहस्त्रियामम्।7/24
मानो दिन और रात का जोड़ा मिलकर सुमेरु पर्वत की फेरी दे रहा हो। 2. दिन :-[द्युतितमः, दो (दी) +नक्, ह्रस्वः] दिन।
तदन्तरे सा विरराज धेनुर्दिनक्ष पापमध्य गतेव संध्या। 2/20 इन दोनों के बीच में वह लाल रंग की नंदिनी ऐसी शोभा दे रही थी, जैसे दिन और रात के बीच में साँझ की ललाई। सप्त व्यतीयुस्त्रिगुणानि तस्य दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य। 2/25 इस प्रकार दीनों के रक्षक राजा दिलीप के इक्कीस दिन बीत गए। दिनेषु गच्छत्सु नितान्तपीवरं तदीयमानीलमुखं स्तनद्वयम्। 13/8 थोड़े ही दिनों में उसके बड़े-बड़े स्तनों की छुडियाँ काली पड़ गईं। पितुः प्रयत्नात्स समग्रसंपदः शुभैः शरीरावयवैर्दिने दिने। 3/22 वैसे ही बालक रघु के अंग भी संपत्तिशाली पिता की देखरेख में दिन-दिन बढ़ने लगे। जीहारमग्नो दिनपूर्वभागः किंचित्प्रकाशेन विवस्वतेव। 7/60
For Private And Personal Use Only
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
118
कालिदास पर्याय कोश जैसे कोहरे के दिन, प्रभात होने का ज्ञान धुंधले सूर्य को देखकर होता है। दिने दिने शैवलवन्त्य धस्तात्सोपान पर्वाणि विमुञ्चदम्भः। 16/46 गर्मी के कारण घर की बावलियाँ दिन-प्रतिदिन सेवार जमी हुई सीढ़ियों को
छोड़कर पीछे हटने लगीं। 3. दिव :-[दीव्यन्त्यत्र, दिव्+बा आधारे डिवि-तारा०] दिन, प्रकाश, उजाला।
तौ विदेह नगरी निवासिनां गां गताविव दिवः पुनर्वसू। 11/36 वे दोनों राजकुमार जनकपुर के निवासियों को ऐसे सुंदर लग रहे थे, मानों दो पुनर्वसु नक्षत्र ही पृथ्वी पर उतर आए हों। रात्रावनाभिष्कृत दीपभासः कान्तामुखश्री वियुता दिवापि। 16/20 न तो रात को दीपकों की किरणें निकलती हैं, न दिन में सुंदरियों का मुख दिखाई देता है। रात्रिंदिव विभागेषु यदादिष्ट महीक्षिताम्। 17/49 शास्त्रों ने राजाओं के लिए जो दिन और रात के कर्तव्य निर्धारित किए हैं। अन्तरेव विहरन्दिवानिशं न व्यपैक्षत समुत्सुकाः प्रजाः। 19/6 वह दिन रात रनिवास के भीतर रहकर ही विहार करने लगा, उसके दर्शन के
लिए जनता अधीर रहती थी, पर कभी उनकी सुध नहीं लेता था। 4. दिवस:-[दीव्यतेऽत्र, दिव+असच किक्व] दिन।
अथ विधिमवसाय्य शास्त्रदृष्टं दिवसमुखोचितमंचिता क्षिमक्ष्मा। 5/76 सुन्दर पलकों वाले राजकुमार अज ने उठकर शास्त्र से बताई हुई प्रातःकाल की सब उचित क्रियाएँ की। दिवसं शारदमिव प्रारम्भ सुख दर्शनम्। 10/9 जैसे खिले हुए कमलों और कन्या राशि के सूर्य से शरद ऋतु के प्रारंभिक दिन बड़े सुहावने लगते हैं। मनोजहोर्निदाघान्ते श्यामाभ्रा दिवसा इव। 10/83 जैसे गर्मी के अंत के दिनों में काले बादल लोगों के मन को आकर्षित कर लेते
प्रबृद्धतापो दिवसोऽतिमात्रमत्यर्थमेव क्षणदा च तन्वी। 16/45
अत्यंत संताप से भरे दिन और अत्यन्त छोटी रातें। 5. छु :-[दिव्+उन्, कित्] दिन, आकाश, उजाला।
For Private And Personal Use Only
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
119
रघुवंश
अन्येधुरात्मानुचरस्य भावं जिज्ञासमाना मुनिहोमधेनुः। 2/26 तब नंदिनी ने सोचा कि मैं सेवक राजा दिलीप की परीक्षा क्यों न लूँ ,कि वे
सच्चे भाव से सेवा कर रहे हैं या केवल स्वार्थ भाव से। 6. वार :-[वृ+घञ्] समय, बारी, दिन।
तेन दूतिविदितं निषेदुषा पृष्ठतः सुरतवाररात्रिषु। 19/18 जिस दिन-रात को उसे किसी स्त्री से संभोग करने जाना होता, तो दूती से सब बातें बताकर वह पास ही छिपकर बैठ जाता।
दिनान्त
1. दिनान्त :-[द्युतितमः, दो (दी)+नक्, ह्रस्व:+अन्तः] सायंकाल।
दिनान्ते निहितं तेजः सवित्रेव हुताशनः। 4/1
जैसे सांझ के सूर्य से तेज लेकर आग चमक उठती है। विडम्बयत्यस्तनिमग्नसूर्यं दिनान्तमुग्रानिल भिन्नमेघम्। 16/11 जैसे सूर्यास्त के समय की वह संध्या, जिसमें वायु के वेग से इधर-उधर
छितराए हुए बादल दिखाई देते हों। 2. दिनात्यय :-[धुति तमः, दो (दी)+नक्, ह्रस्व:+अत्ययः] सायंकाल।
पश्यति स्मजनता दिनात्यये पार्वणौ शशिदिवाकराविव। 11/82
वे दोनों ऐसे जान पड़ते थे, मानो वे संध्या समय के चंद्रमा और सूर्य हों। 3. दिनावसान :-[धुति तमः, दो (दी)+नक्, ह्रस्व:+अवसानम्] सायंकाल।
दिनावसानोत्सुकबालवत्सा विसृज्यतां धेनुरियं महर्षेः। 2/45 इस महर्षि वशिष्ठजी की गाय को छोड़ दो, क्योंकि इसका छोटा सा बछड़ा सांझ
हो जाने से इसकी बाट जोह रहा होगा। 4. संध्या :-[सन्धि+यत्+टाप, सम्+ध्यै+अङ्+टाप् वा] सायंकाल, सांझ का
समय। बिभ्रती श्वेतरोमांकं संध्येव नवम्। 1/83 इससे वह ऐसी जान पड़ती थी, जैसे लाल संध्या के माथे पर द्वितीया का चंद्रमा चढ़ आया हो। तदन्तरे सा विरराज धेनुर्दिनक्षपामध्यगतेव संध्या। 2/20 इन दोनों के बीच में वह लाल रंग वाली नंदिनी ऐसी शोभा दे रही थी, जैसे दिन और रात के बीच में सांझ की ललाई।
For Private And Personal Use Only
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
120
कालिदास पर्याय कोश संध्याभ्रकपिशस्तस्य विराधोनाम राक्षसः। 12/28 संध्या के बादल के समान लाल रंग वाला विराध राक्षस। संध्योदयः साभ्र इवैष वर्णं पुष्पत्यनेकं सरयूप्रवाहः। 16/58
सरयू की धारा ऐसी रंग-बिरंगी लगने लगी है, जैसे बादलों से भरी संध्या। 5. सायं :-[सो+घञ्] दिन की समाप्ति, संध्या, सांझ।
सायं संयमिनस्तस्य महर्षेर्महिषीसखः। 1/48 सांझ होते ही यशस्वी राजा दिलीप अपनी पत्नी के साथ संयमी महर्षि वशिष्ठजी के पास गए। प्रयता प्रातरन्वेतु सायं प्रत्युद्धजेदपि। 1/90 वह नित्य प्रातः काल बड़ी भक्ति से इसकी पूजा किया करें और जब यह सायंकाल को लौटे तो आगवानी करके उसे आश्रम में ले आवें। सायन्तन :-[सायम्+टयुल्, तुट्] सायंकाल। विधेः सायंतनस्यान्ते स ददर्श तपोनिधिम्। 1/56 जब संध्या की सब क्रियाएँ पूरी हो चुकीं, तब उन्होंने उन तपस्वी महामुनि वशिष्ठजी को देखा।
दिलीप
1. कौशलेश्वर :- राजा दिलीप का विशेषण, अयोध्यापति।
इति स्म पृच्छत्यनुवेलमादृतः पिनासखीरुत्तरकोशलेश्वरः। 3/5 इसलिए राजा दिलीप बार-बार उसके पास रहने वाली सखियों से पूछते रहते थे
कि रानी को कौन-कौन सी वस्तुओं की इच्छा होती है। 2. दिलीप :-अंशुमान का राजा, भगीरथ का पिता, रघु का पिता (कालिदास के
अनुसार)। दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव। 1/2 राजा दिलीप ने वैसे ही जन्म लिया, जैसे क्षीरसागर में चंद्रमा ने जन्म लिया था। तथेति गामुक्तवृते दिलीपः सद्यः प्रतिष्ठम्भ विमुक्त बाहुः। 2/59 यह सुनकर सिंह बोला :-अच्छी बात है, यही सही। तत्काल दिलीप का हाथ खुल गया। दिलीपानन्तरं राज्ये तं निशम्य प्रतिष्ठितम्। 4/2
For Private And Personal Use Only
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
121
रघुवंश
जब दिलीप के पीछे रघु राजा हो गए। 3. मागधी पति :-दिलीप।
न केवलं सद्मनि मागधी पतेः पथि व्यजृम्भन्त दिवौकसामपि। 31/19 न केवल सुदक्षिणा के पति दिलीप के ही राजमंदिर में वरन् आकाश में देवताओं के यहाँ भी नाच गान हो रहा था।
दीधिति 1. अंशु :-[अंश्+कु] किरण, प्रकाशकिरण।
कुसुमचापमतेजयदंशुभिहिमकरो मकरोर्जित केतनम्। 9/39 उसकी ठंडी किरणों से कामदेव के फूलों के धनुष को मानो और भी अधिक बल मिल गया हो। अस्त्र :-[अस्+ष्ट्रन्] किरण। शरैरुस्त्रैरिवोदीच्यानुद्धरिष्यन्रसानिव। 4/66 जैसे सूर्य अपनी तीखी किरणों से पृथ्वी का जल खींचने के लिए उत्तर की ओर
घूम जाता है। 3. दीधिति :-[दीधी+क्तिन्, इट, ईकारलोपश्च] प्रकाश की किरण, आभा, उजाला।
पुपोष वृद्धिं हरिदश्च दीधितेरनुप्रवेशा दिव बालचन्द्रमाः। 3/22 ऋणों से मुक्त होकर अज वैसे ही शोभित हुए, जैसे मंडल से छूटकर सूर्य शोभा
देता है।
न तस्य मण्डले राज्ञो न्यस्तप्रणिधिदीधितेः। 17/48 वैसे ही अतिथि ने चारों ओर दूतों का ऐसा जाल बिछा दिया कि प्रजा की कोई
बात उनसे छिपी नहीं रह जाती थी। 4. पाद :-[पद्+घञ्] प्रकाश की किरण।
वेलासकाशं स्फुट फेन राजिनवैरुदन्वानिव चन्द्रपादैः। 7/19
जैसे चन्द्रमा की नई किरणें समुद्र की उजली झाग वाली लहरों को खींचकर दूर किनारे तक ले आती हैं। तापापनोदक्षम पादसेवौ स चोदयस्थौ नृपतिः शशीच। 16/53 एक तो सेवा से प्रसन्न होकर संतापों को दूर करने वाले राजा कुश और दूसरे शीतल किरणों से गर्मी का ताप दूर करने वाले चन्द्रमा।
For Private And Personal Use Only
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
122
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
5. रश्मि : - [ अश् + मि धातोरुट्, रश् + मि वा ] किरण, प्रकाशकिरण | दशरश्मिशतोपमद्यतिं यशसा दिक्षु दशस्वपि श्रुतम् । 8/29
जो दस सौ किरणों वाले सूर्य के समान तेजस्वी थे, जिनका यश दसों दिशाओं के फैला था ।
लोकमन्धतमसात्क्रमोदितौ रश्मिभिः शशिदिवाकराविव । 11/24 जैसे सूर्य और चन्द्रमा बारी-बारी से अपनी किरणों से पृथ्वी का अँधेरा दूर करते हैं ।
दुःख
1. ताप :- [ तप्+घञ] गर्मी, कष्ट, संताप, वेदना ।
शल्यप्रोतं प्रेक्ष्य सकुम्भं मुनिपुत्रं तापादंत: शल्य इवासीत् क्षितिपोऽपि ।
9/75
देखा कि नरकट की झाड़ियों से बिंधा हुआ, घड़े पर झुका हुआ किसी मुनि का पुत्र पड़ा है। उसे देखकर उनको ऐसा कष्ट हुआ, मानो इन्हें भी बाण लग गया हो ।
2. दुःख : - [ दुष्टानिखानि यस्मिन् दुष्टं खनति - खन्+उ, दुःख + अच् वा तारा०] दुःख, पीड़ा, वेदना, खेद ।
अदृश्यत त्वच्चरणारविन्दविश्लेष दुःखादिव बद्धमौनम् । 13 / 23
चुपचाप पड़ा हुआ वह ऐसा लग रहा था, मानों तुम्हारे चरणों से अलग हो जाने के दुःख से चुप हो गया हो।
सा लुप्तसंज्ञा न विवेद दुःखं प्रत्यागतासुः समतप्यतान्तः । 14/56 मूर्छा आ जाने से उन्हें उस समय तो दुःख नहीं हुआ, पर जब वे मूर्छा से जगीं, तब उनके हृदय में बड़ी व्यथा हुई ।
आत्मानमेव स्थिर दुःख भाजं पुनः पुनर्दुष्कृतिनं निनिन्द | 14/57
अपने दुःख के लिए बार-बार वे अपने भाग्य को ही कोसने लगीं। 3. व्यलीक : - [ विशेषेण अलति-वि+अल्+कीकन् ] असुखद ।
सत्त्रान्ते सचिवसखः पुरस्क्रियाभिर्गुर्वीभिः शमितपराजय व्यलीकान् ।
4/87
For Private And Personal Use Only
यज्ञ समाप्त हो जाने पर रघु ने और उनके मंत्रियों ने हारे हुए राजाओं का बड़ा सत्कार किया और उनके मन में हारने की जो लाज थी. उसे दर कर दिया।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
4 शोक :- [ शुच्+घञ् ] रंज, दुःख, कष्ट, वेदना ।
निषाद विद्धाण्डजदर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः । 14/70 जिन वाल्मीकि ऋषि का शोक व्याध के हाथ से मारे हुए क्रौंच को देखकर श्लोक बनकर निकल पड़ा था ।
देह
1. अंग : - [ अङ्क + अच्] शरीर ।
तमाहितौत्सुक्यमदर्शनेन प्रजाः प्रजार्थव्रत कर्शितांगम् । 2/73
प्रजा उनके दर्शन के लिए तरस रही थी, पुत्र की उत्पत्ति के लिए, जो उन्होंने व्रत लिया था, . उससे वे कुछ दुबले हो गए थे ।
परामर्शन्हर्षजडेन पाणिना तदीयमंगं कुलिशव्रणांकितम् । 3/68
123
राजा दिलीप ने उनकी बड़ी प्रशंसा की और जहाँ उनके शरीर में वज्र लगा था, वहाँ धीरे-धीरे सहलाने लगे।
2. काया :- [ चीयतेऽस्मिन् अस्थ्यादिकमिति कायः, चि+घञ्, आदेः ककारः]
शरीर ।
कायेन वाचा मनसापि शश्वद्यत्संभृतं वासवधैर्यलोपि । 5/5
उन्होंने शरीर, मन और वचन तीनों प्रकार का जो कठिन तप करना प्रारंभ किया जिसे देखकर इंद्र भी घबरा उठे थे ।
स्पृशन्करेणानतपूर्वकायं संप्रस्थितो वाचमुवाचं कौत्सः । 5/32
सबड़े प्रसन्न थे और उन्होंने राजा के सिर पर हाथ धरते हुए कहा । रराज रक्षः कायस्य कंठच्छेदपरम्परा । 12 / 100
For Private And Personal Use Only
रावण के शरीर से सिर कटकर गिरते हुए ऐसे अच्छे लगते थे ।
3. गात्र : - [ गै+ त्रन्, गातुरिदं वा, अण् ] शरीर ।
रजः कणैः खुरोद्धूतैः स्पृशद्भिर्गात्रमन्तिकात् । 1 /85
नंदिनी के आते समय उसके खुरों से उड़ी हुई धूल के शरीर पर लगने से । अभ्यभूयत वहानां चरतां गात्रशिंजितैः । 4/56
चलते समय घोड़ों के शरीर पर के कवच ऐसे ऊँचे स्वर से खनखना रहे थे । रोमांच लक्ष्येण सगात्रयष्टिं भित्वानिराक्रम दरालकेश्याः । 6/81 प्रेम के कारण उसे रोमांच हो आया, वह प्रेम छिपाने पर भी न छिप सका। मानों खड़े हुए रोगों के रूप में वह प्रेम, शरीर फोड़कर निकल आया हो ।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
124
कालिदास पर्याय कोश कुसुमान्यपि गात्र संगमात्प्रभवन्त्यायुरपोहितुं यदि। 8/44 जब फूल भी शरीर को छू कर प्राण ले सकते हैं। तनु :-[तन्+उ] शरीर, व्यक्ति। वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्। 1/8 बुढ़ापे में मुनियों के समान जंगलों में रहकर तपस्या करते थे और अन्त में परमात्मा का ध्यान करते हुए अपना शरीर छोड़ते थे। तनु प्रकाशेन विचेयतारका प्रभातकल्पा शशिनेव शर्वरी। 3/2 वे पौ फटते समय की उस रात जैसी लगने लगीं, जब थोड़े से तारे बच रह जाते हैं और चंद्रमा भी पीला पड़ जाता है। तनुत्यजां वर्मभृतां विकोशैव॒हत्सु दंतेष्वसिभिः पतद्भिः । 7/48 जो कवचधारी योद्धा अपने प्राण हथेली पर लिए लड़ रहे थे, उन्होंने नंगी तलवार से जब हाथियों के दाँतों पर चोट की। न हि तेन पथा तनुत्यजस्तनयावर्जित पिंडकांक्षिणः। 8/26 जो महात्मा योगबल से शरीर त्याग करके मुक्त हो जाते हैं, उन्हें अपने पुत्रों से पिंडदान की आवश्यकता नहीं रहती। रोगोपसृष्ट तनुदुर्वसतिं मुमुक्षः प्रायोपवेशनमतिर्नृपतिर्बभूव। 8/94 वे रोगी शरीर से छुटकारा पाने के लिए अनशन करने लगे। चिराय संतमे समिद्भिरग्नि यो मंत्रपूतां तनुमप्यहौषीत्। 13/45 बहुत दिनों तक अग्नि को समिधा से तृप्त करके, अन्त में अपना पवित्र शरीर भी उसमें हवन कर दिया था। क्वचिच्च कृष्णोरगभूषणेव भस्माँग रागा तनुरीश्वरस्य। 13/57 कहीं पर भस्म लगाए हुए शिवजी के शरीर के समान दिखाई पड़ रही हैं, जिस पर काले-काले सर्प लिपटे हुए हों। तत्त्वावबोधेन विनापि भूयस्तनुत्यजां नास्ति शरीरबन्धः। 13/58 शरीर त्यागकर वे तत्त्व ज्ञानी न होने पर भी, संसार के बंधनों से छूट जाते हैं। अयोध्या सृष्टलोकेव सद्यः पैतामही तनुः। 15/60 वह अयोध्या ऐसी जान पड़ने लगी, मानो तत्काल सृष्टि करने वाले ब्रह्मा की
चतुर्मुखी मूर्ति हो। 5. देह :-[दिह+घञ्] शरीर।
For Private And Personal Use Only
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आत्मकर्मक्षमं देहं क्षात्रो धर्म इवाश्रितः । 1/13
सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों के नाश करने का जो मेरा कर्म है, वह इस शरीर से अवश्य पूरा हो सकेगा ।
स त्वं मदीयेन शरीरवृत्तिं देहेन निर्वर्तयितुं प्रसीद | 2/45
इसलिए तुम मेरा यह शरीर खाकर अपनी भूख मिटा लो ।
तदक्ष कल्याण परम्पराणां भोक्तारमूर्ज स्वलमात्मदेहम् | 2/50
तुम अपने बलवान् शरीर की रक्षा करो, अभी तुम्हारे खेलने-खाने के दिन हैं। स न्यस्तशस्त्रो हरये स्वदेहमुपानयत्पिण्डमिवामिषस्य । 2/59
राजा दिलीप अपने अस्त्र फेंककर माँस के पिंड के समान सिंह के आगे जा पड़े। निपेतुरंतः करणैर्नरेन्द्रा देहैः स्थिताः केवल मासनेषु । 6/11
उसकी सुंदरता देखते ही सब राजाओं के मन तो उस पर चले गए, केवल उनका शरीर भर मंचों पर रह गया ।
तुरंगमस्कन्धनिषण्णदेहं प्रतयाश्वसन्तं रिपुमाचकांक्ष | 7/47
चोट खाते ही वह शत्रु घोड़े के कंधों पर झुक गया और उसमें इतनी शक्ति न रही कि सिर तक उठा सके। शत्रु घुड़सवार यह मनाने लगा कि वह फिर से जी उठे । तस्थौ ध्वजस्तम्भनिषण्णदेहं निद्रा विधेयं नरदेवसैन्यम् । 7/62
उन राजाओं की सेना झंडियों के डंडों के सहारे अचेत सो गई। श्रुतदेह विसर्जन: पितुश्चिरमश्रूणि विमुच्य राघवः । 8 / 25 अपने पिता का देह त्याग का समाचार पाकर रघु बहुत रोए । तीर्थे तो व्यतिकरमेव जहुकन्यासरय्वोर्देहत्यागाद् । 8 / 95
थोड़े दिनों में ही गंगा और सरयू के संगम पर उन्होंने अपना शरीर छोड़कर ।
प्रेक्ष्य स्थितां सहचरीं व्यवधाय देहम् । 9/57
उन्होंने देखा कि उसकी सहचरी हरिणी बीच में आकर खड़ी हो गई ।
125
स जल कुम्भ निषण्णदेहः 19/76
घड़े पर झुका हुआ किसी मुनि के पुत्र का शरीर ।
स गत्वा सरयूतीरं देह त्यागेन योगवित् । 15/95
लक्ष्मण ने सरयू के किनारे जाकर योगबल से शरीर छोड़कर ।
दग्ध्वापि देहं गिरिशेन रोषात्खंडीकृता ज्येव मनोभवस्य । 16/51
For Private And Personal Use Only
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
126
कालिदास पर्याय कोश मानो कामदेव शरीर भस्म करने के पश्चात् शिवजी के हाथ से तोड़ी हुई कामदेव के धनुष की डोरी हो। तस्य दण्डवतो दण्डः स्वेदहान व्यशिष्यत। 17/62 जो उनकी सेना थी, उसे दण्डधर अतिथि अपने उस शरीर के सामन ही प्यार करते थे। मृगैरजर्यं जरसोपदिष्टमदेहबंधाय पुनर्बबन्ध। 18/7 स्वयं बुढ़ापे के कारण जंगलों में जाकर मृगों के साथ इसलिए रहने लगे कि फिर
संसार में जन्म न लेना पड़े। 6. मूर्ति :-[मूर्च्छ+क्तिन्] शरीर, आकृति, रूप।
स्वमूर्तिलाभप्रकृतिं धरित्री लतेव सीता सहसा जगाम्। 14/54 सीता जी भी लू लगी हुई लता के समान ही, अपनी माँ पृथ्वी की गोद में गिर
पड़ी। 7. यष्टि :-[यज्+क्तिन्, नि० न संप्रसारणम्] शरीर, आकृति।
तामंकमारोप्य कृशांगयष्टिं वर्णान्तराक्रान्तपयोधराग्राम्। 14/27 तब वे दुबली तथा काली घुण्डी के स्तनों वाली लजीली सीताजी को एकांत में
गोद में बैठाकर पूछने लगे। 8. वपु :-[वप्+उसि] शरीर, देह।
विलोकयन्त्यो वपुरापुरक्ष्णां प्रकामविस्तारं फलं हरिण्यः। 2/11 हरिणियाँ उनके सुंदर शरीर को देखती ही रह गईं, मानो नेत्र के बड़े होने का उन्हें सच्चा फल प्राप्त हो रहा है।। आपीनभारोद्वहनप्रयत्नाद् गृष्टिगुरुत्वाद् वपुषो नरेन्द्रः। 2/18 नंदिनी अपने थन के भारी होने के कारण धीरे-धीरे चलती थी और राजा दिलीप भारी शरीर होने के कारण धीरे-धीरे चल रहे थे। रघुः क्रमाद्यौवनभिन्नशैशवः पुपोष गाम्भीर्य मनोहरं वपुः। 3/32 जब रघु ने बचपन बिताकर युवावस्था में पैर रखा तब उनका शरीर और भी खिल उठा। वपुः प्रकार्षादजयद्गुरुं रघुस्तथापि नीचैर्विनयादृश्यत। 3/34 शरीर बढ़ जाने के कारण रघु अपने बूढ़े पिता से ऊँचे और तगड़े लगते थे, फिर भी वे इतने नम्र थे कि उन्होंने कभी अपना बड़ापन प्रकट नहीं होने दिया।
For Private And Personal Use Only
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
127
रघुवंश
अतिष्ठदालीढविशेष शोभिना वपुः प्रकर्षेण विडम्बितेश्वरः। 3/52 उस समय सुंदर शरीर के कारण वे ऐसे लग रहे थे, मानो इन्द्र से युद्ध करने के लिए स्वयं शंकर भगवान आ रहे हों। स्फुरत्प्रभा मंडलमध्यवर्ति कान्तं वपुर्कोम चरं प्रपेदे। 5/51 वह देवताओं के समान सुन्दर और तेजपूर्ण शरीर लेकर खड़ा हो गया। संयोक्ष्यसे स्वेन वपुर्महिम्ना तदेत्यवोचत्स तपोनिधिर्माम्। 5/55 तब प्रसन्न होकर उस तपस्वी ने मुझसे कहा- फिर से अपना वास्तविक शरीर प्राप्त हो जाएगा। वपुषाकरणोज्झितेन सा निपतन्ती पतिमप्यपातयत्। 8/38 प्राणहीन होने से वह गिर पड़ी और उसके साथ-साथ अज भी गिर पड़े। राम इत्याभिरामेण वपुषा तस्य चोदितः। 10/67 उस बालक का सुंदर शरीर देखकर उसका नाम राम रख दिया। स्वं वपुः स किल किल्विषच्छिदां राम पादरज सामनुग्रहः। 11/34 राम के चरणों की धूल सब पापों को हरने वाली थी, इसलिए उसके छूते ही उसे वही पहले वाला सुन्दर शरीर मिल गया। तस्य वीक्ष्य ललितं वपुः शिशो:पार्थिवः प्रथितवंशजन्मनः। 11/38 जब जनक जी ने एक ओर प्रसिद्ध वंश में उत्पन्न हुए बालक राम के कोमल शरीर को देखा। वपुर्महोरगस्येव करालफण मण्डलम्। 12/98 मानो फणों का चमकीला मंडल लिए हुए शेषनाग ही हों। उपस्थितश्चारुवपुस्तदीयं कृत्वोपभोगोत्सुक येव लक्ष्म्या। 14/24 मानो राज्य लक्ष्मी ने ही राम के साथ रमण करने की इच्छा से सीता का सुन्दर रूप धर लिया हो। अन्वमीयत शुद्धेति शान्तेन वपुषैव सा। 15/77 सीताजी अपने शान्त शरीर से ही पवित्र दिखाई देती थीं। लौल्यमेत्य गृहिणी परिग्रहान्नर्तकीष्व सुलभासु तद् वपुः। 19/19 जब कभी उसे रानियाँ रोक लेती, तब नर्तकियों का शरीर न मिलने से वह
विरह-कातर हो जाता और किसी नर्तकी का चित्र बनाने लगता था। 9. विग्रह :-[वि०+ग्रह+अप्] शरीर।
For Private And Personal Use Only
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
128
कालिदास पर्याय कोश
धनु तामग्रत एव रक्षिणां जहार शक्रः किल गूढ़ विग्रहः। 3/39 इन्द्र को यह बात खटकी और उन्होंने अपने को छिपाकर धनुषधारी रक्षकों के देखते-देखते उस घोड़े को चुरा लिया। तनुलताविनिवेशितविग्रहा भ्रमरसंक्रमितेक्षणवृत्तयः। 9/52 कोमल लताओं का रूप धारण करके भौरों की आँखों से वन देवता भी। विग्रहेण मदनस्य चारुणा सोऽभवत्प्रतिनिधिर्नकर्मणा। 11/13 मानो वे वहाँ कामदेव की सुन्दरता के प्रतिनिधि बनकर आए हों, उसके कार्यों
के नहीं। 10. शरीर :-[शृ+ईरन्] काया, देह ।
न चान्यतस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्यगुप्ता हि मनो: प्रसूतिः। 2/14 रही अपने शरीर की रक्षा की बात, उसके लिए उन्होंने किसी सेवक की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि जिस राजा ने मनु के वंश में जन्म लिया हो, वह अपनी रक्षा तो स्वयं ही कर सकता है। स त्वं मदीयेन शरीरवृत्तिं देहेन निर्वर्तयितुं प्रसीद। 2/45 इसलिए तुम मेरे शरीर को खाकर अपनी भूख मिटा लो। किमप्यहिंसस्यस्त्व चेन्मतोऽहं यशः शरीरे भव मे दयालुः। 2/57 यदि तुम किसी कारण से मेरे ऊपर दया करना चाहते हो, तो मेरे यश रूपी शरीर की रक्षा करो। शरीरसादादसमग्रभूषणा मुखेन सालक्ष्यतः लोध्रपाण्डुना। 3/2 उन्होंने अपने शरीर से बहुत से गहने उतार डाले, उनका मुँह लोध के फूल के समान पीला पड़ गया। पितुः प्रयत्नात्स समग्रसंपदः शुभैः शरीरावयवैर्दिने दिने। 3/22 वैसे ही बालक रघु के शरीर के अंग भी संपत्तिशाली पिता की देखरेख में दिन-दिन बढ़ने लगे। तमंकमारोप्य शरीरयोगजैः सुखैर्निषिंचंतमिवामृतं त्वचि। 3/26 जब राजा उसे गोद में उठाते, तब उसके शरीर को छूने से ही उन्हें ऐसा जान पड़ता था, मानों उनके शरीर पर अमृत की फुहारें बरस रही हों। कालोपपन्नातिथिकल्प्य भागं वन्यं शरीरस्थित साधनं वः। 5/9 जिन से आप लोग अतिथि का स्वागत सत्कार करो हैं और जिन्हें खाकर ही आप लोग अपने शरीर को साधते हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
129 शरीरमात्रेण नरेन्द्र तिष्ठन्नाभासि तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः। 5/15 हे राजन्! केवल यह शरीर भर आपके पास बचा है और शेष अपना सब धन अच्छे लोगों को दे डाला है। इन्दीवरश्यामतनुनपोऽसौ त्वं रोचनागौर शरीर यष्टिः। 6/65 ये नील कमल के समान साँवले हैं और तुम गोरोचन जैसे गोरे सुंदर शरीर वाली हो। न चकार शरीरमग्निसात्सह देव्या न तु जीविताशया। 8/72 उन्हें जीने की साध नहीं रही किन्तु वे इन्दुमती के साथ इसलिए चिता पर शरीर को नहीं जलाया कि। स्वशरीर शरीरिणावपि श्रुतसंयोगविपर्ययौ यदा। 8/89 जब शरीर और आत्मा भी आपस में बिछुड़ने वाले माने गए हैं। शरीर त्यागमात्रेण शुद्धिलाभममन्यत। 12/10 उन्होंने समझ लिया कि अब प्राण देकर ही मेरी शुद्धि होगी। न केवलं गच्छति तस्य काले ययुः शरीरावयवा विवृद्धिम्। 18/49 कुछ ही दिनों में केवल उनके शरीर के अंग ही नहीं बढ़े।
दोहद
1. दोहद :-[दोहमाकर्ष ददाति-दा+क] गर्भवती स्त्री की प्रबल रुचि, गर्भावस्था।
उपेत्य सा दोहद दुःखशीलतां यदेव वब्रे तदपश्यदाहृतम्। 3/6 गर्भिणी रानी सुदक्षिणा का जब जिस वस्तु पर मन चलता था, वह उसी समय उन्हें मिल भी जाती थी। क्रमेणु निस्तीर्य च दोहदव्यथां प्रचीयमानावयवा रराज सा। 3/7 धीरे-धीरे गर्भ के प्रारंभिक कष्ट बीत गए, तब रानी वैसे ही हृष्ट-पुष्ट और सुंदर लगने लगीं। प्रजावतीदोहद शंसिनी ते तपोवनेषु स्पृहयालुरेव। 14/45 तुम्हारी गर्भिणी भाभी तपोवन देखना चाहती ही हैं, इसलिए तुम उन्हें इसी बहाने
से।
2. दौहृद :-[दुहृद्+अण्] गर्भावस्था।
निदान मिक्ष्वाकुकुलस्य संततेः सुदक्षिणा दौ«दलक्षणं दधौ। 3/1
For Private And Personal Use Only
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
130
कालिदास पर्याय कोश धीरे-धीरे रानी सुदक्षिणा के शरीर में उस गर्भ के लक्षण दिखाई देने लगे जो इस बात के प्रमाण थे कि अब इक्ष्वाकुवंश नष्ट नहीं होगा, बराबर चलता रहेगा।
दुम 1. अनोकह :-[अनसः शकटस्य अकं गतिं हन्ति-हन्+ड] वृक्ष ।
पृक्तस्तुषारैर्गिरिनिर्झराणामनोकहा कंपित पुष्पगंधी। 2/13 पहाड़ी झरनों की ठंडी फुहारों से लदा हुआ और मंद मंद कँपाए हुए वृक्षों के फूलों की गंध में बसा हुआ वायु। वृन्ताच्छ्लथं हरति पुष्पमनोकहानां संसृज्यते सरसिजैरुरुणांशुभिन्नैः। 5/69 प्रातः काल का पवन वृक्षों की शाखाओं पर झूलने वाले ढीले कोर वाले फूलों को गिराता हुआ, सूर्य की किरणों से खिले हुए कमल को छूता हुआ चल रहा
है।
2. तरु :-[तृ+उन्] वृक्ष।
मुनिवन तरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये। 3/70 राजा दिलीप ने देवी सुदक्षिणा के साथ तप करने के लिए जंगल की राह ली। ताम्रोदरेषु पतितं तरुपल्लवेषु निधौत हारगुलिका विशदं हिमाम्भः। 5/70 हार के उजले मोतियों के समान निर्मल ओस के कण वृक्षों के लाल पत्तों पर गिरकर वैसे ही सुंदर लग रहे हैं। पदवीं तरु वल्कवाससां प्रयताः संयमिना प्रपेदिरे। 8/11 नियम से पेड़ की छालों का वस्त्र पहननेवाले संन्यासियों के समान जंगल में चले जाते थे। कुसुमसंभृतया नवमल्लिका स्मितरुचा तरुचारुविलासिनी। 9/42 वहाँ वृक्षों की सुंदरी नायिका नवमल्लिका लता लाल-लाल पत्तों के ओठों पर फूलों की मुसकान लेकर। ग्रथितमौलिरसो वनमालया तरुपलाश सवर्ण तनुच्छदः। 9/51 उनके केशों में वनमाला गुंथी हुई थी, वे वृक्ष के पत्तों के समान गहरे रंग का कवच पहने हुए थे। तस्य जातु मरुतः प्रतीपगा वत्मर्स ध्वजतरुप्रमाथिनः। 11/58 एक दिन मार्ग में सेना के ध्वजरूपी वृक्षों को झकझोरने वाले वायु ने सारी सेना को व्याकुल कर दिया।
For Private And Personal Use Only
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
131
तस्याभवत्क्षण शुचः परितोषलाभः कक्षाग्निलंधिततरोरिव वृष्टिपातः।
11/92 इस थोड़ी देर के दुःख के पश्चात उन्हें ऐसा संतोष मिला, जैसे जंगल की आग
से झुलसे हुए पेड़ को वर्षा का जल मिल जाय। 3. दुम :- वृक्ष।
विसृष्ट पाश्र्वानुचरस्य तस्य पार्श्वदुमाः पाशभृता समस्य। 2/9 मानो मार्ग के वृक्ष यह समझकर वरुण के समान तेजस्वी राजा दिलीप की जय-जयकार कर रहे हों, कि उनकी जय करने वाला कोई भी सेवक उनके साथ नहीं है। अधित्यकायामिव धातुमय्यां लो दुमं सानुमतः प्रफुल्लम्। 2/29 जैसे गेरू के पहाड़ की ढाल पर बहुत से पीले फूलोंवाला लोध का पेड़ फूल रहा
हो।
तद्गजालानतां प्राप्तैः सह काला गुरुदुमैः। 4/81 वहाँ हाथियों के बाँधने से जैसे कालागरु के पेड काँपते थे। दुमसानुमतां किमन्तरं यदि वायौ द्वितयेऽपि ते चलाः। 8/90 यदि पर्वत भी वृक्ष की भाँति आँधी से हिल उठेगा, तो उन दोनों में अंतर ही क्या रहा। इति यथाक्रममाविर भून्मधुर्दुभवतीमवतीर्य वनस्थलीम्। 9/26 इस क्रम से धीरे-धीरे वनस्थली में वसन्त रूपी वृक्ष प्रकट होने लगा। अंशैरनुययुर्विष्णुं पुष्पैर्वायुमिव दुमाः। 10/49 जैसे वायु के चलने पर वन के वृक्ष स्वयं उसके पीछे न जाकर अपने फूल उसके साथ भेज देते हैं, वैसे ही देवताओं ने भी अपने-अपने अंश विष्णु के साथ भेज दिए। यः ससोम इव धर्मंदीधितिः सद्विजिह्व इव चंदनदुमः। 11/64 इस वेश में वे ऐसे जान पड़ते थे जैसे सूर्य के साथ चन्द्रमा हो या चंदन के पेड़ से साँप लिपटे हों। खातमूलमनिलो नदीरयैः पातयत्यपि मृदुस्तददुमम्। 11/7 जिस वृक्ष की जड़ें नदी की प्रचंड धारा ने पहले ही खोखली कर दी हों, उसे वायु के तनिक से झोंके में ढह जाने में क्या देर लगती है।
For Private And Personal Use Only
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
132
कालिदास पर्याय कोश
तस्य पश्यन्ससौमित्रेदश्रुर्व सतिदुमान्। 12/14 उन्हें वे वृक्ष दिखाए, जिनके तले राम और लक्ष्मण जाते हुए टिके थे, तो उनकी आँखों में आँसू छलक आए। अभिपेदे निदाघार्ता व्यालीव मलयदुमम्। 12/32 जैसे धूप से धबराकर कोई नागिन चंदन के पेड़ के पास पहुंच गई हो। प्रांशुमुत्पाटयामास मुस्तास्तम्बमिव दुमम्। 15/19 एक बड़ा भारी पेड़ ऐसे धीरे से उखाड़ लिया, जैसे मोथा उखाड़ लिया जाता है। आधूय शाखाः कुसुमदुमाणां स्पृष्ट्वा च शीतान्सरयूतरंगान्। 16/36 उपवनों में फूले हुए वृक्षों की डलियों को हिलाता हुआ तथा सरयू के शीतल जल के स्पर्श से ठंडे वायु ने। अक्षोभ्यः स नवोऽप्यासीदृढमूल इव दुमः। 17/44
नये राजा होने पर भी वे गहरी जड़ वाले वृक्ष के समान अचल हो गए। 4. पादप :-[पद्+घञ्+पः] वृक्ष।
न पादपोन्मूलन शक्ति रंहः शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य। 2/34 देखो! वायु का जो वेग वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने की शक्ति रखता है, वह पर्वत का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। तस्यासीदुल्वणो मार्गः पादपैरिव दन्तिनः। 4/33 जैसे कोई बलवान् जंगली हाथी किसी वृक्ष को नष्ट करता है, वैसे ही उन्होंने अपने मार्ग के सब रोड़े दूर कर दिए। कच्चिन वाय्वादिरूपप्लवो वः श्रमच्छिदामाश्रमपादपानाम्। 5/6 आप लोगों के आश्रम के जिन वृक्षों से पथिकों का छाया मिलती है उन वृक्षों को आँधी-पानी से कोई हानि तो नहीं पहुंची है। प्रवाल शोभ इव पादपानां शृंगार चेष्टा विविध बभूवुः। 6/12 राजाओं ने अपना प्रेम जताने के लिए वृक्षों के पत्तों के समान अनेक प्रकार से भौंह आदि चलाकर शृंगार चेष्टाएँ की। आससाद् मिथिलां स वेष्टयन्पीडितो पवन पादपां बलैः। 11/52 उस युद्ध में वानर, पेड़ों से मार-मारकर राक्षसों की लोहे की गदाएं तोड़ डालते थे, पत्थर बरसाकर उनके मुग्दर पीस डालते थे। तस्यातिथीनामधुना सपर्या स्थिता सुपुत्रेष्विव पादपेषु। 13/46
For Private And Personal Use Only
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
रघुवंश
133
जैसे सुपुत्र अपने पिता के धर्म का पालन करते हैं, वैसे ही अतिथि सेवा का काम उनके बदले ये आश्रम के वृक्ष करते हैं।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
5. पृथिवीरुह :- [ पृथु + ङीष् + रुह ] पेड़, वृक्ष ।
न खरो न च भूयसा मृदुः पवमानः पृथिवरुहामिव । 8 / 9
वे न तो बहुत कठोर थे न बड़े कोमल। जैसे मध्यम गति से बहने वाला वायु वृक्षों को उखाड़ता तो नहीं, पर झुका अवश्य देता है।
अकरोत्पृथिवोरुहानापि स्रुत शाखारसबाष्व दूषितान् । 8/70
उस समय उन्हें देखकर वृक्ष भी, मानो अपनी शाखाओं से रस बहाकर रोने लगे । 6. विटप :- [ विटं विस्तारं वा पाति पिबति - पा+क] शाखा, झाड़ी, वृक्ष ।
बाहुभिर्विटपाकारै दिव्या भरण भूषितैः । 10/11
आभूषणों से सजी हुई उनकी बड़ी-बड़ी भुजाएँ वृक्ष की शाखाओं के समान थीं।
7. वृक्ष :- [ व्रश्च् +क्स् ] पेड़, वृक्ष ।
सेकान्ते मुनिकन्याभिस्तत्क्षणोज्झितवृक्षकम् । 1/51
ऋषिकन्याएँ वृक्षों की जड़ों में पानी दे देकर वहाँ से हट गई थीं।
सिक्तं स्वयमिव स्नेहाद्वन्ध्यमाश्रमवृक्षकम् । 1 /70
जैसे अपने हाथों से सींचे हुए आश्रम के वृक्षों में फल लगता न देखकर । स पल्वलोत्तीर्णवराह यूथान्यावास वृक्षोन्मुखबर्हिणानि । 2/17
उन्होंने देखा कि कहीं तो छोटे-छोटे तालों मे से सुअरों के झुंड निकल-निकल कर चले जा रहे हैं, कहीं वृक्षों में छोटी-छोटी नई पत्तियाँ रही हैं। मदोत्कटे रेचितपुष्पवृक्षा गन्धर्द्विये वन्य इव द्विरेफाः । 6/7
जैसे फूलवाले वृक्षों को छोड़कर मद बहाने वाले जंगली हाथियों पर भौरे झुक पड़ते हैं ।
न हि प्रफुल्लं सहकारमेत्य वृक्षान्तरं कांक्षति षट्पदाली । 6/69 जब भौंरों का झुण्ड आम के वृक्ष पर पहुँच जाता है, तब उन्हें दूसरे वृक्षों के पास जाने की चाह नहीं रहती ।
नात्मानमस्य विविदुः सहसा वराहा वृक्षेषु विद्धमिषभिर्जधनाश्रयेषु । 9/60 उन्होंने तत्काल ऐसे कसकर बाण मारे कि सुअरों को पता ही नहीं चला कि वे उन पेड़ों में बाण के साथ कब चिपक गए, जिनके सहारे वे खड़े थे ।
For Private And Personal Use Only
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
134
कालिदास पर्याय कोश अभिजनग्मुनिदाघार्ताश्छाया वृक्षमिवाध्वगाः। 10/5 जैसे धूप से व्याकुल होकर पथिक, छाया वाले वृक्ष के नीचे पहुँच जाते हैं। तीव्र वेगधुतमार्गवृक्षया प्रेतचीवरवसा स्वनोग्रया। 11/16 बड़े वेग से मार्ग के वृक्षों को ढाती हुई प्रेतों के वस्त्र पहने और भयंकर गरजने वाली। नृत्यं मयूराः कुसुमानि वृक्षा दर्भानुपात्तान्विजहुर्हरिण्यः। 14/69 उनका रोना सुनकर मोरों ने नाचना बंद कर दिया, वृक्ष फूल के आंसू गिराने लगे
और हरिणियों ने मुँह में भरी घास का कौर गिरा दिया। पयोघटैराश्रम बालवृक्षान्संवर्धयन्ती स्वबालानुरूपैः। 14/78 जो जल के घड़े तुमसे उठ सकें, उन्हें लेकर तुम आश्रम के पौधों को प्रेम से सींचा करो। विनाशात्तस्य वृक्षस्य रक्षस्तस्मै महोपलम्। 15/21 उस वृक्ष के टूक-टूक हो जाने पर उस राक्षस ने। अथ धूमाभिताम्राक्षं वृक्षशाखावलम्बिनम्। 15/49 एक पेड़ की शाखा पर उलटा लटका हुआ एक मनुष्य, आग का धुआँ पी-पी
कर अपनी आँखें लाल कर लिया था। 8. शाखिन :-[शाखा+इनि] शाखाधारी, शाखाओं से युक्त, वृक्ष।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम्। 1/45 उनसे राजा दिलीप और रानी मार्ग के वनों और वृक्षों का नाम पूछती चलती थी। नाम्भसां कमलशोभिनां तथा शाखिनां च न परिश्रमचिछदाम्। 11/12 कमलों से भरे हुए सरोवरों तथा थकावट हरने वाले वृक्षों की छाया को देखकर भी। निवातनिष्कम्पतया विभान्ति योगाधिरूढा इव शाखिनोऽपि। 13/52 यहाँ के वृक्ष भी वायु न चलने के कारण ऐसे स्थिर खड़े हैं, मानो वे भी योग साध रहे हों। गात्रं पुष्परजः प्राप न शाखी नैर्ऋतेरितः। 15/20 वह वृक्ष तो उनके शरीर तक नहीं पहुँच सका, केवल उसके फूलों का पराग भर उन तक पहुँच पाया।
For Private And Personal Use Only
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
135
रघुवंश
द्विज 1. अग्रजन्मा :-[अङ्ग+रन् नलोपश्च +जन्मन्] बड़ा भाई, ब्राह्मण।
तथेति तस्यावितथं प्रतीतः प्रत्यग्रहीत्संगरमग्रजन्मा। 5/26 यह सुनकर ब्राह्मण कौत्स बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने सत्यवादी रघु की बात मान ली। इत्थं प्रयुज्या शिषमग्रजन्मा राज्ञे प्रतीयाय गुरोः सकाशम्। 5/35 राजा को यह आशीर्वाद देकर ब्राह्मण कौत्स तो अपने गुरुजी के पास चले गए। इन्द्र के मित्र, जितेन्द्रिय दशरथ ने पुरोहित जी का बड़ा सत्कार किया, उनकी
बातें सुनकर। 2. द्विज :-[द्वि+ज] ब्राह्मण।
इत्थं द्विजेन द्विजराजकान्तिरावेदितो वेद विदां वरेण। 5/23 जब वैदिक ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ कौत्स ने यह कहा, तब चंद्रमा के समान सुदंर रघु बोले-आप जैसा वेद पाठी ब्राह्मण। स मुहूर्त क्षमस्वेति द्विजमाश्वास्य दुःखितम्। 15/45 राम ने उस दुःखी ब्राह्मण को यह कहकर ढाढ़स बंधाया कि तुम थोड़ी देर ठहरो, मैं अभी तुम्हारा शोक दूर करता हूँ। पश्चान्निववृते रामः प्राक्परासुर्द्विजात्मनः। 15/56 जब राम अयोध्या लौटै, तब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनके आने के पहले ही ब्राह्मण का पुत्र जी उठा। तस्य पूर्वोदितां निन्दां द्विजः पुत्र समागतः। 15/57 पुत्र के जी उठने पर उस ब्राह्मण ने राम की बड़ी स्तुति की और पहले जो निंदा की थी, उसे धो डाला। उपचक्रमिरे पूर्वमभिषेक्तुं द्विजातयः। 17/13
ब्राह्मण आए और उन्होंने विजयी राजा को नहलाना प्रारंभ किया। 3. विप्र :-[वप्+रन् पृषो० अत इत्वम्] ब्राह्मण।
न प्रहर्तुमलमस्मि निर्दयं विप्र इत्यभिभवत्यपि त्वयि। 11/84 यद्यपि आपने हमारा अपमान किया है, पर आप ब्राह्मण हैं, इसीलिए मैं निर्दय होकर आपको मारूंगा नहीं।
For Private And Personal Use Only
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
136
कालिदास पर्याय कोश अथ जानपदो विप्रः शिशुमप्राप्तयौवनम्। 15/42 एक दिन उसी जनपद का रहने वाला एक ब्राह्मण अपने मरे हुए नवयुवक पुत्र
को। 4. वेदविद :-[विद्+घञ्, अच् वा+विद्] वेदविशारद ब्राह्मण।
इत्थं द्विजेन द्विजराजकान्ति रावेदितो वेदविदां वरेण। 5/23 जब वैदिक ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ कौत्स ने यह कहा तब चंद्रमा के समान सुंदर रघु बोले-आप जैसा वेद पाठी ब्राह्मण।
द्विष
1. अराति :-शत्रु, दुश्मन।
रामस्तुलित कैलासमरातिं बहमन्यत। 12/89 जिसने कैलास पर्वत को उँगलियों पर उठा लिया था, उसे देखकर राम ने समझा
यह कुछ कम पराक्रमी नहीं है। 2. अरि :-[ऋ+इन्] शत्रु, दुश्मन। .
अथाथर्वनिधेस्तस्य विजितारिपुरः पुरः। 1/59 राजा दिलीप ने जहाँ अपनी वीरता से शत्रुओं के नगर जीते थे और धनपति बने थे, उन्होंने अथर्ववेद के रक्षक वशिष्ठ जी के उत्तर में। तव मंत्रकृतो मत्रै रात्प्रशमितारिभिः। 1/61 आप मंत्र के रचयिता हैं। आपके मंत्र तो दूर से ही शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं। तेन सिंहासनं पित्र्यमखिलं चारिमण्डलम्। 4/4 राजा रघु ने पिता के सिंहासन पर और अपने शत्रुओं पर एक साथ अधिकार कर लिया। स प्रतस्थेऽरिनाशाय हरिसैन्यैरनुदुतः। 12/67 वे वानरों की अपार सेना लेकर शत्रुओं का संहार करने लगे। प्रायः प्रताप भग्नत्वादरीणां तस्य दुर्लभः। 17/70 वैसे ही प्रतापी राजा अतिथि से लड़ने को कोई शत्रु साहस ही नहीं करता था। जितारिपक्षोऽपि शिलीमुखैर्यः शालीनतामव्रजदीयमानः। 18/17
यद्यपि उन्होंने बाणों से शत्रुओं को जीत लिया फिर भी वे स्वयं नम्र ही रहे। 3. द्विष :-[द्विष्+क्विप्] विरोधी, शत्रुवत्।
स चापमुत्सृज्य विवृध मत्सरः प्रणाशनाय प्रबलस्य विद्विषः। 3/60
For Private And Personal Use Only
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
137
उन्होंने धनुष तो दूर फेंका और अपने प्रबल शत्रु रघु को मारने के लिए। रघोरमिभवाशंकि चुक्षुभे द्विषतां मनः। 4/21 उधर शत्रुओं के मन में यह जानकर खलबली मच गई, कि अब न जाने कब रघु चढ़ाई कर बैठे। द्विषां विषा काकुत्स्थस्तत्र नाराचदुर्दिनम्। 4/41 वैसे ही रघु ने भी बाणों की वर्षा से स्नान करके विजय पाई। ततः परं दुष्प्रसहं द्विषद्भिर्नृपं नियुक्ता प्रतिहारभूमौ। 6/31 वहाँ से आगे बढ़कर प्रतिहारी सुनंदा ने एक दूसरे राजा को दिखाया, जिससे सब शत्रु काँपते थे। कश्चिद्विषत्खड्गहृतोत्तमाँगः सद्यो विमान प्रभुतामुपेत्य। 7/51 एक योद्धा का सिर शत्रु की तलवार से कट गया, युद्ध में मृत्यु होने से वह देवता हो गया और विमान पर चढ़कर। तस्तार गां भल्लनिकृतकण्ठैहुँकार गर्भेषितां शिरोभिः। 7/58 जो शत्रु राजा हुँकार करते हुए आगे बढ़ रहे थे, उनके सिर काट-काट कर अज ने पृथ्वी पाट दी। अकरोद चिरेश्वरः क्षितौ द्विषदारंभफलानि भस्मसात्। 8/20 अज ने पृथ्वी पर शत्रुओं की सब चालें नष्ट कर डाली। सशरवृष्टिमुचा धनुषा द्विषां स्वनवता नवतामरसाननः। 9/12 वैसे ही नये कमल के समान सुदंर मुख वाले दशरथजी ने, अपने बाण बरसाने वाले धनुष से शत्रुओं को मारकर बिछा दिया। रन्धान्वेषणदक्षाणां द्विषाममिषतां ययौ। 12/11 दशरथ जी के शत्रु तो ऐसे अवसर की ताक में ही थे, उन्होंने झट धावा बोल दिया। ते रामाय वधोपायमाचरव्युर्विबुध द्विषः। 15/5 तब मुनियों ने राम को बताया कि जब तक शत्रु लवणासुर के हाथ में भाला रहेगा, तब तक उसका हारना कठिन है। वयसां पंक्तयः पेतुर्हतस्योपरि विद्विषः। 15/25 मरे हुए शत्रु के ऊपर गिद्ध आदि पक्षी टूट पड़े। वशी सुतस्तस्य वंशवदत्वात्स्वेषा मिवासी द्विषताम पीष्टः। 18/13
For Private And Personal Use Only
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
138
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
उनके जितेन्द्रिय पुत्र इतना मधुर बोलते थे कि शत्रु भी उनका वैसे ही आदर
करते थे जैसे मित्र |
/ 25
हो
द्विषाम सह्यः सुतरां तरुणां हिरण्यरेता इव सानिलोऽभूत । 18 ऐसे पुत्र को पाकर विश्वसह शत्रुओं के लिए वैसे ही भयंकर की सहायता पाकर वृक्षों के लिए अग्नि भयंकर हो जाती है। भोक्तुमेव भुज निर्जित द्विषा न प्रसाधयितुमस्य कल्पिता । 19/3 इसलिए उन्हें तो केवल भोग करने के लिए ही राज्य मिला था, राज्य के शत्रुओं को मिटाने के लिए नहीं ।
. जैसे वायु
गए,
4. पर : - [ पृ० + अपू, कर्तरि अच् वा] शत्रु, दुश्मन, रिपु ।
श्रुतस्य यायादयमंत मर्भकस्तथा परेषां युधि चेति पार्थिवः । 13 / 21 वह संपूर्ण शास्त्रों के पार भी जाएगा और युद्ध - क्षेत्र में शत्रुओं के व्यूहों को तोड़कर उनके भी पार जाएगा।
शृंगं सदृप्तविनयाधिकृतः परेषामत्युच्छ्रितं । 9/62
वे सिर उठाकर चलने वालों का दमन अवश्य करते थे, इसलिए उन्होंने ऐंठकर चलने के साधन सींगों को काट डाला ।
परात्मनोः परिच्छिद्य शक्त्यादीनां बलाबलम् । 17/59
चढ़ाई करने के पहले वे अपने और शत्रु के बल और त्रुटि को भली-भाँति तौल लेते थे ।
पराभि संधान परं यद्यप्यस्य विचेष्टितम् | 17 / 76
इनका काम यद्यपि शत्रुओं को जिस तिस प्रकार हराना ही था । 5. रिपु: - [ रप् + उन्, पृषो० इत्वम्] शत्रु, दुश्मन, प्रतिपक्षी । दोहावसाने पुनरेव दोग्ध्रीं भेजे भुजोच्छिन्नरिपुर्निषण्णम् । 2/23
की पूजा हो जाने पर शत्रुओं के संहारक राजा दिलीप, नंदिनी के दूध दुह लेने के बाद उसकी सेवा में फिर लग गए।
For Private And Personal Use Only
इन्द्रियाख्यानिव तत्रोच्चैर्जयस्तम्भं चकार सः । 4/60
जैसे कोई योगी इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीतने के लिए तत्त्वज्ञान का सहारा लेता
है।
हर्म्याग्रसंरूढतृणांकुरेषु तेजोडविषह्यं रिपुमन्दिरेषु । 6 / 47
सूर्य के समान प्रचंड तेज शत्रुओं के उन राजभवनों पर दिखाई देता है, जिनके उजड़ जाने पर उनमें घास जम आई है।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
रिपुनियां सांजनवाष्पसेके बन्दीकृतानामिव पद्धती द्वे । 6/55
मानो ये शत्रुओं की उस राज्यलक्ष्मी के आने की दो पगंडडियाँ हैं, जो उन्होंने शत्रुओं से छीन ली हों और जिसके कजरारे नेत्रों से बहे हुए आँसुओं के कारण ये काले पड़ गए हों ।
तुरंगम स्कन्धनिषण्णदेहं प्रत्याश्वसन्तं रिपुमाचकांक्ष। 7/47
एक घुड़सवार ने अपने शत्रु घुड़सवार पर पहले चोट की। चोट खाते ही वह घोड़े के कंधे पर झुक गया और उसमें इतनी भी शक्ति न रही कि सिर तक उठा सके।
139
आकर्णकृष्टा सुकृदस्य योद्धुमर्वीव बाणान्सुषुवे रिपुघ्नान् । 7/57
वरन् ऐसा जान पड़ता था कि वे जब कान तक धनुष की डोरी खींचते थे, तब उसी में से शत्रुओं का नाश करने वाले बाण निकलते चले जा रहे थे। अत्यारूढं रिपोः सोढ़ं चन्दनेनेव भोगिनः । 10/42
।
उस दुष्ट का दिन-दिन ऊपर चढ़ना उसी प्रकार सहा है, जैसे अपने ऊपर चढ़ते हुए साँप को चंदन का पेड़ सह लेता है।
विभ्रतोऽस्त्रम् चलेऽप्यकुंठितं द्वौ रिपू मम मतौ समागसौ । 11/74
जिस परशुराम के अस्त्र पहाड़ों से टकराकर कुंठित नहीं होते, उसके दो ही शत्रु आज तक समान अपराध करने वाले हुए हैं।
निष्प्रभश्च रिपुरास भूभृतां धूमशेष इव धूमकेतनः । 11 /81
वैसे ही क्षत्रियों के शत्रु परशुरामजी उसी अग्नि के समान निस्तेज हो गए, जिसमें केवल धुआँ भर रह गया हो ।
सीतां हित्वा दशमुखरिपुर्नोपयेमे यदन्यां । 14 / 87
राम ने सीता को त्याग कर किसी दूसरी स्त्री से विवाह नहीं किया ।
सनिवेश्यकुशावत्यां रिपुनागांकुश कुशम् । 15 / 97
शत्रुरूपी हाथियों के लिए अंकुश के समान भयदायक कुश को कुशावतीका राज्य दे दिया ।
For Private And Personal Use Only
अधोपशल्ये रिपुमग्न शल्यस्तस्याः पुरः पौरसखः स राजा । 16/37 शत्रुविनाशक प्रजा - हितैषी राजा ने नगर के आस-पास के स्थानों में ठहरा दिया। अतः सोऽभ्यन्तरान्नित्यान्षट् पूर्वभजय द्रिपून् । 17/45 इसलिए उन्होंने शरीर के भीतर सदा रहने वाले काम आदि छओं शत्रुओं को पहले ही जीत लिया।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
140
कालिदास पर्याय कोश
आवृणोदात्मनो रन्धं रंधेषु प्रहरनिपून्। 17/61 उन्होंने शत्रुओं के दोषों का लाभ उठाकर उन्हें नष्ट कर दिया और अपने दोषों को
दूर कर लिया। 6. विपक्ष :-[विरुद्धः पक्षो यस्य प्रा० ब०] शत्रु, विरोधी, प्रतिरोधी।
तथापि शस्त्रव्यवहार निष्ठुरे विपक्षभावे चिरमस्य तस्थुषः। 3/62 शत्रु के वज्र की चोट से क्षणभर में संभलकर रघु फिर लड़ने के लिए आ डटें। गुणासतस्य विपक्षेऽपि गुणिनो लेभिरेऽन्तरम्। 17/35 अतिथि के गुणों ने शत्रुओं के हृदय में भी घर कर लिया था और शत्रु भी उनके
गुणों का लोहा मानते थे। 7. शत्रु :-[शद्+त्रुन्] दुश्मन, बैरी, प्रतिपक्षी।
प्रत्यर्पिता: शत्रुविलासिनीनामुन्मुच्य सूत्रेण विनैव हाराः। 6/28 मानो इन्होंने शत्रुओं की स्त्रियों के गले से मोतियों के हार उतार कर, उन्हें बिना डोरे वाले (आँसुओं के) हार पहना दिए हों। आसेदुषी सादितशत्रुपक्षं बालामबालेन्दुमुखीं बभाषे। 6/53 पूनों के चन्द्रमा के समान मुखवाली इंदुमती को उस राजा के पास ले गई, जिन्होंने अपने शत्रुओं को नष्ट कर डाला था। शंख स्वनाभिज्ञतया निवृत्तास्तां सन्न श ददृशुः स्वयोधाः। 7/64 शंख की ध्वनि को पहचानकर अज के योद्धा लौट आए। सोते हुए शत्रुओं के बीच अज उन्हें ऐसे लगे। इति शत्रुषु चेन्द्रियेषु च प्रतिषिद्ध प्रसरेषु जाग्रतौ। 8/23 अज ने अपने शत्रुओं को बढ़ना रोककर और रघु ने इन्द्रियों को वश में करके अपनी-अपनी सिद्धियाँ प्राप्त कर ली। निर्जितेषु तरसा तरस्विनां शत्रुषु प्रणति रेव कीर्तये। 11/89 जब कोई पराक्रमी अपने बल से अपने शत्रु को जीत लेता है, तब यदि वह नम्रता भी दिखावे, तो उसकी कीर्ति ही बढ़ती है। सभाजनयोपगतान्स दिव्यान्मुनीन्पुरस्कृत्य हतस्य शत्रोः। 14/18 तब राम ने उन अगस्त्य आदि ऋषियों का सत्कार किया, जो उन्हें बधाई देने आए थे, फिर उन्हें अपने शत्रु रावण का जन्म से मृत्यु तक का वृतांत सुनाया। सोभूद्भग्नव्रतः शत्रूनुद्धृत्य प्रतिरोपयन्। 17/42
For Private And Personal Use Only
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
शत्रुओं को उखाड़कर उन्हें फिर जमाते समय यह नियम तोड़ दिया।
अनित्याः शत्रवो बाह्या विप्रकृष्टाश्च ते यतः । 17/45
यह सोचकर कि बाहरी शत्रु तो सदा होते नहीं और होते हैं, भी तो दूर रहते हैं। उत्खात शत्रु वसुधोपतस्थे रत्नोपहारैरुदितैः खनिभ्यः । 18 / 22
शत्रु विनाशक पुत्र ने सारी पृथ्वी से शत्रुओं को उखाड़ फेंका और रत्न, खनिज उपहार में प्राप्त किया।
141
8. सपत्न : - [ सह एकार्थे पतति पत्+न, सहस्य सः ] शत्रु, विरोधी, प्रतिद्वन्द्वी । जनपदे न गदः पदमादधावभिभवः कुत एव सपत्नजः । 9/4
रोग भी उनके राज्य की सीमा में पैर न रख सके, फिर शत्रुओं के आक्रमण की तो संभावना ही कहाँ थी।
न च सपत्न जनेष्वपि तेन वागपरुषा परुषाक्षरमीरिता । 9/8
क्रोधित होने की तो बात ही दूर है, उन्होंने अपने शत्रुओं को भी कोई कठोर शब्द नहीं कहा।
ध
धनु
1. इष्वास : - [ इष् + उ + आस: ] धनुष ।
राममिष्वासनदर्शनोत्सुकं मैथिलाय कथयांबभूव सः । 11/37
तब ठीक समझकर विश्वामित्र जी ने जनकजी से कहा कि राम भी धनुष देखना चाहते हैं ।
2. कार्मुक - [कर्मन् + उकञ ] धनुष ।
प्रजार्थसाधने तौ हि पर्यायोद्यतकार्मुकौ । 4/16
ये दोनों धनुष ही बारी-बारी से प्रजा की भलाई किया करते हैं ।
शमिताधिरधिज्यकार्मुकः कृतवान् प्रतिशासनं जगत् । 8/27
जब उन्हें धीरज हुआ और उनका शोक कम हुआ, तब वे धनुष बाण लेकर सारे संसार पर एक छत्र राज्य करने लगे।
For Private And Personal Use Only
स्थाणुदग्धवपुषस्तपोवनं प्राप्त दाशरथि रात्तकार्मुकः । 11/13 जिस तपोवन में शिवजी ने कामदेव को भस्म किया था, वहाँ जब सुंदर शरीर वाले राम, धनुष उठाए हुए पहुँचे ।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
142
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दृष्ट सारमथ रुद्रकार्मुके वीर्यशुल्कमभिनन्द्य मैथिलः । 11 /47
राजा जनक ने जब देखा कि शिवजी का धनुष तोड़कर राम ने अपना पराक्रम दिखला दिया, तब उन्होंने राम का बड़ा आदर किया।
कालिदास पर्याय कोश
तेन कार्मुकनिषक्त मुष्टिना राघवो विगतभीः पुरोगता: । 11 /70
युद्ध के लिए उद्यत और मुट्ठी में धनुष पकड़कर अपने आगे निडर खड़े राम से
कहा ।
तेन भूमिनिहितैककोटि तत्कार्मुकं च बलिनाधिरोपितम् । 11 /81 पराक्रमी राम ने उस धनुष की एक छोर पृथ्वी पर टेककर जैसे ही उस पर डोरी चढ़ाई |
यन्ताः हरे सपदि संहृतकार्मुकज्यामापृच्छय राघवमनुष्ठितदेवकार्यम् ।
12/103
राम ने धनुष की डोरी उतार दी क्योंकि उन्होंने देवताओं का काम पूरा कर दिया
था।
3. चाप :- [ चप् + अण् ] धनुष ।
स चापमुत्सृज्य विवृद्धमत्सरः प्रणाशनाय प्रबलस्य विद्विष: 13/60 उन्होंने धनुष को तो दूर फेंका और अपने प्रबल शत्रु रघु को मारने के लिए। स चापकोटीनिहितैकबाहुः शिरस्त्रनिष्कर्षण भिन्नमौलिः । 7/66
4. धनु : - [ धन्+उ] धनुष ।
अज ने अपना सिर का कूँड़ उतारा तो उनके बाल छितरा गए, धनुष के एक छोटे पर बाँह टेककर 1
क्रमशस्ते पुनस्तस्य चापात्सममिवोद्ययुः । 12/+7
अपने बाण एक-एक करके चलाए किंतु अत्यंत शीघ्रता से चलाए हुए वे बाण ऐसे जान पड़ते थे, मानो एक साथ धनुष से छूटे हों ।
For Private And Personal Use Only
वार्षिकं संजहारेन्द्रो धनुर्जेत्रं रघुर्दधौ । 4/16
इन्द्र ने जब अपना वर्षा ऋतु वाला इन्द्रधनुष हटाया, तब रघु ने अपना विजयी धनुष हाथ में उठा लिया ।
ततो धनुष्कर्षण मूढहस्तमेकांसपर्यस्तशिरस्त्रजालम् । 7/62
अस्त्र छोड़ते ही उन राजाओं की सेना के हाथ ऐसे रुक गए कि वे अपने धनुष तक न खींच पाए।
राघवावपि निनाय बिभ्रतौ तद्धनुः श्रवणजं कुतूहलम् । 11/32
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
धनुष यज्ञ की बात सुनकर दोनों राजकुमारों को बड़ा कुतूहल हुआ, इसलिए विश्वामित्र जी उन दोनों को लेकर ।
143
स्वं विचिन्त्य च धनुर्दुरानमं पीडितो दुहितृ शुल्क संस्थया । 11/38 तब उन्हें इस बात का बड़ा पछतावा हुआ कि मैंने अपनी कन्या के विवाह के लिए, यह धनुष तोड़ने का अड़ंगा लगा क्यों दिया?
तत्प्रसुप्त भुजगेन्द्र भीषणं वीक्ष्य दाशरथिराददे धनुः । 11 /44
वह धनुष ऐसा जान पड़ता था मानो कोई बड़ा भारी अजगर सोया हुआ हो, राम ने देखते-देखते शंकर जी के धनुष को उठा लिया।
भज्यमानमतिमात्र कर्षणात्तेन वज्रपुरुष स्वनं धनुः । 11 /46
राम ने धनुष को इतना तान लिया कि वह वज्र के समान भयंकर शब्द करके कड़कड़ाता हुआ टूट गया ।
मैथिलस्य धनुरन्य पार्थिवैस्त्वं किलानमितपूर्वमक्षणोः । 11/72 जनकजी के जिस धनुष को कोई राजा झुका भी न सका, उसी को तूने तोड़
दिया ।
स नादं मेघनादस्य धनुश्चेन्द्रायुधप्रभम्। 12/79
वैसे ही लक्ष्मण भी मेघनाद के गर्जन को और इन्द्रधनुष के समान धनुष को क्षण भर में ले बीते ।
5. धनुष : - [ धन्+उसि ] धनुष ।
शास्त्रेष्वकुठिता बुद्धिमौर्वी धनुषि चातता । 1/19
शास्त्रों का उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था और धनुष चलाने में वे एक ही थे । वे अपना सब काम अपनी तीखी बुद्धि और धनुष पर चढ़ी हुई डोरी इन दो से ही निकाल लेते थे ।
नवाम्बुदानीकमुहूर्तलांक्षने धनुष्यमोघं समधत्त सायकम् । 3/53
इन्द्र का वह धनुष इतना सुंदर था कि थोड़ी देर के लिए उसने नए बादलों में इन्द्र धनुष जैसे रंग भर दिए ।
For Private And Personal Use Only
सशरवृष्टिमुचा धनुषा द्विषां स्वनवता नवतामरसाननः । 9/12 नए कमल के समान सुंदर मुख वाले दशरथ जी ने अपने बाण बरसाने वाले धनुष से शत्रुओं को मारकर बिछा दिया ।
निन्यतुः स्थल निवेशिताटनी लीलयैव धनुषी अधिज्यताम् । 11/14
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
144
कालिदास पर्याय कोश
उसे देखते ही उन दोनों भाइयों ने अपने धनुषों को पृथ्वी पर टेककर डोरियाँ चढ़ा लीं ।
द्वेषिता हि बहवो नरेश्वरास्तेन तात धनुषा धनुर्भृतः । 11 /40
इस धनुष को उठाने में बड़े-बड़े धनुषधारी राजा अपना सा मुँह लेकर रह गए। सोऽस्त्रमुग्रजवमस्त्रकोविदः संदधे धनुषि वायुदैवतम् । 11/28
दिव्य अस्त्र चलाने में राम का हाथ ऐसा सधा हुआ था कि उन्होंने झट से अपने धनुष पर वायव्य अस्त्र चढ़ाया ।
व्यादिदेश गणशोऽथ पार्श्वगान्कार्मुकाभिहरणाय मैथिलः । 11 /43 इसलिए जनकजी ने अपने सेवकों को उसी प्रकार धनुष लाने की आज्ञा दी । 6. शरासन :- [ शृ+अच्+असनम् ] धनुष ।
स एवमुक्त्वा मघवन्तमन्मुखः करिष्यमाणः सशरंशरासनम् । 3/52 यह कहकर रघु ने धनुष पर बाण चढ़ाया और पैंतरा साधकर इन्द्र की ओर मुँह करके खड़े हो गए।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुः शशांकार्धमुखेन पत्रिणा शरासनज्यामलुनाद्विडौजसः । 3/59 तब रघु ने अर्द्धचन्द्र के आकार के बाण से धनुष की वह डोरी काट डाली, जिसमें से बाण चलाते समय ऐसा प्रचंड शब्द होता था ।
अजयदेकरथेन स मेदिनीमुदधिनेमिमधिज्य शरासनः । 9/10
एक धनुष लेकर और अकेले एक रथ पर चढ़कर ही, उन्होंने समुद्र तक फैली हुई सारी पृथ्वी जीत ली।
मृगवनोपगमक्षमवेषभृद्विपुलकंठ निषक्त शरासनः । 9/50
जब अहेरी वेष बनाकर, अपने ऊँचे कांधे पर धनुष टांगे राजा दशरथ ।
7. शार्ङ्ग : - [ शृङ्ग+अण्] धनुष, विष्णु का धनुष ।
शार्ङ्ग कूजित विज्ञेय प्रतियोधे राजस्यभूत् । 4/62
सेना के चलने से इतनी धूल उड़ी कि आसपास कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता था, केवल धनुष की टंकार से ही सैनिक लोग शत्रु को पहचान पाते थे । निवर्तयिष्यन्विशिखेन कुम्भे जघान नात्यायतकृष्टशार्ङ्गः । 5/50 इसलिए उन्होंने अपने धनुष को थोड़ा सा खींचकर एक बाण उसके मस्तक में ऐसा मारा, जिससे वह लौट जाय ।
For Private And Personal Use Only
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
145
धनुर्भूत 1. अधिज्यधन्वा :-[अध्यारूढ़ा ज्या यत्र, अधिगतं ज्या वा+धन्वन्] धनुष की
डोरी को ताने हुए, धनुर्धर। लताप्रतानोद्ग्रथितैः स केशैरधिज्य धन्वा विचचार दावम्। 2/8 उनकी शिर की लटें जंगल की लताओं के समान उलझ गई थीं, जब वे हाथ में
धनुष लेकर जंगल में घूमते थे। 2. आत्तकार्मुक :-धनुर्धर।
स्थाणुदग्धवपुषस्तपोवनं प्राप्य दाशरथिरात्तकार्मुकः। 11/13 जिस तपोवन में शिवजी ने कामदेव को भस्म किया था, वहाँ जब सुंदर शरीर
वाले राम, धनुष उठाए हुए पहुँचे। 3. चापधर :-[चप्+अण्+धर] धनुर्धर।
अकार्य चिन्ता समकालमेव प्रादुर्भव॑श्चाप धरः पुरस्तात्। 6/39 उनके समय में यदि कोई पाप करने का विचार भी करता था, तो वे धनुष बाण लेकर उसके सिर पर जा चढ़ते थे। चापभृत :-[चप्+अण्+भृत] धनुर्धर। ज्याघात रेखे सुभुजो भुजाभ्यां बिभर्ति यश्चापभृतां पुरोगः। 6/55 इनको देखती हो न, कैसी सुंदर इनकी भुजाएं हैं और धनुषधारियों में तो इनसे बढ़कर कोई है ही नहीं। इनकी भुजाओं पर जो दो काली-काली रेखाएँ धनुष की डोरी खींचने से बन गई हैं। बाणाक्षरैरेव परस्परस्य नमिर्जितं चापभृतः शशंसुः। 7/38 धनुषधारी जो बाण चला रहे थे, उन पर खुदे हुए अक्षरों से ही उनके नामों का
ज्ञान हो जाता था। 5. धनुर्धर :-[धन्+उसि+धरः] धनुर्धर, धनुषधारी।
ने केवलं तद्गुरुरेकपार्थिवः क्षितावभूदेक धनुर्धरोऽपि सः। 3/31 उनके पिता केवल चक्रवर्ती राजा ही नहीं थे, वरन् अद्वितीय धनुष चलाने वाले भी थे। नियुज्य तं होमतुरंगरक्षणे धनुर्धरं राजसुतैरनुदुतम्। 3/38 यज्ञ के घोड़े की रक्षा का भार रघु और अन्य धनुर्धर राजकुमारों को सौंपकर। अमोघं संदधे चास्मै धनुष्येक धनुर्धरः। 12/97
For Private And Personal Use Only
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
146
कालिदास पर्याय कोश
राम कोई साधारण धनुषधारी थोड़े ही थे, उन्होंने धनुष पर अमोघ अस्त्र चढ़ाकर। ततः स कृत्वा धनुराततज्यं धनुर्धरः कोप विलोहिताक्षः। 16/77 यह सुनते ही धनुषधारी कुश की आँखें क्रोध से लाल हो गईं और वहीं तट पर
खड़े होकर उन्होंने धनुष को ठीक किया। 6. धनुर्भूत :-[धन्+उसि+भृतः] धनुर्धर, धनुषधारी।
धनुर्भृतामग्रत एव रक्षिणां जहार शक्रः किल गूढ विग्रहः। 3/39 इन्द्र ने अपने को छिपाकर धनुषधारी रक्षकों को देखते-देखते उस घोड़े को चुरा लिया। अप्यर्धमार्गे परबाणलूना धनुर्भृतां हस्तवतां पृषत्काः । 7/45 जिन धनुषधारियों के हाथ बाण चलाने में सधे हुए थे, उनके बाण यद्यपि शत्रुओं के बाणों से बीच में ही दो टूक हो जाते। अवनिमेकरथेन वरूथिना जितवतः किल तस्य धनुर्भूतः। 9/11 जिस समय अकेले सुरक्षित रथ पर चढ़े कुबेर के समान संपत्तिशाली धनुषधारी दशरथजी पृथ्वी जीतते हुए चलते थे। असकृदेकरथेन तरस्विना हरिहयाग्रसरेण धनुर्भृता। 9/23 अकेले रथ पर चढ़कर युद्ध करने वाले पराक्रमी धनुर्धर और युद्ध में इन्द्र से आगे चलने वाले दशरथ ने। ध्वजपटं मदनस्य धनुर्भूतश्छविकरं मुखचूर्णमृतुश्रियः। 9/45 मांनो धनुषधारी कामदेव का झण्डा हो या वसंतश्री के मुख पर लगाने का श्रृंगार चूर्ण हो। हेपिता हि बहवो नरेश्वरास्तेन तात धनुषा धनुर्भृतः। 11/40
इस धनुष को उठाने में बड़े-बड़े धनुषधारी राजा अपना सा मुँह लेकर रह गए। 7. धनुष्मान :-[धन्+उसि+मान] धनुर्धर।।
रथी निषंगी कवची धनुष्मान्दृप्तः स राजन्यकमेकवीरः। 7/56 वैसे ही घोड़े पर चढ़े तूणीर बाँधे स्वाभिमानी वीर अज अकेले ही शत्रुओं की
सेना को चीरते चले जा रहे थे। 8. धन्वा :-धनुर्धर।
आकर्णमाकृष्टसबाणधन्वा व्यरोचतास्त्रेषु विनीयमानः। 18/51 बाईं जाँघ कुछ झुका लेते थे और बाण चढ़कार धनुष की डोरी कान तक खींचते थे, उस समय वे बड़े सुन्दर लगते थे।
For Private And Personal Use Only
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
147
9. धन्वी :-[धन्+वन्+णिच्] धनुर्धर। आकर्णकृष्टमपि कामितया स धन्वी बाणं कृपा मृदुमनाः प्रतिसंजहार।
9/57 यह प्रेम देखकर धनुषधारी राजा दशरथ का हृदय भी दया से भर गया और उन्होंने कान तक खींचा हुआ भी अपना बाण उतार लिया। तौ निदेशकरणोद्यतौ पितुर्धन्विनौ चरणयोर्निपेततुः। 11/4 पिता की आज्ञा पालन करने को प्रस्तुत दोनों धनुषधारी राजकुमार अपने पिता के चरणों में प्रणाम करने को झुके ही थे। धन्विनौ तमृषिमन्वगच्छतां पौर दृष्टिकृत मार्गतौरणौ। 11/5 जब धनुष लेकर दोनों राजकुमार विश्वामित्र जी के पीछे चले जा रहे थे, उस समय पुरवासियों की आँखें ऐसी दीखती थीं, मानो नेत्रों की बंदनवारें बाँध दी गई हों। गुरुर्विधि बलापेक्षी शमयामास धन्विनः। 15/85 पर ब्रह्माजी तो सब कुछ जानते ही थे, उन्होंने आकर धनुषधारी राम को समझाया और उनका क्रोध शान्त किया। वशिष्ठस्य गुरोर्मन्त्राः सायकास्तस्य धन्विनः। 17/38 गुरु वशिष्ठ के मंत्र और धनुषधारी राजा के बाण दोनों ने।
धीमान्
1. धीमान् :-[धी+मतुप्] बुद्धिमान्, प्रतिभाशाली, विद्वान्।
निगृह्य शोकं स्वयमेव धीमान्वर्णाश्रमावेक्षण जागरूकः। 14/85 वर्णाश्रम धर्म के रक्षक बुद्धिमान राम संसार के सुखों का मोह छोड़कर और
शोक को रोककर। 2. मतिमान् :-[मन्+क्तिन्+मान्] बुद्धिमान्, विद्वान्, प्रतिभाशाली।
रात्रिर्गता मतिमतांवर मुंच शय्यां धात्रा द्विधैव ननु धूर्जगतोविभक्ता। 5/66 हे परमबुद्धिमान् ! रात ढल गई है, अब शय्या छोड़िए। ब्रह्मा ने पृथ्वी का भार केवल दो भागों में बाँटा है।
धेनु
1. गृष्टि :-[गृह्णाति सकृत गर्भम्-ग्रह+क्त्व् िपृषो० तारा०] एक बार ब्याई हुई
गौ या गाय।
For Private And Personal Use Only
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
148
कालिदास पर्याय कोश
आपीन भारोद्वहन प्रयत्नाद्गृष्टिगुरुत्वाद्वपुषो नरेन्द्रः। 2/18 नंदिनी अपने थन के भारी होने से धीरे-धीरे चलती थी और राजा दिलीप भारी
शरीर होने के कारण धीरे-धीरे चल रहे थे। 2. गौ :-[गच्छत्यनेन, गम करणे डो तारा०] मवेशी, गाय।
वन्यवृत्तिरिमां शश्वदात्मानुगमनेन गाम्। 1/88 यदि तुम भी सब भोगों को छोड़कर कन्द-मूल-फल खाते हुए, सदा इस गौ की सेवा करोगे तो। पयोधरी भूतचतुः समुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम्। 2/3 मानो साक्षात् पृथ्वी ने ही गौ का रूप धारण कर लिया हो और जिसके चारों थन की पृथ्वी के चार समुद्र हों। स पाटलायां गवि तस्थिवासं धनुर्धरः केसरिणं ददर्श। 2/9 धनुषधारी राजा दिलीप ने देखा कि उस लाल गौ पर बैठा हुआ सिंह ऐसा लग रहा है। भूतानुकम्पा तव चेदियं गौरेका भवेत्स्वस्तिमती त्वदन्ते। 2/48 यदि तुम केवल प्राणियों पर दया करने के विचार से ही ऐसा कर रहे हो, तो भी यह त्याग ठीक नहीं है, क्योंकि इस समय यदि तम मेरे भोजन बनते हो, तो
केवल एक गौ की रक्षा होगी। 3. धेनु :-[धयति सुतान्, धीयते वत्सैर्वा-धे+नु इच्च तारा०] गाय, दुधारु गाय।
वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेर्मुमोच। 2/1 जब नंदिनी के बछड़े ने दूध पी लिया, तब यशस्वी राजा दिलीप ने उसे बाँध दिया और ऋषि की गौ को जंगल में चराने के लिए खोल दिया। व्रताय तेनानुचरेण धेनोय॑षेधि शेषोऽप्यनुयायिवर्गः। 2/4 राजा दिलीप ने केवल रानी को ही नहीं; वरन् सब नौकर-चाकरों को भी लौटा दिया; क्योंकि उन्होंने तो गौ सेवा का व्रत ही ले लिया था। रक्षापदेशान्मुनिहोमधेनोर्वन्यान्विनेष्यनिव दुष्टसत्त्वान्। 2/8 मानो नंदिनी गौ की सेवा के बहाने वे जंगल के दुष्ट जनों को शान्त करने की सीख दे रहे थे। वशिष्ठ धेनोरनुयायिनं तमावर्तमानं वनिता वनन्तात्। 2/19 जब सांझ को राजा मुनि वशिष्ठजी की गाय के पीछे-पीछे वन से लौटे तब रानी सुदक्षिणा।
For Private And Personal Use Only
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
149
तदन्तरे सा विरराज धेनुर्दिनक्षपामध्यगतेव संध्या। 2/20 इन दोनों के बीच में वह लाल रंग की गाय ऐसी शोभा दे रही थी, जैसे दिन और रात की बीच में साँझ की ललाई। अन्येधुरात्मानु चरस्य भावं जिज्ञासमाना मुनिहोम धेनुः। 2/26 तब मुनि वशिष्टजी की गाय नंदिनी ने सोचा कि मैं अपने सेवक राजा दिलीप की परीक्षा क्यों न लूँ, कि वे सच्चे भाव से सेवा कर रहे हैं या केवल स्वार्थभाव से। तमार्यगृह्यं निगृहीत धेनुर्मनुष्य वाचा मनुवंशकेतुम। 2/33 सज्जनों के मित्र, मनुवंश के शिरोमणि राजा दिलीप नंदिनी को ले जाने वाले सिंह की मनुष्य की बोली सुनकर। दिनावसानोत्सुक बालवत्सा विसृज्यतां धेनुरियं महर्षेः। 2/45 इस महर्षि वशिष्ठजी की गौ को छोड़ दो, क्योंकि इसका छोटा सा बछड़ा साँझ हो जाने से इसकी बाट जोह रहा होगा। अथैक धेनोरपराधचंडाद्गुरोः कृशानु प्रतिमाद्धिभेषि। 2/49 यदि तुम गौ के स्वामी और अग्नि के समान अपने तेजस्वी गुरुजी से डरते हो तो। धेन्वा तदध्यासितकातराक्ष्या निरीक्ष्यमाणः सुतरां दयालुः। 2/52 राजा ने देखा कि सिंह के नीचे दबी हुई गाय कातर नेत्रों से रक्षा की भीख माँग रही है। तं विस्मितं धेनुरुवाच साधो मायां मयोद्भाव्य परीक्षितोऽसि। 2/62 राजा दिलीप को अचररज में देखकर गाय बोलने लगी-मैंने माया रचकर तुम्हारी परीक्षा ली थी। इत्थं क्षितीशेन वशिष्ठधेनुर्विज्ञापिता प्रीततरा बभूव। 2/67 राजा की यह बात सुनकर तो वशिष्ठजी की गाय नंदिनी बहुत ही प्रसन्न हुई। धेनुं सवत्सां च नृपः प्रतस्थे सन्मंगलोदग्रतरप्रभवः। 2/71 विदा लेते समय राजा ने बछड़ें के साथ बैठी हुई नंदिनी की परिक्रमा की। महर्षि के आशीर्वाद पाने से उनका तेज और भी अधिक बढ़ गया था। धेनुवत्सहरणाच्च हैहयस्त्वं च कीर्तिमपहर्तुमुद्यतः। 11/74 पहला सहस्रबाहु था जो मेरे पिता से का कामधेनु का बछड़ा छीनकर ले गया था और दूसरे तुम हो, जो मेरी कीर्ति छीनने पर कमर कसे बैठे हो।
For Private And Personal Use Only
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
150
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
4. पयस्विनी :- [ पयस्+विनि] दूध देने वाली गाय । प्रदक्षिणीकृत्य पयस्विनीं तां सुदक्षिणा साक्षात्पात्रहस्ता । 2/21
पहले तो सुदक्षिणा ने हाथ में अक्षत आदि सामग्री लेकर गाय नंदिनी की पूजा करके प्रदक्षिणा की ।
कथं न शक्योऽनुनयो महर्षे विश्राणनाच्चान्य पयस्विनीनाम् । 2/54 तुम समझते हो कि इसके बदले में दूसरी गौएँ देकर मैं महर्षि वशिष्ठ को मना लूँगा; यह हो नहीं सकता ।
संतान कामाय तथेति कामं राज्ञे प्रतिश्रुत्य पयस्विनी सा । 2/65
उस गाय नंदिनी ने संतान माँगने वाले राजा दिलीप से प्रतिज्ञा की कि मैं तेरी इच्छा पूरी करूंगी।
5. पयोधरी : - [ पय+असुन्+ धर्+ णिच् ] दूध देने वाली गाय ।
पयोधरीभूत चतुः समुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम् । 2/3
मानो साक्षात् पृथ्वी ने ही गौ का रूप धारण कर लिया हो और जिसके चारों थन ही पृथ्वी के चार समुद्र हों ।
ध्वनि
1. ध्वनि :- [ध्वन्+इ] शब्द ।
श्रोत्राभिराम ध्वनिना रथेन स धर्म पत्नी सहितः सहिष्णुः । 2 / 72 सहनशील राजा दिलीप अपनी धर्मपत्नी के साथ जिस रथ पर चढ़कर अयोध्या को चले, उसकी ध्वनि कानों को बड़ी मीठी लग रही थी।
भूर्जेषु मर्मरीभूताः कीचक ध्वनि हेतकः । 4/73
वहाँ भोजपत्रों में मर्मर करता हुआ, कीचक नाम के बाँसों के छेदों में घुसकर बाँसुरी भी बजाता हुआ ।
For Private And Personal Use Only
आस्फालितं यत्प्रमदाकराग्रैर्मृदंगधीर ध्वनिमन्वगच्छत् । 16/13
नगर की जिन बावलियों का जल पहले जलक्रीड़ा करने वाली सुंदरियों के हाथ थपेड़ों से मृदंग के समान गंभीर शब्द करता था ।
2. शब्द : - [ शब्द +घञ् ] शब्द,
ध्वनि । प्रतापोऽग्रे ततः शब्दः परागस्तदनन्तरम् । 4 / 30
इस प्रकार आगे-आगे प्रताप चलता था, पीछे उनकी सेना का कोलाहल सुनाई पड़ता था ।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
न
नंदिनी
1. नंदिनी : - [ नन्द + णिनि, नन्द + णिच् + णिनि वा] पुत्री, कामधेनु ।
अनिन्द्या नंदिनी नाम धेनुराववृते वनात् । 1 /82
इधर वशिष्ठजी यह कह ही रहे थे कि नंदिनी गाय वन से लौटकर आ पहुँची । स नंदिनीस्तन्यमनिंदितात्मा सवत्सलो वत्सहुतावशेषम् । 2/69
जब बछड़ा दूध पी चुका और हवन भी हो चुका, तब सज्जनों के प्यारे राजा दिलीप ने वशिष्ठ जी की आज्ञा से नंदिनी का दूध ऐसे पी लिया ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वशिष्ठ धेनुश्च यदृच्छयागता श्रुतप्रभावा ददृक्षेऽथ नंदिनी । 3/40 ठीक उसी समय वहाँ वशिष्ठ ऋषि की प्रभावशालिनी गौ नंदिनी घूमती-घूमती चली आई |
151
2. सुरभि सुता :- [ सु+रभ्+इन्+सुता ] कामधेनु, नंदिनी, 'सुरभि' नामक गाय की पुत्री ।
सुतां तदीयां सुरभेः कृत्वा प्रतिनिधिं शुचिः । 1 /81
तुम उनकी पुत्री नंदिनी को ही उनका प्रतिनिधि समझ लो और शुद्ध मन से उसकी सेवा करो ।
3. सौरभेयी : - [ सौरभ + ङीप्, सौरभेय + ङीप् ] गाय, 'सुरभि' नामक गाय की पुत्री, कामधेनु ।
निवर्त्य राजा दयितां दयालुस्तां सौरभेयीं सुरभिर्यशोभिः | 2/3
दयालु राजा दिलीप ने आश्रम के द्वार से ही रानी को लौटा दिया और स्वयं उस नंदिनी की रक्षा करने लगे ।
2. पुर : - [पृ+क] नगर, शहर ।
नगर
1. नगर :- [ नग इव प्रासादः सन्त्यत्र] कस्बा, शहर ।
तं तस्थिवासं नगरोपकंठे तदागमारूढ गुरुपहर्षः 1 5/61
वे बड़े प्रसन्न हुए और नगर के बाहर अज के पड़ाव में जाकर उनका स्वागत किया ।
अथाथर्वनिधेस्तस्रू विजितारि पुरः पुरः । 1 /59
For Private And Personal Use Only
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
152
कालिदास पर्याय कोश
राजा दिलीप ने जहाँ अपरी वीरता से शत्रुओं के नगर जीते थे, उन्होंने अथर्ववेद के रक्षक वशिष्ठजी के उत्तर में ।
नदी
1. कुल्या :- [ कुल्+ यत्+टाप् ] छोटी नदी, नहर, सरिता ।
रणक्षितिः शोणितमद्यकुल्यारराज मृत्योरिव पान भूमिः । 7/49
वह युद्ध क्षेत्र मृत्यु देव के उस मदिरालय सा जान पड़ रहा था, जिसमें बहता हुआ रक्त ही मानो मदिरा हो ।
2. नदी : - [ नद्+ ङीप ] दरिया, प्रवहणी, सरिता ।
नदीमिवान्तः सलिलां सरस्वतीं नृपः ससत्वां महिषीममन्यत । 3/9 राजा दिलीप गर्भिणी रानी सुदक्षिणा को भीतर जल बहाने वाली सरस्वती नदी के समान महत्वशाली समझते थे।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
लिपेर्यथावद् ग्रहणेन वांग्मयं नदीमुखेन समुद्रमाविशत् । 3/28
पहले वर्णमाला लिखना पढ़ना सीखा और फिर साहित्य का अध्ययन प्रारंभ कर दिया, मानो नदी के मुहाने से होकर समुद्र में पैठ गए हों।
मरुपृष्ठान्युदम्भांसि नाव्याः सुप्रतरा नदीः । 4/31
मरुभूमि में भी जल की धाराएँ बहने लगीं, गहरी नदियों पर पुल बँध गए। श्रमफेनमुचा तपस्विगाढां तमसां प्राप नदीं तुरंगमेण । 9/72 थकावट के कारण उनका घोड़ा मुँह से झाग फेंकने लगा, उसी पर चढ़े हुए वे तमसा नदी के उस तट पर निकल गए, जहाँ बहुत से तपस्वियों के आश्रम बने हुए थे ।
चिल्किशुर्भृशतया वरूथिनीमुत्तटा इव नदीरयाः स्थलीम् । 11/58 जैसे बढ़ी हुई नदी की धारा आसपास की भूमि को उखाड़ देती है। खातमूलमनिलो नदीरयैः पातयत्यपि मृदुस्तटदुमम् । 11/76
जिस वृक्ष की जड़ें नदी की प्रचंड धारा ने पहले ही खोखली कर दी हों, उसे वायु के तनिक झोंके में ही ढह जाने में क्या देर लगती है।
रजांसि समरोत्थानि तच्छोणित नदीष्विव । 12/82
मानो राक्षसों के रक्त की नदी में रणक्षेत्र से उठी हुई धूल पड़ रही हो । ससत्त्वमादाय नदीमुखाम्भः समीलयन्तो विवृतानन त्वात् । 13/10
For Private And Personal Use Only
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
153
रघुवंश
ये बड़े-बड़े मगरमच्छ अपना मुँह खोलकर मछलियों के लिए दिए गए समुद्र का जल पी जाते हैं और फिर मुँह बंद करके। ततः समाज्ञापयदाशु सर्वानानायिनस्तद्विचये नदीष्णान्। 16/45 तब उन्होंने सब धीवरों को नदी जल में आभूषण ढूढंने की आज्ञा दी। प्रजास्तद्गुरुणा नद्यो नभसेव विवर्धिताः। 17/41 उनके पिता के समय जो प्रजा सावन की नदी के समान भरी पूरी थी। वृद्धौ नदी मुखेनैव प्रस्थानं लवणाम्भसः। 17/54
ज्वार के समय जब समुद्र बढ़ता है, तब नदियों के मार्ग से ही बढ़ता है। 3. सरिता :-[सृ+इति] नदी।
मदोदग्राः ककुद्मन्तः सरितां कूलमुदुजाः। 4/22 कहीं ऊँचे-ऊँचे कंधोंवाले मतवाले साँड़ नदियों के कगार ढाते हुए। सरितः कुर्वती गाधाः पथश्चाश्यान कर्दमान्। 4/24 शरद् के आते ही नदियों का पानी उतर गया और मार्ग का कीचड़ भी सूख गया। निधौतदानामल गंडभित्तिर्वन्यः सरितो गज उन्ममज्ज। 5/43 एक जंगली हाथी नर्मदा नदी के जल में से निकला, जल में स्नान के कारण उसके माथे के दोनों ओर का मद धुल गया था। पूर्वं तदुत्पीडितवारिराशिः सरित्प्रवाहस्तटमुत्ससर्प। 5/46 इससे नदी के जल में जो लहरें उठी थीं, वे उससे भी पहले नदी तट पर पहुँच चुकी थीं। तेनावरोध प्रमदा सखेन विगाह मानेन सरिद्वरां ताम्। 16/71
स्त्रियों के साथ सरयूनदी में जलक्रीड़ा करते समय कुश ऐसे लगते थे। 4. सलिला :-नदी।
नदीभिवान्तः सलिलां सरस्वतीं नृपः ससत्वां महिषीममन्यत। 3/9 राजा दिलीप गर्भिणी रानी को भीतर ही भीतर जल बहाने वाली सरस्वती नदी
के समान महत्त्वशाली समझते थे। 5. स्रवन्ती :-[स्रवत्+ङीप्] नदी, दरिया, सरिता।
वापीष्विव स्रवन्तीषु वनेषूपवनेष्विव। 17/64 नदियाँ उनके लिए बाबलियों जैसी घरेलू, वन भी उद्यान जैसे सुखकर हो गए।
For Private And Personal Use Only
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
154
कालिदास पर्याय कोश 6. स्रोतोवहा :-[स्रुतसि+वहा] नदी।
महीधरं मार्गवशादुपेतं स्रोतोवहा सागर गामिनीव। 6/52 जैसे समुद्र की ओर बढ़ती हुई नदी बीच में पड़ते हुए पहाड़ को छोड़ जाती है।
नभ 1. अंबर :-[अम्बः शब्दं तं राति धत्ते इति-अम्ब+रा+क] आकाश, वायुमंडल,
अंतरिक्ष। रक्षसां बलमपश्यदम्बरे गृधपक्षपवनेरित ध्वजम्। 11/26 आकश की ओर देखा कि गिद्ध के पंख के समान हिलती हुई ध्वजाओं वाली राक्षसों की सेना डटी खड़ी है। अंकुशाकारयाङ्गल्या तावतर्जय दम्बरे। 12/41 नकटी बूची होकर वह आकाश में उड़ी और अंकुश जैसी उँगलियाँ चमका
चमकाकर। 2. अभ्र :-[अभ्र+अच् या अप्+भृ अपो बिभर्ति-भ+क] वायुमंडल, आकाश।
आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्या प्रसादमभ्रंलिहमारुरोह। 14/29 सुन्दर अयोध्या की छटा निहारने के लिए आकाश से बातें करने वाले अपने ऊँचे
राजभवन की छत पर जा चढ़े। 3. आकाश :-[आ+का+घञ्] आकाश, आसमान, अन्तरिक्ष ।
वशिष्ठमंत्रोक्षण जात्प्रभावादुदन्त दाकाश महीधरेषु। 5/27 वशिष्ठजी के मन्त्रों से पवित्र किया हुआ रघु का रथ समुद्र, आकाश और पर्वत कहीं भी आ-जा सकता था। छाया पथेनेव शरत्प्रसन्नमाकाशमाविष्कृत चारुतारम्। 13/2 जैसे सुंदर तारों से भरे हुए शरद् ऋतु के खुले आकश को आकाशगंगा दो भागों में बाँट देती है। आकाश वायुर्दिन यौवनोत्थानाचा मति स्वेदलवान्मुखे ते। 13/20 आकाश का वायु तुम्हारे मुख पर दोपहर की गर्मी से छाई हुई पसीने की बूंदों को पीता चलता है। ख :-[खर्व+ड] आकाश। प्रत्युवजन्तीव खमुत्पतन्त्यो गोदावरी सारस पंक्तयस्त्वाम्। 13/33
For Private And Personal Use Only
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
155 गोदावरी नदी के सारसों की पाँते ऊपर उड़ती चली आ रही हैं, मानो ये तुम्हारी आगवानी करने आ रही हों। गगन :-[गच्छन्त्यस्मिन्-गम्+ल्युट्, ग आदेशः] आकाश, अन्तरिक्ष । अवोचदेनं गगनस्पृशा रघुः स्वरेण धीरेण निवर्तयन्निव। 3/43 रघु ने आँख गड़ाकर आकाश में देखा और समझ लिया कि ये इन्द्र ही हैं; ऊँचे गंभीर स्वर में इस प्रकार इन्द्र से बोले। गगनमश्वखुरोद्धतरेणुभिसविता स वितानमिवकरोत्। 9/50 तब उनके घोड़ों की टापों से इतनी धूल उठी कि आकाश में चंदोवा सा तन गया। हेमपक्षप्रभाजालं गगने च वितन्वता। 10/61
अपने सोने के पंखों से प्रकाश फैलाता हमें आकाश में उड़ाकर ले जा रहा है। 6. ज्योतिपथ :-आकाश, आसमान। ज्योतिष्पथादवततार सविस्मयाभिरुद्वीक्षितं प्रकृतिभिर्भरतानुगामिः ।
___13/68 वह विमान आकाश से नीचे उतर आया और भरतजी के पीछे चलने वाली सारी
जनता आँख फाड़-फाड़कर उन्हें देखने लगी। 7. द्यौ :-[द्युत् डो] स्वर्ग, आकाश।
अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः। 2/75 जैसे अत्रि ऋषि के नेत्र से निकली हुई चंद्रमा रूपी ज्योति को आकाश ने धारण किया। द्यावापृथिव्योः प्रत्यग्रमहर्पतिरिवातपम्। 10/54
जैसे सूर्य अपनी नई धूप पृथ्वी और आकश दोनों में बाँट देता है। 8. दिव :-[दीव्यन्त्यत्र दिव्+बा आधारे डिवि-तारा०] स्वर्ग, आकाश।
कैलासनाथोद्वहनाय भूयः पुष्पं दिवः पुष्पकमन्वमस्त। 14/2 तब राम ने उस स्वर्ग के फूल के समान पुष्पक विमान को भी कुबेर के पास
जाने की आज्ञा दी। १. नभ :-[नभ्+अच्] आकाश, अंतरिक्ष।
हिरण्मयीं कोषगृहस्य मध्ये वृष्टिं शशंसुः पतितांनभस्तः। 5/29 राजकोश में बहत देर तक आकाश से सोने की वर्षा होती रही है।
For Private And Personal Use Only
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
156
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
नभसा निभृतेन्दुना तुलामुदितार्केण समारुरोह तत् । 8/15
उस समय सूर्य वंश उस आकाश के समान लग रहा था, जिसमें एक ओर चंद्रमा छिप रहे हों और दूसरी ओर सूर्य निकल रहे हों ।
अथ नभस्य इव त्रिदशायुधं कनकपिंगतडिद्गुण संयुतम् । 9/54
उस समय वे उस भादों महीने के आकाश के समान लग रहे थे, जिसमें इंद्र धनुष निकला हुआ हो और जिसमें सोने के रंग की पीली बिजली की डोरी बंधी हो ।
अयत्नवालव्यजनीबभूर्वर्हंसा नभोलंघनलोल पक्षाः । 16/33
उस समय आकाश में जो चंचल पंखों वाले हंस उड़ते थे, वे कुश पर ढलते हुए चंवर के समान लग रहे थे ।
ख्यातं नभः शब्दं येन नाम्ना कान्तं नमोमासमिव प्रजानाम् । 18/6 उन्हें आकाश के समान साँवला नभ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो लोगों को सावन के महीने के समान प्यारा था ।
For Private And Personal Use Only
नवेन्दुना तन्नभसोपमेयं शावैक सिंहेन च काननेन । 18/37 जैसे द्वितीया चंद्रमा से आकाश, सिंह के बच्चे से वन शोभा देता है । 10. व्योम :- [ व्ये+मनिन्, पषो०] आकाश, अंतरिक्ष ।
भुवस्तलमिव व्योम कुर्वन्व्योमेव भूतलम् | 4 / 29
पृथ्वी को आकाश जैसा और आकाश को पृथ्वी जैसा बना दिया। स्फुरत्प्रभा मंडलमध्यवर्ति कान्तं वपुर्व्योम चरं प्रपेदे | 5/51 देवताओं के समान सुंदर और तेजपूर्ण शरीर लेकर खड़ा हो गया । तद्व्योम्नि शतधा भिन्नं ददृशे दीप्तिमन्मुखम् । 12 / 98
वह ब्रह्मास्त्र आकश में जाते ही दस भागों में फट गया और उसमें से जो आग निकली, वह ऐसी थी ।
व्योम पश्चिम कला स्थितेन्दु वा पंक शेष मिव धर्म पल्लवम् | 19 / 51 जैसे एक कला भर बचा हुआ कृष्णपक्षी की चतुर्दशी का आकाश का चंद्रमा हो या कीचड़ भर बचा हुआ गर्मी के दिनों का ताल हो ।
नवपल्लव
1. किसलय-[किञ्चित शलति किम्+शल्+क (कयन्) वा० पृषो० साधु० ]
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
157
2.
पल्लव, कोमल अंकुर। किसलयप्रसवोऽपि विलासितना मदयिता दयिताश्रवणार्पितः। 9/28 कामियों को मतवाला बनाने वाले जो कोमल पत्तों के गुच्छे स्त्रियों ने अपने कानों पर रख लिये थे। उन्हें देखकर भी मन हाथ से निकल जाता था। नवपल्लव-[नु+अप+पल्लव] पल्ल्व, कोमल अंकुर। नवपल्लवसंस्तरेऽपि ते मृदु दूयते यदंगमर्पितम्। 8/57 कोमल पल्लवों का बिछौना भी जिसके शरीर में चुभता था। कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पद कोकिल कूजितम्। 9/26 पहले फूल खिले, फिर नई कोंपलें फूटी, फिर भौरे गूंजने लगे और तब कोयल की कूक भी सुनाई पड़ने लगी।
नाथ
1. नाथ-[नाथ्+अच्] प्रभु, स्वामी, रक्षक, पति।
त्रिलोकनाथेन सदो मखद्विषस्त्वया नियम्या ननु दिव्य चक्षुषा। 3/45 संसार में जो कोई भी यज्ञ में विघ्न डाले उसे आप स्वयं दण्ड दें, क्योंकि आप तो तीनों लोकों के स्वामी हैं। सर्वत्र नो वार्तमवेहि राजन्नाथे कुतस्त्वय्यशुभं प्रजानाम्। 5/13 हे राजन्! आपके राज्य में हमें सब प्रकार का सुख है। आपके राजा रहने पर प्रजा में दुःख का नाम भी नहीं है। अथोरगाख्यस्य पुरस्य नाथं दौवारिकी देवसरूपमेत्य। 6/59 उसे देवता के समान मनोहर नागपुर के राजा के पास ले जाकर बोली। ते प्रजानां प्रजानाथास्तेजसा प्रश्रयेण च। 10/83
उन प्रजा के स्वामी राजकुमारों ने अपने तेज और नम्र व्यवहार से। 2. पति-[पाति रक्षति-पा+इति] स्वामी, प्रभु, मालिक, भर्ता ।
असौ महेन्द्राद्रिसमानसारः पतिर्महेन्द्रस्य महादधेश्च। 6/54 ये महेन्द्र पर्वत के समान शक्तिशाली हैं और महेन्द्र पर्वत और समुद्र दोनों पर इनका अधिकार है। अस्मिन्द्वये रूपविधान यत्नः पत्युः प्रजानां वितथोऽभविष्यत्। 7/14 इन दोनों को सुन्दर बनाने का ब्रह्मा जी का सब परिश्रम व्यर्थ ही जाता।
For Private And Personal Use Only
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
158
कालिदास पर्याय कोश
पति रवनिपतीनां तैश्चकाशे चतुर्भिः। 10/86
राजाओं के स्वामी दशरथ भी अपने चार पुत्रों से सुशोभित हुए। 3. भर्ता-[भृ+तृच्] पति, प्रभु, स्वामी।
भर्तापि तावत्क्रथकैशिकानामनुष्ठितानन्तरजा विवाहः। 7/32 छोटी बहिन का विवाह करके विदर्भराज ने भी सामर्थ्य के अनुसार धन देकर। स्वभर्तृनाम ग्रहणाद् बभूव सान्द्रे रजस्यात्मपरावबोधः। 7/41 अपना पराया तब समझते थे, जब दोनों ओर के सैनिक अपने-अपने राजाओं का नाम ले-लेकर। इतस्ततश्च वैदेही मन्वेष्टं भर्तृचोदिताः। 11/59 विरही राम का मन सीताजी की खोज में इधर-उधर भटकता था।
नितम्ब
1. कट :-[कट+इन, कटि+ङीप् वा] कमर, नितंब।
मार्गेषिणी सा कटकान्तरेषु वैन्थ्येषु सेना बहुधा विभिन्ना। 16/31 मार्ग भूल जाने के कारण वह सेना विंध्याचल के आस-पास मार्ग ढूँढ़ने लगे।
और कई भागों में बँट गई। 2. नितम्ब :-[निभृतं तम्यते कामुकैः, तमु कांक्षायाम्] चूतड़, श्रोणिप्रदेश, कूल्हा।
नितम्बमिव मेदिन्या स्रस्तांशु कमलंघयत्। 4/52 मानो वह पृथ्वी का नितम्ब हो और जिस पर से कपड़ा हट गया हो। प्रियानितम्बोचितसंनिवेशैर्विपाटयामास युवा नखाग्रैः। 6/17 एक दूसरा राजा था, जिसके नख मानो प्रिया के नितम्बों पर चिह्न बनाने के लिए ही बने थे। उदद्दण्डपमं गृह दीर्घिकाणां नारीनितम्बद्वयसं बभूव। 16/46 उनमें कमल की डंडियाँ दिखाई देने लगी और पानी घटकर स्त्रियों की कमर तक रह गया। संदष्टवस्त्रेष्वबला नितम्बेष्विन्दुप्रकाशान्तरितोडुतुल्याः। 16/65 इन रानियों ने अपने नितम्बों पर श्वेत वस्त्र लपेट लिया है, जिसके नीचे तगड़ी के धुंघरू चाँदनी से ढके हुए तीर के समान दिखते हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
159
निदाध 1. ग्रीष्म :-[ग्रसते रसान्-ग्रस्+मनिन्] गरम, उष्ण, गर्मी का मौसम।
विहर्तुमिच्छा वनितासखस्य तस्याम्भसि ग्रीष्म सुखे बभूव। 16/54 एक दिन कुश की इच्छा हुई कि गर्मी में सुख देने वाले सरयू के जल में अपनी
रानियों के साथ विहार करें। 2. धर्म :-[घरति अङ्गात्-घृ+मक नि० गुणः] ताप, गर्मी, गर्मी की ऋतु, निदाध।
निःश्वास हाशिक मा जगाम घर्मः प्रियावेषमिवोपदेष्टम्। 16/43 इतने में ग्रीष्म ऋतु आई, जिसने अपनी उस प्रिया का स्मरण करा दिया, जो साँस
से उड़ने वाले महीन कपड़े पहने हुए हो। 3. निदाध :-[नितरां दध्यते अत्र-नि+दह+घङ] ताप, गर्मी, धूम, ग्रीष्म ऋतु।
अभिपेदे निदाधार्ता व्यालीव मलय दुमम्। 12/32 जैसे धूप से घबराकर कोई नागिन चंदन के पेड़ के पास पहुंच गई हो। संबजता कामिजनेषु दोषाः सर्वे निदाधावधिना प्रमृष्टाः। 16/52 ग्रीष्म ऋतु ने कामी पुरुषों की सब कमी पूरी कर दी।
निद्रा 1. निद्रा :-[निन्द्र क+टाप, नलोपः] सुप्तावस्था , नींद। शय्यां जहत्युभय पक्ष विनीत निद्राः स्तम्बरमा मुखरशृंखलकर्षिणस्ते।
5/72 तुम्हारी सेना के हाथी, दोनों ओर करवटें बदलकर खनखनाती हुई साँकल को खींचते हुए नींद से उठ खड़े हुए हैं। इति विरचितवाग्भिर्बन्दिपुत्रैः कुमारः सपदि विगत निद्रस्तल्पमुज्झांचकार।
5/75 वैसे ही चारणों की सुरचित वाणी सुनकर राजकुमार अज की नींद खुल गई और
वे उठ बैठे। 2. संवेश :-[सम्+विश्+घञ्] निद्रा, विश्राम।
अथ प्रदोषे दोषज्ञः संवेशाय विशां पतिम्। 1/93 रात हो चली थी, राजा दिलीप को सोने की आज्ञा दी।
For Private And Personal Use Only
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
160
www. kobatirth.org
सकता था।
2. विनेता : - शिक्षक, चालक,
नियंतु
1. नियंतु :- [ नि+यम्+ तृच् ] सारथि, राज्यपाल, शासक, स्वामी, चालक ।
ते व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुर्नेमिवृत्तयः । 1/17
राजा दिलीप ने ऐसे अच्छे ढंग से प्रजा की देखभाल की थी कि प्रजा का कोई भी व्यक्ति मनु के बताए हुए नियमों से बहककर चलने का साहस नहीं कर
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
सारथि ।
ये को नु विनेता वां कस्य चेदं कृतिः कवेः । 15 / 69
तुम्हें किसने संगीत सिखाया है, यह किस कवि की रचना है।
निशीथ
1. अनर्थी :- अर्थहीन, उदासीन ।
1. अर्धरात्रि : - [ ऋध्+ णिच् + अच्+रात्र : ] आधी रात ।
एक दिन आधी रात को जब शयन गृह का दीपक टिमटिमा रहा था, लोग सोए हुए थे ।
2. निशीथ : - [ निशेरते जना अस्मिन् -निशी अधारे थक - तारा०] आधीरात, रात । निशीथदीपाः सहसा हतत्विषो बभूवुरालेख्यसमर्पिता इव । 3/15
आधी रात के समय घर में रक्खे हुए दीपों का प्रकाश भी एक दम फीका पड़ गया, वे ऐसे जान पड़े मानो चित्र में बने हुए हों ।
निस्पृह
For Private And Personal Use Only
अमेयो मितलोकस्त्वमनर्थी प्रार्थनावहः । 10/18
आप कितने बड़े हैं, यह तो कोई नहीं माप सकता, पर आपने सब लोक माप हैं। आपकी स्वयं कोई इच्छा नहीं है, पर आप सब की इच्छाएँ पूरी करते
हैं।
2. निर्मम : - [ नृ + क्विप्, इत्वम्+ मन्यु] संयमी, उदासीन, विरक्त । निर्ममे निर्ममोऽर्थेषु मधुरां मधुराकृतिः । 15/28 तब पराक्रमी, संयमी और सुंदर शत्रुघ्नने ।
3. निर्व्यपेक्षा : - [ नृ + क्विप्, इत्वम्+ व्यपेक्ष ] उदासीन, निरपेक्ष ।
और सब
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
161
रघुवंश
मृग्यश्च दर्भाकुर निर्व्यपेक्षास्तवा गतिज्ञं समबोधयन्माम्। 13/25
हरिणियों ने भी जब देखा कि मुझे तुम्हारे जाने के मार्ग का पता नहीं है। 4. निस्पृह :-[निस्+क्विप्+स्पृह] कामना शून्य, उदासीन।
विषयेषु विनाशधर्मसु त्रिदिवस्थेष्वपि निःस्पृहोऽभवत्। 8/10 स्वर्ग के उन सुखों की चाह भी उन्होंने छोड़ दी, जो कभी न कभी नाश हो ही जाते हैं। सौधवासुमुटजेन विस्मृतः संचिकाय फलनिःस्पृहस्तपः। 19/2 कुटिया के आगे बड़े-बड़े महलों को भूल गए और फल की इच्छा छोड़कर तप
करने लगे। 5. वीतस्पृह :-[वि+इ+क्त+स्पृह] शान्त, उदासीन, इच्छारहित, निरपेक्ष।
नृपतेः प्रीतिदानेषु वीतस्पृहतया यथा। 15/68 जितना इस बात पर हुआ राजा ने उन्हें प्रेम से जो दान दिया, वह भी उन्होंने लौटा दिया।
नूपुर 1. किंकिण :-[किंचित् कणति कण+इन्+ङीप्] धुंघरूदार आभूषण।
अमूर्विमानान्तरलम्बिनीनां श्रुत्वा स्वनं कांचन किंकिणीनाम्। 13/33
विमान के नीचे लटकती हुई सोने की किंकिणियों का शब्द सुनकर। 2. नूपुर :-[नू+क्विप्= नु+पुर्+क] पाजेब, पैरों का आभूषण।
सैषा स्थली यत्र विचिन्वता त्वां भ्रष्टं मया नूपुरमेकमुळम्। 13/23 यह वही स्थान है, जहाँ तुम्हें ढूँढ़ते हुए मैंने पृथ्वी पर पड़ा हुआ तुम्हारा बिछुआ देखा था। सनूपुरक्षोभपदाभिरासीदुद्विग्नहंसा सरिदंगनाभिः। 16/56 जब कुश की रानियाँ सीढियों से पानी में उतरने लगी, उस समय पैर के बिछुए बजने लगे और इन शब्दों को सुन-सुनकर सरयू के हंस मचल उठे।
नेत्र
1. अक्षि :-[अश्नुते विषयान्-अस्+क्सि] आँख।
परस्पराक्षिसादृश्य मयूरोज्झितवर्त्मसु। 1/40
For Private And Personal Use Only
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
162
कालिदास पर्याय कोश उनकी सरल चितवन को राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा ने एक दूसरे के नेत्रों के समान समझा। विलोकयन्त्यो वपुरापुरक्ष्णां प्रकामविस्तार फलं हरिण्यः। 2/11 हरिणियाँ राजा दिलीप के सुंदर शरीर को देखती रह गईं, मानो नेत्रों के बड़े होने का उन्हें सच्चा फल प्राप्त हो गया है। धेन्वा तदध्यासितकातराक्ष्या निरीक्ष्यमाणः सुतरां दयालुः। 2/52 गाय कातर नेत्रों से रक्षा की भीख माँग रही है, दयालु राजा दिलीप का जी भर आया और बोले। दीर्घष्वमी नियमिताः परमण्डपेषु निद्रां विहाय वनजाक्ष वनायुदेश्याः।
5/73
हे कमल के समान नेत्र वाले। बड़े-बड़े पट मंडपों से बँधे हुए तुम्हारे वनायु देश के घोड़े नींद छोड़कर। अथ विधिमवसाय्य शास्त्रदृष्टिं दिवसमुखो चितमं चिताक्षिपक्ष्मा। 5/76 सुन्दर पलकों वाले अज ने उठकर शास्त्र से बताई हुई प्रातः काल की सब उचित क्रियाएँ की। इतश्चकोराक्षि विलोकयेति पूर्वानुशिष्यं निजगाद भोज्याम्। 6/59 तब सुनंदा राजा के पास ले जाकर बोली-अरी चकोर जैसे नेत्र वाली! इधर तो देख। मदिराक्षि मदाननार्पितं मधु पीत्वा रसबत्कथं नु मे। 8/68 हे मद भरे नयनों वाली। तुमने मेरे मुँह से छूटे हुए स्वादिष्ट आसव को पीया है। प्रबुद्ध पुंडरीकाक्षं बालातपनि भांशुकम्। 10/9 खिले हुए कमल जैसी आँखो वाले, प्रातः काल की धूप के समान सुनहले वस्त्र पहने। जुगृह तस्याः पथि लक्ष्मणो यत्सव्येतरेण स्फुरता तदक्ष्णा। 14/49 लक्ष्मण ने सीताजी से मार्ग में कुछ नही बताया, पर सीताजी के दाहिने नेत्र ने फड़ककर। अथ धूमाभ्रिताम्राक्षं वृक्ष शाखावलम्बिनम्। 15/49 उन्होंने देखा कि एक पेड़ की शाखा पर उलटा लटका एक मनुष्य तप कर रहा . है, उसकी आँखें धुआँ लगने से लाल हो गई हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
जनताप्रेक्ष्य सादृश्यं नाक्षिकम्पं व्यतिष्ठत । 15/67
लोगों ने एकटक होकर राम और उन दोनों बालकों का एकदम मिलता जुलता वह रूप देखा ।
वर्णोदकैः काञ्चनशृंग मुक्तैस्तमायताक्ष्यः प्रणयादसिंचन् । 16/70 वे स्त्रियाँ सोने के पिचकारियों से रंग छोड़-छोड़ कर उन्हें भिगोने लगीं। 2. चक्षु :- [ चक्ष् + उसि ] आँख ।
अर्हणामर्हते चक्रुर्मुनयो नयचक्षुषे । 1/55
जब यह समाचार आश्रमवासियों को मिला तो सभ्य, संयमी मुनियों ने अपने रक्षक आदरणीय तथा नीति के अनुसार चलने वाले राजा । निवातपद्यस्तिमितेन चक्षुषा नृपस्य कान्तं पिबतः सुताननम् । 3/17
तत्काल भीतर गए और जैसे वायु के रूक जाने पर कमल निश्चल हो जाता है, वैसे ही वे एकटक होकर अपने पुत्र का मुँह देखने लगे। त्रिलोकनाथेन सदा मखद्विषस्त्वया नियम्या ननु दिव्यचक्षुषा । 3/45 आपको तो यह चाहिए कि संसार में जो कोई भी यज्ञ में विघ्न डाले, उसे आप स्वयं दंड दें, क्योंकि आप तो तीनों लोकों के स्वामी हैं।
चक्षुष्मतातु शास्त्रेण सूक्ष्मकार्यार्थ दर्शिना । 4/13
उन्हें अधिक भरोसा अपने उस शास्त्र - चक्षु पर था, जिससे वे सूक्ष्म से सूक्ष्म बात को भी अधिक समझ जाते थे ।
तदा चक्षुष्मतां प्रीतिरा सीत्समरसा द्वयोः । 4/18
दोनों को देखकर दर्शकों को एक सा आनंद मिलता था ।
163
प्रस्पन्दमान परुषेतरतारमन्तश्चक्षुस्तव प्रचलित भ्रमरं च पद्मम् । 5/68 इस समय तुम्हारी बंद आँखों में पुतलियाँ घूम रही हैं और तालों में कमलों के भीतर भरे गूँज रहे हैं।
अथांगराजादवतार्य चक्षुर्याहीति जन्यामवदत्कुमारी । 6 / 30
इन्दुमती ने उस अंग देश के राजा पर से आँखें हटाईं और सुनंदा से कहा आगे चलो ।
तथाहि शेषेन्द्रियवृत्ति रासां सर्वात्मना चक्षुरिव प्रविष्टा । 7/12 मानो उनकी सब इन्द्रियों की शक्ति उनकी आँखों में आ बसी हो । काषायपरिवीतेन स्वपदार्पित चक्षुषा । 15/77
For Private And Personal Use Only
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
164
कालिदास पर्याय कोश गेरुए वस्त्र पहने और अपनी आँखें नीची किए। जनास्तदालोकपथात्प्रति संहृत चक्षुषः। 15/7
उन्हें देखते ही सब लोगों ने उसी प्रकार अपनी आँखें नीची कर ली। 3. दृष्टि :- (स्त्री०) [दृश्+क्तिन्] आँख, देखने की शक्ति, नज़र।
मृगद्वन्द्वेषु पश्यन्तौ स्यन्दनाबद्धदृष्टिषु। 1/40 हरिणों के जोड़े मार्ग से कुछ हटकर रथ की ओर एक टक देख रहे हैं। सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टेः कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्त्रा। 5/13
जैसे सूर्य के रहते हुए संसार में अंधेरा कैसे ठहर सकता है। 4. नयन :-[नी ल्युट्] आँख।
अथ नयनंसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः। 2/75 जैसे अत्रि ऋषि के नेत्र से निकली हुई चंद्रमा रूपी ज्योति को आकाश ने धारण किया। निद्रा चिरेण नयना भिमुखी बभूव। 5/64 रघु की आँखों में रात को बहुत बिलंब से नींद आई। ददृशुर ध्वनि तं वनदेवताः सुनयनं नयनंदित कोशलम्। 9/52 उन सुन्दर नेत्र वाले और कौशल की प्रजा को सदा सुख पहुँचाने वाले राजा दशरथ को देखने वनदेवता भी पहुंच गए। त्रासाति मात्र चटुलैः स्मरयत्सु नेत्रैः प्रौढप्रिया नयनविभ्रमचेष्टितानि।9/58 उन हरिणों की डरी हुई आँखों को देखकर उन्हें अपनी युवती प्रियतमा के चंचल नेत्रों का स्मरण हो आया। यः प्रभृज्य नयनानि सैनिकैर्लक्षणी य पुरुषाकृतिश्चिरात्। 11/63 जब उन्होंने आँखें मलकर देखा, तब वह प्रकाश का पुंज एक पुरुष के रूप में दिखाई देने लगा। प्रागेव मुक्ता नयना भिरामाः प्राप्येन्द्रनीलं किमुतोन्मयूखम्। 16/69 मोती तो यों ही सुन्दर होता है और फिर यदि वह इन्द्र नीलमणि के साथ गूंथ
दिया जाय, तब तो कहना ही क्या। 5. नेत्र :-[नयति नीये वा अनेन-वी+ष्ट्रन्] आँख।
नेत्रैः पपुस्तृप्तिमनाप्नुवद्भिर्नवोदयं नाथमिवौषधीनाम्। 2/73
For Private And Personal Use Only
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
165
उनकी प्रजा उन्हें ऐसा एकटक देखकर देखने लगी, जैसे लोग द्वितीया के चन्द्रमा के उदय होने पर ध्यान से देखते हैं। तयोपचारांजलिखिनहस्तया ननन्द पारिप्लवनेत्रया नृपः। 3/11 उनको प्रणाम करने के लिए जब वे हाथ जोड़ती थीं, तो हाथ ढीले हो जाते और थकावट से बार-बार आँखों में आँसू आ जाते थे। नेत्रवज्राः पौरजनस्य तस्मिन्विहाय सर्वानृपतीनिपेतुः। 6/7 वैसे सब नगरवासियों की आँखें सब राजाओं से हटकर, अज पर जा लगी थीं। तस्मिन्विधानातिशये विधातुः कन्यामये नेत्रशतैकलक्ष्ये। 6/11 वह कन्या क्या थी, ब्रह्मा की रचना की एक बहुत ही सुन्दर कला थी, जिसे सैकड़ो आँखें एकटक होकर देख रही थीं। आकुंचिताग्रांगुलिना ततोऽन्यः किंचित्समावर्जितनेत्र शोभः। 6/15 तीसरा राजा भौहें झटकाकर, पैर की उंगलियाँ मोड़कर। प्रासादवातायन संश्रितानां नेत्रोत्सवं पुष्पपुरांगनानाम्। 6/20 तब वहाँ की स्त्रियाँ झरोखों में बैठकर तुम्हें देखेंगी और तुम्हारी सुंदरता देखकर उनकी आँखों को सुख मिलेगा। विलोचनं दक्षिणमंजनेन संभाव्य तद्वंचितवामनेत्रा। 7/8 दाईं आँख में तो आँजन लगा चुकी थी, पर बाईं आँख में आँजन लगाए बिना। विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपत्राभरणा इवासन्। 7/11 मानो झरोखों में बहुत से कमल सजे हुए हों और उन पर बहुत से भौरे बैठे हुए हों क्योंकि उनके सुन्दर मुखों पर आँखें ऐसी जान पड़ती थीं, जैसे कमल पर भौरे बैठे हों। चकार सा मत्तचकोरनेत्रा लज्जावती लाजविसर्गमग्नौ।7/25 मत्त चकोर के समान आँखों वाली, लजीली इन्दुमती ने धान की खीलें छोड़ी। त्रासातिमात्र चटुलैः स्मरयत्सु नेत्रैः प्रौढप्रिया नयन विभ्रम चेष्टितानि।
9/58 उन हरिणों की डरी हुई आँखों को देखा तो उन्हें अपनी युवती प्रियतमा के चंचल नेत्रों का स्मरण हो आया। तेनाभिघातरभसस्य विकृष्य पत्री वन्यस्य नेत्रविवरे महिषस्य मुक्तः।
9/61
For Private And Personal Use Only
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
166
कालिदास पर्याय कोश एक जंगली भैंसा उनकी और झपट रहा है। उन्होंने भैंस की आँख में एक ऐसा बाण मारा कि वह भैंसे के शरीर में से इतनी फुर्ती से पार हो गया। आततज्यमकरोत्स संसदा विस्मयस्तिमितनेत्रमीक्षितः। 11/45 यह देखकर सब सभासदों को बड़ा आश्चर्य हुआ, जब राम ने वैसी ही सरलता से धनुष की डोरी चढ़ा दी। आत्मानं मुमुचे तस्मादेकनेत्र व्ययेन सः। 12/23 जब तक उसने अपनी एक आँख नहीं दे दी, तब तक उसका छुटकारा नहीं हुआ। तमश्रु नेत्रावरणं प्रमृज्य सीता विलाप द्विरता ववन्दे। 14/71 उन्हें देखकर सीताजी ने आँखों से आँसू पोंछकर व रोना बन्द कर चुपचाप उन्हें प्रणाम किया। तं प्रीतिविशदैनॆत्रैरन्वयुः पौरयोषितः। 17/35 वैसे ही नगर की स्त्रियों की प्रेम भरी आँखें अतिथि पर लटू हो गईं। अथ मधु वनितानां नेत्र निर्वेशनीयं। 18/52
वह जवानी आ गई जो स्त्रियों की आँखों की मदिरा होती है। 6. लोचन :-[लोच ल्युट्] आँख।
इति विज्ञापितो राजा ध्यानस्तिमित लोचनः। 1/73 राजा की बात सुनका वशिष्ठजी ने अपनी आँखें बन्द करके क्षण भर के लिए ध्यान लगाया। उपान्त संमीलित लोचनो नृपश्चिरात्सुत स्पर्शरसज्ञतां ययौ। 3/26 उस समय राजा आँखें बंद करके बहुत देर तक यह आनन्द लेते ही रह जाते थे। पपौ निमेषालसपक्ष्मपंक्तिरुपोषिताभ्यामिव लोचनाभ्याम्। 2/19 तब सुदक्षिणा अपलक नेत्रों से उन्हें देखती रह गई, मानो उसकी आँखें राजा दिलीप का रूप पीने की प्यासी हों। तदंग निष्यन्दजलेन लोचने प्रमृज्य पुण्येन पुरस्कृतः सताम्। 3/41 सज्जनों के सम्मानित रघु ने तत्काल नंदिनी के मूत्र को अपनी आँखों से लगाया। कामकर्णान्त विश्रांते विशाले तस्य लोचने। 4/13 यद्यपि रघु के नेत्र कानों तक फैले हुए बहुत बड़े-बड़े थे।
For Private And Personal Use Only
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
167 आवृण्वतो लोचनमार्गमाजौ रजोऽन्धकारस्य विजृम्भितस्य। 7/42 आँखों के आगे अंधेरा छा देने वाली और युद्ध भूमि में फैली हुई धूल के अंधियारे में। कुवलयित गवाक्षां लोचनैरंगनानाम्। 11/93 सुन्दर स्त्रियाँ की आँखें झरोखों में कमल के समान दिखाई पड़ रही थीं। विडंव्यमाना नवकंदलैस्ते विवाह धूमारुण लोचनश्रीः। 13/29 उससे कंदलियों की कलियाँ खिल उठी और वैसे ही लाल-लाल हो गईं जैसे विवाह के समय हवन का धुआँ लगने से तुम्हारी आँखें लाल हो गई थीं। तत्रसेक हृत लोचनांजनैधौत राग परि पाटलाधरैः। 19/10 जल में स्नान करने से उन स्त्रियों की आँखों का अंजन छूट जाता था और ओठों
पर लगी हुई लाली धुल जाती थी। 7. विलोचन :-[वि+लोच्ल्यु ट्] आँख।
विलोचनं दक्षिणमंजनेन संभाव्य तद्वंचितवामनेत्रा। 7/8 दाईं आँख में तो आँजन तो लगा चुकी थी, पर बाईं आँख में आँजन लगाए विना
ही।
ही यंत्रणामानशिरे मनोज्ञामन्योन्यलोलानि विलोचनानि। 7/23 वे कनखियों से एक दूसरे की ओर देखते थे और आँखें चार होते ही एक दूसरे को देखकर, लज्जा से आँखें नीची कर लेते थे। मन्यते स्म पिवतां विलोचनैः पक्षमपातमपि वंचनांमनः। 11/36 ऐसे मगन होकर अपनी आँखों से उनका रूप पी रहे थे, कि पलकों का गिरना भी उन्हें बड़ा अखर रहा था। व्यापारयंत्यो दिशि दक्षिणस्यामुत्पक्ष्मराजीनि विलोचनानि। 13/25 तब वे अपनी उठी हुई पलकों वाली आँखें दक्षिण दिशा की ओर करके, मुझे मार्ग समझाने लगी थीं। अथाधिक स्निग्ध विलोचनेन मुखेन सीता शरपांडुरेण। 14/26 धीरे-धीरे सीता जी के नेत्रों की शोभा बढ़ने लगी और उनका मुख पके सरपत के समान पीला पड़ने लगा। तद्वध्नतीभिर्मदराग शोभां विलोचनेषु प्रति मुक्तमाशाम्। 16/59 उसके बदले में मदपान के समय की लाली इनकी आँखों में भर दी है।
For Private And Personal Use Only
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
168
www. kobatirth.org
प
पंक
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उष्णैर्विलोचने जलैः प्रथमाभितप्तः । 19/56 महारानी की आँखों के गरम-गरम आँसुओं से तपे हुए।
कालिदास पर्याय कोश
1. आविल : - [ आविलति दृष्टिं स्तृणाति - विल्+क तारा०] पंकिल, मैला । बभुः पिवन्तः परमार्थमत्स्याः पर्याविलानीव नवोदकानि । 7/40 मानो वर्षा का गंदा पानी पीती हुई सच्ची मछलियाँ हों ।
2. कर्दम : - [ क + अम् ] कीचड़, दलदल, पंक।
सरितः कुर्वती गाधा: पथश्चाश्यानकर्दमान् । 4/24
शरद् के आते ही नदियों का पानी उतर गया और मार्ग का कीचड़ भी सूख गया । 3. पंक :- [पंच् विस्तारे कर्मणि करणे वा घञ्, कुत्वम्] दलदल, कीचड़ । तस्मिन्नभि द्योतित बन्धु पद्मे प्रताप संशोषित शत्रु पंके | 56/36
जैसे कुमुदिनी को वह सूर्य नही भाता, जो कमल को खिलाता है और कीचड़ सुखा देता है।
रेणुः प्रपेदे पथि पंकभावं पंकोऽपि रेणुत्वमियाय नेतुः । 16/30
मार्ग की धूल कीचड़ बन गई और कीचड़ भी घोड़ों की टापों से धूल बन गई । पतत्रिण
1. खग : - [ खर्व + ड+गः ] पक्षी ।
क्वचित्खगानां प्रियमानसानां कादम्बसर्गवतीव पंक्तिः । 13/55
For Private And Personal Use Only
कहीं साँवले रंग के हंसों से मिले हुए उजले रंग के राजहंसों की पाँत के समान शोभा दे रही है।
2. पक्षी : - [ पक्ष + इनि] पक्षी ।
जहार सीतां पक्षीन्द्र प्रयासक्षणविघ्नितः । 12 /53
सीताजी को चुरा कर ले गया, मार्ग में गृद्धराज जटायु उससे लड़ा भी । अयत्नवालव्यजनीबभूवुहंसा नभोलंघनलोल पक्षाः । 16/33
उस समय आकाश में जो चंचल पंखोंवाले हंस उड़ते थे, वे कुश पर ढलते हुए चँवर के समान लग रहे थे ।
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
169
रघुवंश 3. पतत्रिण :-[पतत्र+इनि] पक्षी।
शशिनं पुनरेति शर्वरी दयिता द्वन्द्वचरं पतत्त्रिणम्। 8/56 देखो चंद्रमा को रात्रि फिर मिल जाती है, चकवे को चकवी भी प्रातः मिल ही जाती है। अभिययुः सरसो मधुसंभृतां कमलिनीमलिनीरपतत्रिणः। 9/27 जैसे उनकी लक्ष्मी के आगे बहुत से मंगन हाथ फैलाया करते थे, वैसे ही वसन्त की शोभा से लदी हुई ताल की कमलिनी के आसपास भौरे और हंस भी मंडराने लगे। तो सरांसि रसवद्भिरम्बुभिः कूजितैः श्रुतिसुखैः पतत्रिणः। 11/11 सरोवरों ने उन दोनों को अपना मीठा जल पिलाकर, पक्षियों ने मधुर गीत सुनाकर। आयुर्देहातिगैः पीतं रुधिरं तु पतत्रिभिः। 12/48 बाण तो आयु पीने के लिए गए थे, उनका रक्त तो पिया पक्षियों ने। वयस :-[अज्+असुन् वी भावः] पक्षी। उदीरयामासुरिवोन्मदानामालोकशब्दं वयसां विरावैः। 2/9 मार्ग के पक्षों पर अनेक मतवाले पक्षी चहचहा रहे थे, उनके कलरव को सुनकर ऐसा जान पड़ता था। वयसां पंक्तयः पेतुर्हतस्योपरि विद्विषः। 15/25
मरे हुए शत्रु के ऊपर गिद्ध आदि पक्षी टूट पड़े। 5. विहंग :-[विहायसा गच्छति गम्+ खच्, मुम्] पक्षी।
विश्वासाय विहंगानामाल बालाम्बुपायिनाम्। 1/51 जिससे आश्रम के पक्षी उन वृक्षों के थाँवलों का जल निडर होकर पी सकें। उपान्तयोर्निष्कुषितं विहंगैरासिप्य तेभ्यः पिशतप्रियापि। 7/50 एक स्थान पर किसी के बाँह का टुकड़ा कटा पड़ा था, जिसे गिद्ध आदि पक्षियों
ने नोच रक्खा था। उसे मांस के लोभ से सियारिन खींच ले गई। 6. विहग :-[विहायसा गच्छति गम्+उ, नि०] पक्षी।
विहगाः कमलाकरालयाः समदुःखा इव तत्र चकुशुः। 8/39 उनसे डरकर तालाबों में रहने वाले पक्षी भी इस प्रकार चिल्ला उठे, मानो वे भी उनके दुःख में दुखी हों।
For Private And Personal Use Only
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
170
कालिदास पर्याय कोश अरमत मधुराणि तत्र शृण्वन्विहगविकूजितबन्दिमंगलानि। 9/71 उस समय वन के पक्षी चारणों के समान जो मंगल गीत गाते थे, उन्हें सुनकर ही
ये मगन हो जाते थे। 7. श्येन :-[श्यै+इनन्] बाज, शिकरा।
हृतान्यपि श्यान नखान कोटिव्यासक्त केशानि चिरेण पेतुः। 7/46 वे सिर पृथ्वी पर देर से गिरते थे, क्योंकि उनके लंबे-लंबे बाल बाजों के नखों में उलझने से बहुत देर तक ऊपर ही टंगे रह जाते थे।
पद्म
1. अब्ज :-[अप्सु जायते-अप्+जन्+ड] कमल।
बालातपमिवाब्जानामकालजले दोदयः। 4/61 जैसे असमय में उठे हुए बादलों से प्रात: की धूप में खिले हुए कमलों की चमक
जाती रहती है। 2. अम्बुरुह :-[अम्ब्+उण्+रुहः] कमल।
नाभिप्ररूढारुहासनेन संस्तूयमानः प्रथमेन धात्रा। 13/6 इनकी नाभि से निकले हुए कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्माजी, सदा इनके गुण
गाया करते हैं। 3. अम्भोज :-[आप् (अम्भ)+असुन्+जम्] कमल।
सैकताम्भोजबलिना जाह्नवीव शरत्कृशा। 10/69 जैसे शरदऋतु में पतली धार वाली गंगाजी के तट पर किसी का चढ़ाया हुआ
नील कमल रक्खा हुआ हो। 4. अरविन्द :-[अरान् चक्राङ्गनीव पत्राणि विन्दते :-अर+विन्द+श] कमल।
सरसीष्वरविन्दानां वीचिविक्षोभशीतलम्। 1/43 मार्ग में जो ताल पड़ते थे, उनकी लहरों की झकोरों से उड़ती हुई कमलों की ठंडी सुगंध लेते हुए वे चले जा रहे थे। रजोभिरन्तः परिवेषबन्धि लीलारविन्दं भ्रमयांचकार। 6/13 पराग के फैलने से कमल के भीतर चारों ओर एक कुंडली सी बन गई। दिवाकरादर्शनबद्धकोशे नक्षत्रनाथांशुरिवारविन्दे। 6/66 जैसे सूर्य के न दिखाई देने पर बन्द कमल के भीतर चन्द्रमाकी किरणें नहीं पहुँच पातीं।
For Private And Personal Use Only
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
171
सा दुर्निमत्तोपगताद्विषा दात्सद्यः परिम्लन मुखारविन्दा। 14/50
यह असगुन होते ही उनका मुख कमल उदास हो गया। 5. इन्दीवर :-[इंद्याः वारो वरणम् अत्र-ब० स०] नीलकमल, कमल।
इन्दीवर श्यामतनुर्नृपोऽसौ त्वं रोचना गौर शरीर यष्टिः। 6/65 फिर ये नील कमल के समान साँवले हैं और तुम गोरोचन जैसी गौरी हो। अन्यत्र माला सितपंकजानामिन्दीवरैरुत्खचितान्तरेव। 13/54 कहीं तो ये चमकने वाली इन्द्रनील मणियों से गुंथी हुई माला जैसी लगती हैं,
कहीं नीले और श्वेत कमलों की मिली हुई माला जैसी दिखाई पड़ रही हैं। 6. उत्पल :-[उत्क्रान्तः पलं मांसम्-उद्पल्+अच्] नीलकमल, कमल, कुमुद।
अगच्छदंशेन गुणाभिलाषिणी नवावतारं कमलादिवोत्पलम्। 3/36 जैसे सुन्दरता की देवी मुरझाए हुए कमल को छोड़कर नए कमल पर चढ़ जाती
है।
धारां शितां रामपरश्वधस्य संभावयत्युत्पलपत्रसाराम्। 6/42 ये परशुरामजी के उस फरसे की तेज धारा को भी कमल की पंखड़ी के समान कोमल समझते हैं, जिसने युद्ध में क्षत्रियों का संहार कर डाला था। श्यामीचकार वनमाकुल दृष्टि पातैर्वातेरितोत्पलदलप्रकरैरिवारैः। 9156 वह सारा जंगल ऐसा लगने लगा मानो वायु ने नीले कमलों की पंखड़ियाँ लाकर यहाँ बिखेर दी हों। यत्रोत्पल दलल्कैव्यमस्त्राण्यापुः सुरद्विषाम्। 12/86 जिस पर शत्रु राक्षसों के अस्त्र ऐसे लगते थे, मानो वे अस्त्र न होकर कमल के
फूल हों। 7. कमल :-[कं जलमलतिभूषयति-कम्+अल्+अच्] कमल।
अगच्छदंशेन गुणाभिलाषिणी नवावतारं कमलादिवोत्पलम्। 3/36 जैसे सुंदरता की देवी मुरझाए हुए कमल को छोड़कर नये कमल पर चढ़ जाती
नृपतिमन्यमसेवत देवता सकमला कमलाधवमर्थिषु। 9/16 दूसरा राजा ही कौन सा था, जिसके यहाँ हाथ में कमल धारण करने वाली पतिव्रता लक्ष्मी स्वयं जाकर रहतीं। करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैस्तच्छिरः कमलोच्चयम्। 10/44
For Private And Personal Use Only
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
172
कालिदास पर्याय कोश अपने तीखे बाणों से उसके सिरों को कमल के समान उतार कर रणभूमि को भेंट चढाऊँगा। नाम्भसां कमल शोभिनां तथा शाखिनां च न परिश्रमच्छिदाम्। 11/12 कमलों से भरे हुए सरोवरों तथा थकावट हरने वाले वृक्षों की छाया को देखकर
भी।
8. कुवलय :-[कोः पृथिव्याः वलयमिव-उप० स०] कमल, कमलस्थली, कुमुद। पुरमविशद्योध्या मैथिलीदर्शिनीनं कुवलयित गवाक्षां लोचनैरंगनानां।
11/93 फिर वे उस अयोध्या नगरी में पहुंचे, जहाँ सीताजी को देखने के लिए उत्सुक,
नगर की सुंदर स्त्रियों की आँखें झरोंखों में कमल के समान दिखाई पड़ रही थीं। १. कुशेशय :-[कुशे+शी+अच्, अलुक् स०] कुमुद, कमल।
पौत्रः कुशस्यपि कुशेशयाक्षः ससागरां सागरधीर चेताः। 18//14
कमल के समान नेत्र वाले, समुद्र के समान गंभीर चित्तवाले कुश के पौत्र ने भी। 10. तामरस :-[तामरे जल सस्सि-सस्+ड] लाल कमल।
सशरवृष्टिमुचा धनुषा द्विषां स्वनवता नवतामरसाननः। 9/12 वैसे ही नये कमल के समान सुन्दर मुख वाले दशरथ जी ने अपने बाण बरसाने
वाले धनुष से शत्रुओं को मारकर बिछा दिया। 11. पंकज :-[पंक+जन्+ड] कमल।
तिरश्चकार भ्रमराभिलीनयोः सुजातयोः पंकजकोशयोः श्रियम्। 3/8 उनकी शोभा के आगे कमल के जोड़े पर बैठे हुए भौरों की शोभा भी हार मान बैठीं। पार्थिवश्रीद्धितीयेव शरत्पंकजलक्षणा। 4/14 उस समय दूसरी राज्य-लक्ष्मी के समान वह शरद ऋतु आ गई थी, जिसमें चारों
ओर सुन्दर कमल खिल गए थे। निमीलितानामिव पंकजानां मध्ये स्फुरन्तं प्रतिमाशशांकम्। 7/64 मानो मुँदे हुए कमलों के बीच में चन्द्रमा चमकता हो। निशि सुप्तमिवैकपंकजं विरताभ्यन्तरषट् पदस्वनम्। 8/55 मौन भौंरों से भरे हुए और रात में मुदे अकेले कमल के जैसा लगने वाला। अन्यत्रमाला सित पंकजानामिन्दीवरैरुत्खचितान्तरेव। 13/54
For Private And Personal Use Only
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
173
कहीं नीले और श्वेत कमलों की मिली हुई माला जैसी दिखाई पड़ रही है। स तद्वक्त्रं हिमक्लिष्टकिंजल्कमिव पंकजम्। 15/52 आग की चिनगारियों से झुलसी दाढ़ीवाला उसका सिर ऐसा लगा रहा था, जैसे पाले से जली हुई केशरवाला कमलगट्टा हो। भेजिरे नवदिवाकरात पस्पृष्टपंकजतुलाधिरोहणम्। 19/8
जो प्रभात की लाल किरणों से भरे हुए कमल के समान था। 12. पद्म :-[पद्+मन्] कमल।
निवातपद्मस्तिमितेन चक्षुषा नृपस्य कान्तंपिबतः सुताननम्। 3/17 वे तत्काल भीतर गए और जैसे वायु के रुक जाने पर कमल निश्चल हो जाता है, वैसे ही एकटक होकर अपने पुत्र का मुँह देखने लगे। यवनीमुख पद्मानां सेहे मधुमदं न सः। 4/61 वैसे ही रघु के अचानक आक्रमण से मदिरा से लाल गालों वाली यवनियों के मुख-कमल मुरझा गए। प्रस्यन्दमान परुषेतर तारमन्तश्चक्षुस्तव प्रचलित भ्रमरं च पद्मम्। 5/68 इस समय तुम्हारी बंद आँखों में पुतलियाँ घूम रही हैं और तालों में कमलों के भीतर भौरे गूंज रहे हैं। तस्मिन्नभिद्योतितबन्धुप प्रतापसंशोषित शत्रु पंके। 6/36 जैसे कुमुदिनी को वह सूर्य नहीं भाता, जो कमल को खिलाता है और कीचड़ को सुखा देता है। उपसि सर इव प्रफल्लपद्मं कुमुदवनप्रतिपन्ननिद्रमासीत्। 6/86 उस समय वह मंडप प्रातः काल के उस सरोवर जैसा लगने लगा, जिसमें एक
ओर खिले हुए कमल दिखाई दे रहे हों और दूसरी ओर मुँदे कुमुदों का झुंड खड़ा हो। शापोऽप्यदृष्टतनयाननपद्मशोभे सानुग्रहो भगवतामयि पातितोऽयम्।9/80 हे मुनि! मुझे आजतक पुत्र के मुख कमल का दर्शन तक नहीं हुआ है, इसलिए मैं आपके शाप को वरदान ही समझता हूँ, क्योंकि इसी बहाने मुझे पुत्र तो प्राप्त होगा। श्रियः पद्मनिषण्णायाः क्षोमान्तरित मेखले। 10/8 उन्हीं के पास कमल पर लक्ष्मी बैठी हुई थीं, जिनकी कमर में रेशमी वस्त्र पड़ा हुआ था।
For Private And Personal Use Only
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
174
कालिदास पर्याय कोश पर्युपास्यन्त लक्ष्म्या च पद्मव्यजनहस्तया। 10/62 लक्ष्मी हाथ में कमल का पंखा लेकर हमारी सेवा कर रही हैं। चित्रद्विपाः पद्मवनावतीर्णाः करेणुभिर्दत्तमृणालभंगाः। 16/16 जिन चित्रों में ऐसा दिखाया गया था, कि हाथी कमल के ताल में उतर रहे हैं और हथिनियाँ उन्हें ढूँड़ से कमल की डंठल तोड़कर दे रही हैं। उदण्डपद्मं गृहदीर्घिकाणां नारीनितम्बद्वयसं बभूव। 16/46 उनमें कमल की डंडियाँ दिखाई देने लगी और पानी घटकर स्त्रियों की कमर तक रह गया। इन्दोरगतयः पद्मे सूर्यस्य कुमुदेऽशवः। 17/75
चन्द्रमा की किरणें कमलों में तथा सूर्य की किरणें कुमुदों में नहीं पैठ पाती। 13. पुण्डरीक :-[पूंड्+ईकन्, नि०] श्वेत कमल, कमल।
पुण्डरीकातपत्रस्तं विकसत्काश चामरः। 44/17 शरद् ऋतु भी कमल के छत्र और फूले हुए कास के चँवर लेकर। प्रबुद्धपुण्डरीकाक्षं बालातपनिभांशुकम्। 10/9 खिले हुए कमल जैसी आँखों वाले, प्रातः काल की धूप के समान सुनहले वस्त्र पहने। शान्ते पितर्याहत पुण्डरीका यं पुण्डरीकाक्षमिव श्रिताश्रीः। 18/8 पिता के स्वर्ग चले जाने पर कमल धारण करने वाली लक्ष्मी ने पुण्डरीक को ही
विष्णु मानकर वर लिया। 14. पुष्कर :-[पुष्कं पुष्टिं राति-रा+क] नीला कमल, कमल।
तं पुत्रिणां पुष्करपुत्रनेत्रः पुत्रः समारोपथदग्रसंख्याम्। 18/30 वे गरुड़ध्वज विष्णु के समान सुन्दर थे और उन कमल लोचन का नाम भी पुत्र ही था। रघोः कुलं कुड्मलपुष्करेण तोयेन चा प्रौढनरेन्द्रमासीत्। 18/37 इस बालक से राजा रघु का कुल वैसे ही शोभा देने लगा, जैसे कमल की कली
से ताल शोभा देता है। 15. वनज :-[वन्+अच्+जम्] नीलकमल, कमल। दीर्धेष्वमी नियमिताः परमण्डपेषु निद्रां विहाय वनजाक्ष वनायुदेश्याः।
5/73
For Private And Personal Use Only
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
175
हे कमल के समान नेत्र वाले! बड़े-बड़े पट-मंडपों में बँधे हुए तुम्हारे वनाय
(काबुल) देश के घोड़े नींद छोड़कर। 16. सरसिज :-[सृ+असुन्+सिजम्] कमल।
वृन्ताच्छ्लथं हरति पुष्पमनोकहानां संसृज्यते सरसिजैर रुणांशुभिन्नैः। 5/69 प्रातः काल का पवन वृक्षों की शाखाओं पर झूलने वाले ढीले कोर वाले फूलों को गिराता हुआ सूर्य की किरणों से खिले हुए कमलों को छूता हुआ चल रहा
17. सहस्त्रपत्र :-[समानं हसति-हस्+र+पत्रम्] कमल।
विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपत्राभरणा इवासन्। 7/11 मानो झरोखों में बहुत से कमल सजे हुए हों और उन पर बहुत से भौरे बैठे हए हों क्योंकि उनके सुंदर मुखों पर आँखें ऐसी जान पड़ती थीं, जैसे कमल पर भौरे बैठे हुए हों।
परवान
1. निघ्न :-[नि+हन्+क] आश्रित, अनुसेवी, आज्ञाकारी, शिक्ष्य, विधेय।
निघ्नस्यमे भर्तृ निदेशरौक्ष्यं देवि समस्वेतिबभूव नमः। 14/58 स्वामी की आज्ञा से मैंने आपके साथ जो कठोर व्यवहार किया है, उसे आप क्षमा कीजिये। परवान :-[पर+मतुप् मस्य वः] पराधीन, दूसरे के वश में, आज्ञापालन के लिए तत्पर। भवानपीदं परवानवैति महान्हि यत्नस्तव देवदारौ। 2/56 तुम भी दूसरे के सेवक हो और बड़ी लगन से देवदार की रक्षा कर रहे हो। भगवन्परवानयं जनः प्रतिकूलाचरितं क्षमस्व मे। 8/81 हे भगवन् ! मैंने दूसरों के कहने पर यह काम किया है, मेरा इसमें कुछ भी दोष नहीं है, मुझे क्षमा कीजिए। विडोजसा विष्णु रिवाग्रजेन भ्रात्रा यदित्थं परवानसि त्वम्। 14/59 जैसे इन्द्र के छोटे भाई विष्णु सदा अपने बड़े भाई की आज्ञा मानते हैं, वैसे ही तुम भी अपने बड़े भाई की आज्ञा मानने वाले हो।
For Private And Personal Use Only
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
176
कालिदास पर्याय कोश
पल्लव
1. किसलय :-[किञ्चित् शलति-किम्+शल्+क (कयन्) बा०, पृषो० साधु०]
पल्ल्व, कोमल अंकुर या कोंपल। उपवनान्तलताः पवनाहतैः किसलयैः सलयैरिव पाणिभिः। 9/35 वन के किनारे बढ़ी हुई लताएँ ऐसी सजीव सी जान पड़ती थीं, जैसे वायु से हिली हुई कोमल पत्तियों वाले हाथों से वे अनेक प्रकार के हाव-भाव दिखा रही हों। अमदयन्मधुगन्ध सनाथया किसलयाधर संगतया मनः। 9/42
वह अपने मकरंद रूपी मद्य की गंध से मेरी लाल-लाल पत्तों के ओठों पर। 2. पलाश :-[पल्+अश्+अण्] पत्ता, पंखुड़ी।
ग्रथित मौलि रसो वनमालया तरुपलाश सवर्ण तनुच्छदः। 9/51 उनके केशों में वनमाला गुंथी हई थी, वे वृक्ष के पत्तों के समान गहरे हरे रंग का
कवच पहने हुए थे। 3. पल्लव :-[पल्+क्विप्=पल्, लू+अप्-लव, पल् चासौ लवश्च कर्म० स०]
अंकुर, कोंपल, टहनी। पुराण पत्रापगमादनन्तरं लतेव संनद्धमनोज्ञ पल्लवा। 3/7 जैसे वसंत ऋतु में लताएँ पुराने पत्ते गिराकर नये कोमल पत्तों से लदकर सुंदर लगने लगती हैं। ताम्रोदरेषु पतितं तरुपल्लवेषु निधौत हारगुलिका विशदं हिमांभः। 5/70 हार के उजले मोतियों के समान निर्मल ओस के कण वृक्षों के लाल पत्तों पर गिरकर। अनन्तराशोकलता प्रवालं प्राप्येव चूतः प्रति पल्लवेन। 7/21 जैसे आम का पेड़ अपनी पत्तियों के साथ अशोक लता की लाल पत्तियों के मिल जाने से मनोहर लगता है।
अभिनयान्परिचेतु मिवोद्यता मलय मारुतं कंपित पल्लवा। 9/33 नये बौरे हुए आम के वृक्षों की डालियाँ मलय के वायु से झूम उठीं, मानो उन्होंने अभिनय सीखना प्रारंभ कर दिया हो। अंके निक्षिप्त चरण मास्तीर्ण कर पल्लवे। 10/8
For Private And Personal Use Only
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
177
रघुवंश
जो विष्णु भगवान के चरण अपनी गोद में लेकर पलोट रही थीं। अदर्शयन्वक्तुमशक्नुवत्यः शाखा भिरावर्जित पल्लवाभिः। 13/24 पर बोल न सकने के कारण, उन्होंने अपनी पत्तों वाली डालियाँ ही इधर-उधर
झुकाकर मुझे तुम्हारा पता बता दिया था। 4. पत्र :-[पत्+ष्ट्रन] पत्ता।
पुराण पत्रा पगमादनन्तरं लतेव संनद्धमनोज्ञपल्लवा। 3/7 जैसे वसंत ऋतु में लताएँ पुराने पत्तों को गिराकर नये कोमल पत्तों से लदकर
सुंदर लगने लगती हैं। 5. प्रवाल :-[प्र+ब (व) ल्+णिच्+अच्] कोंपल, अंकुर, किसलय।
प्रवालशोभा इव पादपानां श्रृंगारचेष्टा विविधा बभूवुः। 6/12 राजाओं ने अपना प्रेम जताने के लिए जो वृक्षों के पत्तों के समान अनेक प्रकार से भौंह आदि चलाकर शृंगार-चेष्टाएँ कीं। अनन्तराशोकलता प्रवालं प्राप्येव चूतः प्रति पल्लवेन। 7/21 जैसे आम को पेड़ अपनी पत्तियों के साथ अशोक लता की लाल पत्तियों के मिल जाने से मनोहर लगता है।
पिता
1. गुरु :-पिता, जनक, अग्रज, ज्येष्ठ।
गंगा प्रपातान्त विरूढशष्पं गौरीगुरोर्गह्वर मा विवेश। 2/26 वह झट हिमालय की उस गुफा में बैठ गई, जिसमें गंगाजी की धारा गिर रही थी
और जिसके तट पर हरी-हरी घास खड़ी हुई थी। न केवलं तद्गुरुरेकपार्थिवः क्षितावभूदेकधनुर्धरोऽपि सः। 3/31 उनके पिता केवल चक्रवर्ती राजा ही नहीं थे, वरन् अद्वितीय धनुष चलाने वाले भी थे। जगत्प्रकाशं तदशेषमिज्यया भवद्गुरुर्लंघयितुं ममोद्यतः। 3/48 मैंने सौ यज्ञ करने का जो यश पाया है, उसे तुम्हारे पिता मुझसे छीनना चाहते हैं। अजस्त्रदीक्षा प्रयतः स मदगुरुः क्रतोरशेषेण फलने युज्यताम्। 3/65 यही वरदान दीजिए कि मेरे पिता इस घोड़े के बिना ही सौ अश्वमेघ यज्ञ करने का फल पा जाये।
For Private And Personal Use Only
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
178
कालिदास पर्याय कोश स राज्यं गुरुणा दत्तं प्रतिपद्याधिकं बभौ। 4/1 वैसे ही अपने पिता से राज्य पाकर रघु और भी अधिक तेजस्वी हो गए। दशपूर्वरथं यमाख्यया दशकंठारि गुरुं विदुर्बुधाः। 8/29 जो उस राम के पिता थे, जिन्होंने दस शिर वाले रावण को मारा था और जिन्हें पंडित लोग दशरथ कहते हैं। मेने पराय॑मात्मानं गुरुत्वने जगद्गुरौः। 10/64 अब संसार में मुझसे बढ़कर कोई नहीं है, क्योंकि मैं संसार के गुरु विष्णुजी का भी पिता बन रहा हूँ। नामधेयं गुरुश्चक्रे जगत्प्रथम मंगलम्। 10/67 वशिष्ठजी ने उनका संसार में सबसे अधिक मंगलकारी नाम। गुणैराराधयामासुस्ते गुरुं गुरुवत्सलाः। 10/85 चारों पितृभक्त राजकुमारों ने पिता राजा दशरथ को अपने गुणों से उसी प्रकार प्रसन्न कर लिया। हित्वा तनुं कारण मानुषीं तां यथा गुरुस्ते परमात्ममूर्तिम्। 16/22 जैसे तुम्हारे पिता राम ने राक्षसों को मारने के लिए जो मनुष्य शरीर धारण किया
था, उसे छोड़कर परमात्मा में पहुंच गए हैं। 2. तात :-पिता, जनक। हा तातेति क्रन्दित मा कर्ण्य विषण्णस्तस्यान्विष्यवेत संगूढं प्रभवं सः।
9/75 सहसा कोई चिल्लाया :-हाय पिता ! यह सुनकर इनका माथा ठनका और वे
उसे ढूँढ़ने चले। 3. पिता :-[पाति रक्षति- पा+तृच्] पिता।
स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः। 1/24 वे ही अपनी प्रजा के सच्चे पिता थे, पिता कहलाने वाले अन्य लोग केवल जन्म देने भर के पिता थे। अविघ्नमस्तु ते स्थेयाः पितेव धुरि पुत्रिणाम्। 1/91 ईश्वर करे तुम्हें कोई बाधा नहीं हो और जिस प्रकार तुम अपने पिता के योग्य पुत्र हो, वैसे ही तुम्हें भी सुयोग्य पुत्र प्राप्त हो। जीवन्पुनः शश्वदुप्लवेभ्यः प्रजाः प्रजानाथ पितेव पासि। 2/48
For Private And Personal Use Only
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
179 यदि जीते रहोगे तो पिता के समान तुम अपनी पूरी प्रजा की रक्षा कर सकोगे। ऋणाभिधानात्स्वयमेव केवलं तदा पितृणां मुमुचे स बन्धनात्। 3/20 पुत्र न होने से जो मैं पितरों के ऋण के बन्धन में था, उस बन्धन से आज मैं ही छूट गया हूँ। पितुः प्रयत्नात्स समग्र संपदः शुभैः शरीरावयवैर्दिने दिने। 3/22 वैसे ही बालक रघु के अंग भी संपत्तिशाली पिता की देखरेख में दिन-दिन बढ़ने
लगे।
अभूच्च नम्रः प्रणिपात शिक्षया पितुर्मदं तेन ततान सोऽर्थकः। 3/25 और सिर झुकाकर बड़ों का प्रणाम करना भी सीख गए, पिता राजा दिलीप अपने पुत्र की बाल लीलाओं को देखकर फूले नहीं समाते थे। त्वचं स मेध्यां परिधाय रौरवीमशिक्षितास्त्रं पितुरेव मंत्रवत्। 3+31 पवित्र रुरु मृग का चर्म पहनकर रघु ने मंत्रयुक्त अस्त्रों की शिक्षा अपने पिता से ही प्राप्त की। तेन सिंहासन पित्र्यमखिलं चारिमंडलम्। 4/4 रघु ने पिता के सिंहासन पर और अपने शत्रुओं पर एक साथ अधिकार कर लिया। पुत्रं लभस्वात्मगुणानुरूपं भवन्त्मीड्यं भवतः पितेव। 5/34 जैसे तुम्हारे पिता दिलीप को तुम्हारे जैसा श्रेष्ठ पुत्र मिला, वैसे ही तुम्हें भी तुम्हारे ही समान प्रतापी पुत्र हो। अतः पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार। 5/36 ब्राह्म मुहूर्त में जन्म होने से पिता ने ब्रह्मा के नाम पर लड़के का नाम अज रक्खा। श्रीः अभिलाषापि गुरोरनुज्ञां धीरेव कन्या पितुरा चकांक्ष। 5/38 जैसे शीलवती कन्या विवाह के लिए पिता की आज्ञा ले लेना चाहती है, वैसे ही राज्यलक्ष्मी भी यद्यपि सुंदर युवा अज को स्वामी बनाना चाहती थी, फिर भी रघु की आज्ञा का बाट जोह रही थी। गुर्वी धुरं यो भुवनस्य पित्रा धुर्येण दम्यः सदृशं बिभर्ति। 6/78 ये भी अपने प्रतापी पिता के समान ही राज्य का सब काम संभालते हैं। तस्याः स रक्षार्थ मनल्पयोधमादिश्य पित्र्यं सचिवं कुमारः। 7/36 अज ने अपने पिता के मंत्री को आज्ञा दी कि थोड़े से योद्ध साथ लेकर इंदुमती की रक्षा करो।
For Private And Personal Use Only
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
180
कालिदास पर्याय कोश तदुपस्थितमम्रहीदजः पितुराज्ञेति न भोगतृष्णया। 8/2 उसी राज्य को अज ने केवल अपने पिता की आज्ञा मानकर ही स्वीकार कर लिया, भोग की इच्छा से नहीं। पितरं प्रणिपत्य पादयोरपरित्याग मया चतात्मनः। 8/12 अपना सिर पिता के चरणों में नवाकर प्रार्थना की कि आप मुझे छोड़कर न
जाइये।
श्रुतदेहविसर्जनः पितुश्चिरमभूणि विमुच्च राघवः। 8/25 अपने पिता के देहत्याग का समाचार सुनकर अग्निहोत्र करने वाले अज बहुत रोए। अकरोत्स तरौर्ध्वदैहिकं पितृभक्त्या पितृकार्यकल्पवित्। 8/16 फिर अज तो यह जानते ही थे कि पिता का संस्कार किस प्रकार करना चाहिए, इसलिए उन्होंने बड़ी भक्ति से अपने पिता के श्राद्ध आदि संस्कार किये। स परायं गतेरशोच्यतां पितुरुद्दिश्य सदर्थवेदिभिः। 8/27 तत्वज्ञानी पंडितों ने जब अज को समझाया कि तुम्हारे पिता ने मोक्ष पा लिया है। पितरनन्तरमुत्तर कोशलान्समिध गम्य समाधि जितेन्द्रियः। 9/1 संयम से अपनी इन्द्रियों को जीत लेने वाले योगियों में सर्वश्रेष्ठ दशरथ ने अपने पिता के पीछे उत्तर कोशल का राज्य बड़ी योग्यता से संभाला। तच्चोदितश्च तमनुदद्धत शल्यमेव पित्रोः सकाश मवसन्नदृशोर्निनाय।
9/77 उसने राजा दशरथ से कहा कि मुझे मेरे अंधे माता-पिता के पास ले चलो, राजा दशरथ ने उस बाण से बिंधे मुनि-पुत्र को उठाया और उनके माता-पिता के पास ले गए। आनन्देनाग्रजेनेव समं ववृधिरे पितुः। 10/78 वैसे ही पिता राजा दशरथ का आनंद भी बढ़ने लगा, मानो यह आनंद उन चारों राजकुमारों का जेठा भाई हो। तौ निदेशकरणोद्यतौ पितुर्धन्विनौ चरणयोर्निपेततुः। 11/4 पिता की आज्ञा का पालन करने को प्रस्तुत होकर, दोनों राजकुमार अपने पिता के चरणों में प्रणाम करने को झुके ही थे। तौ पितुर्नयनजेन वारिणा किंचिदुक्षित शिखंड काबुभौ। 11/5
For Private And Personal Use Only
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
181
पिता के आँसुओं से दोनों राजकुमारों की चोटियाँ भीग गईं। पूर्ववृत्त कथितैः पुराविदः सानुजः पितृसखस्य राघवः। 11/10 क्योंकि उनके पिता के मित्र विश्वामित्र जी उन्हें मार्ग में पुरानी कथाएँ सुनाते ले जा रहे थे। येन रोषपरुषात्मनः पितुः शासने स्थिति भिदोऽपि तस्थुषा। 11/45 उन्होंने जिस समय क्रोध से कठोर हृदय वाले और उचित-अनुचित का विचार छोड़ देने वाले अपने पिता की आज्ञा मानकर। तं पितुर्वधभवेन मन्युना राजवंशनिधनाय दीक्षितम्। 11/67 जब दशरथ जी ने उन परशुराम को देखा, जिन्होंने अपने पिता के मारे जाने पर क्रोध से क्षत्रियों का नाश करने की प्रतिज्ञा कर ली थी। तस्मिन्गते विजयिनं परिरभ्य रामस्नेहादमन्यत पितापुनरेव जातम्। 11/92 उनके चले जाने पर विजयी राम को पिता राजा दशरथ ने गले से लगा लिया
और वे स्नेह में भरकर यह समझने लगे कि राम का दूसरा जन्म हुआ है। पित्रा दत्तां रुदनरामः प्रांगमही प्रत्यपद्यत। 12/7 जब पिता राम को राजगद्दी दे रहे थे, उस समय राम ने आँखों में आँसू भरकर उसे स्वीकार किया था। श्रुत्वातथाविधं मृत्यु कैकयी तनयः पितुः। 12/13 जब भरत जी को अपने पिता की मृत्यु का सब समाचार मिला। बाष्पायमाणो बलिमन्निकेत मालेख्य शेषस्य पितुर्विवेश। 14/15 तब वे अपने पिताजी के पूजा घर में गए, वहाँ दशरथ जी का अकेला चित्र देखकर राम की आँखों में आँसू आ गए। पितुर्नियोगाद्वनवासमेवं निस्तीर्य रामः प्रतिपन्न राज्यः। 14/21 इस प्रकार पिता की आज्ञा से वनवास की अवधि बिताकर, राम ने अपने पिता का राज्य फिर से पाया। तेनास लोकः पितृमान्विनेत्रा तेनैव शोकापनुदेन पुत्री। 14/23 वे सबको ठीक मार्ग पर ले चलते थे, इसलिए सब उन्हें पिता के समान मानते थे और विपत्ति पड़ने पर वे सबकी सहायता करते थे, इसलिए वे प्रजा के पुत्र भी थे। त्यश्यामि वैदेहसतां परस्तासमटनेमिं पितराजयेव। 14/39
For Private And Personal Use Only
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
182
कालिदास पर्याय कोश मैं सब मोह ताड़कर सीता को वैसे ही छोड़ दूंगा, जैसे पिता की आज्ञा से मैंने राज्य छोड़ दिया था। स शुश्रुवान्मातरि भार्गवेण पितुर्नियोगात्प्रहृतं द्विषद्वत्। 14/46 लक्ष्मण ने सुन ही रक्खा था कि पिता की आज्ञा पाकर परशुराम जी ने अपनी माता को वैसे ही बड़ी निर्दयता से मार डाला था, जैसे कोई अपने शत्रु को मारे। तन्माव्यथिष्टा विषयान्तरस्थं प्राप्तासि वैदेहि पितुर्निकेतम्। 14/72 बेटी यहाँ भी तुम अपने पिता का घर समझो और शोक छोड़ दो। तवोरुकीर्तिः श्वशुरः सखा मे सतां भवोच्छेदकरः पिता ते। 14/74 तुम्हारे यशस्वी श्वसुर जी मेरे मित्र थे और तुम्हारे पिता भी ज्ञानोपदेश देकर बहुत से विद्वानों को संसार के बंधन से छुड़ाते रहते हैं। एकः शंकां पितृवधरिपोरत्यजद्वैन तेयाच्छन्तव्यालामव निमपरः पौरकान्तः शशास। 16/88 इस प्रकार नागराज कुमुद ने त्रिलोकीनाथ विष्णु अर्थात राम के सच्चे पुत्र कुश को अपना संबधी मानकर गरुड़ से डरना छोड़ दिया क्योंकि अब वह उसके संबंधी के पिता का वाहन मात्र था। तेनोरुवीर्येण पिता प्रजायै कल्पिष्यमाणेन ननन्द यूना। 18/2 वैसे ही पुत्र को प्यार करने वाले पिता को पाकर देवानीक भी पिता वाले हुए। पिता पितृणामनृण स्तमन्ते वयस्यनन्तानि सुखानि लिप्सुः। 18/26 अब वे पिता के ऋण से ऋण हो गए और बहुत सुख भोगकर वृद्धावस्था में पुत्र को राज्य देकर। लोकेन भावी पितुरेव तुल्यः संभावितो मौलिपरिग्रहात्सः। 18/38 उस बालक सुदर्शन ने जब सिरपर मुकुट धारण किया, तभी प्रजा ने आँक लिया कि यह पिता के समान ही तेजस्वी होगा। षड्वर्ष देशीयमपि प्रभुत्वात्प्रेक्षन्त पौराः पितृगौरवेण। 18/39 जब वे छ: वर्ष के छोटे राजा हाथी पर चढ़कर राज मार्ग से निकलते थे, तब उन्हें देखकर जनता उनके पिता के समान ही उनका आदर करती थी। तिस्त्रस्त्रिवर्गा धिगमस्य मूलं जग्राह विद्याः प्रकृतीश्च पित्र्याः। 18/50 तीनों विद्याओं को इतनी शीघ्रता से सीख लिया मानो, पूर्व जन्म में ही वे उन्हें पढ़ चुके हों। साथ ही अपने पिता की प्रजा को भी उन्होंने वश में कर लिया।
For Private And Personal Use Only
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पुत्र
1. अपत्य : - [ न पतन्ति पितरोऽनेन - नञ् + पत्+यत् ] संतान, बच्चे बेटा या बेटी । अपत्यैरिव नीवारभागधेयोचितैर्मृगैः । 1/50
मृगों को भी ऋषि पत्नियों के बच्चों के समान तिन्नी के दाने का अभ्यास पड़
गया था।
इतो भविष्यत्यनघप्रसूतेर पत्य संस्कारमयो विधिस्ते । 14 / 75 तुम्हारी पवित्र सन्तान के जात कर्म आदि संस्कार मैं यहीं करूँगा । 2. आत्मज : - [ अत्+मनिण्+ज: ] पुत्र ।
तस्यामात्मा नुरूपायमात्मजन्मसमुत्सुकः । 1/33
उनकी बड़ी इच्छा थी कि मेरी प्यारी पत्नी से मेरे जैसा पुत्र हो ।
183
अतः पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार । 5/36 तो ब्राह्म मुहूर्त में जन्म होने से पिता ने ब्रह्मा के नाम पर पुत्र का नाम अज रक्खा। सूतात्मजाः सवयसः प्रथित प्रबोधं प्राबोधयन्नुषसि वाग्मिरुदारवाचः । 5/65 दिन निकलते ही उनकी समान अवस्था वाले और मधुर बोलने वाले सूतों के पुत्र यह स्तुति गा-गाकर बुद्धिमान अज को जगाने लगे।
अतो नृपाश्चक्षमिरे समेताः स्त्रीरत्नंलाभं न तदात्मजस्य । 7/34 इसीलिए वे यह भी नहीं सह सके कि रघु का पुत्र हम लोगों के रहते हुए स्त्रियों रत्न इन्दुमती को लेकर चला जाय।
For Private And Personal Use Only
रघुरश्रुमुखस्य तस्य तत्कृतवानीप्सितमात्मजप्रियः । 8/13
अपने पुत्र अज को रघु बहुत प्यार करते थे, इसलिए अज की आँखों में आँसू देखकर वे रुक तो गए।
समदुःखसुखः सखीजनः प्रतिपच्चन्द्र निभोऽयमात्मजः । 8 / 65
तुम्हारे सुख दुःख की साथी ये सखियाँ खड़ी हैं, शुक्ल पक्ष की चन्द्रमा के समान प्रसन्न मुख वाला तुम्हारा पुत्र भी यहीं है।
ता नराधिपसुता नृपात्मजैस्ते च ताभिरगमन्कृतार्थताम् । 11 /56
उन चारों राजकुमारों को पाकर राजकन्याएँ और राजकन्याओं को पाकर राजकुमार निहाल हो गए।
पुत्रस्तथैवात्मज वत्सलेन स तेन पित्रापितृमान्बभूव । 18 / 11
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
184
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
वैसे ही पुत्र को प्यार करने वाले पिता को पाकर देवानीक भी पिता वाले हुए। ततः परं वज्रधर प्रभावस्तदात्मजः संयति वज्रघोषः । 18/21 उनके पीछे उनके पुत्र वज्रनाभ पृथ्वी के स्वामी हुए, वे इन्द्र के समान प्रभावशाली थे और युद्ध क्षेत्र में वज्र के समान गरजते थे ।
पातुं सहो विश्वसखः समग्रां विश्वंभरामात्मज मूर्तिरात्मा । 18 / 24
उन्होंने विश्वसह नामक पुत्र पाया, जो संसार में बड़े प्रिय हुए और जिन्होंने सारी पृथ्वी पर शासन किया ।
3. आत्मसंभव :- [ अत्+मनिण्+संभवः ] पुत्र ।
अंगदं चन्द्रकेतुं च लक्ष्मणोऽप्यात्मसंभवौ । 15 / 90 लक्ष्मण ने आनंद और चन्द्रकेतु नाम के अपने दोनों पुत्रों को । तदात्मसंभवं राज्ये मन्त्रिवृद्धाः समादधुः । 17/8 मंत्रियों ने उनके पुत्र अतिथि को राजा बनाया ।
4. आत्मोद्भव :- [ अत्+मनिण् + उद्भवः ] पुत्र ।
पूर्वस्तयोरात्मसमे चिरोढामात्मोद्भवे वर्णचतुष्टयस्य । 18/12 अपने ही समान तेजस्वी पुत्र को चारों वर्णों की रक्षा का भार सौंपकर |
5. औरस : - [ उरसा निर्मितः - अण् ] वैध पुत्र |
इत्थं नागस्त्रि भुवन गुरो रौरसं मैथिलेयं लब्ध्वा बन्धुं तमपि च कुशः पंचमं तक्षकस्य । 16/88
इस प्रकार नागराज कुमुद ने त्रिलोकीनाथ विष्णु अर्थात् राम के सच्चे पुत्र कुश को अपना सम्बंधी बनाकर व कुश ने भी नागराज तक्षक के पाँचवें पुत्र कुमुद को सम्बन्धी बनाकर ।
तस्यैौरसः सोमसुतः सुतोऽभून्नेत्रोत्सवः सोम इव द्वितीयः । 18 / 27 उन हिरण्यनाभ को कौशल्य नाम का पुत्र हुआ, जो सबकी आँखों को उसी प्रकार आनन्द देने वाला था, मानो दूसरा चन्द्रमा ही हो ।
6. कुमार : - [ कम्+ आरन्, उपाधायाः उत्वम् ] पुत्र, बालक, युवा I
जनाय शुद्धान्त चराय शंसते कुमार जन्मामृत संमिताक्षरम् | 3 / 16
झट अन्त: पुर के सेवक ने राजा दिलीप के पास आकर पुत्र होने का समाचार सुनाया ।
7. तनय :- [ तनोति विस्तारयति कुलम् - तन्+कयन्] पुत्र, सन्तान ।
For Private And Personal Use Only
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
185
वंशस्य कर्तारमनन्तकीर्तिं सुदक्षिणायां तनयं ययाचे। 2/64 वर माँगा कि मेरी प्यारी रानी सुदक्षिणा के गर्भ से ऐसा यशस्वी पुत्र हो, जिससे सूर्य वंश बराबर बढ़ता चले। शापोऽप्यदृष्टतनयाननपद्मशोभे सानुग्रहो भगवता मयि पतितोऽयम्।9/80 हे मुनि ! आज तक मुझे पुत्र के मुख-कमल का दर्शन तक नहीं हुआ है, इसलिए मैं आपके शाप को वरदान हो समझता हूँ, क्योंकि इसी बहाने मुझे पुत्र तो प्राप्त होगा। कन्यकातनय कौतुक क्रियां स्वप्रभावसदृशीं वितेनतुः। 11/53 इससे बड़ा लाभ होगा कि बच्चा होने से पहले ही तुम यह सीख जाओगी, कि बच्चों से कैसे प्रेम करना चाहिए। मैथिलीतनयोद्गीतनि: स्पन्दमृगमाश्रमम्। 15/37 उस तपोवन में नहीं गए, जहाँ के मृग सीताजी के पुत्रों लव और कुश के गीत सुना करते थे। तस्यानलौजास्तनयस्तदन्ते वंशश्रियं प्राप नलाभिधानः। 18/5 उनके पीछे उनके अग्नि के समान तेजस्वी पुत्र नल राजा हुए। तस्मिन्प्रयाते परलोक यात्रां जेतर्यरीणां तनयं तदीयम्। 18/16 उस शत्रु विजयी राजा के स्वर्ग चले जाने पर अयोध्या की राज-लक्ष्मी उनके प्रतापी-पुत्र पारियात्र की सेवा करने लगी। अंशे हिरण्याक्षरिपोः स जाते हिरण्यनाभे तनये नयज्ञः। 18/25 उस नीतिज्ञ विश्वसह को हिरण्यनाभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो साक्षात् विष्णु
का अंश था। 8. तनूज :-[तन+ऊ+जः] पुत्र।
अवेहि गंधर्वपतेस्तनूजं प्रियंवदं मा प्रियदर्शनस्य। 5/53
मैं गन्धर्वो के राजा प्रियदर्शन का पुत्र प्रियंवद हूँ। 9. नंदन :-[नन्द्+णि+ल्युट] पुत्र ।
अतीन्द्रयेष्वप्युपपन्न दर्शनो बभूव भविषु दिलीपनन्दनः। 3/41 जिससे दिलीप के पुत्र रघु को उन सब वस्तुओं को देखने की शक्ति आ गई, जो किसी भी इन्द्रिय से किसी को नहीं प्रकट होती। सा चूर्णगौरं रघुनन्दनस्य धात्रीकराभ्यां करभोप मोरूः। 6/83
For Private And Personal Use Only
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
186
कालिदास पर्याय कोश हाथी की सँड के समान जंघाओं वाली इन्दुमती ने वह स्वयंवर की माला, सुनन्दा के हाथों रघु के पुत्र अज के गले में पहनवा दी। क्षितिरभूत्फलवत्यजनन्दने शमरतेऽमरते जसि पार्थिवे। 9/4 अज के पुत्र दशरथ देवताओं के समान तेजस्वी थे और उनका मन भी सब
प्रकार से शान्त था, राज्य को हाथ में लेते ही उनका देश धन-धान्य से भर गया। 10. पुत्र :-[पुत्++क] बेटा, बच्चा, प्रिय वत्स।
अथाभ्यर्च्य विधातारं प्रयतौ पुत्रकाम्यया। 1/35 राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा ने पुत्र की इच्छा से पहले ब्रह्माजी की पूजा
की।
अविघ्नमस्तु ते स्थेयाः पितेव धुरि पुत्रिणाम्। 1/91 ईश्वर करे तुम्हें कोई बाधा न हो और जिस प्रकार तुम अपने पिता के योग्य पुत्र हो, वैसे ही तुम्हें सुयोग्य पुत्र प्राप्त हो। भक्त्या गुरौ मय्यनुकम्पया च प्रीतास्मिं ते पुत्रं वरं वृणीष्व। 2/63 हे पुत्र! तुमने जो अपने गुरु में भक्ति और मुझ पर दया दिखलाई है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वर माँगो। दुग्ध्वा पयः पत्रपुटे मदीयं पुत्रोपभुद्भवेति तमादिदेश। 2/65 नंदिनी ने यह प्रतिज्ञा की कि मैं तेरी पुत्र प्राप्त करने की इच्छा पूर्ण करूँगी और यह आदेश दिया, कि तू एक दोने में मेरा दूध दुहकर पी जा। असूत पुत्रं समये शचीसमा त्रिसाधना शक्तिरिवार्थमक्षयम्। 3/13 वैसे ही इन्द्राणी के समान तेजवाली सुदक्षिणा ने भी वह पुत्र उत्पन्न किया, जिस प्रकार राजा अपनी तीन साधनाओं वाली शक्ति से अचल संपत्ति पा लेता है। स वृत्तचूलश्चलका कपक्षकैरमात्यपुत्रैः सवयोभिरन्वितः। 3/28 मुंडन संस्कार हो जाने पर रघु ने चंचल लटों वाले तथा समान आयु वाले मंत्रियों के पुत्रों के साथ। तं श्लाघ्यसंबन्धमसौ विचिन्त्य दारक्रिया योग्यदशं च पुत्रम्। 5/40 रघु ने भी सोचा कि भोज के वंश के साथ अपने कुल का सम्बन्ध करना ठीक होगा और पुत्र अज भी विवाह के योग्य हो गए हैं। इति विरचित वाग्भिर्वन्दिपुत्रैः कुमारः सपदि विगतनिद्रस्तल्प मुज्झांचकार।
5/75
For Private And Personal Use Only
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
187
रघुवंश
वैसे ही चारणपुत्रों की सुरचित वाणी सुनकर राजकुमार अज की नींद खुल गई और वे उठ बैठे। पुत्रो रघुस्तस्य पदं प्रशस्ति महाक्रतोर्विश्वजितः प्रयोक्ता। 6/76 उन्हीं के पुत्र रघु उनके पीछे राजा हुए, जिन्होंने विश्वजित यज्ञ में अपना सब कुछ बाँट दिया। समुपास्यत पुत्र भोग्यया स्नुषयेवाविकृतेन्द्रियः श्रियाः। 8/14 जिस भूमि पर उनके पुत्र राज्य कर रहे थे, वह जितेन्द्रिय रघु को फल-फूल देकर उसी प्रकार सेवा कर रही थी, मानो उनको पतोहू ही हो। शल्यप्रोतं प्रेक्ष्य सकुम्भं मुनिपुत्रं तापादन्तः शल्य इवासीक्षितिपोऽपि।
9/75 देखा कि नरकट की झाड़ियों में बाँण से बिंधा हुआ, घड़े पर झुका हुआ किसी मुनि का पुत्र पड़ा है। उसे देखकर उनको ऐसा कष्ट हुआ मानो इन्हें भी बाण लग गया हो। ताभ्यां तथागतमुपेत्य तमेकपुत्रमज्ञानतः स्वचरितं नृपतिः शशंस। 9/77 वहाँ पहुँचकर उन्होंने उनसे सब कथा बता दी कि भूल से मैंने आपके इकलौते पुत्र पर किस प्रकार बाण चला दिया है। दिष्टान्तमाप्स्यति भवानपि पुत्रशोकादन्त्ये वयस्यहमिवेति तमुक्तवन्तम्।
9/79 हे राजा! जाओ, तुम भी हमारे ही समान बुढ़ापे में पुत्र शोक से प्राण छोड़ोगे। पत्रं तमोपहं लेभे नक्तं ज्योतिरवौषधिः। 10/66 जैसे पर्वत की बहुत सी बूटियों में रात को अंधेरा दूर करने वाला प्रकाश आ जाता है, वैसे ही तमोगुण को दूर करने वाला पुत्र उत्पन्न किया। पुत्रजन्मप्रवेश्यानां तूर्याणां तस्य पुत्रिणः। 10/76 पुत्रवान् राजा दशरथ के यहाँ पुत्र जन्म के समय नगाड़े आदि बाजे पीछे बजे। ते पुत्रयो ऋत शस्त्र मार्गाना निवांगे सदयं स्पृशन्त्यौ। 14/4 पुत्रों के शरीर के जिन अंगों पर राक्षसों के शस्त्रों के घाव बने थे, वहाँ वे दोनों माताएँ इस प्रकार सहलाने लगीं, मानो घाव अभी हरे ही हों। तस्यै मुनिर्दोहदलिंगदर्शी दाश्वान्सुपुत्राशिषमित्युवाच। 14/71 ऋषि ने गर्भ के चिह्न देखकर उन्हें आशीर्वाद दिया, कि तुम पुत्रवती हो। आशीर्वाद देकर वे बोले।
For Private And Personal Use Only
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
188
कालिदास पर्याय कोश
तस्य पूर्वोदितां निन्दां द्विजः पुत्र समागतः। 14/57 पुत्र के जी उठने पर उस ब्राह्मण ने स्तुति से पहले जो निन्दा की थी, उसे धो डाला। स्वर संस्कार वत्यासौ पुत्राभ्यामथ सीतया। 15/76 पुत्रों के साथ जाती हुई सीता ऐसी लग रही थीं, मानो स्वर और संस्कारों के साथ गायत्री जा रही हों। स तक्ष पुष्कलौ पुत्रौ राजधान्योस्तदाख्ययोः। 15/89 उन्होंने तक्ष और पुष्कल नाम के योग्य पुत्रों को, तक्ष और पुष्कल राजधानियों का राजा बना दिया। इत्यारोपितपुत्रास्ते जननीनां जनेश्वराः। 15/91 इस प्रकार पुत्रों को राज्य देकर उन चारों ने अपनी स्वर्गीय माताओं के श्राद्ध किए। अतिथि नाम काकुत्स्थात्पुत्रं प्राप कुमुद्वती। 17/1 वैसे ही कुश को कुमुद्वती से अतिथि नाम का पुत्र प्राप्त हुआ। अनूनसारं निषधान्नगेन्द्रात्पुत्रं यमाहुर्निषधाख्यमेव। 18/1 अतिथि ने निषध पर्वत के समान बलवान पुत्र उत्पन्न किया और उसका नाम भी निषध रक्खा। स क्षेमधन्वाममोघधन्वा पुत्रं प्रजाक्षेम विधानदक्षम्। 18/9 उन सफल धनुषधारी पुंडरीक ने प्रजा का कल्याण करने में समर्थ अपने पुत्र क्षेम धन्वा को राज सौंप दिया। पुत्रस्तथैवात्मजवत्सलेन स तेन पित्रा पितृमान्बभूव। 18/71 वैसे ही पुत्र को प्यार करने वाले पिता को पाकर देवानीक भी पिता वाले हुए। तं पुत्रिणां पुष्करपत्रनेत्रः पुत्रः समारोपयदग्रसंख्याम्। 18/30 उनके सुपुत्र ने पुत्रवानों का शिरोमणि बना दिया, उन कमललोचन का नाम भी
पुत्र ही था। 11. प्रजा :-[प्र+जन्+ड+टाप्] संतान, प्रजा, संतति।
यश से विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम्। 1/7 अपना यश बढ़ाने के लिए ही दूसरे देशों को जीतते थे, जो भोग-विलास के लिए नहीं वरन् सन्तान उत्पन्न करने के लिए ही विवाह करते थे।
For Private And Personal Use Only
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
189
किन्तु वध्वां तवैतस्यामदृष्ट सदृशप्रजम्। 1/65 पर देव! आपकी इतनी कृपा होते हुए भी जब मेरी इस पत्नी के गर्भ से मेरे समान तेजस्वी पुत्र नहीं हुआ, तब। सोऽहमिज्या विशुद्धात्मा प्रजालोपनिमीलितः। 1/68 उसी प्रकार सदा यज्ञ करने से तो मेरा चित्त प्रसन्न रहता है, किन्तु पुत्र न होने से सदा शोक से भरा रहता है। मत्प्रसूतिमनाराध्य प्रजेति त्वां शशाप सा। 1/77 इसका दंड यही है, कि जब तक तुम मेरी संतान की सेवा नहीं करोगे; तब तक तुम्हें पुत्र नहीं होगा। इत्थं व्रतं धारयतः प्रजार्थं समं महिष्या महनीय कीर्तेः। 2/25 इस प्रकार अपनी पत्नी के साथ सन्तान प्राप्ति के लिए यह कठोर व्रत करते हुए। तमाहितौत्सुक्यमदर्शनेन प्रजाः प्रजार्थव्रतकर्शितांगम्। 2/73 प्रजा राजा के दर्शन के लिए तरस रही थी, पुत्र की उत्पत्ति के लिए जो उन्होंने व्रत लिया था, उससे वे कुछ दुबले हो गए थे। नवाभ्युत्थान दर्शिन्यो ननन्दुः सप्रजाः प्रजाः। 4/3 तब उनकी प्रजा के सब बूढ़े-बच्चे उनकी ओर आँख उठकार देखते हुए, वैसे ही प्रसन्न होते थे। स कदाचिदवेक्षित प्रजः सह देव्या विजहार सुप्रजा। 8/32 एक दिन अच्छी संतान वाले, प्रजा पालक राजा अज, अपनी रानी के साथ नगर के उपवन में विहार कर रहे थे। प्रजानिषेकं मयि वर्तमानं सूनोरनुध्यायत चेतसेति। 14/60 मेरे गर्भ में आपके पुत्र का तेज है, इसलिए आप लोग हृदय से उसकी कुशल मनाते रहिएगा। वन्येन सा वल्कलिनी शरीरं पत्युः प्रजा संततये बभार। 14/82 वक्षों की छाल के कपड़े पहनती थीं और केवल पति का वंश चलाने की इच्छा
से पुत्र को उत्पन्न करने के लिए कन्दमूल खाकर शरीर धारण करती थी। 12. प्रसूत :-[प्र+सू+क्त] उत्पन्न, जनित, जन्म दिया हुआ पुत्र।
ब्रह्मिष्ठमाधाय निजेऽधिकारे ब्रह्मिष्ठमेव स्वनप्रसूतम्। 18/28 उन्होंने ब्रह्मिष्ठ नाम के अपने ब्रह्मज्ञानी पुत्र को राज्य दे दिया।
For Private And Personal Use Only
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
190
कालिदास पर्याय कोश 13. प्रसूति :-[प्र+सू+क्तिन्] प्रसर्जन, जनन, जन्म देना, पैदा करना, पुत्र ।
स्थित्यै दण्डयतो दण्डयान्परिणेतुः प्रसूतये। 1/25 अपराधी को दण्ड दिए बिना राज्य नहीं ठहर सकता , इसलिए अपराधियों को उचित दंड देते थे, सन्तान उत्पन्न करके वंश चलाने की इच्छा से ही उन्होंने विवाह किया। मत्प्रसूतिमनाराध्य प्रजेति त्वां शशाप सा। 1/77 इसका दंड यही है कि जब तक तुम मेरी संतान की सेवा नहीं करोगे, तब तक तुम्हें पुत्र नहीं होगा। न चान्यतस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्यगुप्ताहिमनोः प्रसूतिः। 2/4 रही अपने शरीर रक्षा की बात उसके लिए उन्होंने किसी सेवक की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि जिस राजा ने मनु के वंश में जन्म लिया हो, वह अपनी रक्षा तो स्वयं ही कर सकता है। न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि मां कामदुधां प्रसन्नाम्। 2/63 तुम मुझे केवल दूध देने वाली साधारण गौ न समझना, प्रै प्रसन्न हो जाऊँ, तो मुझसे जो माँगा जाय, वही फल दे सकती हूँ। तदंकशय्या च्युतनाभिनाला कच्चिन्मृगीणामनघा प्रसूतिः। 5/7 हरिणियों के वे छोटे-छोटे बच्चे तो कुशल से हैं न, जिनकी नाभि का नाल ऋषियों की गोद में ही सूखकर गिरता है। प्रसूतिं चकमे तस्मिं त्रैलोक्यप्रभवोऽपि यत्। 10/53 विष्णु भगवान् को भी उनके यहाँ जन्म लेने की इच्छा होने लगी। अथाग्य महिषी राज्ञः प्रसूतिसमये सती। 10/66 राजा की पटरानी कौशल्या ने तमोगुण को दूर करने वाला पुत्र उत्पन्न किया। साहं तपः सूर्य निविष्टदृष्टिरूर्ध्वं प्रसूतेश्चरितुं यतिष्ये। 14/66 पर पुत्र हो जाने पर, मैं सूर्य में दृष्टि बाँधकर ऐसी तपस्या करूँगी कि। इतो भविष्यत्यनघप्रसूतेरपत्य संस्कारमयो विधिस्ते। 14/75
तुम्हारी पवित्र सन्तान के जातकर्म आदि संस्कार मैं यहीं करूंगा। 14. संतति :-[सम्+तन्+क्तिन्] संतान, प्रजा।
संततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे। 1/69 पर अच्छी संतान सेवा-सुश्रूषा करके इस लोक में तो सुख देती ही है, साथ ही परलोक में भी सुख देती है।
For Private And Personal Use Only
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
191 सोऽपश्यत्प्रणि धानेन संततेः स्तम्भकारणम्। 1/74 वशिष्ठजी ने अपने योग के बल से ध्यान किया कि पवित्र आत्मा वाले राजा को पुत्र क्यों नहीं हुआ। निदानमिक्ष्वाकुकुलस्य संततेः सुदक्षिणा दौर्हदलक्षणं दधौ। 3/1 धीरे-धीरे रानी सुदक्षिणा के शरीर में उस गर्भ के लक्षण दिखाई देने लगे, जो इस बात का प्रमाण थे कि अब इक्ष्वाकु वंश नष्ट नहीं होगा। अतिष्ठत्प्रत्ययापेक्ष संततिः स चिरं नृपः। 10/3 वैसे ही संतान के लिए उपाय होने तक राजा दशरथ को भी ठहरना पड़ा। वन्येन सा वल्कलिनी शरीरं पत्युः प्रजा संततये बभार। 14/82 वृक्षों की छाल के कपड़े पहनती थीं और केवल पति का वंश चलाने की इच्छा से ही कन्द-मूल खाकर शरीर धारण करती थीं।। स पृष्टः सर्वतो वार्तमाख्यद्राज्ञेन संततिम्। 15/41 राम के पूछने पर उन्होंने और सब बातें तो कह सुनाई, पर पुत्र होने की बात नहीं
कही। 15. संतान :-[सम्+तनु+घञ्] प्रजा, औलाद, बाल-बच्चा।
संतानार्थाय विधये स्वभुजादवतारिता। 1/34 तब उन्होंने निश्चय किया कि संतान उत्पन्न करने के लिए कुछ न कुछ उपाय करना ही चाहिए। इसके लिए पृथ्वी का भार अपने कंधों से उतारकर। संतानकामाय तथेति कामं राज्ञे प्रतिश्रुत्य पयस्विनी सा। 2/65 नंदिनी ने संतान माँगने वाले राजा दिलीप से प्रतिज्ञा की कि मैं तेरी इच्छा पूर्ण करूंगी। ऋष्यशृंगादयस्तस्य सन्तः संतानकांक्षिणः। 10/4 तब ऋष्य शृंग आदि संत ऋषियों ने संतान चाहने वाले राजा दशरथ के लिए। संतानकामयी वृष्टिर्भवने चास्य पेतुषी। 10/77 संतान प्राप्त करने वाले राजा दशरथ के राजभवन पर आकाश से कल्प वृक्ष के फूलों की जो वर्षा हुए उसी से। संतानश्रवणाद्भातुः सौमित्रिः सोमनस्यवान्। 15/14 भाई के पुत्र होने की बात सुनकर शत्रुघ्न का जी खिल गया। प्रतिकृतिरचनाभ्यो इतिसंदर्शिताभ्यः समधिकतर रूपाः शुद्ध संतान कामैः।
18/53
For Private And Personal Use Only
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
192
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
दूतियाँ भिन्न-भिन्न राजधानियों में जाकर सुन्दर-सुन्दर राजकुमारियों का चित्र ले आईं और राजा के संतान होने की इच्छा से मंत्रियों ने चित्र से बढ़कर सुन्दरी उन राजकुमारियों का विवाह महाराज सुदर्शन से करा दिया।
16. सुत :- [ सु+क्त] पुत्र, राजा ।
दिवं मरुत्वानिव भोक्ष्यते भुवं दिगन्तविश्रान्तरथोहि तत्सुतः । 3/4 भविष्य में उसका पुत्र भी संपूर्ण पृथ्वी पर उसी प्रकार राज करे, जैसे इन्द्र स्वर्ग पर राज करते हैं।
निवातपद्मस्तिमितेन चक्षुषा नृपस्य कान्तं पिबतः सुताननम्। 3/17 जैसे वायु के रूक जाने पर कमल निश्चल हो जाता है, वैसे ही राजा एकटक होकर अपने पुत्र का मुँह देखने लगे ।
न संयतस्तस्य बभूव रक्षितु विसर्जयेद्यं सुतजन्महर्षितः 1 3 / 20
राज्य में कोई बंदी नहीं था, जिसे वे पुत्र जन्म की प्रसन्नता में छोड़ते । तथा नृपः सा च सुतेन मागधी ननन्दतुस्तत्सदृशेन तत्समौ । 3 / 23 वैसे ही राज दिलीप और रानी सुदक्षिणा भी उन दोनों के ही समान, तेजस्वी पुत्र को पाकर बड़े प्रसन्न हुए।
विभक्तमप्येकसुतेन तत्तयोः परस्परस्योपरि पर्यचीयत । 3/4
वह प्रेम यद्यपि एक मात्र पुत्र रघु पर बँट गया था, फिर भी उनके परस्पर प्रेम में कमी नहीं हुई।
उपान्तसंमीलितलोचनो नृपश्चिरात्सुत स्पर्शरसज्ञतां ययौः । 3 / 26 उस सयम आँखें बंद करके राजा दिलीप बहुत देर तक पुत्र के स्पर्श का आनन्द ते ही रह जाते थे ।
नियुज्य तं होमतुरंगरक्षणे धनुर्धरं राजसुतैरनुदुतम् । 3 / 38
दिलीप ने यज्ञ के घोड़े की रक्षा का भार रघु और अन्य धनुर्धर राजकुमारों को सौंपकर |
आधारबन्ध प्रमुखैः प्रयत्नैः संविर्धतानां सुतनिर्विशेषम् । 5/6
आप लोगों ने आश्रम के जिन वृक्षों के थाँवले बाँधकर, उन्हें पुत्र के समान जतन से पाला था ।
राजापि लेभे सुतमाशु तस्मादालोकमर्कादिव जीवलोकः । 5/35 जैसे सूर्य से संसार को प्रकाश मिलता है, वैसे ही ब्राह्मण के आशीर्वाद से थोड़े ही दिनों में रघु को भी पुत्र रत्न प्राप्त हुआ।
For Private And Personal Use Only
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
193
गुणवत्सुतरोपितश्रियः परिणामे हि दिलीपवंशजाः । 8/11
दिलीप वंश में जितने राजा हुए, वे बुढ़ापे में सब राज-काज अपने गुणवान पुत्र को सौंपकर |
तमरण्यसमाश्रयोन्मुखं शिरसा वेष्टनशोभिना सुतः । 8 / 12
जब राजा रघु जंगल में जाने को उद्यत हुए, तब पुत्र अज ने मनोहर पगड़ी वाला अपना सिर ।
प्रथमा बहुरत्नसूरभूदपरा वीरमजीजनत्सुतम् । 8 / 28
बदले में पृथ्वी ने बहुत से रत्न उत्पन्न किए और इन्दुमती ने वीर पुत्र को जन्म दिया ।
निववृते स महार्णवरोधसः सचिवकारित बाल सुताञ्जलीन्। 9/14 उन देशों के मंत्रियों ने उन राजपुत्रों को दशरथ के आगे हाथ जोड़कर खड़ा कर दिया और राजा दशरथ उस महासमुद्र के तट से वापस लौट आए।
तस्मै द्विजेतरतपस्वितसुतं स्खलद्भिरात्मानमक्षर पदैः कथयांबभूव 19/76 तब उसने लड़खड़ाती वाणी से बताया कि मैं ब्राह्मण पुत्र नहीं हूँ, मेरे पिता वैश्य हैं और मेरी माता शूद्रा हैं ।
सुताभिधानं स ज्योतिः सद्यः शोकतमोपहम् । 10 / 2
शोक के अंधेरे को दूर करने वाली वह ज्योति उन्हें नहीं मिल सकी, जिसे पुत्र कहते हैं।
तेन शैल गुरुमप्यपातयत्पांडुपत्रमिव ताडका सुतम् । 11/28
पर्वत से भी बड़े ताड़का के पुत्र मारीच को सूखे पत्ते के समान दूर फेंक दिया (उड़ा दिया) ।
द्वितीयेन सुतस्यैच्छ्द्वैधव्यैकफलां श्रियम्। 12/6
दूसरा यह कि मेरे बेटे भरत को राज्य मिले, पर इस वर माँगने का एक मात्र फल यही निकला कि कैकेयी विधवा हो गई।
For Private And Personal Use Only
विस्पष्टमस्त्रान्धतया न दृष्टौ ज्ञातौ सुतस्पर्श सुखोपलम्भात्। 14/2 अपने पुत्रों को देखते ही दोनों माताओं की आँखों में आँसू छलछला आए, इसलिए वे आँख भर उन्हें देख भी नहीं सकीं; पर पुत्रों को प्यार से पुचकारते समय उन्हें पहचान गईं।
सुतासूत संपन्नौ कोशदण्डाविव क्षितिः । 15/13
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
194
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
दो तेजस्वी पुत्रों को उसी प्रकार जन्म दिया, जैसे पृथ्वी अपने राजा के लिए धन और सैन्य उत्पन्न करती हैं।
तद्वियोग व्यथां किंचिच्छिथिली चक्रतुः सुतौ । 15/34
उन दोनों पुत्रों ने वियोग से व्यथित सीता का बहुत मन बहलाया । अवैमि कार्यान्तर मानुषस्य विष्णोः सुताख्यामपरां तनुं त्वाम् । 16/82 मैं यह जानता हूँ कि आप राक्षसों का नाश करने के लिए मनुष्य का शरीर धारण करने वाले विष्णु के ही दूसरे रूप अर्थात पुत्र हैं ।
अनीकिनानां समरेऽग्रयायी तस्यापि देवप्रतिमः सुतोऽभूत् । 18 / 10 इन्द्र के समान पुत्र हुआ जो युद्ध में सेना के आगे-आगे चलता था, और जिसका देव शब्द से आरंभ होने वाला और अनीक शब्द से अंत होने वाला देवानीक
नाम था ।
वशी सुतस्य वंश वदत्वात्स्वेषामिवासी द्विष तामपीष्टः । 18/13
उनके जितेन्द्रिय पुत्र देवानीक इतना मधुर बोलते थे, कि शत्रु भी उनका मित्र के समान ही आदर करते थे ।
सुतोऽभवत्पंक जनाभकल्पः कृत्स्नस्य नाभिर्नृपमंडलस्य । 18 / 20
शिल को उन्नाभ नामक प्रसिद्ध पुत्र हुआ, जो विष्णु के समान पराक्रमी होने के कारण संसार के सभी राजाओं के मुखिया बन गए।
लब्ध पालनविधौ न तत्सुतः खेदमाप गुरुणा हि मेदिनी । 19/3
पितासे पाई हुई पृथ्वी का पालन करने में पुत्र अग्निवर्ण को कोई कठिनाई नहीं हुई क्योंकि उनके पिता ने शत्रुओं को पहले ही हरा दिया था।
17. सूनु: - [ सू+नुक् ] पुत्र, बाल-बच्चा ।
सूनुः सूनृतवाक्स्त्रष्टर्विससर्जोर्जित श्रियम् । 1/93
विद्वान सत्यवक्ता, ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठजी ने राजा दिलीप को सोने की आज्ञा दी। दिलीपसूनुर्मणिराकरोद्भवः प्रयुक्तसंस्कार इवाधिकं बभौ । 3/18 संस्कार हो जाने पर दिलीप का वह पुत्र वैसे ही सुन्दर लगा, जैसे खान से निकलकर खरादा हुआ हीरा ।
अथ स विषयव्यावृतात्मा यथाविधि सूनवे नृपति ककुदं दत्वा यूने सितातपवारणम् । 3/70
तब संसारके सब विषय छोड़कर राजा दिलीप ने अपने नवयुवक पुत्र रघु को शास्त्रों के अनुसार छत्र, चंवर आदि राजचिह्न दे दिए।
For Private And Personal Use Only
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
195
हस्तेन हस्तं परिगृह्य वध्वाः स राजसूनुः सुतरां चकासे। 7/21 वैसे ही जब रघु के पुत्र अज ने अपनी बहू का हाथ थामा, तब वे भी बहुत सुन्दर लगने लगे। प्रियंवदात्प्राप्तमसौ कुमारः प्रायुक्त राजस्व धिराजसूनुः। 7/61 तब महाराज रघु के पुत्र, सावधान अज ने प्रियंवद का दिया हुआ। दुरितैरपि कर्तुमात्मसात्प्रयतन्ते नृपसूनवो हि यत्। 8/2 जिस राज्य को पाने के लिए दूसरे राज कुमार खोटे उपायों को प्रयोग करने में भी संकोच नहीं करते। तेनाष्टौ परिगमिता समाः कथंचिद् बाल त्वाद् वितथसूनृतेन सूनोः। 8/92 प्रिय, सत्यभाषी अज ने अपने पुत्र के बचपन का ध्यान करके किसी प्रकार आठ वर्ष बिता दिए। बालसूनुरवलोक्य भार्गवं स्वां दशां च विषसाद पार्थिवः। 11/67 जब दशरथ जी ने परशुराम को देखा, तब उन्हें अपनी दशा देखकर बड़ी चिंता हुई क्योंकि उनके पुत्र अभी बालक ही थे। प्रजानिषेकं मयि वर्तमानं सूनोरनुध्यायत चेतसेति। 14/60 मेरे गर्भ में आपके पुत्र का तेज है इसलिए आप लोग हृदय से उसकी कुशल मनाते रहिएगा। तद्योगात्पतिवत्नीषु पत्नीष्वासन्द्विसूनवः। 15/35 अपनी-अपनी पत्नियों के साथ संभोग करके दो-दो पुत्र उत्पन्न किए। तस्या भवत्सूनुरुदारशील: शिल: शिलापट्ट विशालवक्षाः। 18/17 उन्हें शिल नामका बड़ा शीलवान् पुत्र हुआ, जिसकी छाती पत्थर की पाटी जैसी चौड़ी थी। महीं महेच्छः परिकीर्य सूनौ मनीषिणे जैमिनयेऽर्पितात्मा। 18/33 राजा पुत्र बड़े उदार हृदय वाले थे, उन्होंने पृथ्वी का भार अपने पुत्र को सौंप दिया और स्वयं जैमिनी ऋषि के शिष्य होकर।
पुरुष
1.
पुंस :-(पुं०) [पा+डुयसुन्] पुरुष, नर। अनुप्रवेशादाद्यास्य पुंसस्तेनापि दुर्वहम्। 10/51
For Private And Personal Use Only
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
196
कालिदास पर्याय कोश उस खीर में सारे ब्राह्मण्ड को संभालने वाले विष्णु भगवान बैठे हुए थे, इसलिए
वह दिव्य पुरुष भी उस कटोरे को बड़ी कठिनाई से संभाल पा रहा था। 2. पुरुष :-[पुरि देहे शेते-शी+ड पृषो० तारा०, पु+कुषन्] नर, मनुष्य, मर्द।
केवलं स्मरणेनैव पुनासि पुरुषं यतः। 10/29 आपके स्मरण मात्र से ही लोग पवित्र हो जाते हैं। पुरुषः प्रबभूवाग्नेविस्मयेन सहविजाम्। 10/50 यज्ञ की अग्नि में से एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसे देखकर यज्ञ करने वाले सभी ऋषि बड़े अचरज में पड़ गए।
पुरोग 1. ककुद :-[कस्य देहस्यः सुखस्य वा कुं भूमि ददाति-दा+क] मुख्य, प्रमुख।
इक्ष्वाकु वंश्यः ककुदं नृपाणां ककुत्स्थं इत्याहित लक्षणोऽभूत्। 6/71 देखो इक्ष्वाकु वंश में, राजाओं में श्रेष्ठ और सुंदर लक्षणों वाले एक ककुत्स्थ नाम
के राजा हुए हैं। 2. पुरोग :-[पूर्व+असि, पुर आदेशः+ग] मुख्य, अग्रणी, प्रमुख।
ज्याघात रेखे सुभुजो भुजाभ्यां बिभर्ति यश्चापभृतां पुरोगः। 6/55 धनुषधारियों में तो इनसे बढ़कर कोई है ही नहीं। इनकी भुजाओं पर जो दो काली-काली रेखाएँ, धनुष की डोरी खींचने से बन गई हैं। स किंवदन्तीं वदतां पुरोगः स्ववृतमुद्दिश्य विशुद्ध वृत्तः। 14/31 सदाचारी और शत्रु विजयी राम ने अपने भद्र नाम के दूत से पूछा-कहो भद्र!
हमारे विषय में प्रजा क्या कहती है। 3. प्रवीर :-अग्रणी, उत्तम, सर्वश्रेष्ठ।
तस्यै प्रतिश्रुत्य रघुप्रवीरस्तदीप्सितं पार्श्वचरानुयातः। 14/29 रामचन्द्र जी ने कहा- अच्छी बात है। वहाँ से उठकर वे अपने सेवकों के साथ। अथेतरे सप्त रघुवीरा ज्येष्ठं पुरोजन्मतया गुणैश्च। 16/1
लव आदि सात रघुवंशी वीरों ने सबसे बड़े भाई को मुखिया बनाया। 4. प्रागहर :-मुख्य, प्रधान।'
तथेति तस्याः प्रणयं प्रतीतः प्रत्यग्रहीत्यागहरो: रघूणाम्। 16/23 कुश ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और कहा-ऐसा ही करेंगे।
For Private And Personal Use Only
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पुरोध
1. पुरोध : - [ पूर्व + असि, पुरा आदेश: +धस् ] कुलपुरोहित, पुरोहित । तत्रार्चितो भोजपतेः पुरोधा हुत्वाग्निमाज्यादिभिरग्निकल्पः । 7/20 वहाँ विदर्भ-राज के अग्नि के समान तेजस्वी पुरोहित ने घी आदि सामग्रियों से हवन करके ।
2. पुरोहित - [ पूर्व + असि, पुर आदेश: + हित] कुलपुरोहित ।
:
पुरोहित पुरोगास्तं जिष्णुं जत्रैरथर्वभिः । 17/13
197
तब पुरोहित जी को आगे करके ब्राह्मण आए और उन्होंने विजयी राजा को अथर्ववेद के उन मंत्रों को पढ़कर।
पुष्प
1. कुसुम :- [ कुष् + उम् ] फूल ।
कुसुमैर्ग्रथिवामपार्थिवैः स्रजमातोघशिरोनिवेशिताम् । 8/34
उनकी वीणा के सिरे पर स्वर्गीय फूलों से गुँथी हुई माला लटकी हुई थी। भ्रमरैः कुसुमानुसारिभिः परिकीर्णा परिवादिनी मुनेः । 8/35
वह माला तो गिर गई, पर फूलों के साथ लगे हुए भौरे अभी तक नारदजी की वीणा पर मँडरा रहे थे ।
कुसुमान्यपि गात्रसंगमात्प्रभवन्त्यायुर पोहितं यदि । 8/44
हाय ! जब फूल भी शरीर को छूकर प्राण ले सकते हैं, तब तो दैव जब किसी को मारना चाहेगा तब ।
कुसुमोत्खचितान्वलीभृतश्चलयन्भृंगरुचस्तवालकान् । 8 /53
फूलों से गुँथीं और भौंरों के समान काली तुम्हारी लटें, जब वायु से हिलती हैं । कुसुमं कृत दोहदस्त्वया यदशोकोऽपमुदीरयष्यति । 8 / 62
जिस अशोक को तुमने अपने चरणों को ठोकर लगाई थी, वह आगे चलकर फूलेगा, तब उसके फलों को मैं ।
For Private And Personal Use Only
अथसमाववृते कुसुमैर्नवैस्तमिव सेवितुमेकनराधिपम् । 9/24
उन एकच्छत्र राजा का अभिनंदन करने के लिए वसंत ऋतु भी नये-नये फूलों की भेंट लेकर, वहाँ आ पहुँची ।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
198
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्ट्कोकिलकूजितम् । 9/26
पहले फूल खिले, फिर नई कोपलें फूटीं, फिर भरे गूंजने लगे और तब कोयल की कूक भी सुनाई पड़ने लगी ।
कुसुमेव न केवलमार्तवं नवमशोकतरोः स्मरदीपनम् । 9/28
उन दिनों वसंतं में फूले हुए अशोक के फूलों को देखकर ही कामोद्दीपन नहीं
होता था ।
सुवदनावदनासवसंभृतस्तदनुवादिगुणः कुसुमोद्गमः । 9 / 30
बकुल के जो वृक्ष सुन्दरी स्त्रियों के मुख की मदिरा के कुल्ले से फूल उठे थे और जिनमें उन्हीं स्त्रियों के समान गुण भी भरे थे ।
सुरभिगन्धिषु शुश्रुविरे गिरः कुसुमितासु मिता वनराजिषु । 9/34 जिस समय मनोहर सुगन्ध वाली वन की फूली हुई लताओं पर कोयल ने कूक सुनाई ।
श्रुतिसुख भ्रमरस्वनगीतयः कुसुमकोमल दन्तरुचो बभुः । 9/3
मानो कानों को सुख देने वाली भौंरों की गुंजार ही उनके गीत हों, खिले हुए कमल के फूल ही उनकी हँसी के दाँत हों ।
युवतयः कुसुमं दधुराहितं तदलके दलकेसरपेशलम् । 9/40
अपने प्रियतमों के हाथों से जूड़ों में खँसे हुए वे सुन्दर पंखड़ी वाले और पराग वाले फूल स्त्रियों के केशों में बड़े सुन्दर लग रहे थे ।
अलिभिरंजन बिन्दु मनोहरैः कुसुमपंक्तिनिपातिभिरंकितः । 9/41 उस तिलक वृक्ष के फूलों पर मंडराते हुए काजल की बुंदियों के समान सुन्दर और ऐसे जान पड़ते थे, मानो वनस्थलियों का मुख भी चीत दिया गया हो । कुसुमसंभृतया नवमल्लिका स्मितरुचा तरुचारु विलासिनी। 9/42 फूलों की मुस्कान लेकर वृक्षों की सुंदरी नायिका नवमल्लिका लता देखने वालों को पागल बनाए डालती थी ।
कुसुम केसर रेणुमलिव्रजाः सपवनो पवनोत्थितमन्वयुः । 9/45 उपवन के फूलों का पराग जो वायु ने उड़ाया, तो भौंरो के झुण्ड भी उसके पीछे-पीछे उड़ चले।
For Private And Personal Use Only
स ललितकुसुमप्रवालशय्यां ज्वलित महौषधि दीपिकासनाथाम् । 9/70 उन्हें सारी रात फूल-पत्तों की सांथर पर, रात को चमकने वाली बूटियों के प्रकाश के सहारे, बिना किसी सेवक के अकेले ही काटनी पड़ी।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
रघुवंश
नृत्यं मयूराः कुसुमानि वृक्षा दर्भानुपात्तान्विजहुर्हरिण्यः । 14/69
उनका रोना सुनकर मयूरों ने नाचना बंद कर दिया, वृक्ष फूल के आँसू गिराने लगे और हरिणियों ने मुँह में भरी हुई घास का कौर गिरा दिया। तत्प्रतिद्वन्द्विनो मूर्ध्नि दिव्याः कुसुमवृष्टयः । 15/25
उसके प्रतिद्वन्दी शत्रुघ्न के सिर के ऊपर स्वर्ग से फूलों की वर्षा होने लगी । आधूय शाखाः कुसुमदुमाणां स्पृष्ट्वा च शीतान्सरयूतरंगान् । 16/36 अयोध्या के उपवनों में फूले हुए वृक्षों की डालियों को हिलाता हुआ तथा सरयू के शीतल जल के स्पर्श से ठंडा वायु ।
2. पुष्प :- [ पुष्प+अच्] फूल, कुसुम ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
199
पुष्परेणूत्किरैर्वातैराधूत वनराजिभिः । 1/38
फूलों के पराग उड़ाता हुआ और वन के वृक्षों की पाँतों को धीरे-धीरे कँपाता हुआ पवन ।
पृक्तस्तुषारैर्गिरिनिर्झराणा मनोकहा कम्पित पुष्पगंधी । 2 / 13
पहाड़ी झरनों की ठंडी फुहारों से लदा हुआ और मंद-मंद कँपाए हुए वृक्षों की फूलों की गंध में बसा हुआ वायु ।
शशाम वृष्टयापि बिना दवाग्नि रासीद्विशेषा फल पुष्प वृद्धिः । 2/14 वर्षा के बिना ही वन की आग ठंडी हो गई, वहाँ के पेड़ भी फल और फूलों से लद गए।
अवांग्मुखस्योपरि पुष्पवृद्धिः पपात विद्याधर हस्तमुक्ता । 2/60 इतने में ही नीचा मुँह किये राजा दिलीप के ऊपर आकाश से विद्याधरों ने फूलों की झड़ी लगा दी ।
फलेन सहकारस्य पुष्पोद्गम इव प्रजाः । 4 / 9
जैसे आम के सुन्दर फल देखकर लोग उसके बौर (फूल) को भूल जाते हैं। रत्नपुष्पोपहारेण च्छायामानर्च पादयोः । 4 / 84
जैसे कोई भक्त फूल-माला आदि से भक्तिपूर्वक देवता की पूजा करता है, वैसे ही उसने रघु के चरणों की छाया को रत्नों से पूजा ।
For Private And Personal Use Only
अथ प्रभवोपनतैः कुमारं कल्पदुमोत्थैरवकीर्य पुष्पैः । 5 / 52
उस पुरुष ने अपने प्रभाव से कल्पवृक्ष के फूल मँगाकर अज के ऊपर बरसाये । वृन्ताछ्लथं हरति पुष्पमनोकहानां संसृज्यते सरसिजैररुणांशु भिन्नैः । 5/69
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
200
कालिदास पर्याय कोश
प्रातः काल का पवन वृक्षों की शाखाओं पर झूलने वाले ढीले कोरवाले फूलों को गिराता हुआ, सूर्य की किरणों से खिले हुए कमलों को छूता हुआ चल रहा
भवतिविरल भक्तिर्लान पुष्पोपहारः स्वकिरणपरिवेषोभेदशून्यः प्रदीपाः ।
5/74
रात की सजावट के फूल मुरझाकर झड़ गए हैं, उजाला हो जाने के कारण दीपक का प्रकाश भी अब अपनी लौ से बाहर नहीं जाता। मदोत्कटे रेचित पुष्प वृक्षा गन्धद्विपे वन्यइव द्विरेफाः। 6/7 जैसे फूलवाले वृक्षों को छोड़कर मद बहाने वाले जंगली हथियों पर भौरे झुक पड़ते हैं। तया स्रजा मंगलपुष्पमय्या विशालवक्षःस्थललम्बया सः। 6/84 जब अज के गले में वह फूलों की मंगलमाला पड़ी और उनकी चौड़ी छाती पर झूल गई। इति चोपनता क्षितिस्पृशं कृतवाना सुरपुष्पदर्शनात्। 8/81 इस पर ऋषि ने कहा- जब तक तुम्हें स्वर्गीय पुष्प नहीं दिखाई पड़ेंगे, तब तक तुम्हें पृथ्वी पर ही रहना पड़ेगा। अंशैरनुययुर्विष्णुं पुष्पैर्वायुमिव दुमाः। 10/49 जैसे वायु के चलने पर वन के वृक्ष अपने फूल उसके साथ भेज देते हैं, वैसे ही विष्णु देवताओं का कार्य करने के लिए चले तो देवताओं ने अपने-अपने अंश उनके साथ भेज दिए। सा चकारांग रागेण पुष्पोच्चलित षट्पदम्। 12/27 उसने ऐसा सुगंधित अंगराग लगाया कि उसकी पवित्र गंध पाकर भौरे भी जंगली फूलों से उड़-उड़कर उधर ही टूट पड़े। परस्परशरवाताः पुष्पवृष्टिं न सेहिरे। 12/94 पर राम के अस्त्र रावण के ऊपर बरसते हुए फूलों को ऊपर ही तितर-बितर कर देते और रावण के बाण राम पर बरसने वाले फूलों को आकाश में ही छितरा देत
थे।
उपनत मणि बंधे मूर्ध्नि पौलस्त्य शत्रोः सुरभि सुरविमुक्तं पुष्पवर्ष पपात।
12/102
For Private And Personal Use Only
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
जिस राम पर राज्याभिषेक का जल छिड़का जाने वाला था, उन्हीं के सिर पर देवताओं ने वे फूल बरसाए, जिनकी सुगंध पाकर भौंरे ।
अनिग्रहत्रास विनीत सत्त्वम् पुष्पलिंगात्फल बन्धिवृक्षम् | 13 /50
यह तपोवन इतना प्रभावशाली है कि यहाँ बिना फूल आए ही वृक्षों में फल लग जाते हैं।
201
कैलासनाथो द्वहनाय भूयः पुष्पं दिवः पुष्पकमन्वमंस्त । 14 / 20
तब राम ने स्वर्ग के फूल के समान पुष्पक विमान को भी कुबेर के पास जाने की आज्ञा दी ।
पुष्पं फलं चार्तवमाहरन्त्योबीजं च बालेयमकृष्टरोहि । 14/77
यहाँ की मुनि कन्याएँ तुम्हें सब ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले फूल-फल और पूजा के योग्य अन्न लाकर रख दिया करेंगी।
च्युतं न कर्णादपि कामिनीनां शिरीषपुष्पं सहसा पपात । 16/48 इसलिए जब वे सिरस के फूल कान पर से गिरते भी थे, तो सहसा पृथ्वी पर नहीं गिर पाते थे ।
अथोर्मिलोलीन्मदराजंसै रोधोलता पुष्पवहे सरय्वाः । 16/54 लहरों के लहराने से मतवाले बने हुए हंसों वाले तट की लताओं के फूलों को बहाने वाले, सरयू के जल में।
सेहेऽस्य न भ्रंश मतो न लोभात्स तुल्यपुष्पाभरणा हि धीरः । 16/74 बुद्धिमान राजा कुश, फूल और आभूण दोनों को बराबर समझते थे । तदनुः ववृषुः पुष्पमाश्चर्य मेघाः । 16/87
विचित्र प्रकार के मेघों ने आकर आकाश से सुगंधित फूल बरसा दिए । अथ मधु वनितानां नेत्रर्निवेशनीयं मनसितरुपुष्पं रागबन्ध प्रवालम् । 18/52 तब सुदर्शन के शरीर में वह जवानी आ गई, जो स्त्रियों की आँखों की मदिरा होती है, जो शरीर रूपी लता के पत्र व पुष्प होती है।
For Private And Personal Use Only
3. प्रसून :- [ प्र+सू+क्त, तस्य नत्वम] फूल ।
अवाकिरन्बाललताः प्रसूनैराचार लाजैरिव पौरकन्याः । 2/10
वन की लताएँ उनके ऊपर उसी प्रकार फूलों की वर्षा कर रही थीं, जिस प्रकार राजा के स्वागत में नगर की कन्याएँ राजा के ऊपर धान की खीलें बरसाती हैं। ततोऽभिषंगा निल विप्रविद्धा प्रभ्रश्यमाना भरण प्रसूना। 14/54
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
202
www. kobatirth.org
कालिदास पर्याय कोश
जैसे लू के लगने से लता के फूल झड़ जाते हैं और वह सूखकर पृथ्वी पर गिर पड़ती है।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पूर्व
1. पूर्व :- [ पूर्व+अच्] पूर्वी, पर्व दिशा में स्थित, पूर्व में, पूर्व दिशा । स सेनां महतीं कर्षन्पूर्वसागरगामिनीम् । 4/32
अपनी विशाल सेना के साथ जब वे पूर्वी समुद्र की ओर जा रहे थे ।
2. प्राची : - [ प्र+अञ्च + क्विन् + ङीप् ] पूर्व दिशा ।
सयौ प्रथमं प्राचीं तुल्यं प्राचीनबर्हिषा । 4/28
इन्द्र के समान प्रतापी राजा रघु पहले दिग्विजय के लिए पूर्व की ओर चले । पौलस्त्य
1. दशकंठ :- [ दंश्+कनिन् +कण्ठः ] रावण के विशेषण, रावण । दशपूर्वरथं यमाख्यया दशकंठारिगुरुं विदुर्बुधाः । 8 / 29
राम के पिता थे, जिन्होंने दस सिर वाले रावण को मारा था और जिन्हें पंडित लोग दशरथ कहते हैं।
रामेण मैथिलसुतां दशकंठकृच्छात् प्रत्युद्धतां धृतिमयीं भरतो ववन्दे ।
13/77
वैसे ही राम ने रावण रूपी संकट से जिसे उबार लिया था, उस विमान में बैठी हुई सीताजी को भरत ने जाकर प्रणाम किया ।
2. दशमुख :- [ दंश् +कनिन् + मुखः ] रावण का विशेषण ।
सीतां हित्वा दशमुखरिपुर्नोपयेमे यदन्यां तस्या एव प्रतिकृतिसखो
यत्क्रतूनाजहार। 14 / 87
रावण के शत्रु राम ने सीता को त्यागकर किसी दूसरी स्त्री से विवाह नहीं किया, वरन् अश्वमेध यज्ञ करते समय उन्होंने सीताजी की सोने की मूर्ति को ही अपने बाएँ बैठाया था ।
निर्वत्यैवं दशमुखशिरश्छेद कार्यं सुराणां । 15 / 103
विष्णु भगवान् ने इस प्रकार रावण का वध करके देवताओं का कार्य पूरा किया। 3. दशानन :- [ दंश+कनिन् + आननः ] रावण के विशेषण | दशाननकिरीटेभ्यस्तत्क्षणं राक्षसश्रियः । 10/75
For Private And Personal Use Only
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
203
रघुवंश
उसी समय रावण के मुकुट के राक्षसों की लक्ष्मी के आँसू के समान। 4. धनदानुज :-[धन्+अचाद: अनुजः] रावण का विशेषण।
निग्रहात्स्वसुराप्तानां वधाच्च धनदानुजः। 12/52 बहन का अपमान और खरदूषण आदि अपने संबंधियों का वध रावण को इतना
अपमानजनक जान पड़ा। 5. पौलस्त्य :-[पुलस्तेः अपत्यम्-पुलस्ति+यञ्] रावण का विशेषण।
पौलस्त्यतुलितस्यादेरादधान इव ह्रियम्। 4/80 इससे कैलास पर्वत को इस बात की लज्जा हुई, कि एक बार रावण ने मुझे क्या उठा लिया कि सभी मुझे हारा हुआ समझने लगे। तस्मिनवसरे देवाः पौलस्त्योप्लुता हरिम्। 10/5 ठीक उसी समय रावण के अत्याचार से घबराकर देवता लोग उसी प्रकार विष्णु की शरण में गए। शापयन्त्रित पौलस्त्य बलात्कारक चग्रहैः। 10/47 रावण ने उनके जूड़ों को नलकूबर के शाप के डर से, हाथ नहीं लगाया है। तस्योदये चतुर्मूते: पौलस्त्यचकितेश्वराः। 10/73 मानो रावण से डरे हुए कुबेर आदि दिग्पालों ने पृथ्वी पर चार रूपों में आए हुए भगवान को पाकर संतोष की साँस ली हो। दिग्विजूंभित काकुत्स्थ पौलस्त्यजयघोषणः। 12/72 राम और रावण की जय-जयकारों से दिशाएँ फटी पड़ती थीं। ततो बिभेद पौलस्त्यः शक्त्या वक्षसि लक्ष्मणम्। 12/77 तब मेघनाद ने खींचकर लक्ष्मण की छाती में शक्तिबाण मारा। निर्ययावथ पौलस्त्यः पुनयुद्धाय मन्दिरात्। 12/83 जब रावण ने सारा कांड सुना, तब वह अपने राजभवन से निकलकर रणभूमि में आया। तस्य स्फुरति पौलस्त्यः सीतासंगम शशिनि। 12/90 रावण ने बड़ा करके राम की फड़ककर सीता से मिलने की शुभ सूचना देने वाली उस भुजा में। उपनतमणिबंधे मूर्ध्नि पौलस्त्य शत्रोः सुरभि सुरविमुक्तं पुष्पवर्ष पपात।
12/102
For Private And Personal Use Only
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
204
कालिदास पर्याय कोश
रावण के शत्रु राम के सिर पर देवताओं ने वे फूल बरसाए, जिनकी सुगंध
पाकर।
रावण :-[रावयति भीषयति सर्वान्-रु+णिच् ल्युट्] एक प्रसिद्ध राक्षस, लंका का राजा; रावण। रावणावग्रहक्लान्त मिति वागमृतेन सः। 10748 वैसे ही रावणके डर से सूखे हुए देवताओं पर अपने मधुर वचन बरसाकर विष्णु भगवान् भी अन्तर्धान हो गए। राघवास्त्र विदीर्णानां रावणंप्रति रक्षसाम्। 12/51 राम के अस्त्र से मारे हुए उन राक्षसों की मृत्यु का समाचार रावण के पास पहुंचाने के लिए। स रावण हृतां ताभ्यां बद्यन्साचष्ट मैथिलीम्। 12/55 वह रामलक्ष्मण से बोला कि सीताजी को रावण ले गया है। अरावणमरामं वा जगदद्येति निश्चितः। 12/83 उसने मन में ठान लिया था कि आज संसार में या तो रावण ही नहीं रहेगा या राम ही नहीं रहेंगे। रामरावणयोर्युद्धं चरितार्थमिवाभवत्। 12/87 इस प्रकार तीनों लोकों में जो रामरावण का युद्ध प्रसिद्ध था, वह आज सफल हो गया। रावणस्यापि रामास्तो भित्त्वा हृदयमाशुगः। 12/91 उसने रावण के दसों सिरों को आधे पल में काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया, जिससे
रावण को तनिक भी कष्ट न हुआ। 7. लंकाधिपति :-[लक+अच, मुम् च+ अधिपति] लंका का स्वामी रावण।
पुरा जनस्थान विमर्दशंकी संधाय लंकाधिपतिः प्रतस्थे। 6/62 जब महाप्रतापी रावण इन्द्र को जीतने चला, तब उसने इस डर से संधि कर ली
थी, कि कहीं ऐसा न हो कि मेरे पीठ पीछे ये मेरे देश को तहस-नहस कर दें। 8. लंकेश :-[लक्+अच, मुम् च+ईश:] लंका का स्वामी रावण।
रामं पदातिमालोक्य लंकेशं च वरूथिनम्। 12/84
राम को पैदल और रावण को रथ पर देखकर। १. लंकेश्वर :-[लक्+अच्, मुम् च +ईश्वरः] लंका का स्वामी रावण।
For Private And Personal Use Only
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
205
कारागृहे निर्जितवासवेन लंकेश्वरेणोषितमाप्रसादात्। 6/40 जिस रावण ने इन्द्र को जीत लिया था, उसको भी उन्होंने अपने कारागार में बन्दी रख कर छोड़ा था। लंकेश्वरप्रणति भंगदृढ़व्रतं तदबन्धं युगं चरणयोर्जनकात्मजायाः। 13/78 सीताजी के जिन पवित्र चरणों ने रावण की प्रणय-प्रार्थना को दृढ़ता पूर्वक
ठुकरा दिया था। 10. सुरारि :-[सुष्ठ राति ददात्यभीष्टम्-सु+रा+क+अरिः] देवों का शत्रु, राक्षस।
तच्चात्य चिन्तासुलभं विमानं हृतं सुरारेः सह जीवितेन। तब राम ने पुष्पक विमान को भी जाने की आज्ञा दी, जिसे उन्होंने रावण के प्राण के साथ-साथ उससे छीन लिया था।
प्रकाश
1. आलोक :-[आ+लोक्+घञ्, ल्युट् वा] दर्शन, प्रकाश, प्रभा, कान्ति ।
राजापि लेभे सुतमाशु तस्मादालोकमर्कादिव जीवलोकः। 5/35 जैसे सूर्य से संसार को प्रकाश मिलता है, वैसे ही ब्राह्मण के आशीर्वाद से थोड़े ही दिन में रघु को भी पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ। आलोकमार्ग सहसा ब्रजंत्या कयाचिदुद्वेष्टनवान्तमाल्यः। 7/6 एक सुंदरी उन्हे देखने के लिए जब झरोखे की ओर लपकी, तब सहसा उसका जूड़ा खुल गया। प्रकाश :-[प्र+का+अच्] दीप्ति, कान्ति, आभा, उज्ज्वलता, प्रकाश, धूप। प्रकाशश्चाप्रकाशश्च लोकालोक इवाचलः। 1/68 जिस प्रकार लोकालोक नाम का पर्वत एक ओर से सूर्य का प्रकाश पड़ने से चमकता है और दूसरी ओर प्रकाश न पड़ने से अंधियारा रहता है। श्रुत प्रकाशं यशसा प्रकाशः प्रत्युञ्ज गामातिथिमातिथेयः। 5/2 अतिथि का सत्कार करने वाले अत्यन्त शीलवान और यशस्वी राजा रघु विद्वान अतिथि की पूजा करने चले। नीहारमग्नो दिनपूर्वभागः किंचित्प्रकाशेन विवस्वतेव। 7/60
जैसे कोहरे के दिन, प्रभात होने का ज्ञान धुंधले सूर्य को देखकर होता है। 3. भास :-[भास्+क्विप्] प्रकाश, कान्ति, चमक।
For Private And Personal Use Only
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
206
कालिदास पर्याय कोश अधिवसंस्तनुमध्वर दीक्षितामसमभासमभासयदीश्वरः। 9/21 जब वे यज्ञ की दीक्षा लेकर बैठे, उस समय भगवान् अष्टमूर्ति महादेव उनके शरीर में पैठ गए, जिससे उनकी शोभा और अधिक बढ़ गई। सा साधुसाधारणपार्थिवर्द्धः स्थिता पुरस्तात्पुरुहूतभासः। 16/5 अपनी संपत्ति से सज्जनों का उपकार करने वाले, इन्द्र के समान तेजस्वी राजा। मयूख :-[मा+ऊख मयादेशः] प्रकाश, रश्मि, अंशु, कान्ति, दीप्ति। अथान्धकारं गिरिगह्वराणां दंष्ट्रामयूखैः शकलानि कुर्वन्। 2/46 वह शिवजी का सेवक सिंह गुफा के अंधेरे में दाँत की चमक से उजाला करता हुआ। प्रागेव मुक्ता नयनाभिरामाः प्राप्येन्द्र नीलं किमुतोन्मयूखम्। 16/69 मोती तो यूँ ही सुन्दर होता है और फिर वह इन्द्र नीलमणि के साथ गूंथ दिया जाय, तब तो उसकी चमक का कहना ही क्या।
प्रजा 1. जन :-[जन्+अच्] मनुष्य, व्यक्ति, पुरुष।
जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ द्वावष्यभूतामभिनन्द्य सत्त्वौ। 5/31 अयोध्या-निवासियों ने इन दोनों की बड़ी प्रशंसा की। मेने यथा तत्र जनः समेतो वैदर्भमागन्तुमजं गृहेशम्। 5/62 लोग यही समझने लगे कि अज ही इस घर के स्वामी हैं और भोज अतिथि हैं। यति पार्थिवलिंगधारिणौ ददृशाते रघुराघवौ जनैः। 8/16 संन्यासी बने हुए रघु और राजा बने हुए अज को देखकर लोगों ने यह समझ लिया कि दो अंश पृथ्वी पर साथ चले आए हैं। जनास्तदालोक पथात्प्रति संहृत चक्षुषः। 15/78
उन्हें देखते ही लोगों ने उसी प्रकार अपनी आँखें नीची कर ली। 2. जनता :-[जनानां समूहः -तल्] लोगों का समूह, समुदाय, मनुष्य जाति।
पश्यति स्म जनता दिनात्यये पार्वणौ शशि दिवाकराविव। 11/82 वे लोगों को इस प्रकार जान पड़ने लगे, जैसे वे संध्या समय के चंद्रमा और सूर्य हों। जनता प्रेक्ष्य सादृश्यं नाक्षिकम्पं व्यतिष्ठत। 15/67
For Private And Personal Use Only
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
207
लोगों ने एकटक होकर राम और उन दोनों बालकों का एकदम मिलता जुलता
वह रूप देखा। 3. पुरौकस :-प्रजा, जनता, लोग।
अन्येधुरथ काकुत्स्थः संनियात्य पुरौकसः। 15/75 दूसरे दिन राम ने इस काम के लिए प्रजा को इकट्ठा करके। पौर :-[पुर+अण्] शहरी नागरिक। पुरंदरश्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरेरभिनन्द्यमानः। 12/74 इन्द्र के समान संपत्तिशाली राजा दिलीप ने प्रजा का आदर पाकर उस अयोध्या में प्रवेश किया, जिसमें उनके स्वागत के लिए झंडे ऊँचे कर दिए गए थे। सा पौरान्पौरकान्तस्य रामस्याभ्युदयश्रुतिः। 12/3 वैसे ही नगरवासियों के प्यारे राम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर, अयोध्या के लोग फूले नहीं समाए। तमब्रवीत्सा गुरुणानवद्या या नीतपौरा सपदोन्मुखेन। 16/9 उस स्त्री ने उत्तर दिया- हे राजन् ! जब राम बैकुण्ठ जाने लगे, तब जिस निर्दोष अयोध्यापुरी के निवासियों को वे अपने साथ लेते गए। प्रकृति :-[प्रकृ+क्तिन] मंत्रिपरिषद्, राजा की प्रजा। तथेव सोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृतिरंजनात्। 4/12 वैसे ही रघु ने भी प्रजा का रंजन करके, उन्हें सुख देकर अपना राजा नाम सार्थक कर दिया। अहमेव मतो महीपतेरिति सबः प्रकृतिष्वचिन्तयत्। 8/8 वे अपनी प्रजा को बहुत प्यार करते थे, इससे सब लोग यही सोचते थे कि वे हमें ही सबसे अधिक मानते हैं। अथवीक्ष्य रघुः प्रतिष्ठितं प्रकृतिष्वात्मजमात्मवत्तया। 8/10 जब रघु ने देखा कि हमारे पुत्र अज का प्रजा में बड़ा आदर है और वह भली भाँति राज कर रहा है। नृपतिः प्रकृतिरवेक्षितुं व्यवहारासनमाददे युवा। 8/18 इधर युवा राजा अज जनता के कामों की देखभाल करने के लिए न्याय के आसन पर बैठते थे। ज्योतिष्पथादवततारसविस्मयाभिरुद्धीक्षितं प्रकृतिभिर्भरतानुगामिः।
13/68
For Private And Personal Use Only
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
208
कालिदास पर्याय कोश वह विमान आकाश से नीचे उतर आया और भरत जी के पीछे चलने वाली सारी जनता आँख फाड़-फाड़ कर उन्हें देखने लगी। इत्थं जनित रागासु प्रकृतिष्वनुवासरम्। 17/44 इस प्रकार प्रजा उनसे दिन पर दिन अधिक प्रेम करने लगी। अनाथदीनाः प्रकृतीरवेक्ष्य साकेतनाथं विधिवच्चकार। 18/36 प्रजा की दीन दशा देखकर सर्वसम्मति से उनके इकलौते पुत्र सुदर्शन को
विधिपूर्वक साकेत का स्वामी बना दिया। 6. प्रजा :-[प्र+जन्+ड टाप्] सन्तान, प्रजा, सन्तति, बच्चे।
न व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुर्नेभिवृत्तयः। 1/17 वैसे ही राजा ने ऐसे अच्छे ढंग से प्रजा की देखभाल की थी कि प्रजा का कोई भी व्यक्ति मनु के बताए हुए नियमों से बहककर चलने का साहस नहीं कर सकता था। प्रजानामेव भूत्यर्थं सताभ्यो बलिमग्रहीत्। 1/18 वैसे ही राजा दिलीप भी अपनी प्रजा से जितना कर लेते थे, वह सब प्रजा की भलाई में ही लगा देते थे। प्रजानां विनया धानादक्षणान्परिणेतुः प्रसूतये। 1/24 राजा दिलीप भी अपनी प्रजा को बुरे मार्ग पर जाने से रोकते थे, अच्छा काम करने को उत्साहित करते थे, विपत्तियों से उनकी रक्षा करते थे और उनके लिए अन्न, वस्त्र, धन तथा शिक्षा का प्रबंध करके उनका पालन-पोषण करते थे। तमाहितौत्सुक्यम् दर्शनेन प्रजाः प्रजार्थव्रतः कर्शितांगम्। 2/73 राजा को अयोध्या से गए बहुत दिन हो गए थे, इसलिए प्रजा उनके दर्शन के लिए तरस रही थी, पुत्र की उत्पत्ति के लिए जो उन्होंने व्रत लिया था, उससे वे कुछ दुबले हो गए थे। ततः प्रजानां चिरमात्मना धृतां नितान्तगुर्वी लघयिष्यता रघुम्। 3/35 जब राजा दिलीप ने देखा कि रघु भली-भाँति राज्य संभाल सकते हैं, तब उन्होंने सोचा कि बहुत दिनों से जो राज्य मैं चला रहा हूँ, उसे रघु को क्यों न सौंप दूँ। नवाभ्युत्थान दर्शिन्यो ननन्दुः सप्रजाः प्रजाः। 4/3 जब राजा रघु अपने ऊंचे सिंहासन पर बैठते थे, तब उनकी प्रजा के सब बूढ़े-बच्चे उनकी ओर आँख उठाकर देखते हुए वैसे ही प्रसन्न होते थे।
For Private And Personal Use Only
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
209
फलेन सहकारस्य पुष्पोद्गम इव प्रजाः। 4/9 जैसे आम के सुन्दर फल देखकर उसके बौरे को भूल जाते हैं, वैसे ही लोग राजा रघु को देखकर दिलीप को भूल गए। प्रजार्थ साधने तौ हि पर्यायोद्यत कार्मुकौ। 4/16 ये दोनों ही धनुष बारी-बारी से प्रजा की भलाई किया करते हैं। किमत्र चित्रं यदि कामसूर्भूत्ते स्थितस्याधिपतेः प्रजानाम्। 5/33 धर्मात्मा राजाओं के लिए यदि पृथ्वी उनकी इच्छा के अनुसार धन दे, तो कोई अचरज नहीं है। राजा प्रजारंजन लब्धवर्णः परंतपो नाम यथार्थनामा 6/21 अपनी प्रजा को सुख देकर इन्होंने बड़ा नाम कमाया है, इनका नाम परंतप है और ये सचमुच परंतप हैं। अन्तः शरीरेष्वपि यः प्रजानां प्रत्यादिदेशाविनयं विनेता। 6/39 इस ढंग से उस दंडधारी ने सब लोगों के मन से पाप निकाल डाला था। अस्मिन्द्वये रूपविधान यत्नः पत्युः प्रजानां वितथोऽभविष्यत्। 7/14 इन दोनों को सुन्दर बनाने का प्रजापति ब्रह्मा का सब परिक्रम व्यर्थ ही जाता। रघुमेव निवृत्तयौवनं तममन्यन्त नरेश्वरं प्रजाः। 8/5 वहाँ की प्रजा ने भी अज के राजा होने पर यही समझा, मानो रघु ही फिर से युवा हो गए हों। स कदाचिदवेक्षितप्रजः सह देव्या विजहार सुप्रजा। 8/32 एक दिन अच्छी संतान वाले, प्रजा पालक राजा अज अपनी रानी के साथ नगर के उपवन में उसी प्रकार विहार कर रहे थे। सम्यग्विनीतमथ वर्महरं कुमारमादिश्य रक्षणविधौ विधिवत्प्रजानाम्। 8/94 तब सुशिक्षित कवचधारी कुमार दशरथ को शास्त्र के अनुसार प्रजा का पालन करने का उपदेश देकर। पर्याप्तोऽसि प्रजाः पातुमौ दासीन्येन वर्तितुम्। 10/25 आप प्रजा का पालन करते हैं और शान्त रूप धारण करके उदासीन भी बन जाते
हैं।
ते प्रजानां प्रजानाथास्तेजसा प्रश्रयेण च। 10/83 उन प्रजा के स्वामी राजकुमारों ने अपने तेज और नम्र व्यवहार से प्रजा का मन।
For Private And Personal Use Only
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
210
कालिदास पर्याय कोश राजन्ग्रजासु ते कश्चिदपचारःप्रवर्तते। 15/47 हे राजन्! आपकी प्रजा में कुछ वर्ण-धर्म संबंधी दोष आ गया है। दौरात्म्याद्रक्षसस्तां तु नात्रत्याः श्रद्दधुः प्रजाः। 15/72 पर रावण की दुष्टता का विचार करके, यहाँ की प्रजा को विश्वास नहीं होता। कदम्बमुकुलस्थूलैरभिवृष्टां प्रजाश्रुभिः। 15/99 जिस मार्ग से राम चले जा रहे थे, वह मार्ग राम के पीछे-पीछे जाने वाली जनता के आसुओं से गीला हो गया था। प्रजास्तद्गुरुणा नद्यो नभसे विवर्धिताः। 17/41 उनके पिता कुश के समय में जो प्रजा सावन की नदी के समान भरी-पूरी थी। प्रजाः स्वतन्त्रयां चक्रे शश्वत्सूर्य इवोदितः। 17/74 जैसे निकलते हुए सूर्य के दर्शन से सब पाप दूर हो जाते हैं, वैसे ही उन्होंने प्रजा को सब प्रकार से अपनी मुट्ठी में कर लिया। तेना रुवीर्येण पिता प्रजायै कल्पिष्यमाणेन ननन्द यूना। 18/2 जैसे संसार के प्राणी प्रसन्न हो जाते हैं, वैसे ही अत्यन्त प्रतापी युवराज निषध को देखकर राजा अतिथि भी प्रसन्न हुए। ख्यातं नभः शब्दं येन नाम्ना कान्तं नभोमासमिव प्रजानाम्। 18/6 उन्हें आकाश के समान साँवला नभ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो लोगों को सावन के महीने के समान प्रिय था। स क्षेम धन्वानाममोघ धन्वा पुत्रं प्रजाक्षेम विधानदक्षम्। 18/9 उन सफल धनुष धारी प्रजा का कल्याण करने में समर्थ और शान्त स्वभाव वाले अपने पुत्र क्षेमधन्वा की। प्रजाश्चिरं सुप्रजसि प्रजेशे ननन्दुरानन्द जलाविलाक्ष्यः। 18/29 उनके सुन्दर शासन को देखकर प्रजा की आँखों में आँसू आ जाते थे, उनके शासन में प्रजा बहुत दिनों तक सुख भोगती रही।
प्रदीप
1. दीप :-[दीप्+णिच्+अच्] लैंप, दीपक, प्रकाश। निशीथदीपाः सहसा हतत्विषो बभूवुरालेख्य समर्पिता इव। 3/15 आधी रात के समय घर में रक्खे हुए दीपों का प्रकाश भी एकदम फीका पड़ गया और वे चित्र में बने हुए के समान लगने लगे।
For Private And Personal Use Only
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
211
रघुवंश
न कारणात्स्वाद्विभिदे कुमारः प्रवर्तितो दीप इव प्रदीपात्। 5/37 जैसे एक दीपक से जलाए जाने पर दूसरे दीपकों में भी ठीक वैसी ही लौ और ज्योति होती है, वैसे ही अज भी रूप, गुण, बल सभी में रघु के जैसा ही था। आचार शुद्धो भयवंश दीपं शुद्धान्तरक्ष्या जगदे कुमारी। 6/45 जिसने अपने शुद्ध चरित्र से माता और पिता के दोनों कुलों को उजागर कर दिया था, उन्हें दिखाकर सुनन्दा बोली। संचारिणी दीप शिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा। 6/67 रात को जब हम दीपक लेकर चलते हैं, तब जो राजमार्ग के भवन आदि छूटते चलते हैं; वे अंधेरे में पड़ते जाते हैं। ननु तैल निषेक बिन्दुना सह दीपार्चिरुपैति मेदिनीम्। 8/38 क्योंकि गिरते हुए तेल की बूंदो के साथ, क्या दीपक की लौ पृथ्वी पर नहीं गिर
पड़ती।
रक्षागृहगता दीपाः प्रत्यादिष्टा इवाभवन्। 10/68 सौरी घर के सब दीपकों की ज्योति उसके आगे मंद पड़ गईं। रात्रावनाविष्कृत दीपभासः कान्तामुखश्री वियुता दिवापि। 16/20 आजकल अटारियों के झरोखों से न तो रात के दीपकों की किरणें निकलती हैं, न दिन में सुन्दरियों के मुख दिखाई देते हैं। अर्पितस्तिमित दीप दृष्टयो गर्भवेश्मसु निवात कुक्षिषु। 19/42 उन भीतरी कोठियों में विहार करता था, जहाँ उसके साक्षी केवल वे दीप थे जो वायु के न आने से एकटक होकर सबको देख रहे थे। राज्ञि तत्कुलमभूक्षयातुरे वामनार्चिरिव दीप भाजनम्। 19/51 राजा के क्षय रोग से रोगी होने पर सूर्यकुल ऐसा रह गया, जैसे तनिक सी बची
हुई दीपक की लौ हो। 2. दीपिका :-[दीप्+णिच्+ण्वुल्+टाप्+इत्वम्] प्रकाश, मशाल।
आसन्नोषधयो नेतुर्नक्तमस्नेह दीपिकाः। 4/75 इस प्रकार उन बूटियों ने रघु के लिए बिना तेल के ही दीपक जला दिए। स ललित कुसुम प्रवाल शय्यां ज्वलित महौषधिदीपिकासनाथाम्।9/70 उन्हें सारी रात फूल-पत्तों की साँथर पर रात को चमकने वाली बूटियों के प्रकाश के सहारे, बिना किसी सेवक के अकेले ही काटनी पड़ी।
For Private And Personal Use Only
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
212
कालिदास पर्याय कोश 3. प्रदीप :-[प्र+दीप्+णिच्+क] दीपक, चिराग।
तामन्तिकन्यस्तबलि प्रदीपामन्वास्य गोप्ता गृहिणीसहायः। 2/24 प्रजापालक राजा दिलीप, अपनी पत्नी के साथ बहुत देर तक नंदिनी की सेवा
और पूजा करते रहे। न कारणात्स्वाद्विभिदे कुमारः प्रवर्तितो दीप इव प्रदीपात्। 5/37 जैसे एक दीपक से जलाए जाने पर दूसरे दीपकों में भी ठीक वैसे ही लौ और ज्योति होती है, वैसे ही अज भी रूप, गुण, बल सभी में रघु जैसा था। स्वकिरण परिवेषोद् भेदशून्याः प्रदीपाः। 5/74 उजाला हो जाने के कारण दीपक का प्रकाश भी, अब अपनी लौ से बाहर नहीं
जाता।
जातः कुले तस्य किलोरुकीर्तिः कुल प्रदीपोनृपतिर्दिलीपः। 6/74 उन्हीं प्रतापी ककुत्स्थ के वंश में यशस्वी राजा दिलीप ने जन्म लिया। इति स्वसुर्भोजकुल प्रदीपः संपाद्य पाणिग्रहणं स राजा। 7/29 उस भोज कुल के दीपक, लक्ष्मीवान् राजा ने अपनी बहन का विवाह संस्कार पूरा करके। रघुवंश प्रदीपेन तेनाप्रतिमतेजसा। 10/68 रघुवंश को उजागर करने वाले उस बालक का इतना तेज था। आसीदासन्ननिर्वाणः प्रदीपार्चिरिवोषसि। 12/1 उनकी दशा प्रातः काल के उस दीपक जैसे हो गई थी, जिसका तेल चुक गया हो और बस बुझने ही वाला हो। ता इङ्गदस्नेहकृत प्रदीपमास्तीर्ण मेध्याजिनतल्पमन्तः। 14/81 जिसमें हिंगोर के तेल की दीया जल रहा था और नीचे मृग चर्म बिछा हुआ था। अथार्धरात्रे स्तिमित प्रदीपे शय्यागृहे सुप्तजने प्रबुद्धः। 16/14 एक दिन आधी रात को जब शयन गृह का दीपक टिमटिमा रहा था और सब लोग सोए हुए थे। वैद्ययन परिभाविनं गदं न प्रदीप इव वायुमत्यगात्। 19/53 जैसे वायु के आगे दीपक का कुछ भी वश नहीं चलता, वैसे ही राजा भी रोग से नहीं बचाया जा सका।
For Private And Personal Use Only
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
213
प्रभा 1. कांति :- (स्त्री०)[कम्+क्तिन्] सौन्दर्य, चमक, प्रभा, दीप्ति।
सदृशकान्तिरलक्ष्यत मंजरी तिलकजालक जालक मौक्तिकैः। 9/44 तिलक के फूलों के गुच्छे ऐसे लगने लगे, जैसे किसी स्त्री ने अपने सिर पर मोतियों की माला पहन ली हो। छवि :- (स्त्री०)[छयति असारं छिंतत्ति तमो वा-छो+वि किच्च वा ङीप्] आभा, सौन्दर्य, कान्ति। उपययौ तनुतां मधुखंडिता हिमकरोदयपांडु मुखच्छविः। 9/38 रात्रि रूपी नायिका,खंडिता नायिका के सामन छोटी होती चली गई और उसका चन्द्रमा वाला मुख भी फीका पड़ता गया। ध्वजपटं मदनस्य धनुर्भूतश्छविकरं मुखचूर्णमृतुश्रियः। 9/45 मानो धनुषधारी कामदेव का झंडा हो या वसंत श्री के मुख पर लगाने का शृंगार
चूर्ण हो। 3. तेज :- (नपु०) [तिज्+असुन्] चमक, दीप्ति, गर्मी, प्रभा, प्रकाश, ज्योति।
सर्वातिरिक्तसारेण सर्वतेजोभिभाविना। 1/14 अपनी दृढ़ता से संसार के सब दृढ़ पदार्थों को दबा दिया है, अपनी चमक से सब चमकीली वस्तुओं की चमक घटा दी है। सुरसरिदिव तेजो वह्निनिष्ठ्य तमैशाम्। 2/75 जैसे स्कन्द को उत्पन्न करने वाले शंकरजी के उस तेज को गंगा जी ने धारण किया, जिसे अग्नि भी नहीं संभाल सका था। अरिष्टशय्यां परितो विसारिणा सुजन्मनस्तस्य निजेन तेजसा। 3/15 उस भाग्यवान बालक का तेज, सौरी घर में चारों ओर इतना छाया हुआ था। अतिप्रबन्ध प्रहितास्त्रवृष्टिभिस्तमाश्रयं दुष्प्रसहस्य तेजसः। 3/58 वैसे ही इन्द्र भी अपने अंश (तेज) से पैदा हुए रघु को बाणों की वर्षा से हरा न
सके।
दिनान्ते निहितं तेजः सवित्रेव हुताशनः। 4/1 जैसे साँझ के सूर्य से तेज लेकर आग चमक उठती है। पवनाग्निसमागमो हययं सहितं ब्रह्म यदस्त्रतेजसा। 8/4
For Private And Personal Use Only
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
214
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
जब क्षात्र तेज के साथ ब्रह्मतेज मिल जाता है, तब वह वैसा ही बलशाली हो जाता है, जैसे वायु का सहारा पाकर अग्नि ।
उदधेरिव रत्नानि तेजांसीव विवस्वतः । 10 / 30
जैसे समुद्र के रत्न और सूर्य की किरणें गिनी नहीं जा सकती।
ते प्रजानां प्रजानाथास्तेजसा प्रश्रयेण च । 10/83
उन प्रजा के स्वामी राजकुमारों ने अपने तेज और नम्र व्यवहार से अपनी प्रजा
का ।
तेजसः सपदि राशिरुत्थितः प्रादुरास किल वाहिनी मुखे । 11 /63
इसी बीच अचानक एक ऐसा प्रकाश का पुंज सेना के आगे उठता दिखाई दिया, जिसे देखकर सब सैनिकों की आँखें चुंधिया गईं ।
तावुभावपि परस्परस्थितौ वर्धमान परिहीन तेजसा । 11/82
आमने सामने खड़े हुए राम और परशुराम में से एक का तेज बढ़ गया और दूसरे
का घट गया ।
अवेक्ष्य रामं ते तस्मिन्न प्रजहुः स्वतेजसा । 15/3
वे तपस्वी यदि चाहते, तो अपने तेज से लवणासुर को भस्म कर डालते । तेजोमहिम्ना पुनरावृतात्मा तद्वयाप चामीकर पिञ्जरेण । 18/40
पर उनके शरीर से जो स्वर्ण के समान तेज निकलता था, उससे वह सिंहासन भरा सा ही जान पड़ता था ।
4. दीप्ति (स्त्री० ) [ दीप् + क्तिन्] उजाला, चमक, प्रभा, आभा ।
हुतहुताशन दीप्ति वनश्रियः प्रतिनिधिः कनकाभरणस्ययत्। 9/40 हवन की अग्नि के समान चमकते हुए कनैर के फूल, वनलक्ष्मी के कर्णफूल जैसे जान पड़ते थे।
5. द्युति :- ( स्त्री० ) [द्युत + इनि] दीप्ति, उजाला, कान्ति, सौन्दर्य | ततो निषंगाद समग्र मुद्धृतं सुवर्ण पंखद्युति रंजितांगुलिम् । 3/64 रघु ने तूणीर से आधे निकाले हुए उस बाण को फिर से उसमें डाल दिया, जिसके सुनहरे पंख की चमक से उनकी उँगलियों के नख भी चमक उठे । दशरश्मिशतोपमद्युतिं यशसा दिक्षु दशस्वपि श्रुतम् । 8/29 जो दस सौ किरणों वाले सूर्य के समान तेजस्वी थे, जिनका यश दसों दिशाओं में फैला था ।
For Private And Personal Use Only
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
215
6. प्रभा :-[प्र+भा+अ+टाप्] प्रकाश, दीप्ति, कान्ति।
प्रचक्रमे पल्लवराग ताम्रा प्रभा पतंगस्य मुनेश्च धेनुः। 2/15 दिन ढलने पर नये पत्तों की ललाई के सामने, सूर्य की ललाई के समान लाल रंग की गाय, नंदिनी तपोवन की ओर लौट पड़ी। वामेतरस्तस्य करः प्रहर्तुनखप्रभाभूषितकंक पत्रे। 2/31 उनके दाएं हाथ की उँगलियाँ, उनके नखों से चमकने वाले बाणों के पंखों से चिपक गईं। आदेयमासीत्रयमेव भूपतेः शशिप्रभं क्षत्रमुभे च चामरे। 3/16 यह सुनकर वे इतने प्रसन्न हुए कि छत्र और चँवर तो न दे सके, शेष सब आभूषण उन्होंने उतार कर उसे दे डाले। महीध्र पक्षव्यपरोपणो चितं स्फुरत्प्रभामंडलमस्त्रमाददे। 3/60 पर्वतों के पंख काटने वाले अग्नि के समान चमकीले वज्र को उठा लिया। प्रसादसुमुखे तस्मिंश्चन्द्रे च विशदप्रभे। 4/18 शरद ऋतु में रघु के खिले हुए मुख और उजले चन्द्रमा दोनों को। स्फुरप्रभा मण्डलमध्यवर्ति कान्तंवपुर्पोमचरं प्रपेदे। 5/51 देवताओं के समान सुन्दर और तेजपूर्ण शरीर लेकर खड़ा हो गया। उवाच वाग्मी दशनप्रभाभिः संवर्धितीरः स्थलतारहारः। 5/52 जब उसने बोलने के लिए मुँह खोला, तब उसके दाँतों की चमक से उसके गले में पड़ा हुआ हार दमक उठा। तिर्यग्वि संसर्पिनखप्रभेण पादेन हैमं विलिलेख पीठम्। 6/15 पैर के नखों की चमक तिरछी डालते हुए, पैर की उँगलियों से सोने के पाँव-पीढ़े पर कुछ लिखने लगा। रत्नांगुलीयप्रभयानुविद्वानुदीरयामास सलीलमक्षान्। 6/18 वे अपने हाथ में पासे उछाल रहे थे और उनकी अंगूठी की झलक पासों पर पड़ रही थी। कुर्वन्ति सामन्त शिखा मणीनां प्रभाप्ररोहास्तमयं रजांसि। 6/33 घोड़ों की टापों से उठी हुई धूल से शत्रुओं के मुकुटों की चमक धुंधली पड़ जाती
तस्मिनसमविशित चितवृत्तिमिन्दु प्रभामिन्दुमतीमवेक्ष्य। 6/70
For Private And Personal Use Only
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
216
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
इन्दुमती ने जब उस सर्वांग सुन्दर राजा अज को देखा, तब वह वहीं रूक गई और फिर किसी राजा के आगे नहीं जा सकीं।
1
प्रभानुलिप्त श्रीवत्सं लक्ष्मीविभ्रमदर्पणम् । 10/10
जिसमें लक्ष्मीजी शृंगार के समय अपना मुँह देखा करती हैं और जिसकी चमक मृगु के चरण के प्रहार से बना हुआ श्रीवत्स चिह्न चमक उठता था ।
हेमपक्ष प्रभाजालं गगने च वितन्वता । 10 / 61
अपने सोने के पंखों से प्रकाश फैलाता हुआ, अपने वेग के कारण हमें आकाश में उड़कर ले जा रहा है।
स नादं मेघनादस्य धनुश्चेन्द्रायुधप्रभम्। 12/79
वैसे ही लक्ष्मण भी मेघनाद के गर्जन को और इन्द्रधनुष के समान धनुष को क्षण भर में ले बीते ।
क्वचित्प्रभा चान्द्रमसी तमोभिश्छाया विलीनैः शबलीकृतेव । 13 /56 कहीं-कहीं ये वृक्ष के नीचे की उस चाँदनी के समान लगती हैं, जिसके बीच-बीच में पत्तों की छाया पड़ी हो।
शतह्रदमिव ज्योति: प्रभामण्डलमुद्ययौ । 15 / 82
उसमें से बिजली के समान चमकीला एक तेजोमंडल निकला।
प्रत्यूपुः पद्मरागेण प्रभामंडल शोभिना । 17/23
उन्होंने वह पद्मरागमणि बाँधी, जिसकी सुंदर चमक चारों ओर फैल गई। तस्य प्रभानिर्जितपुष्परागं पौष्पां तिथौ पुष्यमसूत पत्नी । 18/32
राजा पुत्र की पत्नी से पूस की पूर्णिमा के दिन पद्मरागमणि से भी अधिक कांतिमान नामक पुत्र हुआ ।
7. शोभा : - [ शुभ्+अ+टाप्] प्रकाश, कान्ति, दीप्ति, चमक ।
नाम्भसां कमलशोभिनां तथा शाखिनां च न प्रपरिश्रमच्छिदाम् । 11/12 कमलों से भरे हुए सरोवरों तथा थकावट हरने वाले वृक्षों की छाया को देखकर भी ।
राजेन्द्र नेपथ्य विधान शोभा तस्योदिताऽऽसीत्पुनरुक्तदोषा । 14 / 9 वे इस समय राजसी वस्त्र पहनकर और भी सुंदर लगने लगे। 8. श्री : - [ श्रि + क्विप्, नि०] सौन्दर्य, चारूता, लालित्य, कान्ति । पुरंदर श्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरेरभिनन्द्यमानः । 2/74
For Private And Personal Use Only
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
217 इन्द्र के समान संपत्तिशाली राजा दिलीप ने प्रजा का आदर पाकर उस अयोध्या नगरी में प्रवेश किया, जिसमें उनके स्वागत के लिए झंडे ऊँचे कर दिए गए थे। तिरश्चकार भ्रमराभिलीनयोः सुजातयोः पंकजकोशयोः श्रियम्। 3/8 उनकी शोभा के आगे कमल के जोड़े पर बैठे हुए भौंरों की शोभा भी हार मान
बैठी।
प्रलय
1. प्रलय :-[प्र+ली+अच्] विनाश, संहार, विघटन, व्यापक विनाश।
अस्याच्छमम्भः प्रलयप्रवृद्धं मुहूर्तवक्त्राभरणं बभूव। 13/8 उस समय प्रलय से बढ़ा हुआ इसका स्वच्छ जल, क्षण भर के लिए उसका
चूंघट बन गया था। 2. युगान्त :-[युज्+घञ्-कुत्वम्, गुणाभाव:+अन्तः] युग का अंत, सृष्टि का
अंत या विनाश। अमुं युगान्तोचित योगनिद्रः संहृत्य लोकान्पुरुषोऽधिशेते। 13/6 जब आदि पुरुष विष्णु भगवान् तीनों लोकों का संहार कर चुकते हैं, तब वहीं पहुँचकर योगनिद्रा में सोते हैं।
प्रासाद 1. उपकार्या :-[उप+कृ+ण्यत्] राजभवन, महल।
तस्योपकार्यारचितोपचारा वन्येतरा जनपदोपदाभिः। 5/41 वहाँ के पास के गाँव वालों ने अज के लिए अच्छी-अच्छी वस्तुएँ भेंट में लाकर दी। वे ग्रामीण स्थान भी ऐसे लगने लगे, मानो अज राजसी विलासगृहों में हो। रम्यां रघुप्रतिनिधिः स नवोपकार्यावाल्यात्परामिव दशां मनोऽध्युवास।
5/63 उस भवन में रघु के प्रतिनिधि अज ऐसे रहने लगे, मानो कामदेव ने अपना बचपन बिताकर जवानी में पैर धरा हो। निशान्त :-[नि+शम्+क्त] घर, आवास, निवास। तस्याः स राजोपपदं निशान्तं कामीव कान्ताहृदयं प्रविश्य। 16/40 जैसे कामी पुरुष स्त्री के हृदय में पैठ जाता है, वैसे ही कुश भी अयोध्या के राजभवन में प्रविष्ट हो गए।
For Private And Personal Use Only
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
218
कालिदास पर्याय कोश 3. प्रासाद :-[प्रसीदन्ति अस्मिन्-प्रसद्+घञ्, उपसर्गस्य दीर्घः] महल, भवन,
राजभवन। प्रासाद वातायन संश्रितानां नेत्रोत्सवं पुष्पपरांगनानाम्। 6/24 तब वहाँ की स्त्रियाँ भवन के झरोखों में बैठकर तुम्हें देखेंगी और तुम्हारी सुन्दरता देखकर उनकी आँखों को मुख मिलेगा। प्रासाद जालैर्जलवेणिरम्यां रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति कामः। 6/43 तुम यदि राजभवन के झरोखों से उस सुन्दर लहरों वाली नर्मदा का मनोहर दृश्य देखना चाहती हो। प्रासाद वातायन दृश्यवीचिः प्रबोधयत्यर्णव एव सुप्तम्। 6/56 उसकी लहरें राजभवन् के झरोखों से स्पष्ट दिखाई देती है, जब ये अपने राज भवन में सोते हैं, तब वह समुद्र ही नगाड़े की ध्वनि से भी गंभीर अपने गर्जन से इन्हें प्रातः जगा देता है। प्रासादकालागुरुधूमराजिस्तस्याः पुरो वायुवशेन भिन्ना। 14/12 भवनों के उपर वायु से छितराया हुआ काले अगर का धुआँ ऐसा लग रहा था। प्रासादवातायन दृश्य बन्धैः सकित नार्योऽञ्जलिभिः प्रणेमुः। 14/13 भवनों के झरोखों में हाथ बाँधे दिखाई पड़ने वाली अयोध्या की महिलाओं ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्या प्रसादमभ्रंलिहमारुरोह। 14/29 सुन्दर अयोध्या की छटा निहारने के लिए आकश से बातें करने वाले अपने ऊंचे
राजभवन की छत पर जा चढ़े। 4. भवन :-[भू+ल्युट्] आवास, निवास, घर, भवन।
संतानकामयी वृष्टिर्भवने चास्य पेतुषी। 10/77
उनके राजभवन पर आकाशसे कल्पवृक्षों के फूलों की जो वर्षा हुई। 5. मंदिर :-[मन्द्यतेऽत्र मन्द+किरच] रहने का स्थान, आवास, महल, भवन। ___ हाग्रसंरूढ तृणांकुरेषु तेजोऽविषह्यं रिपु मन्दिरेषु। 6/47
जब रावण ने सब कांड सुना, तब वह अपने राजभवन से निकल कर रण-भूमि
में आया। 6. वेश्म :-[विश+मनिन] घर, आवास, भवन, महल।
वेश्मानि रामः परिबर्हवन्ति विश्राण्य सौहार्दनिधिः सुहृद्भयः। 14/15
For Private And Personal Use Only
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
राम ने पहले तो सुग्रीव आदि मित्रों को सब प्रकार की सामग्री से सजे भवनों में
ठहराया।
कामिनी सहचरस्य कामिनस्तस्य वेश्मसु मृदंग नादिषु । 19/5
वह राज भवन की उन भीतरी कोठियों में पड़ा रहता थ, जिनमें बराबर मृदंग बजते रहते थे ।
219
7. सद्मन: - [ सीदत्यस्मिन् - सद्+मनिन् ] घर, मकान, आवासस्थान ।
न केवलं सद्मनि मागधीपतेः पथि व्यजृम्भन्त दिवौकसामपि । 3 / 19 केवल सुदक्षिणा के पति दिलीप के ही राजमंदिर में मनोहर बाजे और वेश्याओं के नाच आदि उत्सव नहीं हो रहे थे, वरन् आकाश में देवताओं के यहाँ भी नाच-गान हो रहा था ।
यमात्मनः सद्मनि संनिकृष्टो मन्द्र ध्वनित्याजितयामूर्तयः । 6/56 ठीक इनके राज भवन के नीचे समुद्र हिलोरें लेता है, जो नगाड़े ही ध्वनि से भी गंभीर अपने गर्जन से
उद्भासितं मंगल संविधाभिः संबन्धिनः सद्म समाससाद | 7/16 उस राज भवन में पहुँचे, जो मंगल सामग्रियों की सजावट से जगमगा रहा था । तयोर्यथाप्रार्थितमिन्द्रि यार्था ना सेदुषोः सद्मसु चित्रवत्सु। 14/5
वे दोनों उस भवन में इच्छानुसार विलास करते थे, जिसमें वनवास के समय के चित्र टंगे थे ।
8. सौध : - [ सुधया निर्मित रक्तं वा अण] विशालभवन, महल, बड़ी हवेली । ततस्तदालोकनतत्पराणां सौधेषु चामीकर जालवत्सु । 7/5
उनको देखने के लिए अपने भवनों के झरोखों की ओर दौड़ पड़ीं। तस्यायमन्तर्हितसौधभाजः प्रसक्त संगीत मृदंगघोषः । 13/40
यह जो नाच-गाना सुनाई दे रहा है, यह जल के भीतर बने हुए उन्हीं के भवन का है। वहीं के मृदंग की ध्वनि गूँज रही है ।
विवेश सौधोद्नतलाज वर्षामुत्तोरणा मन्वयराजधानीम् । 14/10
उस राजधानी अयोध्या में पैर रखा, जो चारों ओर बन्दनवारों से सजाई गई थी, जहाँ के श्वेत भवनों पर से धान की खीलें बरस रही थीं ।
For Private And Personal Use Only
तत्रसौधगतः पश्यन्यमुनां चक्रवाकिनीम् । 15 / 30
वहाँ एक ऊँचे भवन पर चढ़कर उस नीले जलवाली यमुना को देखा, , जिसमें बहुत से चकवे चहचहा रहे थे ।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
220
कालिदास पर्याय कोश सौध वासमुटजने विस्मृतः संचिकाय फलानिः स्पृहस्तपः। 19/2 कुटिया के आगे बड़े-बड़े महलों को भूल गये और फल की इच्छा छोड़कर तप करने लगे। स्वप्रिया विलसितानुकारिणी सौध जाल विवरैर्व्यलोकयत्। 19/40 वह अपने राजभवन के झरोंखों से सरयू के उस दृश्य को देखता था, जिसमें
सरयू उन सुन्दरियों का अनुकरण करते हुए दिखाई देती थी। 9. हर्म्य :-[हृ+यत्, मुट् च] प्रासाद, महल, भवन, बड़ी इमारत। हर्म्याग्रसंरूढ़ तृणांकुरेषु तेजोऽविषह्यं रिपुमंदिरेषु। 6/47 सूर्य के समान प्रचंड तेज शत्रुओं के उन राजभवनों पर दिखाई देता था, जिनके उजड़ जाने पर उनमें घास जम आई है। त एव मुक्तागुण शुद्धयोऽपि हर्येषु मूच्छन्ति न चन्द्रपादाः। 16/18 जिन भवनों पर कभी मोती के समान शुभ्र चाँदनी चमका करती थी, उन पर अब चाँदनी नहीं चमकती। कार्तिकीषु सवितान हर्म्यभाग्यामिनीषु ललितांगना सखः। 19/39 कार्तिक की रात्रि में वह राजभवन के ऊपर चंदोवा तनवा देता था और सुन्दरियों के साथ उस चाँदनी का आनंद लेता था।
बन्दी 1. बन्दी :-[बन्द+इन] स्तुति गायक, चारण, भाट। इति विरचितवाग्भिर्बन्दिपुत्रैः कुमारः सपदि विगत निद्रस्तल्प मुज्झांचकार।
5/75 वैसे ही चारणों की सुरचित वाणी सुनकर राजकुमार अज की नींद खुल गई और वे उठ बैठे। अथ स्तुते बन्दिभिरन्वयज्ञैः सोमार्कवंश्ये नरदेव लोके। 6/8 इतने में सब राजाओं का वंश जानने वाले भाटों ने सूर्य और चन्द्र के वंश में
उत्पन्न होने वाले उन सब राजाओं की प्रशंसा की। 2. सूत :-[सू+क्त] बंदीजन, रथकार।
सूतात्मजाः सवयसः प्रथितप्रबोधं प्रबोधयन्नुषसि वाग्भिरुदारवाचः। 5/65 दिन निकलते ही उनकी समान अवस्था वाले और मधुर बोलने वाले सूतों के पुत्र, यह स्तुति गा-गाकर बुद्धिमान अज को जगाने लगे।
For Private And Personal Use Only
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
221
बुद्धि
1. चेतना :-[चित्+ल्युट्] ज्ञान, संज्ञा, प्रतिबोध, समझ, प्रज्ञा ।
पश्चिमाद्यामिनीयामात्प्रसादमिव चेतना। 17/1
जैसे रात के चौथे प्रहर में अर्थात् ब्राह्म-मुहूर्त में बुद्धि को नयापन मिल जाता है। 2. धी :-[ध्यै+क्विप्, संप्रसारण] बुद्धि, समझ। धियः समग्रैः स गुणैरुदारधीः क्रमाच्चतस्त्रश्चतुरर्णवोपमाः। 3/30 वैसे ही बुद्धिमान रघु ने अपनी तीव्र बुद्धि की सहायता से शीघ्र ही चार समुद्रों
के समान विस्तृत चारों विद्याएँ सीख ली। 3. प्रज्ञा :-[प्र+ज्ञा+अ+टाप्] मेधा, समझ, बुद्धि।
आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः। 1/15 जैसा सुन्दर उनका रूप था, वैसी ही तीखी उनकी बुद्धि थी, जैसी तीखी बुद्धि
थी, वैसी ही शीघ्रता से उन्होंने सब शास्त्र पढ़ डाले थे। 4. बुद्धि :-[बुध्+क्तिन्] मति, समझ, प्रज्ञा, प्रतिभा।
शास्त्रेष्व कुंठिता बुद्धिमौर्वी धनुषि चातता। 1/19 शास्त्रों का उन्हें अच्छा ज्ञान था और धनुष चलाने में भी वे एक ही थे, इसलिए वे अपना सब काम अपनी तीखी बुद्धि और धनुष पर चढ़ी हुई डोरी इन दोनों से ही निकाल लेते थे। अप्यग्रणीमन्त्र कृतामृषीणां कुशाग्रबुद्धे कुशली गुरुस्ते। 5/4 हे बुद्धिमान् ! जिस गुरु ने आपको ज्ञान की ज्योति देकर जगाया है और मंत्र द्रष्टा
ऋषियों में श्रेष्ठ हैं, वे कुशल से तो हैं न। 5. मति :-[मन्+क्तिन्] बुद्धि, समझदारी, ज्ञान, संकल्प, मन।
क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्प विषया मतिः। 1/2 कहाँ तो सूर्य से उत्पन्न हुआ वह वंश, कहाँ मोटी बुद्धि वाला मैं।
भ
भरत 1. कैकेयीतनय :-भरत, कैकेयी का बेटा, राम का भाई।
श्रुत्वा तथा विधं मृत्यु कैकेयीतनयः पितुः। 2/13 जब भरत जी को अपने पिता की मृत्यु का सब समाचार मिला।
For Private And Personal Use Only
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
222
कालिदास पर्याय कोश
2. भरत :-[भरं तनोति-तन्+ड] दशरथ की पत्नी कैकेयी का बेटा, राम का
भाई। अर्ध्यम_मिति वादिनं नृपं सोऽनवेक्ष्य भरताग्रजो यतः। 11/69 दशरथजी अभी कहते ही रह गए कि आपके सत्कार के लिए यह अर्ध्य है, किन्तु उन्होंने भरत के बड़े भाई राम को टेढ़ी चितवन से देखा। मौलेरानायया मा सुर्भरतं स्तम्भिताश्रुभिः। 12/12 उन कुल-मंत्रियों को भेजकर भरत को उनकी ननिहाल से बुलवाया, जिन्होंने अपने आँसू निकलने नहीं दिए थे। मातुः पापस्य भरतः प्रायश्चितमिवाकरोत्। 12/19 मानो भरत जी ने अपनी माता के पाप का प्रायश्चित कर डाला हो। रामस्त्वासनदेशत्वाद्भरतागमनं पुनः। 12/24 राम ने इस डर से कि अयोध्या पास में ही है, ऐसा न हो कि भरत फिर यहाँ पहुँच जायें। शंके हनूमत्कथित प्रवृतिः प्रत्युद्ग्तो मां भरतः ससैन्यः। 13/64 हनुमान जी से मेरे आने का समाचार सुनकर भरत सेना लेकर मेरा स्वागत करने आ रहे हैं। वृद्धैरमात्यैः सह चीरवासा मामयं पाणिर्भरतोऽभ्युपैति। 13/66 चीर पहने, पैदल चलते हुए, हाथ में पूजा की सामग्री लिए हुए, मंत्रियों के साथ भरत मेरे ही पास आ रहे हैं। ज्योतिष्पथादवततार सविस्मयाभिरुद्वीक्षितं प्रकृतिभिर्भरतानुगामिः।
__13/68 वह विमान आकाश से नीचे उतर आया और भरत जी के पीछे चलने वाली सारी जनता आँख फाड़-फाड़ कर उन्हें देखने लगी। इक्ष्वाकुवंश गुरवे प्रयतः प्रणम्य स भ्रातरं भरतमग्रंपरिग्रहान्ते। 13/70 विनीत राम ने पहले इक्ष्वाकु वंश के गुरु वशिष्ठजी को प्रणाम किया, फिर अध र्य ग्रहण करके आँख में आँसू भरकर, उन्होंने पहले भरत जी को छाती से लगा लिया। इत्यादृतेन कथितौ रघुनन्दनेन व्युत्क्रम्य लक्ष्मणमुभौभरतोववन्दे। 13/72 राम के इतना कहने पर भरतजी ने लक्ष्मण को छोड़कर पहले उन्हीं दोनों का स्वागत किया।
For Private And Personal Use Only
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
223 रामेण मैथिल सुतां दशकंठकृच्छ्रात् प्रत्युद्धृतां धृतिमयीं भरतो ववन्दे।
__13/77 वैसे ही राम ने रावण रूपी संकट से जिसे उबार लिया था, उस विमान में बैठी हुई सीताजी को भरतजी ने जाकर प्रणाम किया। धृतात पत्रे भरतेन साक्षादुपायसंघात इव प्रबृद्धः। 14/11 भरत हाथ में छात्र लिए हुए थे, चारों भाई ऐसे जान पड़ते थे, मानो साम, राज, दण्ड और भेद ये चारों उपाय इकट्ठे हो गए हों। ददौ दत्त प्रभावाय भरताय भृतप्रजः। 15/87 प्रजापालक राम ने भरत के मामा के कहने पर सिंधु का राज्य भरत को दे दिया। भरतस्तत्र गंधर्वान्युधि निर्जित्य केवलम्। 15/88 भरत ने वहाँ गंधर्वो को जीतकर केवल।
भर्ता 1. कान्त :-[कन् (म्)+क्त] प्रेमी, पति।
पोव नारायणमन्यथासौ लभेत कान्तं कथमात्मतुल्यम्। 7/13 जैसे स्वयंवर में लक्ष्मीजी ने नारायण को वर लिया, वैसे ही इन्दुमती ने भी अज को वर लिया है। बताओ तो बिना स्वयंवर के ऐसा योग्य वर कैसे मिलता। प्रीतिरोधमसहष्टि सा पुरी स्त्रीव कान्तपरिभोगमायतम्। 11/52 पर इस प्रेम के घेरे को उस नगरी ने उसी प्रकार सहन किया, जैसे कोई स्त्री
अपने प्रियतम के कठोर संभोग को सहन करती है। 2. नाथ :-[नाथ्+अच्] प्रभु, स्वामी, पति।
कामं जीवति मे नाथ इतिसा विजहौ शुचम्। 12/75 यह जानकर उनका शोक तो छूट गया कि मेरे पति देव जीवित हैं, पर उन्हें इस
बात की बड़ी लज्जा हुई कि। 3. पति :-[पाति रक्षति-पा+इति] स्वामी, मालिक, भर्ता। .
नरेन्द्र कन्यास्तमवाप्य सत्पतिं तमोनुदं दक्षसुता इवाबभुः। 3/33 जैसे दक्ष की कन्याएँ चन्द्रमा जैसे पति को पाकर प्रसन्न हुई थीं, वैसे ही राजकुमारियाँ भी रघु जैसे पति को पाकर प्रसन्न हुईं। संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा। 6/67
For Private And Personal Use Only
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
224
कालिदास पर्याय कोश रात्रि को जब हम दीपक लेकर चलते हैं तब जो-जो राजमार्ग के भवन पीछे छूटते चलते हैं, वे अँधेरे में पड़ते जाते हैं, वैसे ही पति को वरण करने के लिए इन्दुमती। क्षितिरिन्दुमती च भामिनी पतिमासाद्य तमग्यपौरुषम्। 8/28 पृथ्वी और इन्दुमती दोनों अज जैसे महापराक्रमी को पति के रूप में पाकर बड़ी प्रसन्न हुईं। वपुषाकरणोज्झितेन सा निपतन्ती पतिमप्यपातयत्। 8/38 प्राणहीन होने से वह गिर पड़ी और उसके साथ-साथ उसके पति अज भी गिर पड़े। पतिषुनिर्विविशुर्मधुमंगनाः स्मरसखं रसखण्डनवर्जितम्। 9/36 कामदेव के साथी मद्य को स्त्रियों ने अपने पति के प्रेम में बिना बाधा दिए ही पी लिया। ते बहुज्ञस्य चितज्ञे पल्यौ पत्युर्महीक्षितः। 10/56 सब कुछ जानने वाले राजा दशरथ की उन दोनों रानियों ने। श्लाघ्य स्त्यागोऽपि वैदेहयाः पत्युः प्राग्वंशवासिनः। 15/61 सीता के त्याग से उनके पति राम की एक यह भी प्रशंसा हुई कि। वांग्मनः कर्मभिः पत्यौ व्यभिचारौ यथा न मे। 15/81 यदि मैंने मन, वचन, कर्म किसी प्रकार भी प्रकार से भी अपना पतिव्रत भंग न
किया हो। 4. परिणेत :- (०) [परि+नी+तृच्] पति। __ आनन्दयित्री परिणेतुरासीदनक्षर व्यंजित दोहदेन। 14/26
इन गर्भ के लक्षणों को देखकर पति राम बड़े प्रसन्न हुए। भर्ता :- (पुं०) [भृ+तृच्] पति, प्रभु, स्वामी। अथेप्सितं भर्तुरुपस्थितोदयं सखीजनोद्वीक्षणकौमुदी मुखम्। 3/1 जो पति की इच्छा पूरी होने का संदेश दे रहे थे, जिन्हें देख-देखकर रानी की सखियों के नेत्रों को ऐसा सुख मिल रहा था, मानो चाँदनी देखकर मगन हो रहे
हों।
संभाव्य भर्तारममुं युवानं मुद् प्रवालोत्तरपुष्प शय्ये। 6/50 हे सुन्दरी! इनको पति के रूप में चुनकर कोमल पत्तों और फूलों की शैयाओं पर विहार करना।
For Private And Personal Use Only
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
225
रघुवंश
सा किला श्वासिता चण्डी भर्ना तत्संश्रुतौ वरौ। 12/5 जब पति राजा दशरथ ने उस कठोर स्वभाव वाली कैकेयी को बहुत मनाया, तब उसने दो वर माँगे। इत्युक्त्वा मैथिली भर्तुरंके निविशती भयात्। 12/38 सीताजी तो यह सुनते ही डरके मारे अपने पति की ओट में जा छिपी। तस्यै भुर्तराभिज्ञानमंगुलीयं ददौ कपिः। 12/62 उनके पास जाकर हनुमानजी ने उनके पति राम की अंगूठी उन्हें दी। भर्तृः प्रणाशादथ शोचनीयं दशान्तरं तत्र समं प्रपन्ने। 14/1 उस उपवन में पहुंचकर राम अपनी माताओं से मिले, जो अपने पति की मृत्यु के कारण, उसी प्रकार उदास लग रही थीं। क्लेशावहा भर्तुरलक्षणाहं सीतेति नाम स्वमुदीरयन्ती। 14/5 मैं ही पति को कष्ट देने वाली कुलक्षणा सीता हूँ, यह कहते हुए सीताजी ने। उत्तिष्ठ वत्से ननु सानुजौऽसौ वृत्तेन भर्ता शुचिना तवैव। 14/6 उठो बेटी ! तेरे ही पतिव्रत के प्रभाव से राम और लक्ष्मण इस बड़े भारी संकट से पार हुए हैं। रराज शुद्धेति पुनः स्वपुर्यं संदर्शिता वह्निगतेव भा। 14/14 मानो पुरवासियों को सीताजी की शुद्धता दिखलाने के लिए पति राम ने उन्हें फिर अग्नि में बैठा दिया हो। न चावदद्भर्तुरवर्णमार्या निराकरिष्णोर्वृजिनादृतेऽपि। 14/57 वे इतनी साध्वी थी कि निरपराध पत्नी को निकालने वाले अपने पति को, उन्होंने कुछ भी बुरा-भला नहीं कहा। निशाचरो पप्लुत भर्तृकाणां तपस्विनीनां भवतः प्रसादात्। 14/64 पिछली बार आपकी कृपा से मैंने वनवास के समय बहुत सी ऐसी तपस्विनयों को अपने यहाँ आश्रय दिया था, जिनके पतियों को राक्षसों ने सता रक्खा था। भूयो यथा मे जननान्तरेऽपि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोगः। 14/66 अगले जन्म में भी आप मेरे पति हों, आपसे मुझे अलग न होना पड़े। जाने विसृष्टां प्रणिधानतस्त्वां मिथ्यापवादक्षुभितेन भर्चा। 14/72 बेटी ! मैंने योगबल से यह जान लिया है कि तुम्हारे पति ने झूठे अपजस से डरकर, तुम्हें घर से निकाल दिया है।
For Private And Personal Use Only
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
226
कालिदास पर्याय कोश
वृत्तान्तेन श्रवणविषयप्रापिणा तेन भर्तुः सा दुर्वारं कथमपि परित्यागः दुःखं विषेहे। 14/87 जब सीताजी ने अपने पति की ये बातें सुनीं, तब तक उनके मन में जो छोड़े जाने का दुःख था, वह कम हो गया। सा सीतामंकमारोप्य भर्तृप्रणिहितेक्षणाम्। 15/84 उन्होंने उन सीता जी को गोद में उठा लिया, जो पति राम की ओर टकटकी बाँधे थीं।
भिषंग
1. तूण :-[तूण्+घञ्] तरकस।
स दक्षिणं तूण मुखेन वामं व्यापारयन्हस्तमलक्ष्यताजौ। 7/57 वे इतनी फुर्ती से बाण चला रहे थे कि यह पता ही नहीं चलता था, कि उन्होंने
कब अपना हाथ तूणीर में डाला और कब बाण निकाला। 2. निषंग :-[नि+सञ्ज+घञ्] तरकस।।
ततो निषंगाद् समग्रमुद्धृतं सुवर्ण पंखद्युति रंजितांगुलीम्। 3/64 तब रघु ने तूणीर से आधे निकाले हुए उस बाण को फिर से उसमें डाल दिया,
जिसके सुनहरे पंख की चमक से रघु की उंगलियों के नख भी चमक उठे थे। 3. भिषंग:-तरकस।
जाताभिषंगो नृपतिर्निषंगादुद्धृर्तुमैच्छत्प्रसभोद्धृतारिः। 2/30 बस झट राजा ने उस सिंह को मारने के लिए तूणीर से बाण निकालने को हाथ उठाया।
भिषज
1. भिषज :-[विभेव्यस्मात् रोगः भी+षुक्, ह्रस्वश्च] वैद्य, चिकित्सक। प्राणान्तहेतुमपि तं भिषजामसाध्यं लाभं प्रियानुगमने त्वरया स मेने। 8/93 पर अपनी प्रिया के पीछे प्राण देने को वे इतने उतावले थे कि उन्होंने प्राण हर लेने वाली और वैद्यों से अच्छी न होने वाली उस शोक की बर्थी को भी सहायक ही समझा। दृष्टदोषमपि तन्न सोऽत्यजत्संग वस्तु भिषजामनाश्रवः। 19/49 वैद्यों के बार-बार रोकने पर भी उसने काम को जगाने वाली ये वस्तुएँ नहीं छोड़ी।
For Private And Personal Use Only
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
227
रघुवंश 2. वैद्य :-[वेद्+यत्] आयुर्वेदाचार्य, चिकित्सक।
वैद्ययत्नपरि भाविनं गदं न प्रदीप इव वायुमत्यगात्। 19/53 वैद्य लोग राजा को अच्छा नहीं कर सके। जैसे वायु के आगे दीपक का कुछ भी वश नहीं चलता, वैसे ही राजा भी रोग से नहीं बचाया जा सका।
भुजंग 1. उरग :-[उरसा गच्छति, उरस्+गम्+ड, सलोपश्च] सर्प, साँप।
त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदंगुली वोरगक्षता। 1/28 जैसे साँप के काटने पर लोग अपनी उँगली भी काटकर फेंक देते हैं, वैसे ही राजा दिलीप अपने उन सगे और प्यारे लोगों को भी निकाल बाहर करते थे, जो दुष्ट होते थे। उद्ववामेन्द्रसिक्ता भूर्विलमग्ना विवोरगौ। 12/5 ये दो वर ऐसे ही थे जैसे वर्षा से भीगी हुई पृथ्वी के छेदों में से दो साँप निकल
पड़े हों। 2. द्विजिह्व :- साँप, सर्प।
यः ससोम धर्मंदीधितिः सद्विजिह्व इव चन्दनदुमः। 11/64 इस वेश में वे ऐसे जान पड़ते थे जैसे सूर्य के साथ चन्द्रमा हो या चंदन के पेड़ से साँप लिपटा हो। अमर्षणः शोणिकांक्षया किं पदा स्पृशन्तं दशति द्विजिह्वः। 14/41 क्योंकि जब कोई साँप पैर के नीचे दब जाता है, तब वह रक्त के लोभ से थोड़े
ही उँसता है, वह तो बदला लेने के लिए ही उँसता है। 3. नाग :-[नाग+अण] साँप, सर्प।
तत्र नागफणोत्क्षिप्तसिंहासननिषेदुषी। 15/83 उसमें से नाग के फण पर रक्खे हुए सिंहासन पर बैठी हुई। नागेन लौल्यात्कुमुदेन नूनमुपातमन्तहूंदवासिना तत्। 16/76 जान पड़ता है कि इस जल में रहने वाले कुमुद नाम के नाग ने लोभ से उसे चुरा लिया है। इत्थं नागस्त्रिभुवन गुरो रौरस मैथिलेयं लब्ध्वा। 16/88 इस प्रकार नागराज कुमुद ने त्रिलोकीनाथ विष्णु अर्थात् राम के सच्चे पुत्र कुश को अपना संबंधी बनाकर।
For Private And Personal Use Only
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
228
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
4. फणी : - [ फणा - इनि] फणधारी साँप, साँप, सर्प । स्तनोत्तरीयाणि भवन्ति संगान्निर्मोकपट्टा: फणिभिर्विमुक्ताः । 16/17 उन खंभों से जो साँप उनसे लिपटे हैं, उनकी केचुलें छूटकर उन मूर्तियों से सट गई हैं, और वे ऐसी लगती हैं मानो उन स्त्रियों ने स्तन ढकने के लिए कपड़ा डाल लिया हो ।
5. भजंग :- [भुजः सन् गच्छति गम् + खच्, मुम् डिच्च] साँप, सर्प । भुजंगपिहितं द्वारं पातालमधितिष्ठति । 1/80
कामधेनु भी पाताल लोक गई हैं और उस लोक के द्वार पर बड़े-बड़े विषधर सर्प रखवाले भी बैठे हैं।
आरूढमद्रीनुदधीन्वितीर्णं भुजंगमानां वसतिं प्रविष्टम् । 6/77
पर्वतों पर, समुद्र के पार, पाताल में नागों के देश में उनका यश फैला हुआ है। आक्रान्तपूर्वमिव मुक्तविषं भुजंगं प्रोवाच कोशलपतिः प्रथमापराद्धः 19/79 पैर से दबने पर सर्प जैसे विष उगल कर शांत हो जाता है, वैसे ही शाप देकर जब वे बूढ़े मुनि शांत हो गए; तब पहले-पहल अपराध करने वाले राजा दशरथ बोले ।
वेला निलाय प्रसृता भुजंगा महोर्मि विस्फूर्जथुनिर्विशेषाः । 13/12
ये जो बड़ी-बड़ी लहरों के जैसे तट पर दिखाई दे रहे हैं, ये साँप हैं जो तट का वायु पीने के लिए बाहर निकल आए हैं।
गारुत्मतं तीरगतस्तरस्वी भुजंगनाशाय समाददेऽस्त्रम् | 16 / 77
वहीं तट पर खड़े होकर उन्होंने धनुष को ठीक किया और उस पर नागों का नाश करने वाला गरुड़ास्त्र चढ़ाया ।
6. भोगी : - [ भोग + इनि] फणदार साँप, सर्प ।
राजा स्वतेजो भिरदह्यतान्तर्भोगीव मन्त्रौषधिरुद्धवीर्यः । 2/32
राजा दिलीप अपने तेज से भीतर ही भीतर उसी प्रकार जलने लगे, जैसे मन्त्र और जड़ी से बँधा हुआ साँप ।
For Private And Personal Use Only
भोगिवेष्टन मार्गेषु चन्दनानां समर्पितम् । 4/ 48
साँपों के सदा लिपटे रहने से वहाँ के चंदन के पेड़ों के चारों और गहरी रेखाएँ बन गई थीं।
भोगि भोगासनासीनं ददृशुस्तं दिवौकसः । 10/7
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
229
देवताओं ने देखा कि विष्णु भगवान् शेष-शय्या पर लेटे हुए हैं। अत्यारूढं रिपोः सोढं चन्दनेनेव भोगिनः। 10/42 मैंने उस दुष्ट का दिन-दिन ऊपर चढ़ना उसी प्रकार सहा है, जैसे अपने ऊपर चढ़ते हुए साँप को चन्दन का पेड़ सह लेता है। वैनतेयशमितस्य भोगिनो भोगवेष्टित इव च्युतोमणिः। 11/59 जैसे गरुड़ से मरा हुआ कोई साँप अपने सिर से गिरी हुई मणि के चारों और
कुंडली मारकर पड़ा हुआ हो। 7. राजिल :-[राज्+इलच्] साँपों की एक सरल जाति जिसमें विष नहीं होता।
किं महोरगविसर्पि विक्रमो राजिलेषु गरुडः प्रवर्तते। 11/7 क्योंकि भला बड़े-बड़े सर्पो पर आक्रमण करने वाला गरुड़ क्या कभी जल के
छोटे-छोटे साँपों पर आक्रमण किया करता है। 8. व्याल :-[वि+आ+अल्+अच्] साँप।
तेयाच्छान्त व्यालाम वनिमपरः पौरकान्तः शशास। 16/88
जिससे सर्प शांत हो गए और कुश भली भाँति राज्य करने लगे। 9. सर्प :-[सृप्+घञ्] नाग, साँप।
न तु सर्प इव त्वचं पुनः प्रतिपेदे व्यपवर्जितां श्रियम्। 8/13 जैसे साँप अपनी केंचुली छोड़कर फिर उसे ग्रहण नहीं करता, वैसे ही उन्होंने जिस राज्यलक्ष्मी को एक बार छोड़ दिया फिर स्वीकार नहीं किया। हृद्यमस्य भयदापि चाभवद्रत्नजातमिव हारसर्पयोः। 11/68 इसलिए जैसे गले के हार और सर्प दोनों में रहने वाली मणि आनंद भी देती है
और भय भी। सुप्तसर्प इव दंडघट्टनाद्रोषितोऽस्मि तव विक्रमश्रवात्। 11/71 पर जैसे डंडे से छेड़ देने पर साँप फुफकार उठता है, वैसे ही तुम्हारा पराक्रम सुनकर मेरे शरीर में भी आग लग गई है।
भुज 1. कर :-[करोति, कीर्यते अनेन इति, कृ (कृ)+अप्] हाथ।
वामेतरस्तस्य करः प्रहर्तुर्नखप्रभाभूषित कंक पत्रे। 2/31 उनके दाहिने हाथ की उँगलियाँ उनके नखों से चमकने वाले बाणों के पंखों से चिपक गई।
For Private And Personal Use Only
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
230
कालिदास पर्याय कोश
स्पृशन्करेणानतपूर्वकायं संप्रस्थितो वाचमुवाच कौत्सः 1 5/32 जब कौत्स चलने लगे, तब राजा ने बड़ी नम्रता से उन्हें प्रणाम किया, , उन्होंने राजा के सिर पर हाथ धरते हुए कहा ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कश्चित्कराभ्यामुपगूढ़ नालमालोल पत्राभिहितद्विरेफम् । 6/13
कोई राजा हाथ में सुन्दर कमल लेकर उसकी डंठल पकड़कर घुमाने लगा, उसके घूमने से भरे तो इधर-उधर भाग गए।
वज्रांशुगर्भांगुलिरन्ध्रमेकं व्यापारयामास करं किरीटे । 6/19
एक दूसरा राजा बार-बार अपने हाथ से अपने मुकुट को सीधा कर रहा था, उसके ऐसा करने से उंगलियों के बीच का भाग रत्नों की किरणों से चमक उठता
था।
करेण वातायनलम्बितेन स्पृष्टस्त्वया चंडि कुतूहलिन्या । 13/21
हे चण्डी ! जब तुम खेल-खेल में अपना हाथ विमान से बाहर निकालकर बादल को छू लेती हो ।
आस्फालितं यत्प्रमदाकराग्रैर्मृदंगधीर ध्वनिमन्वगच्छत् । 16/13 नगर की जिन बावलियों का जल पहले जल-क्रीड़ा करने वाली सुन्दरियों के हाथ के थपेड़ों से मृदंग के समान गंभीर शब्द करता था । कराभिधातोत्थित कन्दुके यमालोक्य बालाति कुतूहलेन । 16/83
यह मेरी कन्या गेंद खेल रही थी, इसके हाथ की थपकी से गेंद ऊपर उछल गई। उसे देखने के लिए उसने ऊपर आँखें उठाई तो देखा कि ।
2. बाहु : - [ बाघ् + कु, घस्य हः भुजा ] हाथ, भुजा ।
प्रांशुलभ्ये फले लोभादुबाहुरिव वामनः । 1/3
जैसे कोई बौना अपने नन्हें हाथ ऊपर उठाकर उन फलों को तोड़ना चाहता हो, हाँ तक केवल लंबे हाथ वालों की ही पहुँच हो सकती है। बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धमन्यु रभ्यर्णमागरकृतमपस्पृशद्भिः । 2 / 32
इसी प्रकार हाथ बंध जाने से राजा दिलीप पास ही खड़े अपराधी पर प्रहार न कर सकने के कारण क्रोध से तमतमा उठे ।
तथेति गामुक्तवते दिलीपः सद्यः प्रतिष्टम्भविमुक्तबाहुः । 2/59 यह सुनकर सिंह बोला- अच्छी बात है, यही सही ! तत्काल दिलीप का हाथ खुल गया ।
For Private And Personal Use Only
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अवन्तिनाथोऽयमुदग्रबाहुर्विशालवृक्षास्तनुवृत्त मध्यः । 6/32
ये जो लम्बी भुजा, चौड़ी और पतली गोल कमर वाले हैं, अवन्ति देश के राजा
हैं।
संग्रामनिर्विष्ट सहस्रबाहुरष्टादशद्वीप निखातयूपः । 6/38
उनमें बड़ी भारी बात यह थी कि जब वे लड़ने जाते थे, तब उनके सहस्रों हाथ निकल आते थे, उन्होंने अठारह द्वीपों में जाकर यज्ञ के खंभे गाड़ दिए थे । वामेतरः संशयमस्य बाहु: केयूरबंधोच्छ्व सितैर्नुनोद । 6 / 68
पर उसी समय भुजबंध के पास उनकी दाईं भुजा फड़क उठी, जिससे उनकी शंका दूर हो गई।
231
अमँसत कंठार्पित बाहुपाशां विदर्भराजा वरजां वरेण्यः । 6/84
तब उसे देखकर अज ने यही समझा मानो इन्दुमती ने मेरे गले में अपनी भुजाएँ ही डाल दी हों।
स चापकोटीनिहितैकबाहुः शिरस्त्रनिष्कर्षण भिन्नमौलिः । 7/66 अज ने अपने सिर का कूँड़ उतारा और धनुष के एक छोर पर बाँह टेककर । बाहुभिर्विटपाकारैर्दिव्याभरण भूषितैः । 10/11
आभूषणों से सजी हुई उनकी बड़ी-बड़ी भुजाएँ वृक्ष की शाखाओं के समान थीं।
तं दधन्मैथिली कंठ निर्व्यापारेण बाहुना। 15/56
राम ने वे आभूषण लेकर अपनी उन भुजाओं में बाँध लिए जो सीताजी के वन चले जाने से उनके कंठ में पड़ने से वंचित हो गए थे।
दिव्येन शून्यं वलयेन बाहुमपोढनेपथ्यविधिर्ददर्श । 16 / 73
उन्होंने देखा कि भुजा पर वह दिव्य आभूषण नहीं है।
मुक्तरज्जु निविडं भयच्छलात्कंठबंधनमवाप बाहुभिः । 19/44
उन स्त्रियों ने भय का बहाना करके रस्सी छोड़ दी और राजा के गले में बाँह डालकर उससे लिपट गईं।
3. भुज् :- [भुज्+क] भुजा ।
व्यूढोरस्को वृषस्कन्धः शालप्रांशुर्महाभुजः । 1/13
For Private And Personal Use Only
उनकी चौड़ी छाती, साँड़ के से ऊँचे और भारी कंधे, शाल के वृक्ष जैसी लम्बी भुजाएँ और अपार तेज को देखकर ।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
232
कालिदास पर्याय कोश दोहावसाने पुनरेव दोग्धीं भेजे भुजोच्छिन्नरिपुर्निष्णाम्। 2/23 जब नन्दिनी का दूध दुह लिया गया, तब लम्बी भुजा वाले, शत्रुओं को नष्ट करने वाला राजा दिलीप, फिर उनकी सेवा में लग गए। भुजे भुजगेन्द्र समान सारे भूयः स भूमे(रमाससज्ज। 2/74 वहाँ पहुँच कर उन्होंने शेषनाग के समान अपनी बलवती भुजाओं से फिर राजकाज संभाल लिया। प्रियानुरागस्य मनः समुन्नतेर्भुजार्जितानां च दिगन्त संपदाम्। 3/10 उन्नत भुजा वाले राजा दिलीप जितना रानी को प्यार करते थे, जितनी उन्हें प्रसन्नता थी और जितना बड़ा उनका राज्य था। भुजे शचीपत्रविशेषकांकिते स्वनाम चिह्न निचखान सायकम्। 3/55 अपना नाम खुदा हुआ बाण इन्द्र की उस बाईं भुजा में मारा, जिस पर शची ने कुंकुम आदि से कुछ चित्रकारी कर दी थी। ज्याबन्ध निष्पन्द भुजेन यस्य विनिः श्वसद्वका परम्परेण। 6/40 उसकी भुजाएँ इस प्रकार धनुष की डोरी से कसकर बाँध दिया था, कि वह बेचारा दिन-रात उसी में मरता रहता था। अथांगदाश्लिष्टभुजं भुजिष्या हेमांगदं नाम कलिंग नाथम्। 6/53 उस कलिंग देश के राजा हेमांगद के पास ले गई, जो अपनी बाँह में भुजबंध पहने हुए थे। ज्याघात रेखे सुभुजो भुजाभ्यां बिभर्ति यश्चापभृतां पुरोगः। 6/55 कैसी सुन्दर इनकी भुजाएं हैं, और धनुष धारियों में तो इनसे बढ़कर कोई है ही नहीं, इनकी भुजाओं पर जो दो रेखाएँ धनुष की डोरी खींचने से बन गई हैं। निवेश्य वामं भुजमासनार्धे तत्संनिवेशादधिकोन्नतांसः। 6/16 कोई राजा सिंहासन के एक ओर बाईं भुजा टेककर बैठ गया जिससे उसका बायाँ कंधा उठ गया। केयूरकोटि क्षततालुदेशा शिवा भुजच्छेदमपाचकार17/50 ज्यों ही उसने कटी हुई बाँह पर मुँह मारा, त्यों ही बाँह में बंधे हुए भुजबन्ध की नोक से उसका तालू कट गया और उसने उसे वहीं पर छोड़ दिया। स्वभुजवीर्यमगापयदुच्छ्रितं सुरवधूरवधूतभयाः शरैः। 9/19 अपने बाणों से अनेक शत्रुओं का नाश करके देवताओं की स्त्रियों का सब डर दूर कर दिया और वे सब दशरथजी के बाहुबल के गीत गाने लगीं।
For Private And Personal Use Only
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
233
वीचिलोल भुजयोस्तयोर्गतं शैशवाच्चपलमप्यशोभत। 11/8 बचपन के कारण लहरों के समान चंचल बाहों वाले राजकुमारों का चुलबुलापन ऐसा सुन्दर लग रहा था। ज्यानिघात कठिन त्वचो भुजान्स्वान्विधूयधिगिति प्रतस्थिरे। 11/40 अपनी उन भुजाओं को धिक्कारते हुए चले गए, जिन पर धनुष की डोरी की फटकार से बड़े-बड़े घट्टे पड़ गये थे। निचखानाधिक क्रोधः शरं सव्येतरे भुजे। 12/90 बड़ा क्रोध करके उस दाहिनी भुजा में बाण मारा। भुजविजित विमानरत्नाधिरूढः प्रतस्थे पुरीम्। 12/104 अपने बाहुबल से जीते हुए पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या की ओर लौटे। सभाजने मे भुजमूर्ध्वबाहुः सव्येतरं प्राध्वमितः प्रयुक्त। 13/43 देखो वे मुझे देखकर अपनी दाहिनी भुजा उठाकर मेरा स्वागत कर रहे हैं। भुजेन रक्षापिरथेण भूमेरुपैतु योगं पुनरंसलेन। 16/84 आप इसे लीजिए और उस भुजा में फिर बाँध लीजिए, जो पृथ्वी की रक्षा करती
है।
अस्पृष्टखड्गत्सरुणापि चासीद्रक्षावती तस्य भुजेन भूमिः। 18/48 यद्यपि उनकी भुजा तलवार की मूठ भी नहीं छू सकी थी, फिर भी उसने पृथ्वी की रक्षा भली भाँति कर ली। भोक्तुमेव भुजनिर्जितद्विषा न प्रसाधयितुमस्य कल्पिता। 19/3 इसलिए उन्हें तो केवल भोग करने के लिए ही राज्य और भुजाएँ मिली थी,
राज्य के शत्रुओं को मिटाने के लिए नहीं। 4. हस्त :-[हस्+तन्, न इट्] हाथ।
अवांग्मुश्वस्योपरि पुष्पवृष्टिः पपात विद्याधर हस्त मुक्ता। 2/60 नीचे मुँह किए हुए राजा दिलीप के ऊपर आकाश से विद्याधरों ने खुले हाथों से फूलों की झड़ी लगा दी। ततः समानीय स मानितार्थी हस्तौ स्वहस्तार्जित वीर शब्दः। 2/64 तब मँगतों को मनचाहा दान देने वाले और अपने पराक्रम से वीर कहलाने वाले राजा दिलीप ने हाथ जोड़कर यह वर माँगा कि। वातोऽपि नास्त्रं सयदंशुकानि कोलम्बयेदाहरणाय हस्तम्। 6/75
For Private And Personal Use Only
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
234
कालिदास पर्याय कोश वस्त्रों को वायु भी नहीं हिला सकता था, फिर उन्हें हाथ से हटाने का साहस तो भला कौन करता। नाभिप्रविष्टा भरण प्रभेण हस्तेन तस्याववलम्ब्य वासः। 7/9 वह अपने कड़े हाथ से थामे इस प्रकार खड़ी थी कि उसके हाथ के आभूषणों की चमक उसकी नाभि तक पहुँच रही थी। हस्तेन हस्तं परिगृह्य वध्वाः स राजसूनुः सुतरां चकासे। 7/21 वैसे ही जब अज ने अपनी बहू का हाथ थामा, तब वे भी बहुत सुन्दर लगने लगे। अप्यर्धमार्गे परबाणलूना धनुर्भृतां हस्तवतां पृषत्काः । 7/45 जिन धनुषधारियों के हाथ बाण चलाने में सधे हुए थे, उनके बाण यद्यपि शत्रुओं के बाणों के बीच में ही दो टूक हो जाते थे। एवं विधेनाहवचेष्टितेन त्वं प्रार्थ्यसे हस्तगता ममैभिः। 7/67 देखो, इसी बलपर ये तुम्हें मेरे हाथों से छीनने चले थे। वसुधामपि हस्तगामिनीमकरोदिन्दुमती मिवापरम्। 8/1 अज के हाथों में सारी पृथ्वी इस प्रकार सौंप दी, मानो वह भी दूसरी इन्दुमती हो। शिक्षाविशेषलघुहस्ततया निमेषात्तूणी चकार शरपूरितवकारंध्रान्। 9763 उन्होंने अपने अभ्यस्त हाथों से इतनी शीघ्रता से उन पर बाण चलाए कि उन सिंहों के खुले मुँह उनके बाणों के तूणीर बन गए। सोऽभूत्परासुरथ भूमिपतिं शशाप हस्तार्पितैर्नयनवारिभिरेव वृद्धः। 9/78 इस पर बूढ़े तपस्वी ने अपने आँसुओं से अपने हाथों की अंजली भरकर राजा को यह शाप दिया। पर्युपास्यन्त लक्ष्या च पद्मव्यजन हस्तया। 10/62 लक्ष्मी हाथ में कमल का पंखा लेकर हमारी सेवा कर रही है। सीतास्वहस्तो पृहताग्यपूजान् रक्षः कपीन्द्रान्विसर्ज रामः। 14/19 राम ने उन राक्षसों और वानरों के सेनापतियों को विदा किया, चलते समय सीताजी ने स्वयं अपने हाथों से उनकी पूजा की। रामहस्तमनुप्राप्य कष्टात्कष्टतरं गता। 15/43 राम के हाथ में आकर बड़े कष्ट में पड़ गई हो।
For Private And Personal Use Only
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
235 तस्मिन्ह्रदः संहितमात्र एवं क्षोभात्समाविद्धतरंगहस्तः। 16/78 उनके धनुष चढ़ाते ही वहाँ का जल, खलबलाता हुआ अपने तरंग रूपी हाथ जोड़े हुए। विभूषणप्रत्युपहारहस्तमुपस्थितं वीक्ष्य विशांपतिस्तम्। 16/80 कुश ने देखा कि कुमुद के हाथ में वही आभूषण है। तस्याः स्पृष्टै मनुजपतिना सहचर्याय हस्ते। 16/87 जब राजा कुश से उस कन्या का हाथ पकड़ा। चुम्बने विपरिवर्तिताधरं हस्तरोधि रशनाविघट्टने। 19/27 जब वह स्त्रियाँ के ओठ चूमने लगता, तब वे मुंह फेर लेती थीं, और जब कमर का नाड़ा खोलने लगता, तब हाथ थाम लेतीं।
भुजगेन्द्र 1. भुजंगराज :-[भुजः सन् गच्छति गम्+खच्, मुम् डिच्च राज] नागराज, शेषनाग
का विशेषण। लक्ष्येव सार्धं सुरराज वृक्षः कन्यां पुरस्कृश्य भुजंगराजः। 16/79 इतने में ही उस जल में से अचानक एक कन्या को आगे किए हुए नागराज कुमुद इस प्रकार निकले, मानो लक्ष्मी को साथ लेकर कल्पवृक्ष निकल आया
हो।
2. भुजगेन्द्र :-[भुज् भक्षणे क, भुजः कुटिलीभवन् सन् गच्छति गम्+उ+इन्द्रः]
शेषनाग के विशेषण। तत्प्रसुप्तभुजगेन्द्र भीषणं वीक्ष्य दाशरथिराददे धनुः। 11/44 धनुष ऐसा जान पड़ता था मानो कोई बड़ा भारी अजगर सोया हुआ हो, देखते-देखते
राम ने शंकर जी के धनुष को उठा लिया। 3. महोरग :-[मह+घ+टाप्+उरगः] बड़ा साँप, शेषनाग।
किं महोरग विसर्पि विक्रमो राजिलेषु गरुडः प्रवर्तते। 11/27 क्योंकि भला बड़े-बड़े सो पर आक्रमण करने वाला गरुड़, क्या कभी जल के छोटे-छोटे साँपों पर आक्रमण किया करता है। वपुर्महोरगस्येव करालफणमण्डलम्। 12/98 वह ऐसी थी मानो फणों का चमकीला मंडल लिए हुए शेषनाग ही हों।
For Private And Personal Use Only
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
236
कालिदास पर्याय कोश
4. साधिराज :-[सृप+घञ्+अधिराजः] शेषनाग।
साधिराजोरुभुजोऽपसर्प पप्रच्छ भद्रं विजितारिभद्रः। 14/1 सदाचारी और शेषनाग के समान बड़ी बाँहों और जाँघों वाले शत्रु विजयी राम ने अपने भद्र नाम के दूत से पूछा।
भूमि
1. अवनि :-[अव+अनि, पक्षे ङीष्] पृथ्वी, भूमि।
अवनिमेक रथेन स मेदिनी मुदधिनेभिमाधिज्यशरासनः। 9/10 एक धनुष लेकर और अकेले एक रथ पर चढ़कर ही उन्होंने समुद्र तक फैली हुई सारी पृथ्वी जीत ली। तेयाच्छान्तव्यालामवनिमपरः पौरकान्तः शशास। 16/88
जिससे सर्प शान्त हो गए और कुश पृथ्वी पर भली-भाँति राज करने लगे। 2. उपत्यका :-[उप+त्यकन्-पर्वतस्यासन स्थलमुपत्यका-सिद्धा०] तलहटी,
निम्नभू-भाग। मारी चोद्धान्त हारीता मलयातरुपत्यकाः। 4/46 मलयाचल की उस भूमि (तराई) में उतरे, जहाँ काली मिर्च की झाड़ियों में
हरे-हरे सुग्गे इधर-उधर उड़ रहे थे। 3. उर्वी :-[उणु+कु, नलोपः, ह्रस्वः, ङीष्] विस्तृतप्रदेश, भूमि।
अनन्यशासनमुर्वी शशासैक पुरीमिव। 1/30 जैसे कोई एक नगरी पर शासन करता है, तो वैसे ही राजा दिलीप ने पूरी पृथ्वी पर अकेले राज्य करते थे। पुरा शक्रमुपस्थाय तवोर्वी प्रति यास्यतः। 1/75 हे राजन! बहुत दिन हुए कि एक बार जब तुम स्वर्ग से इन्द्र की सेवा करके पृथ्वी को लौट रहे थे। पयोधरीभूत चतुः समुद्रां जुगोप गोरूपधरा मिवोर्वीम्। 2/3 मानो साक्षात् पृथ्वी ने ही गौ का रूप धारण कर लिया हो और जिसके चारों थन ही पृथ्वी के चार समुद्र हों। तदर्थमुर्वीमवदारयद्भिः पूर्वैः किलायं परिवर्धितो नः। 2/3 उस समय सगरजी के पुत्रों ने घोड़े की खोज करने के लिए सारी पृथ्वी खोद डाली, उसी से यह समुद्र इतना लंबा-चौड़ा हो गया है।
For Private And Personal Use Only
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
237
सैषा स्थली यत्र विचिन्वता त्वां भ्रष्टं मया नूपुरमेकमुाम्। 13/23 यही वह स्थान है, जहाँ तुम्हें ढूंढ़ते हुए मैंने पृथ्वी पर पड़ा हुआ, तुम्हारा बिछुआ देखा था। तत्रेश्वरेण जगतां प्रलयादिवोर्वी वर्षात्ययेन रुचमभ्रघनादिवेन्दोः। 13/77 जैसे आदि वराह ने प्रलय से पृथ्वी को उबार लिया था, जैसे वर्षा बीतने पर शरद बादलों से चाँदनी छीन लेता है। पुरं नवीचारपां विसर्गान्मेघा विदाघग्लपितामिवोर्वीम्। 16/38 जैसे इन्द्र की आज्ञा से बादल, जल बरसाकर गरमी से तपी हुई पृथ्वी को हरी-भरी कर देते हैं, वैसे ही अयोध्या का कायापलट कर दिया। ततः परं तत्प्रभवतः प्रपेदे ध्रुवोपमेयो ध्रुवसंधिरुर्वीम्। 17/34
उनके पीछे उनके ध्रुव के समान निश्चल पुत्र संधि पृथ्वी के राजा हुए। 4. क्षिति :-[क्षि + क्तिन] पृथ्वी, भूमि, निवास, आवास, घर।
अकरोद चिरेश्वरः क्षितौ द्विषदारम्भफलानि भस्मसात्। 8/20 अज ने पृथ्वी पर शत्रुओं की सब चालें नष्ट कर डाली। इति चोपनतां क्षितिस्पृशं कृतवाना सुरपुष्पदर्शनात्। 8/81 इस पर ऋषि ने कहा :-जब तक तुम्हें स्वर्गीय पुष्प नहीं दिखाई पड़ेंगे, तब तक तुम्हें पृथ्वी पर रहना ही पड़ेगा। इति क्षिति संशयितेव तस्यै ददो प्रवेशं जननी न तावत्। 14/55 उस समय पृथ्वी ने सीताजी को मानो दुविधा के कारण अपनी गोद में नहीं समा लिया। क्षितिरिव नभोबीजमुष्टिं दधाना। 19/57
जैसे सावन में बोए हुए मुट्ठी भर बीजों को पृथ्वी छिपाए रहती है। 5. गा :-[गै + डा] पृथ्वी ।
गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुवेरात्। 5/26 रघु ने भी देखा कि पृथ्वी पर तो धन है नहीं। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि कुबेर से ही धन लिया जाये। तौ विदेहनगरी निवासिनां गां गताविव दिवः पुनर्वसू। 11/36 वे दोनों राजकुमार जनकपुर के निवासियों को ऐसे सुन्दर लग रहे थे, मानो दो पुनर्वसु नक्षत्र ही पृथ्वी पर उतर आए हों।
For Private And Personal Use Only
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
238
कालिदास पर्याय कोश गां गतस्य तव धाम वैष्णवं को पितो यसि मया दिदृक्षुणा। 11/85 किन्तु मैंने यह जानने के लिए आपको कष्ट दिया था, कि देखू आप विष्णु का कितना तेज लेकर पृथ्वी पर उतरे हैं। अहीनगुनीम स गां समग्राम हीन बाहुद्रविणः शशास। 18/14 देवानीक के पुत्र का नाम अहीनग था, वे युवावस्था में ही सारी पृथ्वी पर अपनी
बड़ी बाहों से शासन करने लगे। 6. धरित्री :-[धृ + इत्र + ङीष्] पृथ्वी।
स्वमूर्तिलाभ प्रकृतिं धरित्री लतेव सीता सहसा जगाम्। 14/54 जैसे लू लगने से लता सूखकर पृथ्वी पर गिर पड़ती है, वैसे ही सीता भी अपनी माँ पृथ्वी की गोद में गिर पड़ीं। नितान्त गुर्वीमपि सौनुभावाधुरं धरित्र्या विभरां बभूव। 18/45 फिर भी उनमें आत्मशक्ति इतनी थी कि उन्होंने पृथ्वी के अत्यंत भारी भार को
संभाल लिया। 7. पृथ्वी :-[पृथु + ङीष्] पृथिवी, धरा।
पृथ्वी शासतस्तस्य पाक शासन तेजसः। 10/1 अपार धन वाले और इन्द्र के समान तेजस्वी राजा दशरथ को पृथ्वी पर राज करते हुए। द्यावापृथिव्योः प्रत्यग्रमहर्पति रिवातपम्। 10/54 जैसे सूर्य अपनी धूप पृथ्वी और आकाश दोनों में बाँट देता है। मणि व्याजेन पर्यस्ताः पृथिव्यामभु विन्दवः। 10/75 मुकुट के कुछ मणि पृथ्वी पर गिर पड़े मानो आँसू ही लुढ़क पड़े हों। बुभुजे पृथ्वीपालः पृथिवीमेव केवलम्। 15/1 राजा राम ने केवल पृथ्वी का ही भोग किया। बभूव वज्राकर भूषणायाः पतिः पृथिव्याः किल वज्रणाभः। 18/21 उनके पीछे उनके पुत्र वज्रनाभ, हीरे की खानों का भूषण पहनने वाली पृथ्वी के
स्वामी हुए। 8. भुवः :-[भवत्यत्र, भू :-आधारादौ] पृथ्वी।
भावितात्मा भुवो भर्तुरथैनं प्रत्यबोधयत्। 1/74 वशिष्ठ जी ने अपने योग के बल से ध्यान किया कि पवित्र आत्मा वाले पृथ्वीपति को पुत्र क्यों नहीं हुआ।
For Private And Personal Use Only
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
239
भुवं कोष्णेन कुण्डौध्नी मेध्येनावभृथा दपि। 1/84 उसके कुंड के समान थनों से वह गरम-गरम दूध निकलकर पृथ्वी पर टपकने लगा, जो यज्ञ के स्नान के जल से भी अधिक पवित्र था। दिवं मरुत्वानिव भोक्ष्यते भुवं दिगन्त विश्रान्तरथो हि तत्सुतः। 3/4 इसलिए मिट्टी खाना आरंभ किया कि भविष्य में उसका पुत्र भी संपूर्ण पृथ्वी पर उसी प्रकार राज करे, जैसे इन्द्र स्वर्ग पर राज्य करते हैं। प्रियतमाभिरसौ तिसृभिर्बभौ तिसृभिरेव भुवं सह शक्तिभिः। 9/18 अपनी तीनों रानियों के साथ ऐसे जान पड़े, मानो पृथ्वी पर राज करने के लिए इन्द्र ही अपनी तीनों शक्तियों के साथ। न केवलं भुवः पृष्ठे व्योम्नि संबाधवर्त्मभिः। 12/67 पृथ्वी की कौन कहे, आकाश में भी बड़ी कठिनाई से चल पाती थी। विवेश भुवमाख्यातुमुरगेभ्य इव प्रियम्। 12/91 मानो पृथ्वी के नीचे पाताल के वासियों को रावण के मरने की शुभ सूचना देने के लिए पाताल चला गया है। धर्मसंरक्षणाथैव प्रवृत्तिर्भुवि शांर्गिणः। 15/4 धर्म की रक्षा के लिए ही, तो वे पृथ्वी में अवतार लेते हैं। एवमुक्ते तया साध्व्या रन्ध्रात्सद्यो भवद्भुवः। 15/82 पतिव्रता सीता के ऐसा कहते ही पृथ्वी फटी। राघवः शिथिलं तस्थौ भुवि धर्मस्त्रिपादिव। 15/96 राम उसी पकार ढीले पड़ गए, जैसे पृथ्वी पर तीन पैर वाला धर्म ढीला पड़ जाता
रामं सीता परित्यागाद सामान्य पतिं भुवः। 15/39 सीता जी को छोड़ देने पर, अब राम एक मात्र पृथ्वी के ही स्वामी रह गए हैं। एकात पत्रां भुवमेकवीरः पुरार्गला दीर्घ भुजो बुभोज। 18/4 अद्वितीय वीर निषध ने भी सागर तक फैली हुई पृथ्वी का भोग किया। यून: प्रथम परिगृहीते श्री भुवो राजकन्याः । 18/53 राजकुमारियाँ, पहली रानियों की, पृथ्वी की और राजलक्ष्मी की सौत के समान
हो गईं।
9. भुवस्तल :-[भवत्यत्र, भू:-आधारादौ + तलम्] पृथ्वी तल, धरातल, पृथ्वी।
For Private And Personal Use Only
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
240
कालिदास पर्याय कोश भुवस्तल मिव व्योम कुर्वन्व्योमेव भूतलम्। 4/29
आकाश को पृथ्वी बना दिया और पृथ्वी भी आकाश जैसे लगने लगी। 10. भूतल :-[भू + क्विप् + तलम्] पृथ्वीतल, धरातल, पृथ्वी।
भुवस्तलमिव व्योम कुर्वन्व्योमेव भूतलम्। 4/29
आकाश को पृथ्वी बना दिया और पृथ्वी भी आकाश जैसे लगने लगी। 11. भूमि :-[भवन्त्यस्मिन् भूतानि :-भू + मि किच्च वा ङीप्] पृथ्वी, मिट्टी,
भूमि। मृगैर्वर्तितरोन्मथ मुरजां गन भूमिषु। 1/52 वहीं आँगन में बहुत से हरिण सुख से भूमि में बैठकर जुगाली कर रहे थे।
आस्तीर्णाजिन रत्नासु द्राक्षावलय भूमिषु। 4/65 रघु के सैनिक दाख की लताओं से घिरी हुई पृथ्वी पर सुहावनी मृग छालाएँ बिछाकर बैठ गए। कामं नृपाः सन्तु सहस्त्रशोऽन्ये राजन्वती माहुरनेन भूमि। 6/22 वैसे ही यद्यपि संसार में सहस्रों राजा हैं, किन्तु पृथ्वी इन्हीं के रहने से राजा वाली कहलाती है। विनीतनागः किल सूत्रकारैरैन्द्रं पदं भूमि गतोऽपि भुंक्ते। 6/27 हाथियों की विद्या के बड़े-बड़े गुणी लोग इनके हाथियों को सिखाते हैं, ये पृथ्वी पर रहते हुए इन्द्र ही समझे जाते हैं। भुजे भुजंगेन्द्र समान सारे भूयः स भूमेधुरमा ससज्ज। 7/74 उन्होंने शेषनाग के समान अपनी बलवती भुजाओं से फिर पृथ्वी का राजकाज संभाल लिया। तुरगवल्गन चंचल कुंडलो विरुरुचे रुरुचेष्टित भूमिषु। 9/51 घोडे के वेग से चलने के कारण उनके कानों के कुंडल भी हिल रहे थे, इस वेष मे चलते-चलते उस जंगल की भूमि में पहुँचे जहाँ रुरु जाति के हरिण बहुत घूमा करते हैं। स्थिर तुरंगम भूमि निपानवन्मृग व योग वयोपचितं वनम्। 9/53 वे उस जंगल में पहुँचे, जहाँ की पृथ्वी घोड़ों के लिए पक्की थी। वहाँ वहुत से हरिण, पक्षी और बनैली गाएँ घूमा करती थीं। सोऽहं दाशरथिर्भूत्वा रणभूमेर्बलि क्षमम्। 10/44
For Private And Personal Use Only
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
241
रघुवंश
मैं राजा दशरथ के यहाँ जन्म लेकर रणभूमि को भेंट चढ़ाऊँगा। तेन भूमि निहितैक कोटि तत्कार्मुकं च बलिनाधिरोपितम्। 11/81 राम ने उस धनुष की एक छोर पृथ्वी पर टेक कर जैसे ही उस पर डोरी चढ़ाई। एषा विदूरी भवतः समुद्रात्सकानना निष्पततीव भूमिः। 13/18 दूर निकल आने से यह जंगलों से भरी हुई भूमि ऐसी दिखाई पड़ रही है, मानो समुद्र से अभी अचानक निकल पड़ी हो।। मन्दाकिनी भाति नगोपकंठे मुक्तावली कंठगतेव भूमेः। 13/48 पर्वत के नीचे बहती हुई मंदाकिनी ऐसी जान पड़ती है, मानो पृथ्वी रूपी नायिका के गले में मोतियों की माला पड़ी हुई हो।। छाया हि भूमेः शशिनो मलत्वे नारोपिता शुद्धिमतः प्रजाभिः। 14/40 निर्मल चंद्र-बिंब के ऊपर पड़ी हुई पृथ्वी की छाया को लोग चंद्रमा का कलंक कहते हैं और झूठ होने पर भी सारा संसार इसे ठीक मानता है। हेम भक्तिमती भूमेः प्रवेणीमिव पिप्रिये। 15/30 यमुना ऐसी सुन्दर दिखाई पड़ीं, मानो वह सुनहरी फुन्दों वाली पृथ्वी की चोटी
हों।
स तीरभूमौ विहितोकपार्या मानायिभिस्तामपकृष्टनक्राम्। 16/55 सरयू के तट की भूमि पर डेरे डाल दिए गए और मल्लाहों ने जाल डालकर ग्राह आदि सब जीव जंतु उसमें से निकाल डाले। भुजेन रक्षा परिघेण भूमेरुपैतु योगं पुनरंसलेन। 16/84 उस भुजा में फिर बांध लीजिए, जो पृथ्वी की रक्षा करती है। अस्पृष्ट खड्गत्सरुणापि चासीद्रा क्षावती तस्य भुजेन भूमिः। 18/48 यद्यपि उनकी भुजा तलवार की मूढ भी नहीं छू सकी थी, फिर भी उन्होंने पृथ्वी
की रक्षा भली-भांति कर ली। 11. मही :-[मह् + अच् + ङीप्] पृथ्वी।
महीतलस्पर्शनमात्र भिन्नमृद्धं हि राज्यं पदमैन्द्र माहुः। 2/50 सुख और समृद्धि से भरा हुआ राज्य पृथ्वी पर ही स्वर्ग बन जाता है, अन्तर सिर्फ इतना होता है कि यह भूमि का स्वर्ग होता है, वह देवलोक का। भल्लापवर्जितैस्तेषां शिरोभिः श्मश्रुलैर्महीम्। 4/63 उनमें जो जीते बच गए, उन्होंने अपने लोहे के टोप उतार कर पृथ्वी के राजा रघु के चरणों में रख दिए।
For Private And Personal Use Only
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
242
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
तमधिगम्य तथैव पुनर्वभौ न न महीन महीन पराक्रमम् । 9/5
उसी प्रकार उन्हीं दोनों के समान दशरथ को पाकर पृथ्वी की शोभा न बढ़ी हो, यह बात नहीं है ।
वेपमान जननी शिरश्छिदा प्रागजीयत घृणा ततो मही । 11/65
अपनी काँपती हुई माता का सिर काट लिया था, उस समय उन्होंने पहले तो घृणा को जीत लिया और फिर पृथ्वी को जीत लिया था ।
तस्मिन्कुला पीड निभे विपीडं सम्यंगमहीं शासति शासनांकाम् । 18/29 भी संतान वाले ब्रह्मिष्ठ भी अपने कुल के शिरोमणि थे, उन्होंने बड़ी योग्यता से पृथ्वी का शासन किया।
महीं महेच्छः परिकीर्य सूनौ मनीषिणे जैमिनयेऽर्पितात्मा । 18 / 33 उन्होंने पृथ्वी का भार अपने पुत्र को सौंप दिया और स्वयं जैमिनी ऋषि के शिष्य होकर |
13. मेदिनी : - [ मेद् +इन् + ङीप् ] पृथ्वी ।
न माम वति सद्वीपा रत्नसूरपि मेदिनी । 1/65
तब रत्नों को पैदा करने वाली, कई द्वीपों में फैली हुई अपने राज्य की पृथ्वी भी मुझे अच्छी नहीं लग रही है।
नितम्ब मिव मेदिन्या स्त्रस्ताशं कमलंघयत् । 4/52
मानो वह पृथ्वी का नितम्ब हो और जिस पर से कपड़ा हट गया हो ।
विशदोच्छ्वसितेन मेदिनी कथयामास कतार्थतामिव । 8/3
उसके कारण पृथ्वी से जो भाप निकली, वह मानो यह सूचित करती हो कि उसे भी संतोष है।
अचिरोपनतां स मेदिनीं नव पाणिग्रहणां वधूमिव । 8/7
नई पाई हुई पृथ्वी का पालन दयालुता के साथ प्रारंभ किया कि कहीं नई ब्याही हुई बहू के समान वह घबरा न जाये ।
ननु तैलनिषेक बिन्दुना सह दीपार्चिरुपैति मेदिनीम् । 8/38
क्योंकि गिरते हुए तेल की बूँदों के साथ क्या दीपक की लौ पृथ्वी पर नहीं गिर पड़ती।
For Private And Personal Use Only
अजयदेक रथेन स मेदिनी मुदधिनेमिमधिज्य शरासनः । 9/10 एक धनुष लेकर और अकेले एक रथ पर चढ़कर ही उन्होंने समुद्र तक फैली हुई सारी पृथ्वी जीत ली ।
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
243
लब्ध पालनविधौ न तत्सुतः खेदमाप गुरुणा हि मेदिनी। 19/3
पिता से पाई हुई पृथ्वी का पालन करने में पुत्र को कोई कठिनाई नहीं हुई। 14. वसुधा :-[वस् + उन् + धा] पृथ्वी।
तया मेने मनस्विन्या लक्ष्या च वसुधा धिपः। 1/32 पृथ्वी पति राजा दिलीप लक्ष्मी के समान मनस्विनी केवल अपनी पत्नी सुदक्षिणा के कारण ही। भस्ममात्कृतवतः पितृद्विषः पात्रसाच्च वसुधां ससागराम्। 11/86 पिता के शत्रुओं का नाश करने वाले और सागर तक फैली हुई पृथ्वी ब्राह्मणों को दान देने वाले। गन्धे ना शुचिना चेति वसुधायां निचलतुः। 12/30 यह सोचकर उसे पृथ्वी में गाड़ दिया कि कहीं इसके शरीर की दुर्गन्ध न फैल
जाये।
शोचनीयासि वसुधे या त्वं दशरथाच्च्युता। 15/43
हे पृथ्वी! दशरथ से छूटकर तुम्हारी दशा बड़ी शोचनीय हो गई है। 14. वसुन्धरा :-[वसूनि धारयति :-वसु + धृ + णिच् + खच् + टाप्, मुम्]
पृथ्वी। तथाप्यनन्य पूर्वेव तस्मिन्नासीद्वसुंधरा। 4/7 पर वह पृथ्वी ऐसी नई जान पड़ती थी, मानो पहले-पहल रघु के हाथों में आई
हो।
समुद्ररशना साक्षात्प्रादुरासीद् वसुंधरा। 15/83 समुद्र की तगड़ी पहने साक्षात् धरती माता प्रकट हुईं। वसुंधरा विष्णुपदं द्वितीय मध्यारुरोहेव रजश्छलेन। 16/28 उड़ती हुई धूल ऐसी जान पड़ रही थी मानो पृथ्वी विष्णु के दूसरे पद (आकाश)
में पहुंच गई हो। 16. वसुमति :-[वसु + मतुप् + ङीप्] पृथ्वी।
वसुधेयमवेक्ष्यतां त्वया वसुमत्या हि नृपाः कलत्रिणः। 8/83 सावधान होकर आप पृथ्वी का पालन कीजिए, क्योंकि राजाओं की सच्ची
सहधर्मचारिणी तो पृथ्वी है। 17. विश्वम्भरा :-[विश्वं विभर्ति विश्व + भृ + खच्, मुम्] पृथ्वी।
For Private And Personal Use Only
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
244
कालिदास पर्याय कोश
तथा विश्वम्भरे देवि मामन्तर्धातुमर्हसि। 15/81
तो हे धरती माता! तुम मुझे अपनी गोद में ले लो। 18. सागराम्बरा :-[सगरेण निवृत्तः :-अण् + अम्बरा] पृथ्वी
निधान गर्भामिव सागराम्बरां शमीमिवाभ्यन्तरलीन पावकाम्। 3/9 जैसे अमूल्य रत्नों से भरी हुई पृथ्वी, अपने भीतर अग्नि रखने वाला शमी का
वृक्ष। 19. स्थली :-[स्थल + ख्रीप्] भूमि, पृथ्वी।
तमालपत्रास्तरणासु रन्तुं प्रसीद शश्वन्मलयस्थलीषु। 6/64 यदि तुम सदा मलय भूमि की उन घाटियों में विहार करना चाहो, जिसमें स्थान-स्थान पर ताड़ के पत्ते फैले हुए हैं, तो इनसे विवाह कर लो। चिक्लिशु शतया वरूथिनीमुत्तटा इव नदीरयाः स्थलीम्। 11/58 जैसे बढ़ी हुई नदी की धारा आसपास की भूमि को उजाड़ देती है, वैसे ही एक दिन मार्ग में (वायु ने) सेना को व्याकुल कर दिया। तं विनिष्पिष्य काकुत्स्थो पुरा दूषयति स्थलीम्। 12/30 पर राम लक्ष्मण ने उसे तत्काल मार डाला, कहीं इसके शरीर की दुर्गंध भूमि को दूषित न करे दे यह सोचकर।
भूषण 1. आकल्प :-[आ + कृप् + णिच् + घञ्] आभूषण, अलंकार।
आकल्प साधनैतैस्तैरुप सेदुः प्रसाधकाः। 17/22 सिंगारियों ने सब प्रकार से सजा दिया। अकृतकविधि सर्वांगीणमाकल्पजातं विलसितपदमाद्यं यौवनं स प्रपेदे।
18/52 वह जवानी आ गई, जो शरीर की स्वाभाविक शोभा होती है और विलास का
पहला अड्डा होता है। 2. आभरण :-[आ + भृ + ल्युट्] आभूषण, सजावट।
कुतः प्रयलो न च देव लब्धं मग्नं पयस्या भरणोत्तमं ते। 16/76 हे देव! बहुत परिश्रम करने पर भी हम लोग जल में पड़े हुए आपका आभूषण नहीं पा सके।
For Private And Personal Use Only
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
245
रघुवंश 3. भूषण :-[भूष् + ल्युट्] अलंकार, आभूषण, शृंगार।
शरीर सादाद समग्र भूषणा मुखेन सालक्ष्यत लोध्र पाण्डुना। 3/2 उन्होंने अपने बहुत से गहने शरीर से उतार डाले। उनका मुँह लोध के फूल के समान पीला पड़ गया। क्वचिच्च कृष्णोरग भूषणेव भस्मांगरागा तनुरीश्वरस्य। 13/57 कहीं पर भस्म लगाए हुए शिवजी के शरीर के समान दिखाई पड़ रही हैं, जिस पर काले-काले सर्प आभूषण के समान लिपटे हुए हों। कौशल्य इत्युत्तर कोशलानां पत्युः पतंगान्वय भूषणस्य। 18/27 उत्तर कोशल के स्वामी और सर्यकुल के भूषण हिरण्यनाभ को कौशल्य नाम
का पुत्र हुआ। 4. विभूषण :-अलंकार, आभूषण। विभूषण प्रत्युपहार हस्तमुपस्थितं वीक्ष्य विशांपतिस्तम्। 16/80 कुश ने देखा कि कुमुद अपने हाथों में वही आभूषण लिए उपस्थित है।
भोज
1. भोज :-[भुज् + अच्] मालवा (या धारा) का प्रसिद्ध राजा।
आप्तः कुमार नयनोत्सुकेन भोजेन दूतो रघवे विसृष्टः। 5/39 इसी बीच विदर्भ देश के राजा भोज ने अपना एक विश्वासपात्र दूत रघु के पास
अज को बुलाने के लिए भेजा। 2. विदर्भाधिप :-[विगता दर्भाः कुशा यतः + अधिप:] विदर्भ देश का राजा।
प्रस्थापयामास ससैन्यमेन मृद्धां विदर्भाधिप राजधानीम्। 5/40 इसलिए उन्होंने सेना के साथ अज को विदर्भ राज भोज की राजधानी को भेज दिया।
भ्रमर
1. अलि :-[अल्+इन्] भौंरा।
अलिभिरंजन बिन्दुमनोहरैः कुसुमपंक्ति निपातिभिरंकितः। 9/41 फूलों पर मंडराते हुए काजल की बुंदयों के समान सुन्दर भौरे ऐसे जान पड़ते थे, मानो वनस्थलियों का मुख भी चीत दिया गया हो।
For Private And Personal Use Only
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
246
कालिदास पर्याय कोश उपचितावयवा शुचिभिः कठोरलिकदम्बकयोग मुपेयुषी। 9/44 तिलक के फूलों के गुच्छे उजले पराग से भरे बढ़ चुके थे, उन पर मंडराते हुए भौंरों के झुंड के कारण। कुसुमकेसर रेणु मलिव्रजाः सपवनोपवनोत्थित मन्वयुः। 9/45 उपवन के फूलों का पराग जो वायु ने उड़ाया, तो भौंरों के झुड के झुंड भी उसके पीछे-पीछे उड़ चले। अथ मद गुरुपौर्लोकपाल द्विपानाम नुगतमलि वृन्दैर्गण्डभित्ती विहाय।
12/102 जिनकी सुगंध पाकर मद से भीगी हुई पंखों वाले भौरे दिशाओं के हाथियों के
मद बहाने वाले कपोलों को छोड़कर रस लेने उनके पीछे-पीछे दौड़ पड़े। 2. द्विरेफ :-[द्वि+रेफ:] भौंरा।
मदोत्कटे रेचित पुष्पवृक्षा गंध द्विपे वन्य इव द्विरेफाः। 6/7 जैसे फूल वाले वृक्षों को छोड़कर मद बहाने वाले जंगली हाथियों पर भौरे झुक पड़ते हैं। कश्चित्कराभ्यामुपगूढ़ नालमालोलपत्राभिहत द्विरेफम्। 6/13 कोई राजा हाथ में सुन्दर कमल लेकर उसकी डंठल पकड़कर घुमाने लगा,
उसके घूमने से तो भौरे इधर-उधर भाग गए। 3. पतत्रिन :-[पतत्र+इनि] भौरे।
अभिययुः सरसो मधु संभृतां कमलिनीमलिनीरपतत्रिणः। 9/27 वैसे ही वसन्त की शोभा से लदी हुई ताल की कमलिनी के आस-पास भौरे
और हंस भी मंडराने लगे। 4. भ्रमर :-[भ्रम्+करन्] भौंरा।
तिरश्चकार भ्रमराभिलीनयोः सुजातयोः पंकजकोशयोः श्रियम्। 3/8 इससे रानी के स्तन ऐसे सुन्दर लगने लगे कि उनकी शोभा के आगे कमल के जोड़े पर बैठे हुए भौंरों की शोभा भी हार मान बैठी। अथोपरिष्टाभ्रमरैर्धमद्भिः प्राक्सूचितान्तः सलिलप्रवेशः। 5/43 जिसके जल में घुसने की सूचना जल के ऊपर भनभनाने वाले भंवरे दे रहे थे। प्रस्पन्दमानपरुषतरतारमन्तश्चक्षुस्तव प्रचलितं भ्रमरं च पद्मम्। 5/68 इस समय तुम्हारी बंद आँखों में पुतलियाँ घूम रही हैं और तालों में कमलों के भीतर भौरे गूंज रहे हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
247 भ्रमरैः कुसुमानुसारिभिः परिकीर्णा परिवादिनी मुनेः। 8/35 वह माला तो गिर गई पर फूलों के साथ लगे हुए भौरे अभी तक नारदजी की वीणा पर मंडरा रहे थे। श्रुतिसुख भ्रमर स्वनगीतयः कुसुमकोमल दन्तरुचो बभुः। 9/35 मानो कानों को सुख देने वाली भौंरों की गुंजार ही उनके गीत हों, खिले हुए कोमल फूल ही उनकी हँसी के दाँत हों। तनुलता विनिवेशित विग्रहा भ्रमरसंक्रमिते क्षणवृत्तयः। 9/52 . कोमल लताओं का रूप धारण करके भौरों की आँखों से वनदेवता भी। प्रत्येक निक्षिप्त पदः सशब्दं संख्यामिवैषां भ्रमरश्चकार। 16/47 संध्या को गुनगुनाते हुए भौरे, उसके एक-एक फूल पर बैठकर, मानो फूलों की गिनती करने लगे थे। 5. मधुकर :-[मधु+करः] भौंरा।
मधुकरैरकरोन्मधुलोलुपैर्बकुलमाकुल मायत पंक्तिभिः। 9/30 बकुल के जो वृक्ष फूल उठे थे, उनको झुंड बनाकर उड़ते हुए मधु के लोभी भौंरों
ने बड़ा झकझोरा। 6. मधुलिह :-[मधु+लिह्] भौंरा।
मधुलिहां मधुदान विशारदाः कुरबका रवकारणतां ययुः। 9/29 कुरबक के पेड़ों से इतना मधु बह रहा था कि भौरे मस्त होकर उन्हीं पर गुनगुना
रहे थे। 7. शिलीमुख :-[शिलि+ङीष् मुख:] भौंरा।
करेषु करिणां पेतुः पुनांगेभ्यः शिलीमुखाः। 4/57 नागकेसर के फूलों पर बैठे हुए भंवरों को जब हाथियों के कपोलों से टपकते हुए
मद की गंध मिली, वे उन्हें छोड़कर इन पर आ टूटे। 8. षट्पद :-[सो+क्विप्, पृषो०+पदः] भौंरा।
न हि प्रफुल्लं सहकारमेत्य वृक्षान्तरं कांक्षति षट्पदाली। 6/69 क्योंकि जब आम के वृक्ष पर भौंरों का झुंड पहुँच जाता है, तब उन्हें दूसरे वृक्ष के पास जाने की चाह नहीं रहती। कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पदकोकिल कूजितम्। 9/26 पहले फूल खिले, फिर नई कोपलें फूटी, फिर भौरे गूंजने लगे और तब कायेल की कूक भी सुनाई पड़ने लगी।
For Private And Personal Use Only
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
248
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
सा चकारागरागेण पुष्पोच्चलित षट्पदम्। 12/27
उन्होंने सीताजी के शरीर में ऐसा सुगंधित अंगराग लगाया कि उसकी पवित्र गंध पाकर भौरे भी जंगली फूलों से उड़-उड़कर उधर ही टूट पड़े।
भ्राता
1. बन्धु :- [ बन्ध् + उ ] बंधु, बांधव, भाई ।
अथानाथाः प्रकृतयो मातृबन्धु निवासिनम् | 12/12
यह देखकर अयोध्या की अनाथ प्रजा ने उन्हें माता के भाईयों के निवास ( ननिहाल ) से ।
दुर्जातबन्धुरयमृक्ष हरीश्वरो मे पौलस्त्य एष समरेषु पुरः प्रहर्ता । 13 /72 ये वानरों और भालुओं के सेनापति हैं और बड़े गाढ़े दिनों में यह हमारे काम आए हैं। ये पुलस्त्य कुल में उत्पन्न हुए विभीषण हैं, ये युद्ध के समय हमसे आगे बढ़ - बढ़कर शत्रुओं पर प्रहार करते थे ।
2. भ्राता :- [ भ्राज्+ तृच्, पृषो० ] भाई, सहोदर ।
तौ प्रणामचलकाकपक्षकौ भ्राता राव बभृथा प्लुतो मुनिः । 11/31 महर्षि विश्वामित्र ने उन भाइयों को बड़ा आशीर्वाद दिया, जिनकी लटें प्रणाम करते समय झूल रही थीं ।
सविसृष्टस्तथेत्युक्त्वा भ्रात्रा नैवाविशत्पुरीम् | 12/8
राम ने अपनी खड़ाऊँ भाई भरत को दे दी, उसे लेकर भरत जी लौटे, पर वे अयोध्या में नहीं आए।
अकालेबोधितो भ्रात्रा प्रियस्वप्नो वृथा भवान्। 12/81
तुमको नींद बड़ी प्यारी है, तुम्हारे भाई ने व्यर्थ ही तुम्हें असमय में जगा दिया। इक्ष्वाकुवंश गुरवे प्रयतः प्रणम्य स भ्रातरं भरतमर्ध्य परिग्रहान्ते । 13/70 राम ने पहले इक्ष्वाकुवंश के गुरु वशिष्ठजी को प्रणाम किया, फिर अर्ध्य ग्रहण करके, उन्होंने पहले भाई भरत जी को छाती से लगा लिया।
For Private And Personal Use Only
न कश्चन भ्रातृषु तेषु शक्तो निषेद्धुमासी दनुमोदितं वा । 14 / 43 तब भाइयों में से न तो कोई उनका समर्थन ही कर सका, न विरोध ही । विडौजसा विष्णुरिवाग्रजेन भ्रात्रा परवानसि त्वम् | 14/59 जैसे इन्द्र के छोटे भाई विष्णु सदा अपने बड़े भाई की आज्ञा मानते हैं, वैसे ही तुम भी अपने बड़े भाई की आज्ञा मानने वाले हो ।
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
रघुवंश
स भ्रातृसाधरण भोगमृद्धं राज्यं रजोरिक्तमनाः शशास । 14 / 85 राम भाइयों के साथ अपने भरे-पूरे राज्य का शासन करने लगे । चकारवितथां भ्रातुः प्रतिज्ञां पूर्वजन्मनः । 15/95
लक्ष्मण ने अपने बड़े भाई की प्रतिज्ञा की रक्षा कर ली ।
म
मंगल
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
1. कल्याण :- [ कल्पे प्रातः अण्यते शब्दद्यते : - अण्- घञ् ] आनंददायक, सुखकर, सौभाग्यशाली, भाग्यवान ।
249
कल्याण बुद्धेरथवा तवायं न कामचारो मयि शंकनीयः । 14/62
पर नहीं, आप तो सबकी भलाई करने वाले हैं, आप अपने मन से हमारे साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकते।
2. क्षेम :- [क्षि + मन्] आराम, कल्याण, कुशलता ।
आदिदेशाथ शत्रुघ्नं तेषां क्षेमाय राघवः । 15/6
राम ने उन मुनियों की रक्षा का भार शत्रुघ्न को सौंपा।
3. मंगल : - [ मङ्गू + अलच्] शुभ, भाग्यशाली, कल्याणप्रद, समृद्ध ।
धेनुं सवत्सां च नृपः प्रतस्थे सन्मंगलोदग्रतरप्रभावः । 2/71
विदा लेते समय राजा ने बछड़े के साथ बैठी हुई नंदिनी की परिक्रमा की, महर्षि के आशीर्वाद से उनका तेज और भी अधिक बढ़ गया था ।
सुखश्रवा मंगल तूर्यनिस्वनाः प्रमोदनृत्यैः सह वारयोषिताम् । 3/19 वह बालक तो संसार का कल्याण करने वाला था, इसलिए उसके जन्म लेने पर राजमंदिर में मनोहर बाजे और वेश्याओं के नाच आदि उत्सव हो रहे थे । प्रहमातशंखे परितो दिगन्तस्तूर्यस्वने मूर्च्छति मंगलार्थे । 6/9
जिन शंखों और मंगल बाजों के बजने पर उनकी ध्वनि से दसों दिशाएँ गूँज उठीं।
अरमत मधुराणि तत्र शृण्वन्विहगविकूजितबन्दिमंगलानि । 9/71
उस समय वन के पक्षी चारणों के समान जो मंगलगीत गाते थे, उन्हें सुनकर ये मगन हो जाते थे ।
For Private And Personal Use Only
4. शिव :- [ श्याति पापम् :- शो + वन्, पृषो०] शुभ, मांगलिक, सौभाग्यशाली । तैः शिवेषु वसतिर्गताध्वभिः सायमाश्रमतरुष्वगृह्यत । 11/33
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
250
कालिदास पर्याय कोश वे कुछ दूर चले तो सांझ हो गई और वे उस आश्रम के सुन्दर वृक्षों के तले टिक गए। राज्ञः शिवं सावरजस्य भूयादित्याशशंसे करणैरबाःि । 14/50 वे मन ही मन मनाने लगी कि भाइयों के साथ राजा सुख से रहें।
मंडल 1. अनीक :-[अन् + ईषक्] दल, समूह, झंड।
नवाम्बुदानीकमुहूर्तलाञ्छने धनुष्यमोघं समधत्त सायकम्। 3/53 इन्द्र का वह धनुष इतना सुंदर था, कि थोड़ी देर के लिए उसने नए बादलों के
समूह में इन्द्र धनुष जैसे रंग भर दिए। 2. दल :-[दल् + अच्] टोली, झुंड, समूह।
ताम्बूलीनां दलैस्तत्र रचिताऽऽपान भूमयः। 4/42
रघु के वीर सैनिकों के समूह ने वहाँ पान के पत्ते बिछाकर मदिरालय बनाया। 3. मंडल :-[मण्ड् + कलच्] समुदाय, संग्रह, समूह, संघात, टोली।
तेन सिंहासनं पित्र्यमखिलं चारिमंडलम्। 4/4 रघु ने पिता के सिंहासन पर और अपने शत्रुओं के समूह पर एक साथ अधिकार कर लिया। स्फुरत्प्रभामंडलमानुसूयं सा बिभ्रती शाश्वत मंगरागम्। 14/14 सीताजी के शरीर पर अब भी वह अमिट कांति वाला अंगराग लगा हुआ था, जो
अनसूयाजी ने लगा दिया था, जिससे उनका शरीर प्रकाशित हो रहा था। 4. यूथ :-[यु + थक्, पृषो० दीर्घः] भीड़, टोली, झुण्ड।
स पल्वलोत्तीर्ण वराह यूथान्यावास वृक्षोन्मुख बर्हिणानि। 2/17 राजा दिलीप देखते हुए चले जा रहे थे कि कहीं तो छोटे-छोटे तालों में से सुअरों के झुंड निकल-निकल कर चले जा रहे थे। कहीं मोर अपने बसेरों की ओर उड़े जा रहे थे। ऊर्ध्वाकुर प्रोतमुखं कथंचित्क्लेशादपक्रामति शंखयूथम्। 13/13
इन जीवित शंखों के मुंह छिद गए हैं और उस पीड़ा से शंखों के ये समूह बड़ी • कठिनाई से इधर-उधर चल पा रहे हैं। 5. संघात :-[सम् + हन् + घञ्] संघ, मिलाप, समाज, समुदाय।
For Private And Personal Use Only
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
धृतातपत्रो भरतेन साक्षादुपायसंघातं इव प्रवृद्धः । 14/11
भरत हाथ में छत्र लिए हुए थे, चारों भाई ऐसे जान पड़ रहे थे मानो साम, दाम, दंड और भेद ये चारों उपाय इकट्ठे समूहित हो गए हों ।
मंत्री
1. अमात्य : - [ अमा + त्यक्] मंत्री, राजा का सहचर ।
स वृत्तचूलश्चलकाकपक्षकैरमात्यपुत्रैः सवयोभिरन्वितः । 3 / 28
मुंडन संस्कार हो जाने पर रघु ने चंचल लटों वाले तथा समान आयु वाले मंत्रियों के पुत्रों के साथ |
वृद्धैरमात्यैः सह चीरवासा मामर्घ्यपाणिर्भरतोऽभ्युपैति । 13/66
251
चीर पहने, पैदल चलते हुए हाथ में पूजा की सामग्री लिए हुए मंत्रियों के साथ भरत मेरे ही पास आ रहे हैं।
निर्वर्तयामासुरमात्यवृद्धास्तीर्थाहृतैः काञ्चनकुंभतोयैः ।
उस अभिषेक को सोने के घड़ों में भरे तीर्थों से लाए हुए जल से राम को नहलाकर बूढ़े मंत्रियों ने पूरा कर दिया।
2. मंत्री : - [ मन्त्र + णिनि ] मंत्री, सलाहकार ।
अजिताधिगमाय मन्त्रिभिर्युयुजे नीतिविशारदैरजः । 8/17
एक ओर अज नीति जानने वाले मंत्रियों के साथ दिग्विजय का विचार करने लगे ।
श्मश्रु प्रवृद्धि जनितानन विक्रियांश्च प्लक्षान्प्ररोहजटिलानिव मंत्रिवृद्धान् ।
13/71
फिर वृद्ध मंत्रियों से मिले, मूँछ और दाढ़ी बढ़ जाने से वे ऐसे दिखाई दे रहे थे, जैसे घने बरोह वाले बड़ के वृक्ष हों I तदात्मसंभवं राज्ये मंत्रिवृद्धाः समादधुः । 17/8
उसके अनुसार मंत्रियों ने उनके पुत्र अतिथि को राजा बनाया ।
मंत्र: प्रतिदिनं तस्य बभूव सह मंत्रिभिः । 17/50
वे प्रतिदिन मंत्रियों के साथ राज्य की बातें करते थे । गौरवाद्यपि जातु मंत्रिणां दर्शन प्रकृतिकांक्षितं ददौ। 19/87 यदि कभी मंत्रियों के कहने-सुनने से वह प्रजा को दर्शन भी देता तो ।
For Private And Personal Use Only
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
252
पए था
कालिदास पर्याय कोश रोगशान्तिमपदिश्य मंत्रिणः संभृते शिखिनि गूढमादधुः। 19/54 मंत्रियों ने रोग शान्ति के बहाने से राजा के शव को राजभवन के उपवन में ही
चुपचाप जलती अग्नि में रख दिया। 3. मौलि :-[मूलस्या दूरभवः इञ्] प्रधान, प्रमुख, मंत्री।
मौले रानाययामासुर्भरतं स्तम्भिताश्रुभिः। 12/12 उन कुल मंत्रियों को भेजकर भरत को बुलवाया, जिन्होंने अपने आँसू निकलने नहीं दिए थे। समौलरक्षोहरिभिः ससैन्य स्तूर्य स्वना नन्दित पौरवर्गः। 14/10 वृद्ध मंत्रियों, राक्षसों और वानरों को साथ लेकर राम ने अपनी सेना के साथ अयोध्या में पैर रखे, जहाँ के निवासी तुरही आदि बाजों को सुन-सुनकर बड़े प्रसन्न हो रहे थे। मौलैः सार्धं स्थविर सचिवहम सिंहासनस्था राज्ञी राज्यं विधिवदशिषद्भर्तुख्याहताज्ञा। 19/57 इस प्रकार जिसका कहना कोई टाल नहीं सकता था, वह गर्भवती महारानी बूढ़े
मंत्रियों की सम्मति के अनुसार राजकाज चलाने लगी। 4. सचिव :-[सचि + वा + क] मन्त्री, परामर्श दाता।
तेन धूर्जगतो गुर्वी सचिवेषु निचिक्षिपे। 1/34 उन्होंने पृथ्वी पालने का कुल भार अपने कंधों से उतारकर मंत्रियों को सौंप दिया। सत्त्रान्ते सचिवसखः पुरस्क्रियाभिगुर्वीभिः शमित पराजय व्यलीकान्।
4/87 यज्ञ समाप्त हो जाने पर राजा रघु और उनके मंत्रियों ने हारे हुए राजाओं का बड़ा सत्कार किया और उनके मन में हारने की जो लाज थी उसे दूर कर दिया। तस्याः स रक्षार्थमनल्पयोधमादिश्य पित्र्यं सचिवं कुमारः17/36 अज ने अपने पिता के मंत्री को आज्ञा दी कि थोड़े से योद्धा साथ लेकर इंदुमती की रक्षा करो। निववृते स महार्णव रोधसः सचिव कारित बाल सुताञ्जलीन। 9/14 उन देशों के मंत्रियों ने उन राजपुत्रों को दशरथ के आगे हाथ जोड़कर खड़ा कर दिया, वे उस महासमुद्र के तट से अपनी राजधानी अयोध्या लौट आए।
For Private And Personal Use Only
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
253
श्रमजयात्प्रगुणां च करोत्यसौ तनुमतोऽनुमतः सचिवैर्ययौ। 9/49 परिश्रम करने से शरीर भी भली प्रकार गठ जाता है, इसलिए मंत्रियों से सम्मति लेकर वे आखेट के लिए निकल पड़े। संनिवेश्य सचिवेष्वतः परं स्त्रीविधेयनयौवनोऽभवत्। 19/4 कुछ दिनों तक तो उन्होंने स्वंय राजकाज देखा, फिर मंत्रियों पर राज्य का भार डालकर जवानी का रस लेने लगे।
मंद
1. मंद :-[मन्द् + अच्] जड़, मंदबुद्धि, मूढ, अज्ञानी।
मंदः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम्। 1/3 मैं हूँ तो मूर्ख, पर मेरी साध यह है कि बड़े-बड़े कवियों में मेरी गिनती हो यह
सुनकर लोग मुझ पर अवश्य हँसेंगे। 2. मूढ़ :-[मुह् + क्त] नासमझ, मूर्ख, मंदबुद्धि।
अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन्विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्। 2/47 हे राजन् ! जान पड़ता है कि तुममें यह सोचने की शक्ति भी नहीं रह गई है कि तुम्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।
मदन 1. अनंग :-[अन् + अच् + अङ्गः] कामदेव।
आत्मलक्षण निवेदितानृतूनत्यवाहयदनंगवाहितः। 19/47 वह काम क्रीड़ा के लिए भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिन्न प्रकार का वेश बनाया करता था, इसलिए उसके वेश को देखकर ज्ञात हो जाता था कि किस
समय कौन सी ऋतु है। 2. काम :-[कम् + घञ्] कामदेव।
रते गृहीतानुनयेन कामं प्रत्यर्पितस्वांगमिवेश्वरेण। 6/2 मानो साक्षात कामदेव हों, जिसे शिवजी ने रति की प्रार्थना पर फिर से जीवित
कर दिया हो। 3. कुसुमास्त्र :-[कृष् + उम् + अस्त्रः] कामदेव।
गान्धर्वमस्त्रं कुसुमास्त्रकान्तः प्रस्वापनं स्वप्ननिवृत्तलौल्यः। 7/61
For Private And Personal Use Only
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
254
कालिदास पर्याय कोश कामदेव के समान सुन्दर अज ने वह गान्धर्व अस्त्र राजाओं पर छोड़ा, जिससे
निद्रा आ जाती है। 4. कुसुमचाप :-[कुष् + उम् + चापः] कामदेव के विशेषण।
कुसुमचापमतेजय दंशुभि हिमकरो मकरोर्जितकेतनम्। 9/39 पाला दूर हो जाने से चन्द्रमा निर्मल हो गया, उसकी ठंडी किरणों से कामदेव के
फूलों के धनुष को मानो और भी अधिक बल मिल गया हो। 5. पुष्पचाप :-[पुष्प् + अच् + चापः] कामदेव।
शैलसारमपि नातियत्नतः पुष्पचापमिव पेशलं स्मरः। 11/45 उस पर्वत के समान भारी धनुष वर वैसी ही सरलता से डोरी चढ़ा दी, जैसे
कामदेव अपने फूलों के धनुष पर डोरी चढ़ाता है। 6. मदन :-[माद्यति अनेन :-मद् करणे ल्युट्] कामदेव। रम्यां रघु प्रतिनिधिः स नवोपकार्यां बाल्यात्परामिव दशां मदनोऽध्युवास।
5/63 उस भवन में रघु के प्रतिनिधि अज ऐसे रहने लगे, मानो कामदेव ने अपना बचपन बिताकर जवानी में पैर धरा हो। ध्वजपटं मदनस्य धनु तश्छविकरं मुखचूर्णमृतुश्रियः। 9/45 मानो धनुषधारी कामदेव का झंडा हो या वसंतश्री के मुख पर लगाने का श्रृंगार चूर्ण हो। विग्रहेण मदनस्य चारुणा सोऽभवत्प्रतिनिधिर्न कर्मणा। 11/13 मानो वे वहाँ कामदेव की सुन्दरता के प्रतिनिधि बनकर आए हों, उसके कार्यों
के नहीं। 7. मनसिज :-[मनसि जायते :-जन् + ड, अलुक् स०] कामदेव
अथ मधु वनितानां नेत्रनिर्वेशनीयं मनसिज तरुपुरुषं रागबंध प्रवालम्। 18/52 तब सुदर्शन के शरीर में वह जवानी आ गई, जो स्त्रियों के आंखों की मदिरा होती है। मनोभव :-[मन्यतेऽनेन मन् करणे असुत् + भवः] कामदेव, मनुज। दग्ध्वापि देहं गिरिशेन रोषात्खंडी कृताज्येव मनोभवस्य। 16/51 मानो कामदेव का शरीर भस्म करने के पश्चात् शिवजी के हाथ से तोड़ी हुई कामदेव के धनुष की डोरी हो।
8.
For Private And Personal Use Only
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
255 १. मन्मथ :-[मन् + क्विप्, मथ् + अच् ष०त०] कामदेव, प्रेम का देवता।
नरपतिश्चकमे मृगयारतिं स मधुमन्मधुमन्मथ संनिभिः। 9/48 कामदेव के समान सुन्दर दशरथ जी ने भी सुन्दरियों के साथ वसंत ऋतु का आनंद लिया और उनके मन में आखेट करने की इच्छा होने लगी। रामममन्मथ शरेण ताडिता दुःसहेन हृदये निशाचरी। 11/20 मानो काम के बाण से घायल हुई कोई, अभिसारिका चंदन का लेप करने अपने
प्रिय के घर जा रही हो। 10. स्मर :-[स्मृ भावे अप्] कामदेव, प्रेम का देवता।
रतिस्मरौ नूनमिमावभूतां राज्ञां सहस्त्रेषु तथाहि बाला। 7/15 ये दोनों पिछले जन्म में रति और कामदेव ही रहे होंगे, इसलिए तो सहस्रों राजाओं के बीच में इन्दुमती ने उन्हें प्राप्त कर लिया। पतिषु निर्विविशुर्मधुमंगनाः स्मरसखं रसखंडनवर्जितम्। 9/36 कामदेव के साथी मद्य को स्त्रियों ने अपने पति के प्रेम में बिना बाधा दिए ही पी लिया। शैलसारमपि नातियत्नः पुष्पचापमिव पेशलं स्मरः। 11/45 उस पर्वत के समान भारी धनुष पर वैसी ही सरलता से डोरी चढ़ा दी, जैसे कामदेव अपने फूलों के धनुष पर डोरी चढ़ाता है।
मधु 1. आसव :-[आ + सु + अण्] अर्क, काढ़ा, मद्यनिष्कर्ष।
तासां मुखैरासवगंधगर्भाप्तान्तराः सान्द्र कुतूहलानाम्। 7/11 मदिरा की गंध से सुवासित मुखों वाली, झरोंखों में उत्सुकता के साथ झाँकती
हुई ऐसी जान पड़ती थीं। 2. मधु :-[मन्यत इति मधु, मन + उ नस्य धः] शहद, पुष्प रस, शराब।
यवनीमुखपद्यानां सेहे मधुमदं न सः। 4/61 वैसे ही रघु के अचानक आक्रमण से मदिरा से लाल गालों वाली यवनियों के मुख कमल मुरझा गए। महार्हसिंहासनसंस्थितोऽसौ सरलमयं मधुपर्कमिश्रम्। 7/18 वहाँ वे सुन्दर बहुमूल्य सिंहासन पर जाकर बैठ गए, भोज ने जो मधुपर्क भेंट किया।
For Private And Personal Use Only
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
256
कालिदास पर्याय कोश मदिराक्षि मदाननार्पितं मधु पीत्वा रसबत्कथं नु मे। 8/68 हे मदभरे नयनों वाली! तुमने मेरे मुँह से छूटे हुए स्वादिष्ट आसव को पिया है।
मनीषी
1. दोषज्ञ :-[दृष् + घञ् + ज्ञ] दोषों का ज्ञाता, विद्वान्।
अथ प्रदोषे दोषज्ञः संवेशाय विशांपतिम्। 1/93
रात हो चली थी, विद्वान वशिष्ठ ने राजा दिलीप को सोने की आज्ञा दी। 2. बुध :-[बुध् + क] बुद्धिमान, चतुर, विद्वान्।
दशपूर्वरथं यमाख्यया दशकण्ठारिगुरुं विदुर्बुधाः। 8/29 जिनका यश दसों दिशाओं में फैला था, जो उस राम के पिता थे, जिन्होंने दस
सिर वाले रावण को मारा था और जिन्हें पंडित लोग दशरथ कहते हैं। 3. मनीषी :-[मनीषा + इति] बुद्धिमान्, विद्वान्।
वैवस्वतो मनु म माननीयो मनीषिणाम्। 1/11 वैवस्वत मनु हुए जिनका आदर बड़े-बड़े विद्वान लोग भी किया करते हैं। अप्यर्थकामौ तस्यास्तां धर्म एव मनीषिणः। 1/25 वास्तव में अर्थशास्त्र और कामशास्त्र के विषय हैं, फिर भी विद्वान राजाओं के हाथों में पहुंचकर वे धर्म ही बन गए थे। मखांश भाजां प्रथमो मनीषिभिस्त्वमेव देवेन्द्र सदा निगद्यसे। 3/44 हे देवेन्द्र! विद्वानों का कहना है कि यज्ञ का भाग सबसे पहले आपको ही मिलता है। विद्वस :-[विद् + क्वसु] विद्वान। किं वस्तु विद्वन्गुरवे प्रदेयं त्वया कियद्वेति तमन्वयुक्तं। 5/18 रघु ने उन्हें रोका और पूछा :-"आप विद्वान गुरुजी को क्या और कितना देना चाहते हैं।"
मनोज्ञ 1. चारु :-[चरति चित्ते :-चर + उण] रुचिकर, सुत्कृत, प्रिय, रमणीय, सुन्दर,
कान्त। कुसुमसंभृतया नवमल्लिका स्मितरुचातरुचारुविलासिनी। 9/42
For Private And Personal Use Only
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
257
रघुवंश
वहाँ वृक्षों की सुन्दरी नायिका नवमल्लिका लता भी थी, जो फूलों की मुस्कान
लेकर देखने वालों को भी पागल बनाये डालती थी। 2. मनोज्ञ :-[मन्यतेऽनेन मन् करणे असुन् + ज्ञ] सुहावना, प्रिय, रुचिकर,
सुन्दर। पुराणपत्रापगमादनन्तरं लतेव संनद्ध मनोज्ञ पल्लवा। 3/7 जैसे वसंत ऋतु में लताएं पुराने पत्ते गिराकर नए कोमल पत्तों से लदकर सुंदर लगने लगती हैं। मनोजगन्धं सहकारभंगं पुराणशीधुं नवपाटलं च। 16/52 मनोहर गंध वाली आम की बौर, पुरानी मदिरा और नये पाटल के फूल लाकर। मनोज्ञ एव प्रमदामुखानम्भोविहार कुलितोऽपि वेषः। 16/67 इन स्त्रियों का वेश बेढंगा हो गया है, फिर भी देखो, ये कितनी मनोहर लग रही
3. मनोहर :-[मन्यतेऽनेन मन् करणे असुन् + हर] सुखद, आकर्षक, कमनीय,
प्रिय। रघुः क्रमाद्यौवन भिन्न शैशवः पुपोष गाम्भीर्य मनोहरं वपुः। 3/32 वैसे ही जब रघु ने भी बचपन बिताकर युवावस्था में पैर रखा तब उनका शरीर और भी खिल उठा। अलिभिरंजन बिन्दु मनोहरैः कुसुमपंक्ति निपातिभिरंकितः। 9/41 तिलक वृक्ष के फूलों पर मंडराते हुए काजल की बंदियों के समान सुन्दर भौरे
ऐसे जान पड़ते थे, मानो वनस्थलियों का मुख भी चीत दिया गया हो। 4. ललित :-[लल् + क्त] प्रिय, सुन्दर, मनोहर।
विधाय सृष्टिं ललितां विधातुर्जगाद भूयः सुदतीं सुनन्दा। 6/37 विधाता की सुन्दर रचना और सुन्दर दांतों वाली इन्दुमती को वहाँ से अनूप राजा के आगे ले जाकर सुनन्दा बोली। अथ तस्य विवाह कौतुकं ललितं बिभ्रत एव पार्थिवः। 8/1 अभी अज ने विवाह का सुन्दर मंगल-सूत्र उतारा भी नहीं था, कि रघु ने उनके हाथों में। कार्तिकीषु सवितानहर्म्य भाग्यामिनीषु ललितांगनासखः। 19/39 कार्तिक की रातों में वह राजभवन के ऊपर चंदोवा तनवा देता था और सुन्दरियों के साथ उस चाँदनी का आनंद लेता था।
For Private And Personal Use Only
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
258
कालिदास पर्याय कोश
मनोरथ 1. आशंसित :-[आ + शंस + इत] इच्छा, अभिलाषा, आशा।
याज्यमाशंसिताबन्ध्यप्रार्थनं पुनरब्रवीत्। 1/86 तब वे अपने यजमान उन राजा दिलीप से बोले, जो अपनी प्रार्थना सफल कराने
के लिए वहाँ आए हुए थे। 2. इष्ट :-[इष् + क्त] चाह, इच्छा ।
न हीष्टमस्य त्रिदिवेऽपि भूपतेरभूदनासाद्यमधिज्य धन्वनः। 3/6 क्योंकि धनुषधारी राजा दिलीप को स्वर्ग की भी वस्तुएँ मिल सकती थीं, फिर
इस लोक की वस्तुओं की तो बात ही क्या। 3. ईप्सित :-[आप् + सन् + क्त] इच्छित, अभिलषित, प्रिय।
न मे ह्रिया शंसति किंचिदीप्सितं स्पृहावती वस्तुषु केषु मागधी। 3/5 राजा दिलीप यह समझते थे कि सुदक्षिणा बड़ी सजीली है और अपनी इच्छा हमसे प्रकट नहीं करती है। अपीप्सितं क्षत्रकुलांगनानां न वीरसूशब्दम कामयेताम्। 14/4 उस समय वे रानियाँ अपने पुत्रों की चोटें देखकर इतनी व्याकुल हो गईं, कि उन्हें
वीर पुत्र की माँ कहलाना भी अच्छा नहीं लगा। 4. कांक्षित :-कामना करना, चाहना, लालायित होना।
सद्य एव सुकृतां हि पच्यते कल्पवृक्षफलधर्मि कांक्षितम्। 11/50 ठीक भी है, पुण्यवानों की अभिलाषा कल्पवृक्ष के समान तत्काल फल देने
वाली होती भी है। 5. मनोरथ :-[मन्यतेऽनेन मन करणे असुन्] कामना, चाह।
विलम्बितफलैः कालं स निनाय मनोरथैः। 1/33 दिन बीतते चले जा रहे थे और उनकी साध पूरी नहीं हो पा रही थी। ययावनुद्धातसुखेन मार्ग स्वेनेव पूर्णेन मनोरथेन। 2/72 इसलिए उस पर सुख से चढ़कर जाते हुए वे ऐसे लगते थे मानो वे अपने सफल मनोरथ पर बैठे हुए जा रहे हों, रथ पर नहीं। कपयश्चेरुरार्तस्य रामस्येव मनोरथाः। 12/59 जैसे विरही राम का मन सीताजी की खोज में इधर-उधर भटकता था, वैसे ही वानर भी इधर-उधर घूमकर सीताजी की खोज करने लगे।
For Private And Personal Use Only
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
259 6. स्पृह :-[स्पृह + अच् + टाप्] इच्छा, उत्सुकता, प्रबल कामना, लालसा।
द्वन्द्वानि दूरान्तरवर्तिना ते मया प्रिये सस्पृहमीक्षितानि। 13/31 तुमसे इतनी दूर होने के कारण उन्हें देख-देखकर मैं यही सोचा करता था, कि मुझे भी ये दिन कब देखने को मिलेंगे।
मन्यु 1. अमर्ष :-क्रोध , आवेश, कोप, क्रोधपूर्वक।
यैः सादिता लक्षितपूर्वकेतूं स्तानेव सामर्षतया निजघ्नुः। 7/44 तो वे अपने सारथियों को बहुत भला-बुरा कहने लगे और जिनकी मार से वे
घायल हुए थे, उन्हें रथ के झंडों से पहचान-पहचान कर मारने लगे। 2. कोप :-[कोप् + घञ्] क्रोध, गुस्सा, रोष।
क्षत्रकोपदहनार्चिषं ततः संदधे दृशमुदग्रतारकाम्। 11/69
परशुरामजी ने क्षत्रियों को जलाने वाली अपनी टेढ़ी चितवन से राम को देखा। 3. क्रोध :-[क्रुध् + घञ्] कोप, गुस्सा। निचखानाधिक क्रोधः शरं सव्येतरे भुजे। 12/90 रावण ने बड़ा क्रोध करके राम की उस दाहिनी भुजा में बाण मारा। प्रच्छदान्त गलिताश्रु बिन्दुभिः क्रोधभिन्नवलयैर्विवर्तनैः। 19/22 तब वे कामिनियाँ बिना बोले ही बिस्तर के कोने पर आँसू गिराती हुई, क्रोध से कंगन तोड़कर उनसे पीठ फेरकर सो जाती थीं। मत्सर :-[मद् + सरन्] ईर्ष्या, डह, विरोधिता, शत्रुता। स चापमुत्सृज्य विवृद्धमत्सरः प्रणाशनाय प्रबलस्थ विद्विषः। 3/60 धनुष की डोरी कट जाने से इन्द्र को बड़ा क्रोध हुआ, उन्होंने धनुष तो दूर फेंका
और अपने प्रबल शत्रु रघु को मारने के लिए। 5. मन्यु :-[मन् + युच्] क्रोध, रोष, कोप।
बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्ध मन्युरभ्यर्ण मागरकृतमस्पृशद्भिः। 2/32 इसी प्रकार हाथ बँध जाने से राजा दिलीप पास ही खड़े अपराधी पर प्रहार न कर सकने के कारण क्रोध से तमतमा उठे। शक्योऽस्य मन्युर्भवता विनेतुंगाः कोटिशः स्पर्शयता घटोनीः। 2/49 यदि अपने तेजस्वी गुरुजी से डरते हो तो उन्हें बड़े-बड़े थनों वाली करोड़ों गायें देकर तम उन्हें मना सकते हो।
For Private And Personal Use Only
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
260
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भार्गवाय दृढ़मन्यवे पुनः सत्त्रमुद्यतमिवन्यवेदयत् । 11 /46
मानो उसने महाक्रोधी परशुरामजी को सूचना दे दी हो, कि क्षत्रियों ने अब फिर सिर उठाना प्रारंभ कर दिया है।
कालिदास पर्याय कोश
तं पितुर्वध भवेन मन्युना राजवंश निधनाय दीक्षितम् । 11 / 57
जिन्होंने अपने पिता के मारे जाने पर क्रोध से क्षत्रियों का नाश करने की प्रतिज्ञा कर ली थी, उन्हें देखा ।
त्वां प्रत्यकस्मात्कलुष प्रवृत्तावस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे । 14/73
फिर भी तुम्हारे साथ जो उन्होंने यह भद्दा व्यवहार किया है, इसे देखकर मुझे उनपर बड़ा क्रोध आ रहा है।
6. रुष : - [ रुष् + क्विप्, रुष् + टाप्] क्रोध, रोष, गुस्सा ।
निर्बन्ध संजातरुषार्थ कार्य म चिन्तयित्वा गुरुणाहमुक्तः । 5/21
पर जब मैंने बार-बार दक्षिणा माँगने के लिए उनसे हठ किया तो वे बिगड़ खड़े हुए और मेरी दरिद्रता का विचार किए बिना ही बोल उठे।
गुस्सा ।
7. रोष : - [ रुष् + घञ् ] क्रोध, कोप,
स रोष दष्टाधिकलोहितोष्ठैर्व्यक्तोर्ध्वरेखा भ्रकुटीर्वहद्भिः 17/58
जिन राजाओं ने क्रोध से चबा-चबाकर ओंठों को लाल कर लिया था और जो भौंहें तान-तानकर हुँकार करते हुए आगे बढ़ रहे थे
8. संरम्भ :- [ सम् + रभ् + घञ्, मुम्] क्रोध, रोष, कोप ।
प्रणिपातप्रतीकारः संरम्भो हि महात्मनाम् । 4/64
महापुरुषों की कृपा प्राप्त करने का यही उपाय है, कि उनकी शरण में पहुँच जाया जाये ।
मयूर
1. कलापी / कलापिन : - [कलाप + इनि] मोर ।
संरम्भं मैथिली हासः क्षणसौम्यां निनाय ताम् । 12 / 36
सीताजी को हँसते हुए देखकर क्षण भर के लिए सुन्दर रूप धारण करने वाली शूर्पणखा भी एकदम बिगड़ खड़ी हुई ।
अन्योन्य जयसंरम्भो बवृधे वादिनोरिव । 12/92
उनका क्रोध उसी प्रकार बढ़ता जा रहा था, जैसे विजय के लिए शास्त्रार्थ करने वालों का क्रोध बढ़ता चलता है।
For Private And Personal Use Only
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
261
रघुवंश
पुरोपकंठोपवनाश्रयाणां कलापिनामुद्धतनृत्यहेतौ। 6/9 नगर के आसपास की अमराइयों में रहने वाले मोर उसे बादल का गरजना समझकर नाच उठते हैं। कलापिनां प्रावृषि पश्य नृत्यं कान्तासु गोवर्धन कंदरासु। 6/51
गोवर्धन पर्वत की सुहावनी गुफाओं में बैठकर मोरों का नाच देखना। 2. बी/बर्हिण :-[बर्ह + इनच्] मोर।
स पल्वलोत्तीर्ण वराह यूथान्यावास वृक्षोन्मुखबर्हिणानि। 2/17 राजा दिलीप देखते हुए चले जा रहे थे, कि कहीं तो छोटे-छोटे तालों में से सुअरों के झुंड निकल-निकल कर चले जा रहे हैं, कहीं मोर अपने बसेरों (वृक्षों) की ओर उड़े जा रहे हैं। प्राप्ता दवोल्काहतशेषबहः क्रीडा मयूरा वनवर्हिणत्वम्। 16/14 अब वे उन जंगली मोरों के समान लगते हैं, जिनकी पूछे वन की आग से जल गई हैं। तीरस्थलीबर्हि भिरुत्कलापैः प्रस्निग्धके कैरभिनन्द्यमानम्। 16/64 तट पर बैठे हुए मोर अपनी पूंछ उठाकर और बोलकर उनका अभिनन्दन कर रहे
3. मयूर :-[मी + ऊरन्] मोर।
जहार चान्येन मयूरपत्रिणा शरेण शक्रस्य महाशनिध्वजम्। 3/56 फिर रघु ने मोर के पंख वाले दूसरे बाण से इन्द्र की वज्र जैसी ध्वजा को काट डाला। भूयिष्ठमासीदुपमेय कान्तिर्मयूर पृष्ठाश्रयिणा गुहेन । 6/4 उस पर बैठे हुए वे ऐसे सुन्दर लग रहे थे मानो कार्तिकेय अपने मोर पर चढ़े बैठे
हों।
स्थली नवाम्भः पृषता भिवृष्टा मयूरकेकाभिरिवाभ्रवृन्दम्। 7/69 पर जैसे नये बादलों की बूंदों से भीगी हुई पृथ्वी मोर के शब्दों से मेघों का स्वागत करती है। अपि तुरगसमीपादुत्पतन्तं मयूरं न स रुचिर कलापं बाणलक्ष्मीचकार।
9/67
For Private And Personal Use Only
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
262
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
कभी-कभी उनके पास से सुन्दर चमकीली पँछों वाले मोर भी उड़ जाते थे, पर ये उन पर बाण नहीं चलाते थे ।
नृत्यं मयूराः कुसुमानि वृक्षा दर्भानुपात्तान्विजहुर्हरिण्यः । 14/69 उनका रोना सुनकर मोरों ने नाचना बंद कर दिया, वृक्ष फूल के आँसू गिराने लगे और हरिणियों ने मुँह में भरी हुई घास का कौर गिरा दिया।
4. शिखंडी :- [ शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि] मोर ।
षड्ज संवादिनी: केका द्विधा भिन्नाः शिखंडिभिः । 1/39
बहुत से मोर इस भ्रम से अपना मुँह इसलिए ऊपर उठाकर, दुहरे मनोहर षड्ज शब्द से कूक रहे हैं।
महिषी
1. महिषी : - [ महिष् + ङीष् ] पटरानी, रानी ।
सायं संयमिनस्तस्य महर्षेर्महिषीसखः । 1/48
सांझ होते-होते यशस्वी राजा दिलीप अपनी पत्नी के साथ संयमी महर्षि वशिष्ठ जी के आश्रम तक पहुँच गए।
इत्थं व्रतं धारयतः प्रजार्थं समं महिष्या महनीय कीर्ते: 12/25
इस प्रकार अपनी रानी के साथ संतान प्राप्ति के लिए यह कठोर व्रत करते हुए। नदीमिवान्तः सलिलां सरस्वतीं नृपः ससत्वां महिषीम मन्यत । 3 / 9 राजा दिलीप अपनी गर्भिणी रानी को वैसी ही महत्त्वशाली समझते थे, जैसे भीतर ही भीतर जल बहाने वाली सरस्वती नदी ।
क्रथकैशिक वंशसंभवा तव भूत्वा महिषी चिराय सा । 8/82
वही अप्सरा क्रथकैशिक (विदर्भ) वंश में जन्म लेकर तुम्हारी रानी हुई।
2. राज्ञी : - [ राजन् + ङीप्, अकार लोपः ] रानी ।
तयोर्ष गृहतुः पादान्राजा राज्ञी च मागधी । 1/57
राजा दिलीप और मगध की राजकुमारी रानी सुदक्षिणा ने चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया।
धर्म लोप भयाद्राज्ञीमृतुस्नाता मिमां स्मरन् । 1/76
उस समय तुम्हारी रानी ने रजस्वला होने पर स्नान किया था और तुम सोचते जा रहे थे कि यदि इस समय उसके साथ संभोग नहीं करूंगा, तो गृहस्थ का धर्म बिगड़ जाएगा ।
For Private And Personal Use Only
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
263
रघुवंश नरपति कुलभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी गुरुभिरभिनिविष्टं लोकपालानुभावैः।
2/75 वैसे ही रानी सुदक्षिणा ने राजा दिलीप का वंश चलाने के लिए लोकपालों के समान तेजस्वी पुरुषों के तेज से भरा हुआ गर्भ धारण किया।
महोक्ष 1. ककुद्मत् :-[ककुद् + मत्] कूबड़ वाला बैल।
मदोदग्राः ककुद्यन्तः सरितां कूलमुदुजाः। 4/22 कहीं ऊंचे-ऊँचे कंधों वाले मतवाले साँड़ नदियों के कगार ढाते हुए ऐसे लग रहे
थे।
बध्नाति मे बन्धुरगात्रि चक्षुर्दृप्तः ककुद्यानिव चित्रकूटः। 13/47 हे सुन्दरी! मस्त साँड के समान यह चित्रकूट पर्वत मुझे बड़ा सुहावना लग रहा
2. महोक्ष :-[मह + घ + टाप् + उक्षः] बैल, महाकाय बैल।
महोक्षतां वत्सतरः स्पृशनिव द्विपेन्द्र भावं कलभः श्रयन्निव। 3/32 जैसे गाय का बछड़ा बड़ा होकर साँड हो जाता है और हाथी का बच्चा बड़ा होकर गजराज हो जाता है। लीलाखेलमनप्रापुर्महोक्षास्तस्य विक्रमम्। 4/22 मानो ये साँड रघु के लड़कपन के खेलवाड़ों का अनुकरण कर रहे हों। महेन्द्र मास्थाय महोक्षरूपं यः संयति प्राप्तपिनाकिलीलः। 6/72 उन ककुत्स्थ राजा ने जब युद्ध में असुर को मारा था, तब बैल पर चढ़े हुए वे
शिवजी के समान लगते थे, स्वयं इन्द्र भगवान् उनके लिए बैल बने हुए थे। 3. वृष :-[वृष् + क] साँड।
व्यूढोरस्को वृषस्कंधः शाल प्रांशुर्महाभुजः। 1/13 उनकी चौड़ी छाती, साँड के से ऊँचे और भरी कंधे, शाल के वृक्ष जैसी लंबी भुजाएँ और अपार तेज देखकर ऐसा लगता था। कैलासगौरं वृषमारु रुक्षोः पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम्। 2/35 जब शंकरजी कैलास पर्वत के समान उजले नंदी बैल पर चढ़ते हैं, तब उसके पहले अपने चरणों से मेरी पीठ पवित्र करते हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
264
कालिदास पर्याय कोश
महोरग 1. महोरग :-[मह + घ + टाप् + उरगः] बड़ा साँप, शेषनाग।
वपुर्महोरगस्येव कराल फण मंडलम्। 12/98
मानो फणों का चमकीला मंडल लिए हुए शेषनाग ही हों। 2. साधिराज :-[सृप् + घञ् + अधिराजः] शेषनाग, वासुकि।
साधिराजोरुभोऽपसर्प पप्रच्छ भद्रं विजितारि भद्रः। 14/31 सदाचारी और शेषनाग के समान बड़ी-बड़ी बाँहों और जांघों वाले शत्रुविजयी राम ने अपने भद्र नाम के दूत से पूछा।
मातलि 1. देवसूत :-[दिव् + अच् + सूतः] देवताओं का सारथि मातलि।
देवसूत भुजालंबी जैत्रमध्यास्त राघवः। 12/85
इन्द्र के सारथी मातलि का हाथ थामकर रामचंद्र जी उस पर चढ़ गए। 2. मातलि :-[मतलस्यापत्यं पुमान् :-मतल + इञ्] इन्द्र के सारथि का नाम।
तथेति कामं प्रतिशुश्रुवानघोर्य थागतं मातलि सारथिर्ययौ। 3/67 इन्द्र ने कहा, ऐसा ही होगा। यह कहकर जिस मार्ग से वे आए थे, उसी मार्ग से अपने सारथी मातलि के साथ चले गए। मातलिस्तस्य माहेन्द्र मामुमोच तनुच्छदम्। 12/86
मातलि ने उन्हें इन्द्र का वह कवच भी पहना दिया। 3. हरियन्ता :-[ह + इन् + यन्ता] देवताओं का सारथि मातलि। यन्ताः हरेः सपदि संहृत कार्मुकज्यमापृच्छ्य राघव मनुष्ठित देव कार्यम्।
12/103 राम ने धनुष की डोरी उतार दी, क्योंकि उन्होंने देवताओं का काम पूरा कर दिया था, इन्द्र के सारथी मातलि उनसे आज्ञा लेकर।
माता
1. अम्ब :-[अम्ब् + घञ् + टाप्] माता।
कृताञ्जलि स्तत्र यदम्ब सत्यनाभ्रश्यत स्वर्गफलाद् गुरुर्नः। 14/16
For Private And Personal Use Only
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
265
राम ने हाथ जोड़कर कैकेयी से कहा :-माँ! तुम्हारे ही पुण्य के प्रताप से हमारे पिताजी अपने उस सत्य से नहीं डिगे, जिससे स्वर्ग मिलता है। जननी :-[जन् + णिच् + अनि + ङीप्] माता। ददर्श राजा जननीमिव स्वां गामग्रतः प्रस्त्रविणीं न सिंहम्। 2/61 राजा दिलीप देखते क्या हैं कि आगे स्तनों से दूध टपकाती हुई माता के समान नंदिनी खड़ी है और सिंह का कहीं नाम भी नहीं है। वेषमानजननी शिरश्छिदा प्रागजीयत घृणा ततो मही। 11/65 अपनी काँपती हुई माता का सिर काट लिया था, उस समय उन्होंने पहले तो घृणा को जीत लिया और फिर पृथ्वी को जीत लिया था। अपश्यतां दाशरथी जनन्यौ छेदादिवोपन तरोतत्यौ। 14/1 राम अपनी माताओं से मिले, जो वृक्ष के कट जाने पर मुरझाई हुई लताओं के समान उदास दिख रही थीं। अथाभिषेकं रघुवंशकेतोः प्रारब्धमानन्द जलैनन्योः। 14/7 जिस राज्याभिषेक का आरम्भ माताओं के हर्ष भरे आँसुओं से हुआ था। इति क्षितिः संशयितेव तस्यै ददौ प्रवेशं जननी न तावत्। 14/55 उस समय पृथ्वी ने माता सीताजी को मानो दुविधा के कारण अपनी गोद में नहीं समा लिया। इत्यारोपितपुत्रास्ते जननीनां जनेश्वराः। 15/91
इस प्रकार पुत्रों को राज्य देकर अपनी स्वर्गीय माताओं के श्राद्ध आदि किए। 3. जनयित्री :-[जनयित् + ङीप्] माता
जनयित्री मलं चक्रे यः प्रश्रय इव श्रियम्। 10/70 उन्हें पाकर माता ऐसी शोभा दे रही थीं, जैसे लक्ष्मी के साथ विनय शोभा देता
4. माता :-[मान् पूजायां तृच् न लोपः] माता, माँ ।
वत्सस्य होमार्थ विधेश्च शेषमृघेरनुज्ञामधिगम्य मातः। 2/66 राजा ने कहा :-हे माँ! मैं चाहता हूँ, कि बछड़े के पी चुकने पर हवन क्रिया से बचने पर ऋषि की आज्ञा ले कर। शय्यागतेन रामेण माता शातोदरी बभौ। 10/69
For Private And Personal Use Only
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
266
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
गर्भ से दुबली माता कौशल्या, नन्हें से राम को लिए पलंग पर लेटी हुई ऐसी सुन्दर जान पड़ती थीं ।
मातृवर्ग चरणस्पृशौ मुनेस्तौ प्रपद्य पदवीं महौजसः । 11/7
माताओं के चरण छूकर, दोनों राजकुमार उन तेजस्वी मुनि के पीछे चलते हुए ऐसे शोभित होते थे ।
मम्लतुर्न मणि कुट्टिमोचितौ मातृ पार्श्व परिवर्तिनाविव । 11/9
जैसे मणियों से जड़े हुए अपने भवनों में अपनी माता के आसपास घूम रहे हों। मातुर्न केवलं स्वस्याश्रियोऽप्यासीत्परांगमुखः । 12/13
तब वे केवल अपनी माँ से ही नहीं वरन् अयोध्या की राज - लक्ष्मी से भी बड़े चिढ़ गए।
मातुः पापस्य भरतः प्रायश्चित्तमिवाकरोत्। 12/19
मानो भरत जी ने अपनी माता के पाप का प्रायश्चित कर डाला हो ।
तच्चित्यमानं सुकृतं तवेति जहार लज्जां भरतस्य मातुः । 14/16 यह सुनकर भरत की माता के मन में जो आत्मग्लानि भरी हुई थी, वह सब जाती रही ।
सर्वासु मातृष्वपि वत्सलत्वात्स निर्विशेष प्रति पत्तिरासीत् । 14/22 वैसे ही रामचंद्र जी भी सभी माताओं को बराबर प्यार करते थे ।
शुश्रुवान्मातरि भार्गवेण पितुर्नियोगात्प्रहृतं द्विषद्वत् । 14 / 46
लक्ष्मण ने सुन ही रखा था कि पिता की आज्ञा पाकर परशुराम जी ने अपनी माता को वैसे ही निर्दयता से मार डाला था, जैसे कोई अपने शत्रु को मारे । रामस्य मधुरं वृत्तं गायन्तो मातुरग्रतः । 15/34
उन दोनों बालकों ने अपनी माता के आगे राम का यश गा-गाकर ।
स पितुः पितृमान्वंशं मातुश्चानुपमद्युतिः । 17/2
वैसे ही सुशिक्षित अतिथि ने माता और पिता के दोनों कुलों को पवित्र कर
दिया ।
मारुति
1. पवन तनय :- [ पू+ ल्युट् + त्नयः] हनुमान का विशेषण, भीम का विशेषण । लंकानाथं पवनतनयं चोभयं स्थापयित्वा । 15 / 103
For Private And Personal Use Only
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
267 उत्तर गिरि पर हनुमानजी को तथा दक्षिण गिरि पर विभीषण जी को स्थापित
किया। 2. मारुति :-[मरुतोऽपत्यम्-इञ्] हनुमान का विशेषण, भीम का विशेषण।
मारुति सागरं तीर्णः संसारमिव निर्ममः। 12/60 हनुमानजी उसी प्रकार समुद्र को लाँघ गए, जैसे निर्मोही पुरुष संसार-सागर को पार कर जाता है। स मारुति समानीतमहौषधिहत व्यथः। 12/78 हनुमानजी तत्काल संजीवनी बूटी ले आए, जिसके पिलाते ही लक्ष्मण की सारी
पीड़ा जाती रही। 3. हनुमत :-[हनु (नू) + मतुप्] हनुमान।
शंके हनूमत्कथित प्रवृत्तिः प्रत्युद्गतो मां भरतः ससैन्यः। 13/64 हनुमानजी से मेरे आने का समाचार पाकर भरत सेना लेकर मेरा स्वागत करने आ रहे हैं।
मार्ग
1. अध्वन् :-[अद् + क्वनिप् दकारस्य धकारः] रास्ता, सड़क, मार्ग।
अपि लंधितमध्वानं बुबुधे न बुधोपमः। 1/47 पंडितों के समान बुद्धिमान तथा लुभावने दिखाई देने वाले राजा दिलीप इतने रम गए थे, कि यह भी न भान हो सका कि मार्ग कब निकल गया। बलैरध्युषितास्तस्य विजिगीषोर्गताध्वनः।। 4/46 वहाँ से चलते-चलते वे बहुत दूर निकल गए और विजय चाहने वाले रघु के सैनिक मार्ग में। निवेशयामास विलंधिताध्वा क्लान्तं रजोधूसर केतु सैन्यम्। 5/42 अपनी उस थकी हुई सेना का पड़ाव डाला, जिसकी पताकाएँ मार्ग की धूल लगने से मटमैली हो गई थीं। एवं तयोरध्वनि दैवयोगादासेदुषो सख्यम चिन्त्य हेतु। 5/60 इस प्रकार दैवयोग से अज और प्रियंवद की मार्ग में ही मित्रता हो गई। तैः शिवेषु वसतिर्गताध्वभिः सायमाश्रमतरुष्वगृह्यत। 11/33 वे मार्ग में कुछ दूर चले तो सांझ हो गई और वे उस आश्रम के सुन्दर वृक्ष तले टिक गए।
For Private And Personal Use Only
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
268
कालिदास पर्याय कोश इत्यध्वन: कैश्चिदहोभिरन्ते कूलं समासाद्य कुशः सरय्वाः। 16/35
इस प्रकार मार्ग में कुछ दिन बिताकर कुश, सरयू के किनारे पहुंचे। 2. पंथ :-[पथ + क + घञ्] रास्ता, सड़क, पथ, मार्ग।
आदास्यमानः प्रमदामिषं तदावृत्य पंथानमजस्य तस्थौ। 7/31 उनसे सुन्दरी इन्दुमती को छीन लिया जाये इसलिए वे सब मिलकर आगे अज का मार्ग रोक कर बीच में ठहर गए। बहुधाप्यागमैर्भिन्नाः पन्थानः सिद्ध हेतवः। 10/26 उसी प्रकार परमानन्द पाने के जितने मार्ग बताए गए हैं सब आप में ही पहुँचते
3. पथ :-[पथ् + क (घबर्थे)] रास्ता, मार्ग।
आसीत्कलप्तरुच्छायामाश्रिता सुरभिः पथि। 1/75 तब मार्ग में कल्पवृक्ष की छाया में कामधेनु बैठी हुई थी। उभावलं चक्रतुरंचिताभ्यां तपोवनावृत्ति पथं गताभ्याम्। 2/18 उन दोनों को धीरे-धीरे चलते देखकर तपोवन का मार्ग बस देखते ही बनता था। न केवलं सद्मनि मागधीपतेः पथि व्यजृम्भन्त दिवौकसामपि। 3/19 केवल सुदक्षिणा के पति दिलीप के ही राजमंदिर में ही नहीं, वरन् आकाश में देवताओं के यहाँ भी नाच गान हो रहा था। सरितः कुर्वती गाथाः पथश्चाश्यानकर्दमान्। 4/24 शरद् के आते ही नदियों का पानी उतर गया और मार्ग का कीचड़ सूख गया। वैदर्भनिर्दिष्टमसौ कुमारः क्लुप्तेन सोपानपथेन मंचम्। 6/3 वैसे ही राजकुमार अज भी सुन्दर सीढ़ी पर चढ़कर भोज के बताए हुए मंच पर बैठ गए। उपवीणयितुं ययौ खेरुदयावृत्ति पथेन नारदः। 8/33 वीणा के साथ गाना सुनाने के लिए नारदजी आकाश मार्ग से चले जा रहे थे। वैमानिकाः पुण्यकृतरत्यजन्तु मरुतां पथि। 10/46 अब आप लोग निडर होकर अपने-अपने विमानो पर चढ़कर आकाश मार्ग में घूमिए। तौ बलातिबलयोः प्रभावतो विद्ययोः पथि मुनि प्रदिष्टयोः। 11/9
For Private And Personal Use Only
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
269
मार्ग में ही विश्वामित्र ने उन्हें बला और अतिबला नाम की दोनों विद्याएँ सिखा
दी।
तौ सुकेतुसुतया खिलीकृते कौशिका द्विदित शापया पथि। 11/14 वहीं मार्ग में उन्हें वह सुकेतु की कन्या ताड़का मिली, जिसने सारे मार्ग को उजाड़ बना दिया था और जिसके शाप की कथा विश्वामित्र ने पहले ही सुना दी
थी।
अथ पथि गमयित्वा क्लृप्तरम्योपकार्ये कतिचिदवनिपालः शर्वरी शर्वकल्पः । 11/93 तब शिव के समान राजा दशरथ ने कुछ रातें तो उस मार्ग में बिताईं, जहाँ उनके लिए सुन्दर डेरे तने हुए थे। क्वचित्पथा संचरते सुराणां क्वचिद्धनानां पततां क्वचिच्च। 13/19 कभी तो देवताओं के मार्ग में उडता चलता है, कभी बादलों के मार्ग में पहुँच जाता है और कभी पक्षियों के मार्ग में उड़ने लगता है। तथेति तस्याः प्रतिगृह्य वाचं रामानुजे दृष्टिपथं व्यतीते। 14/68 यह सुनकर लक्ष्मण बोले :-मैं सब कह दूँगा, यह कहकर ज्यों ही वे वहाँ से चलकर मार्ग से ओझल हुए कि। उद्यच्छमाना गमनाय पश्चात्पुरो निवेशे पथि च व्रजन्ती। 16/29 कुशावती से चलती हुई या आगे के पड़ाव में पहुँची हुई या मार्ग में चलने वाली। रेणुः प्रपेदे पथि पंकभावं पंकोऽपि रेणुत्वमियाय नेतुः। 16/30
मार्ग की धूल कीचड़ बन गई और कीचड़ भी धूल बन गयी। 4. मार्ग :-[मार्ग + घञ्] रास्ता, सड़क, पथ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम्। 1/45 उनसे मार्ग के वनों और वृक्षों का नाम पूछते चलते थे। मार्ग मनुष्येश्वर धर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्व गच्छत्। 2/2 उसी मार्ग में नंदिनी के पीछे-पीछे चलती हुई रानी सुदक्षिणा ठीक वैसी ही लग रही थीं, जैसे श्रुति के पीछे-पीछे स्मृति चली जा रही हो। तस्यासीदुल्वणो मार्गः पादपैरिव दन्तिनः। 4/33 जैसे जंगली हाथी वृक्षों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार शत्रुओं को नाश करके उन्होंने अपने मार्ग के सब रोड़े दूर कर डाले।
For Private And Personal Use Only
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
270
कालिदास पर्याय कोश
भोगि वेष्टन मार्गेषु चन्दनानां समर्पितम्। 4/48 साँपों के सदा लिपटे रहने से मार्ग के चंदन के पेड़ के चारों ओर गहरी रेखाएँ बन गई थीं। गंगाशीकरिणो मार्गे मरुतस्तं सिषेविरे। 4/73 गंगाजी की फुहारों से ठंडा हुआ वायु मार्ग में रघु की सेवा करता जा रहा था। विवेश मंचान्तरराजमार्ग पतिं वरा क्लृप्त विवाहवेषा। 6/10 वर चुनने के लिए विवाह के समय का वेश धारण किए हुए इन्दुमती मंचों के बीच वाले राजमार्ग से आई। महीधरं मार्ग वशादुपेतं स्रोतोवहा सागरगामिनीव। 6/52 नरेन्द्र मार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्ण भावं स स भूमिपालः। 6/67 जैसे समुद्र की ओर बढ़ती हुई नदी मार्ग में पड़ने वाले पहाड़ को छोड़ जाती है वैसे ही मार्ग में जिन-जिन राजाओं को छोड़कर इन्दुमती आगे बढ़ गई, उनका मुँह उदास पड़ गया। तिस्त्रस्त्रिलोक प्रथितेन सार्धमजेन मार्गे वसतीरुषित्वा। 7/33 तीन लोकों में विख्यात अज के साथ मार्ग में तीन रातें बिताईं। आवृण्वतो लोचनमार्गमाजौ रजोऽन्धकारस्य विजृम्भितस्य। 7/42 आँखों के आगे अंधेरा छा देने वाली और युद्ध भूमि में फैली हुई धूल के अंधियारे में। अप्यर्धमार्गे परबाणलूना धनुर्भृतां हस्तवतां पृशत्काः। 7/45 जिन धनुषधारियों के हाथ बाण चलाने में सधे हुए थे, उनके बाण यद्यपि शत्रुओं के बाणों से बीच में ही टूट जाते थे। तदुपहित कुटुम्बः शान्ति मार्गोत्सुकोऽभून्न। 7/71 फिर उन्हें कुटुम्ब का भार सौंपकर मोक्ष मार्ग की साधना में लग गए। जग्राह स दुतवराह कुलस्य मार्ग सुव्यक्त मार्द्रपदपंक्तिभिरायताभिः। 9/59 मार्ग में पैर की गीली छापों की पाँत को देखकर जान पड़ता था कि तालों के कीचड़ से निकल-निकल पर सुअरों का झुण्ड उधर को भागा है। यावदादिशति पार्थिव स्तयोर्निर्गमाय पुरमार्ग संस्क्रियाम्। 11/3 अभी राजा दशरथ उनकी विदाई के लिए सड़क सजाने की आज्ञा अपने सेवकों को दे ही रहे थे।
For Private And Personal Use Only
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
271
धन्विनौ तमृषिमन्व गच्छतां पौरदृष्टिकृतं मार्ग तोरणौ। 11/5 जब धनुष लेकर दोनों राजकुमार विश्वामित्र जी के पीछे चले जा रहे थे, उस समय उन्हें देखते हुए पुरवासियों की आँखें ऐसी दीखती थीं, मानो मार्ग में नेत्रों की वंदनवारें बाँध दी गई हों। तीव्रवेगधुतमार्ग वृक्षया प्रेतचीरवसा स्वनोग्रया। 11/16 बड़े वेग से मार्ग के वृक्षों को ढाती हुई प्रेतों के वस्त्र पहने हुई और भयंकर गरजने वाली। भार्गवस्य सुकृतोऽपि सोऽभवत्स्वर्ग मार्गपरिघो दुरत्ययः। 11/88 यद्यपि परशुरामजी ने बहुत पुण्य किए थे, किंतु वह बाण सदा के लिए उनका स्वर्ग का मार्ग रोककर खड़ा हो गया। अतिष्ठन्मार्गमावृत्य रामस्येन्दोरिव ग्रहः। 12/28 जैसे चंद्रमा का मार्ग राहु रोक लेता है, वैसे ही वह राम का मार्ग रोककर खड़ा हो गया। त्वं रक्षसा भीरु यतोऽपनीता तं मार्गमेताः कृपया लता मे। 13/24 हे भीरु! रावण तुम्हें जिस मार्ग से ले गया था, उस मार्ग की लताएँ मुझे कृपा करके तुम्हारे जाने का मार्ग बताना चाहती थीं। त्रेताग्नि धूमाग्रम निन्द्य कीर्तेस्तस्येदमाक्रान्त विमानमार्गम्। 13/37 तीन अग्नियों से हवन सामग्री की गंध से मिला हुआ, वह धुआँ विमान मार्ग तक उठा चला आ रहा है। यानादवातरददूरमहीतलेन मार्गेण भंगि रचित स्फटिकेन रामः। 13/69 स्फटिक मणियों से जड़ी हुई सीढ़ी से रामचन्द्र जी विमान से उतरे। ते पुत्रयोर्नैऋतशस्त्रमार्गाना निवांगे सदयं स्पृशन्त्यौ। 14/4 पुत्रों के शरीर के जिन अंगों पर राक्षसों के शस्त्रों के घाव बने थे, वहाँ वे दोनों माताएँ इस प्रकार सहलाने लगी, मानो घाव अभी हरे ही हों। तस्य मार्ग वशादेका बभूव वसतिर्यतः। 15/11 मार्ग में जाते हुए उन्होंने पहली रात। तपसा दुश्चरेणापि न स्वमार्ग विलंधिना। 15/53 अपने उस कठोर तप से कभी न पाता, जो वह अपने वर्ण धर्म का उल्लंघन करके चाह रहा था।
For Private And Personal Use Only
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
272
कालिदास पर्याय कोश
सोपान मार्गेषु च येषु रामा निक्षप्तवत्यश्चरणान्सरागान्। 16/15
पहले जिन सीढ़ियों पर सुन्दरियाँ अपने महावर लगे लाल पैर रखती चलती थीं। 5. वर्त्म :-[वृत् + मनिन्] रास्ता, सड़क, पथ, मार्ग।
आसमुद्रक्षितीशानामानाकरथ वर्त्मनाम्। 1/5 जिनका राज्य समुद्र के ओर-छोर तक फैला था, जिनके रथ पृथ्वी से सीधे स्वर्ग तक जाया-आया करते थे। परस्पराक्षिसादृश्यमदूरोज्झितवर्त्मसु। 2/40 हरिणों के जोड़े मार्ग से कुछ हटकर रथ की ओर एकटक देख रहे हैं। पुरस्कृता वर्मनि पार्थिवेन प्रत्युद्गता पार्थिव धर्म पल्या। 2/20 आश्रम के मार्ग में गौ के पीछे राजा दिलीप थे और अगवानी के लिए रानी सुदक्षिणा खड़ी थीं। पारसी कांस्ततो जेतुं प्रतस्थे स्थलवर्त्मना। 4/60 रघु ने भी पारसी राजाओं को जीतने के लिए स्थल-मार्ग पकड़ा। रथवर्त्म रजोऽप्यस्य कुत एव पताकिनीम्। 4/82 जब वह रथ मार्ग में उठती हुई धूल से ही घबरा गया, तो फिर सेना से वह लड़ता ही क्या। अथ जातु रुरोर्गृहीत वा विपिने पार्श्वचेरेलक्ष्यमाणः। 9/72 एक दिन जंगल में रुरु मृग का पीछा करते हुए, वे अपने साथियों से दूर भटक गए। तस्य जातु मरुतः प्रतीपगा वर्त्मसु ध्वजतरुप्रमथिनः। 11/58 एक दिन मार्ग में सेना के ध्वजरूपी वृक्षों को झकझोरने वाले वायु ने सारी सेना को व्याकुल कर दिया। एवमुद्यन्प्रभावेण शास्त्रनिर्दिष्ट वर्त्मना। 17/77 इस प्रकार शास्त्रनिर्दिष्ट मार्ग में चलने से उनका प्रभाव बढ़ गया।
For Private And Personal Use Only
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
273
मित्र
1. मित्र :-दोस्त, साथी, सहचर।
अवेहि मां किंकरमष्टमूर्तेः कुम्भोदरं नाम निकुम्भ मित्रम्। 2/35 मैं शंकरजी का कृपापात्र और सेवक कुम्भोदर नाम का गण हूँ और शिवाजी के गण निकुम्भ का मित्र हूँ। तेन मध्यभराक्तीनि मित्राणि स्थापितान्यतः। 17/58
उन्होंने ऐसे लोगों को मित्र बनाया जो न नीच ही थे, न धनी ही थे। 2. सखि :-(पुं०) [सह समानं ख्यायते ख्या + ङिन् नि०] मित्र, साथी, सहचर।
संमोहनं नाम सखे ममास्त्र प्रयोग संहारविभक्त मंत्रम्। 5/57 देखिए ! मेरे मेरे पास यह सम्मोहन नाम का गंधर्वास्त्र है, जिसके चलाने और रोकने के अलग-अलग मंत्र हैं। पूर्ववृत्त कथितैः पुराविदः सानुजः पितृसखस्य राघवः। 11/10 उनके पिता के मित्र विश्वामित्रजी उन्हें मार्ग में पुरानी कथाएँ सुनाते चले जा रहे
थे। 3. सुहृद :-[सु + डु + हृदः] मित्र ।
स हि निदेशमलंघयताम भूत्सुहृदयो हृदयः प्रतिगर्जताम्। 9/9 जो उनका कहा मान लेते थे, उन्हें दया करके छोड़ देते थे पर जो ऐंठकर उनसे टक्कर लेने आगे आते थे, उन्हें मिटाकर ही छोड़ते थे। रघुपतिरपि जातवेदो विशुद्धां प्रगृह्य प्रियां प्रियसुहृदि विभीषणे संगम्य्य श्रियं वैरिणः। 12/104 राम ने रावण की राज्यश्री विभीषण को सौंप दी और फिर सीताजी को अग्नि में शुद्ध करके अयोध्या की और लौटे।
मिथिला
1. मिथिला :- नगर का नाम, मिथिला।
तं न्यमंत्रयत संभृतक्रतु मैथिलः स मिथिलां व्रजन्वशी। 11/32 उन्हीं दिनों राजा जनक ने जनकपुरी में धनुष यज्ञ ठान रखा था, उसमें उन्होंने मुनियों को भी निमंत्रण दिया था।
For Private And Personal Use Only
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
274
कालिदास पर्याय कोश आससाद मिथिलां स वेष्टयन्पीडितो पवनपादपां बलैः। 11/52 वे इस ठाठ-बाट से मिथला पहुँचे, मानो उसे घेरते हुए आए हों। बाहर मिथिला
के उपवन को तो उनकी सेना ने रौंद ही डाला। 2. विदेह नगरी :-मिथिला।
तौ विदेहनगरी निवासिनां गां गताविव दिवः पुनर्वसू। 11/36 वे दोनों राजकुमार जनकपुर के निवासियों को ऐसे सुन्दर लग रहे थे, मानो दो पुनर्वसु नक्षत्र ही पृथ्वी पर उतर आए हों।
मीन
1. मत्स्य :-[मद् + स्यन्] मछली।
मत्स्यध्वजा वायुवशाद्विदीर्णैमुखैः प्रवृद्धध्वजिनीरजांसि। 7/40 वायु के कारण सेना की मछली के आकार वाली झंडियों के मुँह खुल गए थे,
उनमें जब धूल घुस रही थी, तब वे ऐसी जान पड़ती थीं। 2. मीन :-मछली।
क्षणमात्रमृषिस्तथौ सुप्तमीन इव हृदः। 1/73 वशिष्ठ जी क्षण मात्र के लिए उस ताल के समान स्थिर और निश्चल हो गए, जिसकी सब मछलियाँ सो गई हों। परिप्लवाः स्रोतसि निम्नगायाः शैवाल लोलां श्छलयन्ति मीनात्। 16/61 इनको देखकर मछलियों को सेवार का भ्रम हो रहा है और वे इन पर मुँह मारने को झपट रही हैं।
मुख
1. आनन :-[आ + अन् + ल्युट्] मुँह, चेहरा ।
सारसैः कल निर्हादैः क्वचिदुन्न मिताननौ। 1/41 कभी जब वे मुंह उठाकर ऊपर देखते, तो आकाश में उड़ते हुए और मीठे बोलने वाले बगुले भी उन्हें दिखाई पड़ जाते। तदाननं मृत्सुरभि क्षितीश्वरो रहस्युपाघ्राय न तृप्तिमाययौ। 3/3 वैसे ही मिट्टी खाने से रानी का जो मुँह सोंधा हो गया था, उसे एकांत में बार-बार सूंघकर भी राजा दिलीप अघाते नहीं थे। निवातपद्मस्तिमितेन चक्षुषा नृपस्य कान्तं पिवत: सुताननम्। 3/17
For Private And Personal Use Only
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
275
जैसे वायु के रूक जाने पर कमल निश्चल हो जाता है, वैसे ही वे एकटक होकर अपने पुत्र का मुँह देखने लगे। लक्ष्मीविनोदयति येन दिगन्तलम्बी सोऽपि त्वदानन रुचिं विजहाति चन्द्रः।
5/67 तुम्हारी सौंदर्य-लक्ष्मी ने जब यह देखा कि तुम निद्रारूपी दूसरी स्त्री के वश में हो, तब वह तुम्हें चाहते रहने पर भी रूष्ट होकर तुम्हारे ही मुख के समान सुन्दर चन्द्रमा के पास चली गई थी। शुशुभिरे स्मितचारुतरानना स्त्रिय इव श्लथशिंजित मेखलाः। 9/37 मानो उनमें मुस्कराती हुई सुन्दर मुखवाली और ढीली होने के कारण बजती हुई करधनी वाली स्त्रियाँ विहार कर रही हों। तस्य कर्कश विहार संभवम् स्वेदमाननविलग्नजालकम्। 9/68 कठिन परिश्रम से उनके मुँह पर जो पसीना छा गया था, उसे वन के उस वायु ने सुखा दिया। शापोऽप्यदृष्ट तनयाननपद्मशोभे सानुग्रहो भगवता मयिपातितोऽयम्।9/80 हे मुनि! मुझे आज तक पुत्र के मुखकमल का दर्शन तक नहीं हुआ है, इसलिए मैं आपके शाप को वरदान ही समझता हूँ क्योंकि इसी बहाने मुझे पुत्र तो प्राप्त होगा। ससत्त्वमादाय नदीमुखाम्भः संमीलयन्तो विवृताननत्वात्। 13/10 ये बड़े-बड़े मगरमच्छ अपना मुँह खोलकर मछलियों को लिए हुए समुद्र का
जल पी जाते हैं और फिर मुँह बंद करके। 2. मुख :-[खन् + अच्, डित् धातोः पूर्व मुट् च] मुँह, चेहरा, मुख।
मनोभिरामः शृण्वन्तौ रथनेमिस्वनोन्मुखैः। 1/39 कहीं तो रथ की गड़गड़ाहट सुनकर बहुत से मोर अपना मुँह ऊपर उठाकर दुहरे मनोहर। तस्याः प्रसन्नेन्दुमुखः प्रसादं गुरुर्नृपाणां गुरवे निवेद्य। 2/68 निर्मल चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाले राजा दिलीप की प्रसन्नता को देखकर ही वशिष्ठ जी सब बातें पहले से समझ गए। शरीरसादादसमग्रभूषणा मुखेन सालक्ष्यत लोध्रपाण्डुना। 3/2 गर्भिणी होने से रानी दुबली पड़ गई थीं, इसलिए उन्होंने अपने सभी गहने उतार डाले। उनका मुँह लोध के फूल के समान पीला पड़ गया।
For Private And Personal Use Only
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
276
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
प्रसादसुमुखे तस्मिंश्चन्द्र च विशप्रभे । 4/18
रघु के खिले हुए मुख और उजले चन्द्रमा दोनों को देखकर दर्शकों को । यवनीमुखपद्मानां सेहे मधुमदं न सः । 4/61
मदिरा से लाल गालों वाली यवनियों के मुख कमल मुरझा गए।
तासां मुखैरासवगन्धगर्भैर्व्याप्तान्तराः सान्द्रकुतूहलानाम्। 7/11
मदिरा की गन्ध से सुवासित मुखों वाली, उत्सुकता से झाँकती हुई वे स्त्रियाँ ऐसी पड़ती थीं ।
वधू मुखं पाटलंगद्रलेख माचार धूम ग्रहणाद्बभूव । 7 / 27 विवाह की अग्नि का धुआँ इन्दुमती के मुँह
गए।
तस्याः प्रतिद्वन्द्विभवाद्विषात्सद्यो विमुक्तं मुखमाबभासे । 7/68 जब इन्दुमती को विश्वास हो गया कि शत्रु मारे गए, तब उसका मुँह सुन्दर लगने
लगा।
लगने से उनके गाल लाल हो
सुरतश्रमसंभृतो मुखे ध्रियते स्वेदलपोद्गमोऽपि ते । 8 /51
अभी तुम्हारे मुँह पर से संभोग की थकावट के पसीने की बूंदे भी नहीं सूखीं । इदमुच्छ्वसिततालकं मुखं तव विश्रान्तकथं दुनोति माम् । 8 /55 तुम्हारा बिखरी अलकों से ढका मौन मुँह देखकर मेरा हृदय फटा जा रहा है। मत्स्यध्वजा वायुवशाद्विदीर्णैमुखैः पर्याविलानीव नवोदकानि । 7/40 वायु के कारण सेना की मछली के आकार वाली झंडियों के मुँह खुल गए थे, वे गंदा पानी पीती हुई सच्ची मछलियों के समान दिख रही थीं। रघुरश्रु मुखस्य तस्य तत्कृतवानीप्सित मात्मजप्रियः । 8/13
For Private And Personal Use Only
अपने पुत्र अज को रघु बहुत प्यार करते थे, इसलिए अज का आँसुओं से भरा मुख देखकर वे रुक तो गए।
परिवाहमिवालोकयन्खशुचः पौरवधूमुखाश्रुषु । 8 / 74
तब उन्हें देखकर नगर की स्त्रियाँ फूट-फूटकर रोने लगीं, मानो अज का शोक इतने मुखों से आँसुओं के रूप में बह निकला।
उप
तनुतां मधुखंडिता हिमकरोदयपाण्डुमुखच्छविः । 9 / 38
वैसे ही रात्रि रूपी नायिका भी वसंत के आने से छोटी होती चली गई और उसका चन्द्रमा वाला मुख भी पीला पड़ता गया ।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
277
ध्वजपटं मदनस्य धनुर्भुतश्छविकरं मुखचूर्णं मृतु श्रियः। 9745 मानो धनुषधारी कामदेव का झंडा हो या वसंतश्री के मुख पर लगाने का श्रृंगार चूर्ण हो। चतुर्वर्णमयो लोकस्त्वतः सर्वं चतुर्मुखात्। 10/22 चार वर्णों वाला यह संसार भी चतुर्मुख का (आपका) ही बनाया हुआ है। ददृशुर्विस्मितास्तस्य मुखरागं समं जनाः। 12/8 यह देखकर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि राम के मुँह का भाव दोनों ही स्थितियों में एक समान था। मुखार्पणेषु प्रकृति प्रगल्भाः स्वयं तरंगाधरदानदक्षः। 13/9 जब नदियाँ ढीठ होकर चुंबन के लिए अपना मुख इसके सामने बढ़ाती हैं, तब यह समुद्र बड़ी चतुराई से अपना तरंग रूपी अधर उन्हें पिलाता है। आकाशवायुर्दिन यौवनोत्थानाचमिति स्वेदल वान्मुखे ते। 13/20 आकाशगंगा की लहरों से ठंडाया हुआ आकाश का वायु तुम्हारे मुख पर छाई हुई पसीने की बूंदों को पीता चलता है। सा दुर्निमत्तापगता द्विषादात्सद्यः परिम्लान मुखार विन्दा। 14/50 यह असगुन होते ही उनका मुँह उदास हो गया और वह मन ही मन मनाने लगी की उन पर कोई आँच न आए। ददर्श कंचिदैक्ष्वाकस्तपस्यन्तमधो मुखम्। 15/49 राम देखते क्या हैं कि एक मनुष्य नीचे मुँह किए हुए तप कर रहा है। तेनैव शून्यान्यरिसुन्दरीणां मुखानि स स्मेरमुखश्चकार। 18/44 उन्होंने शत्रुओं की स्त्रियों के मुख पर का तिलक और उनकी मुख की मुस्कराहट
दोनों छीन ली। 3. वक्त्र :-[वक्ति अनेन वच् :-करणे ष्ट्रन्] मुख, चेहरा।
वक्त्रोष्मणा मलिनयन्ति पुरोगतानि। 5/73 घोड़े अपने सामने रखे हुए नमक के टुकड़ों को अपने मुँह की भाप से मैला कर रहे हैं। प्रालम्बुत्कृष्य यथावकाशं निनाय साचीकृत चारुवक्त्रः। 6/14 थोड़ा मुँह घुमाकर कंधे से सरकी हुई और भुजबंध में उलझी हुई माला को
उठाकर।
For Private And Personal Use Only
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
278
कालिदास पर्याय कोश
ज्याबन्ध निष्पन्दभुजेन यस्य विनिः श्वसद्वक्त्र परम्परेण। 6/40 उसकी भुजाएँ इस प्रकार धनुष की डोरी से कसकर बाँध दी थीं कि वह बेचारा दिनरात मुँह से साँसे भरता रहता था। शिक्षाविशेष लघुहस्ततया निमेषात्तूणीचकार शरपूरित वक्त्ररन्ध्रान्।9/63 राजा दशरथ ने इतनी शीघ्रता से उन पर बाण चलाए कि उन सिंहों के खुले मुँह. उनके बाणों के तूणीर बन गए। अस्याच्छम्भः प्रलयवृद्धं मुहूर्त वक्त्राभरणं बभूव। 13/8 उस समय प्रलय से बढ़ा हुआ इसका जल क्षण भर के लिए मुँह का आभूषण चूंघट बन गया था। यो नड्वलानीव गजः परेषां बलान्य मृदानलिना भवक्त्रः। 18/5 उस कमल के समान सुंदर मुख वाले राजा ने शत्रुओं के बल को वैसे ही तोड़
डाला, जैसे हाथी नरकटके गढ़े को तोड़ डालता है। 4. वदन :-[वद् + ल्युट्] चेहरा, मुख।
सुवदनावदनासवसंभृतस्तदनुवादिगुणः कुसुमोद्गमः। 9/30 सुन्दरी स्त्रियों के मुख की मदिरा के कुल्ले से फूल उठे थे और जिनमें उन्हीं स्त्रियों के गुण भी भरे थे। एताः करोत्पीडितवारिधारा दत्सिखीभिर्वदनेषु सिक्ताः। 16/66 जब इनकी सखियाँ इनके मुँह पर पानी डालती हैं और ये अहंकार से उन पर पानी उछालती हैं। प्रेमदत्तवदनानिलः पिबन्नत्यजीवदमरालकेश्वरो। 19/15 तब राजा प्रेमपूर्वक फूंक मार-मारकर उनके मुख चूमने लगता था व अपने को इन्द्र और कुबेर से बढ़कर सुखी और भाग्यवान समझता था।
मृग 1. मृग :-[मृग् + क] हरिण, बारहसिंगा।
मृगद्वन्द्वेषु पश्यन्तौ स्यन्दनाबद्ध दृष्टिषु। 1/40 हरिणों के जोड़े उनकी ओर एकटक देख रहे हैं। अपत्यैरिव नीवारभागधेयो चितैर्मृगैः। 1/50 बहत से मग खड़े थे, उन्हें भी तिन्नी के दाने खाने का अभ्यास ऋषियों के बच्चों के समान ही पड़ गया था।
For Private And Personal Use Only
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मृगैर्वर्तितरो मन्थमुटजांगन भूमिषु । 1 / 52
वहीं आँगन में बहुत से हरिण बैठकर जुगाली कर रहे थे ।
art मृगाध्यासित शाद्वलानि श्यामायमानानि वनानि पश्यन् । 2/17 कहीं हरिण हरी घासों पर थककर बैठ गए हैं और धीरे-धीरे साँझ होने से वन की सब धरती धुंधली पड़ती जा रही है।
279
दृशदो वासितोत्संगा निषण्ण मृगनाभिभि: । 4/74
उन पथरीली पाटियों पर बैठ गए, जिनमें से कस्तूरी मृगों के बैठने से सुगंध आ रही थी ।
समलक्ष्यत बिभ्रदाविलां मृगलेखामुषसीव चन्द्रमाः । 8/42
उस प्रातः काल के चन्द्रमा के समान दिखाई दे रहे थे, जिसकी गोद में धुंधली मृग की छाया हो ।
स्थिर तुरंगमभूमि निपानवन्मृगवयोगवयोगवयोपचितं वनम् । 9 / 53 a की पृथ्वी घोड़ों के लिए पक्की थी, वहाँ बहुत से ताल थे, जिनके चारों ओर बहुत से हरिण, पक्षी और बनैली गाएँ घूमा करती थीं। आविर्बभूव कुशगर्भ मुखं मृगाणां यूथं तदग्रसरगर्वितकृष्ण सारम् । 9/55 जो कुशा चबा-चबाते अपनी माँ के स्तनों से दूध पीने के लिए बीच-बीच में खड़े हो जाते थे । इस हिरणों के झुंड के आगे एक गर्वीला काला हरिण भी चला जा रहा था।
बद्ध पल्लवपुटांजलिदुमं दर्शनोन्मुखमृगं तपोवनम् । 11/23
जहाँ वृक्ष भी अपने पत्तों की अंजलि बाँधे खड़े थे और जहाँ मृग भी बड़ी उत्सुकता से इन्हें देख रहे थे ।
विदुत क्रतु मृगानुसारिणं येन बाणमसृजद्वृषध्वजः । 11/44
जिसे हाथ में लेकर शंकरजी ने मृग के रूप में दौड़ने वाले यज्ञ देवता के ऊपर बाण छोड़े थे ।
अजिनदण्डभृतं कुशमेखलां यतगिरं मृगशृंग परिग्रहाम् । 9 / 21
जब वे मृगछाला पहन कर हाथ में दंड लेकर, कुशा की तगड़ी बाँधकर चुपचाप हरिण की सींग लिए ।
रक्षसा मृगरूपेण वंचयित्वा स राघवौ । 12 / 53
तब उसने मारीच को मृग बनाया और रामलक्ष्मण को धोखा देकर ।
For Private And Personal Use Only
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
280
कालिदास पर्याय कोश पुरा स दर्भाकुर मात्रवृत्तिश्चरन्मृगैः सार्धमृषिर्मघोना। 13/39 पहले ये महर्षि तपस्या करते समय मृगों के साथ घास चरा करते थे, तब इन्द्र ने डरकर इनका तप डिगाने के लिए। सायं मृगाध्यासित वेदिपार्श्व स्वमाश्रमं शान्तमृगं निनाय। 14/79 साँझ हो जाने के कारण बहुत से मृग आश्रम में वेदी को घेरकर बैठे हुए थे और अन्य जन्तु भी चुपचाप आँख मूंदे पड़े थे। मृगैरजर्यं जरसोपदिष्टमदेहबन्धाय पुनर्बबन्ध। 18/7 स्वयं बुढ़ापे के कारण जंगलों में जाकर मृगों के साथ इसलिए रहने लगे कि फिर
संसार में जन्म न लेना पड़े। 2. सारंग :-[स + अङ्गच् + अण्] हरिण।
आशंकयोत्सुक सारंगां चित्रकूटस्थली जहौ। 12/24 राम ने चित्रकूट का वह आश्रम छोड़ दिया, जहाँ के हरिण उनसे इतने हिलमिल
गए थे कि दिन-रात उन्हें ही देखते रहते थे। 3. हरिण :-[ह + इनन्] मृग, बारहसिंगा।
लक्ष्मीकृतस्य हरिणस्य हरिप्रभावः प्रेक्ष्य स्थितां सहचरीं व्यवधाय देहम्। 9/57 राजा दशरथ ने देखा कि जिस हरिण को मारना चाहते थे, उसकी हरिणी बीच में आकर खड़ी हो गई। सकृतिविग्नानपि हि प्रयुक्तं माधुर्यभीष्टे हरिणान् ग्रहीतुम्। 18/13 क्योंकि मधुर वचन में ऐसा प्रभाव होता है कि एक बार डराए हुए हरिण भी वश में हो जाते हैं।
मृगी 1. कुररी :-[कुरर + ङीष्] मृगी, हिरणी।
सा मुक्त कंठं व्यसनाति भाराच्चक्रन्द विग्ना कुररीव भूयः। 14/68
सीता जी डरी हुई कुररी (मृगी) के समान डाढ़ मारकर रोने लगीं। 2. मृगी :-[मृग + ङीष्] हरिणी, मृगी।
तदंकशय्याच्युत नाभि नाला कच्चिन्मृगीणामनघा प्रसूतिः। 5/7 हरिणियों के वे छोटे-छोटे बच्चे तो कुशल से हैं न, जिनकी नाभि का नाल ऋषियों की गोद में ही सूखकर गिरता है।
For Private And Personal Use Only
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
281
रघुवंश
मृग्या परिभवो व्याघ्रयामित्यवेहित्वया कृतम्। 12/37 तुमने वैसे ही मेरा अपमान किया है, जैसे कोई हरिणी किसी बाघिन का अपमान करे। मृग्यश्च दर्भाकुर निर्व्यपेक्षारस्तवा गतिज्ञं समबोध यन्माम्। 13/25
हरिणियों ने भी जब देखा कि मुझे तुम्हारे जाने के मार्ग का पता नहीं है। 3. हरिणी :-[हरिण + ङीष्] मृगी, मादा हरिण। विलोकयन्त्यो वपुरा पुरक्ष्णां प्रकामविस्तार फलं हरिण्यः। 2/11 हरिणियाँ राजा दिलीप के सुन्दर शरीर को एकटक होकर देखती रह गईं, मानो नेत्रों के बड़े होने का उन्हें सच्चा फल प्राप्त हो गया हो। तस्य स्तनप्रणयिभिर्मुहुरेण शावै-या॑हन्यमान हरिणी गमनं पुरस्तात्। 9/55 जिसमें बहुत-सी हरिणियाँ भी हैं, जो अपने उन छोनों के कारण रुकती चलती हैं, जो अपनी माँ के स्तनों से दूध पीने के लिए बीच-बीच में खड़े हो जाते हैं। नृत्यं मयूराः कुसुमानि वृक्षा दर्भानुपात्तान्विजहुर्हरिण्यः। 14/69 उनका रोना सुनकर मोरों ने नाचना बंद कर दिया, वृक्ष फूल के आँसू गिराने लगे और हरिणियों ने मुँह में भरी हुई घास का कौर गिरा दिया।
मेखला
1. कांची :-[काञ्च + इन् = कांचि + ङीष्] स्त्री की मेखला या करधनी।
अस्यांकलक्ष्मीर्भव दीर्घबाहोर्महिष्मती वप्रनितंबकांचीम्। 6/43 जो महिष्मती नगरी के चारों ओ तगड़ी जैसी घूम गई है, तो इस महाबाहु राजा
से विवाह कर लो। 2. मेखला :-[मीयते प्रक्षिप्यते कायमध्यभागे :-मी + खल + टाप, गुण:]
करधनी, तगड़ी, कमरबन्द, कटिबन्ध। रत्नानुविद्धार्णवमेखलाया दिशः सपत्नी भव दक्षिणस्याः। 6/63 तुम रत्नों से भरी उस दक्षिण दिशा की पृथ्वी की सौत बन जाओ, जिसकी तगड़ी स्वयं रत्नों से भरा समुद्र है। असमाप्य विलासमेखलां किमिदं किन्नर कण्ठि सुप्यते। 8/64 जो सुन्दर तगड़ी गूंथ रही थी, हे मधुर कंठी। उसे अधगुंथी छोड़कर क्यों सो रही हो।
For Private And Personal Use Only
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
282
कालिदास पर्याय कोश वणगुरुप्रमदाधरदुःसहं जघननिर्विषयीकृत मेखलम्। 9/32 जिसमें पतियों के दाँतों से घायल हुए स्त्रियों के ओंठ दुखा करते हैं और स्त्रियाँ अपनी कमर की तगड़ी भी उतार डालती हैं। श्रियः पद्मनिषण्णायाः क्षौमान्तरित मेखले। 10/8 उन्हीं के पास कमल पर लक्ष्मी बैठी हुई थीं, जिनकी कमर में रेशमी वस्त्र पड़ा हुआ था। उद्यैतक भुजयष्टिमायती श्रोणिलम्बिपुरुषान्त्र मेखलाम्। 11/17 वृक्ष की शाखा के समान अपनी बाँह उठाती हुई और कमर में आँतों की तगड़ी पहनी हुई। अमुसहास प्रहिते क्षणानि व्याजार्ध संदर्शित मेखलानि। 13/42 वे मुस्करा-मुस्कराकर इनपर तिरछी चितवन चलाती थीं और किसी न किसी बहाने अपनी तगड़ी भी उघाड़कर इन्हें दिखा देती थीं। कृतसीता परित्यागः स रत्नाकरमेखलाम्। 15/1 उन्होंने सीता को छोड़कर समुद्र की तगड़ी पहनी हुई पृथ्वी का ही भोग किया। मेखलाभिरसकृच्च बंधनं वंचयन्प्रणयिनीरवाप सः। 19/17 कभी-कभी जब राजा इन कामिनियों को धोखा दे जाता था तो ये राजा को अपनी करधनी से बाँध देती थीं। चूर्णं बभ्रुलुलित स्रगाकुलं छिन्नमेखलमलक्तकांकितम्। 19/25 फैले हुए केसर के चूर्णं से सुनहरा दिखाई देता था, उस पर फूलों की मसली हुई मालाएँ और टूटी हुई तगड़ियाँ पड़ी रहती थीं और जहाँ-तहाँ महावर की छाप पड़ी रहती थी। लोभ्यमाननयनः श्लथांशुकैर्मेखलागुणपदैनितम्बिभिः ।। 19/26 उसकी दृष्टि स्त्रियों के उन नितम्बों पर पड़ जाती थी, जिन पर कपड़ा सरका हुआ रहता था, और तगड़ी ढीली रहती थी, उन्हें देखकर वह मुग्ध हो जाता था। सैकतं च सरयूं विवृण्वतीं श्रोणि बिम्बमिव हंसमेखलम्। 19/40 सरयू को देखता था, जिसके तट पर उजले हंसों की पातें बैठी रहती थीं, मानो सरयू उन सुन्दरियों का अनुकरण कर रही हो, जिनके नितम्बों पर तगड़ी पड़ी
हो।
ग्रीष्मवेषविधिभिः सिषेविरे श्रेणिलम्बिमणि मेखलैः प्रियाः। 19/45
For Private And Personal Use Only
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
283
ग्रीष्म ऋतु में नितम्ब पर मणि की तगड़ी लटकाकर वे स्त्रियाँ, उसके साथ
संभोग करके प्रसन्न करती थीं। 3. रशना :-[अश् + युच्, रशादेशः] कटिबंध, कमरबंद, स्त्रियों की करधनी।
कस्याश्चिदासीद्रशना तदानीमंगुष्ठमूलार्पितसूत्रशेषा। 7/10 एक स्त्री बैठी हुई मणियों की तगड़ी गूंथ रही थी, मणि तो निकल-निकल कर इधर-उधर बिखर गए, केवल डोरा भर पाँव के अंगूठे में बंधा रह गया। इयमप्रतिबोध शायिनी रशना त्वां प्रधमा रह:सखी। 8/58 तुम्हारी एकान्त सखी यह तगड़ी भी तुम्हें सदा के लिए सोती देखकर मरी सी दिखाई दे रही है। समुद्ररशना साक्षात्प्रादुरासीद् वसुंधरा। 15/83 समुद्र की तगड़ी पहने साक्षात धरती माता प्रकट हुईं। अमीजलापूरित सूत्र मार्गा मौनं भजन्ते रशनाकलापाः। 16/65 तगड़ी के डोरों में जल भर जाने से, इन स्त्रियों के इधर-उधर दौड़ने पर भी ये बज नहीं रहे हैं। चुम्बने विपरिवर्तिताधरं हस्तरोधि रशना विघट्टने। 19/27 जब वह स्त्रियों के ओंठ चूमने लगता, तो मुँह फेर लेती थीं और जब तगड़ी खोलने लगता, तो हाथ थाम लेती। मर्म और गुरुधूपगन्धिभिर्व्यक्त हेमरशनैस्त मेकतः। 19741 जो माड़ी के कारण करकराते थे और जिनके नीचे सोने की तगड़ी झलकती थी।
मेघ
1. अभ्र :-[अभ्र + अच् या अप् + भृ अपो बिभर्ति :- भ + क] बादल।
स्थली नवाम्भः पृषताभि वृष्टा मयूरेकाभिरिवाभ्रवृन्दम्। 7/69 पर जैसे नये बादलों की बूंदों से भीगी हुई पृथ्वी मोर के शब्दों से मेघों का स्वागत करती है, वैसे ही। दोषातनं बुधबृहस्पति योग दृश्यस्तारापतिस्तरल विद्युदिवाभ्रवृन्दम्। 13/76 जैसे बुध और बृहस्पति का साथ होने से विशेष दर्शनीय चंद्रमा संध्या को बिजली वाले बादलों पर बैठता है। तत्रेश्वरेण जगतां प्रलयादिवोर्वी वर्षात्ययेन रुचमभ्रघनादिवेन्दोः। 13/77
For Private And Personal Use Only
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
284
कालिदास पर्याय कोश
जैसे आदि वराह ने प्रलय से पृथ्वी को उबार लिया था, जैसे वर्षा बीतने पर शरद, बादलों से चाँदनी छीन लेता है।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुदुतो वायुरिवाभ्रवृन्दैः सैन्यैरयोध्याभिमुखः प्रतस्थे । 16 / 25
जैसे वायु के पीछे-पीछे बादल चलते हैं, वैसे ही पीछे चलने वाली सेना के साथ शुभ मुहूर्त में अयोध्या के लिए चल दिए ।
संध्योदय: साभ्र इवैष वर्णं पुष्यत्यनेकं सरयू प्रवाहः । 16 / 58
धुले हुए अंगराग के मिल जाने से सरयू की धारा ऐसी रंग-बिरंगी लगने लगती है, जैसे बादलों से भरी संध्या ।
2. अम्बुद : - [ अम्ब् + उण् + दः] बादल ।
नवाम्बुदानीक मुहूर्तलांछने धनुष्यमोघं समधत्त सायकम् । 3/53 इन्द्र का वह धनुष इतना सुंदर था कि थोड़ी देर के लिए उसने नए बादलों में इन्द्रधनुष जैसे रंग भर दिए ।
शशाक निर्वापयितुं न वासवः स्वतश्च्युतं वह्निमिवाद्भिरम्बुदः । 3/58 जैसे बादल घोर वर्षा करके भी अपने हृदय में उत्पन्न बिजली को नहीं बुझा सकता है, वैसे ही इन्द्र भी रघु को नहीं हरा सके।
केवलोsपि सुभगो नवाम्बुदः किं पुनस्त्रिदशचाप लांछितः । 11/80 एक तो नया बादल यों ही सुन्दर लगता है, फिर यदि उसमें इन्द्र धनुष भी बन जाये, तो उसकी शोभा का कहना ही क्या।
धारा स्वनोद्गारिदरीमुखोऽसौ शृंगाग्रलद्गाम्बुदवपंकः । 13/47 गुफा ही इसका मुख है, इससे निकलने वाली धारा का शब्द ही इसकी डकार है, इसकी चोटी ही उसकी सींगें हैं और उसपर छाए हुए बादल ही मानो सींगों पर लगी हुई कीचड़ है।
3. अम्बुधर : - [ अम्ब् + उण् + धरः] बादल ।
शरत्प्रमृष्टाम्बुधरो परोधः शशीव पर्याप्त कलो नलिन्याः । 6/44
जैसे बिना बादलों के आकाश वाले शरद ऋतु का चन्द्रमा भी कमलिनी को नहीं
भाता ।
4. घन :- [ हन् मूर्ती अप् घनादेशश्च :- तारा०] बादल ।
रजोभिः स्यन्दनोद्धूतैर्गजैश्च घन संनिभैः । 4/29
रर्थों के चलने से जो धूल ऊपर उड़ी (उसने आकाश को पृथ्वी बना दिया।), उससे सेना के काले-काले हाथी, बादल जैसे लग रहे थे ।
For Private And Personal Use Only
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
285
रघुवंश
स्वस्त्यस्तु ते निर्गलिताम्बुगर्भ शरद्घनं नार्दति चातकोऽपि। 5/17 क्योंकि पपीहा भी बिना जलवाले बादलों से पानी नहीं माँगता। विजयदुन्दुभितां ययुरर्णवा घनरवा नरवाहन संपदः। 9/11 उस समय बादल के समान गरजता हुआ समुद्र उनकी विजय-दुंदुभी बजाता था। तावदाशु विदधे मरुत्सखैः सा सपुष्पजल वर्षिभिर्धनैः। 11/3 इतने में वायु ने फूल और बादलों ने जल लाकर सड़कों पर बरसा ही तो दिया। प्रवृत्तमात्रेण पयांसि पातुमावर्तवेगाद्धमता घनेन। 13/14 काले-काले बादल समुद्र का पानी लेने आए हैं और समुद्र की भँवर के साथ-साथ बड़ी तीव्र गति से चक्कर काट रहे हैं। क्वचित्पथा संचरते सुराणां क्वचिद्घनानां पततां क्वचिच्च। 13/19 यह कभी तो देवताओं के मार्ग में उड़ता चलता है, कभी बादलों के मार्ग में पहुँच जाता है और कभी पक्षियों के मार्ग में उड़ने लगता है। आमुञ्चतीवाभरणं द्वितीयमुद्भिन्नविद्युद्वलयो घनस्ते। 13/21 तुम्हारे मणिबंध के चारों और बिजली कौंध जाती है, उस समय ऐसा जान पड़ता है, मानो बादल तुम्हारे हाथ में दूसरा कंगन पहना रहे हों। गुहाविसारीण्यतिवाहितानि मया कथं चिदघनं गर्जितानि। 13/28 जब वहाँ बादल गरजते थे और गुफाओं में उसकी प्रतिध्वनि होने लगती थी। तत्रेश्वरेण जगतां प्रलयादिवोर्वी वर्षात्ययेन रुचमभ्रघनादिवेन्दोः। 13/77 जैसे आदि वराह ने प्रलय से पृथ्वी को उबार लिया था, जैसे वर्षा बीतने पर शरद् बादलों से चाँदनी छीन लेता है। आचकांक्ष घनशब्द विल्कवास्ता विवृत्य विशतीर्भुजान्तरम्। 19/28 वरन् यह चाहता था कि किसी प्रकार बादल गरज उठें, जिससे डरकर ये मेरी
छाती से आ चिपटें। 5. जलद :-[जल + अक् + दः] बादल।
बालातपमिवाब्जानामकालजलदोदयः। 4/61 जैसे असमय में उठे हुए बादलों से प्रभात की धूप में खिले हुए कमलों की चमक जाती रहती है। वायवः सुरभिपुष्परेणुभिश्छायया च जलदाः सिषेविरे। 11/11
For Private And Personal Use Only
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
286
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
वायु ने सुगंधित पराग फैलाकर और बादलों ने शीतल छाया देकर मार्ग में उन दोनों की बड़ी सेवा की।
6. जीमूत : - [ जयति नभः, जीयते अनिलेन जीवनस्थोदकस्य मूतं बन्धो यत्र, जीवनं जलं मूतं बद्धम् अनेन, जीवनं मुञ्चतीति वा पृषों० तारा०] बादल । अम्बुगर्भो हि जीमूतश्चातकैरभिनन्द्यते । 17/60
क्योंकि चातक उन्हीं बादलों का स्वागत करते हैं, जिनमें पानी भरा होता है । 7. तोयद : - [तु + विच्, तवे पूर्त्यै यति :- • या + क नि० साधुः + दः] बादल । अन्योन्यशोभापरिवृद्धये वां योगस्तडित्तोदयोरिवास्तु । 6/65
यदि तुम दोनों का विवाह हो जायेगा, तो तुम ऐसी सुंदर लगोगी जैसे बादल के साथ बिजली ।
तैजसस्य धनुषः प्रवृत्तये तोयदानिव सहस्रलोचनः । 11 /43 जैसे इन्द्र, बादलों को अपना धनुष प्रकट करने की आज्ञा दे देते हैं। 8. पयोद :- [ पय् + असुन्, पा + असुन्, इकारादेश्च
दः] बादल ।
मत्तः सदचारशचुः कलंकः पयोदवातादिव दर्पणस्य | 14/37
यद्यपि मैं सदाचारी होने के कारण पवित्र हूँ, फिर भी जैसे भाप पड़ने से स्वच्छ दर्पण भी धुंधला हो जाता है।
-:
9. पयोमुच : - [ पय् + असुन्, पा असुन्, इकारादेश्च + मुच्] बादल । सहस्त्रधात्मा व्यरुचद्विभक्तः पयोमुचां पंक्तिषु विद्युतेव । 6/5
लक्ष्मी ने अपनी शोभा उन लोगों में उसी प्रकार बाँट दी हो, जैसे बिजली अपनी चमक बादलों में बाँट देती है।
For Private And Personal Use Only
उद्यन्ते स्म सुपर्णेन वेगाकृष्ट पयोमुचा । 10/61
अपने वेग के कारण अपने साथ बादलों को खींच कर ले जाता हुआ । 10. पयोवाह :- [पय + असुन्, पा + असुन्, इकारादेश्च + वाहः] बादल ।
प्रावृषेण्यं पयोवाहं विद्युदैरावताविव । 1/36
मानो वर्षा के बादल पर ऐरावत और बिजली दोनों चढ़े चले जा रहे हों । 11. पर्जन्य :- [ पृष् + शन्य, नि० षकारस्य जकारः] बादल या मेघ । प्रवृद्ध इव पर्जन्यः सारंगैरभिनन्दितः । 17/15 मान बहुत से चातक बादलों का गुण गा रहे हों । 12. बलाहक :- [बल + आ + हा + क्कुन] बादल ।
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मरुत्सखस्येव बलाहकस्य गतिर्विजघ्ने न हि तद्रथस्य । 5/27
जैसे वायु के झोंकों से मेघ कहीं भी जा सकता है, वैसे ही उनका रथ कहीं भी
आ जा सकता था।
287
13. मेघ : - [ मेहति वर्षति जलम्, मिह + घञ्, कुत्वम् ] बादल ।
निवृष्टलघुभिर्मेधैर्मुक्तवर्त्मा सुदुः सहः 1 4/15
वर्षा बीत चुकी थी, बादल हट गए थे और जैसे खुले आकाश में चमकते हुए प्रचंड सूर्य का प्रकाश चारों ओर फैल गया था। शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघ मुक्तं जलनिधिमनुरूपं जहनु कन्यावतीर्णा ।
6/85
यह तो बिना बादलों के आकाश में चाँदनी और चंद्रमा का मेल हुआ है और गंगाजी समुद्र में मिल गई हैं।
पुष्पकालोकसंक्षोभं मेघावरण तत्पराः । 10 / 46
पुष्पक विमान को देखकर और डरकर बादलों में छिपना छोड़ दीजिए। मेघस्येव शरत्कालो न किंचित्पर्यशेषयत्। 12/79
जैसे शरद् ऋतु के आने पर न तो बादलों का गर्जन रह पाता है, न इंद्रधनुष ही दिखाई देता है।
आभाति पर्यन्तवनं विदूरान्मेघान्तरा लक्ष्यमिवेन्दु बिम्बम् | 13 / 38 काले-काले जंगलों से घिरा हुआ दूर से ऐसा दिखाई पड़ रहा है, मानो बादलों के बीच कुछ-कुछ दिखाई देने वाले चन्द्रमा हों ।
तस्यापतन्मूर्ध्नि जलानि जिष्णोर्विन्ध्यस्य मेघप्रभवाइवापः। 14/8
वह राम के शिर पर वैसे ही बरस रहा था, जैसे विंध्याचल की चोटी पर बादलों का लाया हुआ जल बरसा करता है।
औत्पातिको मेघ इवाश्मवर्षं महीपतेः शासनमुज्जगार। 14/53 राजा की आज्ञा इस प्रकार सुनाई, जैसे कोई भयंकर बादल ओले बरसा रहा हो। मेघाः सस्यमिवाम्भोभिरभ्यवर्षन्नुपायनैः । 15 / 58
जैसे बादल धान के खेत पर जल बरसाते हैं, वैसे ही उन्होंने आकर राम के आगे भेंट के धन की वर्षा कर दी।
For Private And Personal Use Only
पुरं नवीचकुरपां विसर्गान्मेघा विदाघग्लपितामिवोर्वीम् । 16 / 38 जैसे इन्द्र की आज्ञा से बादल, जल बरसाकर गरमी से तपी हुई पृथ्वी को हरीभरी कर देते हैं।
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
288
कालिदास पर्याय कोश
तदनु ववृषुः पुष्पमाश्चर्यमेघाः। 16/87
और विचित्र प्रकार के मेघों ने आकाश से सुगंधित फूल बरसा दिए। दृष्टो हि वृण्वन्कलभप्रमाणोऽप्याशाः पुरोवातमवाप्य मेघः। 18/38 क्योंकि हाथी के छोटे बच्चे के समान छोटा दिखाई देने वाला बादल भी पुरवा पवन का सहारा पाकर चारों दिशाओं में फैल जाता है। अन्वभुत सुरतश्रमापहां मेघमुक्त विशदां च चन्द्रिकाम्। 19/39 उस चाँदनी का आनंद लेता था जो संभोग का श्रम दूर करती है और जो बादलों
के न रहने से बराबर फैली रहती है। 14. वारिमुच :-[वृ + इञ् + मच्] बादल।
आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव। 4/86 जैसे बादल पृथ्वी से जल लेकर फिर पृथ्वी पर बरसा देते हैं, वैसे ही महात्मा लोग भी धन को दान करने के लिए ही इकट्ठा करते हैं।
मैथिल
1. जनक:- मिथिला का राजा, राजा जनक।
राघवान्वितमुपस्थितं मुनिं तं निशम्य जनको जनेश्वरः। 11/35 जब राजा जनक जी को यह समाचार मिला कि विश्वामित्र जी के साथ राम और लक्ष्मण भी आए हुए हैं, तब वे पूजा की सामग्री लेकर उनकी आगवानी के लिए
चले। 2. मैथिल :-[मिथिलायां भवः :-अण्] मिथिला का राजा, राजा जनक।
राममिष्वसनदर्शनोत्सुकं मैथिलाय कथयांबभूव सः। 11/37 तब ठीक अवसर समझकर विश्वामित्र जी ने जनक जी से कहा कि राम भी धनुष देखना चाहते हैं। दृष्टसारमथ रुद्रकार्मुके वीर्यशुक्लमभिनन्द्य मैथिलः। 11/47 राजा जनक ने जब देखा कि शिव धनुष तोड़कर राम ने अपना पराक्रम दिखला दिया है, तब उन्होंने राम का बड़ा आदर किया। मैथिल: सपदि सत्यसंगरो राघवाय तनयामयोनिजाम्। 11/48 सत्य प्रतिज्ञा करने वाले जनक ने राम को सीता समर्पित कर दी। मैथिलस्य धनुरन्य पार्थिवैस्त्वं किलानमितपूर्वमक्षणोः। 11/72
For Private And Personal Use Only
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
289 जनक जी के जिस धनुष को कोई राजा झुका भी न सका, उसी को तूने तोड़
डाला। 3. विदेहाधिपति :-राजा जनक।
बभौ तमनुगच्छन्ती विदेहाधिपतेः सुता। 12/26 फिर भी उनके पीछे-पीछे चलने वाली जनक की पुत्री सीता।
य
यन्ता (यंता) 1. नियंता :-(पुं०) [नि + यम् + तृच्] सारथि, चालक।
न व्यतीयुः प्रजास्तस्य नियन्तुर्नेमिवृत्तयः। 1/17 प्रजा का कोई भी व्यक्ति मनु के बताए हुए नियमों से बहक कर चलने का साहस नहीं कर सकता था। शीर्षच्छेद्यं परिच्छद्य नियन्ता शस्त्रमाददे। 15/51 इसलिए राम ने निश्चय कर लिया कि इसका वध करना ही होगा, उन्होंने हाथ में
शस्त्र उठा लिया। 2. यंता :-(पुं०) [यम् + तृच्] सारथि, चालक।
अथ यन्तारमादिश्य धुर्यान्विश्रामयेति सः। 1/54 तब राजा दिलीप ने अपने सारथी को आज्ञा दी कि घोड़ों को ठंडा करो। अंकुशं द्विरदस्येव यन्ता गम्भीरवेदिनः। 4/39 जैसे मतवाले हाथी के माथे में हाथीवान अंकुश गड़ाता है। यन्ता गजस्याभ्यपतद्गजस्थं तुल्य प्रति द्वन्द्वि बभूव युद्धम्। 7/37 हाथी-सवार, हाथी-सवारों पर टूट पड़े, इस प्रकार बराबर जोर की लड़ाई होने लगी। प्रहार मूछपगमे स्थस्था यन्तृनुपालभ्य निवर्तिताश्वान्। 7/44 जो योद्धा चोट लगने से मूर्छित हो गए थे उनको उनके सारथी रथ पर डालकर
लौटा लाए। 3. रथयुज :-[रम्यतेऽनेन अत्र वा :-रम् + कथन्+युजः] सारथि ।
जिगमिषुर्धनपाध्युषितां दिशं रथयुजा परिवर्तित वाहनः। 9/25 सूर्य भी उत्तर की ओर घूम जाना चाहते थे, इसलिए उनके सारथी अरुण ने घोड़ों की रास उधर ही मोड़ दी।
For Private And Personal Use Only
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
290
कालिदास पर्याय कोश
4. सारथी : - [ सृ + अथिण् सह रथेन सरथः घोटकः तत्र नियुक्तः इञ् वा]
रथवान, सारथि ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
स शापो न त्वया राजन्न च सारथिना श्रुतः । 1/78
इसलिए उस शाप को न तो तुम ही सुन पाए, न तुम्हारा सारथी ही । विभवसुः सारथिनेव वायुना घन व्यपायेन गभस्तिमानिव । 3 / 37
जैसे वायु की सहायता से अग्नि, शरद ऋतु के खुले हुए आकाश को पाकर सूर्य प्रचंड हो जाता है।
5. सूत :- [ सू + क्त] रथवान्, सारथि ।
पुनः पुनः सूतनिषिद्ध चापलं हरन्तमश्वं रथरश्मि संयतम् । 3/42 वह घोड़ा भी उनके रथ के पीछे बँधा हुआ, तुड़ाकर भागने का यत्न कर रहा है, जिसे इन्द्र का सारथी बार-बार सँभालने का यत्न कर रहा है।
अनयोन्य सूतोन्मथनाद भूतां तावेव सूतौ रथिनौ च कौचित् । 7/52 दो योद्धाओं के सारथी मारे जा चुके थे, इसलिए वे अपना रथ भी चला रहे थे और लड़ भी रहे थे।
यम
1. जीवितेश :- [ जीव् + क्त + ईशः ] यम का विशेषण, यम । गंधवदुधिरचन्दनोक्षिता जीवितेशवसतिं जगाम सा । 11/20
दुर्गन्ध भरे रुधिर से लिपटी हुई ताड़का इस प्रकार सीधे यमलोक चली गई, मानो कोई अभिसारिका चन्दन का लेप करके अपने प्रिय के घर जा रही हो । 2. यम : - [ यम + घञ] मृत्यु का देवता, यम ।
अनुययौ यमपुण्यजनेश्वरौ सवरुणावरुणाग्रसरं रुचा । 9/6
जैसे यम सबको एक समान समझते हैं, वैसे ही वे भी सबसे एक सा व्यवहार करते थे, जैसे वरुण दुष्टों को दंड देते हैं, वैसे ही वे भी दुष्टों को दंड देते थे । यमकुबेरजलेश्वरवज्रिणां समधुरं मधुरञ्चितविक्रमम् । 9/24
यम, कुबेर, वरुण और इन्द्र के समान पराक्रमी उन राजा का अभिनंदन करने के लिए वसंत ऋतु भी। इन्द्राद्वृष्टिर्नियमितगदोद्रेकवृत्तिर्यमोऽभूद्यादो नाद्यः शिवजलपथः कर्मणे नौचराणाम्। 17/81
For Private And Personal Use Only
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
291 इन्द्र ने उनके साम्राज्य पर वर्षा की, यमराज ने रोगों का बढ़ना रोका, वरुण ने
नाव चलाने वालों के लिए जल के मार्ग खोल दिए। 3. वैवश्वत :-[विवस्वतोऽपत्यम् अण्] यम।
यानं सस्मार कौबेरं वैवस्वतजिगीषया। 15/45 यह कहकर यमराज को जीतने की इच्छा से उन्होंने पुष्पक विमान को स्मरण किया।
यमुना
1. कलिन्दकन्या :-[कलि + दा + खच्, मुम् + कन्या] यमुना नदी की उपाधि।
कलिन्दकन्या मधुरां गतापि गंगोर्मि संसक्तजलेव भाति। 6/48 उस समय मधुरा में भी यमुना जी का रंग ऐसा प्रतीत होता है, मानो वहीं पर
उनका गंगा जी की लहरों से संगम हो गया हो। 2. कालिन्दी :-[कालिन्द + अण् + ङीप] यमुना।
उपकूलं स कालिन्द्याः पुरीं पौरुष भूषणः। 15/28
तब पराक्रमी, संयमी और सुन्दर शत्रुघ्न ने यमुना के किनारे। 3. यमुना :-[यम् + उनन् + टाप्] एक प्रसिद्ध नदी का नाम, यमुना।
त्रस्तेन ताात्किल कालियेन मणिं विसृष्टं यमुनौकसा यः। 6/49 जब ये अपने गले में वह मणि पहन लेते हैं, जो उन्हें कालिया नाग ने दी थी, जो गरुड़ के डर से यमुना के जल में रहने लगा था। पश्यानवद्याङ्गि विभाति गंगा भिन्नप्रवाहा यमुनातरङ्गैः। 13/57
यश
1. कीर्ति :-[कृत् + क्तिन्] यश, प्रसिद्धि, कीर्ति।
इत्थं व्रतं धारयतः प्रजार्थं समं महिष्या महनीय कीर्तेः। 2/25 इस प्रकार अपनी पत्नी के साथ संतान प्राप्ति के लिए यह कठोर व्रत करते हुए परम कीर्तिशाली राजा दिलीप के। वंशस्थ कर्तारमनन्तकीर्तिं सुदक्षिणायां तनयं ययाचे। 2/64 यह वर मांगा कि मेरी प्यारी रानी सुदक्षिणा के गर्भ से ऐसा यशस्वी पुत्र हो, जिससे सूर्यवंश बराबर बढ़ता चले।
For Private And Personal Use Only
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
292
कालिदास पर्याय कोश सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य लोकान्तर गीतकीर्तिम्। 6/45 तब सेविका, राजकुमारी को मथुरा के उस राजा सुषेण के आगे ले गई, जिसकी कीर्ति स्वर्ग के देवता भी गाते थे। धेनुवत्सहरणाच्च हैहयस्त्वं च कीर्तिमपहर्तुमुद्युतः। 11/74 उनमें पहला तो था सहस्रबाहु, जो मेरे पिता से कामधेनु का बछड़ा छीनकर ले गया था, और दूसरे हो तुम, जो मेरी कीर्ति छीनने पर कमर कसे बैठे हो। निर्जितेषु तरसा तरस्विनां शत्रुषु प्रणतिरेव कीर्तये। 11/89 क्योंकि जब कोई पराक्रमी अपने बल से अपने शत्रु को जीत लेता है, तब यदि वह नम्रता भी दिखावे तो उसकी कीर्ति ही बढ़ती है। त्रेताग्नि धूमाग्रभनिन्द्यकीर्ते स्तस्येदमाक्रान्तविमानमार्गम्। 13/37 उसी यशस्वी ऋषि की, गार्हपत्य और आहवनीय अग्नियों से हवन सामग्री को गंध से मिला हुआ वह धुआँ, विमान के पास तक उठा चला आ रहा है। स लक्ष्मणं लक्ष्मण पूर्वजन्मा विलोक्य लोकत्रय गीतकीर्तिः। 14/44 तीनों लोकों में प्रसिद्ध यशस्वी, अपनी बात के पक्के राम ने जब देखा कि लक्ष्मण उनकी आज्ञा मानने को तत्पर हैं। तवोरुकीर्तिः श्वसुरः सखा मे सतां भवोच्छेदकरः पिता ते। 14/74 तुम्हारे यशस्वी श्वसुर जी मेरे मित्र थे और तुम्हारे पिता जनक जी भी ज्ञानोपदेश
देकर बहुत से विद्वानों को संसार के बंधन से छुड़ाते रहते हैं। 2. यश :-[अश् स्तुतौ असुन् धातोः युट् च्] प्रसिद्धि, ख्याति, कीर्ति।
मन्दः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम्। 1/3 देखिए, मैं हूँ तो मूर्ख, पर मेरी साध यह है कि बड़े-बड़े कवियों में मेरी गिनती
हो।
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम्। 1/7 अपना यश बढ़ाने के लिए ही दूसरे देशों से जीतते थे, सन्तान उत्पन्न करने के लिए ही विवाह करते थे। वनायपीतप्रतिबद्ध वत्सां यशोधनो धेनुमषेर्मुमोच। 2/1 तब यशस्वी राजा दिलीप ने उसे (बछड़े के) बाँध दिया और ऋषि की गाय को जंगल में चरने के लिए खोल दिया। निवर्त्यराजा दयितां दयालुस्तां सौरभेयीं सुरभिर्य शोभिः। 2/3
For Private And Personal Use Only
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
293 कोमल हृदय वाले यशस्वी राजा दिलीप ने आश्रम के द्वार पर से ही रानी सुदक्षिणा को लौटा दिया और अपने आप उस नन्दिनी की रक्षा करने लगे। शुश्राव कुञ्जेषु यशः स्वमुच्चैरुद्नीयमानं वनदेवताभिः। 2/12 राजा दिलीप सुन रहे थे कि वनदेवता वन की कुंजों में ऊँचे स्वर से उनका यश गा रहे हैं। शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्य रक्षं न तद्यशः शस्त्र भृतां क्षिणोति। 2/40 जब किसी वस्तु की रक्षा शस्त्र से हो ही न सके तो इसमें शस्त्र धारण करने वाले का क्या दोष, इससे उसका यश तो घटता नहीं है। किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं यशः शरीरे भव मे दयालुः। 2/57 यदि तुम किसी कारण से मेरे ऊपर दया करना चाहते हो, तो मेरे यश की रक्षा करो। पपौ वशिष्ठेन कृताभ्यनुज्ञः शुभ्रं यशो मूर्तिमिवातितष्णः। 2/69 राजा दिलीप ने वशिष्ठ की आज्ञा से नंदिनी के दूध को ऐसे पी लिया, मानो उन्हें बड़ी प्यास लगी हुई हो। उनको जान पड़ता था कि स्वयं उजला यश ही दूध बनकर चला आया हो। यदात्थ राजान्यकुमार तत्तथा यशस्तु रक्ष्यं परतो यशो धनैः। 3/48 हे राजकुमार! तुम जो कहते हो यह सब ठीक है, पर हम यशस्वियों का यह भी कर्तव्य है कि जो अपने से होड़ करें उनसे अपने यश की रक्षा करें। आकुमारकथोद्धा शालिगोप्यो जगुर्यशः। 4/20 प्रजापालक राजा रघु की बचपन से तब तक की गुणकथाओं के गीत बना-बनाकर गाती थीं। नारिकेलासवं योधाः शात्रवं च पपुर्यशः। 4/42 वहाँ नारियल की मदिरा के साथ-साथ, मानो शत्रुओं का यश भी पी गए। ते निपत्य ददुस्तस्मै यशः स्वमिव संचितम्। 4/50 वे सब उन्होंने रघु को ऐसे सौंप दिए, मानो अपना बटोरा हुआ यश ही उन्हें दे डाला हो। विभूतयस्तदीयानां पर्यस्ता यशसामिव। 4/19 यह जान पड़ता था कि रघु की कीर्ति ही इतने रूप बनाकर फैली हुई है। तत्राक्षोभ्यं यशोराशिं निवेश्यावरुरोह सः। 4/80
For Private And Personal Use Only
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
294
कालिदास पर्याय कोश
हिमालय पर अपना यश का झंडा गाड़कर आगे कैलास की ओर न बढ़कर रघु लौट पड़े। श्रुतप्रकाशं यशसा प्रकाशः प्रत्युञ्जगामातिथिमातिथेयः। 5/2 अतिथि का सत्कार करने वाले, अत्यंत शीलवान् और यशस्वी राजा रघु। ऊर्ध्वं गतं यस्य न चानुबन्धिन यशः परिच्छेतुमियत्तयालम्। 6/77 उनका यश कहाँ तक फैला हुआ है, उसकी थाह थोड़े ही है, भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों में सब कहीं तो उनका यश फैला हुआ है। तने स्वहस्तार्जितमेकवीरः पिवन्यशो मूर्तमिवाबभासे।7/63 मानो अपने बाहुबल से उत्पन्न किए हुए मूर्तिमान यश को ही पी रहे हों। यशो हृतं संप्रति राघवेण न जीवितं वः कृपयेति वर्णाः। 7/65 हे राजाओ! इस समय राजकुमार अज ने तुम लोगों का यश तो ले लिया, पर दया करके प्राण नहीं लिए। दशरश्मिशतोपमद्युतिं यशसा दिक्षु दशस्वपि श्रुतम्। 8/29 जो दक्ष सौ किरणों वाले सूर्य के समान तेजस्वी थे, जिनका यश दसों दिशाओं में फैला था। अपिस्वदेहात्किमुतेन्द्रियार्थद्यशोधनानां हि यशो गरीयः। 14/35 क्योंकि यशस्वियों को अपना यश अपने शरीर से भी अधिक प्यारा होता है, फिर स्त्री आदि भोग की वस्तुओं की तो बात ही क्या। तथापि ववृधे तस्य तत्कारि द्वेषिणो यशः। 17/73 पर प्रशंसा की इच्छा न करने पर भी उनका यश बढ़ता ही गया।
योद्धा
1. योद्धा :- [युध् + अच्] योद्धा, सैनिक, लड़ाकू। ।
शार्ङ्ग कूजित विज्ञेय प्रतियोधे रजस्यभूत। 4/62 केवल धनुष की टंकार से ही सैनिक लोग शत्रु को पहचान पाते थे। विनयन्ते स्म तद्योधा मधुभिर्विजयश्रमम्। 4/65 रघु के सैनिक मदिरा पी-पीकर लड़ाई की थकावट मिटाने लगे। रामापरित्राणविहस्तयोधं सेना निवेशं तुमुलं चकार। 5/49 सैनिक लोग अपनी स्त्रियों को छिपाने के लिए सुरक्षित स्थान ढूँढ़ने लगे, उस एक हाथी ने सेना में इतनी भगदड़ मचा दी।
For Private And Personal Use Only
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
295
रघुवंश 2. सैनिक :-[सेनायां समवैति ठक्] सिपाही, योद्धा।
तयोरुपान्तस्थितसिद्ध सैनिकं गरुत्मदाशी विषभीम दर्शनैः। 3/57 ऊपर देवता और नीचे रघु के सैनिक इस अचरज भरे युद्ध को देख रहे थे। निमेषमात्रा दवधूय तद्व्यथां सहोत्थितः सैनिक हर्षनिः स्वनैः। 3/61 किन्तु क्षणभर में ही वे संभलकर उठ खड़े हुए और उनके साथ ही उनके सैनिकों
की जय जयकार भी आकाश में गूंज उठी। विशश्रमुर्न मेरुणां छायास्वध्यास्य सैनिकाः। 4/74 और रघु के सैनिक भी वहाँ नमेरु के वृक्षों के तले बैठकर सुस्ताने लगे।
रंध
1. रंध्र :-[रध् + रक्, नुमागमः] विवर, छेद, गर्त, दरार।
स कीचकैर्मारुत पूर्ण रंधैः कूजद्भिरापादितवंशकृत्यम्। 2/12 उन वन-देवताओं के साथ वे बाँस भी मधुर बाँसुरी बजा रहे थे, जिनके छेदों में
वायु भर जाने के कारण मधुर स्वर निकल रहे थे। 2. विवर :-[वि + वृ + अच्] दरार, छिद्र, रंध्र ।
यच्चकार विवरं शिलाघने ताडकोरसि स रामसायकः। 11/18 राम के उस बाण ने पत्थर की चट्टान के समान कठोर ताड़का की छाती में जो छेद किया।
रक्ष 1. असुर :-[असु + र, न सुरः इति न०त० वा] दैत्य, राक्षस, दानव।
दिलीपसूनोः स बृहद् भुजान्तरं प्रविश्य भीमासुरशोणितोचितः। 3/54 बड़े-बड़े राक्षसों का रक्त पीने वाले उस बाण ने रघु की छाती में घुसकर वहाँ का रक्त बड़े चाव से पिया। कृतप्रतिकृतप्रीतैस्तयोर्मुक्तां सुरासुरैः। 12/94 जब राम बाण चलाते या रावण का बाण रोकते, तब देवता उन पर और जब राम पर रावण प्रहार करता या उनका वार रोकता, तब असुर उस पर फूलों की वर्षा
करते। 2. क्रव्याद् :-[क्लव् + यत्, रस्य ल: + अद्] राक्षस, पिशाच।
For Private And Personal Use Only
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
296
कालिदास पर्याय कोश क्रव्याद् गणपरीवारश्चिताग्निरिव जंगमः। 15/16 मांस खाने वाले राक्षस उसके चारों ओर चल रहे थे, वह उस चिता की अग्नि के समान लग रहा था जो धुएँ से धुंधली हो, जिसमें से चर्बी की गंध निकलती हो, और जिसके आसपास कुत्ते और गिद्ध आदि मांस भक्षी पशु-पक्षी घूम रहे
हों। 3. तामिस्त्र :-[तमिस्रा + अण] राक्षस, पिशाच।
लवणेन विलुप्तेज्यास्तामिस्त्रेण तमभ्ययुः। 15/2 लवणासुर राक्षस के उपद्रवों के कारण उनकी यज्ञ आदि क्रियाएँ बंद हो चुकी
थीं।
4. दैत्य :-[दिति + ण्य] दिति का पुत्र, राक्षस।
जधान समरे दैत्यं दुर्जयं तेन चावधि। 17/5 वहाँ शक्तिशाली दुर्जय नाम के राक्षस को मारकर वे स्वयं भी वीर गति को प्राप्त
हुए। 5. निशाचर :-[नितरां श्यति तनूकरोति व्यापारान् :-शो + क तारा० + चरः]]
राक्षस, पिशाच। मायाविभिरनालीढमादास्यध्वे निशाचरैः। 10/45 हे देवताओ! यजमान लोग जो विधि से दिया हुआ यज्ञ का भाग तुम्हें दे देंगे, उसे अब राक्षस लोग छीनकर नहीं खा सकेंगे। निशाचरोपप्लुतभर्तृकाणां तपस्विनीनां भवतः प्रसादात्। 14/64 पिछली बार आपकी कृपा से मैंने वनवास के समय बहुत सी ऐसी तपस्विनियों
को अपने यहाँ आश्रय दिया था, जिनके पतियों को राक्षसों ने सता रखा था। तमुपाद्रव दुद्यम्य दक्षिणं दोर्निशाचरः। 15/23
तब वह राक्षस अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाए हुए शत्रुघ्न की ओर झपटा। 6. नैर्ऋत :-[नैऋति + अण्] एक राक्षस।
भयमप्रलयोद्वेलादाचख्युनैर्ऋतोदधेः। 10/34 आजकल ऐसे राक्षस उत्पन्न हो गए हैं, जिन्होंने बिना प्रलयकाल आए ही सारे संसार की मर्यादा भंग करके चारों ओर हाहाकार मचा दिया है। गात्र पुष्परजः प्राप न शाखी नैर्ऋतेरितः। 15/20 (लवणासुर) राक्षस के द्वारा फेंका गया वृक्ष तो उनके शरीर तक नहीं पहुँच सका, केवल उसके फूलों का पराग भर उन तक पहुँच पाया।
For Private And Personal Use Only
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
297
रघुवंश 7. मखद्विष :-[मख् संज्ञायां घ + द्विष्] पिशाच, राक्षस।
तत्र यावधिपती मखद्विषां तौ शरव्यमकरोत्स नेतरान्। 11/27 राम ने सबको छोड़कर उन्हीं दो राक्षसों को बाण मारे, जो उस सेना के सेनानायक
थे और जो यज्ञ से घृणा करते थे। 8. यातुधान :-[या + तुन् + धान] भूतप्रेत, पिशाच, राक्षस।
उदायुधानापततस्तान्दृप्तान्प्रेक्ष्य राघवः। 12/45 राम अकेले थे और राक्षस सहस्रों थे, पर वहाँ जितने राक्षस थे, उन्हें उतने राम
दिखाई पड़ रहे थे। 9. रक्षस् :-(नपुं०) [रक्ष्यते हविरस्मात्, रक्ष् + असुन्] भूत-प्रेत, पिशाच,
बैताल, राक्षस। जाने वो रक्षसाक्रतान्तावनु भाव पराक्रमौ। 10/38 वैसे ही आपके तेज और बल को राक्षस (रावण) दबा बैठा है। स्थापितो दशमो मूर्धा लभ्यांश इव रक्षसा। 10/41 अब जान पड़ता है कि उस राक्षस ने अपना दसवाँ सिर मेरे चक्र से कटने के लिए रख छोड़ा है। रक्षोविप्रकृतावास्तामपविद्धशुचाविव। 10/74 राक्षस (रावण) से पीड़ा पाया हुआ सूर्य भी निर्मल हो गया, मानो उसका शोक दूर हो गया हो। अप्रविष्टविषयस्य रक्षसां द्वारतामगमदन्त कस्य तत्। 11/18 मानो राक्षसों के उस देश में यमराज के प्रवेश करने के लिए द्वार खोल दिया हो, जहाँ अभी तक वह जा नहीं पाया था। रक्षसां बलम पश्यदम्बरे गृध्रपक्षपवनेरितध्वजम्। 11/26 आकाश की ओर देखा कि गिद्ध के पंखों के समान हिलती हुई ध्वजा वाली राक्षसों की सेना डटी खड़ी है। राघवास्त्रविदीर्णानां रावणं प्रति रक्षसाम्। 12/51 राम के अस्त्र से मारे हुए उन राक्षसों का मृत्यु का समाचार रावण तक पहुँचाने के लिए। रक्षसा मृगरूपेण वंचयित्वा स राघवौ। 12/53 राक्षस मारीच को माया मृग बनाया और राम-लक्ष्मण को धोखा देकर।
For Private And Personal Use Only
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
298
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
रणः प्रववृते तत्र भीमः प्लवगरक्षसाम्। 12/72
वहाँ वानरों और राक्षसों का ऐसा भयंकर युद्ध होने लगा कि ।
इतराण्यपि रक्षांसि पेतुर्वानरोकोटिषु। 12/82
बहुत से राक्षस करोड़ों वानरों की सेना के बीच में इस प्रकार गिर रहे थे । अयः शंकुचितां रक्षः शतघ्नीमथ शत्रवे । 12/95
राक्षस रावण ने लोहे की कीलों से जड़ी हुई शतघ्नी राम पर चलाई । रराज रक्षः कायस्य कण्ठच्छेद परम्परा । 12 / 100
राक्षस रावण के सिर कटकर गिरते हुए ऐसे अच्छे लगते थे। समौल रक्षो हरिभिः ससैन्यस्तूर्यस्वनानन्दितपौरवर्गः । 14 / 10
वृद्ध मंत्रियों, राक्षसों और वानरों को साथ लेकर राम ने अपनी उस राजधानी में पैर रखे, जहाँ के निवासी तुरही आदि बाजों को सुन-सुनकर बड़े प्रसन्न हो रहे
थे ।
विनाशात्तस्य वृक्षस्य रक्षस्तस्मै महोपलम् । 15/21
उस वृक्ष के टूक-टूक हो जाने पर उस राक्षस ने एक ऐसी शिला उठाकर शत्रुघ्न पर फेंकी।
10. राक्षस :- [ रक्षस् इदम् :- अण् ] पिशाच, भूतप्रेत, बैताल, दानव, शैतान । धातारं तपसा प्रीतं यमाचैस हि राक्षसः । 10 / 43
जब ब्रह्माजी उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए, तो उस राक्षस ने यही वरदान माँगा
कि ।
संध्याभ्रकपिशस्तस्य विराधो नाम राक्षसः | 12/28
वैसे ही संध्या के बादल के समान लाल रंग वाला विराध नाम का राक्षस । स्नेहाद्राक्षसलक्ष्म्येव बुद्धिमादिश्य चोदितः । 12/68
मानो राक्षसों की राजलक्ष्मी ने उसकी बुद्धि में पैठकर यह समझा दिया कि अब राम की शरण में जाने पर ही तुम्हारा कल्याण होगा।
आसन्यत्र क्रियाविघ्ना राक्षसा एव रक्षिणः । 15 / 62
यज्ञ क्रिया में विघ्न डालने वाले राक्षस ही उसकी रखवाली कर रहे थे।
For Private And Personal Use Only
जगृहुस्तस्य चित्तज्ञाः पदवीं हरि राक्षसाः । 15 / 99
राम के मन की बात जानने वाले वानर और राक्षस भी उनके पीछे-पीछे चले । 11. सुरद्विष :- [ सुष्ठु राति ददात्य भीष्टम् :- सु + रा क + द्विष् ] राक्षस ।
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
299
रघुवंश
दिनकराभिमुखा रणरेणवो रुरुधिरे रुधिरेण सुरद्विषाम्। 9/23 सूर्य पर छाई हुई युद्ध की धूल राक्षसों के रक्त से सींच-सींचकर दबाई है। प्रणिपत्य सुरास्तस्मै शमयित्रे सुरद्विषाम्। 10/15 तब देवताओं ने दैत्यों के नाश करने वाले विष्णु भगवान् को प्रणाम किया। सा बाणवर्षिणं रामं योधयित्वा सुरद्विषाम्। 12/50 बाण बरसाने वाले राम से लड़कर वह राक्षसों की सेना। यत्रोत्पलदलक्लैव्यमस्त्राण्यापुः सुरद्विषाम्। 12/86 जिस पर राक्षसों के अस्त्र ऐसे लगते थे, मानो वे कमल के फूल हों। राघवो रथमप्राप्तां तामाशां च सुरद्विषाम्। 12/96 उस समय राक्षसों को पूरी आशा हो गई कि इस अस्त्र से राम अवश्य ही समाप्त हो जाएंगे, पर उस अस्त्र के राम के रथ तक पहुँचने के पहले ही।
रघु
दिलीपनंदन :-दिलीप पुत्र रघु।
अतीन्द्रियेष्वप्युपपनदर्शनो बभूव भावेषु दिलीप नंदनः। 3/41 रघु को उन सब वस्तुओं को देख सकने की शक्ति आ गई, जो किसी भी इन्द्रिय
से किसी को नहीं प्रकट होती। 2. दिलीपसूनु :-दिलीप पुत्र रघु। दिलीपसूनोः स बृहद्भुजान्तरं प्रविश्य भीमासुर शोणितोचितः। 3/54 बड़े-बड़े राक्षसों का रक्त पीने वाले उस बाण ने रघु की छाती में घुसकर, वहाँ
का रक्त बड़े चाव से पिया। 3. रघु :-[लंघति ज्ञानसीमानं प्राप्नंति :-लंघ् + कु, न लोपः लस्य र:] एक
प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा, दिलीप का पुत्र। अवेक्ष्य धातोर्गमनार्थविच्चकार नाम्ना रघुमात्मसंभवम्। 3/21 अर्थ पहचानने वाले राजा ने धातु का 'जाना' अर्थ समझकर अपने पुत्र का नाम इसलिए रघु रखा कि। वपुः प्रकर्षादजयद्गुरुं रघुस्तथापि नीचैर्विनयाददृश्यत। 3/34 इस प्रकार डीलडौल बढ़ जााने के कारण रघु अपने बूढ़े पिता से ऊँचे और तगड़े लगते थे, फिर भी वे इतने नम्र थे कि उन्होंने कभी अपना बड़प्पन प्रकट नहीं होने दिया।
For Private And Personal Use Only
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
300
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
अवोचदेनं गगनस्पृशा रघुः स्वरेण धीरेण निवर्तयन्निव । 3/43
बस रघु ने समझ लिया कि हो न हो ये इन्द्र ही हैं और ऊँचे गंभीर स्वर से इस प्रकार इन्द्र से बोले, मानो उन्हें लौटने को ललकार रहे हों । इति प्रगल्भं रघुणा समीरितं वचो निशम्याधिपतिर्दिवौकसाम् । 3/47 के अभिमान भरे इन वचनों को सुनकर इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ । रघुः शशांकार्धमुखेन पत्रिणा शरासन ज्यामलुनाद्विडौजसः । 3/59 तब रघु ने अर्द्ध चन्द्र के आकार के बाण से इन्द्र की ठीक कलाई के पास धनुष की वह डोरी काट डाली।
रघु
रघुर्भृशं वक्षसि तेन ताडितः पपात भूमौ सह सैनिकाश्रुभिः । 3/61
उस वज्र की मार से रघु पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके गिरते ही उनके सैनिकों ने रोना पीटना आरंभ कर दिया।
वार्षिकं संजहारेन्द्रो धनुजैत्रं रघुर्दधौ । 4/16
इन्द्र ने जब अपना वर्षा ऋतु वाला इन्द्रधनुष हटाया, तब रघु ने अपना विजयी धनुष हाथ में उठा लिया ।
रघोरभिभवावशंकि चुक्षुभे द्विषतां मनः । 4/21
उधर शत्रुओं के मन में यह जानकर खलबली मच गई कि अब न जाने कब रघु चढ़ाई कर बैठे।
आपादपद्मप्रणाताः कलमा इव ते रघुम् । 4/37
वैसे ही रघु ने उन राजाओं को फिर राज पर बैठा दिया, जो उनके पैरों पर आकर गिर पड़े थे।
तस्यामेव रघोः पाण्ड्याः प्रतापं न विषेहिरे । 4/49
पर रघु का तेज इतना प्रबल था कि वहाँ के पाँड्य राजा भी इनके आगे न ठहर
सके।
For Private And Personal Use Only
उपरान्त महीपाल व्याजेन रघवे करम् । 4/58
पश्चिम के राजाओं ने जो रघु के अधीन होकर उन्हें कर दिया था वह मानो ।
ततः प्रतस्थे कौवेरीं भास्वानिव रघुर्दिशम् । 4/66
जैसे सूर्य उत्तर की ओर घूम जाता है, वैसे ही रघु भी उत्तर के राजाओं को जीतने के लिए उधर घूम पड़े।
कपोल पाटला देशि बभूव रघुचेष्टितम् । 4/68
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
301 वहाँ रघु ने जिन राजाओं को मार डाला, उनकी स्त्रियाँ इतना रोईं कि उनके गाल लाल हो गए। इत्यर्ध्वपात्रानुमितव्यस्य रघोरुदारामपि गां निशम्य। 5/12 कौत्स ने ध्यान से रघु की उदार बातें सुनीं, पर देखा कि उनके हाथ में केवल मिट्टी का पात्र बचा है, तो उनका मुँह उतर गया। गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा रघोः सकाशादनवाप्य कामम्। 5/24 तब चन्द्रमा के समान सुन्दर परम धार्मिक रघु बोले “आप जैसे वेदपाठी ब्राह्मण गुरु दक्षिणा के लिए हमारे पास आवे और यहाँ से निराश होकर लौटे।" गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुवेरात्। 5/26 रघु ने भी देखा कि पृथ्वी पर तो धन है नहीं, इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि
कुबेर से ही धन लिया जाये। 4. सुदक्षिणासूनु :-रघु का विशेषण ।
नृपस्य नातिप्रमनाः सदोगृहं सुदक्षिणासूनुरपि न्यवर्तत। 3/67 सुदक्षिणा के पुत्र रघु भी अपने पिता राजा दिलीप की सभा में लौट आए।
रघुसूनु 1. अज :-[न जायते नञ् :-जन् + ड] अज, एक सूर्यवंशी राजा का नाम।
अतः पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार। 5/36
ब्राह्म मुहूर्त में जन्म होने से पिता ने ब्रह्मा के नाम पर लड़के का नाम अज रखा। 2. रघुसूनु :-अज, रघुपुत्र अज।
रराज धाम्ना रघुसूनुरेव कल्पदुमाणामिव पारिजातः। 6/6 जैसे नंदन वन के वृक्षों में पारिजात ही सबसे अधिक सुन्दर है, वैसे ही राजाओं के बीच में अकेले अज ही खिल रहे थे। तस्यां रघोः सूनुरुपस्थितायां वृणीत मां नेति समाकुलाऽभूत्। 6/68 जब वह रघु के पुत्र अज के आगे आकर खड़ी हो गई, तब अज के मन में भी यह धुकधुकी होने लगी कि यह मुझे वरेगी या नहीं।
1. पराग :-[परा + गम् + ड] पुष्परज, धूलि, धूल।
For Private And Personal Use Only
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
302
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
प्रतापोऽग्रे ततः शब्दः परागस्तदनन्तरम् । 4 / 30
इस प्रकार आगे-आगे उनका प्रताप चलता था, पीछे उनकी सेना का कोलाहल सुनाई पड़ता था, तब धूल उड़ती दिखाई देती थी ।
2. पांसु : - [पंस् (श्) + कु, दीर्घः ] धूल, गर्द,
चूरा ।
तस्याः खुरन्यासपवित्र पांसुमपांसुलानां धुरि कीर्तनीया । 2/2
नंदिनी चली जा रही थी और उसके खुरों से उड़ी हुई धूल मार्ग को पवित्र करती जा रही थी ।
3. रज : - (पुं०) [रज् + असुन्, न लोप: ] धूल, रेणु, गर्द ।
रजोभिस्तुरगोत्कीर्णैरस्पृष्टालक वेष्टनौ । 1/42
घोड़ों के खुरों से उठी हुई धूल न तो देवी सुदक्षिणा के बालों को छू पाती थी और न राजा दिलीप की पगड़ी को ।
रजः कणैः खुरोद्भूतैः स्पृशद्भिर्गात्रमन्तिकात्। 1 / 85
नंदिनी के आते समय उसके खुरों से उड़ी हुई धूल के लगने से राजा दिलीप वैसे ही पवित्र हो गए।
रजोभिः स्यन्दनोद्धूतैर्गजैश्च घनसंनिभैः । 4/29
रघु के रथों के चलने से जो धूल ऊपर उड़ी, उसने आकाश को पृथ्वी बना दिया । सेना के काले-काले हाथी बादल जैसे लग रहे थे ।
मुरलामारुतोद्धूतमगमत्कैतकं रजः । 4/55
मुरला नदी की ओर से आने वाले वायु के कारण जो केवड़े के फूलों की धूल उड़ रही थी ।
शार्ङ्गकूजित विज्ञेय प्रतियोधे रजस्यभूत् । 4/62
सेना के चलने से इतनी धूल उड़ी कि केवल धनुष की टंकार से ही सैनिक लोग शत्रु को पहचान पाते थे ।
रजो विश्रामयन्राज्ञां छत्रशून्येषु मौलिषु । 4 / 85
उठी हुई धूल पीछे-पीछे चलने वाले हारे हुए राजाओं के छत्र-रहित मुकुटों पर बैठती चलती थी।
For Private And Personal Use Only
निवेशयामास विलंघिताध्वा क्लान्तं रजोधूसर केतु सैन्यम् । 5/42 अपनी उस थकी हुई सेना का पड़ाव डाला, जिसकी पताकाएँ मार्ग की धूल लगने से मटमैली हो गई थीं।
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
303
रजोभिरन्तः परिवेषबन्धि लीलारविन्दं भ्रमयां चकार। 6/13 उसके घूमने से भौरे तो इधर-उधर भाग गए, पर उसमें जो पराग भरा हुआ था, उसके फैलने से कमल के भीतर चारों ओर कुण्डली सी बन गई। कुर्वन्ति सामन्तशिखामणीनां प्रभाप्ररोहास्तमयं रजांसि। 6/33 घोड़ों की टापों से उठी हुई धूल से शत्रुओं के मुकुटों की चमक धुंधली पड़ जाती
मत्स्यध्वजा वायुवशाद्वि दीर्णेमुखैः प्रवृद्धध्वजिनी रजांसि।7/40 वायु के कारण सेना की मछली के आकार वाली झंडियों के मुँह खुल गये थे, उनमें जब धूल घुस रही थी, तब वे ऐसी जान पड़ती थीं। स्वभर्तृनाम ग्रहणाद्बभूव सान्द्रे रजस्यात्मपरावबोधः। 7/41 धूल इतनी गहरी छा गई थी कि जब दोनों ओर के सैनिक अपने-अपने राजाओं का नाम ले-लेकर युद्ध करते थे, तभी वे अपना-पराया समझते थे। आवृण्वतो लोचनमार्गमाजौ रजोऽन्धकारस्य विजृम्भितस्य। 7/42 आँखों के आगे अँधेरा छा देने वाली और युद्धभूमि में फैली हुई धूल के अँधियारे में। स्वं वपुः स किल किल्विषच्छिदां रामपादरजसामनुग्रहः। 11/34 राम के चरणों की धूल सब पापों को हरने वाली थी, इसलिए उसके छूते ही अहल्या को फिर वही पहले वाला सुन्दर शरीर मिल गया। रजांसि समरोत्थानि तच्छोणित नदीष्विव। 12/82
मानो राक्षसों के रक्त की नदी में रणक्षेत्र से उठी हुई धूल पड़ रही हो। 4. रेणु :-(पुं०) [रीयते: णुः नित्] धूल, धूलकण, रेत।
तुल्यगन्धिषु मत्तेभ कटेषु फलरेणवः। 4/47 लौंग के बीज पिसकर वायु के सहारे हाथियों के उन गालों पर चिपक गए, जहाँ उन्हीं के गंध जैसी मद की गंध निकल रही थी। अलकेषु चमूरेणुश्शूर्णप्रतिनिधीकृतः। 4/54 उनके बालों पर रघु की सेना के चलने से उठी हुई जो धूल बैठ गई थी वह ऐसी लगती थी, मानो कस्तूरी का चूरा लगा हुआ हो। वर्धयन्निव तत्कूटानुधूतैर्धातु रेणुभिः। 4/71 मानो अपने घोड़ों की टापों से उठी हुई गेरू आदि धातुओं की लाल-लाल धूल से चोटियों को और भी ऊँची करना चाहते हों।
For Private And Personal Use Only
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
304
कालिदास पर्याय कोश
उत्थापितः संयति रेणुरश्वैः सान्द्रीकृतः स्यन्दनवंश चक्रैः। 7/39 युद्ध-क्षेत्र में घोड़ों की टापों से जो धूल उठी, उसमें रथ के पहियों से उठी हुई धूल मिलकर और भी घनी हो गई। सच्छिन्नमूलः क्षतजेन रेणुस्तस्योपरिष्टात्पवनावधूतः। 7/43 पृथ्वी पर इतना रक्त बहा कि नीचे की धूल दब गई और जो धूल उठ चुकी थी, वह वायु के सहारे इधर-उधर फैलकर। गगनमश्वखुरोद्धतरेणुभिसविता स वितानमिवाकरोत्। 9/50 तब उनके घोड़ों की टापों से इतनी धूल उठी कि आकाश में चंदोवा सा तन गया। रेणुः प्रपेदे पथि पङ्कभावं पङ्कोऽपि रेणुत्वमियाय नेतुः। 16/30 मार्ग की धूल कीचड़ बन गई और कीचड़ भी धूल बन गया।
रथ
1. रथ :-[रम्यतेऽनेन अत्र वा :-रम् + कथन्] यान, वाहन, युद्धरथ।
आसमुद्रक्षिती शानामानाकरथवर्त्मनाम्। 1/5 जिनका राज्य समुद्र के ओर-छोर तक फैला हुआ था, जिनके रथ पृथ्वी से सीधे स्वर्ग तक आया-जाया करते थे। मनोभिरामाः शृण्वन्तौ रथनेमिस्वनोन्मुखैः। 1/39 कहीं तो रथ की गड़गड़ाहठ सुनकर बहुत से मोर अपना मुँह ऊपर उठाकर दुहरे मनोहर। तामवारोहयत्पत्नी रथादवततार च। 1/54 पहले तो उन्होंने अपनी पत्नी को रथ से उतारा और फिर स्वयं भी रथ से उतर पड़े। श्रोत्राभिराम ध्वनिना रथेन स धर्मपत्नी सहितः सहिष्णुः। 2/72 सहनशील राजा दिलीप अपनी पत्नी के साथ जिस रथ पर चढ़कर अयोध्या को चले, उसकी ध्वनि कानों को बड़ी मीठी लग रही थी। दिवं मरुलानिव भोक्ष्यते भुवं दिगन्तविश्रान्तरथो हि तत्सुतः। 3/4 भविष्य में उसका पुत्र भी संपूर्ण पृथ्वी पर उसी प्रकार राज करे, जैसे इन्द्र स्वर्ग पर राज करते हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
पुनः पुनः सूतनिषिद्धचापलं हरन्तमश्वं रथरश्मिसंयतम् । 3/42
वह घोड़ा भी उनके रथ के पीछे बंधा हुआ, तुड़ाकर भागने का यत्न कर रहा है, जिसे इन्द्र का सारथी बार-बार सँभालने का यत्न कर रहा है। निवर्तयामास रथं सविस्मयः प्रचक्रमे च प्रतिवक्तुमुत्तरम् । 3/47
इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ और अपना रथ घुमाकर वे बोले ।
art पश्चाद्रादीति चतुः स्कन्धेव सा चमूः । 4 / 30
305
सबसे पीछे रथ आदि की सेना चली आ रही थी । रघु की सेना मानो इस प्रकार चार भागों में बँटी हुई चल रही थी ।
रथवर्त्मरजोऽप्यस्य कुत एव पताकिनीम् । 4/82
जब वह रथों के पहियों से उठी हुई धूल से ही घबरा गया, तो फिर सेना से लड़ता ही क्या।
इति जित्वा दिशो जिष्णुर्व्यवर्तत रथोद्धतम् । 4 / 85
इस प्रकार विजयी रघु सारी पृथ्वी को जीतकर अपनी राजधानी अयोध्या को लौटे, तो उनके रथ के पहियों से उठी हुई ।
अथाधिशिश्ये प्रयतः प्रदोषे रथं रघुः कल्पित शस्त्रगर्भम् । 5 / 28
रघु ने सोचा कि उसी रथ पर चढ़कर मैं अकेला ही जीत लूँगा। यह निश्चय करके वे सांझ होते ही अस्त्र-शस्त्र ठीक करके रथ में ही जाकर सो रहे । सच्छिन्नबन्ध द्रतुयुग्मशून्यं भगनाक्षपर्यस्त रथं क्षणेन । 5/49
उस विशाल जंगली हाथी को देखते ही सब घोड़े भी रस्सा तुड़ा- तुड़ाकर भाग चले, इस भगदड़ में जिन रथों के धुरे टूट गए, वे जहाँ-तहाँ गिर पड़े थे । रथो रथाङ्गध्वनिना विजज्ञे विलोल घण्टा क्वणितेन नागः । 7/41 उस युद्ध क्षेत्र में पहियों का शब्द सुनकर ही वे समझ पाते थे कि रथ आ रहा है और अपना पराया तब समझते थे जब ।
प्रहारमूर्च्छापगमे रथस्था यन्तृनुपालभ्यनिवर्तिताश्वान् 7/44
जो योद्धा चोट लगने से मूर्छित हो गए थे, उनको उनके सारथी रथ पर डालकर लौट आए।
For Private And Personal Use Only
सोऽस्वजैश्छन्नरथः परेषां ध्वजाग्रमात्रेण बभूव लक्ष्यः । 7/60
इन राजाओं ने अज पर इतने अस्त्र बरसाए कि उनका रथ ढक गया, अज का पता उनके रथ की पताका के सिरे को देखकर ही मिलता था ।
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
306
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
रथतुरगजीभिस्तस्य रूक्षालकाग्रा समरविजयलक्ष्मीः सैव मूर्ता बभूव ।
7/70
उनके रथ के घोड़ों की टापों से उठी हुई धूल से इन्दुमती के केश भर गए थे और वह साक्षात् विजय लक्ष्मी जैसी जान पड़ रही थी
I
अवनिमेकरथेन वरूथिना जितवतः किल तस्य धनुर्भृतः । 9/11
जिस समय अकेले सुरक्षित रथ पर चढ़े धनुषधारी दशरथजी पृथ्वी जीतते हुए चलते थे।
हरियुग्मं रथं तस्मै प्रजिघाय पुरंदरः । 12/84
इन्द्र ने अपना वह रथ भेजा, जिसमें पीले रंग के घोड़े जुते हुए थे । राघवोरथंप्राप्तां तमाशां च सुरद्विषाम् । 12 / 96
पर राम ने उस शतघ्नी को रथ तक पहुँचने के पहले ही समाप्त कर डाला, यह देखकर राक्षसों की रही-सही आशा भी भंग हो गई। नामाङ्करावणशराङ्कितकेतुयष्टिमूर्ध्वं रथं हरिसहस्रयुजं निनाय । 12 / 103 अपना सहस्रों घोड़ों वाला रथ लेकर स्वर्ग में चला गया, उस रथ की ध्वजा पर अभी तक रावण के नाम खुदे हुए बाणों के चिह्न पड़े हुए थे। सानुप्लवः प्रभुरपि क्षणदाचराणां भेजे रथान्दशरथप्रभवानुशिष्टः । 13/75 राम की आज्ञा से विभीषण और उनके साथी भी रथों पर चढ़ गए, वे रथ यद्यपि मनुष्यों ने बनाए थे, फिर भी वे इतने सुन्दर थे ।
सौमित्रिणा सावरजेन मन्दमाधूतनाल व्यजनो रथस्थः। 14/11 लक्ष्मण और शत्रुघ्न रथ पर बैठे हुए राम पर चँवर डुला रहे थे । श्वश्रूजनानुष्ठित चारुवेषां कर्णीरथस्थां रघुपत्नीम् । 14 / 13
सीताजी उस समय रथ पर बैठी चल रही थीं और जिन्हें सासों ने बड़े मनोहर ढंग से वस्त्रों और आभूषणों से सजा रखा था।
रथात्स यन्त्रा निगृहीतवाहात्तां भातृजायां पुलितेऽवतार्य । 14/52 गंगाजी के तट पर पहुँच कर सारथी ने रथ की रास खींच ली और लक्ष्मण ने सीताजी को रेती पर उतार लिया।
विरराज रथप्रष्ठैर्वालखिल्यैरिवांशुमान् । 15/10
जैसे रथ पर चढ़े हुए सूर्य को बालखिल्य नाम के ऋषि लोग मार्ग दिखाते चलते हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रथस्वनोत्कण्ठमृगे वाल्मीकीये तपोवने । 15/11
वाल्मीकि जी के आश्रम के मृग उनके रथ के शब्द को सुनकर बड़े चाव से उधर देखने लगे थे ।
307
प्राञ्जलिर्मुनिमामन्त्र्य प्रातर्युक्त रथो ययौ । 15/14
अगले दिन तड़के ही वे हाथ जोड़कर मुनि से आज्ञा लेकर रथ पर चढ़कर आगे बढ़े।
2. स्यन्दन :- - [ स्यन्द् + ल्युट् ] युद्धरथ, गाड़ी, रथ ।
स्निग्धगम्भीर निर्घोषमेकं स्यन्दनमास्थितौ । 1 / 36
सेना रथोदारगृहा प्रयाणे तस्याभवज्जंगमराजधानी । 16 / 26
यात्रा के समय चलती हुई कुश की सेना चलती-फिरती राजधानी के समान लगती थी, रथ ऊँची-ऊँची अटारियों जैसे लग रहे थे ।
जिस रथ पर वे दोनों बैठे हुए थे, वह मीठी-मीठी घन-घनाहट करता हुआ चला
जा रहा था ।
मृगद्वन्द्वेषु पश्यन्तौ स्यन्दना बद्धदृष्टिषु । 1/40
हरिणों के जोड़े रथ की ओर एकटक देख रहे हैं।
रजोभिः स्यन्दनोद्धूतैर्गजैश्च घनसंनिभैः । 4/49
रघु के रथों के चलने से जो धूल ऊपर उड़ी, उसने आकाश को पृथ्वी बना दिया सेना के काले-काले हाथी बादल जैसे लग रहे थे ।
उत्थापितः संयति रेणुरश्वैः सान्द्रीकृतः स्यन्दनवंशचक्रैः । 7/39
युद्ध-क्षेत्र में घोड़ों की टापों से जो धूल उठी, उसमें रथ के पहियों से उठी धूल मिलकर और भी घनी हो गई ।
मायाविकल्प रचितैरपि ये तदीयैर्न स्यन्दनैस्तुलितकृत्रिम भक्ति शोभाः ।
13/75
राक्षसों की माया से बनाए हुए रथ भी उनकी सुन्दरता के आगे पानी भरते थे । रथी
For Private And Personal Use Only
1. रथी : - [ रथ् + इनि] रथयुक्त योद्धा, रथ में बैठकर युद्ध करने वाला योद्धा । पत्तिः पदातिं रथिनं रथेशस्तुरंगसादी तुरगाधि रूढम् । 7/37 पैदल-पैदलों से भिड़ गए, रथवाले रथवालों से जूझ गए, घुड़सवार घुड़सवारों से उलझ पड़े।
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
308
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
रथी निषङ्गी कवची धनुष्मान्दृप्तः स राजन्यकमेकवीरः । 7/56
वैसे ही घोड़े पर चढ़े, तूणीर बाँधे स्वाभिमानी वीर अज अकेले ही शत्रुओं की सेना को चीरते चले जा रहे थे ।
2. रथेश :- [ रम्यतेऽनेन अत्र वा :-रम् + कथन् + ईश : ] रथ में बैठकर युद्ध करने वाला योद्धा ।
पत्तिः पदातिं रथिनं रथेशस्तुरंग सादी तुरगाधि रूढम् | 7/37
पैदल-पैदलों से भिड़ गए, रथवाले - रथवालों से जूझ गए, घुड़सवार घुड़सवारों उलझ पड़े।
राजगण
1. राजगण : - [राज् + क्विप् + गणः] राजाओं का समूह, राजाओं का कुल । तमुद्वहन्तं पथि भोजकन्यां रुरोध राजन्यगणः स दृप्तः । 7/35
जब अज इन्दुमती को साथ लिए चले जा रहे थे, उस समय उन अभिमानी राजाओं ने अज को उसी प्रकार रोक लिया ।
2. राजलोक : - [राज् + क्विप् + लोकः ] राजाओं का समूह।
स राजलोकः कृतपूर्व संविदा रम्भसिद्धौ समयोपलभ्यम् । 7/31
इन राजाओं ने मिलकर पहले ही निश्चय कर लिया था कि जब अज इन्दुमती को लेकर चलें, तो उन्हें घेर लिया जाय ।
राजलक्ष्मी
1. नराधिपश्री : - [ नृ + अच् + अधिप + श्री : ] राजा का यश या कीर्ति, राजा का सौभाग्य या समृद्धि ।
साधु दृष्टशुभ गर्भलक्षणा प्रत्यपद्यत नराधिपश्रियम्। 19 / 55
राजा की उस पटरानी को सिंहासन पर बैठा दिया, जिसमें गर्भ के शुभचिह्न दिखाई दे रहे थे ।
For Private And Personal Use Only
2. पार्थिवर्द्धि : - राजा का यश या कीर्ति, राजलक्ष्मी ।
स साधु साधारणपार्थिवर्द्धेः स्थित्वा पुरस्तात्पुरुहूत भासः । 16/5 अपनी संपत्ति से सज्जनों का उपकार करने वाले, इन्द्र के समान तेजस्वी कुश के आगे वह स्त्री ।
3. पार्थिव श्री : - [ पृथिवी + अण् + श्री: ] राजा का सौभाग्य या समृद्धि ।
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
309
पार्थिव श्रीर्द्वितीयेव शरत्पङ्कजलक्षणा । 4/14
उस समय दूसरी राजलक्ष्मी के समान शरदऋतु आ गई थी, जिसमें चारों ओर कमल खिल गए थे ।
4. राजलक्ष्मी : - [राज् + क्विप् + लक्ष्मी / राज् + कनिन्, रञ्जयति रञ्जु + कनिन् नि०वा० + लक्ष्मी] राजा का सौभाग्य या समृद्धि, राजा की कीर्ति या महिमा । सन्यस्तचिह्नामपि राजलक्ष्मीं तेजोविशेषानुमितां दधानः । 2/7
उन्होंने गौ की सेवा के व्रत के कारण यद्यपि राजचिह्नों को छोड़ दिया था फिर भी उनके शरीर और मुख के तेज को देखकर कोई भी कह सकता था कि ये सम्राट ही हैं।
5. राज्यश्री : - [ राजन + यत्, न लोपः + श्रीः] राजा का सौभाग्य या समृद्धि, राजा की कीर्ति या महिमा ।
आसीदति शयप्रेक्ष्यः स राज्यश्री वधूवरः । 17/25
राजा अतिथि उस समय ऐसे सुन्दर दिखाई देते थे, मानो राजलक्ष्मी रूपी बहू के दूल्हे हों।
6. वंशश्री : - [ वमति उद्गिरति वम् + श तस्य नेत्वम् + श्री] राजलक्ष्मी । तस्यानलौजास्तनयस्तदन्ते वंशश्रियं प्राप नलाभिधानः । 18 /5 उनके पीछे उनके अग्नि के समान तेजस्वी पुत्र नल राजा हुए।
7. सुरश्री : - [ सुष्ठुराति ददात्यभीष्टम् :- सु + रा क + श्री] देवताओं की राजलक्ष्मी ।
चुकोप तस्मै स भृशं सुरश्रियः प्रसह्य केशव्यपरोपणादिव । 3/56
उससे इन्द्र को ऐसा क्रोध हुआ, मानो किसी ने बलपूर्वक देवताओं की राजलक्ष्मी के सिर के बाल काट लिए हों ।
राजा
1. अधिप :- [ अधि + पा + क] शासक, राजा, प्रधान ।
अथ प्रजानामधिपः प्रभाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम्। 2/1
For Private And Personal Use Only
दूसरे दिन प्रात:काल राजा दिलीप की पत्नी सुदक्षिणा ने पहले फूल, माला-चन्दन लेकर ।
विलपन्निति कोशलाधिपः करुणार्थ ग्रथितं प्रियां प्रति । 8/70
जब कोशल नरेश अज अपनी प्रिया के लिए इस प्रकार शोक कर रहे थे ।
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
310
कालिदास पर्याय कोश
2. अधिपति : - [ अधि + पा + क, डति वा] शासक, राजा, प्रधान । किमत्र चित्रं यदि कामसूर्भूर्वृत्ते स्थितस्याधिपतेः प्रजानाम् । 5/33 धर्मात्मा राजाओं के लिए यदि पृथ्वी उनकी इच्छा के अनुसार धन दे तो कोई अचरज नहीं है।
सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य लोकान्तर गीतकीर्तिम् । 6/45
तब सुनन्हा, राजकुमारी को मथुरा के उस राजा सुषेण के आगे ले गई सिजीक कीर्ति स्वर्ग के देवता भी गाते थे ।
3. अधिराज :- [ अधि + राज् + क्विप्, राजन् + टच् वा ] सम्राट्, राजा, प्रधान । प्रियंवदात्प्राप्तमसौ कुमारः प्रायुंक्त राजस्वधि राजसूनुः । 7/61
तब महाराज रघु के पुत्र, कामदेव के समान सुन्दर, सावधान अज ने प्रियंवद का दिया हुआ ।
4. अवनिपति : - [ अब् + अनि, पक्षे ङीष् + पतिः ] भूस्वामी, राजा । हरिरिव युगदीघैर्दोर्भिरंशौस्तदीयैः पतिरवनिपतीनां तैश्चकाशे चतुर्भिः ।
10/86
जैसे रथ के जुए के समान अपनी लम्बी-लम्बी चार भुजाओं से विष्णु भगवान् शोभा देते हैं, वैसे ही राजा दशरथ भी अपने चार सुयोगय पुत्रों से सुशोभित हुए। 5. अर्थपति : - [ ऋ + थन् + पतिः] धन का स्वामी, राजा ।
अर्थ्यामर्थपतिर्वाचमाददे वदतां वरः । 1/59
राजा दिलीप जहाँ धनपति बने थे, वहाँ बातचीत करने की कला में बड़े चतुर थे। इसलिए वशिष्ठ जी के उत्तर में बड़ी अर्थ भरी वाणी में कहा । भूयः स भूतेश्वरपार्श्ववर्ती किंचिद्विहस्यार्थपतिं बभाषे । 2/46 उजाला करता हुआ कुछ हँसकर वह सिंह राजा से बोला । बलनिषूदनमर्थपतिं च तं श्रमनुदं मनुदण्ड धरान्वयम् । 9 / 3 दूसरे हैं मनुवंशी राजा दशरथ, जिन्होंने सुकर्मियों को धन देकर उनका पालन पोषण किया ।
स नैषधस्यार्थ पतेः सुतायामुत्पादयामास निषिद्ध शत्रुः । 18 / 1 शत्रुओं का नाश करने वाले राजा अतिथि की रानी निषध - राज की पुत्री थीं। 6. अवनिपाल : - [ अव् + अनि, पक्षे ङीष् + पालः] भूस्वामी, राजा । अथ पथि गमयित्वा क्लृप्तरम्योपकार्ये कतिचिदवनिपालः शर्वरी शर्वकल्पः । 11/93
For Private And Personal Use Only
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
311 तब शिव के समान राजा दशरथ ने कुछ रातें तो उस मार्ग में बिताईं, जहाँ उनके
लिए सुन्दर डेरे तने हुए थे। 7. ईश्वर :-राजा, राजकुमार।
रघुमेव निवृत्तयौवनं तममन्यन्त नवेश्वरं प्रजाः। 8/5 वहाँ भी प्रजा ने भी अज के राजा होने पर यही समझा, मानो रघु ही फिर से युवा हो गए हों। विप्रोषितकुमारं तद्राज्य मस्तमितेश्वरम्। 12/11 अयोध्या के राजा स्वर्ग चले गए और राजकुमार भी राज्य छोड़कर चल दिए, तो
उन्होंने झट अयोध्या पर धावा बोल दिया। 8. क्षितिप :-[क्षि + क्तिन् + प:] राजा।
कुशलविरचितानुकूलवेषः क्षितिप समाजमगात्स्वयंवरस्थम्। 5/76 उनके चतुर सेवकों ने उन्हें बहुत सुंदर वस्त्र पहनाए, इस प्रकार सज-धजकर वे स्वयंवर के राज-समाज की ओर चल दिए। शल्यप्रोतं प्रेक्ष्य सकुम्भं मुनिपुत्रं तापादन्तः शल्य इवासीक्षितिपोऽपि।
9/75 राजा दशरथ ने देखा कि नरकट की झाड़ियों में बाण से बिंधा हुआ, घड़े पर झुका हुआ किसी मुनि का पुत्र पड़ा है, उसे देखकर उन्हें लगा, मानो उन्हें भी
बाण लगा हो। 9. क्षितिपति :-[क्षि + क्तिन् + पति:] राजा।
प्रमुदित वर पक्षमेकतस्तत्क्षितिपतिमण्डलमन्यतो वितानम्। 6/86 स्वयंवर के मंडप में एक ओर अज के साथी हँसते हुए खड़े थे, और दूसरी ओर उदास मुँह वाले राजा लोग। ननु शब्दपतिः क्षितिरहं त्वयि मे भावनिबन्धना रतिः। 8/52
मैं पृथ्वी का पति तो नाम भर का हूँ, मेरा सच्चा प्रेम तो केवल तुम से है। 10. क्षितिपाल :-[क्षि + क्तिन् + पाल:] राजा। शिलोच्चयोऽपि क्षितिपालमुच्चैः प्रीत्या तमेवार्थमभषतेव। 2/51 जब राजा दिलीप से इतना कहकर सिंह चुप हो गया, पर्वत ने भी प्रसन्न होकर सिंह की ही बातों का समर्थन किया। काकुत्स्थमुद्दिश्य समत्सरोऽपि शशाम तेन क्षितिपाल लोकः। 7/3
For Private And Personal Use Only
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
312
www. kobatirth.org
कालिदास पर्याय कोश
यों तो जितने हारे हुए राजा थे, वे सभी अज से मन ही मन कुढ़ते थे, किंतु इन्द्राणी के रहने से उनका भी क्रोध ठंडा पड़ गया ।
11. क्षितीश :- [क्षि + क्तिन् + ईश: ] राजा ।
आसमुद्रक्षितीशानामानाकथवर्त्मनाम् । 1/5
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जिन राजाओं का राज्य समुद्र के ओर-छोर तक फैला हुआ था, जिनके रथ पृथ्वी से सीधे स्वर्ग तक आया-जाया करते थे।
इत्थं क्षितीशेन वशिष्ठधेनुर्विज्ञापिता प्रीततरा बभूव | 2/67
राजा दिलीप की यह बात सुनकर तो नंदिनी बहुत ही प्रसन्न हुई । इति क्षितीशो नवतिं नवाधिकां महाक्रतूनां महनीयशासनः । 3/69 इस प्रकार राजा दिलीप की आज्ञा कोई टाल नहीं सकता था, उन्होंने निन्यानवें यज्ञों की सीढ़ी सी बना ली थी।
तमध्वरे विश्वजितं क्षितीशं निःशेषविश्राणित कोषजातम् । 5/1 जिस समय राजा रघु विश्वजित यज्ञ में सब कुछ दान किए बैठे थे। तस्याः प्रकामं प्रियदर्शनोऽपि न स क्षितीशो रुचये बभूव । 6/44 वैसे ही वह सुन्दर राजा भी इन्दुमती के मन में नहीं जँचा । इत्यचिवानुपहता भरण : क्षितीशं श्लाघ्यो भवान्स्वजन इत्यनुभाषितारम् ।
16/86
यह कहकर कुमुद ने वह आभूषण राजा कुश को दे दिया, राजा कुश बोले :आज से आप मेरे आदरणीय संबंधी हुए ।
12. क्षितीश्वर : - [क्षि + क्तिन् + ईश्वरः ] राजा ।
, उसे एकांत
तदाननं मृत्सुरभि क्षितीश्वरो रहस्युपाघ्राय न तृप्तिमाययौ । 3 / 3 वैसे ही मिट्टी खाने से रानी सुदक्षिणा का जो मुँह सोंधा हो गया था, - सूँघकर भी राजा दिलीप अघाते नहीं थे । कौशिकेन स किल क्षितीश्वरो राममध्वरविघातशान्तये ! | 11/1 एक दिन विश्वामित्र जी राजा दशरथ के पास आए और उन्होंने कहा कि मेरे यज्ञ की रक्षा के लिए काकपक्ष-धारी राम को हमारे साथ भेज दीजिए । अन्वयुङ्ग गुरुमीश्वरः क्षितेः स्वन्तमित्यलघयत्स तद्व्यथाम् । 11/62 इस पर गुरुजी ने कहा :- चिंता की कोई बात नहीं है, इसका फल अच्छा ही होगा। यह सुनकर राजा दशरथ के मन में कुछ ढाढ़स बँधा।
For Private And Personal Use Only
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
313
13. जनेश्वर :-[जन् + अच् + ईश्वरः] राजा।
राघवान्वितमुपस्थितं मुनिं तं निशम्य जनको जनेश्वरः। 11/35 जब राजा जनक को यह समाचार मिला कि विश्वामित्र जी के साथ राम और लक्ष्मण भी आए हुए हैं। इत्यारोपित पुत्रास्ते जननीनां जनेश्वराः। 15/91
इस प्रकार पुत्रों को राज्य देकर उन चारों राजाओं ने अपनी स्वर्गीया माताओं के। 14. दण्डधर :-[दण्ड् + अच् + धरः] राजा।
बल निषूदनमर्थपतिं च तं श्रमनुदं मनुदण्डधरान्वयम्। 9/3 दूसरे हैं मनुवंशी राजा दशरथ, जिन्होंने सुकर्मियों को धन देकर उनका पालन-पोषण
किया। 15. धराधिप :-[धृ + अच् + टाप् + अधिपः] राजा।
इति विस्मृतान्यकरणीयमात्मनः सचिवावलम्बितधुरं धराधिपम्। 9/69 इस पकार अपना सब काम भूले हुए और राज्य का भार मंत्रियो पर छोड़कर वन
में आए हुए राजा दशरथ का मन। 16. नरदेव :-[7 + अच् + देवः] राजा।
स पूर्वतः पर्वतपक्ष शातनं ददर्श देवं नरदेव संभवः। 3/42 राजा रघु क्या देखते हैं कि पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र स्वयं उस घोड़े को। अथ स्तुते वन्दिभिरन्वयज्ञे सोमार्कवंश्ये नरदेवलोके। 6/8 इतने में सब राजाओं का वंश जानने वाले भाटों ने सूर्य और चन्द्र के वंश में
उत्पन्न होने वाले उन सब राजाओं की प्रशंसा की। 17. नरपति :-[नृ + अच् + पतिः] राजा।
नरपति कुल भूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी। 2/75 वैसे ही रानी सुदक्षिणा ने राजा दिलीप का वंश चलाने के लिए गर्भ धारण किया। नरपतिश्चकमे मृगयारतिं स मधुमन्मधुमन्मथ संनिभिः। 9/48 कामदेव के समान सुन्दर राजा दशरथ ने भी बसंत ऋतु का आनन्द लिया और फिर उनके मन में आखेट की इच्छा होने लगी। नरपति रति वाहयां बभूव क्वचिदसमेतपरिच्छद स्त्रियामाम्। 9/70 राजा को यह आखेट का व्यसन ऐसा लगा कि उन्हें पूरी रात बिना किसी सेवक के और बिना किसी स्त्री के अकेले ही काटनी पड़ी।
For Private And Personal Use Only
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
314
कालिदास पर्याय कोश 18. नरलोकपाल :-[नृ + अच् + लोकपाल:] राजा।
वैमानिकानां मरुतापमश्यदाकृष्ट लीलान्नरलोकपालान्। 6/1
मंचों पर बैठे हुए राजा ऐसे लग रहे थे, जैसे विमानो पर देवता बैठे हों। 19. नराधिप :-[नृ + अच् + अधिपः] राजा।
स्थाने भवानेकनराधिपः सन्नकिंचिनत्वं मखजं व्यनक्ति। 5/16 चक्रवर्ती राजा होते हुए भी यज्ञ में सब कुछ देकर और दरिद्र होकर। समतया वसुवृष्टि विसर्जनैर्नियमनाद सतां च नराधिपः। 9/6 राजा दशरथ सबसे एक सा व्यवहार करते थे, जैसे कुबेर धन बरसाते हैं, वैसे ही वे भी धन बाँटते थे। अथ समाववृते कुसुमैर्नवैस्तामेव सेवितुमेकनराधिपम्। 9/24
उन एकच्छत्र राजा का अभिनंदन करने के लिए नये-नये फूलों की भेंट लेकर। 20. नरेन्द्र :-[नृ + अच् + इन्द्रः] राजा।
आपीनभारोद्वहनप्रयत्नाद्गृष्टिगुरुत्वाद्वपुषो नरेन्द्रः। 2/18 नंदिनी अपने थन के भारी होने से धीरे-धीरे चलती थी और राजा दिलीप भारी शरीर होने के कारण धीरे-धीरे चलते थे। नरेन्द्रकन्यास्तमवाप्य सत्पतिं तमोनुदं दक्षसुता इवा बभुः। 3/33 जैसे दक्ष की कन्याएँ चन्द्रमा जैसे पति को पाकर प्रसन्न हुई थीं, वैसे ही राजकुमारियाँ भी रघु जैसे प्रतापी पति को पाकर प्रसन्न हुईं। नरेन्द्रमूलायतनादनन्तरं तदास्पदं श्रीर्युवराजसंज्ञितम्। 3/36 वैसे ही राज्यलक्ष्मी भी बूढ़े राजा दिलीप को छोड़कर धीरे-धीरे रघु पर पहुँच गई। नरेन्द्रसूनुः प्रतिसंहरनिषु प्रियंवदः प्रत्यवदत्सुरेश्वरम्। 3/64 इन्द्र के ये वचन सुनकर राजा दिलीप के पुत्र रघु ने तूणीर से आधे निकाले हुए बाण को फिर उसमें डाल दिया। शरीर मात्रेण नरेन्द्र तिष्ठन्नाभासि तीर्थ प्रतिपादितर्द्धिः। 5/15 हे राजन्! आपने सब धन अच्छे लोगों को दे डाला है और केवल यह शरीर भर आपके पास बचा है। निपेतुरन्तः करणैर्नरेन्द्रा देहैः स्थिताः केवलमासनेषु। 6/11 उसकी सुन्दरता देखते ही सब राजाओं के मन तो उसमें चले गए, केवल उनके शरीर भर मंचों पर रह गए।
For Private And Personal Use Only
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
315
रघुवंश
नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्ण भावं स स भूमिपालः। 6/67 वैसे ही जिन-जिन राजाओं को छोड़कर इन्दुमती आगे बढ़ गई उनका मुँह उदास पड़ गया। ततः सुनन्दावचनावसाने लज्जा तनूकृत्य नरेन्द्रकन्या। 6/80 जब सुनन्दा कह चुकी तब राजा की पुत्री इन्दुमती ने संकोच छोड़कर अपनी हँसती हुई आँखें अज पर डालीं। रघोः कुलं कुड्मलपुष्करेण तोयेन चाप्रौढनरेन्द्र मासीत्। 18/37 इस बालक से राजा रघु का कुल वैसे ही शोभा देने लगा, जैसे कमल की कली से ताल शोभा देता है। तस्यास्तथा विधनरेन्द्रविपत्ति शोका दुष्णैर्विलोचन जलैः प्रथमाभि तप्तः।
19156 राजा की ऐसी दुःखद मृत्यु से महारानी की आँखों के गरम-गरम आँसुओं से
तपे हुए गर्भ पर जब। 21. नरेश्वर :-[नृ + अच् + ईश्वरः] राजा।
हेपिता हि बहवो नरेश्वरास्तेन तात धनुषा धनुर्भृतः। 11/40 इस धनुष के उठाने में बड़े-बड़े धनुषधारी राजा अपना सा मुँह लेकर रह गये। तमध्वराय मुक्ताश्वं रक्षः कपि नरेश्वराः। 15/58 कुछ दिन पीछे राम ने अश्वमेध यज्ञ के लिए घोड़ा छोड़ा, विभीषण आदि
राजाओं ने राम के आगे धन की वर्षा कर दी। 22. नरोत्तम :-[न + अच् + उत्तमः] राजा, विष्णु का विशेषण।
निमिमील नरोत्तम प्रिया हृत चंद्रा तमसेव कौमुदी। 8/37 राजा अज की प्रियतमा ने व्याकुल होकर आँखें मूंद ली, मानो चंद्रमा को राहु ने ग्रस लिया हो। ता नराधिप सुता नृपात्मजैस्ते च ताभिरगमन्कृतार्थताम्। 11/56 उन चारों राजकुमारों को पाकर राजकन्याएँ और राजकन्याओं को पाकर राजकुमार निहाल हो गए। साधु दृष्ट शुभगर्भ लक्षणा प्रत्यपद्यत नराधिपश्रियम्। 19/55 राजा की उस पटरानी को सिंहासन पर बैठा दिया, जिसमें गर्भ के शुभ लक्षण दिखाई दे रहे थे।
For Private And Personal Use Only
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
316
कालिदास पर्याय कोश
23. नृप :-[नरान् पाति रक्षति :-नृ + पा + क] राजा।
भीम कान्तैनूपगुणैः स बभूवोपजीविनाम्। 1/16 राजा दिलीप से भी उनके सेवक डरते थे क्योंकि वे न्याय में बड़े कठोर थे, किन्तु राजा दिलीप इतने दयालु, उदार और गुणशाली थे, कि उनके सेवक उनकी कृपा पाने के लिए लालायित रहते थे। अलक्षिताभ्युत्पतनो नृपेण प्रसह्य सिंहः किल तां चकर्ष। 2/27 उस समय राजा दिलीप पर्वत की शोभा देख रहे थे, इसलिए उन्हें दिखाई ही नहीं पड़ा कि उस पर सिंह कब झपटा। रश्मिष्विवादाय नगेन्द्र सक्तां निवर्तयामास नृपस्य दृष्टिम्। 2/28 इस प्रकार राजा की दृष्टि को पर्वत की शोभा से इस प्रकार खींच लिया, जैसे किसी ने रस्सी में बांधकर खींच लिया हो। तस्याः प्रसन्नेन्दु मुखः प्रसादं गुरुर्नृपाणां गुरवे निवेद्य। 2/68 निर्मल चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखवाले राजाधिराज दिलीप जब वशिष्ठ जी के पास पहुंचे, तब उनकी प्रसन्नता को देखते ही वशिष्ठ जी सब बातें पहले से समझ गए। धेनुं सवत्सां च नृपः प्रतस्थे सन्मंगलोदातर प्रभावः। 2/71 राजा ने सबसे पीछे बछड़े के साथ बैठी नुई नंदिनी की परिक्रमा की, महर्षि के आशीर्वाद पाने से उनका तेज और भी अधिक बढ़ गया था। नदीमिवान्तः सलिलां सरस्वतीं नृपः ससत्वां महिषीममन्यत। 3/9 रराजा दिलीप अपनी गर्भिणी रानी को वैसी ही महत्त्वशाली समझते थे, जैसे भीतर ही भीतर जब हाने वाली सरस्वती नदी। तयोपचाराञ्जलिखिन्नहस्तया ननन्द परिप्लवनेत्रया नृपः। 3/11 राजा को प्रणाम करने के लिए जब वे हाथ जोड़ती तो हाथ ढीले हो जाते थे और थकावट से उनकी आँखों में बार-बार आँसू आ जाते थे, ये सब देखकर राजा बड़े प्रसन्न होते थे। निवातपद्मस्तिमितेन चक्षुषा नृपस्य कान्तं पिबतः सुताननम्। 3/17 राजा दिलीप तत्काल भीतर गए और जैसे वायु के रुक जाने पर कमल निश्चल हो जाता है, वैसे ही वे एकटक होकर अपने पुत्र का मुँह देखने लगे। तथा नृपः सा च सुतने मागधी ननन्दतुस्तत्सदृशेन तत्समौ। 3/23
For Private And Personal Use Only
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
317
वैसे ही राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा भी उन दोनों के समान तेजस्वी पुत्र
को
पाकर बड़े प्रसन्न हुए।
उपान्तसंमीलित लोचनो नृपश्चिरात्सुत स्पर्शरसज्ञतां ययौ । 3 / 26
उस समय आँख बंद करके राजा दिलीप बहुत देर तक अपने पुत्र के स्पर्श के आनन्द लेते ही रह जाते थे ।
निसर्ग संस्कार विनीत इत्यसौ नृपेण चक्रे युवराजशब्द भाक् । 3 / 35 जब राजा दिलीप ने यह देखा कि शिक्षा आदि संस्कारों से रघु नम्र हो गए हैं, तो उन्होंने रघु को युवराज बना दिया।
नृपस्य नातिप्रमनाः सदोगृहं सुदक्षिणासूनुरपि न्यवर्तत । 3/67 सुदक्षिणा के पुत्र रघु भी अपने पिता राजा दिलीप की सभा में लौट आए। त्याजितै: फल मुह्वातैर्भग्नैश्च बहुधा नृपैः । 4/33
राजा रघु ने किसी राजा से कर लेकर उसे छोड़ दिया, किसी का राज्य उजाड़ फेंका और किसी को लड़ाई में ध्वस्त कर डाला।
गृहीतप्रति मुक्तस्य स धर्मविजयी नृपः । 4/ 43
राजा रघु तो धर्मयुद्ध करते थे इसलिए उन्होंने राजा को बंदी तो बना लिया, पर अधीनता स्वीकार कर लेने पर छोड़ भी दिया।
गुरुप्रदेयाधिक निःस्पृहोऽर्थी नृपोऽर्थिकामादधिक प्रदश्च । 5/31 कौत्स इतने संतोषी थे कि आवश्यकता से अधिक लेने को उद्यत नहीं थे तो राजा माँग से अधिक धन देने पर तुले हुए थे ।
काकुत्स्थमालोकयतां नृपाणां मनो बभूवेन्दु मती निराशम् । 6 / 2 जब दूसरे राजाओं ने अज को देखा तो उन्होंने इन्दुमती को पाने की सब आशाएँ छोड़ दीं।
ततो नृपाणां श्रुतवृत्तवंशा पुंवत्प्रगल्भा प्रतिहाररक्षी । 6 /20
इसी बीच पुरुषों के समान ठीक और राजाओं के वंशों की कथा जानने वाली रनिवास की प्रतिहारी सुनंदा ।
कामं नृपाः सनतु सहसशोऽन्यै राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम् । 6 / 22
यद्यपि संसार में सहस्रों राजा हैं किन्तु पृथ्वी इन्हीं के रहने से राजा वाली कहलाती है।
ततः परं दुष्प्रसहं द्विषद्भिर्नृपं नियुक्ता प्रतिहार भूमौ । 6 / 31
For Private And Personal Use Only
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
318
कालिदास पर्याय कोश वहाँ से आगे बढ़कर प्रतिहारी सुनंदा ने एक दूसरे राजा को दिखाया, जिससे सब शत्रु काँपते थे। नृपं तमावर्त मनोवनाभिः सा व्यत्य गादन्यवधू वित्री। 6/52 पानी की भँवर के समान गहरी नाभिवाली और किसी अन्य से विवाह की इच्छा वाली इन्दुमती राजा सुषेण को छोड़कर उसी प्रकार आगे बढ़ गई। इन्दीवरश्यामतनुनूपोऽसौ त्वं रोचनागौर शरीर यष्टिः। 6/65 फिर ये राजा नील कमल के समान साँवले हैं और तुम गोरोचन जैसी गोरी हो। इक्ष्वाकुवंश्यः ककुदं नृपाणां ककुत्स्थ इत्याहितलक्षणोऽभूत्। 6/71 देखो! इक्ष्वाकु वंश में, राजाओं में श्रेष्ठ और सुन्दर लक्षणों वाले काकुत्स्थ नाम के राजा हो गए हैं। इति समगुण योगप्रीत यस्तत्र पौरा: श्रवण कटु नपाणामेक वाक्यं विवः। 6/85 दूसरे राजा लोग ज्यों-ज्यों समान गुण वाले अज और इन्दुमती का सम्बन्ध हो जाने की बात नगरवासी से सुनते जा रहे थे, त्यों-त्यों मन में कुढ़ते चले जा रहे थे। दुरितैरपि कर्तुमात्मसात्प्रयतन्ते नृपसूनवो हि यात्। 8/2 जिस राज्य को पाने के लिए दूसरे राजकुमार खोटे उपायों का प्रयोग करते हैं। स पुरस्कृत मध्यमक्रमो नमया मास नृपाननुद्धरन्। 8/9 उन्होंने बीच का मार्ग अपनाया और अपने शत्रु राजाओं को राजगद्दी से उतारे बिना ही उनको उसी प्रकार नम्र कर दिया। वसुधेयमवेक्ष्यतां त्वया वसुमत्या हि नृपाः कलत्रिणः। 8/83 सावधान होकर आप पृथ्वी का पालन कीजिए, क्योंकि राजाओं की सच्ची धर्मचारिणी तो पृथ्वी है। नृपा इवोपप्लविनः परेभ्यो धमोत्तरं मध्यममाश्रयन्ते। 13/7 जैसे शत्रुओं से डरते राजा लोग किसी धर्मात्मा और तटस्थ राजा की शरण लेते
हैं।
नृपस्य वर्णाश्रम पालनं यत्स एव धर्मो मनुना प्रणीतः। 14/67 मनु ने कहा है :-राजाओं का धर्म वर्णों और आश्रमों की रक्षा करना है। तामेक भार्यां परिवादभीरो: साध्वीमपि त्यक्तवतो नृपस्य। 14/86
For Private And Personal Use Only
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
319
राजा ने कलंक के डर से अपनी रानी को छोड़ दिया ।
तथेति प्रति पन्नाय विवृता त्मा नृपाय सः । 15/93
राजा राम ने कहा :- अच्छी बात है। तब उसने अपना सच्चा रूप दिखाया और
कहा।
सा यत्र सेना ददृशे नृपस्य तत्रैव समाग्ग्रमतिं चकार । 16 / 29
मार्ग में चलने वाली जितनी भी राजा कुश की सेना की टुकड़ियाँ थीं, वे सब पूरी सेना ही प्रतीत होती थीं ।
ततो नृपेणानु गताः स्त्रियस्ता भ्राजिष्णुना सातिशयं विरेजुः । 16/69 उस कान्तिमान राजा के साथ क्रीडा करती हुई वे रानियाँ, पहले से भी अधिक सुन्दर लगने लगीं।
24. नृपति : - [ नरान् पाति रक्षति :- नृणां पतिः; ष० त०] राजा । जातभिषङ्गो नृपतिर्निषङ्गादृद्धर्तुमैच्छत्प्रसभोद्धृतारिः । 2 / 30
बस झट राजा दिलीप ने उस सिंह को मारने के लिए तूणीर से बाण निकालने को
हाथ उठाया ।
अथ स विषय व्यावृत्तात्मा यथा विधि सूनवे नृपति कुकुदं दत्त्वा यूनेसितातपवारणम् । 3 /70
तब संसार के सब विषय छोड़कर राजा दिलीप ने अपने नवयुवक पुत्र रघु को शास्त्रों के अनुसार छत्र, चँवर आदि राजचिह्न दे दिए। एतावदुक्त्वा प्रतियातु कामं शिष्यं महर्षेर्नृपतिर्निषध्य । 5/18
ऐसा कहकर कौत्स उठकर चलने लगे, राजा रघु ने उन्हें रोका और पूछा तमापतन्तं नृपतेरवध्यो वन्यः करीति श्रुतवान्कुमारः । 5/50
वह हाथी राजा अज की ओर चला आ रहा था, किंतु अज ने सोचा यह जंगली हाथी है, इसको मारना ठीक नहीं है।
नेत्र वज्राः पौरजनस्य तस्मिन्विहाय सर्वान्नृपतीन्निपेतुः । 6/7 वैसे ही नगरवासियों की आँखें सब राजाओं से हटकर अज पर जा लगी थीं। जातः कुले तस्य किलोरुकीर्तिः कुलप्रदीपो नृपतिर्दिलीपः । 6/74
उन्हीं प्रतापी ककुत्स्थ वंश में यशस्वी राजा दिलीप ने जन्म लिया ।
For Private And Personal Use Only
--
नृपतिः प्रकृतीरवेक्षितुं व्यवहारासन माददे युवा। 8 / 18 इधर युवा राजा अज जनता के कामों की देखभाल करने के लिए न्याय के आसन पर बैठते थे ।
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
320
कालिदास पर्याय कोश अन्यत्प्रभुशक्ति संपदा वशमेको नृपतीननन्तरान्। 8/19 राजा अज ने अपने प्रभुत्व और शक्ति से आसपास के राजाओं को वश में कर लिया था। नृपतेरमरस्त्रगाप सा दयितोरुस्तन कोटिसुस्थितिम्। 8/36 वही माला अचानक राजा अज की रानी इन्दुमती के बड़े-बड़े स्तनों के ठीक बीच में आकर गिरी। नृपतेर्व्यजनादिभिस्तमो नुनुदे सा तु तथैव संस्थिता। 8/40 पंखा डुलाने और दूसरे उपायों से राजा अज की मूर्छा तो दूर हो गई, पर रानी इन्दुमती ज्यों की त्यों पड़ी रही। प्रमदामपु संस्थितः शुचा नृपतिः सन्निति वाच्यदर्शनात्। 8/72 अपनी पत्नी के वियोग में राजा अज इतने व्याकुल हो गए कि उन्हें जीने की साध जाती रही। रोगोप सृष्टतनु दुर्वसतिं मुमुक्षुः प्रायोपवेशनमतिर्नृपतिर्बभूव। 8/94 राजा अज अपने रोगी शरीर से छुटकारा पाने के लिए अनशन करने लगे। नृपतयः शतशो मरुतो यथा शतमखं तमखण्डितपौरुषम्। 9/13 जैसे देवता लोग इन्द्र के चरण छूते हैं, वैसे ही सैकड़ों राजाओं ने पराक्रमी राजा दशरथ के चरणों में अपने मुकुट वाले सिर रख दिए। नृपतिमन्यम सेवत देवता सकमला कमलाघवमर्थिषु। 9/16 दूसरा राजा ही कौन सा था, जिसके यहाँ हाथ में कमल धारण करने वाली लक्ष्मी स्वयं जाकर रहती। प्रायो विषाण परिमोक्षलघूत्तमाङ्गान्खगाँश्चकार नृपतिर्निशितैः क्षुरप्रैः। 9/62 इतने में उन्हें बारहसिंहों का झंड दिखाई दिया, राजा दशरथ ने अर्द्धचन्द्र बाणों से उनके सींग काटकर उनके सिर का बोझ हल्का कर दिया। नृपतीनिव तान्निवयोज्य सद्यः सितबालव्यजनैर्जगाम शान्तिम्। 9/66 इससे उन्हें ऐसा सन्तोष हुआ, मानो चँवर धारी राजाओं के चँवर ही उन्होंने छीन लिए हों। ताभ्यां तथागतमुपेत्य तमेकपुत्रमज्ञानतः स्वचरितं नृपतिः शशंस। 9/77 वहाँ पहुँच कर राजा दशरथ ने सब कथा बता दी, कि भूल से मैंने आपके एकलौते पुत्र पर किस प्रकार बाण चला दिया है।
For Private And Personal Use Only
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
25. नृसिंह :- [नी + ऋन् डिच्च + सिंहः] राजा, सिंह जैसा मनुष्य । मृगायताक्षो मृगया बिहारी सिंहादवाप द्विपदं नृसिंहः । 18/35 राजा ध्रुव के नेत्र मृगों के नेत्रों के समान बड़े-बड़े थे और वे पुरुषों में सिंह के समान थे, एक दिन वे जंगल में आखेट करते हुए मारे गए।
321
26. नृसोम : - [नी + ऋन् + डिच्च् + सोमः ] राजा, वैभवशाली मनुष्य । तथेत्युपस्पृश्य पयः पवित्रं सोमोद्भवायाः सरितो नृसोमः । 5/59 चन्द्रमा के समान सुनदर राजा अज ने गंधर्व का कहना मान लिया, उन्होंने पहले चन्द्रमा से निकली हुई नर्मदा के पवित्र जल का आचमन किया। 27. पार्थिव :- [पृथिवी + अण् ] राजा, प्रभु ।
पुरस्कृता वर्त्मनि पार्थिवेन प्रत्युद्गता पार्थिवधर्मपल्या | 2/20
आश्रम के मार्ग में गौ के पीछे राजा दिलीप थे और आगे आगवानी के लिए रानी सुदक्षिणा खड़ी थीं।
श्रुतस्य यायादयमन्तमर्भकस्तथा परेषां युधि चेति पार्थिवः । 3/21 राजा ने अपने पुत्र का नाम रघु इसलिए रखा कि वह संपूर्ण शास्त्रों के पार भी जाएगा और युद्धक्षेत्र में शत्रुओं के व्यूह को तोड़कर उनके भी पार जाएगा। न केवलं तद्गुरुरेक पार्थिवः क्षितावभूदेक धनुर्धरोऽपि सः । 3/31 उनके पिता केवल चक्रवर्ती राजा ही नहीं थे, वरन् अद्वितीय धनुर्धर भी थे । बभूव तेनातिरां सुदुः सहः कटप्रभेदेन करीव पार्थिवः । 3 / 37
जैसे मद बहने के कारण हाथी प्रचंड हो जाता है, वैसे ही प्रतापी रघु की सहायता से राजा दिलीप भी इतने शक्तिशाली हो गए कि उनके शत्रु उनसे काँपने लगे । अनेन पूना सह पार्थिवेन रम्भोरु कच्चिन्मनसो रुचिस्ते | 6/35
ये राजा अपनी स्त्रियों के साथ सदा उजले पाख का ही आनंद लेते हैं। केले के खंभे के समान जाँघ वाली इन्दुमती ! क्या तुम राजा के साथ विहार करना चाहती हो ।
सशोणितैस्तेन शिलीमुखाग्रैर्निक्षेपिताः केतुषु पार्थिवानाम् । 7/65
तब उन मूर्छित पड़े हुए राजाओं की ध्वजाओं पर रुधिर से सने बाणों की नोकों से यह लिख दिया गया।
For Private And Personal Use Only
प्रत्यग्रहीन्पार्थिव वाहिनीं तां भागीरथीं शोण इवोत्तरंग: । 7/36 स्वयं राजा उस सेना को रोककर उसी प्रकार खड़े हो गए, जैसे बाढ़ के दिनों में ऊँची तरंगों वाला शोणनद गंगाजी की धारा को रोक लेता है।
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
322
कालिदास पर्याय कोश अथ तस्य विवाह कौतुकं ललितं विभ्रत एव पार्थिवः। 8/1 अभी अज ने विवाह का सुन्दर मंगल-सूत्र उतारा भी नहीं था, कि राजा रघु ने अज के हाथों में। प्रशमस्थितपूर्वपार्थिवं कुलमभ्युद्यततनूतनेश्वरम्। 8/15 एक ओर राजा रघु संन्यास लेकर शान्ति का जीवन बिता रहे थे और दूसरी ओर ऐश्वर्यशाली अज राजा बनकर गद्दी पर बैठे थे। यति पार्थिव लिङ्ग धारिणौ ददृशाते रघुराघवौ जनैः। 8/16 संन्यासी बने हुए रघु और राजा बने हुए अज को देखकर लोगों ने यह समझ लिया कि। ऋषिदेवगण स्वधा भुजां श्रुतयागप्रसवैः स पार्थिवः। 8/30 इस प्रकार वेदों का अध्ययन करके ऋषियों के ऋण से, यज्ञ करके देवताओं के ऋण से और पुत्र उत्पन्न करके पितरों के ऋण से मुक्त होकर राजा अज वैसे ही शोभित हुए। कुसुमैर्ग्रथितामपार्थिवैः स्रजमातोद्य शिरोनिवेशिताम्। 8/34 उनकी वीणा के सिरे पर स्वर्गीय फूलों से गुथी हुई माला लटकी हुई थी। क्षितिरफलवत्यजनन्दने शमरतेऽमरतेजसि पार्थिवे। 9/4 अज पुत्र राजा दशरथ देवताओं के समान तेजस्वी थे और उनका मन भी सब प्रकार से शांत था। ताभ्यस्तथाविधान्स्वप्नाञ्छ्रुत्वा प्रीतो हि पार्थिवः। 10/64 जब रानियों ने अपने ये स्वप्न राजा को सुनाए तब वे बड़े प्रसन्न हुए। यावदादिशति पार्थिवस्तयोर्निर्गमाय पुरमार्गसंस्क्रियाम्। 11/3 अभी राजा दशरथ उनकी विदाई के लिए सड़क सजाने की आज्ञा अपने सेवकों को दे ही रहे थे कि। आलसूनुरवलोक्य भार्गवं स्वां दशां च विषसाद पार्थिवः। 11/67 जब परशुराम को देखा तब राजा दशरथ को अपनी दशा देखकर बड़ी चिंता हुई क्योंकि उनके पुत्र अभी बच्चे ही थे। मैथिलस्य धनुरन्यपार्थिवैस्त्वं किलानमितपूर्वमक्षणोः। 11/72 जनक जी के जिस धनुष को कोई राजा झुका भी नहीं सका, उसी को तूने तोड़ दिया है।
For Private And Personal Use Only
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
323
दूषयामास कैकेयी शोकोष्णैः पार्थिवाश्रुभिः। 12/4 पर निष्ठुर कैकेयी ने ऐसा चक्र चलाया कि उत्सव राजा दशरथ के आँसुओं से लिप गया। सा साधु साधारण पार्थिवर्द्धः स्थित्वा पुरस्तात्पुरुहूत भासः। 16/5 अपनी संपत्ति से सज्जनों का उपकार करने वाले, इन्द्र के समान तेजस्वी राजा कुश के आगे वह स्त्री खड़ी हो गई। आत्मापराधं नुदती चिराय शुश्रूषया पार्थिव पादयोस्ते। 16/85 हे राजन! यह अपना अपराध मिटाना चाहती है, इसलिए इसे आप अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण कर लीजिए, जिससे यह जीवन भर आपकी सेवा कर सके। पश्चात्पार्थिवकन्यानां पाणिमग्राहयत्पिता। 17/3 पिता कुश ने फिर राजाओं की कन्याओं से उसका विवाह करा दिया। एवमिन्द्रिय सुखानि निर्विशन्नन्य कार्य विमुखः स पार्थिवः। 19147 इस प्रकार वह कामी राजा राज-काज छोड़कर इन्द्रिय-सुखों का रस लेता हुआ। तं प्रमत्तमपि न प्रभावतः शेकुराक्रमितुमन्य पार्थिवाः। 19/48 इतना व्यसन में लीन होने पर भी दूसरे राजा उसके राज्य पर आक्रमण नहीं करते
थे।
28. पुरुषाधिराज :-[पुरिदेहे शेते :-शी + ड पृषो० तारा०, पुर् + कुषन् +
अधिराजः] राजा। इति प्रगल्भं पुरुषाधिराजो मृगाधिराजस्य वचो निशम्य। 2/41
सिंह की ऐसी ढीठ बातें सुनकर जब राजा को यह विश्वास हो गया कि। 29. पृथिवीक्षिति :-[प्रथ् + किंवन्, संप्रसारणम् + क्षिति] राजा।
सेनानिवेशान्पृथिवीक्षितोऽपि जग्मुर्विभातग्रहमन्दभासः। 7/2 दूसरे राजा लोग भी प्रात: काल के तारों के समान अपना उदास मुँह लेकर अपने
डेरों में यह कहते हुए चले गए कि। 30. पृथिवीपति :-[प्रथ् + षिवन्, संप्रसारणम् + पतिः] राजा।
स चतुर्धा बभौ व्यस्तः प्रसवः पृथिवी पतेः। 10/84
राजा की चारों संतानें ऐसी शोभा दे रही थीं मानो। 31. पृथिवीपाल :-[प्रथ् + षिवन्, संप्रसारणम् + पाल:] राजा।
बुभुजे पृथिवीपालः पृथिवीमेव केवलाम्। 15/1
For Private And Personal Use Only
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
324
कालिदास पर्याय कोश राजा रामचन्द्रजी ने केवल पृथिवी का ही भोग किया। 32. प्रजानाथ :-[प्र + जन् + ड + टाप् + नाथः] राजा, प्रभु, राजकुमार।
जीवन्पुनः शश्वदप्लवेभ्यः प्रजाः प्रजानाथ पितेव पासि। 2/48 पर यदि जीते रहोगे तो पिता के समान तुम अपनी प्रजा के स्वामी राजा अपनी पूरी प्रजा की रक्षा कर सकोगे। ते प्रजानां प्रजानाथास्तेजसा प्रश्रयेण च। 10/83 उन प्रजा के स्वामी राजकुमारों ने अपने तेज और नम्र व्यवहार से अपनी प्रजा
का मन उसी प्रकार हर लिया जैसे। 33. प्रजापति :-[प्र + जन् + ड + टाप् + पतिः] राजा।
प्रजापत्योपनीतं तदनं प्रत्यगृहीनृपः। 10/52
वैसे ही राजा दशरथ ने भी उस दिव्य पुरुष के हाथ से वह खीर ले ली। 34. प्रजेश :-[प्र + जन् + ड + टाप् + ईशः] राजा।
प्रजाश्चिरं सुप्रजसि प्रजेशे ननन्दुरानन्दजलाविलाक्ष्यः। 18/29 राजा ब्रह्मिष्ठ के सुन्दर शासन को देखकर प्रजा को आनन्द के आँसू आ जाते थे,
उनके शासन में प्रजा बहुत दिनों तक सुख भोगती रही। 35. प्रजेश्वर :-[प्र + जन् + ड + टाप् + ईश्वरः] राजा।
तमभ्यनन्दत्प्रथमं प्रबोधितः प्रजेश्वरः शासनाहारिणा हरेः। 3/68 इन्द्र के दूत ने रघु के पहुँचने के पहले ही राजा दिलीप को सब वृतान्त सुना दिया
था इसलिए जब रघु आए तब राजा दिलीप ने उनकी बड़ी प्रशंसा की। 36. भूपति :-[भू + क्विप् + पतिः] राजा।
जलाभिलाषी जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत्। 2/6 जब वह जल पीने की इच्छा करती, तभी राजा को भी प्यास लग आती थी, वे छाया के समान ही उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। न हीस्टमस्य त्रिदिवेऽपि भूपतेरभूदना साद्यमधिज्य धन्वनः। 3/6 क्योंकि धनुषधारी राजा दिलीप को स्वर्ग की भी वस्तुएँ मिल सकती थी, फिर इस लोक की वस्तुओं की तो बात ही क्या। अदेयमासीत्रयमेव भूपतेः शशिप्रभं छत्रमुभे च चामरे। 3/16 राजा दिलीप इतने प्रसन्न हुए कि छत्र और चँवर तो न दे सके, शेष सब आभूषण उन्होंने उतार कर दे डाले।
For Private And Personal Use Only
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
325
तं भूपतिर्भासुरहेम शशिं लब्धं कुबेरादभियास्यमानात्। 5/30 राजा रघु की चढ़ाई की बात कान में पड़ते ही कुबेर ने रात को ही सोने की वर्षा कर दी थी। तस्यान्वये भूपतिरेष जातः प्रतीप इत्यागमवृद्ध सेवी। 6/41 उन्हीं प्रसिद्ध राजा के वंश में ये उत्पन्न हुए हैं, ये वेदों और बड़े बूढ़ों की बड़ी सेवा करते हैं। स्थाने वृता भूपतिभिः परोक्षैः स्वयंवरं साधुममस्त भोज्या। 7/13 यों तो बहुत से राजाओं ने अपने आप आकर इन्दुमती से विवाह की प्रार्थना की थी, पर राजकुमारी ने स्वयंवर करके ही अपना विवाह करना उचित समझा और यह ठीक भी किया। नयगुणोपचितामिव भूपतेः सदुपकारफलां श्रियमर्थिनः। 9/27 राजा दशरथ की चतुर नीति से उनके पास बहुत धन इकट्ठा हो गया और उस धन से वे अपनी प्रजा का बहुत उपकार करते थे, इसीलिए जैसे उनकी लक्ष्मी के आगे बहुत से मंगन हाथ फैलाया करते थे। भूपतेरपि तयोः प्रवत्स्यतोनप्रयोरुपरि वाष्यबिन्दवः। 11/4 राजा दशरथ की आँखों से उन दोनों पर आँसू टपक पड़े। सामदानविधि भेद निग्रहाः सिद्धिमन्त इव तस्य भूपतेः। 11/55 मानो राजा दशरथ के साम, दाम, दंड, भेद इन चारों उपायों को सिद्धियाँ मिल गई हों। अवतार्याङ्क शय्यास्थं द्वारि चक्रन्द भूपतेः। 15/42 राजा की ड्योढ़ी पर गोद से उतारकर यह कह कहकर फूट-फूटकर रोने लगा। सालक्तको भूपतयः प्रसिद्धैर्ववन्दिरे मौलिभिरस्य पादौ। 18/41
राजाओं ने अपने प्रसिद्ध मुकुटों से उन महावर लगे पैरों का वन्दन किया। 37. भूपाल :-[भवन्त्यस्मिन् भूतानि :-भू + मि किच्च वा ङीप् + पतिः] राजा।
तत्तद्भूमिपतिः पल्यै दर्शयन्प्रियदर्शनः। 1/47 लुभावने दिखाई देने वाले राजा दिलीप अपनी पत्नी को वे सब दिखाने में इतने रम गए थे कि। सोऽभूत्परासुरथ भूमिपतिं शशाप हस्तार्पितैर्नयनवारिभिरेव वृद्धः।9/78 इस पर बूढ़े तपस्वी ने अपने आँसुओं से अपनी अंजली भरकर राजा को यह शाप दिया।
For Private And Personal Use Only
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
326
www. kobatirth.org
38. भूभर्ता :- [भू + क्विप् + भर्तृ] राजा ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
भावितात्मा भुवो भर्तुरथैनं प्रत्यबोधयत् । 1/74
अपने योग बल से सब जान लेने के बाद वशिष्ठ जी राजा को समझाने लगे । निष्प्रभश्च रिपुरास भूभृतां धूमशेष इव धूमकेतनः । 11/81
वैसे ही क्षत्रियों और राजाओं के शत्रु परशुराम उस अग्नि के समान निस्तेज हो गए, जिसमें केवल धुआँ भर रह गया हो ।
39. भूमिपाल : - [ भवन्त्यस्मिन् भूतानि :- भू + नि किच्च वा ङीप् + पालः ]
राजा ।
नरेन्द्र मार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः 16/67
वैसे ही जिन-जिन राजाओं को छोड़कर इन्दुमती आगे बढ़ गई, उन राजाओं का मुँह उदास पड़ गया।
सर्व प्रयत्नेन च भूमिपालास्तस्मिन्प्रजह्नुर्युधि सर्व एव । 7/59
वे राजा पूरा बल लगाकर एक साथ अपने अस्त्रों से राजा अज पर प्रहार करने
लगे ।
40. मनुजपति: : - [मन् + उ + जः + पतिः ] राजा ।
तस्याः स्पृष्टे मनुजपतिना साहचर्यांय हस्ते माङ्गल्योर्णावलयिनि पुरः पावकस्योच्छिखस्य । 17/87
जब राजा कुश ने अग्नि के आगे उस कन्या का ऊनी कंगन बँधा हुआ हाथ पकड़ा।
41. मनुजेन्द्रः - [मन् + उ + ज: + इन्द्र:] राजा ।
मार्गे निवासा मनुजेन्द्र सूनोर्बभूवुरुद्यान विहार कल्पाः । 5/41
मार्ग में राजा रघु के पुत्र अज के ठहरने के लिए अनेक प्रकार के ऐसे वितानों का प्रबंध किया गया था ।
42. मनुजेश्वर : - [मन + उ + जः + ईश्वरः ] राजा ।
मार्गं मनुष्येश्वर धर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत् । 2/2
राजा दिलीप की पत्नी ठीक वैसी लग रही थीं, जैसे श्रुति के पीछे-पीछे स्मृति चली जा रही हो ।
For Private And Personal Use Only
43. मनुष्यदेव : - [ मनोरपत्यं यक् सुक् च + देवः ] राजा
निशम्य देवानुचरस्य वाचं मनुष्यदेवः पुनरप्युवाच । 2/52
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
राजा ने एक ओर सिंह की बातें सुनी और दूसरी ओर गाय को देखा, फिर वे
बोले ।
44. महीक्षित : - [ मह् + अच् + ङीष् + क्षित् ] राजा ।
आसीन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्छन्दसामिव । 1/11
जैसे वेद के छन्दों में सबसे पहले ॐ है, वैसे ही राजाओं में सबसे पहले मनु हुए ।
327
तीर्थाभिषेकजां शुद्धिमादधाना महीक्षितः । 1/85
राजा दिलीप वैसे ही पवित्र हो गए, जैसे किसी तीर्थ में स्नान करके लौटे हों
1
ते बहुज्ञस्य चित्तो पल्यो पत्युर्महीक्षितः । 10 / 56
सब कुछ जानने वाले राजा दशरथ की दोनों रानियों ने ।
चूड़ामणिभिरुद्धृष्ट पादपीठं महीक्षिताम् । 17 / 28
उनके पैर के नीचे जो पीढ़ा रखा था, वह प्रणाम करने वाले राजाओं के सिर की मणियों की रगड़ से घिस गया था।
रात्रिं दिव विभागेषु यदादिष्ट महीक्षिताम् । 17/49
शास्त्रों ने राजाओं के लिए दिन और रात के जो कर्त्तव्य निर्धारित किए हैं। प्रेमगर्वितविपक्षमत्सरादायताच्च मदनान्महीक्षितम् | 19 / 20
यदि राजा किसी रानी से प्रेम करता तो वह गर्व से फूली न समाती, यह देखकर उसकी सौतें कातुर होकर किसी न किसी बहाने राजा को अपने यहाँ बुलाकर । 45. महीपति : - [ मह् + अच् + ङीष् + पतिः] राजा ।
तां प्रत्यभिव्यक्तमनोरथानां महीपतीनां प्रणयाग्रदूत्यः । 6/12
राजाओं ने अपना प्रेम जताने के लिए जो श्रृंगार चेष्टाएँ कीं, वे मानो उनके प्रेम को इंदुमती तक पहुँचाते वाली दूतियाँ थीं।
अहमेव मतो महीपतेरिति सवः प्रकृतिष्वचिन्तयत् । 8 / 8
वे अपनी प्रजा को बहुत प्यार करते थे, इससे सब लोग यही सोचते थे कि राजा हमें ही सबसे अधिक मानते हैं।
For Private And Personal Use Only
औत्पातिको मेघ इवाश्मवर्षं महीपतेः शासनमुज्जगार। 14/53
सीताजी को राजा की आज्ञा इस प्रकार सुनाई जैसे कोई भयंकर बादल ओले बरसा रहा हो ।
46. महीपाल : - [ मह् + अच् + ङीष् + पालः] राजा ।
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
328
कालिदास पर्याय कोश अलं महीपाल तव श्रमेण प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात्। 2/34 सिंह बोला :-हे राजा! तुम मुझे मारने का यत्न मत करो क्योंकि मुझ पर जो भी अस्त्र चलाओगे, वह व्यर्थ जाएगा। नवे तस्मिन्महीपाले सर्वं नवामिवाभवत्। 4/11 ऐसा जान पड़ने लगा मानो नए राजा को पाकर सभी वस्तुएँ नई हो गई हों। अपरान्तमहीपाल व्याजेन रघवे करम्। 4/58
पच्छिम् के राजाओं ने जो रघु के अधीन होकर उन्हें कर दिया था। 47. मानवदेव :-[मनोरपत्यम् अण + देवः] राजा।
अन्यत्र रक्षो भवनोषितायाः परिग्रहन्मानवदेव देव्याः। 14/32 हे नरश्रेष्ठ राजन् ! आपने राक्षस के घर में रहने वाली देवी सीता को फिर से
ग्रहण कर लिया है, उसे लोग अच्छा नहीं समझते। 48. राजा :-[राज् + क्विप्] राजा।
दिलीप इति राजेन्दु रिन्दुः क्षीर निधाविव। 1/12 राजा दिलीप ने वैसे ही जन्म लिया, जैसे क्षीरसागर में चंद्रमा ने जन्म लिया था। न किलानुययुस्तस्य राजानो रक्षितुर्यशः। 1/27 दिलीप को छोड़कर और कोई भी राजा अपनी प्रजा की रक्षा में नाम न कमा
सका।
तयोर्जगृहतुः पादानराजा राज्ञी च मागधी। 1/57 राजा दिलीप और मगध की राजकुमारी रानी सुदक्षिणा ने चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया। इति विज्ञापितो राजा ध्यानस्तिमित लोचनः। 1/73 राजा की बात सुनकर वशिष्ठजी ने अपनी आँखें बंद करके क्षण भर के लिए ध्यान लगाया। स शापो न त्वया राजन्न च सारथिना श्रुतः। 1/78 हे राजन् ! उस शाप को न तो तुम ही सुन पाए, न तुम्हारा सारथी ही। निवर्त्य राजा दयितां दयालुस्तां सौरभेयीं सुरभिर्य शोभिः। 2/3 कोमल हृदय वाले राजा दिलीप ने रानी सुदक्षिणा को लौटा दिया और स्वयं उस नंदिनी की रक्षा करने लगे, जो ऐसी प्रतीत होती थी। राजा स्वतेजो भिरदयतान्त गीव मन्त्रौषधिरुद्धवीर्यः। 2/32
For Private And Personal Use Only
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
329
राजा दिलीप अपने तेज से भीतर ही भीतर उसी प्रकार जलने लगे, जैसे मंत्र और जड़ी से बंधा हुआ साँप। ददर्श राजा जननीमिव स्वां गाम ग्रतः प्रस्त्रविणीं न सिंहम्। 2/61 राजा दिलीप ने देखा कि स्तनों से दूध टपकाती हुई माता के समान नंदिनी खड़ी है और सिंह का कहीं नाम भी नहीं है। संतानकामाय तथेति कामं राज्ञे प्रतिश्रुत्य पयस्विनी सा। 2/65 नंदिनी ने संतान माँगने वाले राजा दिलीप से प्रतिज्ञा की कि मैं तेरी इच्छा पूर्ण करूँगी। पूर्व प्रधूमितो राज्ञां हृदयेऽग्निरिवोत्थितः। 4/2 दसरे राजाओं के हृदय में बैर की जो आग धीरे-धीरे सुलग रही थी, वह मानो भड़क उठी। मनुप्रभृतिभिर्मान्यैर्भुक्ता यद्यपि राजभिः। 4/7 यों तो मनु आदि बहुत से प्रतापी राजा पृथ्वी का भोग कर चुके थे। नयविद्विभर्नवे राज्ञि सदसच्चोपदर्शितम्। 4/10 उस धर्मात्मा राजा ने सीधी नीति को ही अपनाया और टेढ़ी नीति को छोड़ दिया। तथैव सोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृति रञ्जनात्। 4/12 वैसे ही रघु ने भी प्रजा का रंजन करके, उन्हें सुख देकर अपना राजा नाम सार्थक कर दिया। राज्ञा हिमवतः सारो राज्ञः सारो हिमाद्रिणा। 4/79 राजा रघु ने हिमालय के धन का और हिमालय ने युद्ध में राजा रघु के पराक्रम का अनुमान कर लिया। रजो विश्रामयनराज्ञां छत्रशून्येषु मौलिषु। 4/85 धूल, हारे हुए राजाओं के छत्र-रहित मुकुटों पर बैठती चलती थी। सर्वत्र नो वार्तमवेहि राजन्नाथे कुतस्त्वय्य शुभं प्रजानाम्। 5/13 हे राजन्! आपके राज्य में हमें सब प्रकार का सुख है, आपके राजा रहने पर प्रजा में दु:ख का नाम भी नहीं है। राजापि लेभे सुतमाशु तस्मादालोकमर्कादिव जीवलोकः। 5/35 जैसे सूर्य से संसार को प्रकाश मिलता है, वैसे ही ब्राह्मण के आशीर्वाद से थोड़े ही दिनों में राजा रघु को भी पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ।
For Private And Personal Use Only
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
330
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
राजा प्रजारञ्जनलब्ध वर्णः परंतपो नाम यथार्थतया । 6/21
अपनी प्रजा को सुख देकर इन्होंने बड़ा नाम कमाया है, इनका नाम परंतप है और ये सचमुच परन्तप हैं।
अथाङ्गराजादवतार्य चसुर्याहीति जन्यामवदत्कुमारी । 6/30
इन्दुमती ने उस अंग देश के राजा पर से आँखें हटाईं और सुनंदा से कहा । प्रलोभिताप्याकृतिलोभनीया विदर्भराजा वरजा तयैवम् । 6 / 58 विदर्भराज की छोटी बहन इन्दुमती अपनी दासी की लुभावनी बातें सुनकर भी उस राजा को छोड़कर।
रतिस्मरौ नूनमिमावभूतां राज्ञां सहस्रेषु तथाहि बाला। 7/15
ये दोनों पिछले जन्म में रति और कामदेव ही रहें होंगे, इसीलिए तो सहस्रों राजाओं के बीच में इंदुमती ने उन्हें प्राप्त कर लिया।
तौ स्नातकैर्बन्धुमता च राज्ञा पुरंधिभिश्च क्रमशः प्रयुक्तम् । 7/28 वर-वधू के ऊपर स्नातकों ने, कुटुंबियों ने, भोजराज ने और पुरोहित जी ने बारी-बारी से गीले अक्षत छोड़कर आशीर्वाद दिया ।
इति शिरसि स वामं पादमाधायराज्ञामुदवहदनवद्यां तामवद्यादपेत: 17/86 इस प्रकार पवित्र अज उन राजाओं के सिरों पर बायाँ पैर रखकर सुंदरी इंदुमती को लेकर चले ।
For Private And Personal Use Only
तत्प्रार्थितं जवनवाजिगतेन राज्ञा तूणीमुखोद्धृतशेरण विशीर्णपङ्किः 19/56 राजा ने ज्यों ही अपने वेगगामी घोड़े पर चढ़कर और अपने तूणीर में से बाण निकालकर उनका पीछा किया, कि वह झुंड तितर-बितर हो गया । प्राप्तानुगः सपदि शासनमस्य राजा संपाद्यपातकविलुप्तधृतिर्निवृत्तः । 9/82 राजा दशरथ के अनुचर भी तब तक पहुँच गए थे, तत्काल ईंधन और अग्नि जुटा दी गई।
अनेन कथिता राज्ञो गुणास्तस्यान्य दुर्लभाः । 10 / 53
उस दिव्य पुरुष ने राजा दशरथ के असाधारण गुणों की इतनी प्रशंसा की कि । अथायमहिषी राज्ञः प्रसूति समये सती । 10/66
वैसे ही राजा की पटरानी कौशल्या ने तमोगुण को दूर करने वाला पुत्र उत्पन्न किया ।
राजाऽपि तद्वियोगार्तः स्मृत्वा शापं स्वकर्मजम् । 12 / 10
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
331
उनके वियोग में राजा दशरथ को बड़ा दुःख हुआ, उन्हें मुनि का शाप स्मरण हो
आया ।
राज्ञः शिवं सावरजस्य भूयादित्या शशंसे करणैरबाह्यैः । 14/50 वे मन ही मन मनाने लगीं कि भाइयों के साथ राजा सुख से रहें, उन पर कोई आँच न आए।
वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्समक्षम् । 14/61
राजा से जाकर तुम मेरी ओर से कहना कि आपने अपने सामने ही मुझे अग्नि में शुद्ध पाया था।
स पृष्टः सर्वतो वार्तमाख्यद्राज्ञेन संततिम् । 15/41
राजा राम के पूछने पर उन्होंने सब बातें तो कह सुनाई, पर पुत्र होने की बात नहीं कही ।
राजन्प्रजासु ते कश्चिपचारः प्रवर्तते । 15/47
हे राजन्! आपकी प्रजा में कुछ वर्ण-धर्म संबंधी दोष आ गया है।
पृष्टनामान्वयो राज्ञा स किलाचष्ट धूमपः । 15 / 50
राजा ने उससे पूछा :- आपका नाम क्या है और आप किस वंश के हैं। कृतदण्डः स्वयं राज्ञा लेभे शूद्रः सतां गतिम् । 15 / 53
राजा से दंड पाने के कारण शूद्र को वह सद्गति मिल गई। इति राज्ञा स्वयं पृष्टौ तौ वाल्मीकिमशंसताम् । 15 / 69 जब राम ने उनसे पूछा तो उन्होंने वाल्मीकि का नाम बता दिया ।
इति प्रतिरुते राज्ञा जानकीमाश्रमान्मुनिः । 15/74
राजा राम की ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर वाल्मीकिजी ने सीताजी को इस प्रकार बुलाया ।
तस्याः पुरः संप्रति वीतनाथां जानीहि राजन्नधिदेवतां माम् । 16 / 9 हे राजन् ! उसी अनाथ अयोध्या पुरी के निवासियों की मैं नगर देवी हूँ । अथोपशल्ये रिपुमग्न शल्यस्तस्याः पुरः पौरसखः स राजा । 16/37 शत्रुविनाशक प्रजा हितैषी राजा ने अपनी सेना को नगर के आसपास के स्थानों में ठहरा दिया।
न तस्य मंडले राज्ञोन्यस्तप्रणिधि दीधितेः । 17/48
वैसे ही राजा अतिथि ने दूतों का ऐसा जाल बिछा दिया, कि प्रजा की कोई बात उनसे छिपी नहीं रह पाती थी ।
For Private And Personal Use Only
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
332
कालिदास पर्याय कोश
वृषेवे देवो देवानां राज्ञां राजा बभूव सः। 17/77 जैसे इन्द्र देवताओं के देवता हैं, वैसे ही वे भी राजाओं के राजा को गए। तेन द्विपानामिव पुण्डरीको राज्ञामजय्योऽजनि पुण्डरीकः। 18/8 जैसे हाथियों में पुंडरीक नाम का हाथी सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही उस समय के
राजाओं में पुंडरीक ही सर्वश्रेष्ठ थे। 49. राजेन्द्र :-[राज् + कनिन्, रञ्जयति रञ् + कनिन् नि०वा० + इन्द्रः] सर्वोपरि
राजा। राजेन्द्रनेपथ्यविधान शोभा तस्योदिताऽसीत्पुनरुक्त दोषा। 14/9
राजा राम इस समय राजसी वस्त्र पहनकर और भी सुन्दर लगने लगे। 50. लोकपाल :-[लोक्यतेऽसौ लोक + घञ् + पाल:] राजा।
तां देवतापित्र तिथि क्रियार्थामन्वग्ययौ मध्यमलोकपालः। 2/16 पृथ्वी का पालन करने वाले राजा दिलीप भी वशिष्ठ ऋषि के यज्ञ, श्राद्ध, अतिथि-पूजा आदि धर्म के कामों के लिए दूध देने वाली। नरपतिकुलभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी गुरुभिरभिनिविष्टं लोकपालानु भावैः। 2/75 रानी सुदक्षिणा ने राजा दिलीप का वंश चलाने के लिए लोक पालों के समान
तेजस्वी पुरुषों के तेज से भरा हुआ गर्भ धारण किया। 51. वसुधाधिप :-[वस् + उन् + धा + अधिपः] राजा, स्वामी।
तया मेने मनस्विन्या लक्ष्या च वसुधाधिपः। 1/32 राजा दिलीप की कई रानियाँ थीं, पर अपने को स्त्रीवाला लक्ष्मी के समान मनस्विनी सुदक्षिणा के कारण ही मानते थे। उदयमस्तमयं च रघूद्वहादुभयमान शिरे वसुधाधिपः। 9/9 उन रघुकुल में श्रेष्ठ दशरथ के हाथों बहुत से राजा बने और बहुत से बिगड़े। इत्थं गते गत घृणः किमयं विधत्तां वध्यस्तवेत्यभिहितो वसुधाधिपेन।
9/81 यह कहकर राजा ने फिर उनसे कहा :-मैं तो इसी योग्य हूँ, कि आप मेरा वध
करें। 52. विनेता :-[वि + नी + तृच्] राजा, शासक।
तेनास लोकः पितृमान्विनेत्रा तेनैव शोकपानुदेन पुत्री। 14/23
For Private And Personal Use Only
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
333
राजा सबको ठीक मार्ग पर चलाते थे, इसलिए सब उन्हें पिता के समान मानते थे और विपत्ति पड़ने पर वे सबकी सहायता करते थे, इसलिए वे प्रजा के पुत्र
भी थे। 53. विशापति :-[विश् + क्विप् + पतिः] राजा, प्रजा का स्वामी।
अथ प्रदोषे दोषज्ञंः संवेशाय विशांपतिम। 1/93
रात हो चली थी, वशिष्ठ जी ने राजा दिलीप को सोने की आज्ञा दी। 54. सम्राट् :-[सम्यक् राजते :-सम् + राज् + क्विप्] सर्वोपरि राजा।
अब्याहतैः स्वरैगतैः स तस्याः सम्राट् समाराधन तत्परोऽभूत्। 2/5 राजा दिलीप नंदिनी की डाँस उड़ाते थे और जिधर भी जाना चाहती थी उधर उसे जाने देते थे। ते रेखाध्वजकुलिशातपत्रचिह्न सम्राजश्चरणयुगं प्रसादलभ्यम्। 4/88 जाते समय उन राजाओं ने राजा रघु ने उन चरणों में झुककर उन्हें प्रणाम किया, जिन पर ध्वजा, वज्र और छत्र आदि की रेखाएँ बनी हुई थीं।
रात्रि 1. क्षपा :-[क्षप् + अच् + टाप्] रात।
तदन्तरे सा विरराज धेनुर्दिन क्षपामध्य गतेव संध्या। 2/20 इन दोनों के बीच में वह लाल रंग वाली नंदिनी ऐसी शोभा दे रही थी, जैसे दिन
और रात के बीच में साँझ की ललाई। 2. त्रियामा :-[त्रि + यामा] रात, रात्रि।
मेरोरुपान्तेष्विव वर्तमानमन्योन्य संसक्तमहस्त्रियामम्। 7//4 मानो दिन और रात का जोड़ा मिलकर सुमेरु पर्वत की फेरी दे रहा हो। नरपतिरति वाहयां बभूव क्वचिद समेत परिच्छ दस्त्रियामाम्। 9/70 सारी रात उन्हें (राजा को) रात को चमकने वाली बूटियों के प्रकाश के सहारे
बिना किसी सेवक के अकेले ही काटनी पड़ी। 3. नक्त :-[नञ् + क्त] रात।
आसन्नोषधयो नेतुर्नक्तमस्नेहदीपिकाः। 4/75 वे रात को चमकने वाली बूटियों के प्रकाश से चमचमा उठती थीं, इस प्रकार उन बूटियों ने बिना तेल के ही दीपक जला दिए।
For Private And Personal Use Only
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
334
कालिदास पर्याय कोश ज्वलितेन गुहागतं तमस्तुहिनादेरिव नक्तमोषधिः। 8/54 जैसे रात में चमकने वाली बूटियाँ अपने प्रकाश से हिमालय की अँधेरी गुफा में चाँदनी कर देती हैं। पुत्रं तमोपहं लेभे नक्तं ज्योतिरिवौषधिः। 10/66 जैसे बूटियों में रात को अँधेरा दूर करने वाला प्रकाश आ जाता है, वैसे ही तमोगुण को दूर करने वाला पुत्र उत्पन्न किया। कालान्तरश्यामसुधेषु नक्तमितस्ततो रूढतृणाङ्करेषु। 16/18 बहुत दिनों से मरम्मत न होने के कारण कोठों के चूने का रंग काला पड़ गया है,
और उन पर जहाँ-तहाँ घास जम आई है, उस कारण रात में। 4. निशा :-[नितरां श्यति तनूकरोति व्यापारान् :-शो + क तारा०] रात।
तच्छिष्याध्ययननिवेदिता वसानां संविष्ट: कुशशयने निशां निनाय। 1/95 रात्रि के समाप्त होने पर जब वशिष्ठ जी ने शिष्यों को वेद पढ़ाना प्रारंभ किया, तब उसकी ध्वनि कान में पड़ते ही राजा दिलीप उठ बैठे। निद्रावशेन भवताप्यनवेक्ष्यमाणा पर्युत्सुकत्वमबला निशि खण्डितेव। 5/67 तुम्हारी सौन्दर्य-लक्ष्मी ने जब यह देखा कि तुम निद्रा रूपी दूसरी स्त्री के वश में हो, तब वह रुष्ट होकर तुम्हारे मुख के समान सुन्दर चंद्रमा के पास चली गई थी, पर इस समय रात्रि का चंद्रमा भी मलिन हो गया है। निशि सुप्तमिवैक पङ्कजं विरताभ्यन्तरषट्पदस्वनम्। 8/55 मौन भंवरों से भरे हुए और रात में मुँदे अकेले कमल के जैसा लगने वाला। निशासु भास्वत्कलनूपुराणां यः संचरोऽभूद्भिसारिकाणाम्। 16/12 रात के समय पहले जिन सड़कों पर चमकते हुए बिछुओं वाली अभिसारिकाएँ चलती थीं। अन्तरेव विहररन्दिवानिशं न व्यपैक्षत समुत्सुकाः प्रजाः।। 19/6 वह दिन रात रनिवास के भीतर ही रहकर विहार करने लगा, उसके दर्शन के
लिए जनता अधीर रहती थी, पर वह कभी उनकी सुध नहीं लेता था। 5. यामिनी :-[याम + इनि + ङीप्] रात।
तस्यामेवास्य यामिन्यामन्तर्वनी प्रजावती। 15/3 उसी रात को इनकी गर्भवती भाभी सीता ने दो तेजस्वी पुत्रों को उसी प्रकार जन्म दिया।
For Private And Personal Use Only
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
335
पश्चिमाद्यामिनीयामात्प्रसादमिव चेतना । 17/1
जैसे रात के चौथे पहर बुद्धि को नयापन मिल जाता है। कार्तिकीषु सवितान हर्म्य भाग्यामिनीषु लललिताङ्गनासखः । 19/39 कार्तिक की रातों में वह राजभवन के ऊपर चंदोवा तनवा देता था और सुंदरियों के साथ उस चाँदनी का आनंद लेता था ।
6. रजनी : - [ रज्यतेऽत्र, रज् + कनि वा ङीप् ] रात ।
सदृशमिष्टसमागमनिर्वत्तिं वनितयानितया रजनीवधूः । 1/38
वैसे ही रात्रि रूपी नायिका भी वसंत के आने से छोटी होती चली गई और उसका चंद्रमा वाला मुख भी पीला पड़ता गया ।
7. रात्रि : - [ राति सुखं भयं वा रा + त्रिप् वा ङीप् ] रात ।
रात्रिर्गता मतिमतांवर मुञ्च शय्यां धात्रा द्विधैव ननु धूर्जगजो विभक्ता ।
5/66
हे परम बुद्धिमान् ! रात ढल गई है, अब शैय्या छोड़िये ! ब्रह्मा ने पृथ्वी का भार केवल दो भागों में बाँटा है।
भावाबोध कलुषा दायितेव रात्रौ निद्रा चिरेण नयनाभिमुखी बभूव ।
5/64
इसी उलझन में पड़े रहने के कारण रघु की आँखों में रात को उसी प्रकार विलंब से नींद आई, जैसे अपने पति के मन को न जानने वाली नई बहू अपने पति के पास विलंब से जाती है ।
नक्षत्रताराग्रह संकुलापि ज्योतिष्मीत चन्द्रमसैव रात्रिः । 6/22
जैसे तारों, ग्रहों और नक्षत्रों से भरी रहने पर भी रात तभी चाँदनी रात कहलाती है, जब चंद्रमा खिला हुआ हो ।
आयोधने कृष्ण गतिं सहायमवाप्य यः क्षत्रिय काल रात्रिम् । 6/42 ये राजा इतने बलवान हैं, कि अग्नि की सहायता पा लेने से ये क्षत्रियों की काली रात परशुराम के फरसे की तेज धार को ।
For Private And Personal Use Only
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीया य पतिंवरा सा । 6/67
रात को जब हम दीपक लेकर चलते हैं, तो मार्ग में पीछे अंधेरा पड़ता जाता है; वैसे ही जिन-जिन राजाओं को छोड़कर इन्दुमती आगे बढ़ गई उनके मुख । तदद्भुतं संसदि रात्रिवृत्तं प्रातर्द्विजेभ्यो नृपतिः शशंस । 16 / 24
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
336
कालिदास पर्याय कोश राजा ने रात की वह अचरज भरी घटना प्रातः काल सभा में ब्राह्मणों से कही। रात्रिंदिवविभागेषु यदादिष्ट महीक्षिताम्। 17/49 शास्त्रों ने राजाओं के लिए दिन और रात के जो कर्तव्य निर्धारित किए हैं। आरुरोह कुमुदाकरोपमां रात्रिजागरपरो दिवाशयः। 19/34 अत: वह कुमुदों के समान रात भर जागता रहता और दिन भर सोता रहता। तस्य सर्वसुरतान्तर क्षमाः साक्षितां शिशिररात्रयो ययुः। 19/42 सब प्रकार की संभोग-क्रीडा करने योग्य हेमंत ऋतु की बड़ी-बड़ी रातों में
विहार करता था, जहाँ उसके साक्षी केवल दीपक थे। 8. वसति :-[वस् + अत वा ङीप्] रात, रात्रि।
तस्य मार्गवशादेका बभूव वसतिर्यतः। 15/11
मार्ग में जाते हुए उन्होंने पहली रात तो। 9. विभावरी :-[वि + भा + वनिप् + ङीप्, र आदेशः] रात
शरत्प्रसन्नोतिर्भिवि भावर्य इव ध्रुवम्। 17/35
जैसे शरद् ऋतु की निर्मल रातों के तारे ध्रुव के चारों ओर घूमते हैं। 10. शर्वरी :-[ + वनिप्, ङीप्, वनोर च] रात।
तनु प्रकाशेन विचेयतारका प्रभातकल्पा शशिनेव शर्वरी। 3/2 वे पौ फटते समय की उस रात जैसी लगने लगीं, जब थोड़े से तारे बचे रह जाते हैं और चंद्रमा भी पीला पड़ जाता है। शशिनं पुनरेति शर्वरी दयिता द्वन्द्वचरं पतत्त्रिणम्। 8/56 देखो चंद्रमा को रात्रि फिर मिल जाती है, चकवे को चकवी भी प्रातः ही मिल जाती है। अथ पथि गमयित्वा क्लृप्तरम्योपकार्ये कतिचिद्वनिपालः शर्वरीशर्वकल्पः।
11/93 तब शिव के समान राजा दशरथ ने कुछ रातें तो उस मार्ग में बिताईं, जहाँ उनके लिए सुन्दर डेरे तने हुए थे।
1. त्रिभुवनगुरु :-[त्रि + भुवनम् + गुरु] राम, विष्णु के विशेषण।
इत्थं नागस्त्रिभुवनगुरोरौरसं मैथिलेयं लब्ध्वा बन्धुं तमपि च कुश: पंचमं तक्षकस्य। 16/88
For Private And Personal Use Only
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
337
रघुवंश
इस प्रकार नागराज कुमुद ने त्रिलोकीनाथ विष्णु के सच्चे पुत्र कुश को अपना संबंधी बनाकर और कुश ने भी नागराज तक्षक के पाँचवें पुत्र कुमुद को सम्बंधी
बना लिया। 2. त्रिलोकनाथ :-[त्रि + लोकम् + नाथ] राम, विष्णु के विशेषण।
त्रैलोक्यनाथ प्रभवं प्रभावात्कुशं द्विषामंकुशमस्त्रविद्वान्। 16/81 त्रिलोकीनाथ राम के पुत्र तथा शत्रुओं को अंकुश के समान दुःख देने वाले राजा कुश को, मान से उठा हुआ अपना सिर नवाकर कुमुद ने प्रणाम किया। दशमुखरिपु :-[दंश + कनिन् + मुखः + रिपुः] राम का विशेषण। सीतां हित्वा दशमुखरिपुर्नोपयेमे यदन्यां तस एव प्रतिकृत सखोन्यत्क्रतूनाजहार। 14/87 राम ने सीता को त्यागकर किसी दसरी स्त्री से विवाह नहीं किया। वरन् अश्वमेध
यज्ञ करते समय, उन्होंने सीताजी की सोने की मूर्ति को ही अपने बाएँ बैठाया। 4. दाशरथि :-[दशरथ + अण, इञ् वा] दशरथ का पुत्र, राम।
सोऽहं दाशरथिर्भूत्वा रणभूमेर्बलिक्षमम्। 10/44 इसलिए मैं राजा दशरथ के यहाँ जन्म लेकर, उसके सिरों को उतार कर रणभूमि को भेंट चढ़ाऊँगा। स्थाणुदग्धवपुषस्तपोवनं प्राप्य दाशरथरात्तकार्मुकः। 11/13 जिस तपोवन में शिवजी ने कामदेव को भस्म किया था, वहाँ सुंदर शरीर वाले राम, धनुष उठाए हुए पहुंचे। एको दाशरथिः कामं यातुधाना सहस्रशः। 12/45 राम अकेले थे और राक्षस सहस्रों थे। एतावदुक्तवति दाशरथौ तदीयमिच्छ विमानमधिदेवतया विदित्वा। 13/68 जब राम ऐसा कह रहे थे, उसी समय राम की इच्छा को ही विमान का चालक
मानकर, वह विमान आकाश से नीचे उतर आया। 5. पौलस्त्यशत्रु :-[पुलस्तेः अपत्यम् :-पुलस्ति + यञ् + शत्रुः] रावण का शत्रु
राम। उपनतमणिबन्धे मूर्ध्नि पौलस्त्यशत्रोः सुरभि सुरविमुक्तं पुष्पवर्षं पपात।
12/102 जिस राम पर राज्याभिषेक का जल छिड़का जाने वाला था, उन्हीं के सिर पर देवताओं ने सुगंधित फूल बरसाए।
For Private And Personal Use Only
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
338
कालिदास पर्याय कोश 6. भरताग्रज :-[भरं तनोति :-तन् + ड + अग्रजः] 'भरत' का ज्येष्ठ भ्राता,
राम का विशेषण। अभ्यभावि भरताग्रजस्तया वात्ययेव पितृकाननोत्थया। 11/16 श्मशान से उठे हुए बवंडर के समान आकृति वाली ताड़का, राम के ऊपर टूट पड़ी। अर्घ्यमय॑मिति वादिनं नृपं सोऽनवेक्ष्य भरताग्रजो यतः। 11/69 दशरथ जी अभी कहते ही रह गए कि आपके सत्कार के लिए यह अर्ध्य है कि उसने अपनी टेढ़ी चितवन से राम को देखा। त्वां प्रत्यकस्मात्कलुषप्रवृत्तावस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे। 14/73 राम ने तुम्हारे साथ जो यह भद्दा व्यवहार किया है, इसे देखकर मुझे उन पर बड़ा
क्रोध आ रहा है। 7. रघुनंदन :-[लंघति ज्ञानसीमानं प्राप्नति :-लंघ् + कु, न लोपः, लस्य रः +
नंदनः] राम के विशेषण। इत्यादृतेन कथितौ रघुनंदनेन व्युत्क्रम्य लक्ष्मणमुभौ भरतो ववन्दे। 13/72 आदर के साथ राम के इतना कहने पर भरतजी ने लक्ष्मण को छोड़कर पहले
उन्हीं दोनों का स्वागत किया। 8. रघुनाथ :-[लंघति ज्ञानसीमानं प्राप्नंति :-लंघ् + कु, न लोपः; लस्य रः +
नाथः] राम के विशेषण। रघुनाथोऽप्यगस्त्येन मार्गसंदर्शितात्मना। 15/54 वैसे ही राम को मार्ग में अगस्त्य ऋषि भी मिले। शासनाद्रघुनाथस्य चक्रे कारापथेश्वरौ। 15/90 राम की आज्ञा से अपने दोनों पुत्रों को कारापथ का राजा बना दिया। रघुपति :-[लंघति ज्ञानसीमानं प्राप्नति :-लंघ् + कु, न लोपः, लस्य र: + पतिः] राम के विशेषण। रघुपतिरपि जातवेदो विशुद्धं प्रगृह्य प्रियां प्रिय सुहृदि विभीषणे संगमप्य श्रियं वैरिणः। 12/104 राम ने रावण की राज्यश्री विभीषण को सौंप दी और फिर सीताजी को अग्नि में शुद्ध करके। भूयस्ततो रघुपतिर्विलसत्पताक मध्यास्त कामगति सावरजो विमानम्।
13/76
For Private And Personal Use Only
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
339
वैसे ही राम भी भरत, लक्ष्मण के साथ पताकाओं से सजे हुए और इच्छानुसार
चलने वाले पुष्पक विमान पर चढ़ गए। 10. रघुप्रवीर :-[लंघति ज्ञानसीमानं प्राप्नंति :-लंघु + कु, न लोपः; लस्य र: +
प्रवीरः] राम के विशेषण। तस्यै प्रतिश्रुत्य रघुप्रवीरस्त दीप्सितं पार्श्वचरानुयातः। 14/29 रामचंद्र जी ने उनकी बातें सुनकर कहा :-अच्छी बात है, वहाँ से उठकर वे
अपने सेवकों के साथ। 11. रघुवीर :-[लंघति ज्ञानसीमानं प्राप्नंति :-लंघ् + कु, न लोपः; लस्य रः +
वीरः] राम के विशेषण। श्वश्रूजनानुष्ठितचारुवेषां कीरथस्थां रघुवीरपत्नीम्। 14/13 रामचंद्र जी की पत्नी सीताजी उस समय पालकी पर बैठी चल रही थीं और उन सीताजी को कौशल्या आदि सासों ने बड़े मनोहर ढंग से वस्त्र और आभूषणों से
सजा रखा था। 12. रघूत्तम :-[लंघति ज्ञानसीमानं प्राप्नंति :-लंघ् + कृ; न लोपः, लस्य रः +
उत्तमः] राम के विशेषण। वनानिवृत्तेन रघूत्तमेन मुक्ता स्वयं वेणिरिवाबभासे। 14/12 मानो वन से लौटकर राम ने अयोध्यापुरी का जूड़ा ही अपने हाथ से खोलकर
छितरा दिया हो। 13. रघूद्वहः :-[लंघति ज्ञानसीमानं प्राप्नंति :-लंघ् + कु, न लोपः, लस्य रः + उद्वहः] राम के विशेषण।
आत्त शस्त्रस्तदध्यास्य प्रस्थितः स रघूद्वहः। 15/46
जब रामचंद्र जी अस्त्र-शस्त्र से लैस होकर पुष्पक विमान पर बैठकर चले। 14. राघव :-[रघोर्गोत्रापत्यम् :-अण्] रघुवंशी, रघु की संतान, राम।
लक्ष्मणानुचरमेव राघवं नेतुमैच्छदृषिरित्यसौ नुपः। 11/6 विश्वामित्रजी केवल राम और लक्ष्मण को ही ले जाना चाहते थे। पूर्ववृत्तकथितैः पुराविदः सानुजः पितृसखस्य राघवः। 11/10 राम और लक्ष्मण के पिता के मित्र विश्वामित्र जी, उन्हें मार्ग में पुरानी कथाएँ सुनाते चले जा रहे थे। तां विलोक्य वनितावधे घृणां पत्रिणा सह मुमोच राघवः। 11/17
For Private And Personal Use Only
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
340
कालिदास पर्याय कोश उस ताड़का को देखकर राम ने स्त्री को मारने की घृणा और बाण दोनों एक साथ छोड़े। उन्मनाः प्रथमजन्मचेष्टितान्यस्मरन्नपि बभूव राघवः। 11/22 वहाँ अपने पूर्वजन्म के वामनावतार की लीलाओं का ठीक-ठीक स्मरण न होने पर भी, रामचंद्र जी कुछ उत्कंठित से हो गए। राघवान्वितमुपस्थितं मुनिं तं निशम्य जनको जनेश्वरः। 11/35 जब राजा जनक को यह समाचार मिला कि विश्वामित्र जी के साथ राम और लक्ष्मण भी आए हुए हैं। एवमाप्तवचनात्स पौरुषं काकपक्षधरेऽपि राघवे। 11/42 वैसे ही काकपक्षधारी राम में भी धनुष उठाने की शक्ति अवश्य होगी। मैथिल: सपदि सत्यसङ्गरो राघवाय तनयामयोनिजाम्। 11/48 सत्य प्रतिज्ञा करने वाले जनक ने राम को सीता समर्पित कर दी। तेन कार्मुक निषक्तमुष्टिना राघवो विगत भीः पुरोगतः। 11/70 मुट्ठी में धनुष पकड़कर परशुरामजी ने आगे खड़े हुए राम से कहा। तद्धनुर्ग्रहणमेव राघवः प्रत्यपद्यत समर्थमुत्तरम्। 11/79 तब राम ने इस प्रकार वह धनुष हाथ में ले लिया, मानो परशुरामजी के वचनों का वही ठीक उत्तर हो। तं कृपामृदुरवेक्ष्य भार्गवं राघवः स्खलितवीर्यमात्मनि। 11/83 दयालु रामचंद्र जी ने एक बार निस्तेज परशुरामजी को देखा। रावणावरजातत्र राघवं मदनातुरा। 12/32 काम से पीड़ित रावण की छोटी बहन राम के पास जा पहुंची। उदायुधानापततस्तान्दृप्तान्प्रेक्ष्य राघवः। 12/44 राम ने दूर से देखा कि हाथ में शस्त्र उठाए घमंडी राक्षस आगे बढ़े चले आ रहे
राघवास्त्र विदीर्णानां रावणं प्रति रक्षसाम्। 12/51 राम के अस्त्र से मारे हुए उन राक्षसों का समाचार रावण तक पहुँचाने के लिए। राक्षसा मृगरूपेण वञ्चयित्वा स राघवौ। 12/53 तब उसने मारीच को मायामृग बनाया और राम-लक्ष्मण को धोखा देकर । तस्मै निशाचरैश्वर्यं प्रतिशुश्राव राघवः। 12/69
For Private And Personal Use Only
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
341
रघुवंश
राम ने भी उससे यह प्रतिज्ञा कर ली, कि हम तुम्हें राक्षसों का राजा बना देंगे। देवसूत भुजावलम्बी जैत्रमध्यास्त राघवः। 12/85 इन्द्र के सारथी मातलि का हाथ थामकर राम उस रथ पर चढ़ गए। " आदिदेशाथ शत्रुघ्नं तेषां क्षेमाय राघवः। 15/6 राम ने उन मुनियों की रक्षा का भार शत्रुघ्न को सौंपा। श्रुत्वा तस्य शुचो हेतुं गोप्ता जिह्वाय राघवः। 15/44 प्रजापालक राम ने जब उसके शोक की बात सुनी, तब उन्हें बड़ी लज्जा आई। राघवः शिथिलं तस्थौ भुवि धर्मस्त्रिपदिव। 15/96 राम उसी प्रकार ढीले पड़ गए, जैसे पृथ्वी पर त्रेतायुग में तीन पैर वाला धर्म
ढीला पड़ जाता है। 15. राम :-[रम् कर्तरि घञ्, ण वा] तीन प्रसिद्ध व्यक्तियों का नाम (क) परशुराम
(ख) बलराम (ग) दशरथ पुत्र-राम। राम इत्यभिरामेण वपुषा तस्य चोदितः। 10/67 उस बालक का सुन्दर शरीर देखकर उनका नाम राम रख दिया। शय्यागतेन रामेण माता शातोदरी बभौ। 10/69 गर्भ से दुबली माता कौशल्या, राम को लिए हुए पलंग पर लेटी हुई ऐसी जान पड़ती थीं। समानेऽपि हि सौभ्रात्रे यथोभौ रामलक्ष्मणौ। 10/81 यद्यपि चारों में परस्पर बहुत प्रेम था फिर भी विशेष प्रेम के कारण राम और लक्ष्मण की। कौशिकेन स किल क्षितीश्वरो राममध्वरविघात शान्तये। 11/1 एक दिन विश्वामित्र जी राजा दशरथ के पास आए और उन्होंने कहा कि मेरे यज्ञ की रक्षा के लिए राम को हमारे साथ भेज दीजिए। यच्चकार विवरं शिलाथने ताडकोरसि स रामसायकः। 11/18 राम के उस बाण ने पत्थर की चट्टान के समान कठोर ताड़का की छाती में जो छेद किया। राममन्मथ शरेण ताडिता दुःसहेन हृदये निशाचरी। 11/20 राम के बाण से बिंधकर ताड़का काम के बाण से घायल हुई अभिसारिका के समान।
For Private And Personal Use Only
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
342
कालिदास पर्याय कोश अन्यदा जगति राम इत्ययं शब्द उच्चरित एव मामगात्। 11/73 पहले संसार में राम कहने से लोग मुझे ही समझते थे पर। तस्मिन्गते विजयिनं परिभ्य रामं स्नेहादमन्यत पिता पुनरेव जातम्। 11/92 उनके चले जाने पर विजयी राम को दशरथ जी ने गले से लगा लिया और वे स्नेह में भरकर यह समझने लगे कि राम का दूसरा जन्म हुआ है। तं कर्णमूलमागत्य रामे श्रीय॑स्यतामिति। 12/2 राजा के कान में आकर यह कह रहा हो कि अब राम को राज्य सौंप ही देना चाहिए। सा पौरान्पौरकान्तस्य रामस्याभ्युदयश्रुतिः। 12/3 वैसे ही नगरवासियों के प्यारे राम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर अयोध्या के लोग फूले नहीं समाए। रामोऽपि सह वैदेह्या वने वन्येन वर्तयन्। 12/20 राम भी सीता के साथ कन्द-मूल फल खाते हुए वह व्रत करने लगे। तस्मिन्नास्थदिषीकास्त्रं रामो रामावबोधितः। 12/23 झट सीताजी ने राम को जगाया, तत्काल राम ने उस पर सींक का बाण छोड़ा। रामस्त्वासन्नदेशत्वाद्भरतागमनं पुनः। 12/24 राम ने इस डर से वह स्थान छोड़ दिया कि ऐसा न हो कि भरत फिर यहाँ पहुँच जायें। पञ्चवट्यां ततो रामः शासनात्कुम्भजन्मनः। 12/31 जैसे अगस्त्यजी की आज्ञा से विंध्याचल, उसी प्रकार राम भी मर्यादापूर्वक पंचवटी में रहने लगे। अतिष्ठन्मार्गमावृत्य रामस्येन्दोरिव ग्रहः। 12/28 जैसे चंद्रमा का मार्ग राहु रोक लेता है, उसी प्रकार वह राम का मार्ग रोककर खड़ा हो गया। रामोपक्रममाचरव्यौ रक्षः परिभवं नवम्। 12/42 आज पहली बार राम ने इस प्रकार राक्षसों का अपमान किया है। रामाभियायिनां तेषां तदेवाभूदमंगलम्। 12/43 राम से लड़ने के लिए निकले, उन लोगों ने पहले ही अपना सगुन बिगाड़ दिया। तस्मिनरामशरोत्कृत्ते बले महति रक्षसाम्। 12/49
For Private And Personal Use Only
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
343
राम ने अपने बाणों से राक्षसों की सेना को इस प्रकार काट डाला। सा बाण वर्षिणं रामं योधयित्वा सुरद्विषाम्। 12/50 बाण बरसाने वाले राम से लड़कर वह राक्षसों की सेना। रामेण निहितं मेने पदं दशसु मूर्धसु। 12/52 मानो राम ने उसके दसों सिरों पर पैर रख दिया हो। मुमूर्च्छ सरव्यं रामस्य समान व्यसनै हीरौ। 12/57 इस सुग्रीव के भी राज्य और स्त्री को उसके भाई ने छीन लिया था, इसलिए उसने स्त्री से बिछुड़े हुए राम से शीघ्र ही मित्रता कर ली। कपयश्चेरुरार्तस्य रामस्येव मनोरथाः। 12/59 जैसे विरही राम का मन सीताजी की खोज में इधर-उधर भटकता था, वैसे ही वानर भी इधर-उधर घूमकर सीताजी की खोज करने लगे। प्रत्यभिज्ञानरत्नं च रामयादर्शयत्कृती। 12/64 फिर सीताजी से मिलने की पहचान के लिए उनसे चूड़ामणि लेकर, वे राम के पास लौट आए। श्रुत्वा रामः प्रियोदन्तं मेने तत्संगमोत्सुकः। 12/66 प्रिया का संदेश सुनकर राम उनसे मिलने के लिए उतावले हो गए। अथ रामशिरश्छेद दर्शनोभ्रान्तचेतनाम्। 12/74 उसी समय एक राक्षस ने माया से राम का सिर बनाकर सीता जी के सामने ला पटका, उसे देखते ही सीताजी मूर्छित होकर गिर पड़ी। रुरोध रामं शृङ्गीव टङ्कच्छिन्नमनः शिलः। 12/80 वह राम का मार्ग रोककर उसी प्रकार खड़ा हो गया, जैसे टांगों से कटी हुई कोई मैन सिल की चट्टान आ गिरी हो। रामेशुभिरितीवासौ दीर्घनिद्रां प्रवेशितः। 12/81 मानो राम के बाणों ने उसे यह कहकर गहरी नींद में सुला दिया। अरावणमरामं वा जगदद्येति निश्चितः। 12/83 आज संसार में या तो रावण ही नहीं रहेगा, या राम ही नहीं रहेंगे। रामं पदातिमालोक्य लंकेशं च वरूथिनम्। 12/84 रावण को रथ पर और राम को पैदल देखकर इन्द्र ने। राम रावणयोर्युद्धं चरितार्थमिवाभवत्। 12/87
For Private And Personal Use Only
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
344
कालिदास पर्याय कोश इस प्रकार तीनों लोकों में जो राम-रावण युद्ध प्रसिद्ध था, वह आज सफल हो गया। रामस्तुलितकैलासमरातिं बह्वमन्यत। 12/89 जिसने कैलास पर्वत को उंगलियों पर उठा लिया था, उसे देखकर राम ने समझा कि यह कुछ कम पराक्रमी नहीं है। रावणास्यापि रामास्तो भित्त्वा हृदयमाशुगः। 12/91 राम ने जो बाण छोड़ा, वह रावण की छाती को छेदकर पाताल को चला गया। यानादवातरददूरमहीतलेन मार्गेण भङ्गिरचितस्फटिकेन रामः। 13/69 स्फटिक मणियों से जड़ी हुई सीढ़ी से रामचन्द्र जी विमान से उतरे। रामज्ञया हरिचमूपतय स्तदानीं कृत्वा मनुश्यवपुरारुरुहुंर्गजेन्द्रान्। 13/74 राम के कहने से वानरों और भालुओं के सेनापति मनुष्यों का वेश बना-बनाकर हाथियों पर चढ़ गए। रामेण मैथिलसुतां दशकण्ठकृच्छ्रात् प्रत्युद्धृतां धृतिमयीं भरतो ववन्दे।
13/77 राम ने रावण रूपी संकट से जिसे उबार लिया था, उस विमान में बैठी हुई सीताजी को भरतजी ने जाकर प्रणाम किया। सीतास्वहस्तोपहृताग्यपूजान् रक्षः कपीन्द्रान्विससर्ज रामः। 14/19 राम ने उन राक्षसों और वानर-सेनापतियों को विदा किया, जिनकी चलते समय सीताजी ने स्वयं अपने हाथों से पूजा की। पितुर्नियोगाद्वनवासमेवं निस्तीर्य रामः प्रतिपन्न राज्यः। 14/21 इस प्रकार पिता की आज्ञा से वनवास की अवधि बिताकर राम ने अपने पिता का राज्य फिर से पाया। बभूव रामः सहसा सवाष्पस्तुषारवर्षीव सहस्य चन्द्रः। 14/84 उन बातों को सुनकर ओस बरसाने वाले पूस के चंद्रमा के समान, राम की आँख से टपटप आँसू गिरने लगे। अवेक्ष्य रामं ते तस्मिन्न प्रजह्वः स्वतेजसा। 15/3 वे अपने तेज से लवणासुर को भस्म कर डालते, पर राम को देखकर उन्होंने यह ठीक नहीं समझा। ते रामाय वधोपायमाचरव्युर्विबुध द्विषः। 15/5
For Private And Personal Use Only
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
345
रघुवंश
तब मुनियों ने राम को बताया कि जब तक उसके हाथ में भाला रहेगा, तब तक उसका हारना कठिन है। रामादेशादनुगता सेना तस्यार्थ सिद्धये। 15/9 राम की आज्ञा से शत्रुघ्न के साथ जो सेना गई, वह वैसे ही व्यर्थ थी जैसे। रामस्य मधुरं वृत्तं गायन्तौ मातुरग्रतः। 15/34 अपनी माता के आगे राम का यश गा-गाकर उन दोनों ने। रामं सीता परित्यागादसामान्य पतिं भुवः। 15/39 सीता जी को छोड़ देने पर राम एकमात्र पृथ्वी के ही स्वामी रह गए हैं। रामहस्तमनुप्राप्य कष्टात्कष्टतरं गता। 15/43 राम के हाथ में आकर बड़े कष्ट में पड़ गई हो, तुम्हारी दशा बड़ी शोचनीय हो गई है। पश्चान्निववृते रामः प्राक्पृरासुर्द्विजात्मजः। 15/56 जब राम अयोध्या लौटे तब उन्हें ज्ञात हुआ, कि उनके आने के पहले ही ब्राह्मण का पुत्र जी उठा। वृत्तं रामस्य वाल्मीकेः कृतिस्तौ किंनरस्वनौ। 15/64 एक तो राम का चरित, उस पर वाल्मीकि उसके रचयिता और फिर किन्नरों के समान मधुर कंठ वाले लव और कुश। ददर्श सानुजो रामः शुश्राव च कुतूहली। 15/65 राम ने अपने भाइयों के साथ उन दोनों बालकों के रूप और गीत की मधुरता को आश्चर्य के साथ देखा और सुना। वयोवेषविसंवादी रामस्य च तयोस्तदा। 15/67 वे दोनों अभी कुमार थे तथा वनवासियों के वस्त्र पहने हुए थे और राम प्रौढ़ थे तथा राजसी वस्त्र पहने हुए थे। अथ सावरजो रामः प्राचेत समुपेयिवान्। 15/70 अपने भाइयों को साथ लेकर रामचंद्र जी वाल्मीकि के पास गए। स तावाख्याय रामाय मैथिलेयौ तदात्मजौ। 15/71 दयालु ऋषि ने राम से कहा कि ये दोनों गायक कुमार सीताजी के गर्भ से उत्पन्न तुम्हारे पुत्र हैं। ऋचेवोदर्चिषं सूर्यं रामं मुनिरुपस्थितः। 15/76
For Private And Personal Use Only
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
346
कालिदास पर्याय कोश अपने पुत्रों व मुनि के साथ राम के सामने उपस्थित सीता जी ऐसी लगती थीं, मानो गायत्री सूर्य के पास जा रही हो। रामः सीतागतं स्नेहं निदधे तदपत्ययोः। 15/86 अब राम अपने पुत्रों से उतना ही प्रेम करने लगे, जितना सीताजी से करते थे। अभिषिच्याभिषेका) रामान्तिकमगात्पुनः। 15/89 राजधानियों का राजा बना दिया और स्वयं राम के पास लौट आए। यत्कुम्भयोनेरधिगम्य रामः कुशाय राज्येन समं दिदेश। 16/72 राम को अगस्त्य ऋषि ने जो जैत्र आभूषण दिया था, उसे राम ने राज्य के साथ
ही कुश को दे दिया था। 16. लक्ष्मणपूर्वजन्मा :-[लक्ष्मन् + अण्, न वृद्धिः + पूर्वजन्मा] राम।
स लक्ष्मणं लक्ष्मणपूर्वजन्मा विलोक्य लोकत्रयगीतकीर्तिः। 14/44 तीनों लोकों में प्रसिद्ध यशस्वी, अपनी बात के पक्के राम ने जब देखा कि
लक्ष्मण उनकी आज्ञा मानने को तत्पर हैं, तब। 17. लक्ष्मणाग्रज :-[लक्ष्मन् + अण, न वृद्धिः + अग्रजः] राम।
उन्मुखः सपदि लक्ष्मणाग्रजो बाणमाश्रयमुखात्समुद्धरन्। 11/26 उसी समय राम ने अपने तूणीर से बाण निकाले और ऊपर मुँह करके आकाश की ओर देखा। उचिवानिति वचः स लक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजमृषिस्तिरोदधे। 11/91 राम और लक्ष्मण से यह कहकर वह (परशुराम) अन्तर्धान हो गए।
रेवा
1. नर्मदा :-[न + मनिन् + दा] नर्मदा, रेवा, विंध्यपर्वत से निकलने वाली नदी
जो खंबात की खाड़ी में गिरती है। स नर्मदा रोधसि सीकरार्दैर्मरुद्भिरानर्तितनक्त माले। 5/42 वहाँ से चलकर राजा अज से नर्मदा नदी के किनारे, जहाँ शीतल वायु बह रही
थी और उसके झोंकों में करंजक के पेड़ झूम रहे थे, पड़ाव डाला। 2. रेवा :-[रेव + अच् + टाप] नर्मदा नदी का नाम।
प्रासाद जालैर्जलवेणिरम्यां रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति कामः। 6/43
For Private And Personal Use Only
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
347
रघुवंश
तुम यदि राजभवन के झरोखों से उस सुन्दर लहरों वाली नर्मदा का मनोहर दृश्य देखना चाहती हो। चकार रेवेव महाविशवा बद्धप्रतिश्रुन्ति गुहामुखानि। 16/31 उस सेना ने नर्मदा के सामने जो गंभीर गर्जन किया, उससे पर्वत की गुफाएँ भी
गूंज उठीं। 3. सोमोद्भवा :-[सू + मन् + उद्भवा] नर्मदा नदी
तथेत्युपस्पृश्य पयः पवित्रं सोमोद्भवायाः सरितो नृसोमः। 5/59 राजा अज ने गंधर्व का कहना मान लिया, उन्होंने पहले चंद्रमा से निकली हुई नर्मदा के जल का आचमन किया।
लक्ष्मण 1. रामावरज :-[रम् कर्तरि घञ्, ण वा + वरजः] लक्ष्मण।
आश्वास्य रामावरजः सती तामाख्यातवाल्मीकिनिकेतमार्गः। 14/58 लक्ष्मण ने उन्हें बहुत समझाया बुझाया और वाल्मीकि का आश्रम दिखाकर
कहा। 2. रामानुज :-[रम् कर्तरि घञ, ण वा + अनुजः] लक्ष्मण।
तथेति तस्याः प्रति गृह्य वाचं रामानुजे दृष्टिपथं व्यतीते। 14/68 यह सुनकर लक्ष्मण बोले :-मैं सब कह दूँगा, यह कहकर, ज्यों ही वे वहाँ से
चलकर आँखों से ओझल हुए कि। 3. लक्ष्मण :-[लक्ष्मन् + अण्, न वृद्धिः] सुमित्रा नामक पत्नी से उत्पन्न दशरथ
का एक पुत्र। लक्ष्मणानुचरमेव राघवं नेतुमैच्छदृषिरित्यसौ नृपः। 11/6 विश्वामित्र जी केवल गम और लक्ष्मण को ही ले जाना चाहते थे, अतः राजा ने उनकी सहायता के लिए अपना आशीर्वाद ही दिया, सेना नहीं। पार्थिवीमुदवहद्रघूद्वहो लक्ष्मणस्तदनुजामथोर्मिलाम्। 11/54 राम का सीता से और लक्ष्मण का सीताजी की छोटी बहन उर्मिला से विवाह हुआ। उचिवानिति वचः सलक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजमृषि स्तिरोदधे। 11/91
For Private And Personal Use Only
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
348
कालिदास पर्याय कोश राम और लक्ष्मण से यह कहकर परशुरामजी अन्तर्धान हो गए। स सीता लक्ष्मणसखः सत्याद्गुरुमलोपयन्। 12/9 अपने पिता के वचन सत्य करने के लिए वे सीता और लक्ष्मण के साथ। लक्ष्मण: प्रथमं श्रुत्वा कोकिलाम वादिनीम्। 12/39 जब लक्ष्मण ने यह देखा कि अभी तो यह कोयल के समान मधुर बोल रही थी। निदधे विजया शंसां चापे सीतां च लक्ष्मणे। 12/44 इन्हें तो हम अकेले ही अपने धनुष से जीत लेंगे, इसलिए उन्होंने सीता की रक्षा का भार लक्ष्मण को सौंप दिया। ततो बिभेद पौलस्त्यः शक्त्या वक्षसि लक्ष्मणम्। 12/77 तब मेघनाद ने खींचकर लक्ष्मण की छाती में शक्ति-बाण मारा। हत्या निवृत्ताय मृधे खरादीन्संरक्षितां त्वामिव लक्ष्मणो मे। 13/65 खरदूषण आदि राक्षसों को मारकर जब मैं लौटा था, उस समय जैसे लक्ष्मण ने तुम्हें मेरे हाथ सुरक्षित रूप से सौंप दिया था। इत्यादृतेन कथितौ रघुनन्दनेन व्युत्क्रम्य लक्ष्मणमुभौ भरतो ववन्दे। 13/72 राम के इतना आदर पूर्वक उनका परिचय देने के बाद भरत जी ने लक्ष्मण को छोड़कर, पहले उन्हीं दोनों का स्वागत किया। स लक्ष्मणं लक्ष्मण पूर्वजन्मा विलोक्य लोकत्रय गीतकीर्तिः। 14/44 तीनों लोकों में प्रसिद्ध यशस्वी, राम ने जब देखा कि लक्ष्मण उनकी आज्ञा मानने को तत्पर हैं। जुगृह तस्याः पथि लक्ष्मणो यत्सव्येतरेण स्फरता तदक्ष्णा। 14/49 लक्ष्मण ने सीता जी से मार्ग में कुछ भी नहीं बताया, पर सीता जी के दाहिने नेत्र फड़क कर आगे आने वाले दुःख की सूचना दे ही तो दी। अङ्गदं चन्द्रकेतुं च लक्ष्मणोऽप्यात्य संभवौ। 15/90 लक्ष्मण ने अपने दोनों पुत्रों अंगद और चंद्रकेतु को। विद्वानपि तयोः स्थः समयं लक्ष्मणोऽभिनत्। 15/94 उन्होंने द्वार पर बैठे हुए लक्ष्मण से कहा कि :-अभी जाकर राम से कहो मैं आया हूँ, लक्ष्मण जी जानते ही थे कि जो इस समय राम के पास जाएगा, उसे
देश निकाला होगा, फिर भी उन्होंने सूचना दी। 4. सुमित्रात्मज :-[सुमित्रा + आत्मजः] सुमित्रा पुत्र लक्ष्मण।
For Private And Personal Use Only
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
349 तस्याः सुमित्रात्मजयत्नलब्धो मोहादभूत्कष्टतरः प्रबोधः। 14/56 लक्ष्मण ने प्रयत्न करके जो उनकी मूर्छा दूर कर दी, वह बात उन्हें मूर्छा से भी
अधिक कष्टदायक जान पड़ी। 5. सुमित्रातनय :-[सुमित्रा + तनयः] सुमित्रा पुत्र लक्ष्मण।
गुरोर्नियोगाद्वनितां वनान्ते साध्वीं सुमित्रा तनयो विहास्यन। 15/51 वे बड़े भाई की आज्ञा से पतिव्रता सीता को वन में छोड़ने के लिए जाते हुए
लक्ष्मण से मानो कह रही थीं। 6. सौमित्र :-[सुमित्रा + अण, इञ् वा] लक्ष्मण का विशेषण
तस्य पश्यन्ससौमित्रै रुदभुर्वसति दुमान्। 12/14 जब उन्हें वे वृक्ष दिखाए, जिनके तले राम और लक्ष्मण जाते हुए टिके थे, तो उनकी आँखों में आँसू छलक आए। रविसुत सहितेन तेनानुयातः ससौमित्रिणा भुजविजितविमान रत्नाधिरूढः प्रतस्थे पुरीम्। 12/104 सुग्रीव, विभीषण और लक्ष्मण के साथ अपने बाहुबल से जीते हुए पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या की ओर लौटे। त्वत्प्राप्ति बुद्धया परिरब्धुकामः सौमित्रिणा साश्रुरहं निषिद्धः। 13/32 तुम्हारे वियोग में मैं ऐसा पागल हो गया था, कि एक दिन इसे यह समझकर गले लगाना चाहा था कि तुम ही हो, तो मेरा पागलपन देखकर रोते हुए लक्ष्मण ने मुझे वहाँ से हटा लिया। सौमित्रिणा तदनु संससृजे स चैनमुत्थाप्य नमशिरसं भृशमालिलिङ्ग। 13/73 तब भरतजी लक्ष्मण से मिले और प्रणाम के लिए झुके हुए लक्ष्मण का सिर उठाकर। सौमित्रिणा सावरजेन मन्दमाधूतबालव्यजनो रथस्यः। 14/11 लक्ष्मण और शत्रुघ्न रथ में बैठे हुए राम पर चंवर डुला रहे थे। अथ व्यवस्थापित वाक्कथं चित्सोमित्रिरन्तर्गत वाष्पकण्ठः। 14/53 पार पहुँचकर लक्ष्मण ने आँसू रोककर, सैंधे हुए गले से सीताजी को राजा की आज्ञा इस प्रकार सुनाई।
For Private And Personal Use Only
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
350
कालिदास पर्याय कोश
लक्ष्मी 1. कमला :-[कमल + अच् + टाप्] लक्ष्मी का विशेषण।
नृपतिमन्यम सेवत देवता सकमला कमलाघवमर्थिषु। 9/16 दूसरा राजा ही कौन सा था जिसके यहाँ हाथ में कमल धारण करने वाली
पतिव्रता लक्ष्मी स्वयं जाकर रहती। 2. पद्मा :-[पद् + मन् + टाप्] सौभाग्य की देवी लक्ष्मी, विष्णु की पत्नी।
पद्मा पद्मातपत्रेण भेजे साम्राज्य दीक्षितम्। 4/5 मानो लक्ष्मी स्वयं छिपकर उजले कमल का छत्र लेकर उनके पीछे खड़ी हो। पोव नारायणमन्यथा सौ लभेत कान्तं कथमात्मतुल्यम्।7/13 जैसे स्वयंवर में लक्ष्मी ने नारायण को वर लिया, वैसे ही इंदुमती ने भी अज को
वर लिया, बताओ तो बिना स्वयंवर के योग्य वर कैसे मिलता। 3. लक्ष्मी :-[लक्ष + ई, मुट् + च] समृद्धि, सौन्दर्य, लक्ष्मी विष्णु की पत्नी मानी
जाती हैं। तस्मादपावर्तत दूरकृष्टा नीत्येव लक्ष्मीः प्रतिकूल दैवात्। 6/58 उस राजा को छोड़कर उसी प्रकार आगे बढ़ गई, जैसे पुरुषार्थ से लाई हुई संपत्ति भाग्य के फेर से छोड़कर चली जाती है। प्रभानुलिप्त श्री वत्सं लक्ष्मीविभ्रमदर्पणम्। 10/10 जिसमें लक्ष्मीजी श्रृंगार के समय अपना मुँह देखा करती हैं और जिसकी चमक से श्रीवत्स चिह्न भी चमक उठता था। पर्युपास्यन्त लक्ष्मया च पद्मव्यजन हस्तया। 10/62 लक्ष्मी हाथ में कमल का पंखा लेकर हमारी सेवा कर रही हैं। उपस्थितश्चारु वपुस्तदीयं कृत्वोपभोगोत्सुकयेव लक्ष्या। 14/24 मानो राज्यलक्ष्मी ने ही राम के साथ रमण करने की इच्छा से सीता का सुंदर रूप
धर लिया हो। 4. श्री :-[श्रि + क्विप्, नि०] विष्णु की पत्नी लक्ष्मी, जो धन की देवी हैं,
समृद्धि, सौन्दर्य। निसर्गभिन्ना स्पदमेक संस्थमस्मिन्द्वयं श्रीश्च सरस्वती च। 6/29 यों तो तुम जानती ही हो कि लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कभी नहीं बनती, पर इनके पास दोनों ही मिलकर रहती हैं। येन श्रियः संश्रयदोषरूढं स्वभाव लोलेत्य यशः प्रमृष्टम्। 6/41
For Private And Personal Use Only
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
351
लक्ष्मी को जो चंचलता का दोष लगाया जाता था पर उनका वह दोष भी तब से धुल गया, जब से वह इनके साथ रहने लगी। श्रियः पद्मनिषण्णायाः क्षौमान्तरितमेखले। 10/8 उन्हीं के पास कमल पर लक्ष्मी बैठी हुई थीं, जिनकी कमर में रेशमी वस्त्र पड़ा हुआ था। शान्ते पितर्याहृत पुण्डरीका यं पुण्डरीकाक्षमिव श्रिता श्रीः। 18/8 पिता के स्वर्ग चले जाने पर कमल धारण करने वाली लक्ष्मी ने पुण्डरीक की ही विष्णु मानकर वर लिया।
लज्जा
1. लज्जा :-[लज्ज् + अ + टाप्] शर्म।
स त्वं निवर्तस्व विहाय लज्जां गुरोर्भवान्दर्शित शिष्य भक्तिः। 2/40 इसलिए अब तुम लाज छोड़कर घर लौट जाओ, तुमने यह तो दिखला ही दिया है कि तुम अपने गुरु के बड़े भक्त हो। ततः सुनन्दा वचनावसाने लज्जां तनूकृत्य नरेन्द्र कन्या। 6/80 जब सुनंदा कह चुकी, तब इन्दुमती ने संकोच छोड़कर। चकार सा मत्तचकोर नेत्रा लज्जावती लाजाविसर्गमग्नौ। 7/25 मत्त चकोर के समान आँखों वाली, लजीली इन्दुमती ने धान की खीलें छोडीं। प्रणयिनीव नखक्षतमण्डनं प्रमदया मदयापितलज्जया। 9/31 मानो काम के आवेश में लाज छोड़कर किसी कामिनी ने अपने प्रियतम के शरीर पर नख-क्षत कर दिए हों। तच्चिन्त्यमानं सुकृतं तवेति जहार लज्जां भरतस्य मातुः। 14/16 यह सुनकर कैकेयी के मन में जो आत्मग्लानि लज्जा भरी हुई थी, वह सब जाती
रही। 2. व्रीडा :-[व्रीड् + घञ् + टाप्, व्रीड् + अ + टाप्] लज्जा।
वीडमावहति मे ससंप्रति व्यस्तवृत्ति रुदयोन्मुखे त्वयि। 11/73 ज्यों-ज्यों तुम ऊँचे चढ़ते चले जा रहे हो, त्यों-त्यों वह अर्थ तुम्हारे नाम के साथ लगता जा रहा है, यह सब देखकर मुझे लज्जा लगने लगती है। शुशुभे विक्रमोदग्रं व्रीडयावनतं शिरः। 15/27
For Private And Personal Use Only
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
352
कालिदास पर्याय कोश अपनी प्रशंसा सुनकर शत्रुघ्न जी शील के मारे लजा गए। 3. ह्री :-[ही + क्विप्] लज्जा।
न मे ह्रिया शंसति किंचिदीप्सितं स्पृहावती वस्तुषु केषु मागधी। 3/5 सुदक्षिणा बड़ी लजीली है और अपनी इच्छा हमसे प्रकट नहीं करती है। पौलस्त्यतुलितस्यादेरादधान इव ह्रियम्। 4/80 कैलास पर्वत को बड़ी लज्जा हुई कि एक बार रावण ने मुझे क्या उठा लिया, कि सभी मुझे हारा हुआ समझने लगे। अलं ह्रिया मां प्रति यन्मूहूर्तं दयापरोऽभूः प्रहरन्नपि त्वम्। 5/58 जान पड़ता है कि आपने जो मुझ पर बाण चलाया है, उससे आपके मन में कुछ संकोच हो रहा है, पर इसमें लजाने की क्या बात है, क्योंकि आपके मन में मुझे मारने की इच्छा तो थी नहीं। ह्री यन्त्रणामानशिरे मनोज्ञा मन्योन्यलोलानि विलोचनानि। 7/23 एक दूसरे को देखकर लज्जा से आँखें नीची कर लेते थे, उनका यह लाज भरा संकोच देखने वालों को बड़ा सुंदर लग रहा था। हृष्टापि सा ह्रीविजिता न साक्षाद्वारग्भिः सखीनां प्रयमभ्यनन्दत्। 7/69 इन्दुमती प्रसन्न तो हुईं, पर वह इतनी लजा गई कि उनके मुँह से शब्द ही नहीं निकले और उसकी सखियों ने जो अज की प्रशंसा की, वह मानो इंदुमती ने ही उनका अभिवादन किया हो।
लता
1. लता :-[लत् + अच् + टाप्] बेल, फैलने वाला पौधा, शाखा।
लता प्रतानोदग्रथितैः स केशैरधिज्यधन्वा विचचार दावम्। 2/8 उनकी शिर की लटें, जंगल की लताओं के समान उलझ गई थीं, जब वे हाथ में धनुष लेकर जंगल में घूमते थे। अवाकिरन्बाललताः प्रसूनैराचारलाजैरिव पौरकन्याः। 2/10 लताएँ राजा दिलीप के ऊपर उसी प्रकार फूलों की वर्षा कर रही थीं, जिस प्रकार राजा के स्वागत में नगर की कन्याएँ राजा दिलीप के ऊपर धान की खीलें बरसाती हों। पुराण पत्रापगमदनन्तरं लतेव संनद्ध मनोज्ञपल्लवा। 3/7
For Private And Personal Use Only
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
353
जैसे वसंत ऋतु में लताएँ पुराने पत्ते गिराकर नये कोमल पत्तों से लदकर सुंदर लगने लगती हैं। अनन्तराशोकलता प्रवालं प्राप्येव चूतः प्रतिपल्लवेन। 7/21 जैसे आम का पेड़ अपनी पत्तियों के साथ अशोक लता की लाल पत्तियों के मिल जाने से मनोहर लगता है। यदनेन तरुन पातितः क्षपिता तद्विटपाश्रिता लता। 8/47 जिसने पेड़ को तो छोड़ दिया, पर उसके साथ लिपटी हुई लता को जला दिया। पृषतीषु विलोलमीक्षितं पवनाधूत लतासु विभ्रमाः। 8/59 तुम्हारी चंचल चितवन हरिणियों को मिल गई और तुम्हारा चुलबुलापन वायु से हिलती हुई लताओं में पहुँच गया। अमदयत्सहकारलता मनः सकलिका कलिकामजितामपि। 9/33 नये बौरे हए आम के वृक्षों की डालियाँ झूम उठीं, उन्हें देखकर रागद्वेष को जीतने वाले योगियों का मन भी मचल उठा। उपवनान्तलताः पवनाहतैः किसलयैः सलयैरिव पाणिभिः। 9/35 वन के किनारे बढ़ी हुई, लताएँ ऐसी सजीव सी जान पड़ती थीं, मानो वायु से खिली हुई शाखाओं वाले हाथों से वे अनेक प्रकार के हाव-भाव दिखा रही हों। तनुलता विनिवेशितविग्रहा भ्रमर संक्रमिते क्षणवृत्तयः। 9/52 कोमल लताओं का रूप धारण करके भौरों की आँखों से वनदेवता भी उन राजा को। त्वं रक्षसा भीरु यतोऽपनीता तं मार्गमेताः कृपया लता मे। 13/24 हे भीरु ! रावण तुम्हें जिस मार्ग से ले गया था, उस मार्ग की लताएँ मुझे कृपा करके तुम्हारे जाने का मार्ग बताना चाहती थीं। स्वमूर्तिलाभ प्रकृति धरित्री लतेव सीता सहसा जगाम। 14/54 सीताजी, लता के समान, अपनी माँ पृथ्वी की गोद में अचानक गिर पड़ीं। अथोर्मिलोलोन्मदराज हंसै रोधोलता पुष्पवहे सरय्वाः। 16/54 लहरों के लहराने से मतवाले बने हुए हंसों वाले तट की लताओं के फूलों को
बहाने वाले, सरयू के जल में। 2. वल्लि :-[वल्ल् + इति] लता, बेल। वल्ली :-[वल्लि + ङीप्] लता,
बेल।
ताम्बूलवल्ली परिणद्धपूगा स्वेलालतालिङ्गित चन्दनासु। 6/64
For Private And Personal Use Only
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
354
कालिदास पर्याय कोश
जिनमें पान की बेलों से ढके हुए सुपारी के पेड़ खड़े हैं, इलायची की बेलों से
लिपटे हुए चंदन के पेड़ लगे हैं। 3. वीरुध :-[विशेषेण रुणद्धि अन्यान् वृक्षान :-वि + रुध् + क्विप पक्षे टाप
उपसर्गस्य दीर्घः] लता, शाखा। अभिभूय विभूति मार्तवीं मधुगन्धाति शयेन वीरुधाम्। 8/36 उस स्वर्गीय माला में इतना अधिक मधु और इतनी अधिक गंध थी, कि उसके
आगे वसंत के वृक्षों और लताओं का मधु और सुवास लजा जाता था। 4. व्रतति :-लता, शाखा।।
अपश्यतां दाशरथी जनन्यौ छेदादिवोपजतरोतत्यौ। 14/1 राम की माताएँ उसी प्रकार उदास दिखती थीं, जैसे वृक्ष के कट जाने पर उसके सहारे चढ़ी हुई लताएँ मुरझा जाती हैं।
लोक 1. जगत् :-[गम् + क्विप् नि० द्वित्वं तुगागमः] संसार, लोक, पृथ्वी।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ। 1/1 मैं संसार के माता-पिता पार्वती जी और शिवजी को प्रणाम करता हूँ। एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च। 2/47 क्योंकि तुम एक साधारण सी गौ के पीछे इतना बड़ा राज्य (संसार), यौवन और ऐसा सुंदर शरीर छोड़ने पर उतारू हो गए हो। जगत्प्रकाशं तदशेषमिज्यया भवद् गुरुर्लयितुं ममोद्यतः। 3/48 मैंने सौ यज्ञ करने का संसार में जो यश पाया है, उसे तुम्हारे पिता मुझसे छीनना चाहते हैं। शमिताधिरधिज्यकार्मुकः कृतवानप्रतिशासनं जगत्। 8/27 तब उन्हें धीरज हुआ और उनका शोक कम हुआ, तब वे धनुष-बाण लेकर सारे संसार पर एक छत्र राज्य करने लगे। निर्दोषमभवत्सर्व माविष्कृत गुणं जगत्। 10/72 उस समय संसार से सारे दोष भाग गए और चारों ओर गुण ही गुण फैल गए। अन्यदा जगति राम इत्ययं शब्द उच्चरित एव मामगात्। 11/73 पहले संसार में राम कहने से लोग मुझे ही समझते थे। तत्रेश्वरेण जगतां प्रलयादिवोर्वी वर्षात्ययेन रुचमभ्रघनादिवेन्दोः। 13/77
For Private And Personal Use Only
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
355
जैसे आदि वराह ने प्रलय से पृथ्वी को उबार लिया था, जैसे वर्षा बीतने पर शरद, बादलों से चाँदनी छीन लेता है।
पूर्वराज वियोगौष्मयं कृत्स्नस्य जगतो हृतम् । 17/33
सारे संसार के उस ताप को दूर कर दिया, जो कुश के वियोग से उत्पन्न हो गया
था ।
2. भुवन :- [ भवत्यत्र, भू- आधारादौ - क्युन् ] लोक, पृथ्वी, संसार । क्षतात्किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः । 2/53
हे सिंह ! संसार में क्षत्रिय शब्द का अर्थ ही यह है, कि दूसरों को नष्ट होने से बचावे |
गुर्वी धुरं यो भुवनस्य पित्रा धुर्येण दम्यः सदृशं बिभर्ति | 6/78
ये भी अपने प्रतापी पिता के समान ही राज्य का ( संसार का ) सब काम संभालते हैं ।
3. लोक :- [लोक्यतेऽसौ लोक् + घञ्] दुनिया, संसार ।
लोकान्तर सुखं पुण्यं तपोदान समुद्भवम् । 1/69
देव! तपस्या करने से और दान देने से जो पुण्य मिलता है, वह केवल परलोक में सुख देता है।
यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं लोकेन चैतन्यमिवोष्णरश्मेः । 5/4
हे बुद्धिमान् ! जैसे सूर्य अपने प्रकाश से सोए हुए संसार को जगा देता है, वैसे ही जिस गुरु ने आपको ज्ञान की ज्योति देकर जगाया है।
सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टेः कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्रा । 5/13
जैसे सूर्य के रहते हुए संसार में अँधेरा नहीं ठहर पाता (वैसे ही आपके राजा रहने पर प्रजा में दुःख नहीं है ।)
राजापि लेभे सुतमाक्षु तस्मादालोकमर्कादिव जीवलोकः । 5/35
जैसे सूर्य से संसार को प्रकाश मिलता है, वैसे ही ब्राह्मण के आशीर्वाद से थोड़े ही दिनों में रघु को पुत्र - रत्न प्राप्त हुआ ।
अथ स्तुते वन्दिभिरन्व यज्ञैः सोमार्कवंश्ये नरदेवलोके । 6/8
इतने में संसार के सब राजाओं का वंश जानने वाले भाटों ने सूर्य और चंद्र के वंश में उत्पन्न होने वाले उन सब राजाओं की प्रशंसा की ।
नासौ न काम्यो न च वेद सम्यग्द्रष्टुं न सा भिन्नरुचिर्हि लोकः । 6/30 यह बात नहीं थी कि वह राजा सुंदर न हो और न यही बात थी कि इंदुमती ने
For Private And Personal Use Only
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
356
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
उसे ठीक से देखा न हो, पर अपनी रुचि ही तो है, संसार में किसी को कोई अच्छा लगता है, किसी को नहीं ।
काकुत्स्थमुद्दिश्य समत्सरोपि शशाप तेन क्षितिपाल लोकः । 7/3
यों तो संसार में जितने हारे हुए राजा थे, वे सभी अज से मन ही मन कुढ़ते थे, किंतु इंद्राणी के रहने से उनका भी क्रोध ठंडा पड़ गया ।
चतुर्वर्णमयोलोकस्त्वत्तः सर्वं चतुर्मुखात् । 10/22
आपके ही चारों मुखों से ज्ञान उत्पन्न हुआ है। चार वर्णों वाला यह संसार भी आपका ही बनाया हुआ है।
लोकानुग्रह एवैको हेतुस्ते जन्मकर्मणोः । 10/31
आप जो जन्म लेते हैं और कर्म करते हैं उसका एकमात्र उद्देश्य यही है, कि आप संसार पर अनुग्रह करना चाहते हैं।
लोकमन्धतमसात्क्रमोदितौ रश्मिभिः शशिदिवाकराविव । 11/24 जैसे सूर्य और चंद्रमा बारी-बारी से अपनी किरणों से संसार का अंधेरा दूर करते हैं ।
लौल्य
1. तृष्णा :- [ तृष् + न + टाप् किच्च ] इच्छा, लालच, लालसा, लोभ, लिप्सा । मामक्षमं मण्डनकालहानेर्बेत्तीव बिम्बाधरबद्धतृष्णम् | 13/16
मानो वह यह जान गया है कि मैं तुम्हारे लाल-लाल अधरों को चूमने ही वाला हूँ और अब अधिक शृंगार की बाट नहीं देखूँगा ।
2. लौल्य : - [लोलस्य भावः ष्यञ् ] उत्सुकता, उत्कण्ठा, लालच ।
नागेन लौल्यात्कुमुदेन नूनमुपातमन्तर्हदवासिना तत् । 16 / 76
जान पड़ता है कि इस जल में रहने वाले कुमुद नाम के नाग ने लोभ से उसे चुरा लिया है।
उपस्पृशन्स्पर्श निवृत्तलौल्यस्त्रि पृष्करेषु त्रिदशत्वमाप | 18/31 विषय वासनाओं से दूर रहकर ब्रह्मिष्ठ त्रिपुष्कर क्षेत्र में स्नान करके स्वर्ग चले
गए।
व
वंश
1. अन्वय : - [ अनु + इ + अच्] जाति, कुल, वंश, वंशज, संतति ।
For Private And Personal Use Only
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
357
रघूणामन्वयं वक्ष्ये तनुवागिवभवोऽपि सन। 1/9 रघुवंशियों के ये गुण जब मेरे कान में पड़े, तब इन्होंने ही मुझे काव्य लिखने को। तदन्वये शुद्धिमति प्रसूतः शुद्धिमत्तरः। 1/12 उन्हीं मनु के उज्ज्वल वंश में अत्यंत शुद्ध चरित्र वाले राजा दिलीप ने जन्म लिया। अमस्त चानेन परार्ध्य जन्मना स्थितेरभेत्तास्थितिमन्तमन्वयम्। 3/27 वैसे ही मर्यादा पालक दिलीप ने भी यह समझ लिया, कि रघु से भी. सूर्यवंश सदा चलता रहेगा। तस्यान्वये भूपतिरेषु जातः प्रतीप इत्यागमवृद्ध सेवी। 6/41 उन्हीं प्रसिद्ध राजा के वंश में ये उत्पन्न हुए हैं, ये वेदों और बड़े-बूढ़ों की बड़ी सेवा करते हैं। तेनावतीर्य तुरगात्प्रथितान्वयेन पृष्टान्वयः स जल कुम्भनिषण्ण देहः। 9/76 जब श्रेष्ठ वंश वाले राजा दशरथ ने घड़े पर झुके हुए मुनि-पुत्र से उसका वंश-परिचय पूछा। सा सीता संनिधावेव तं ववे कथितान्वया। 12/33 पहले तो उसने अपने कुल का परिचय दिया और फिर सीताजी के सामने ही राम से कहने लगी कि मैं तुम्हें अपना पति मानती हूँ। कौशल्य इत्युत्तरकोशलानां पत्युः पतङ्गान्वय भूषणस्य। 18/27 उत्तर कोशल के स्वामी और सूर्यकुल को भूषण उन हिरण्यनाभ को कौशल्य
नाम का पुत्र हुआ। 2. कुल :-[कुल + क] वंश, परिवार, उत्तम कुल, उच्चवंश।
नरपतिकुलभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी। 2/75 रानी सुदक्षिणा ने राजा दिलीप का वंश चलाने के लिए गर्भ धारण किया। निदानमिक्ष्वाकुकुलस्य संतते: सुदक्षिणा दौ«दलक्षणं दधौ। 3/1 धीरे-धीरे रानी सदक्षिणा के शरीर में उस गर्भ के लक्षण दिखाई देने लगे, जो इस बात के प्रमाण थे कि अब इक्ष्वाकु-वंश नष्ट नहीं होगा। गलितवयसामिक्ष्वाकूणामिदं हि कुलव्रतम्। 3/70
For Private And Personal Use Only
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
358
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
क्योंकि इक्ष्वाकु वंश के राजाओं में यही परंपरा चली आई है कि । जातः कुले तस्य किलोरुकीर्तिः कुलप्रदीपो नृपतिर्दिलीपः । 6/74 उन्हीं प्रतापी ककुत्स्थ के वंश में यशस्वी राजा दिलीप ने जन्म लिया। कुलेन कान्त्या वयसा नवेन गुणैश्च तैस्तैर्विनय प्रधानैः । 6/79 इनका कुल, रूप, यौवन और नम्रता ये सब गुण तुम्हारे ही जैसे हैं। तदुपहितकुटुम्बः शान्तिमार्गोत्सुकोऽभून्न हि सति कुलधुर्ये सूर्यवंश्या गृहाय ।
7/71
फिर उन्हें कुटुम्ब का भार सौंपकर मोक्ष की साधना में लग गए, क्योंकि सूर्यवंशी राजाओं का यह नियम है कि जब पुत्र कुल का भार संभालने योग्य हो जाता है, तब वे घर में नहीं रहते ।
प्रशमस्थितपूर्वपार्थिवं कुलमभ्युद्यतनूतनेश्वरमू । 8/15
उस समय सूर्य वंश उस आकाश के समान लग रहा था । अधिगतं विधिवद्यदपालयत्प्रकृतिमण्डलमात्कुलो चितम् । 9/2
उन्होंने अपने पुरुखों से पाई हुई राजधानी और मण्डलों का वंश की रीति से अच्छे ढंग से पालन किया।
तमपहाय ककुत्स्थ कुलोद्भवं पुरूषमात्मभवं च पतिव्रता । 9/16
फिर भगवान विष्णु और ककुत्स्थ वंश के दशरथ को छोड़कर और दूसरा राजा ही कौन सा था, जिसके यहाँ पतिव्रता लक्ष्मी रहती ।
परस्पराविरुद्धास्ते तद्रघोरनघं कुलम् । 10/80
परस्पर प्रेम से उन चारों कुमारों ने पवित्र रघु कुल को उजागर कर दिया। अप्यसुप्रणयिनां रघोः कुले न व्यहन्यत कदाचिदर्शिता । 11/2
क्योंकि रघुकुल की सदा से यह रीति रही है, कि यदि कोई प्राण भी माँगे, तो उसे विमुख नहीं लौटाते ।
भृत्यभावि दुहितुः परिग्रहाद्दिश्यतां कुलमिदं नमेरिति । 11 /49
मेरी पुत्री सीता को स्वीकार करके इस निमि-कुल पर वैसी ही कृपा कीजिए, जैसी आप अपने सेवकों पर करते हैं।
मां लोकवादश्रवणादहासीः श्रुतस्य किं तत्सदृशं कुलस्य । 14/61 इस समय अपजस के डर से जो आपने मुझे छोड़ दिया है, वह क्या उस प्रसिद्ध कुल को शोभा देता है, जिसमें आपने जन्म लिया है।
For Private And Personal Use Only
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
359
रघुवंश
चक्रुः कुशं रलविशेष भाजं सौभ्रात्रमेषां हि कुलानुसारि। 16/1 बड़े भाई कुश को अपना मुखिया बनाया क्योंकि भातृप्रेम तो उनके कुल का धर्म ही था। संयोजयां विधिवदास समेतबन्धुः कन्यामयेन कुमुदः कुलभूषणेन। 16/86 यह सुनकर कुमुद ने अपने कुटुम्बियों को बुलाया और बड़ी धूमधाम से अपनी कन्या कुश को ब्याह दी। तमादौ कुलविद्यानामर्थमर्थविदां वरः। 17/2 सुशिक्षित अतिथि ने माता और पिता के दोनों कुलों को पवित्र कर दिया। स कुलोचितमिन्द्रस्य सहायकमुपेयिवान्। 17/5 अपने कुल की चलन के अनुसार कुश भी एक बार युद्ध में इन्द्र की सहायता
करने गए। 3. वंश :-[वमति उगिरति वम + श तस्य नेत्वम्] जाति, परिवार, कुटुम्ब।
क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्प विषया मतिः। 1/2 कहाँ तो सूर्य से उत्पन्न हुआ वह वंश, कहाँ मोटी बुद्धि वाला मैं। अथवा कुतवाग्द्वारे वंशेऽस्मिन्पूर्व सूरिभिः। 1/4 वाल्मीकि आदि कवियों ने सूर्यवंश पर सुन्दर काव्य लिखकर वाणी का द्वार पहले ही खोल दिया है। तस्य दाक्षिण्यरूढेन नाम्ना मगधवंशजा। 1/31 जैसे यज्ञ की पत्नी दक्षिणा प्रसिद्ध है, वैसे ही मगधवंश में उत्पन्न सुदक्षिणा नाम की उनकी पत्नी भी। वंशस्य कर्तारमनन्तकीर्तिं सुदक्षिणायां तनयं ययाचे। 2/64 यह वर माँगा कि मेरी प्यारी रानी सुदक्षिणा के गर्भ से ऐसा यशस्वी पुत्र हो, जिससे सूर्यवंश बराबर बढ़ता चले। इक्ष्वाकुवंशप्रभवो यदाते भेत्स्यत्यजः कुम्भमयोमुखेन। 5/55 इक्ष्वाकु वंश में अज नाम के कुमार उत्पन्न होंगे और जब वे तुम्हारे माथे पर लोहे के फल वाला बाण मारेंगे। अथ स्तुते बन्दिभिरन्वयज्ञैः सोमार्कवंश्ये नरदेवलोके। 6/8 इतने में सब राजाओं का वंश जानने वाले भाटों ने सूर्य और चंद्रमा के वंश में उत्पन्न सब राजाओं की प्रशंसा की।
For Private And Personal Use Only
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
360
कालिदास पर्याय कोश अचारशुद्धो भयवंशदीपं शुद्धान्तरक्ष्या जगदे कुमारी। 6/45 जिसने अपने शुद्ध चरित्र से माता और पिता के दोनों कुलों को उजागर कर दिया था, उन्हें दिखाकर सुनंदा बोली। इक्ष्वाकुवंश्य ककुदं नृपाणां ककुत्स्थ इत्याहितलक्षणोऽभूत्। 6/71 इक्ष्वाकु के वंश में, राजाओं में श्रेष्ठ और सुन्द लक्षणों वाले एक ककुत्स्थ नाम के राजा हो गए हैं। तदुपहितकुटुम्बः शान्तिमार्गोत्सुकोऽभून हि सति कुलधुर्ये सूर्यवंश्या गृहाय। 7/71 फिर उन्हें कुटुम्ब का भार सौंपकर मोक्ष की साधना में लग गए, क्योंकि सूर्यवंशी राजाओं का यह नियम है कि जब पुत्र कुल का भार संभालने के योग्य हो जाता है, तब वे घर में नहीं रहते। यूपवत्यवसिते क्रियाविधौ कालवित्कुशिकवंशवर्धनः। 11/37 जब धनुष यज्ञ की सब क्रियाएँ समाप्त हो गईं, तब ठीक अवसर समझकर कौशिक वंश के श्रेष्ठ विश्वामित्र जी ने कहा। तस्य वीक्ष्य ललितं वपुः शिशोः पार्थिवः प्रथित वंश जन्मनः। 11/38 जब जनक जी ने एक ओर प्रसिद्ध वंश में उत्पन्न हुए बालक राम के कोमल शरीर को देखा। राजर्षिवंशस्य रविप्रसूतेरुपस्थितः पश्यत कीदृशोऽयम्। 14/37 देखो! सूर्यवंशी राजर्षियों के कुल में मेरे कारण कैसा कलंक लग रहा है। इक्ष्वाकुवंश प्रभवः कथं त्वां त्यजेदकस्मात्पतिरार्यवृत्तः। 14/55 इक्ष्वाकुवंशी सदाचारी पति इस प्रकार अचानक सीताजी को क्यों छोड़ देंगे। सुरद्विपानामिव सामयोनिर्भिन्नोऽष्टधा विप्रससार वंशः। 16/3 जैसे सामवेद के कुल में उत्पन्न मतवाले दिग्गजों का कुल आठ भागों में बंट गया था। स पितुः पितृमान्वंशं मातुश्चानपमद्युतिः। 17/2 वैसे ही अतिथि ने माता और पिता के दोनों कुलों को पवित्र कर दिया। वंश स्थितिं वंशकरेण तेन संभाव्य भावी स सखा मघोनः। 18/31 इन्द्र के भावी मित्र ब्रह्मिष्ठ ने अपनी कुल प्रतिष्ठा अपने पुत्र-पुत्र को सौंप दी।
For Private And Personal Use Only
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
361
वक्ष
1. उर :-[ऋ + असुन्] छाती।
व्यूढोरस्को वृषस्कन्धः शालप्रांशुर्महाभुजः। 1/13 उनकी चौड़ी छाती, साँड़ के से ऊँचे और भारी कंधे, शाल के वृक्ष की सी लंबी
भुजाएँ। 2. वक्ष :-[वह + असुन्, सुट् च] छाती, हृदय, सीना।
युवा युगव्यायतबाहुरंसलः कपाटवक्षाः परिणद्धंक धरः। 3/34 युवावस्था के कारण रघु की भुजाएँ हल के जुए के समान दृढ़ और लंबी हो गईं, छाती चौड़ी हो गई और कंधे भारी हो गए। रघुर्भशं वक्षसि तेन ताडित: पपात भूमौ सह सैनिकाश्रुभिः। 3/61 छाती पर उस वज्र की मार से रघु पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके गिरते ही उनके सैनिकों ने रोना पीटना आरंभ कर दिया। अवन्तिनाथोऽयमुदग्रबाहुर्विशाल वक्षास्तनुवृत्तमध्यः। 6/32 देखो, ये जो लंबी भुजा, चौड़ी छाती और पतली गोल कमर वाले राजा सूर्य के समान चमक रहे हैं, अवन्ति देश के राजा हैं। ततो बिभेद पौलस्त्यः शक्त्या वक्षसि लक्ष्मणम्। 12/77 तब मेघनाद ने खींचकर लक्ष्मण की छाती में शक्तिबाण मारा।
वच
1. गा :-[गै + डा] वाणी, शब्द, भाषा, वचन।
इत्यर्थ्यपात्रानुमित व्ययस्य रघोरुदारामपि गां निशम्य। 5/12 कौत्स ने ध्यान से रघु की उदार बातें सुनीं पर देखा, कि उनके हाथ में केवल मिट्टी का पात्र बचा है, इससे उनका मुँह उतर गया। 2. गिर :-[गृ + क्विप्] भाषण, शब्द, भाषा। अयमपि च गिरं नस्त्वत्प्रबोधप्रयुक्तामनुवदति शुकस्ते मञ्जुवाक्पञ्जरस्थः।
5/74 पिंजरे में बैठा हुआ मीठी बोली बोलने वाला तुम्हारा यह सुग्गा भी हमारी बातों को दुहरा रहा है।
For Private And Personal Use Only
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
362
कालिदास पर्याय कोश 3. गिरा :-[गिर् + क्विप् + टाप्] वाणी, बोलना, भाषा, आवाज।
कान्त्या गिरा सूनृतया च योग्या त्वमेव कल्याणि तयोस्तृतीया। 6/29 इसलिए हे कल्याणी! तुम सुंदर भी हो और तुम्हारी मधुर वाणी भी है, इसलिए तुम दोनों के साथ तीसरी बनकर पहुँच सकती हो। चाप एव भवतो भविष्यति व्यक्तशक्तिरशंनिर्गिराविव। 11/41 पर कहने से होता क्या है, जैसे वज्र की शक्ति की परीक्षा पहाड़ पर होती है, वैसे
ही इनकी शक्ति की परीक्षा धनुष पर ही हो जाएगी। 4. वच :-[वच् + अच्] बोलना, बातें करना।
इति प्रगल्भं पुरुषाधिराजो मृगाधिराजस्य वचो निशम्य। 2/41 सिंह की ऐसी ढीठ बातें सुनकर जब राजा को यह विश्वास हो गया कि। संरुद्धचेष्टस्य मृगेन्द्र कामं हास्यं वचस्तद्यदहं विवक्षुः। 2/43 हे सिंह! हाथ के बँध जाने से मैं कुछ नहीं कर सकता, इसलिए जो कुछ मैं कहूँगा उसकी सब खिल्ली ही उड़ावेंगे। उत्तिष्ठ वत्सेत्य मृतायमानं वचो निशम्योत्थितमुत्थितः सन्। 2/61 इसी बीच अमृत के समान मीठे वचन सुनाई दिए :-'उठो बेटा'! राजा दिलीप ने सिर उठाया। उवाच धात्र्या प्रथमोदितं वचो ययौ तदीयामवलम्ब्य चाङ्गुलिम्। 3/25 तब धाय ने उन्हें जो कुछ सिखाया, उसे वे अपनी तोतली बोली में बोलने लगे,
और उसकी उँगली पकड़ कर चलने लगे। इति प्रगल्भं रघुणा समीरितं वचो निशम्याधिपतिर्दिवौकसाम्। 3/47 रघु के अभिमान भरे वचनों को सुनकर इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। ललाटबद्ध श्रमवारि बिन्दु तां प्रियामेत्य वचो बभाषे। 7/66 उनके माथे पर पसीना आ गया और वे इंदुमती के पास आकर बोले। स तथेति विनेतुरुदारमतेः प्रतिगृह्य वचो विससर्ज मुनिम्। 8/91 विद्वान शिक्षक गुरु वशिष्ठ जी का उपदेश राजा ने स्वीकार किया और उनके शिष्य को इस प्रकार विदा दी। उचितवानिति वचः सलक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजमृषिस्तिरोदधे। 11/91 राम और लक्ष्मण से यह कहकर परशुराम जी अन्तर्धान हो गए। शुश्रुवे प्रियजनस्य कातरं विप्रलम्भपरि शंकिनो वचः। 19/18
For Private And Personal Use Only
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
363
रघुवंश
विप्रलब्धा नायिका के समान दूती से विरह की बातें करने लगतीं, तब वह उन
बातों को छिपे-छिपे बड़े प्रेम से सुनता था। 5. वाच :-[वच् + क्विप् दीर्घोऽसंप्रसारणं च] वचन, शब्द, पदावली।
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थ प्रति पत्तये। 1/1 वाणी और अर्थ को अपनाने के लिए और उनका ठीक व्यवहार करने के लिए। निशम्य देवानुचरस्य वाचं मनुष्यदेवः पुनरप्युवाच। 2/52 राजा ने एक ओर सिंह की बातें सुनीं फिर वे बोले। स्पशन्करेणानतपूर्वकायं संप्रस्थितो वाचमुवाच कौत्सः। 5/32 कौत्स बड़े प्रसन्न थे और उन्होंने चलते समय राजा के सिर पर हाथ धरते हुए कहा। वाचा :-[वाक् + आप्] भाषण, सूत्र, शपथ । कायेन वाचा मनसापि शश्वद्यत्संभृतं वासवधैर्यलोपि। 5/5 उन्होंने शरीर, मन और वचन तीनों प्रकार का जो कठिन तप करना प्रारंभ किया था और जिसे देखकर इन्द्र भी घबरा उठे थे। अन्वग्रहीत्प्रणमतः शुभदृष्टिपातैर्वार्तानुयोगमधुराक्षरया च वाचा। 13/71 राम ने प्रेम भरी आँखों से मधुर भाषा में उनसे कृपा पूर्वक कुशल-मंगल पूछा।
वज्र
1. आयुध :-[आ + युध् + घञ्] हथियार, ढाल, शस्त्र ।
असङ्गामद्रिष्वपि सारवत्तया न मे त्वदन्येन विसोढमायुधम्। 3/63 इन्द्र ने कहा :-हे राजकुमार! पर्वतों के पंख काटने वाले मेरे कठोर वज्र की चोट को, तुम्हें छोड़कर आज तक किसी ने नहीं सहा। सर्वैर्बलाङ्गैर्द्विरदप्रधानैः सर्वायुधैः कङ्कटभेदिभिश्च। 7/59 तब वे रथ, घोड़े, और पैदल लेकर कवच तक काट देने वाले पैने अस्त्रों से पूरा बल लगाकर। तन्मदीयमिदमायुधं ज्यया सङ्गमय सशरं विकृष्यताम्। 11/77
पहले तुम मेरे इस धनुष पर डोरी चढ़ाकर इसे बाण के साथ खींचों तो। 2. कुलिश :-[कुलि + शी + ड, पक्षे पृषो० दीर्घः] इन्द्र का वज्र, वज्र।
परामृशन्हर्ष जडेन पाणिना तदीयमङ्गं कुलिशव्रणाङ्कितम्। 3/68
For Private And Personal Use Only
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
364
कालिदास पर्याय कोश तब राजा दिलीप ने उनकी बड़ी प्रशंसा की और जहाँ उन्हें वज्र लगा था, वहाँ धीरे-धीरे सहलाने लगे। ते रेखाध्वज कुलिशात पत्र चिह्न सम्राजश्चरणयुगं प्रसादलभ्यम्। 4/88 जाते समय उन राजाओं ने रघु के उन चरणों में प्रणाम किया, जिन पर ध्वजा, वज्र और छत्र आदि की रेखाएँ बनी हुई थीं। शमितपक्षबल: शतकोटिना शिखरिणां कुलिशेन पुरंदरः। 9/12 जैसे इन्द्र ने अपने सौ नोकों वाले वज्र से पर्वतों के पंख काट दिए थे। मुक्तशेष विरोधेन कुलिश व्रणलक्ष्मणा। 10/13 शेषनाग से स्वभाविक विरोध छोड़कर इन्द्र के वज्र की चोट का चिह्नधारण किए
हुए। 3. वज्र :-[वज् + रन्] वज्र, बिजली, इन्द्र का शस्त्र ।
जडीकृतस्त्र्यम्बकवीक्षणेन वज्रं मुमुक्षन्निव वज्रपाणिः। 2/42 किसी समय इंद्र ने शिवजी पर वज्र चला दिया था, शिवजी ने केवल उनकी
ओर देख भर दिया कि इंद्र कठमारे से हो गए। ठीक वही दशा दिलीप की भी हो गई। दिदेश कौत्साय समस्तमेव पादं सुमेरोमिव वज्रभित्रम्। 5/30 सोने का ढेर ऐसा चमक रहा था, जैसे किसी ने वज्र से सुमेरु पर्वत का एक टुकड़ा गिरा दिया हो, रघु ने वह सारा सोना कौत्स को भेंट कर दिया। वज्रांशुगर्भाङ्गलि रन्ध्रमेकं व्यापारयामास कर किरीटे। 6/19 मुकुट को सीधा करने में उसके हाथों की उंगलियों के बीच का भाग रत्नों की किरणों से चमक उठता था। सोऽस्त्र वज्रेश्छन्नरथः परेषां ध्वजाग्रमात्रेण बभूव लक्ष्यः। 7/60 राजाओं ने अज पर इतने अस्त्र बरसाए कि उनका रथ ढक गया, उनके रथ की पताका से ही उनका पता मिलता था। भज्यमानमति मात्रकर्षणात्तेन वज्रपरुषस्वनं धनुः। 11/46 राम ने धनुष को इतना तान लिया कि वह वज्र के समान भयंकर शब्द करता
हुआ टूट गया। 4. शस्त्र :-[शस् + ष्ट्रन्] हथियार, आयुध ।
शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्य रक्षं न तद्यशः शस्त्रभृतां क्षिणोति। 2/40
For Private And Personal Use Only
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
365 जब कि पी वस्तु की रक्षा शस्त्र से हो ही न सके, तो इसमें शस्त्र धारण करने वाले क क्या दोष, इससे उसका अपयश तो होता नहीं है। अथाठि शेश्ये प्रयतः प्रदोषे रथं रघुः कल्पित शस्त्रगर्भम्। 5/28 यह नि: य करके वे सांझ होते ही अस्त्र-शस्त्र ठीक करके रथ में ही जाकर जो रहे।
वधू 1. अङ्गना :-[प्रशस्तम् अङ्गम् अस्ति यस्याः :-अङ्ग + न + टाप्] स्त्रीमात्र,
सुन्दर स्त्री। प्रासाद वातायन संश्रितानां नेत्रोत्सवं पुष्पपुराङ्गनानाम्। 6/24 तब वहाँ की स्त्रियाँ झरोखों में बैठकर तुम्हें देखेंगी और तुम्हारी सुंदरता देखकर उनकी आँखों को सुख मिलेगा। चकार बाणैर सुराङ्गनानां गण्डस्थली: प्रोषित पत्र लेखाः। 6/72
और उस युद्ध में उन्होंने असुरों को मार डाला था, उनकी स्त्रियों ने पतियों से बिछोह होने के कारण अपने कपोलों को चीतना ही छोड़ दिया था। सनिनाय नितान्तवत्सलः परिगृह्योचितमङ्कमङ्गनाम्। 8/41 तब उस अत्यंत प्यारे राजा ने अपनी मृत पत्नी को अपनी गोद में उठाकर रख लिया। पतिषु निर्विविशुर्मधुमङ्गनाः स्मरसखं रसखण्डनवर्जितम्। 9/36 कामदेव के साथी मद्य को स्त्रियों ने अपने पति के प्रेम में बिना बाधा दिए ही पी लिया। अङ्गना इव रजस्वला दिशो नो बभूवुरवलोकन क्षमाः। 11/60 जैसे रूखे, मैले बालों वाली तथा रक्त से लाल कपड़ों वाली रजस्वला स्त्री देखने में अच्छी नहीं लगती, उसी प्रकार दिशाएँ भी आँखों को नहीं सुहा रही
थीं।
अपीप्सितं क्षत्रकुलङ्गनानां न वीरसूशब्दमकामयेताम्। 14/4 उस समय अपने पुत्रों की चोटें देखकर वे स्त्रियाँ इतनी व्याकुल हो गईं कि उन्हें वीर पुत्र की माँ कहलाना भी अच्छा नहीं लगा। कामो वसन्तात्यय मन्दवीर्यः केशेषु लेभे बलमङ्गनानाम्। 16/50
For Private And Personal Use Only
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
366
कालिदास पर्याय कोश वसंत बीत जाने के कारण जो कामदेव मंद पड़ गया था, वह स्त्रियों के उन केशों में जाकर बस गया। सनूपुर क्षोभ पदाभिरासीदुद्विग्नहंसा सरिदङ्गनाभिः। 16/56 जब कुश की रानियाँ सीढ़ियों से पानी में उतरने लगी, तब पैरों के बिछुए बजने लगे और इन शब्दों को सुन-सुनकर सरयू के हंस मचल उठे। अङ्गनास्तमधिकं व्यलोभयन्नर्पितप्रकृत कान्तिभिर्मुखैः। 19/10 तब स्त्रियों की स्वभाविक सुंदरता को देखकर वह और भी अधिक मोहित हो उठता था। सातिरेक मदाकरणं रहस्तेन दत्तमभिलेषुरङ्गनाः। 19/12 वहाँ वे स्त्रियाँ अग्निवर्ण का जूठा मदकारी आसव बड़े प्रेम से पीती थीं। स्वजकीर्तित विपक्षमङ्गनाः प्रत्यभैत्सुरवदन्त्य एव तम्। 19/22 जब स्त्रियाँ देखती थीं, कि राजा स्वप्न में बड़बड़ाते हुए किसी दूसरी स्त्री की बड़ाई कर रहा है, तब वे स्त्रियाँ । कार्तिकीषु सवितानहर्म्य भाग्यामिनीषु ललिताङ्गनासखः। 19/39 कार्तिक की रातों में वह राजभवन के ऊपर चँदोवा तनवा देता था और सुंदरियों के साथ उस चाँदनी का आनंद लेता था। अबला :-स्त्री। निद्रावशेन भवताप्यनवेक्ष्यमाणा पर्युत्सुकत्वमबला निशि खंडितेव। 5/67 देखो! तुम्हारी सौन्दर्य-लक्ष्मी ने जब देखा कि तुम निद्रा रूपी दूसरी स्त्री के वश में हो, तो वह चंद्रमा के पास चली गई, पर रात का चंद्रमा भी मलिन हो गया। परभृताविरुतैश्च विलासिनः स्मरबलैकरसाः कृताः। 9/43 कामदेव ने ऐसा जाल बिछाया कि सभी विलासी पुरुष युवती, स्त्रियों के प्रेम में सुधबुध खो बैठे। अनयदासनरज्जुपरिग्रहे भुजलतां जलतामबलाजनः। 9/46 स्त्रियाँ भी अपने हाथ से पकड़ी हुई रस्सी को इसलिए ढीला छोड़ देती थी कि हाथ छूटने पर हमारे प्रियतम हमें थाम ही लेंगे। कटुम्बिनी :-पत्नी, स्त्री। अपशोक मना: कटुम्बिनीमनु गृह्णीष्व निवापदत्तिभिः। 8/86 अब आप सब शोक छोड़ कर पिंड दान आदि करके, अपनी पत्नी का परलोक सुधरिये।
For Private And Personal Use Only
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
367
रघुवंश 4. कलत्र :-[गड् + अत्रन्, गकारस्य ककारः डलयोरभेदः] पत्नी।
कलत्रवन्तमात्मान्मवरोधे महत्यपि। 1/32 वैसे तो राजा दिलीप की बहुत सी रानियाँ थी, पर वे यदि अपने को स्त्री वाला समझते थे तो। वसुधेयमवेक्ष्यतां त्वया वसुमत्या हि नृपाः कलत्रिणः। 8/83 इसलिए सब शोक छोड़कर सावधान होकर आप पृथ्वी का पालन कीजिए, क्योंकि राजा की सच्ची धर्मचारिणी तो पृथ्वी है। येषु दीर्घतपसः परिग्रहो वासवक्षणकलत्रतां ययौ। 11/33 जहाँ महातपस्वी गौतम की स्त्री अहल्या थोड़ी देर के लिए इंद्र की पत्नी बन गई
थीं।
कलत्रवानहं बाले कनीयांसं भजस्व मे। 12/34 मेरा तो विवाह हो चुका है (मैं स्त्री वाला हूँ), तुम मेरे छोटे भाई के पास जाओ। कलत्रनिन्दागुरुणा किलैवमभ्याहतं कीर्तिविपर्ययेण। 14/33 अपनी पत्नी पर लगाए हुए इस भीषण कलंक को सुनकर सीतापति राम का हृदय। कुशः प्रवासस्थ कलत्रवेषामदृष्टपूर्वां वनितामपश्यत्। 16/4 कुश को एक स्त्री दिखाई दी, उसे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था, पर उसका
वेश देखने से जान पड़ता था कि उसका पति परदेस चला गया है। 5. कान्ता :-[कम् + क्त + टाप्] प्रेमिका या लावण्यमयी स्त्री, गृह स्वामिनी,
पत्नी। पूर्वाकाराधिक तररुचा संगतः कान्तयासौ लीलागारेष्वरमत पुनर्नन्दनाभ्यन्तरेषु। 8/95 तत्काल देवता बनकर पहले शरीर से भी अधिक सुंदर शरीर वाली भार्या के साथ नंदन वन के विलास भवनों में विहार करने लगे। रात्रावनाविष्कृत दीप भासः कान्तामुखश्री वियुता दिवापि। 16/20 आजकल न तो रात को दीपकों की किरणें निकलती हैं, न दिन में सुंदरियों का मुख दिखाई देता है। तस्याः स राजोपपदं निशान्तं कामीव कान्ताहृदयं प्रविश्य। 16/40 जैसे कामी पुरुष स्त्री के हृदय में पैठ जाता है, वैसे ही कुश अयोध्या के राजभवन में प्रविष्ट हो गए।
For Private And Personal Use Only
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
368
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
6. कामिनी : - [ कम् + णिनि] प्रेम करने वाली, स्नेहमयी, प्रिय स्त्री ।
परिवृद्ध राग मनुबन्ध सेवया मृगया जहार चतुरेव कामिनी । 9/69 दशरथ का मन आखेट व्यसन ने उसी प्रकार लुभा लिया, जैसे कोई स्त्री अपने पति की सेवा करके उसे वश में कर लेती है ।
कामिनी सहचरस्य कामिनस्तस्य वेश्मसु मृदङ्गनादिषु । 19/5
वह कामी राजा कामिनियों के साथ उन भवनों में दिन-रात रहने लगा, जिनमें बराबर मृदंग बजते रहते थे ।
7. गृहिणी : - [ गृह + इनि + ङीष् ] गृहस्वामिनी, पत्नी, गृहपत्नी । तामिन्तकन्यस्तबलिप्रदीपामन्वास्य गोप्ता गृहिणी सहाय: | 2/24 राजा दिलीप अपनी पत्नी के साथ बहुत देर तक नंदिनी की सेवा और पूजा करते रहे ।
गृहिणी सचिवः सखी मिथः प्रिय शिष्या ललिते कला विधौ । 8/67 तुम्हीं मेरी स्त्री थी, सम्मति देने वाली थी, एकांत की सखी थी और गान विद्या आदि कलाओं के ललित कार्यों में शिष्या थी ।
लौल्यमेत्य गृहिणीपरिग्रहान्नर्तकीष्वसुलभासु तद्वपुः । 19/19
जब कभी रानियाँ (पत्नियाँ) उसे रोक लेतीं, तब नर्तकियों के न मिलने से विरह कातर हो जाता और नर्तकी का चित्र बनाने लगता ।
8. जाया :- [जन् + यक् + टाप्, आत्व] पत्नी ।
अथ प्रजानामधिपः प्रभाते जायाप्रति ग्राहित गन्ध माल्याम् | 2/1 दूसरे दिन प्रातःकाल राजा दिलीप की पत्नी सुदक्षिणा ने पहले फूल, माला चंदन लेकर नंदिनी की पूजा की। प्रथमपरिगतार्थस्तं रघुः संनिवृतं विजयिनमभिनन्द्य श्लाघ्यजायासमेतम् ।
7/71
रघु को यह समाचार पहले ही मिल चुका था । इसलिए उन्होंने सुंदर पत्नी के साथ आए हुए विजयी अज का स्वागत किया ।
रत्नाकरं वीक्ष्य मिथः स जायां शमाभिधानो हरिरित्युवाच। 13/1
For Private And Personal Use Only
तथा राम कहलाने वाले विष्णु भगवान्, समुद्र को देखकर एकांत में अपनी पत्नी सीताजी से बोले ।
. किमात्मनिर्वाद कथामुपेक्षे जायामदोषामुत संत्यजाममि । 14/34
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
369 या तो मैं इस बात को अनसुनी ही कर दूँ और टाल जाऊँ, या फिर निर्दोष पत्नी
को सदा के लिए छोड़ दूँ। 9. दयिता :-[दय् + क्त + टाप्] पत्नी, प्रेयसी।
निवर्त्य राजा दयितां दयालुस्तां सौरभेयीं सुरभिर्य शोभिः। 2/3 कोमल हृदय वाले राजा दिलीप ने अपनी पत्नी को लौटा दिया और अपने आप उस नंदिनी की रक्षा करने लगे, जो ऐसी प्रतीत होती थी। भावावबोध कलुषा दयितेव रात्रौ निद्रा चिरेण नयनाभिमुखी बभूव।
5/64
इसी उलझन में पड़े रहने के कारण रघु की आँखों में रात को उसी प्रकार बहुत विलंब से नींद आई, जैसे पति के मन को न जानने वाली नई बहू अपने पति के पास विलंब से जाती है। नृपतेरमरस्रगाप सा दयितोरुस्तन कोटिसुस्थितम्। 8/36 वही माला अचानक राजा अज की पत्नी इंदुमती के बड़े-बड़े स्तनों के ठीक बीच में आकर गिरी। दयितां यदि तावदन्वगाद्विनिवृत्तं किमिदं तया बिना। 8/50 मेरे ये नीच प्राण, जब प्रिया के साथ-साथ एक बार चले गए थे, तब ये लौट क्यों आए। शशिनं पुनरेति शर्वरी दयिता द्वन्द्वचरं पतत्त्रिणम्। 8/56 देखो चंद्रमा को रात्रि फिर मिल जाती है, चकवे को उसकी पत्नी चकवी भी
प्रातः मिल ही जाती है। 10. दारा :-[दृ + धञ्] पत्नी।
गुरोः सदारस्य निपीड्य पादौ समाप्य सांध्यं च विधिं दिलीपः। 2/23 गौ की पूजा हो जाने पर राजा दिलीप ने पहले वशिष्ठ जी और उनकी पत्नी अरुंधती जी के चरणों की वंदना की, फिर अपने संध्या के नित्य कर्मों को समाप्त किया। स्नात्वा यथाकाममसौ सदारस्तीरोपकार्यां गतमात्र एव। 16/73 रानियों के साथ इच्छानुसार जल-क्रीडा करके जब कुश बाहर निकले और डेरे
में गए।
11. धर्मपत्नी :-[ध्रियते लोकोऽनेन, धरतिलोकं वा धृ + मन् + पत्नी] वैध पत्नी।
For Private And Personal Use Only
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
370
कालिदास पर्याय कोश मार्गं मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्। 2/2 उसी मार्ग में चलती हुई राजा की पत्नी सुदक्षिणा ऐसी लग रही थीं, जैसे श्रुति के पीछे-पीछे स्मृति चली जा रही हो। पुरस्कृता वर्त्मनि पार्थिवेन प्रत्युद्गता पार्थिव धर्मपल्या। 2/20 आश्रम के मार्ग में गौ के पीछे राजा दिलीप थे और आगे अगवानी के लिए
उनकी पत्नी सुदक्षिणा खड़ी थीं। 12. नारी :-[न :-नर वा जातौ ङीष् नि०] स्त्री।
वैदर्भ निर्दिष्टमथो विवेश नारीमनांसीव चतुष्कमन्तः। 7/17 विदर्भराज के बताए हुए भीतरी चौक में ऐसे पैठ गए, मानो वे वहाँ की स्त्रियों के मन में भी पैठ गए हों। अत्यारूढो हि नारीणाम कालज्ञो मनोभवः। 12/33 स्त्रियाँ जब बहुत अधिक कामासक्त हो जाती हैं, तब उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं रहता, कि हमें इस समय क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए। पूरावभासे विपणिस्थपण्या सर्वाङ्गनद्धाभरणेव नारी। 16/41 इस प्रकार वह नगरी ऐसी सुंदर लगने लगी, जैसे सारे शरीर पर गहना पहने कोई स्त्री हो। उद्दण्ड पद्म गृहदीर्घिकाणां नारीनितम्ब द्वयसं बभूव। 16/46 उनमें कमल की डंडियाँ दिखाई देने लगी और पानी घटकर स्त्रियों की कमर
तक रह गया। 13. पत्नी :-[पति + ङीप, नुक] सहधर्मिणी, भार्या ।
पत्नी सुदक्षिणेत्यासीदध्वरस्येव दक्षिणा। 1/31 जैसे यज्ञ की पत्नी दक्षिणा प्रसिद्ध है, वैसे ही उनकी पत्नी सुदक्षिणा भी प्रसिद्ध थी। तामवारोहयत्पत्नी रथादवततार च। 1/54 पहले तो उन्होंने अपनी पत्नी को रथ से उतारा और फिर स्वयं भी रथ से उतर पड़े। स तेजो वैष्णवं पन्योर्विभेजे चरुसंगितम्। 10/54 खीर के रूप में पाए हुए विष्णु के तेज को राजा ने अपनी पत्नियों कौशल्या और कैकेयी में बराबर-बराबर बाँट दिया।
For Private And Personal Use Only
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
ते बहुज्ञस्य चितज्ञे पल्यौ पत्युर्महीक्षितः । 10 / 56
सब कुछ जानने वाले राजा दशरथ की उन दोनों पत्नियों ने ।
371
14. परिग्रह :- [ परि + ग्रह् + घञ्] पत्नी, रानी ।
निर्दिष्टां कुलपतिना स पर्णशालामध्यास्य प्रयतपरिग्रहद्वितीयः । 1/95 कुलपति वशिष्ठ जी ने जो पर्णकुटी बताई, उसी में राजा दिलीप अपनी पत्नी के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए रात बिताई ।
येषु दीर्घतपसः परिग्रहो वासवक्षणकलत्रतां ययौ । 12 / 33
जहाँ महातपस्वी गौतम की स्त्री अहल्या थोड़ी देर के लिए इन्द्र की पत्नी बन गई थीं।
15. प्रणयिनी : - [ प्रणय + इति + ङीष् ] गृहिणी, प्रियतमा, पत्नी ।
मेखला भिरसकृच्च बन्धनं वञ्चयन्प्रणयिनीरवाप सः । 19/17 कभी-कभी जब वह राजा इन कामिनियों को धोखा दे जाता था, तब राजा को अपनी करधनी से बाँध देती थीं।
प्राञ्जलिः प्रणयिनी: प्रसाद यन्सोऽधुनोत्प्रणयमन्थरः पुनः । 19 / 21
तब राजा हाथ जोड़कर उन कामिनियों को मना लेता था, पर जब वह उनसे भरपूर प्रेम नहीं कर पाता था, तो वे फिर व्याकुल हो उठती थीं ।
16. प्रिया :- [ प्री + क + टाप्] प्रिया, पत्नी, स्वामिनी, , स्त्री
I
प्रहर्षचिह्नानुमितं प्रियायै शशंस वाचा पुनरुक्तयेव । 2/68
गुरुजी से कह चुकने पर राजा दिलीप ने यह प्रसन्नता को सूचित करने वाला समाचार, अपनी प्रेयसी सुदक्षिणा से भी कह सुनाया।
For Private And Personal Use Only
प्रियानुरागस्य मनः समुन्नतेर्भुजार्जितानां च दिगन्तसंपदाम् । 3/10
राजा दिलीप जितना रानी को प्यार करते थे, जितनी उन्हें प्रसन्नता थी और जितना बड़ा उनका राज्य था, उतने ही ठाट-बाट से ।
विलपन्निति कोशलाधिपः करुणार्थग्रथितं प्रियां प्रति । 8/70 जब कोशलनरेश अज अपनी प्रिया के लिए इस प्रकार शोक कर रहे थे । प्राणान्तहेतुमपि तं भिषजामसाध्यं लाभं प्रियानुगमने त्वरया स मेने । 8 / 93 अपनी प्रिया के पीछे प्राण देने को वे इतने उतावले थे कि उन्होंने प्राण हर लेने वाली और वैद्यों से अच्छी न होने वाली उस शोक की बर्छा को भी सहायक ही समझा ।
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
372
कालिदास पर्याय कोश त्रासाति मात्र चटुलैः स्मरयत्सु नेत्रैः प्रौढ प्रिया नयनविभ्रम चेष्टितानि।
9/58 जब उन्होंने उन हरिणों की डरी हुई आँखों को देखा, तो उन्हें अपनी युवती प्रियतमा के चंचल नेत्रों का स्मरण हो आया और उनके हाथ ढीले पड़ गए। सपदि गतमनस्कश्चित्रमाल्यानुकीर्णे रतिविगलितबन्धे केशपाशे प्रियायाः।
9/67 उन्हें देखकर दशरथ जी को रंग-बिरंगी मालाओं से गुंथे हुए और संभोग के कारण खुले हुए अपनी प्रिया के केशों का स्मरण हो आता था। रघुपतिरपि जातवेदो विशुद्धां प्रगृह्य प्रियां प्रियसुहृदि विभीषणे संगमय्य श्रियं वैरिणः। 12/104 राम ने रावण की राज्यश्री विभीषण को सौंप दी और फिर अपनी प्रियतमा सीता जी को अग्नि में शुद्ध करके। निःश्वास सहार्यांशुकमाजगाम धर्मः प्रियावेषमिवोपदेष्टुम्। 16/43 इतने में ग्रीष्म ऋतु आई, जिसने मानो इन्हें अपनी उस प्रिया का स्मरण करा
दिया, जो साँस से उड़ने वाले महीन कपड़े पहने हुए हो। 17. भामिनी :-[भाम् + णिनि + ङीप] सुन्दर तरुणी, कामिनी, स्त्री।
क्षितिरिन्दुमती च भामिनी पतिमासाद्य तमरयपौरुषम्। 8/28 पृथ्वी और इंदुमती दोनों स्त्रियाँ अज जैसे महापराक्रमी को पति के रूप में पाकर बड़ी प्रसन्न हुईं। अथ तेन दशाहतः परे गुणशेषामुपदिश्य भामिनीम्। 8/73
जिस इंदुमती के केवल गुण भर बचे रह गए थे, उस प्रिया के सब क्रिया-कर्म। 18. भार्या :-[भर्तुः योग्या + भार्य + टाप्] धर्मपत्नी।
तस्मै सभ्याः सभार्याय गोप्चे गुप्ततमेन्द्रियाः। 1/55 वहाँ के सभ्य संयमी मुनियों ने सपत्नीक राजा दिलीप का सम्मान के साथ स्वागत किया। तामेक भार्यां परिवादभीरोः साध्वीमपि त्यक्तवतो नृपस्य। 14/86
राजा ने कलंक के डर से पतिव्रता होते हुए भी अपनी पत्नी को छोड़ दिया। 19. युवती :-[युवन् + ति, ङीप् वा] तरुण स्त्री।
युवतयः कुसुमं दधुराहितं तदलके दलकेसरपेशलम्। 9/40
For Private And Personal Use Only
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
373
अपने प्रियतमों के हाथों से जूड़ों में खुंसे हुए वे सुंदर पंखड़ी वाले और पराग
वाले फूल स्त्रियों के केशों में बड़े सुंदर लग रहे थे। 20. योषिता/योषा :-[यौति मिश्रीभवति :-यु + स + टाप्, योषति पुमांसम् :
युष + इति, योषित् + टाप्] स्त्री, लड़की, तरुणी, जवान स्त्री। अवाकिरन्वयोवृद्धास्तं लाजैः पौरयोषितः। 4/27 वैसे ही नगर की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों ने विजय-यात्रा के लिए जाते हुए रघु के ऊपर धान की खीलें बरसाईं। भयोत्सृष्टविभूषणां तेन केरलयोषिताम्। 4/54 रघु के भय से जो केरल देश की स्त्रियाँ साज-सिंगार छोड़कर घर से भाग खड़ी हुई थीं। स्तम्भेषु योषित्प्रतियातनानामुत्क्रान्तवर्णक्रमधूसराणाम्। 16/17 जिन बहुत से खंभों में स्त्रियों की मूर्तियाँ बनी हुई थीं, आजकल उन मूर्तियों का रंग उड़ गया है। योषितामुदुपतेरिवार्चिषां स्पर्शनिर्वतिम साववाप्नुवन्। 19/34
स्त्रियों के स्पर्श से उसे वैसा ही आनंद मिलता था, जैसा चंद्रमा की किरणों से। 21. रामा :-[रमतेऽनया रम् करणे घञ्] सुन्दरी स्त्री, प्रिया, पत्नी, गृहस्वामिनी।
रामापरित्राणविहस्त योधं सेनानिवेशं तुमुलं चकार। 5/49 सैनिक लोग अपनी स्त्रियों को छिपाने के लिए सुरक्षित स्थान ढूँढ़ने लगे, उस एक हाथी ने सेना में इतनी भगदड़ मचा दी। तस्मिन्नास्थदिषीकास्त्रं रामो रामावबोधितः। 12/23 झट राम की स्त्री सीताजी ने राम को जगाया, तत्काल राम ने उस पर सींक का बाण छोड़ा। विलज्जमानां रहसि प्रतीतः पप्रच्छ रामा रमणोऽभिलाषम्। 14/27 अपनी लजीली पत्नी सीताजी से राम पूछने लगे :-बताओ, तुम्हें क्या-क्या चाहिए। सोपानमार्गेषु च येषु रामा निक्षप्तवत्यश्चरणान्सरागान्। 16/15 पहले जिन सीढ़ियो पर सुंदरियाँ अपने महावर लगे लाल-लाल पैर रखती
चलती थीं। 22. वधू :-[उह्यते पितृगेहात् पतिगृहं, वह् + ऊधुक्] दुलहिन, पत्नी, भार्या,
महिला, तरुणी, स्त्री।
For Private And Personal Use Only
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
374
कालिदास पर्याय कोश वधर्भक्तिमती चैनामर्चितामातपोवनात्। 1/90 तुम्हारी वधू को चाहिए कि वह बड़ी भक्ति से इसकी पूजा करे और जब यह वन को जाने लगे, तब ये तपोवन के बाड़े तक उसके पीछे-पीछे जायें। वरः स वध्वा सह राजमार्ग प्राप ध्वजच्छायनिवारितोष्णम्। 7/4 उस समय अज अपनी पत्नी के साथ राजपथ पर चले जा रहे थे, नगर में इतनी झंडियाँ लगाई गई थीं, कि धूप भी रुक गई थी। इत्युद्गताः पौरवधूमुखेभ्यः शृण्वन्कथाः श्रोत्रसखाः कुमारः। 7/16 नगर की महिलाओं के मुँह से इस प्रकार की बातें सुनते हुए कुमार अज अपने संबंधी भोज के साथ। दुकूल वासाः स वधूसमीपं निन्ये वितैश्वरोधरः।7/19 समुद्र की लहरों को दूर किनारे तक ले जाती हैं, उसी प्रकार रनिवास के नम्र सेवक रेशमी कपड़े पहने इंदुमती के पास अज को ले गए। तमेव चाधाय विवाह साक्ष्ये बधूवरौ संगमयांचकार। 7/20 उसी अग्नि को विवाह का साक्षी बनाकर वर-वधू का गठजोड़ा कर दिया। नितम्बगुर्वी गुरुणा प्रयुक्ता वधूर्विधातृप्रतिमेन तेन। 7/27 उस विवाह की अग्नि का धुआँ लगने से बहू इंदुमती के गाल लाल हो गए। अचिरोपनतां स मेदिनीं नव पाणिग्रहणां वधूमिव। 8/7 नई पाई हुई पृथ्वी का राजा अज ने नई ब्याही हुई बहू के समान समझकर दयालुता के साथ पालन करना प्रारंभ किया। परिवाहमिवावलोकयन्खशुचः पौरवधूमुखाश्रुषु। 8/74 उन्हें देखकर नगर भर की स्त्रियाँ फूट-फूटकर रोने लगीं, मानो अज का शोक इतनी आँखों से बह निकला हो। प्रथममन्यभृताभिरुदीरिताः प्रविरला इव मुग्धवधूकथाः। 9/34 कोयल ने कूक सुनाई तो ऐसा जान पड़ा, मानो कहीं कोई मुग्धा नायिका ही बोल उठी हो। सदृशमिष्टसमागमनिर्वृतिं वनितयानितया रजनीवधूः। 9/38 वैसे ही रात्रि रूपी नायिका भी वसंत के आने से छोटी होती चली गई। परभृताभिरितीव निषेदिते स्मरमते रमते स्म वधूजनः। 9/47 उन दिनों कोयल की कूक मानो कामदेव का यह आदेश सुना रही थी, कि (हे स्त्रियों रूठना छोड़ दो), यह सुनकर सभी स्त्रियाँ फिर रमण करने लगीं।
For Private And Personal Use Only
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
375
प्रत्यपद्यत चिराय यत्पुनश्चारु गौतमवधूः शिलामयी। 11/34 उसके छूते ही पत्थर बनी हुई गौतम की पत्नी को पहले वाला सुंदर शरीर मिल गया। ते चतुर्थ सहितास्त्रयो बभुः सूनवो नववधू परिग्रहाः। 11/55 वे चारों भाई नई बहुओं के साथ ऐसे सुशोभित हुए मानो। सोऽभवद्वश्वधूसमागमः प्रत्ययप्रकृतियोग सन्निभिः। 11/56 वह वर और वधुओं का मिलन ऐसा हुआ, जैसे शब्द के मूल रूपों में प्रत्यय जुड़ गए हों। स्वर्गप्रतिष्ठस्य गुरोर्महिष्याव भक्ति भेदेन वधूर्ववन्दे। 14/5 यह कहते हुए वधू सीताजी ने एक-सी भक्ति से स्वर्गवासी ससुर की दोनों रानियों के चरण हुए। आसीदति शयप्रेक्ष्यः स राज्यश्री वधूवरः। 17/25
उस समय वे ऐसे सुंदर दिखाई दे रहे थे, मानो राज्यलक्ष्मी रूपी बहू के दूल्हे हों। 23. वनिता :-[वन् + क्त + टाप्] स्त्री, महिला, पत्नी, गृह स्वामिनी।
वशिष्ठ धेनो रनुयायिनं तमावर्तमानं वनिता वनान्तात्। 2/19 जब साँझ को राजा दिलीप नंदिनी के पीछे-लौटै, तब उनकी पत्नी सुदक्षिणा। भोजोपनीतं च दुकूल युग्मं जग्राह सार्धं वनिता कटाक्षैः। 7/18 भोज ने उन्हें जो रेशमी वस्त्र का एक जोड़ा दिया, उसे उन्होंने वहाँ की स्त्रियों की बाँकी चितवन के साथ स्वीकार कर लिया। सदृशमिष्ट समागम निर्वृतिं वनितयानितया रजनी वधूः। 9/38 जैसे अपने प्रियतम से समागम न होने के कारण खंडिता नायिका सूखती जाती है, वैसे ही रात्रि रूपी नायिका भी छोटी होती चली गई। तां विलोक्य वनितावधे घृणां पत्रिणा सह मुमोच राघवः। 11/17 उस ताड़का को देखकर राम ने स्त्री को मारने की घृणा और बाण दोनों एक साथ छोड़े। कुशः प्रवासस्थकलत्रवेषाम दृष्टपूर्वां वनितामपश्यत्। 16/4 कुश को एक स्त्री दिखाई दी, उसका वेश देखने से ऐसा जान पड़ता था कि उसका पति परदेस चला गया है। विहर्तुमिच्छा वनिता सखस्य तस्याम्भसि ग्रीष्मसुखे बभूव। 16/54
For Private And Personal Use Only
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
376
कालिदास पर्याय कोश गर्मी में सुख देने वाले सरयू के जल में अपनी रानियों (स्त्रियों) के साथ विहार करने की इच्छा हुई। अथ मधु वनितानां नेत्र निर्वेशनीयं मनसिजतरुपुष्पं रागबन्धप्रवालम्।
18/52 वह जवानी आ गई, जो स्त्रियों की आँखों की मदिरा होती है, शरीर की
स्वभाविक शोभा होती है। 24. वल्लभा :-[वल्ल् + अभच् + टाप्] स्त्री, प्रेयसी, गृहस्वामिनी, पत्नी।
वल्लभाभिरुपसृज्य चक्रिरे सामिभुक्त विषयाः समागमाः। 19/16 इसलिए स्त्रियाँ संभोग के समय राजा से आधी ही रति करके उठ खड़ी होती,
पूरी नहीं। 25. वाणिनी :-[वण् + णिनि + ङीप्] चतुर और धूर्त स्त्री, नर्तकी, अभिनेत्री,
मत्त स्त्री। यस्मिन्महीं शासति वाणिनीनां निद्रां विहारार्थपथे गतानाम्। 6/75 वे प्रतापी राजा ऐसे अच्छे ढंग से अपना राज चलाते थे कि उपवन में मद पीकर
सोई हुई स्त्रियों के। 26. विलासवती :-[विलास + मतुप् + ङीप्, मस्य वः] स्वेच्छाचारिणी या
कामुक स्त्री। अथ यथा सुखमार्तव मुत्सवं समनुभूय विलासवती सखः। 9/48
दशरथ जी ने सुंदर स्त्रियों के साथ वसंत ऋतु का आनंद लिया। 27. विलासिनी :-[विलासिन् + ङीप्] रमणी, हावभाव करने वाली स्त्री,
स्वेच्छाचारिणी। प्रत्यर्पिता: शत्रुविलासिनीनामुन्मुच्य सूत्रेण विनैव हाराः। 6/28 मानो इन्होंने शत्रुओं को स्त्रियों के गले से मोतियों के हार उतारकर, उन्हें बिना डोरे वाले हार पहना दिए हों। आवर्ण्य शाखाः सदयं च यासां पुष्पाण्युपात्तानि विलासिनीभिः। 16/19 पहले उद्यान की जिन लताओं को धीरे से झुकाकर सुंदरी स्त्रियाँ फूल उतारा करती थीं। जातानि रूपा व यवोपमानानय दूरवर्तीनि विलासिनीनाम्। 16/63 देख, सुंदरी स्त्रियों के शरीर के अंगों के समान जो वस्तुएँ संसार में प्रसिद्ध हैं, वे सब इन सुंदरियों के आसपास जुट गई हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
यौवनोन्नत विलासिनी स्तन क्षोभलोलकलाश्च दीर्घिकाः । 19/9
स्त्रियों के ऊँचे-ऊँचे स्तन जब बावली के कमलों से टकराते थे, तब वे कमल हिलने लगते थे ।
377
28. स्त्री : - [स्त्यासेते शुक्रशोणिते यस्याम् :- स्त्यै + ड्रप् + ङीप् ] नारी, औरत,
पत्नी ।
अतो नृपाश्चक्षमिरे समेताः स्त्रीरत्नलाभं न तदात्मजस्य । 7/34 इसलिए वे राजा यह भी नहीं सह सके कि रघु का पुत्र हम लोगों के रहते हुए स्त्रियों में रत्न इंदुमती को लेकर चला जाये ।
शुशुभिरे स्मितचारुतरानना स्त्रिय इव श्लथशिञ्जितमेखलाः । 9/37 (वे बावलियाँ ऐसी सुंदर जान पड़ती थीं) मानो उनमें मुस्कराती हुई सुंदर मुखवाली और बजती हुई ढ़ीली तगड़ी वाली स्त्रियाँ विहार कर रही हों ।। दैत्य स्त्रीगण्डलेखानां मदरागविलोपिभिः । 10/12
असुरों को मारकर उनकी स्त्रियों के गालों से मद की लाली मिटाने वाले । प्रीतिरोधमसहिष्ट सा पुरी स्त्रीव कान्तपरिभोगमायतम् । 11 /52 पर इस प्रेम को उस नगरी ने उसी प्रकार सहन किया, जैसे कोई स्त्री अपने प्रियतम के कठोर संभोग को सहन करती है ।
लङ्कास्त्रीणां पुनश्चक्रे विलापाचार्यक शरैः । 12/78
अपने बाणों से अनगिनत राक्षसों को मारकर लंका की स्त्रियों में फिर से कुहराम मचा दिया।
ततो नृपेणानुगताः स्त्रियस्त भ्राजिष्णुना सातिशयं विरेजुः । 16/69 उस कांतिमान राजा के साथ क्रीड़ा करती हुई वे रानियाँ (स्त्रियाँ), पहले से भी अधिक सुंदर लगने लगीं ।
अङ्गसत्त्ववचनाश्रयं मिथः स्त्रीषु नृत्यमुपधाय दर्शयन् । 19 / 36 जब वह एकांत में स्त्रियों को आंगिक, सात्त्विक और वाचिक तीनों प्रकार का अभिनय सिखाकर उनका प्रदर्शन करता था ।
29. सहचरी : - सहेली, पत्नी, सखी ।
लक्ष्मीकृतस्य हरिणस्य हरिप्रभावः प्रेक्ष्य स्थितां सहचरीं व्यवधाय देहम् ।
For Private And Personal Use Only
9/57
राजा दशरथ ने देखा कि वे जिस हरिण को मारना चाहते थे, उसकी पत्नी हरिणी बीच में आकर खड़ी हो गई ।
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
378
कालिदास पर्याय कोश 30. सहधर्मचारिणी :-धर्मपत्नी, वैध पत्नी।
तैः कृतप्रकृति मुख्य संग्रहैराशु तस्य सहधर्मचारिणी। 19/55 मंत्रियों ने शीघ्र ही प्रजा के नेताओं को इकट्ठा किया और उनकी सम्मति से राजा की उस पटरानी (पत्नी) को।
वन
1. अरण्य :-[अर्यते गम्यते शेषे वयसि :-ऋ + अन्य] जंग, वन, उजाड़।
तमरण्यसमाश्रयोन्मुखं शिरसा वेष्टन शोभिना सुतः। 8/12 जब राजा रघु जंगल में जाने को उद्यत हुए, तब अज ने मनोहर पगड़ी वाला अपना सिर। विवेश दण्डकारण्यं प्रत्येकं च सतां मनः। 12/9 केवल दंडक वन में नहीं पैठे, वरन् अपने सत्य व्यवहार से सज्जनों के मन में
भी घर कर लिया। 2. कानन :-[कन् + णिच् + ल्युट्] जंगल, बाग।
बाण भिन्नहृदया निपेतुषी सा स्वकानन भुवं न केवलाम्। 11/19 बाण से ताड़का की छाती फट गई और उसके नीचे गिरने से वह जंगल ही नहीं। अनसूयातिसृष्टेन पुण्य गन्धेन काननम्। 12/27 अनसूया जी ने सीताजी के शरीर में जो अंगराग लगाया, उसकी गंध पाकर जंगली फूलों से उड़-उड़कर भौरे। नवेन्दुना तन्नभसोपमेयं शावैक सिंहेन च काननेन। 18/37 इस बालक से राजा रघु का कुल वैसे ही शोभा देने लगा, जैसे द्वितीया के चंद्रमा
से आकाश, सिंह के बच्चे से वन। 3. वन :-[वन् + अच्] अरण्य, जंगल।
पुष्परेणूत्किरैर्वातैराधूतवन राजिभिः। 1/38 फूलों के पराग उड़ाता हुआ और वन के वृक्षों की पाँतों को धीरे-धीरे कँपाता हुआ पवन। वनान्तरादुपावृत्तैः समित्कुशफला हरैः। 1/49 हाथ में कुशा और फल लिए हुए जंगलों से लौट रहे हैं। अनिन्द्या नन्दिनी नाम धेनुराववृते वनात्। 1/82 सुलक्षणा नंदिनी गौ वन से लौटकर आ पहुँची।
For Private And Personal Use Only
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
379
वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेर्मुमोच। 2/1 तब यशस्वी राजा दिलीप ने बछड़े को बाँध दिया और ऋषि की गौ को जंगल में चराने के लिए खोल दिया। ऊनं न सत्त्वेष्वधिको वबाधे तस्मिन्वनं गोप्तरि गाहमाने। 2/14 उस वन के बड़े जीवों ने छोटे जीवों को सताना भी छोड़ दिया। ययौ मृगाध्यासितशाद्वलानि श्यामायमानानि वनानि पश्यन्। 2/17 कहीं हरिण हरी घासों पर थककर बैठ गए हैं और धीरे-धीरे साँझ होने से वन की धरती धुंधली पड़ती जा रही है। वशिष्ठधेनोनुयायिनं तमावर्तमानं वनिता वनान्तात्। 2/19 जब साँझ को राजा दिलीप नंदिनी के पीछे-पीछे वन से लौटे, तब सुदक्षिणा। तदाप्रभृत्येव वनद्विपानां त्रासार्थमस्मिन्नहमदिकुक्षौ। 2/38 तब से शंकरजी ने जंगली हाथियों को डराने के लिए मुझे यहाँ पहाड़ के ढाल पर रखवाला बनाकर रख छोड़ा है। करीव सिक्तं पृषतैः पयोमुचां शुचिव्यपाये वनराजिपल्वलम्। 3/3 जैसे गर्मी के अंत में पहली बार वर्षा होने से जंगल के छोटे-छोटे तालों की मिट्टी सोंधी हो जाती है और हाथी उसे बार-बार सूंघते हैं। मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये गलितवसामिक्ष्वाकूणामिदं हि कुलव्रतम्। 3/70 देवी सुदक्षिणा के साथ तप करने के लिए जंगल की राह ली, क्योंकि इक्ष्वाकु वंश के राजाओं में यही परंपरा चली आई है, कि बूढ़े होने पर जंगल में जाकर तपस्या किया करते थे। प्राप तालीवनश्याममुपकण्ठं महोदधेः। 4/34 उस समुद्र के किनारे पहुँचे, जो तट पर खड़े ताड़ के जंगलों के कारण काला दिखाई पड़ रहा था। अप्याज्ञयाशासितुरात्मना वा प्राप्तोऽसि संभावयितुं वनान्माम्। 5/11 यह बताइए कि आपने केवल अपने गुरुजी की आज्ञा से ही वन से मेरे पास आकर मुझे कृतार्थ किया है, या अपनी इच्छा से ही आपने कृपा की है। उपसि सर इव प्रफुल्लपद्मं कुमुदवन प्रतिपन्न निद्रमासीत्। 6/86 उस समय वह मंडप प्रातः काल के उस सरोवर जैसा लगने लगा जिसमें एक
For Private And Personal Use Only
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
380
कालिदास पर्याय कोश ओर खिले हुए कमल दिखाई दे रहे हों और दूसरी ओर मुंदे कुमुदों का जंगल खड़ा हो। हुत हुताशन दीप्ति वनश्रियः प्रतिनिधिः कनकाभरणस्य यत्। 9/40 हवन की अग्नि के समान चमकते हुए कनैर के फूल वनलक्ष्मी के कानों के कर्णफूल जैसे जान पड़ते थे। मृगवनोपगमक्षमवेषभृद्विपुल कण्ठ निषक्त शरासनः। 9/50 जब अहेरी का वेश बनाकर, अपने ऊँचे कंधे पर धनुष टाँगे, तेजस्वी राजा दशरथ घोड़े पर चढ़कर जंगल में चले। स्थिरतुरंगभूमि निपानवन्मृगवयोग वयोपचितं वनम्। 9/53 तब वे उस जंगल में पहुंचे, जहाँ की पृथ्वी घोड़ों के लिए पक्की थी, वहाँ बहुत से ताल थे, जिनके चारों ओर बहुत से हरिण, पक्षी और बनैली गाएँ घूमा करती
थीं।
श्यामीचकार वनमाकुल दृष्टि पातैर्वातेरितोत्पलदलप्रकरैरिवार्दैः। 9/56 उनकी घबराई हुई आँखों से भरा हुआ वह सारा जंगल ऐसा लगने लगा, मानो वायु ने नीले कमलों की पंखड़ियाँ लाकर वहाँ बिखेर दी हों। आचचाम सतुषार शीकरो भिन्नपल्लवपुटो वनानिलः। 9/68 उसे वन के उस वायु ने सुखा दिया, जो जल के कणों से शीतल होकर पत्तों और कलियों को गिराता चल रहा था। चित्रकूटवनस्थं च कथितस्वर्गतिर्गुरोः। 12/15 उन दिनों राम चित्रकूट वन में रहते थे, वहाँ जाकर भरत जी ने उन्हें दशरथ जी की मृत्यु का समाचार सुनाया। प्राप्ता दवोल्काहतशेषबर्हाः क्रीडामयूरा वनवर्हिणत्वम्। 16/14 अब वे उन जंगली मोरों के समान लगते हैं, जिनकी पूँछे वन की आग से जल गई हों। चित्रद्विपा: पद्मवनावतीर्णाः करेणुभिर्दत्तमृणालभङ्गाः। 16/16 जिन चित्रों में ऐसा दिखाया गया था कि हाथी कमल के जंगल में उतर रहे हैं
और हाथनियाँ उन्हें सैंड से कमल की डंठल तोड़कर दे रही हैं। वनेषु सायंतनमल्लिकानां विजृम्भणोद्गन्धिषु कुड्मलेषु। 16/47 वनों में चमेली खिल गई और उसकी सुगंध चारों ओर फैलने लगी।
For Private And Personal Use Only
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
381
रघुवंश
वापीष्विव स्रवन्तीषु वनेषूपवनेष्विव। 17/64 नदियाँ उनके लिए बावलियों जैसी घरेलू, वन भी उद्यान जैसे सुखकर हो गए। खनिभिः सुषेवे रत्नं क्षेत्रैः सस्यं वनैर्गजान्। 17/66 खानों ने रत्न दिए, खेतों ने अन्न दिया और वनों ने उन्हें हाथी दिए। क्ष्मां लम्भयित्वा क्षमयोपपन्नं वने तपः क्षान्ततरश्चकार। 18/9 अपने पुत्र क्षेमधन्वाको राज सौंप दिया और स्वयं शांत होकर जंगल में तपस्या
करने चले गए। 4. विपिन :-[वेपन्ते जनाः अत्र :-वेप् + इनन्, ह्रस्व] जंगल, वन, वाटिका।
विपिनानि प्रकाशानि शक्ति मित्त्वाच्चकार सः। 4/31 रघु के पास ऐसे साधन थे कि घने जंगलों में खुले मार्ग बन गए। अप्प जातु रुरो गृहीतवा विपिने पार्श्वचरैरलक्ष्यमाणः। 9/72 एक दिन जंगल में रुरु मृग का पीछा करते हुए, वे अपने साथियों से दूर भटक गए।
वन्य
1. आरण्यक :-[अरण्य + वुज] वन संबंधी, वन में उत्पन्न, जंगली।
आरण्यकोपात्तफल प्रसूतिः स्तम्बेन नीवार इवावशिष्टः। 5/15 इससे आप जंगल की उस तिन्नी की पौधे की दूंठ जैसे रह गए हैं, जिसके दाने
तपस्वियों ने झाड़ लिए हों। 2. वन्य :-[वने भवः यत्] जंगली, जंगल में उगने वाला।
नाम धेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम्। 1/45 उनसे राजा दिलीप और उनकी रानी मार्ग के वनों और वृक्षों का नाम पूछती चलती थी। कल्पविकल्पयामास वन्यामेवास्य संविधाम्। 1/94 उन्होंने राजा के व्रत के योग्य जंगली कंदमूल के भोजन और कुश की चटाई का ही प्रबंध किया था। रक्षापदेशान्मुनि होमधेनोर्वन्यान्विनेष्यन्निव दुष्ट सत्त्वान्। 2/8 जब वे हाथ में धनुष लेकर घूमते थे, तब उन्हें देखकर ऐसा लगता था, मानो नंदिनी की रक्षा के बहाने वे जंगल के दुष्टजीवों को शांत रहने की सीख दे रहे हों।
For Private And Personal Use Only
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
382
कालिदास पर्याय कोश
निधौत दानामल गण्ड भित्तिर्वन्यः सरितो गज उन्ममज्ज। 5/43 एक जंगली हाथी नर्मदा के जल में से झूमता हुआ निकला, जल में स्नान करने के कारण उसके माथे के दोनों ओर का मद धुल गया था।
वय
1. आयु :-[आ + इ + उस्] जीवन, जीवनावधि।
आयुर्देहातिगैः पीतं रुधिरं तुपतत्रिभिः। 12/48 क्योंकि बाण तो उनकी आयु पीने के लिए गए थे, उनका रक्त तो पिया पक्षियों
ने।
2. दश :-[दंश् + अङ् + नि० टॉप्] आयु, जीवन की एक अवस्था या काल।
तं श्लाघ्यसंबन्धमसौ विचिन्त्य दारक्रियायोग्य दशं च पुत्रम्। 5/40 रघु ने भी सोचा कि भोज के वंश के साथ अपने कुल का संबंध करना ठीक ही
होगा और कुमार अज भी विवाह के योग्य हो गए हैं। 3. वय :-[अजं + असुन्, वी भावः] आयु, जीवन का कोई काल या समय,
जवानी। एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च। 2/47 क्योंकि तुम एक साधारण गौ के पीछे इतना बड़ा राज्य, यौवन और ऐसा सुंदर शरीर छोड़ने पर उतारू हो गये हो। काकपक्षधरमेत्य याचितस्तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते। 11/1 काकपक्षधारी राम को हमारे साथ भेज दीजिए। ठीक ही है, जो तेजस्वी होते हैं, उनके लिए उम्र (अवस्था) नहीं विचार की जाती। शिश्रिये श्रुतवतामपश्चिमः पश्चिमे वयसि नैमिषं वशी। 19/1 विद्वान राजा सुदर्शन बुढ़ापे में नैमिषारण्य में रहने लगे।
वरज
1. अनुज :-[अनु + जन् + ड, क्त वा] बाद में उत्पन्न, छोटा भाई।
असौ कुमारस्तमजोऽनुजास्त्रिविष्टयस्येव पतिं जयन्तः। 6/78 जैसे इंद्र के पुत्र जयंत बड़े प्रतापी हुए थे, वैसे ही कुमार अज भी उन्हीं प्रतापी रघु के पुत्र हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
383
पूर्ववृत्तकथितैः पुराविदः सानुजः पितृसखस्य राघवः। 11/10 राम और उनके छोटे भाई लक्ष्मण को, उनके पिता के मित्र विश्वामित्र जी मार्ग में पुरानी कथाएँ सुनाते चले जा रहे थे। चचार सानुजः शान्तो वृद्धक्ष्वाकुव्रतं युवा। 12/20 अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ युवावस्था में ही वह व्रत करने लगे, जो इक्ष्वाकु वंश वाले बुढ़ापे में किया करते हैं। उत्तिष्ठ वत्से सानुजोऽसौ वृत्तेन भर्ता शुचिना तवैव। 14/6 उठो बेटी ! तेरे ही पतिव्रत के प्रभाव से राम और उनके अनुज इस बड़े भारी संकट से पार हुए हैं। उदक्प्रतस्थ स्थिरधीः सानुजोऽग्निपुरः सरः। 15/98
फिर अग्निहोत्र की अग्नि आगे करके भाइयों के साथ वे उत्तर की ओर चले। 2. वरज :-[वृ + अप् + जः]
यौ तयोरवरजौ वरोजसौ तौ कुशध्वज सुते सुमध्यमे। 11/54 उनके दोनों छोटे भाईयों भरत और शत्रुघ्न का विवाह जनक जी के छोटे भाई कुशध्वज की कन्याओं से हुआ। सौमित्रिणा सावरजेन मन्दमा धूतबाल व्यजनो रथस्थः। 14/11 उनके छोटे भाई लक्ष्मण और शत्रुघ्न रथ में बैठे हुए राम पर चँवर डुला रहे थे। धर्मार्थ कामेषु समां प्रपेदे यथा तथैववरजेषु वृत्तिम्। 14/21 जैसे वे धर्म, अर्थ और काम के साथ समान व्यवहार करते थे, उसी प्रकार अपने भाइयों के साथ भी समान प्रेम का व्यवहार करते। स संनिपात्यावरजान्हतौजास्तद्विक्रियादर्शन लुप्त हर्षान्। 14/36 उदास मुँह से राम ने भाइयों को बुलाया, तो वे भी उनकी दशा देखकर सन्न रह गए। राज्ञः शिवं सावरजस्य भूयादित्याशशंसे करणैरबाःि । 14/50 वे मन ही मन मनाने लगी कि भाइयों के साथ राजा सुख से रहें, उन पर कोई आँच न आवे।
वरुण
1. जलेश्वर :-[जल् + अक् + ईश्वरः] वरुण का विशेषण।
For Private And Personal Use Only
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
384
कालिदास पर्याय कोश यमकुबेर जलेश्वर वज्रिणां समधुरं मधुरञ्चित विक्रमम्। 9/24 यम, कुबेर, वरुण और इंद्र के समान पराक्रमी उन एकच्छत्र राजा का वसंत-ऋतु
भी। 2. पाशभृत :-[पश्यते बध्यतेऽनेन, पश् करणे घञ् + भृत्] वरुण का विशेषण।
विसृष्टपार्थानुचरस्य तस्य पार्श्व दुमाः पाशभृता समस्य। 2/9 मानो मार्ग के वृक्ष वरुण के समान तेजस्वी राजा दिलीप की जय-जयकार कर
रहे हों, कि उनकी जय बोलने वाला कोई भी सेवक उनके साथ नहीं है। 3. प्रचेतस :-(पं०) [प्र + चित् + असुन्] वरुण का विशेषण।
हविषे दीर्घ सत्रस्य सा चेदानीं प्रचेतसः। 1/80 (अब इस समय तो कामधेनु मिल नहीं सकती), क्योंकि वरुणदेव पाताल में
एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। 4. यादोनाथ :-[यान्ति वेगेन :-या + असुन्, दुगागमः + नाथः यादसां नाथः]
वरुण का नाम इन्द्रावृष्टिर्नियमितगदोदेकवृत्तिर्यमोऽभूद्यादोनाथः शिवजलपथः कर्मणे नौचराणाम्। 17/81 इन्द्र ने उनके साम्राज्य पर वर्षा की, यमराज ने रोगों का बढ़ना रोका, वरुण ने नाव चलाने वालों के लिए जल के मार्ग खोल दिए। वरुण :-[वृ + उनन्] समुद्र की अधिष्ठात्री देवता। अनुययौ यमपुण्य जनेश्वरौ सवरुणा वरुणाग्रसरं रुचा। 9/6 जैसे यम सबको एक समान समझते हैं, वैसे ही राजा भी सबसे एक सा व्यवहार करते थे। जैसे वरुण दुष्टों को दंड देता है, वैसे ही वे भी दुष्टों को दंड देते थे। तौ समेत्य समये स्थितावुभौ भूपती वरुणवासवोपमौ। 11/53 वरुण और इंद्र के समान उन दोनों प्रतापी राजाओं ने मिलकर शास्त्र की विधि से अपने ऐश्वर्य के अनुकूल।
वल्कल
1. चीर :-[चि + क्रन् दीर्घश्च] वल्कल।
अध्यासते चीरभृतो यथास्वं चिरोज्झितान्याश्रम मण्डलानि। 13/22 इन चीरधारी तपस्वियों ने समझ लिया है कि अब कोई खटका नहीं रहा और इसीलिए वे नई कुटियाँ बना-बनाकर, तपोवन में सुख से रहते हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
385
2. वल्कल :-[वल् + कलच्, कस्य नेत्वम्] वल्कल से बनी पोशाक, छाल से
बने वस्त्र। दधतौ मङ्गलक्षौमे वसानस्य च वल्कले। 12/8 राम के मुँह का भाव जैसा राज्याभिषेक के समय रेशमी वस्त्र पहनते समय था, ठीक वैसा ही बन जाने के लिए पेड़ की छाल के वस्त्र पहनते समय था।
वशिष्ठ
1. ब्रह्मयोनि :-[बृंह + मनिन्, नकारस्याकारे ऋतोरत्वम् + योनिः] ब्रह्मा से
उत्पन्न, वशिष्ठ। त्वयैवं चिन्त्यमानस्य गुरुणा ब्रह्मयोनिना। 1/64 जब आप स्वयं ब्रह्मा के पुत्र ही हमारे कुलगुरु होकर सदा हमारे कल्याण की
बात सोचते रहते हैं। 2. वशिष्ठ :-एक विख्यात मुनि का नाम, सूर्यवंशी राजाओं का कुल पुरोहित।
वशिष्ठ धेनोरनुयायिनं तमावर्तमानं वनिता वनान्तात्। 2/19 जब साँझ को राजा दिलीप वशिष्ठ जी की गाय के पीछे-पीछे जंगल से लौटे, तब सुदक्षिणा। पपौ वशिष्ठेन कृताभ्यनुज्ञः शुभ्रं यशो मूर्तमिवातितृष्णः। 2/69 राजा दिलीप ने वशिष्ठजी की आज्ञा से नंदिनी के दूध को ऐसे पी लिया मानो उन्हें बड़ी प्यास लगी हो। उनको जान पड़ता था कि स्वयं उजला यश ही दूध बनकर चला आया हो। तौ दंपती स्वां प्रति राजधानी प्रस्थापयामास वशी वशिष्ठः। 2/70 जितेन्द्रिय वशिष्ठ जी ने राजा और रानी दोनों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा मार्ग आनंद से कटे और उन्हें अयोध्या के लिए बिदा कर दिया। वशिष्ठधेनुश्च यदृच्छयागता श्रुतप्रभावा ददृशेऽथ नन्दिनी। 3/40 ठीक उसी समय वहाँ वशिष्ठ ऋषि की प्रभावशालिनी गौ नंदिनी घूमती-घामती चली आई। वशिष्ठमन्त्रो क्षण जात्प्रभावादुदन्वदाकाशमहीधरेषु। 5/27 वैसे ही वशिष्ठजी के मंत्रों से पवित्र किया हुआ रघु का रथ, समुद्र, आकाश और पर्वत कहीं भी आ जा सकता था।
For Private And Personal Use Only
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
386
कालिदास पर्याय कोश वशिष्ठस्य गुरोर्मन्त्राः सायकास्तस्य धन्विनः। 17/38
गुरु वशिष्ठ के मंत्र और राजा के बाण दोनों ने। 3. स्रष्टुसूनु :-[सृज् + तृच् + सूनुः] ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ।
सूनुः सूनृतवाक्स्त्रष्टुर्विससोर्जित श्रियम्। 1/93 विद्वान, सत्यवक्ता, ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठजी ने।
वाल्मीकि 1. आदिकवि :-[आ + दा + कि + कविः] प्रथम कवि, वाल्मीकि की उपाधि।
प्रत्यर्पयिष्यतः काले कवेराद्यस्य शासनात्। 15/41 वाल्मीकि जी ने उन्हें कह दिया था, कि समय आने पर हम स्वयं दोनों पुत्रों को
सौंप देंगे, तुम मत कहना। 2. प्राचेतस :-[प्रचेतसः अपत्यम् :-प्रचेतस् + अण] वाल्मीकि का गोत्रीय
नाम। अथ प्राचेतसोपज्ञं रामायणमितस्ततः। 15/63
तब वाल्मीकि जी की आज्ञा से रामायण गाते हुए इधर-उधर घूमने लगे। 3. वाल्मीकि :-[वल्मीके भवः अण् इञ् वा] एक विख्यात मुनि तथा रामायण
के प्रणेता का नाम। आश्वास्य रामावरजः सतीं तामाख्यातवाल्मीकि निकेत मार्गः। 14/58 लक्ष्मण ने उन्हें बहुत समझाया बुझाया और वाल्मीकि का आश्रम दिखाकर कहा। वृत्तं रामस्य वाल्मीकेः कृतिस्तौ किंनरस्वनौ। 15/64 एक तो राम का चरित, उस पर वाल्मीकि उसके रचयिता, और फिर किन्नरों के समान मधुर कंठ वाले लव और कुश।
वासव
1. अमरेश्वर :-[अमर + ईश्वरः] देवताओं का स्वामी, इंद्र की उपाधि ।
प्रेमदत्तवदनानिलः पिबन्नत्यजीवदमरालकेश्वरो। 19/15 प्रेमपूर्वक फूंक मारकर उनके मुख को चूमने लगता था, उस समय वह समझता था कि मैं इन्द्र और कुबेर से बढ़कर सुखी और भाग्यवान् हूँ।
For Private And Personal Use Only
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
387 2. आखण्डल :-[आखण्डयति भेदयति पर्वतान् :-आ + खण्ड् + डलच्,
डस्यनेत्वम् तारा०] इन्द्र। तमीशः कामरूपाणामत्याखण्डल विक्रमम्। 4/83
तब असम के राजा ने इंद्र से भी अधिक पराक्रमी रघु को। 3. इन्द्र :-[इन्द्र + रन्, इन्दतीति इन्द्रः, इदि ऐश्वर्ये-मल्लि०] देवों का स्वामी,
वर्षा का देवता, इन्द्र। वार्षिकं संजहारेन्द्रो धनुर्जेत्रं रघुर्दधौ। 4/16 इन्द्र ने जब अपना वर्षा ऋतु का इंद्र धनुष हटाया, तब रघु ने अपना विजयी धनुष हाथ में उठा लिया। नालं विकर्तुं जनितेन्द्रशङ्कं सुराङ्गनाविभ्रमचेष्टितानि। 13/42 इनके तप से डरकर इन्द्र ने इनके पास भी अप्सराओं को भेजा। स कुलोचितमिन्द्रस्य सहायकमुपेयिवान्। 17/5 अपने कुल की चलन के अनुसार कुश भी एक बार युद्ध में इन्द्र की सहायता करने गए। इन्द्रावृष्टिर्नियमितगदोद्रेकवृत्तिर्यमोऽभूद्यादोनाथः शिवजलपथः कर्मणे नौचराणाम्। 17/81 इन्द्र ने उनके साम्राज्य पर वर्षा की, यमराज ने रोगों का बढ़ना रोका, वरुण ने
नाव चलाने वालों के लिए जल के मार्ग खोल दिए। 4. गोत्रभिद :-[गो + त्रः + भिद्] इन्द्र का विशेषण।
रघोरवष्टम्भमयेन पत्रिणा हदिक्षतो गोत्रभिदायमर्षणः। 3/53 रघु ने खंभे के समान दृढ़ एक बाण इंद्र की छाती में मारा। उपेयुषः स्वामपि मूर्तिमग्यामर्धासनं गोत्रभिदोऽधितष्ठौ। 6/73 युद्ध समाप्त हो जाने पर जब इन्द्र अपना रूप धारण करके स्वर्ग जाने लगे, तब उनके साथ ककुत्स्थ भी बैठे हुए थे। पक्षच्छिदा गोत्रभिदात्त गन्धाः शरण्यमेनं शतशो महीध्राः। 13/7 वैसे ही सैकड़ों पहाड़ों ने भी इसकी शरण ली थी, जिनके पंख इन्द्र ने काट दिए
थे और जिनका अभिमान इन्द्र ने चूर कर दिया था। 5. तुराषाह :-[तुर् + सह् + णिच् + क्विप्] इन्द्र।
कालनेमिवधात्प्रीतस्तुराषाडिव शाङ्गिणम्। 15/40
For Private And Personal Use Only
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
388
कालिदास पर्याय कोश
जैसे इन्द्र ने कालनेमि को मारने वाले विष्णु का स्वागत किया था, वैसे ही। 6. त्रिलोकनाथ :-[त्रि + लोकम् + नाथः] इन्द्र का विशेषण। त्रिलोकनाथेन सदा मखद्विषस्त्वया नियम्या ननु दिव्यचक्षुषा। 3/45 आपको तो यह चाहिए कि संसार में जो कोई भी यज्ञ में विघ्न डाले, उसे आप
स्वयं दंड दें, क्योंकि आप तो तीनों लोकों के स्वामी हैं। 7. त्रिविष्टपपति :-[त्रि + विष्टपम् + पतिः] इन्द्र का विशेषण।
असौ कुमारस्तमजोऽनुजातस्त्रिविष्टपस्येव पतिं जयन्तः। 6/78 जैसे इन्द्र के पुत्र जयंत बड़े प्रतापी हुए थे, वैसे ही कुमार अज भी उन्हीं प्रतापी
रघु के पुत्र हैं। 8. दिवभर्ता :-[दीव्यन्त्यत्र दिव + बा आधारे डिवि :-तारा० + भर्ता] इन्द्र का
विशेषण। न मैथिलेयः स्पृहयां बभूव भत्रे दिवो नाप्यलकेश्वराय। 16/42 जानकी जी के पुत्र कुश को न तो स्वर्ग के स्वामी इन्द्र बनने की इच्छा रह गई
और न ही अलकापुरी ही लेने की। 9. दिवस्पति :-[दिवः + पतिः] इन्द्र का विशेषण।
तयोर्दिवस्पतेरासीदेवः सिंहासनार्ध भाक्। 17/7
कुश को तो इन्द्र के सिंहासन का आधा भाग मिला। 10. दिवौकसाधिपति :-इन्द्र का विशेषण।
इति प्रगल्भं रघुणा समीरितं वचो निशम्याधिपतिर्दिवौकसाम्। 3/47
रघु के अभिमान भरे इन वचनों को सुनकर इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। 11. देवेन्द्र :-[दिव + अच् + इन्द्रः] इन्द्र का विशेषण।
मखांशभाजां प्रथमो मनीषिभिस्त्वया नियम्या ननु दिव्यचक्षुषा। 3/44 हे देवेन्द्र! विद्वानों का कहना है कि यज्ञ का भाग सबसे पहले आपको ही
मिलता है। 12. पाकशासन :-[पच् + घञ् + शासन:] इन्द्र का विशेषण।
पृथिवीं शासतस्तस्य पाकशासन तेजसः। 10/1 अपार धन वाले और इन्द्र के समान तेजस्वी राजा दशरथ को पृथ्वी पर राज
करते करते। 13. पुरंदर :-[पुरं दारयति :-इति दृ + णिच् + खच्, मुम्] इन्द्र।
पुरंदरश्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरैरभिनन्द्य मानः। 2/74
For Private And Personal Use Only
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
इंद्र के समान संपत्तिशाली राजा दिलीप ने प्रजा का आदर पाकर उस अयोध्या नगरी में प्रवेश किया।
389
उमावृषाङ्कौ शरणन्मना यथा यथा जयन्तेन शचीपुरंदरौ। 3/23
जैसे कार्तिकेय के समान पुत्र को पाकर शंकर और पार्वती को अत्यंत प्रसन्नता हुई थी, और जयंत जैसे पुत्र को पाकर इंद्र और शची प्रसन्न हुए थे। ततः प्रहस्यापभयः पुरंदरं पुनर्बभाषे तुरगस्य रक्षिता । 3 / 51 यह सुनकर अश्व के रक्षक रघु ने निडर होकर हँसते हुए इंद्र से कहा । शमितपक्षबल: शतकोटिना शिखरिणां कुलिशेन पुरंदरः । 9/12 जैसे इंद्र ने अपने सौ नोकों वाले वज्र से पर्वतों के पंख काट दिए थे । हरियुग्मं रथं तस्मै प्रणिधाय पुरंदरः । 12/84
इन्द्र ने अपना वह रथ भेजा, जिसमें पीले रंग के घोड़े जुते हुए थे । 14. पुरुहूत : - [ पृ पालनपोषणयो:-कु + हूतः ] इन्द्र का विशेषण ।
पुरुहूतध्वजस्येव तस्योन्नयनपङ्क्यः । 4 /3
वैसे ही प्रसन्न होते थे, जैसे आकाश में उठे हुए नये इन्द्र धनुष को देखकर लोग प्रसन्न होते थे ।
पुरुहूत प्रभृतयः सुरकार्योद्यतं सुराः । 10/49
जब भगवान् विष्णु देवताओं का कार्य करने के लिए चले, तब इन्द्र आदि देवताओं ने अपने-अपने अंश उनके साथ भेज दिए ।
सा साधुसाधारणपार्थिवर्द्धः स्थित्वा पुरस्तात्पुरुहूतभासः । 16/5
अपनी संपत्ति से सज्जनों का उपकार करने वाले, इंद्र के समान तेजस्वी राजा के आगे खड़ी हो गई ।
स पुरं पुरुहूतश्रीः कल्पद्रुमनिभध्वजाम्। 17/32
इन्द्र के समान ऐश्वर्यशाली राजा अतिथि घूमने निकले, तब कल्पवृक्ष के समान ध्वजाओं वाली अयोध्या नगरी ।
For Private And Personal Use Only
15. प्राचीनबर्हिष :- (पुं० ) [ प्राच् + रव + रव + बर्हिस्] इन्द्र का विशेषण ।
सयौ प्रथमं प्राचीं तुल्यः प्राचीनबर्हिषा । 4/28
इन्द्र के समान प्रतापी राजा रघु पहले दिग्विजय के लिए पूर्व की ओर चले ।
16. बलनिषूदन :- [बल् + अच् + निषूदनः] इन्द्र के विशेषण । बलनिषूदनमर्थपतिं च तं श्रमनुदं मनुदण्डधरान्वयम् । 9 / 3
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
390
कालिदास पर्याय कोश उनमें से एक तो हैं इंद्र, जिन्होंने समय पर वर्षा करके किसानों का परिश्रम सफल किया और दूसरे हैं मनुवंशी दशरथ, जिन्होंने सुकर्मियों को धन देकर
उनका पालन-पोषण किया। 17. बलभ :-[बल् + अच् + भः] इन्द्र के विशेषण।
उच्चचाल बलभित्सखो वशी सैन्यरेणुमुषितार्कदीधितिः। 11/51 इन्द्र के मित्र, जितेन्द्रिय दशरथ इतनी सेना लेकर चले, कि उससे उठी हुई धूल
से सूर्य भी ढक गया। 18. मघवा :-[मह पूजायां कनिन्, नि० हस्यस घः, वुगागमश्च] इन्द्र का नाम।
दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम्। 1/26 राजा दिलीप प्रजा से जो कर लेते थे, वह यज्ञ में लगा देते थे। इन्द्र भी इनसे प्रसन्न होकर आकाश को दुहता था और जल बरसाता था, जिससे खेत असन्न से लद जाते थे। तदङ्गमग्नं मघवन्महाक्रतोरमुं तुरंगं प्रतिमोक्तुमर्हसि। 3/46 इसलिए हे इंद्रदेव! आप मेरे पिताजी के अश्वमेघ यज्ञ के लिए, इस घोड़े को छोड़ दीजिए। स एवमुक्त्वा मघवन्तमुन्मुखः करिष्यमाणः सशरं शरासनम्। 3/52 यह कहकर रघु ने धनुष पर बाण चढ़ाया और पैंतरा साधकर इंद्र की ओर मुँह करके खड़े हो गए। स किल संयुगमूर्ध्नि सहायतां मघवतः प्रतिपद्य महारथः। 9/19 यह कहा जाता है कि महारथी दशरथ ने युद्ध में इंद्र की सहायता करके और बाणों से उनके शत्रुओं का नाश करके। पुरा स दर्भाङ्करभात्र वृत्तिश्चरन्मृगैः सार्धमृषिर्मघोना। 13/39 पहले ये महर्षि तपस्या करते समय मृगों के साथ घास चरा करते थे, इनकी ऐसी तपस्या देखकर इन्द्र को भय हुआ। वंशस्थितिं वंश करेण तेन संभाव्य भावी स सखा मघोनः। 18/31 विषय-वासनाओं से दूर रहकर इन्द्र के भावी मित्र ब्रह्मनिष्ठ ने अपनी कुल
प्रतिष्ठा अपने पुत्र को सौंप दी। 19. मरुत्पाल :-(पुं०) [मृ + उति + पालः] इन्द्र का विशेषण।
नगरोपवने शचीसखो मरुतां पालयितेव नन्दने। 8/32
For Private And Personal Use Only
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
जैसे देवताओं का पालन करने वाले इन्द्र नंदन वन में इंद्राणी के साथ विहार करते हैं, उसी प्रकार वे नगर के उपवन में विहार कर रहे थे ।
20. मरुत्वान :- (पुं०) [मृ + उति + वान् ] इन्द्र का नामान्तर
दिवं मरुत्वानिव भोक्ष्यते भुवं दिगन्तविश्रान्त रथो हि तत्सुतः । 3/4 भविष्य में उसका पुत्र भी संपूर्ण पृथ्वी पर उसी प्रकार राज करे, जैसे इंद्र स्वर्ग पर राज करते हैं।
आकाश गङ्गारतिरप्सरोभिर्वृतो मरुत्वाननुयातलील: । 16 / 71
मानो देवराज इंद्र अप्सराओं के साथ आकाशगंगा में जलक्रीड़ा कर रहे हों । 21. महेन्द्र :- [ महा + इन्द्र:] महेन्द्र अर्थात् महान् इन्द्र ।
महेन्द्रमास्थाय महोक्षरूपं यः संयति प्राप्तपिनाकिलील: । 6/72 बैल पर चढ़े हुए वे शिवजी के समान लगते थे, स्वयं इंद्र उनके लिए बैल बने हुए थे और उस युद्ध में उन्होंने असुरों को मार डाला था ।
391
22. लोकेश : - [लोक्यतेऽसौ लोक् + घञ् + ईश: ] राजा, ब्रह्मा, इन्द्र | तवैव संदेशहराद्विशांपतिः शृणोति लोकेश तथा विधीयताम् । 3/66 हे लोकेश ! इसलिए आप ऐसा उपाय कीजिए, जिससे आपका ही कोई दूत जाकर उनको यह समाचार सुना आवे ।
23. वज्रधर : - [ वज् + रन् + धरः ] इन्द्र का विशेषण ।
ततः परं वज्रधरप्रभावस्तदात्मजः संयति वज्रघोषः । 18/21
तब उनके पीछे उनके पुत्र राजा हुए, वे इन्द्र के समान प्रभावशाली थे और युद्ध क्षेत्र में इन्द्र के समान गरजते थे ।
24. वज्रपाणि: - [ वज् + रन् + पाणि: ] इन्द्र का विशेषण ।
जडीकृतस्त्र्यम्बकवीक्षणेन वज्रं मुमुक्षन्निव वज्रपाणि: । 2/42
किसी समय इन्द्र ने शिवजी पर वज्र चला दिया था, शिवजी ने केवल उनकी ओर देख भर दिया, कि इंद्र कठमारे से हो गए ।
25. वज्री : - [ वज् + न् + अच् + ङीप् ] इन्द्र का विशेषण ।
कुबेर जलेश्वरवज्रिणां समधुरं मधुरञ्चितविक्रमम् । 9/24
For Private And Personal Use Only
यम, कुबेर, वरुण और इंद्र के समान पराक्रमी उन एकच्छत्र राजा का अभिनंदन करने के लिए वसंत ऋतु भी ।
कार्येषु चैक कार्यत्वादभ्यर्थ्यो ऽस्मिन वज्रिणा । 10 / 40
इसलिए रावण को मिटा डालने का काम जैसा इन्द्र का है, वैसा ही मेरा भी है।
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
392
कालिदास पर्याय कोश 26. वासव :-[वसुरेव स्वार्थे अण, वसूनि सन्त्यस्य अण् वा] इन्द्र का नाम ।
शशाक निर्वापयितुं न वासवः स्वतश्च्युतं वह्नि मिवाद्भिरम्बुदः। 3/58 जैसे बादल घोर वर्षा करके भी अपने हृदय में उत्पन्न बिजली को नहीं बुझा सकता, वैसे ही इन्द्र भी रघु को हरा न सके। अवेहि मां प्रीतमृते तुरंगमात्किमिच्छसीति स्फुटमाह वासवः। 3/63 इन्द्र ने कहा :-मैं तुम्हारी वीरता पर प्रसन्न हूँ, तुम इस घोड़े को छोड़कर और जो कुछ माँगना चाहो, माँग लो। कायेन वाचा मनसापि शश्वद्यत्संभृतं वासवधैर्यलोपि। 5/5 उन्होंने शरीर, मन और वचन तीनों प्रकार का जो कठिन तप करना प्रारंभ किया था और जिसे देखकर इन्द्र भी घबरा उठे थे। कारागहे निर्जितवासवेन लड़ेश्वरेणोषितमाप्रसादात्। 6/40 जिस रावण ने इन्द्र को भी जीत लिया था, उसको भी उन्होंने अपने कारागार में बंदी रख छोड़ा था। न कृपणा प्रभवत्यपि वासवे न वितथा परिहासकथास्वपि। 9/8 वे इतने मनस्वी थे कि इन्द्र तक के आगे वे कभी नहीं गिड़गिड़ाए, हँसी में भी उन्होंने झूठ नहीं बोला। येषु दीर्घतपसः परिग्रहो वासवक्षणकलत्रतां ययौ। 11/33 जहाँ महातपस्वी गौतम की स्त्री अहल्या, थोड़ी देर के लिए इन्द्र की पत्नी बन गई थीं। तौ समेत्य समये स्थिता वुभौ भूपती वरुणवासवोपमौ। 11/53 वरुण और इन्द्र के समान उन दोनों प्रतापी राजाओं ने मिलकर शास्त्र की विधि
27. वृषा :-[वृष + कनिन् । वृष + क] इन्द्र का नाम।
वृषेव पयसां सारमाविष्कृतमुदन्वता। 10/52 जैसे इन्द्र ने समुद्र में से निकले हुए अमृत के कलश को थाम लिया था, वैसे ही राजा दशरथ ने खीर ले ली। वृषेव देवो देवानां राज्ञां राजा बभूव सः। 17/77
जैसे इन्द्र देवताओं के देवता हैं, वैसे ही वे भी राजाओं के राजा हो गए। 28. वृत्रहा :-[वृत् + रक् + हन्] इन्द्र का विशेषण।
For Private And Personal Use Only
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
393
रघुवंश
तुतोष वीर्यातिशयेन वृत्रहा पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते। 3/62 उनकी इस अद्वितीय वीरता को देखकर इन्द्र बड़े संतुष्ट हुए। ठीक भी था,
क्योंकि गुणों का आदर सर्वत्र होता ही है। 29. शक्र :-[शक् + रक्] इन्द्र।
पुरा शक्रमुपस्थाय तवोर्वी प्रति यास्यतः। 1/75 बहुत दिन हुए जब तुम स्वर्ग से इन्द्र की सेवा करके पृथ्वी को लौट रहे थे। धनुर्भृतामग्रत एव रक्षिणां जहार शक्रः किल गूढविग्रहः। 3/39 इन्द्र को यह बात खटकी और उन्होंने अपने को छिपाकर धनुषधारी रक्षकों के देखते-देखते उस घोड़े को चुरा लिया। जहार चान्येन मयूर पत्रिणा शरेण शक्रस्य महाशनिध्वजम्। 3/56 फिर रघु ने मोर के पंख वाले दूसरे बाण से इन्द्र की वज्र जैसी ध्वजा को काट डाला। पक्षच्छेदोद्यं शक्रं शिलावर्षीव पर्वतः। 4/40 जैसे पत्थर बरसाने वाले पहाड़ ने पत्थर बरसाकर पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र का सामना किया था। अतिष्ठदेकोन शतक्रतुत्वे शक्राभ्यसूयाविनिवृत्तये यः। 6/74 जो केवल निन्यानवे यज्ञ करके ही इसलिए चुप हो गए, कि कहीं सौ यज्ञ पूरे
करने से इन्द्र को कष्ट न हो। 30. शतक्रतु :-[दश दशतः परिमाणस्य :-दशन् + त, श आदेशः नि० साधु: +
क्रतुः] इन्द्र का विशेषण। अपूर्णमेकेन शतक्रतूपमः शतं क्रतूनामपविध्नमाप सः। 3/38 इन्द्र के समान प्रभावशाली दिलीप ने निन्यानवे अश्वमेध यज्ञ बिना बाधा के पूरे कर लिए। तथा विदुर्मी मुनयः शतक्रतुं द्वितीयागामी न हि शब्द एषः नः। 3/49 वैसे ही मुनि लोग शतक्रतु (सौ यज्ञ करने वाला) केवल मुझे ही कहते हैं, जिन नामों से हम लोग प्रसिद्ध हैं, वे नाम दूसरे नहीं रख सकते। अतिष्ठदेकोन शतक्रतुत्वे शक्राभ्य सूया विनिवृत्तये यः। 6/74 जो केवल निन्यानवे यज्ञ करके ही इसलिए चुप हो गए, कि कहीं सौ यज्ञ पूरे करने से इन्द्र को कष्ट न हो।
For Private And Personal Use Only
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
394
कालिदास पर्याय कोश 31. सहस्रलोचन :-[समानं हसति :-हस् + र + लोचनः] इन्द्र का विशेषण।
तैजसस्य धनुषः प्रवृत्तये तोयदानिव सहस्रलोचनः। 11/43
जैसे इन्द्र बादलों को अपना धनुष प्रकट करने की आज्ञा दे देते हैं। 32. सुरेश्वर :-[सु + रा + क + ईश्वरः] इन्द्र का नाम।
नरेन्द्र सूनुः पतिसंहरन्निधू प्रियंवदः प्रत्यवदत्सुरेश्वरम्। 3/64
इन्द्र के ये वचन सुनकर रघु इन्द्र से बोले। 33. हरि :-[ह + इन्] इन्द्र का नाम।
शतैस्तमक्ष्णाम निमेष वृत्तिभिर्हरिं विदित्वा हरिभिश्च वाजिभिः। 3/43 रघु ने आँख गड़ाकर देखा कि घोड़े को हरने वाले के शरीर पर आँखें ही आँखें हैं, उन आँखों की पलकें भी नहीं गिरती हैं और उनके रथ के घोड़े भी हरे-हरे हैं, बस रघु ने समझ लिया कि ये इन्द्र ही हैं। तमभ्यनन्दप्रथमं प्रबोधितः प्रजेश्वरः शासनाहारिणा हरेः। 3/68 रघु के पहुँचने के पहले ही इन्द्र के दूत ने राजा दिलीप को सब वृतान्त सुना दिया था। प्रजिघाय समाधि भेदिनीं हरिरस्मै हरिणी सुराङ्गनाम्। 8/79 उनकी तपस्या से डरकर उन का तप भंग करने के लिए हरिणी नाम की अप्सरा भेजी। यन्ता: हरे सपदि संहृतकार्मुकज्यमापृच्छ्य राघवमनुष्ठितदेवकार्यम्।
12/103 राम ने धनुष की डोरी उतार दी, क्योंकि उन्होंने देवताओं का काम पूरा कर दिया था। इन्द्र के सारथी मातलि उनसे आज्ञा लेकर अपना रथ लेकर स्वर्ग में चला
गया। 34. हरिहय :-[ह + इन् + हयः] इन्द्र
उपगतो विनिनीषुरिव प्रजा हरिहयोऽरिहयोगविचक्षणः। 9/18 मानो पृथ्वी पर राज्य करने के लिए स्वयं इन्द्र ही अपनी तीन शक्तियों के साथ अवतार लेकर चले आए हों। असकृदेकरथेन तरस्विना हरियाग्रसरेण धनुर्भूता। 9/23 अकेले रथ पर चढ़कर युद्ध करने वाले पराक्रमी, धनुर्धर और युद्ध में इन्द्र से भी आगे चलने वाले दशरथ ने।
For Private And Personal Use Only
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
विजय
1. जय :- [ जि + अच्] जीत, विजय, सफलता ।
प्रदक्षिणार्चिर्व्याजने हस्तेनेव जयं ददौ । 4/25
हवन की आग भी दाहिनी ओर घूमती हुई उठ रही थी, मानो अपने हाथ उठा-उठाकर रघु को पहले से ही विजय दे रही हो ।
2. विजय : - [ वि + जि + घञ्] जीत, फतह, जय यात्रा ।
गान्धर्वमादत्स्व यतः प्रयोक्तुर्न चारिहिंसा विजयश्च हस्ते । 5/57
इस गंधर्वास्त्र को ले लीजिए, इसमें यह विशेषता है कि जब आप इसे चलावेंगे,
तब आप शत्रु के प्राण लिए बिना ही उसे जीत लेंगे।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
निदधे विजयाशंसां चापे सीतां च लक्ष्मणे । 12 /44
इन्हें तो हम अकेले अपने धनुष से ही जीत लेंगे, इसलिए उन्होंने सीता की रक्षा का भार लक्ष्मण को सौंप दिया।
-:
विद्युत
1. तडित : - ( स्त्री० ) [ ताडयति अभ्रम्
तड् + इति] बिजली ।
अन्योन्य शोभापरिवृद्धये वां योगस्तडित्तो दयोरिवास्तु । 6 / 65
इसलिए यदि तुम दोनों का विवाह हो जाएगा, तो तुम ऐसी सुन्दर लगोगी; जैसे बादल के साथ बिजली ।
2. विद्युत : - [ विशेषेण द्योतते :- विद्युत् + क्विप्] बिजली, वज्र । प्रावृषेण्यं पयोवाहं विद्युदैरावताविव । 1/36
उस पर बैठे हुए वे दोनों ऐसे जान पड़ते थे, मानो वर्षा के बादल पर ऐरावत और बिजली दोनों चढ़े चले जा रहे हों ।
सहस्त्रधात्मा व्यरुचद्विभक्तः पयोमुचां पंक्तिषु विद्युतेव । 6/5
मानो लक्ष्मी ने अपनी शोभा उन लोगों में उसी प्रकार बाँट दी हो, जैसे बिजली अपनी चमक बादलों में बाँट देती है।
3. शतह्रद :- [ शो + क् + ह्रदम् ] बिजली ।
395
शतह्रदमि ज्योतिः प्रभामण्डलमुद्ययौ । 15 / 82
उसमें से बिजली के समान चमकीला एक तेजो मंडल निकला ।
For Private And Personal Use Only
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
396
कालिदास पर्याय कोश
विधातु
1. धात्र :-(पुं०) [धा + तृच्] सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का विशेषण, निर्माता। रात्रिर्गता मतिमतांवर मुञ्च शय्यां धात्रा द्विधैव ननु धूर्जगतो विभक्ता।
5/66 हे परमबुद्धिमान् ! रात्रि ढल गई है, अब शय्या छोड़िए। ब्रह्मा ने पृथ्वी का भार केवल दो भागों में बाँटा है। धातारं तपसा प्रीतं ययाचे स हि राक्षसः। 10/43 जब ब्रह्माजी उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए, तब उस राक्षस ने यही वरदान माँगा कि। नाभिप्ररूढाम्बुरुहासनेन संस्तूय मानः प्रथमेन धात्रा। 13/6 इनकी नाभि से निकले हुए कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्माजी सदा इनके गुण
गाया करते हैं। 2. परमेष्ठिन :-(पुं०) [परमेष्ठ + इनि] ब्रह्मा की उपाधि ।
आचरव्यौ दिवमध्यास्व शासनात्परमेष्ठिनः। 15/93 __ कहा कि ब्रह्मा की आज्ञा है, कि अब आप चलकर बैकुंठ में रहें। 3. पितामह :-(पुं०) [पितृ + डामहच्] ब्रह्मा का विशेषण, दादा, बाबा।
अयोध्या सृष्टलोकेव सद्यः पैतामही तनुः। 15/60 वह अयोध्या ऐसी जान पड़ती थी मानो तत्काल सृष्टि करने वाले ब्रह्मा की
चतुर्मुखी मूर्ति हो। 4. प्रजापति :-[प्र + जन् + ड + टाप् + पतिः] ब्रह्मा का विशेषण।
स्वमूर्तिभेदेन गुणाग्यवर्तिना पतिः प्रजानामिव सर्गमात्मनः। 3/27 जैसे प्रजापति ब्रह्मा ने अपने सतोगुण वाले अंश से विष्णु के प्रकट होने पर यह
समझ लिया कि अब हमारी सृष्टि अमर हो गई। 5. विधात् :-(पुं०) [वि + धा + तृच्] स्रष्टा, ब्रह्मा।
अथाभ्यर्च्य विधातारं प्रयतौ पुत्र काम्यया। 1/35 पवित्र मन से राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा ने पुत्र की इच्छा से पहले ब्रह्माजी की पूजा की। तस्मिन्विधानातिशये विधातुः कन्यामये नेत्र शतैकलक्ष्ये। 6/11 वह कन्या क्या थी, ब्रह्मा की रचना की एक बहुत ही सुन्दर कला थी, जिसे सैकड़ों आँखें एकटक होकर देख रही थीं।
For Private And Personal Use Only
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
रघुवंश
विधाय सृष्टिं ललितां विधातुर्जगाद भूयः सुदतीं सुनन्दा | 6/37
कमल के समान सुन्दरी, बड़ी गुणवती, विधाता की सुन्दर रचना और सुन्दर दाँतों वाली सुनन्दा को ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नितम्बगुर्वी गुरुणा प्रयुक्ता वधूर्विधातृ प्रतिमेन तेन । 7/25
तब बड़े-बड़े नितम्बों वाली, लजीली इन्दुमती ने ब्रह्मा के समान पूज्य पुरोहित के कहने पर ।
6. वेधस : - (पुं० ) [विधा + असुन्, गुण: ] स्रष्टा, ब्रह्मा, तं वेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना । 1/29
ब्रह्मा ने निश्चय ही महाराज दिलीप को पाँच तत्त्वों से ही बनाया था ।
7. स्रष्टा :- [ सृज् + तृच् ] ब्रह्मा का विशेषण ।
विधाता ।
397
अथवा मम भाग्य विप्लववादशनिः कल्पित एष वेधसा । 8/47
या यह मेरा दुर्भाग्य ही समझना चाहिए कि विधाता ने इस माला को ऐसी बिजली बनाकर गिराया है।
स्त्रष्टुर्वराति सर्गात्तु मया तस्य दुरात्मनः । 10/42
ब्रह्माजी ने जो उसे वरदान दे दिया है, उसी से मैंने उस दुष्ट का दिन-दिन ऊपर चढ़ना उसी प्रकार सहा है।
For Private And Personal Use Only
विप्रयोग
1. विप्रयोग :- [ वि + प्र + युज् + घञ्] जुदाई, विच्छेद, अभाव, हानि, वियोग,
अलगाव ।
नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्विप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम् | 13 / 26
यहाँ जब बादलों ने नया जल बरसाना आरंभ किया, उस समय तुम्हारे न रहने से मेरी आँखें भी जल बरसाने लगीं थीं ।
भूयो यथा में जननान्तरेऽपित्वमेव भर्ता न च विप्रयोगः । 14/66 अगले जन्म में भी आप ही मेरे पति हों, आपसे मुझे अलग न होना पड़े। 2. वियोग : - [ वि + युज् + घञ्] जुदाई, विच्छेद, अभाव, हानि ।
राजाऽपि तद्वियोगार्तः स्मृत्वा शापं स्वकर्मजम् । 12 / 10 उनके वियोग में राजा दशरथ को बड़ा दुःख हुआ, उन्हें मुनि का शाप स्मरण हो
आया ।
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
398
कालिदास पर्याय कोश
विभीषण 1. पौलस्त्य :-[पुलस्तेः अपत्यम् :- पुलस्ति + यञ्] विभीषण का विशेषण।
दुर्जातबन्धुरयमृक्षहरीश्वरो मे पौलस्त्य एष समरेषु पुरः प्रहर्ता। 13/72 ये वानरों और भालुओं के सेनापति सुग्रीव हैं और बड़े गाढ़े दिनों में ये हमारे काम आए हैं और पुलस्त्य कुल में उत्पन्न विभीषण हैं, जो युद्ध के समय हमसे
आगे बढ़-बढ़कर शत्रुओं पर प्रहार करते थे। 2. रक्षइन्द्र :-[रक्ष् + असुन् + इन्द्रः] विभीषण का विशेषण।
सरित्समुद्रान्सरसीश्च गत्वा रक्षः कपीन्द्ररुपपादितानि। 14/8 राक्षसों और वानरों के नायकों (विभीषण और सुग्रीव) ने नदियों, समुद्रों और तालों से जो जल लाकर दिया। सीता स्वहस्तोपहृताग्यपूजान् रक्षः कपीन्द्रान्विससर्ज रामः। 14/19 राम ने उन राक्षसों और वानरों के नायकों (विभीषण और सुग्रीव) को विदा
किया, जिनकी चलते समय सीताजी ने स्वयं अपने हाथों से पूजा की। 3. रक्षईश्वर :-[रक्ष्यतेहविरस्मात्, रक्ष् + असुन् + ईश्वरः] विभीषण का विशेषण।
तमध्वराय मुक्ताश्वं रक्षः कपिनरेश्वराः। 15/58
राम ने अश्वमेध यज्ञ के लिए घोड़ा छोड़ा, सुग्रीव और विभीषण ने। 4. लंकानाथ :-[लक् + अच्, मुम् च + नाथः] लंका का स्वामी अर्थात् रावण
या विभीषण। लङ्कानाथं पवनतनयं चोभयं स्थापयित्वा। 15/103 उत्तर गिरि पर हनुमान को तथा दक्षिण गिरि पर विभीषण जी को स्थापित करके। विभीषण :- रावण का भाई। निविष्टमुदधेः कूले तं प्रपेदे विभीषणः। 12/68 जब राम समुद्र तट पर पहुँचे, तो विभीषण उनसे मिलने आया। रघुपतिरपि जातवेदो विशुद्धां प्रगृह्य प्रियां प्रियसुहृदि विभीषणे संगमय्य श्रियं वैरिणः। 12/104 राम ने रावण की राज्यश्री विभीषण को सौंप दी और फिर सीताजी को अग्नि में शुद्ध करके। तस्मात्पुरः सरविभीषणदर्शितेन सेवाविचक्षणहरीश्वरदत्तहस्तः। 13/69
For Private And Personal Use Only
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
399 सेवा में चतुर सुग्रीव के हाथों के सहारे राम उतरे और विभीषण आगे-आगे मार्ग दिखाते चले। तथैव सुग्रीव बिभीषणादीनुपावचरत्कृत्रिमसंविधाभिः। 14/17 वहाँ से आकर उन्होंने सुग्रीव और विभीषण आदि मित्रों का भली-भाँति स्वागत-सत्कार किया।
विलोल 1. चटुल :-[चटु + लच्] चंचल, चपल।
त्रासातिमात्र चटुलैः स्मरयत्सु नेत्रैः प्रौढप्रिया नयनविभ्रमचेष्टितानि।9/58 जब उन्होंने उन हरिणों की डरी हुई आँखों को देखा, तो उन्हें अपनी प्रियतमा के
चंचल नेत्रों का स्मरण हो आया और उनके हाथ ढीले पड़ गए। 2. चपल :-[चुप् + कल, उपधोकारस्य कारः] अस्थिर, चंचल, चलचित्त ।
प्रसादाभिमुखे तस्मिँश्चपलापि स्वभावतः। 17/46
स्वभाव से चंचल लक्ष्मी भी प्रसन्न मुख वाले अतिथि के पास आकर। 3. विलोल :- चंचल, चपल। रथो रथाङ्गध्वनिना विजो विलोल घण्टाक्वणितेन नागः। 7/41 धूल इतनी गहरी छा गई थी कि युद्ध क्षेत्र में पहियों का शब्द सुनकर ही वे समझ पाते थे, कि रथ आ रहा है। हाथियों के चंचल घंटियों की आवाज सुनकर ही वे समझ पाते थे, कि कोई हाथी आ रहा है। पृषतीषु विलोल मीक्षितं पवनाधूत लतासु विभ्रमाः। 8/59 तुम्हारी चंचल चितवन हरिणियों को मिल गई है और तुम्हारा चुलबुलापन वायु से हिलती हुई लताओं में पहुँच गया है।
विवाह 1. कौतुकक्रिया :-[कुतुक + अण + क्रिया] विवाह संस्कार।
कन्यकातनयकौतुकक्रियां स्वप्रभावसदृशीं वितेनतुः। 11/53 शास्त्र की विधि से अपने ऐश्वर्य के अनुकूल अपने पुत्रों और कन्याओं का विवाह कर दिया। 2. गृहमेधिन :-[ग्रह + क + मेधिन्] विवाह, गृहस्थ।
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम्। 1/7
For Private And Personal Use Only
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
400
कालिदास पर्याय कोश
अपना यश बढ़ाने के लिए ही दूसरे देशों को जीतते थे, जो भोग विलास के लिए नहीं वरन् संतान प्राप्ति के लिए ही विवाह करते थे ।
3. दारक्रिया :- [दृ + घञ् + क्रिया ] विवाह ।
तं श्लाघ्य संबन्धमसौ विचिन्त्य दारक्रिया योग्यदशं च पुत्रम् 1 5/40 भोज के वंश के साथ सम्बन्ध करना ठीक ही होगा और कुमार अज भी विवाह के योग्य हो गए हैं।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
4. परिणय :- [ परि + नी + अप्, ल्युट् वा] विवाह ।
स्थित्यै दण्डयतो दण्ड्यान्परिणेतुः प्रसूतये । 1/25
अपराधी को दंड देना राजा का धर्म है, इसलिए वे अपराधियों को उचित दंड देते थे, वंश चलाना भी मनुष्य का धर्म है, इसलिए संतान उत्पन्न करने के लिए ही उन्होंने विवाह किया।
5. विवाह : - [ वि + वह + घञ् ] व्याह, शादी |
अथास्य गोदानविधेरनन्तरं विवाहदीक्षां निरवर्तयद्गुरुः । 3 / 33 राजा ने गोदान संस्कार करके उनका विवाह कर दिया।
विवेश मञ्चान्तरराजमार्गं पतिंवरा क्लृप्त विवाह वेषा । 6/10
इसी बीच वर चुनने के लिए विवाह के समय का वेश धारण करके इन्दुमती मंचों के बीच वाले राजमार्ग से आई ।
तमेव चाधाय विवाह साक्ष्ये वधूवरौ संगमयां चकार । 7/20
उसी अग्नि को विवाह का साक्षी बनाकर वरवधू का गठजोड़ा कर दिया।
भर्तापि तावत्क्रथकैशिकानामनुष्ठितानन्तर जा विवाहः । 7/32
इधर छोटी बहिन का विवाह करके विदर्भ राज ने भी अपने सामर्थ्य के अनुसार धन देकर, रघु के पुत्र अज को विदा दी।
अथ तस्य विवाह कौतुकं ललितं विभ्रत एव पार्थिवः । 8 / 1
अभी अज ने विवाह का सुन्दर मंगल सूत्र उतारा भी नहीं था, कि रघु ने ।
For Private And Personal Use Only
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
401
विस्मय
1. अद्भुत् :-[अद् + भू + डुतन्च :-न भूतम् इति वा] आश्चर्यजनक, विचित्र,
अचंभा, अचरज, आश्चर्य। तदद्धतं संसदि रात्रिवृत्तं प्रातद्विजेभ्यो नृपतिः शशंस। 16/24
राजा ने रात की वह अचरज भरी घटना प्रातः काल सभा में ब्राह्मणों से कही। 2. विस्मय :-[वि + स्मि + अच्] आश्चर्य, ताज्जुब, अचंभा, अचरज।
पुरुषः प्रबभूवाग्नेविस्मयेन सहविजाम्। 10/50 यज्ञ की अग्नि में से एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसे देखकर यज्ञ करने वाले सभी ऋषि बड़े आश्चर्य में पड़ गए। सविस्मयो दाशरथेस्तनूजः प्रोवाच पूर्वार्धविसृष्टतल्पः। 16/6 उसे देखकर कुश को बड़ा आश्चर्य हुआ, वै शैया पर आधे उठकर उससे बोले।
वीणा 1. परिवादिनी :-वीणा।
भ्रमरैः कुसुमानुसारिभिः परिकीर्णा परिवादिनी मुनेः। 8/35 वह माला तो गिर गई पर फूलों के साथ लगे हुए भौरे अभी तक नारद जी की
वीणा पर मंडरा रहे थे। 2. वल्लकी :-[वल्ल् + क्वुन् + ङीष्] वीणा।
प्रतियोजयित व्यवल्लकी समवस्थामथ सत्वविप्लवात्। 8/41 उस राजा ने (अपनी मृत पत्नी को उसी प्रकार गोद में रख लिया) जैसे तार मिलाने के समय वीणा रख ली जाती है। वल्लकी च हृदयंगमस्वना वल्गुवागपि च वामलोचना। 19/13 गोद में बैठाने योग्य दो ही वस्तुएँ हैं :-एक तो मनोहर शब्दवाली वीणा और
दूसरी मधुर-भाषिणी कामिनी। 3. वीणा :-[वेति वृद्धिमात्रमपगच्छति :-वी + न, नि० णत्वम्] सारंगी, वीणा।
उपवीणयितुं ययौ खेरुदया वृत्तिपथेन नारदः। 8/33 वीणा के साथ गाना सुनाने के लिए नारद जी आकाश मार्ग से चले जा रहे थे। वेणुना दशनपीडिता धरा वीणया नखपदाङ्कितोरवः। 19/35
For Private And Personal Use Only
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
402
कालिदास पर्याय कोश उसने गाने वाली स्त्रियों के ओठों पर दाँत के और जाधों पर नखों के ऐसे घाव कर दिए थे, कि अब वे अपने अधुरों पर बाँसुरी और जाघों पर वीणा रखतीं, तब उन्हें बड़ा कष्ट होता।
वीर्य
1. अवदान :-[अव + दो + ल्युट्] पराक्रम, शूरवीरता, कीर्तिकर कार्य।
नैर्ऋतघ्नमथ मन्त्रवन्मुनेः पापदस्वमवदानतोषितात्। 11/21
जैसे सूर्य, लकड़ी जलाने का तेज सूर्यकान्त मणि को दे देता है। 2. वीर्य :-[वीर + यत्] पराक्रम, बहादरी, बल, सामर्थ्य, पुंस्त्व, शक्ति, क्षमता,
तेज, आभा, कान्ति। न चान्यस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्य गुप्ता हि मनोः प्रसूतिः। 2/4 रही अपने शरीर रक्षा की बात, उसके लिए उन्होंने किसी सेवक की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि जिस राजा ने मनु के वंश में जन्म लिया हो, वह अपनी रक्षा तो स्वयं कर ही सकता है। तुतोष वीर्याति शयेन वृत्रहा पदं हि सर्वत्र गुणैनिधीयते। 3/62 उनकी इस अद्वितीय वीरता को देखकर इन्द्र बड़े संतुष्ट हुए, ठीक भी था, क्योंकि गुणों का आदर सर्वत्र होता ही है। तं कृपामृदुरवेक्ष्य भार्गवं राघवः स्खलितवीर्यमात्मनि। 11/83 तेजस्वी दयालु राम ने एक बार निस्तेज परशुराम जी को देखा।
व्रण
1. मार्ग :-[मार्ग + घञ्], व्रण चिह्न।
ते पुत्रयोनैऋत शस्त्रमार्गा नार्दा निवाले सदयं स्पृशन्त्यौ। 14/4 पुत्रों के शरीर के जिन अंगों पर राक्षसों के शस्त्रों के घाव बने थे, वहाँ वे दोनों
माताएँ इस प्रकार सहलाने लगीं मानो घाव अभी हरे हों। 2. व्रण :-[व्रण + अच्] घाव, जख्म, चोट।
परामृशन्हर्षजडेन पाणिना तदीयमङ्गं कुलिशवणाङ्कितम्। 3/68 तब राजा दिलीप ने उनकी बड़ी प्रशंसा की और जहाँ उन्हें वज्र लगा था, वहाँ हाथों से धीरे-धीरे सहलाने लगे। आत्मनः समुहत्कर्म व्रणैरावेद्य संस्थितः। 12/55
For Private And Personal Use Only
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
403
रघुवंश
जटायु के घावों को देखकर ही यह स्पष्ट था, कि वह कितने जी-जान से रावण
से लड़ा।
रूढेन्द्रजित्प्रहरण व्रणकर्कशेन क्लिश्यन्निवास्य भुजयुध्यमुरः स्थलेन ।
13/73
मेघनाद के प्रहारों से कठोर हुई उनकी छाती को अपनी भुजाओं से दबाते हुए ।
श
शंख
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
1. जलज : - [ जल् + अक् + जः] खोल, शंख ।
ततः प्रियोपात्तरसेऽधरोष्ठे निवेश्य दध्मौ जलजं कुमारः । 7/63
उस समय इंदुमती के चुंबन का रस लेने वाले अपने ओठों से शंख फूंकते हुए अज, ऐसे जान पड़ते थे ।
2. शंख :- [ शम् + ख] शंख, घोंघा ।
शङ्खस्वनाभिज्ञतया निवृत्तास्तं सन्नशत्रुं ददृशुः स्वयोधाः । 7/64
शंख की ध्वनि पहचानकर अज के योद्धा लौट आए, सोते हुए शत्रुओं के बीच अज उन्हें ऐसे जान पड़े मानो ।
ऊर्ध्वाङ्कुरप्रोतमुखं कथंचित्क्लेशादपक्रामति शङ्खयूथम्। 13/13
इन जीवित शंखों के मुँह छिद गए हैं और उस पीड़ा से, ये बेचारे बड़ी कठिनाई से इधर-उधर चल पा रहे हैं।
शत्रुघ्न
1. लक्ष्मणानुज :- [लक्ष्मन् + अण्, न वृद्धिः + अनुजः] लक्ष्मण का छोटा भाई, शत्रुघ्न ।
अपशूलं तमोसाद्य लवणं लक्ष्मणानुजः । 15/17
शत्रुघ्न ने देखा कि यह अवसर ठीक है, क्योंकि लवणासुर के हाथ में भाला नहीं है, बस झट उन्होंने लवणासुर को घेर लिया।
2. शत्रुघ्न :- [ शद् + त्रुन् + घ्नः] शत्रुओं को नष्ट करने वाला, सुमित्रा का पुत्र, रामका भाई, लक्ष्मण का यमल भ्राता ।
आदिदेशाथ शत्रुघ्नं तेषां क्षेमाय राघवः । 15/6
राम ने उन मुनियों की रक्षा का भार शत्रुघ्न को सौंपा।
For Private And Personal Use Only
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
404
कालिदास पर्याय कोश इति संतयं शत्रुघ्नं राक्षसस्तज्जिघांसया। 15/19 यह कहकर उसने शत्रुघ्न को मारने के लिए घास उखाड़ने के समान एक भारी पेड़ उखाड़ लिया। ऐन्द्रमस्त्रमुपादाय शत्रुघ्नेन स ताडितः। 15/22
पर शत्रुघ्न ने ऐन्द्र अस्त्र चलाकर उसे चूर-चूर कर दिया। 3. सौमित्र :-[सुमित्रा + अण, इञ् वा] शत्रुघ्न का विशेषण।
सौमित्रेनिशितैर्बाणैरन्तरा शकलीकृतः। 15/20 लवणासुर ने ज्यों ही वह वृक्ष शत्रुघ्न पर फेंका, त्यों ही उन्होंने बीच में ही उसे बाणों से टुकड़े-टुकड़े कर डाला।
शय्या
1. तल्प :-[तल् + पक्] बिस्तरा, सोफा। इति विरचितवाग्भिर्बन्दिपुत्रैः कुमारः सपदि विगतनिद्रस्तल्पमुज्झांचकार।
5/75 वैसे ही चारणों की सुरचित वाणी सुनकर राजकुमार अज की नींद खुल गई और वे शय्या से उठ बैठे। सविस्मयो दाशरथेस्तनूजः प्रोवाच पूर्वार्ध विसृष्टतल्पः। 16/6
उसे देखकर कुश को बड़ा आश्चर्य हुआ, वे शैया पर आधे उठकर उससे बोले। 2. शयन :-[शी + ल्युट्] बिस्तरा, शय्या।
तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसानां संविष्टः कुशशयने निशां निनाय। 1/95 रात्रि बीतने पर वशिष्ठजी ने जब अपने शिष्यों को वेद पढ़ाना प्रारंभ किया, तब
उसकी ध्वनि कान में पड़ते ही राजा कुश की चटाई (शय्या) से उठ बैठे। 3. शयनीय :-[शी + अनीयर्] बिस्तरा, शय्या।
गतमाभरण प्रयोजनं परिशून्यं शयनीयमद्य मे। 8/66 मेरा पहनना-ओढ़ना बेकाम हो गया और शय्या भी सूनी हो गई। शय्या :-[शी आधारे क्यप् + टाप्] बिस्तरा, बिछौना। अरिष्टशय्यां परितो विसारिणा सुजन्मनस्तस्य निजेन तेजसा। 3/15 उस भाग्यवान बालक का तेज सेज-कक्ष में चारों ओर इतना छाया हुआ था कि। तदङ्कशय्याच्युतनाभिनाला कच्चिन्मृगीणामनघा प्रसूतिः। 5/7 हरिणियों के वे छोटे-छोटे बच्चे तो कुशल से हैं न, जिनकी नाभि का नाल ऋषियों की गोद रूपी शय्या में ही सूखकर गिरता है।
For Private And Personal Use Only
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
405
तं कर्णभूषण निपीडितपीवरांसंशय्योत्तरच्छदविमर्दकृशाङ्गरागम्। 5/65 एक करवट सोने के कारण अज के भरे हुए कन्धों पर कुण्डल के दबने से उसका चिह्न पड़ गया था और शय्या के बिछौने की रगड़ से उनका अंगराग भी पुंछ गया था। रात्रिर्गता मतिमतांवर मुञ्च शय्यां धात्रा द्विथैव ननु धूर्जगतो विभक्ता।
5/66 हे परम बुद्धिमान् ! रात्रि ढल गई है, अब शैय्या छोड़िये, ब्रह्मा ने पृथ्वी का भार केवल दो भागों में बाँटा है। शय्यां जहत्युभय पक्ष विनीतनिद्राः स्तम्बरमा मुखरशृङ्खलकर्षिणस्ते। 5/72 तुम्हारी सेना के हाथी, दोनों ओर करवटें बदलकर खनखनाती हुई साँकलों को खींचते हुए उठ खड़े हुए हैं। संभाव्य भर्तारममुं युवानं मृदुप्रवालोत्तरपुष्प शय्ये। 6/50 इनके साथ विवाह करके कोमल पत्तों और फूलों की शैयाओं पर विहार करना। स ललित कुसुम प्रवाल शय्यां ज्वलित महौषधि दीपिकासनाथाम्। 9/70 कभी-कभी उन्हें सारी रात फूल-पत्तों की शैय्या पर रात को चमकने वाली बूटियों के प्रकाश के सहारे काटनी पड़ी। अथार्धरात्रे स्तिमितप्रदीपे शय्यागृहे सुप्तजने प्रबुद्धः। 16/4 एक दिन आधी रात को, जब शयन-गृह का दीपक टिमटिमा रहा था और सब लोग सोए हुए थे।
शर
1. आशुग :-[अश् + उण् + ग] बाण।
पपावनास्वादितपूर्वमाशुगः कुतूहलेनेव मनुष्यशोणितम्। 3/54 उस बाण ने वहाँ का रक्त बड़े चाव से पिया, क्योंकि उसे मनुष्य के रक्त का स्वाद तो मिलता ही नहीं था। स्वं च संहितम मोघमाशुगं व्याजहार हरसूनुसंनिभः। 11/83 फिर धनुष पर चढ़े अपने अचूक बाण को देखा और बोले। रावणास्यापि रामास्तो भित्त्वा हृदयमाशुगः। 12/91 राम ने जो बाण छोड़ा, वह रावण की छाती को छेदकर।
For Private And Personal Use Only
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
406
कालिदास पर्याय कोश 2. इषु :-[इष् + उ] बाण, पाँच की संख्या।
तत्र स द्विरददबंहित शङ्की शब्दपातिनमिषु विससर्ज। 9/73 इन्होंने समझा कि यह कोई हाथी है, बाण निकाला और शब्द पर लक्ष्य करके शब्द भेदी बाण चला ही तो दिया। रामेषुभिरिती वासौ दीर्घ निद्रां प्रवेशितः। 12/81
राम के बाणों से घायल होकर वह गिरकर, दीर्घ निद्रा में सो गया (मर गया)। 3. पत्रिन :-(पुं०) [पतत्र + इनि] बाण, घोड़ा।
रघोरवष्टम्भमयेन पत्रिणा हदि क्षतो गोत्रभिदप्यमर्षणः। 3/53 रघु ने खंभे के समान दृढ़ एक बाण इन्द्र की छाती में मारा। बभूव युद्धं तुमुलं जयैषिणो रघोमुखैरूर्ध्व मुखैश्च पत्रिभिः। 3/57 दोनों तीखे बाणों से भयंकर युद्ध कर रहे थे, रघु को लक्ष्य बनाकर इन्द्र नीचे की
ओर अपने बाण चलाते थे और इन्द्र को ताक कर रघु ऊपर बाण चला रहे थे। 4. पत्री :-(पुं०) [पत्रम् अस्त्यर्थ इनि] बाण।
तेना भिधातरभसस्य विकृष्य पत्री वन्यस्य नेत्रविवरे महिषस्यमुक्तः। 9161 उन्होंने देखा कि एक जंगली भैंसा उनकी ओर झपटा चला आ रहा है, उन्होंने उसकी आँख में एक ऐसा बाण मारा कि वह भैंसे के शरीर में से। तां विलोक्य वनिता वधे घृणां पत्रिणा सह मुमोच राघवः। 11/17 उस ताड़का को देखकर राम ने स्त्री को मारने की घृणा और बाण दोनों एक साथ छोड़े। शंस किं गतिमनेन पत्रिणा हन्मि लोकमुत ते मखार्जितम्। 11/84 यह बताइए कि अब इस बाण से मैं आपकी गति रोकूँ या आपका उन दिव्य लोगों में पहुँचना रोक दूँ। बाण :-[बण् + घञ्] तीर, बाण, शर। चकार बाणैरसुराङ्गनानां गण्डस्थली: प्रोषित पत्र लेखाः। 6/72 उस युद्ध में उन्होंने बाणों से असुरों को मार डाला था, उनकी स्त्रियों ने पतियों से बिछोह होने के कारण अपने कपोलों को चीतना ही छोड़ दिया था। बाणाक्षरैरेव परस्परस्य नामोर्जितं चापभृतः शशंसुः। 7/38 वे जो बाण चला रहे थे, उन पर खुदे हुए अक्षरों से ही उनके नामों का ज्ञान हो जाता था।
For Private And Personal Use Only
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
407
अप्यर्धमार्गे परबाणलूना धनुर्भृतां हस्तवतां पृषत्काः । 7/45 जिन धनुषधारियों के हाथ बाण चलाने में सधे हुए थे, उनके बाण यद्यपि शत्रुओं के बाणों से बीच में ही दो टूक हो जाते थे। आकर्णकृष्टा सकृदस्य योद्धौर्वीव बाणान्सुषुवे रिपुदनान्। 7/57 ऐसा जान पड़ता था कि वे जब कान तक धनुष की डोरी खींचते थे, तब उसी में से शत्रुओं का नाश करने वाले बाण निकलते चले जा रहे थे। आकर्णकृष्टमपि कामितया स धन्वी बाणं कृपामृदुमनाः प्रतिसंजहार।
9/57 हरिण के लिए हरिणी का यह प्रेम देखकर उनका हृदय दया से भर आया और उन्होंने कान तक खींचा हुआ भी अपना बाण उतार लिया। अपि तुरगसमीपादुत्पतन्तं मयूरं न स रुचिरकलापं बाणलक्ष्यी चकार।
9/67 कभी-कभी उनके घोड़े के पास से सुंदर चमकीली पूछों वाले मोरे भी उड़ जाते थे, पर ये उन पर बाण नहीं चलाते थे। बाणभिन्न हृदया निपेतुषी सा स्वकाननभुवं न केवलाम्। 11/19 बाण से ताड़का की छाती फट गई और वह नीचे गिरी, तब उसके गिरने से जंगल ही नहीं वरन्। उन्मुखः सपदि लक्ष्मणाग्रजो बाणमाश्रयमुखात्समुद्धरन्। 11/26 उसी समय राम ने अपने तूणीर से बाण निकाले और ऊपर मुँह करके आकाश की ओर देखा। विदुतक्रतुमृगानुसारिणां येन बाणमसृजवृषध्वजः। 11/44 जिसे हाथ में लेकर शंकरजी ने मृग के रूप में दौड़ने वाले यज्ञ देवता के ऊपर बाण छोड़े थे। तैस्त्रयाणां शितैर्बाणैर्यथापूर्व विशुद्धिभिः। 12/48 वे बाण उनके शरीर को छेदकर इतने वेग से निकल गए, कि उनमें रक्त भी नहीं लग सका। सा बाणवर्षिणं रामं योधयित्वा सुरद्विषाम्। 12/50 बाण बरसाने वाले राम से लड़कर वह राक्षसों की सेना। अर्धचन्द्र मुखैर्बाणैश्चिच्छेद कदलसुखम्। 12/96
For Private And Personal Use Only
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
408
कालिदास पर्याय कोश राम ने उसे तिरछी नोक वाले बाणों से केले के छिलके के समान टुकड़े-टुकड़े कर डाला। आकर्णमाकृष्टसबाणधन्वा व्यरोचता स्त्रेषु विनीयमानः। 18/51 जब बाण चढ़ाकर धनुष की डोरी कान तक खींचते थे, उस समय वे बड़े सुंदर लगते थे। मार्गण :-[मार्ग + ल्युट्] बाण। मगध कोशलकेकय शासिनां दुहितोऽहितरोपित मार्गणम्। 9/17 कोशल, मगध और केकय देश के राजाओं की कन्याओं ने शत्रुओं पर बाण बरसाने वाले दशरथ जी को पति के रूप में पा लिया। आत्मानं रणकृतकर्मणां गजानामानृण्यं गतमिव मार्गेणैरमंस्त। 9/65 राजा दशरथ ने अपने बाणों से उन हाथियों का ऋण चुका दिया, जो युद्ध में
उनकी सेना में काम आ रहे थे। 7. विशिख :-[विगता शिखा यस्य प्रा०ब०] बाण।
निवर्तयिष्यन्विशिखेन कुम्भे जघान नात्यायतकृष्टशाङ्गः। 5/50 उन्होंने अपने धनुष को थोड़ा सा खींचकर एक बाण उसके मस्तक में ऐसा मारा,
जिससे वह लौट जाये। 8. शर :-[१ + अच्] बाण, तीर।
प्रत्यादिश्यन्त इव मे दृष्टलक्ष्य भिदः शराः। 1/61 अपने बाणों से तो मैं केवल उन्हें ही बेध सकता हूँ, जो मेरे आगे आते हैं। ततो मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रगामी वधाय वध्यस्य शरं शरण्यः। 2/30 उस समय सिंह के समान चलने वाले शरणागत-रक्षक ने, सिंह को मारने के लिए तूणीर से बाण निकालने को हाथ उठाया। स एव मुक्तवा मघवन्तमुन्मुखः करिष्यमाणः सशरं शरासनम्। 3/52 यह कहकर उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ाया और इन्द्र की ओर ऊपर मुँह करके खड़े हो गए। जहार चान्येन मयूरपत्रिणा शरेण शक्रस्य महाशनिध्वजम्। 3/56 फिर रघु ने मोर के पंख वाले दूसरे बाण से इन्द्र की वज्र-जैसी ध्वजा को काट डाला। शरैरुत्सव संकेतान्स कृत्वा विरतोत्सवान्। 4/78
For Private And Personal Use Only
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
409
धुआँधार बाण बरसाकर उत्सव-संकेत नामक पहाड़ियों के छक्के छुड़ा दिए। सशरवृष्टिमुचा धनुषा द्विषां स्वनवता नवतामरसानतः। 9/12 नए कमल के समान सुन्दर मुख वाले दशरथ ने अपने बाण बरसाने वाले धनुष से शत्रुओं को मारकर बिछा दिया। स्वभुजवीर्यमगापयदुच्छ्रितं सुरवधूरवधूतभयाः शरैः। 9/19 अपने बाणों से शत्रुओं का नाश करके देवताओं की स्त्रियों का सब डर दूर कर दिया था और वे सब दशरथ जी के बाहुबल के गीत गाने लगीं। तत्प्रार्थितं जवनवाजिगतेन राज्ञा तूणीमुखोद्धृत शरेण विशीर्णपंक्तिः। 9/56 राजा ने ज्यों ही अपने वेगगामी घोड़े पर चढ़कर और अपने तूणीर में से बाण निकालकर उनका पीछा किया, कि वह झुंड तितर बितर हो गया। तस्या परेष्वपि मृगेषु शरान्मुमुक्षोः कर्णान्तमेत्य बिभिदेनिबिडोऽपि मुष्टिः। 9/58 वे दूसरे हरिणों पर बाण चलाना चाहते थे और उन्होंने बाण की चुटकी कान तक खींच भी ली थी। शिक्षा विशेषलघुहस्ततया निमेषातूणीचकार शरपूरितवक्त्रन्ध्रान्। 9/63 राजा दशरथ ने इतनी शीघ्रता से उन पर बाण चलाए कि उन सिंहों के खुले मुँह उनके बाणों के तूणीर बन गए। करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैस्तच्छिरः कमलोच्चयम। 10/44 अपने तीखे बाणों से उसके सिरों को कमल के समान उतारकर रणभूमि को भेंट चढ़ाऊँगा। अङ्गुलीविवरचारिणं शरं कुर्वता निजगदे युयुत्सुना। 11/70 युद्ध के लिए उद्यत उँगलियों में बाण चढ़ाते हुए परशुराम जी ने। तन्मदीयमिदमायुधं ज्यया सङ्गमय्य सशरं विकृष्यताम्। 11/77 पहले तुम मेरे इस धनुष पर डोरी चढ़ाकर इसे बाण के साथ खींचो तो। तं शरैः प्रतिजग्राह खरत्रिशिरसौ च सः। 12/47 उन्होंने दूषण, खर और त्रिशिरा पर अपने बाण एक एक करके चलाए। तस्मिनरामशरोत्कृत्ते बले महति रक्षसाम्। 12/49 राम ने अपने बाणों से राक्षसों की पूरी सेना को इस प्रकार काट डाला। लङ्का स्त्रीणां पुनश्चक्रे विलापाचार्यकं शरैः। 12/78
For Private And Personal Use Only
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
410
कालिदास पर्याय कोश उन्होंने अपने बाणों से अनगिनत राक्षसों को मारकर लंका में स्त्रियों में कुहराम मचा दिया। निचखानाधिक क्रोधः शरं सव्येतरे भुजे। 12/90 रावण ने बड़ा क्रोध करके राम की उस दाहिनी भुजा में बाण मारा। शल्य :-[शल् + यत्] बाण, तीर, बी, नेजा। शल्य प्रोतं प्रेक्ष्य सकुम्भं मुनिपुत्रं तापादन्तः शल्य इवासीक्षितिपोऽपि।
9/75 बाण से बिंधा हुआ, घड़े पर झुका हुआ किसी मुनि का पुत्र पड़ा है। उसे देखकर उनको ऐसा कष्ट हुआ मानो इन्हें भी बाण लग गया हो। तच्चोदितच तमनुद्धृतशल्यमेव पित्रीः सकाशमवसन्नदृशोर्निनाय।9/77 राजा दशरथ ने उस बाण से बिंधे हुए मुनि-पुत्र को उठाया और उसके माता-पिता के पास ले गए। तौ दंपती बहु विलाप शिशोः प्रहर्ता शल्यं निखात मुदहारयतामुरस्तः।
9/78 वे दोनों दंपति डाढ़ माढ़कर रोने लगे और अपने पुत्र के हत्यारे को आज्ञा दी, कि
मेरे पुत्र की छाती में से बाण निकाल लो। 10. शिलीमुख :-[शिलि + ङीष् + मुख:] बाण, भौरा।
जितारिपक्षोऽपि शिलीमुखैर्यः शालीनतामव्रजदीयमानः। 18/17
यद्यपि उन्होंने बाणों से शत्रुओं को जीत लिया, फिर भी स्वयं वे नम्र रहे। 11. सायक:-[सो + ण्वुल्] बाण।
नवाम्बुदानीकमुहूर्त लाञ्छने धनुष्य मोघं समधत्त सायकम्। 3/53 अपने धनुष पर ऐसा बाण चढ़ाया, जिसका वार कभी चूकता नहीं, इन्द्र का वह धनुष इतना सुंदर था कि उसने थोड़ी देर के लिए नये बादलों में इन्द्रधनुष जैसे रंग भर दिए। भुजे शचीपत्र विशेषकाङ्किते स्वनामचिह्न निचखान सायकम्। 3/55 रघु ने एक इन्द्र की उस बाईं भुजा में अपना नाम खुदा हुआ एक बाण मारा, जिस पर शची ने कुछ चित्रकारी कर दी थी। यच्चकार विवरं शिला घने ताडकोरसि स रामसायकः। 11/18 राम के उस बाण ने पत्थर की चट्टान के समान कठोर ताड़का की छाती में जो छेद किया।
For Private And Personal Use Only
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
411
वशिष्ठस्य गुरोर्मन्त्राः सायकास्तस्य धन्विनः। 17/38 गुरु वशिष्ठ के मन्त्र और धनुषधारी राजा के बाण दोनों ने।
शरव्य 1. लक्ष्य :-[लक्ष् + ण्यत्] देखने के योग्य, दृश्य, अवेक्षणीय, संकेतित, प्राप्य,
उद्देश्य, चिह्न, निशाना। परिचयं चललक्ष्यनिपातने भयोरुषोश्च तदिङ्गितबोधनम्। 9/49 आखेट से चलते हुए लक्ष्य को बेधने का अभ्यास हो जाता है तथा जीवों के भय और क्रोध आदि भावों की पहचान हो जाती है। शरव्य :-[शरवे शरशिक्षायै हितं :-शरु + यत्] निशाना, लक्ष्य। संप्रापुरेवात्मजवानुवृत्त्या र्धिभागैः फलिभिः शरव्यम्। 7/45 उन बाणों में इतना वेग होता था, कि उनका फल लगा हुआ अगला भाग लक्ष्य पर पहुँच ही जाता था। यत्र यावधिपती मखद्विषां तौ शरव्यमकरोत्स नेतरान्। 11/27 उन्हीं दो राक्षसों को लक्ष्य कर बाण मारे, जो उस सेना के सेना नायक थे और जो यज्ञ से घृणा करते थे।
शासन 1. आदेश :-[आ + दिश् + घञ्] हुक्म, आज्ञा, निर्देश, उपदेश, नियम।
आदेशं देशकालज्ञः शिष्यः शासितुरानतः। 1/92 तब बड़ी नम्रता से उन्होंने वशिष्ठ जी से कहा कि हम ऐसा ही करेंगे और यह कहकर उन्होंने और उनकी पत्नी ने गुरुजी से इस व्रत के लिए आज्ञा ली। रामादेशादनुगता सेना तस्यार्थसिद्धये। 15/9
राम की आज्ञा से शत्रुघ्न के साथ जो सेना गई, वह वैसे ही व्यर्थ थी। 2. शासन :-[शास् + ल्युट्] राज्य, प्रभुत्व, सरकार, आज्ञा, आदेश, निदेश।
इति क्षितीशो नवतिं नवाधिकां महाक्रतूनां महनीय शासनः। 3/69 इस प्रकार जिस राजा दिलीप की आज्ञा कोई टाल नहीं सकता था, उन्होंने निन्यानवें यज्ञों की सीढ़ी सी बना ली थी। शशंस सीतापरिदेवनान्तमनुष्ठितं शासनमग्रजाय। 14/83
For Private And Personal Use Only
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
412
कालिदास पर्याय कोश सीताजी ने रो-रोकर जो बातें कही थीं, वे सब राम से यह सोचकर कह दी कि देखें राम अपनी आज्ञा देकर अब भी पछताते हैं या नहीं। शासनाद्रघुनाथस्य चक्रे कारापथेश्वरौ। 15/90 राम की आज्ञा से दोनों पुत्रों को कारापथ का राजा बना दिया। दूरापवर्जितच्छत्रैस्तस्याज्ञां शासनार्पिताम्। 17/79 वैसे ही राजा लोग भी अपने छत्र उतारकर उनकी आज्ञा अपने सिर-माथे चढ़ाते
शिर
1. उत्तमाङ्ग:-[उद् + तमप् + अङ्गम्] सिर ।
कश्चिद्विषत्खड्गहृतोत्तमाङ्गः सद्यो विमानप्रभुतामुपेत्य। 7/51 एक योद्धा का शिर शत्रु की तलवार से कट गया और वह देवता होकर विमान
पर चढ़कर, आकाश से यह देखने लगा। 2. मूर्धा :-(पुं०) [मुह्यत्यस्मिन्नाहते इति मूर्धा :-मुह + कनि, उपधाया दी?
धोऽन्तादेशी रमागमश्च] मस्तक, भौं, सिर। स प्रतापं महेन्द्रस्य मूर्ध्नि तीक्ष्णन्यवेशयत्। 4/39 रघु ने भी महेन्द्र पहाड़ पर पहुँचकर उसकी चोटी पर अपना पड़ाव जमा दिया। रामेण निहितं मेने पदं दशसु मूर्धसु। 12/52 मानो राम ने उसके दसों सिरों पर पैर रख दिया हो। उपनतमणिबन्धे मूर्ध्नि पौलस्त्यशत्रोः सुरभि सुरविमुक्तं पुष्पवर्ष पपात। 12/102 जिस राम पर राज्याभिषेक का जल छिड़का जाने वाला था, उन्हीं के सिर पर देवताओं ने वे फूल बरसाए, जिसकी सुगंध पाकर। पर्यश्रुरस्वजत मूनि चोपजनौ तद्भक्त्ययोढपितृराज्यमहाभिषेके। 13/70 फिर उनके उस मस्तक को सूंघा, जिसने राम की भक्ति के कारण राज्याभिषेक भी अस्वीकार कर दिया था। तस्यापतन्मूर्ध्नि जलानि जिष्णोविन्ध्यस्य मेघप्रभवा इवापः। 14/8 वह अभिषेक के समय राम के शिर पर वैसे ही बरस रहा था, जैसे विंध्याचल की चोटी पर बादलों का लाया हुआ जल बरसा करता है।
For Private And Personal Use Only
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
413
रघुवंश
तत्प्रतिद्वन्द्विनो मूर्ध्नि दिव्याः कुसुमवृष्टयः। 15/25 उसके प्रतिद्वन्द्वी शत्रुघ्न के ऊपर स्वर्ग से फूलों की वर्षा होने लगी। मानोन्नतेनाप्यभिवन्द्य मूर्धा मूर्धाभिषिक्तं कुमुदो बभाषे। 16/81 राजा कुश को मान से उठा हुआ अपना सिर नवाकर कुमुद ने प्रणाम किया और प्रणाम करके वह बोला। तस्यैकस्योच्छ्रितं छत्रं मूर्ध्नि तेनामलत्विषा। 17/33 यद्यपि राज-छत्र केवल अतिथि के सिर पर ही लगा हुआ था, पर उस श्वेत रंग
के छत्र ने। 3. मौलि :-[मूलस्यादूरभवः इज] सिर, चोटी।
प्रवर्तयामास किलानुसूया त्रिस्रोतसं त्र्यम्बकमौलिमालाम्। 13/51 अनुसूयाजी उन त्रिपथगा गंगा जी को यहाँ ले आई हैं, जो शिवजी के सिर पर माला के समान सुन्दर लगती हैं। लोकेन भावी पितुरेव तुल्यः संभावितो मौलिपरिग्रहात्सः। 18/38 उस बालक सुदर्शन ने जब सिर पर मुकुट धारण किया, तभी प्रजा ने आँक लिया कि यह पिता के समान ही तेजस्वी होगा। सालक्तको भूपतयः प्रसिद्धैर्ववन्दिरे मौलिभिरस्य पादौ। 18/41 राजाओं ने अपने प्रसिद्ध मुकुटों से उन महावर लगे पैरों का वन्दन किया। शिर :-[शृ + क] सिर। अपनीतशिरस्त्राणाः शेषास्तं शरणं ययुः। 4/64 उनमें से जो जीते बच गए, उन्होंने अपने सिरों से लोहे के टोप उतार-उतार कर रघु के चरणों में रख दिए। आधोरणानां गजसंनिपाते शिरांसि चक्रैर्निशितैः क्षुराग्रैः। 7/46 जहाँ हाथियों का युद्ध हो रहा था, वहाँ पैने छुरे वाले चक्रों से जिन हाथीवानों के सिर कट गए थे। तस्तार गां भल्ल निकृतकण्ठैहुँकार गर्भर्द्विषतां शिरोभिः। 7/58 जो हुँकार करते हुए आगे बढ़ रहे थे, उनके सिर काट-काट कर अज ने पृथ्वी पाट दी। इति शिरसि स वामं पादमाधायराज्ञा मुदवहदनवद्यां तामवद्यादपेतः।7/70 इस प्रकार पवित्र अज उन राजाओं के सिरों पर बायाँ पैर रखकर, सुंदरी इंदुमती को लेकर चले।
For Private And Personal Use Only
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
414
कालिदास पर्याय कोश तमरण्यसमाश्रयोन्मुखं शिरसा वेष्टनशोभिना सुतः। 8/12 जब राजा रघु जंगल में जाने को उद्यत हुए, तब अज ने मनोहर पगड़ी वाला अपना सिर उनके चरणों में नवाकर। नमयति स्म स केवलमुन्नतं वनमुचे नमुचेररये शिरः। 9/22 राजा दशरथ ने केवल नमुचि राक्षस के शत्रु तथा जल बरसाने वाले एक इंद्र के आगे ही, अपना ऊँचा मस्तक झुकाया। करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैस्तच्छिरः कमलोच्चयम्। 10/44 अपने तीखे बाणों से उसके सिरों को कमल के समान उतारकर रणभूमि को भेंट चढ़ाऊँगा। वेपमान जननी शिरश्छिदा प्रागजीयत घृणा ततो मही। 11/65 अपनी काँपती हुई माता का सिर काट लिया था, उस समय उन्होंने पहले तो घृणा को जीत लिया और फिर पृथ्वी को जीत लिया था। मरुतां पश्यतां तस्य शिरांसि पतितान्यपि। 12/101 रावण के कटे हुए सिरों को देखकर भी देवताओं को विश्वास नहीं हुआ। सौमित्रिणा तदनु संससृजे स चैनमुत्थाप्य नम्रशिरसं भृशमालिलिङ्ग। 13/73 तब भरत जी लक्ष्मण से मिले और प्रणाम के लिए झुके हुए लक्ष्मण के सिर को उठाकर, उन्हें अपनी छाती से लगा लिया। शुशुभे विक्रमोदग्रं ब्रीडयावनतं शिरः। 15/27 अपनी प्रशंसा सुनकर वे शील के मारे लजा गए और अपना सिर झुका लिया। सर्पस्येव शिरोरत्नं नास्य शक्तित्रयं परः। 17/63 जैसे सर्प के सिर से मणि नहीं निकाली जा सकती, वैसे ही शत्रु इनके प्रभाव, उत्साह और मंत्र इन तीन शक्तियों को नहीं खींच सके। दधुः शिरोभिर्भूपाला देवाः पौरंदरी मिव। 17/79 जैसे देवता लोग इंद्र की आज्ञा मानते हैं, वैसे ही राजा लोग उनकी आज्ञा अपने सिर-माथे चढ़ाते थे। उच्चैः शिरस्त्वाज्जितपारियानं लक्ष्मीः सिषेवेकिल पारियात्रम्। 18/16 राजलक्ष्मी उनके प्रतापी पुत्र पारियात्र की सेवा करने लगी, जिन्होंने अपने सिर
की ऊचाई से पारियात्र पर्वत को भी नीचा दिखा दिया था। 5. शीर्ष :-[शिरस् पृषो० शीर्षादेशः, शृ + क सुक् च वा] सिर।
For Private And Personal Use Only
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शीर्षच्छेद्यं परिच्छद्य नियन्ता शस्त्रमाददे । 15 / 51
राम ने निश्चय कर लिया कि इसका सिर काटना ही होगा, उन्होंने हाथ में शस्त्र उठा लिया।
415
शिला
1. दृषद :- [दृ + अपि षुक्, हस्वश्च] चट्टान, शिला ।
दृषदो वासितोत्सङ्गा निषण्ण मृग नाभिभि: । 4/74
उन पथरीली पाटियों पर बैठकर सुस्ताने लगे जिनमें से कस्तूरी मृग के बैठने से सुगंध आ रही थी।
2. शिला :- [शिल + टाप्] पत्थर, चट्टान ।
प्रत्यपद्यत चिराय यत्पुनश्चारु गौतमवधूः शिलामयी । 11/34
उसके छूते ही पति के शाप से पत्थर बनी हुई अहल्या को, फिर इतने दिनों पीछे पहले वाला सुन्दर ।
पादपाविद्ध परिघः शिलानिष्पिष्ट मृद्गरः । 12/73
पेड़ों से मार-मारकर राक्षसों की लोहे की गदाएँ तोड़ डालते थे और बड़ी चट्टानें पटक-पटक कर ।
रुरोध रामं शृङ्गीव टङ्कच्छिन्न मनः शिलः । 12/80
राम का मार्ग रोककर उसी प्रकार खड़ा हो गया, जैसे टाँगी से कटी हुई कोई मैनसिल की चट्टान आ गिरी हो ।
शुद्ध
1. पावन : - [ पू+ णिच् + ल्युट् ] पवित्र, पुनीत, विशुद्ध, परिष्कृत | वामनाश्रमपदं ततः परं पावनं श्रुतमृषेरुपेयिवान् । 11/22
वहाँ से रामचंद्रजी वामन के उस पवित्र आश्रम में गए, जिसके विषय में
विश्वामित्र जी ने उन्हें सब बता दिया था।
"
2. विशुद्ध :- [ वि + शुध् + क्त] पवित्र, निष्पाप, बेदाग, निष्कलंक |
हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा । 1/10
सोने का खरापन या खोटापन आग में डालने पर ही जाना जाता है। स किवदन्तीं वदतां पुरोगः स्ववृत्तमुद्दिश्य विशुद्धवृत्तः । 14 / 31
For Private And Personal Use Only
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
416
कालिदास पर्याय कोश सुंदर बोलने वाले सदाचारी राम ने अपने भद्र नाम के दूत से पूछ :-कहो भद्र!
हमारे विषय में प्रजा क्या कहती है। 3. शुद्ध:-[शुध् + क्त] विशुद्ध, विमल, पुनीत,शुचि, निर्दोष, उज्ज्वल, निष्कलंक।
तदन्वये शुद्धि मति प्रसूतः शुद्धिमत्तरः। 1/12 उन्हीं मनु के उज्ज्वल वंश में अत्यन्त शुद्ध चरित्र वाले राजा दिलीप ने जन्म लिया। तीर्थाभिषेकजां शुद्धिमादधाना महीक्षितः। 1/85 राजा दिलीप वैसे ही पवित्र हो गए, जैसे किसी तीर्थ में स्नान करके लौटे हों। शरीरत्यागमात्रेण शुद्धिलाभममन्यत। 12/10 उन्होंने समझ लिया कि अब प्राण देकर ही मेरी शुद्धि होगी। रराज शुद्धेति पुनः स्वपुर्यै संदर्शित वह्निगतेव भा। 14/14 सीताजी की शुद्धता दिखाने के लिए राम ने उन्हें फिर अग्नि में बैठा दिया हो। अन्वमीयत शुद्धेति शान्तेन वपुषैव सा। 15/77 सीताजी अपने शांत शरीर से ही पवित्र दिखाई देती थीं।
शृग 1. विषाण :-[विष् + कानच्] सींग।
प्रायो विषाणपिरमोक्षलघूत्तमाङ्गान्खगाँश्चकार नृपतिर्निशितैः क्षुरप्रैः। 9/62 इतने में ही उन्हें बारहसिंहों का झुंड दिखाई दिया, राजा दशरथ ने अर्द्धचंद्र बाणों
से उनके सींग काटकर, उनके सिर का बोझ हलका कर दिया। 2. शृंग :-[शृ + गन्, पृषो० मुम् हस्वश्च] पहाड़ की चोटी, सींग।
अजिनदण्डभृतं कुशमेखलां यतगिरं मृगशृङ्गपरिग्रहाम्। 9/21 जब वे मृगछाला पहनकर, हाथ में दंडलेकर, कुशा की तगड़ी बाँधकर, चुपचाप हरिण की सींग लिए, यज्ञ की दीक्षा लेकर बैठे। शृङ्ग सदृप्तविनयाधिकृतः परेषामत्युच्छ्रितं न ममृषे न तु दीर्घमायुः। 9/62 वे सिर उठाकर चलने वालों का दमन अवश्य करते थे, इसीलिए उन्होंने ऐंठकर चलने के साधन सींगों को काट डाला, यद्यपि राजा को उनके प्राणों से कोई बैर नहीं था। वन्यैरिदानी महिषैस्तदम्भः शृङ्गाहतं क्रोशति दीर्घिकाणाम्। 16/13 वह आजकल जंगली भैंसों के सींगों की चोटों से कान फोड डालता है।
For Private And Personal Use Only
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
शैल
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
417
1. अचल :- पहाड़, चट्टान ।
प्रकाशश्चाप्रकाशश्च लोकालोक इवाचलः । 1/68
जिस प्रकार लोकालोक नाम का पर्वत, एक ओर से सूर्य का प्रकाश पड़ने से चमकता है और दूसरी ओर प्रकाश न पड़ने से अंधियारा रहता है। विभ्रतोऽस्त्रमचलेऽप्यकुण्ठितं द्वौरिपू मम मतौ समागसौ । 11/74
जिस परशुराम के अस्त्र पहाड़ों से टकराकर भी कुंठित नहीं होते, उसके दो ही शत्रु आज तक समान अपराध करने वाले हुए हैं।
2. अद्रि : - [ अद् + क्रिन्] पहाड़, पत्थर ।
सा दुष्प्रधर्षा मनसापि हिंस्त्रैरित्यद्रिशोभाप्रहिते क्षणेन । 2/27
कोई भी हिंसक जंतु नंदिनी पर आक्रमण करने की बात भी नहीं सोच सकता । वे पर्वत की शोभा देखने लगे।
तदापभृत्येव वनद्विपानां त्रासार्थमस्मिन्नहमद्रिकुक्षौ । 2 / 38
तब से शंकरजी ने जंगली हाथियों को डराने के लिए, मुझे यहाँ पहाड़ की ढाल पर रखवाला बनाकर रख छोड़ा है।
असङ्गमद्रिष्वपि सारवत्तया न मे त्वदन्येन विसोढमायुधम् । 3/63 पर्वतों के पंख काटने वाले मेरे कठोर वज्र की चोट को तुम्हें छोड़कर आज तक किसी ने नहीं सहा ।
For Private And Personal Use Only
पौलस्त्यतुलितस्याद्रे रादधान इव ह्रियम् । 4 / 80
कैलासपर्वत को इस बात की लज्जा हुई कि एक बार रावण ने मुझे क्या उठा लिया, कि सभी मुझे हारा हुआ समझने लगे।
असौ महेन्द्रादि, समानसारः पतिर्महेन्द्रस्य महोदधेश्च । 6 / 54
ये महेन्द्र पर्वत के समान शक्ति वाले हैं और महेन्द्र पर्वत और समुद्र दोनों पर इनका अधिकार है।
अनपढ स्थिति स्तस्थौ विन्ध्याद्रिः प्रकृताविव । 12/31
जैसे अगस्त्य जी की आज्ञा से विंध्याचल अपनी मर्यादा में ही रह गया था ।
सार्थाः स्वैरं स्वकीयेषु चेरुर्वेश्मस्वि वादिषु । 17/64
व्यापारी लोग ऐसे बेरोक-टोक व्यापार करते थे, कि पहाड़ अपने भवन जैसे सुगम हो गए ।
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
418
कालिदास पर्याय कोश 3. गिरि :-[गृ + इ किच्च] पहाड़, पर्वत, उत्थापन, विशाल चट्टान।
पृक्तस्तुषारैर्गिरिनिर्झराणामनोकहाकम्पितपुष्पगन्धी। 2/13 पहाड़ी झरनों की ठंडी फुहारों से लदा हुआ और मंद-मंद कंपाए हुए वृक्षों की फूलों की गंध में बसा हुआ वायु। अथान्धकारं गिरिगह्वराणां दंष्ट्रामयूखैः शकलानि कुर्वन्। 2/46 यह सुनकर वह शिवजी का सेवक सिंह पर्वत की गुफा के अंधेरे में दाँतों की चमक से उजाला करता हुआ। एतगिरेर्माल्यवतः पुरस्तादाविर्भवत्यम्बरलेखि श्रृंगम्। 13/26 देखो यह जो आगे माल्यवान् पर्वत की ऊँची चोटी दिखाई देती है। एकताल इवोत्यातपवन प्रेरितो गिरिः। 15/23 मानो बवंडर से उड़ाया हुआ कोई ऐसा पहाड़ चला आ रहा हो, जिसकी चोटी पर ताड़ का पेड़ खड़ा हो। न हि सिंहो गजास्कन्दी भयागिरि गुहाशयः। 17/52 क्योंकि हाथियों को मारने वाला सिंह गुफा में हाथियों के भय से नहीं सोता है, वरन् उसका स्वभाव ही वैसा होता है। नग :-[न गच्छति :-न + गम् + ड] पहाड़। शिलाविभंगैर्मुगराजशावस्तुङ्गं नगोत्संगमिवारुरोह। 6/3 जैसे सिंह का बच्चा एक-एक शिल पर पैर रखता हुआ पहाड़ पर चढ़ जाता है। दिनमुखानि रविर्हिमनिग्रहैर्विमलयन्मलयं नगमत्यजत्।9/25 सर्दी दूर करके, प्रातः काल का पाला हटाकर उसे और भी अधिक चमकाते
हुए, सूर्य ने मलय पर्वत से विदा ली। 5. पर्वत :-[पर्व + अचच्] पहाड़, गिरि।
स पूर्वतः पक्षशातनं ददर्श देवं संभवः। 3/42 इस प्रकार दिव्य दृष्टि पाकर रघु देखते क्या हैं, कि पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र स्वयं उस घोड़े को लिए चले जा रहे हैं। पक्षच्छेदोद्यतं शक्रं शिलावर्षीव पर्वतः। 4/40 जैसे पत्थर बरसाने वाले पहाड़ ने पत्थर बरसाकर पर्वतों के पंख काटने वाले इंद्र
का सामना किया था। 6. महीधर :-[मह + अच् + ङीष् + धरः] पहाड़।
For Private And Personal Use Only
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
419 वशिष्ठमन्त्रोक्षणजात्प्रभावादुदन्वदाकाश महीधरेषु। 5/27 वशिष्ठ जी के मंत्रों से पवित्र किया हुआ रघु का रथ, समुद्र, आकाश और पर्वत कहीं भी आ-जा सकता था। महीधरं मार्गवशादुपेतं स्रोतोवहा सागरगामिनी व। 6/52
जैसे समुद्र की ओर बहती हुई नदी बीच में पड़ते हुए पहाड़ को छोड़ जाती है। 7. महीध्र :-[मह् + अच् + ङीष् + ध्रः] पहाड़।
महीध पक्षव्यपरोपणो चितं स्फुरत्प्रभामण्डलमस्त्रमाददे। 3/60 पर्वतों के पंख काटने वाले अग्नि के समान चमकीले वज्र को उठा लिया। पक्षाच्छदा गोत्र भिदात्तगन्थाः शरण्यमेनं शतशो महीधाः। 13/7 उन सैकड़ों पहाड़ों ने भी इसकी शरण ली थी, जिनके पंख इन्द्र ने काट दिए थे
और जिनका अभिमान इन्द्र ने चूर कर दिया था। 8. शिखरी :-[शिखरमस्त्यस्य इनि] चोटी वाला, पहाड़।
शमितपक्षबलः शतकोटिना शिखरिणां कुलिशेन पुरंदरः। 9/12
जैसे इंद्र ने अपने सौ नोकों वाले वज्र से पर्वतों के पंख काट दिए थे। 9. शिलोच्चय :-[शिल् + टाप् + उच्चयः] पहाड़, विशाल चट्टान।
न पादपोन्मूलनशक्ति रंहः शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य। 2/34 देखो! वायु का जो वेग वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने की शक्ति रखता है, वह पर्वत का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। शिलोच्चयोऽपि क्षितिपालमुच्चैः प्रीत्या तमेवार्थमभाषतेव। 2/51 तब पर्वत की कंदरा से भी उसकी गूंज सुनाई पड़ी, मानो पर्वत ने भी प्रसन्न
होकर सिंह की ही बातों का समर्थन किया हो। 10. शैल :-[शिला + अण्] पर्वत, पहाड़, चट्टान, बड़ा भारी पत्थर।
स्तनाविव दिशस्तस्याः शैलौ मलयद१रौ। 4/51 दर्दुर नाम की उन पहाड़ियों पर पड़ाव डाला, जो ऐसे दिखाई पड़ते थे, मानो चंदन लगे हुए दक्षिण दिशा के दो स्तन हों। ततो गौरीगुरुं शैलमारुरोहाश्व साधनः। 4/71 वहाँ से वे अपने घोड़ों की सेना लेकर हिमालय पहाड़ पर चढ़ गए। शैलोपमः शैवलमञ्जरीणां जालानि कर्षनुरसा स पश्चात्। 5146 वह पहाड़ के समान लंबा-चौड़ा हाथी अपनी छाती से सेवार को अपने साथ खींचता हुआ, तट पर आ पहुंचा।
For Private And Personal Use Only
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
420
कालिदास पर्याय कोश तेन शैल गुरुमप्यपातयत्पांडुपत्रमिव ताडकासुतम्। 11/28 उन्होंने पर्वत से भी बड़े ताड़का के पुत्र मारीच को उस बाण से उड़ाकर वैसे ही दूर फेंक दिया, जैसे कोई सूखा पत्ता उड़ा दिया हो। शैलसारमपि नातियलतः पुष्पचापमिव पेशलं स्मरः। 11/45 राम ने उस पर्वत के समान भारी धनुष पर वैसी ही सरलता से डोरी चढ़ा दी, जैसे कामदेव अपने फूलों के धनुष पर डोरी चढ़ाता है। अतिशस्त्रनखन्यासः शैलरुग्णमतंगजः। 12/73 अपने नखों से ऐसे भयंकर घाव करते थे कि शस्त्रों से भी वैसे घाव नहीं हो सकते थे और लड़ाकू हाथियों के सिरों पर बड़ी चट्टानें पटक पटककर उनका कचूमर निकाल देते थे। तेषु क्षरत्सु बहुधा मदवारिधारा: शैलाधिरोहणसुखान्युपलेभिरेते। 13/74 उन हाथियों के मस्तक से मद की धारा बह रही थी, इसलिए सैंड की ओर से चढ़ते समय उनको वही आनंद मिला, मानो झरनों वाले पहाड़ों पर ही चढ़ रहे
हों।
सा केतुमालोपवना बृहद्भिर्विहार शैलानुगतेव नागैः। 16/26 सेना का ध्वजा वाला भाग लता वाले उपवनों जैसे लग रहा था, बड़े-बड़े हाथी
बनावटी पर्वतों जैसे जान पड़ते थे। 11. श्रृंगी :-[शृङ्ग + इनि] पहाड़, चोटी वाला।
रुरोध रामं शृङ्गीव टङ्कच्छिन्नमनः शिलः। 12/80 वह राम का मार्ग रोककर उसी प्रकार खड़ा हो गया, जैसे टाँगी से कटी हुई कोई
मैनसिल की चट्टान आ गिरी हो। 12. सानुमता :-(पुं०) [सानु + मतुप्] पहाड़।
दुम सानुमतां किमन्तरं यदि वायौ द्वितयेऽपि ते चलाः। 8/90 यदि पर्वत भी वृक्ष की भाँति आँधी से हिल उठेगा, तो उन दोनों में अंतर ही क्या
शोणित 1. क्षतज :-[क्षण् + क्त + जम्] रुधिर् पीप, मवाद।
सच्छिन्नमूलः क्षतजेन रेणुस्तस्योपरिष्टात्पवनावधूतः। 7/43
For Private And Personal Use Only
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
पृथ्वी पर इतना रक्त बहा कि नीचे की धूल दब गई और जो धूल उठ चुकी थी,
वह वायु के सहारे इधर-उधर फैलकर। 2. रक्त :-[रञ्ज करणे क्तः] रुधिर।
वीक्ष्य वेदियथ रक्तबिन्दुभिर्बन्धुजीवपृथुभिः प्रदूषिताम्। 11/25 इतने में ही यज्ञ की वेदी पर बन्धुजीव के फूल के समान बड़ी-बड़ी रक्त की बूंदे
देखकर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। 3. रुधिर :-[रुध् + किरच्] लहू, रक्त।
शस्त्रक्षताश्वद्विपवीरजन्मा बालारुणोऽभूदुधिर प्रवाहः। 7/42 शस्त्रों से घायल घोड़ों, हाथियों और योद्धाओं के शरीर से निकला हुआ लहू प्रातः काल के सूर्य की लाली जैसा लगने लगा। दिनकराभिमुखा रणरेणवो रुरुधिरे रुधिरेण सुरद्विषाम्। 9/23 कई बार सूर्य पर छाई हुई युद्ध की धूल राक्षसों के रक्त से सींचकर दबाई है। आयुर्वेहातिगैः पीतं रुधिरं तु पतत्रिभिः। 12/48 बाण तो उनकी आयु पीने के लिए गए थे, उनका रक्त तो पिया पक्षियों ने। शोणित :-[शोण + इतच्] लाल, लोहित, रुधिर। उपस्थिता शोणितपारणा मे सुरद्विषश्चान्द्रमसी सुधेव। 2/39 जैसे चन्द्रमा का अमृत राहु को मिलता है, वैसे ही मेरे रक्त के पीने के समय पर यह गौ आ गई है। पपावनास्वादितपूर्वमाशुगः कुतूहलेनेव मनुष्यशोणितम्। 3/54 वहाँ का रक्त बड़े चाव से पिया, क्योंकि उसे अभी तक मनुष्य के रक्त का स्वाद तो मिला ही नहीं था। रणक्षितिः शोणितमहाकुल्या रराज मृत्योरिव पानभूमिः। 7/49 वह युद्ध क्षेत्र मृत्युदेव के उस मदिरालय सा जान पड़ा, जिसमें बहता हुआ रक्त ही मानो मदिरा हो। क्षत्रशोणितपितृक्रियोचितं चोदयन्त्य इव भार्गवं शिवाः। 11/61 मानो क्षत्रियों के रक्त से अपने पिता का तर्पण करने वाले परशुरामजी को वे पुकार रही हों। अमर्षणः शोणित काश्या किं यदा स्पृशन्तं दशति द्विजिह्वः। 14/41 क्योंकि जब साँप पैर के नीचे दब जाता है, तब वह रक्त के लोभ से थोड़े ही डसता है, वह तो बदला लेने के लिए ही डसता है।
For Private And Personal Use Only
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
422
कालिदास पर्याय कोश
श्याम
1. कृष्ण :-[कृष् + नक्] काला, श्याम, गहरा नीला।
अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्णमेघस्तिरोदधे। 10/48 जैसे सूखे के दिनों में कोई काला बादल धान के खेत पर जल बरसाकर निकल जाये। क्वचिच्च कृष्णोरग भूषणेव भस्माङ्गरागा तनुरीश्वरस्य। 13/57 कहीं पर समाधि लगाए हुए शिवजी के शरीर के समान दिखाई पड़ रही है, जिस
पर काले-काले सर्प लिपटे हुए हैं। 2. श्याम :-[श्यै + मक्] काला, गहरा नीला, काले रंग का।
प्राप तालीवन श्याममुपकण्ठं महोदधेः। 4/34 उस समुद्र के किनारे पहुंचे, जो तट पर खड़े हुए ताड़ के वृक्षों की छाया पड़ने से काला दिखाई पड़ रहा है। इन्दीवरश्यामतनुनूपोऽसौ त्वं रोचनागौरशरीरयष्टिः। 6/65 फिर ये नील कमल के समान साँवले हैं और तुम गोरोचन जैसी गोरी हो। त्वया पुरस्तादुपयाचितो यः सोऽयं वटः श्याम इति प्रतीतः। 13/53 यह काला-काला वही बड़ का पेड़ है, जिसकी तुमने मनौती मानी थी।
श्री 1. कांति :-[कम् + क्तिन्] मनोहरता, सौन्दर्य ।
कुलेन कान्त्या वयसा नवेन गुणैश्च तैस्तैर्विनयप्रधानैः। 6/79
इनका कुल, रूप, यौवन और नम्रता ये सब गुण तुम्हारे ही जैसे हैं। 2. राग :-[रञ् भावे घञ्, नलोपकुत्वे] हर्ष, आनन्द, प्रियता, सौन्दर्य।
चरणयोर्नखराग समृद्धिभिर्मुकुट रत्नमरीचिभिरस्पृशन्। 9/13 वेसे ही सैकड़ों राजाओं ने पराक्रमी दशरथ के चरणों में अपने वे मुकुट वाले सिर रख दिए, जिनके मणि दशरथजी के पैर के नखों की ललाई से दमक उठते
थे।
3. शोभा :-[शुभ् + अ + टाप्] प्रकाश, कांति, दीप्ति, चमक, वैभव, सौन्दर्य,
लालित्य।
For Private And Personal Use Only
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
423
रघुवंश
अन्योन्य शोभा परिवृद्धये वां योगस्तडित्तोयदयो रिवास्तु। 6/65 यदि तुम दोनों का विवाह हो जाएगा, तो तुम ऐसी सुन्दर लगोगी, जैसे बादल के साथ बिजली। श्री:-[श्रि+क्विप्, नि०] महिमा, प्रतिष्ठ, सौन्दर्य, चारुता, लालित्य, कांति। तिरश्चकार भ्रमराभिलीनयोः सुजातयोः पङ्कजकोशयोः श्रियम्। 3/8 उनकी शोभा के आगे कमल के जोड़े पर बैठे हुए भौरों की शोभा भी हार मान बैठी। दशदिगन्त जिता रघुणा यथा श्रियम पुष्यदजेन ततः परम्। 9/5 जैसे दसों दिशाओं को जीतने वाले रघु ने और उनके पीछे उनके पुत्र अज ने पृथ्वी की शोभा बढ़ाई थी।
संगर 1. प्रतिज्ञा :-[प्रति + ज्ञा + अङ् + टाप्] व्रत, वचन, वादा, करार।
उत्खातलोकत्रयकण्टकेऽपि सत्यप्रतिज्ञेऽप्यविकत्थेनेऽपि। 14/73 यद्यपि राम तीनों लोकों का दुःख दूर करने वाले हैं, अपनी प्रतिज्ञा के पक्के हैं
और अपने मुँह से अपनी बाई भी नहीं करते। 2. संगर :-[सम् + गृ + अप्] प्रतिज्ञा, करार।
तथेति तस्यावितथं प्रतीतः प्रत्यग्रहीत्संगरग्रजन्मा। 5/26 यह सुनकर कौत्स बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने सत्यवादी दृढ़ प्रतिज्ञ रघु की बात मान ली। मैथिलः सपदि सत्यसंगरो राघवाय तनयामयोनिजाम्। 11/48 सत्य प्रतिज्ञा करने वाले जनक ने उन्हीं के आगे राम को सीता समर्पित कर दी। अद्धा श्रियं पालित संगराय प्रत्यर्पयिष्यत्यनघां स साधुः। 13/65 वैसे ही अब मैं अवधि पूरी करके जो लौटा हूँ, तो जान पड़ता है कि सज्जन भरत मुझे सुरक्षित राज्यलक्ष्मी अवश्य ही सौंपेंगे।
संत
1. साधु :-[साध् + उन्] गुणी, पुण्यात्मा, पवित्रात्मा, कृपालु, दयालु, ऋषि,
मुनि, संत।
For Private And Personal Use Only
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
424
कालिदास पर्याय कोश तदीयमाक्रन्दितमार्तसाधोगुहा निबद्धप्रति शब्ददीर्घम्। 2/28 सिंह की झपट से नंदिनी रंभाने लगी और उसकी ध्वनि गुफा में गूंज उठी। तं विस्मितं धेनुरुवाच साधो मायां मयोद्भाव्य परीक्षितोऽसि। 2/62 राजा दिलीप अचरज भरी आँखों से यह सब देख रहे थे, इतने में नंदिनी मनुष्य की बोली में बोलने लगी :-हे साधु! मैंने माया रचकर तुम्हारी परीक्षा ली थी। अद्धा श्रियं पालित संगराय पत्यर्पयिष्यत्यन्यां स साधुः। 13/65
सज्जन भरत मुझे सुरक्षित राज्यलक्ष्मी अवश्य ही सौंपेंगे। 2. संत :-[सन् + त] गुणी, पुण्यात्मा, कृपालु, दयालु, ऋषि।
तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्वयक्ति हेतवः। 1/10 इस काव्य को सुनने के अधिकारी भी वे ही सज्जन हैं, जिन्हें भले-बुरे की अच्छी परख है।
संपद
1. अर्थ :-[ऋ + थन्] दौलत, धन, संपत्ति।
अगृनुराददे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्वभूत्। 1/21 लोभ छोड़कर धन इकट्ठा करते थे और मोह छोड़कर संसार के सुख भोगते थे। अप्यर्थकामौ तस्यास्तां धर्म एव मनीषिणः। 1/25 यद्यपि दंड और विवाह वास्तव में अर्थशास्त्र और कामशास्त्र के विषय हैं, फिर भी उनके हाथों में पहुँचकर धर्म के विषय बन गए थे। निर्बन्ध संजातरुषार्थकार्यमचिन्तयित्वा गुरुणामुक्तः। 5/21 पर जब मैंने बार-बार दक्षिणा मांगने के लिए उनसे हठ किया, तो वे बिगड़ खड़े हुए और मेरी दरिद्रता का विचार किए बिना ही बोल उठे :- । गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुवेरात्। 5/26 रघु ने भी देखा कि पृथ्वी पर तो धन है नहीं, इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि
कुबेर से ही धन लिया जाए। 2. धन :-[धन् + अच्] संपत्ति, दौलत, धन, निधि, रुपया।
वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेर्मुमोच। 2/1 तब यशस्वी राजा दिलीप ने बछड़े को बाँध दिया और ऋषि की गौ को जंगल में चराने के लिए खोल दिया।
For Private And Personal Use Only
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
425
रघुवंश
गुरोरपीदं धनमाहिताग्नेर्नश्यत्पुरस्तादनुपेक्षणीयम्। 2/44 पर साथ ही मैं अग्निहोत्री गुरु के इस गौ रूपी धन को भी अपनी आँखों के आगे नष्ट होते नहीं देख सकता। तमर्चयित्वा विधिवद्विधिज्ञ स्तपोधनं मातधनाग्रयायी। 5/3 तप के धनी कौत्स कुशा के आसन पर बैठ हुए थे, शास्त्र के जानने वाले
सम्माननीय रघु ने बड़ी विधि से उनकी पूजा की। 3. वसु :-[वस् + उन्] दौलत, धन।
वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजना। 8/31 अज ने केवल अपने धन से ही दूसरों को लाभ नहीं पहुँचाया, वरन् अपने गुणों से भी लोगों का उपकार किया। स तावदभिषेकान्ते स्नातकेभ्यो ददौ वसु। 17/17
अभिषेक के पश्चात् उन्होंने यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणों को इतना धन दिया। 4. वित्त :-[विद् लाभे + क्त] धन, दौलत, जायदाद, संपत्ति।
वित्तस्य विद्या परिसंख्यया मे कोटिश्चतस्रो दश चाहरेति। 5/21 मैंने तुम्हें चौदह विद्याएँ पढ़ाई हैं, इसलिए मुझे चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ ला कर
दो।
5. संपद :-(स्त्री०) [सम् + पद् + क्विप्] धन, दौलत।
संपद्विनिमयेनोभौ दधतुर्भुवनद्वयम्। 1/26 इस प्रकार दोनों एक दूसरे को धन का लेन-देन करके दोनों लोकों का पालन करते थे। प्रियानुरागस्य मनः समुन्नतेर्भुजार्जितानां च दिगन्त संपदाम्। 3/10 राजा दिलीप जितना रानी को प्यार करते थे, जितनी उन्हें प्रसन्नता थी और जितना बड़ा धन संपन्न उनका राज्य था। ग्रहैस्ततः पञ्चभिरुच्च संश्रयैरसूर्यगैः सूचितभाग्यसंपदम्। 3/13 जिस प्रकार राजा अपनी तन साधनाओं वाली शक्ति से अचल संपत्ति पा लेता है, वे पाँच शुभ ग्रह सूचना दे रहे थे जो उस समय उच्च स्थान पर थे और साथ में सूर्य के न होने से फल देने में समर्थ थे। पितुः प्रयत्नात्स समग्रसंपदः शुभैः शरीरावयैर्दिने दिने। 3/22 वैसे ही बालक रघु के अंग संपत्तिशाली पिता की देखरेख में दिन-दिन बढ़ने लगे।
For Private And Personal Use Only
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
426
कालिदास पर्याय कोश लक्ष्म्या निमत्रयांचक्रे तमनुच्छिष्ट संपदा। 12/15 अयोध्या की राज्यलक्ष्मी को मैंने छुआ भी नहीं, आप ही चलकर उस संपत्ति को संभालिए।
सिंह
1. केसरी :-[केसर + इनि] सिंह।
स पाटलायां गवि तस्थिवासं धनुर्धरः केसरिणं ददर्श। 2/29 धनुषधारी राजा दिलीप ने देखा कि उस लाल गौ पर बैठा हुआ सिंह ऐसा लग रहा है, जैसे। धनुरधिज्यमनाधिरूपाददे नरवरो खरोषित केसरी। 9/54 तब उस सुन्दर स्वस्थ राजा ने अपना वह चढ़ा हुआ धनुष उठाया, जिसकी टंकार
सुनकर सिह भी गरज उठे। 2. मृगराज :-[मृग + क + राजः] सिंह। शिलाविभंगैर्मृगराज शावस्तुङ्गं नगोत्संगमिवारुरोह। 6/3
जैसे सिंह का बच्चा एक-एक शिला पर पैर रखता हुआ पहाड़ पर चढ़ जाता है। 3. मृगाधिराज :-[मृग + क + अधिराजः] सिंह।
इति प्रगल्भं पुरुषाधिराजो मृगाधि राजस्य वचो निशम्य। 2/41
सिंह की ऐसी ढीठ बातें सुनकर, जब राजा को यह विश्वास हो गया कि। 4. मृगेन्द्र :-[मृग + क + इन्द्रः] सिंह। .
ततो मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रगामी वधाय वध्यस्य शरं शरण्यः। 2/30 उस समय सिंह के समान चलने वाले राजा दिलीप क्रोध से लाल हो गए और उन्होंने समझा कि यह सिंह मेरी शरण में आई हुई गौ को मारकर मेरा अपमान करना चाहता है। बस,झट उन्होंने सिंह को मारने के लिए बाण निकालने को हाथ उठाया। संरुद्धचेष्टस्य मृगेन्द्र कामं हास्यं वचक्तद्यदहं विवक्षुः। 2/43 हे सिंह! हाथ के बंध जाने से मैं कुछ नहीं कर सकता, इसलिए जो कुछ मैं कहूँगा, उसकी सब खिल्ली ही उड़ावेंगे। एतावदुक्त्वा विरते मृगेन्द्र प्रति स्वनेनास्य गुहागतेन। 2151 जब राजा दिलीप से इतना कहकर सिंह चुप हो गया, तब पर्वत की कंदरा से भी उसकी गूंज सुनाई पड़ी।
For Private And Personal Use Only
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
427
5. व्याघ्र :-[व्याजिघ्रति :-वि + आ + घ्रा + क] बाघ, चीता, सिंह, शेर।
सद्यो हतन्यङ्करभिरत्रदिग्धं व्याप्रैः पदं तेषु निधीयते मे। 16/15 उन्हीं पर मृग मारने वाले बाघ अपने रक्त से सने लाल पैर रखते चलते हैं। सिंह :-[हिंस् + अच्, पृषो०] शेर, सिंह। अलक्षिताभ्युत्पतनो नृपेण प्रसह्य सिंहः किल तां चकर्ष। 2/27 उस समय राजा दिलीप पर्वत की शोभा देख रहे थे, इसलिए उन्हें दिखाई ही नहीं पड़ा कि उस पर सिंह कब झपटा। विस्माययन्वि स्मितमात्मवृत्तौ सिंहोरुसत्त्वं निजगाद सिंहः। 2/33 सिंह के समान पराक्रमी राजा दिलीप बड़े अचंभे में पड़े हुए थे और जब वह सिंह मनुष्य की बोली में बोलने लगा, तब तो उनके आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा। व्यापारितः शूलभृता विधाय सिंहत्वमङ्कागत सत्त्ववृत्ति। 2/38
और मेरा पेट भरने के लिए मुझे आज्ञा दे दी, कि यहाँ जो जीव आवे उसे सिंह के स्वभावानुसार मारकर खा जाया करो। तस्मिन्क्षणे पालयितुः प्रजानामुत्पश्यतः सिंहनिपातमुग्रम्। 2/60 राजा दिलीप यह सोच ही रहे थे कि अब सिंह उन पर टूटने ही वाला है कि इतने में ही प्रजा-पालक राजा दिलीप के ऊपर। ददर्श राजा जननीमिव स्वां गामग्रतः प्रस्त्रषिणी न सिंहम्। 2/61 राजा दिलीप देखते क्या हैं कि आगे स्तनों से दूध टपकाती हुई माता के समान नंदिनी खड़ी है और सिंह का कहीं नाम भी नहीं है। गुहाशयानां सिंहानां परिवृत्त्यावलोकितम्। 4/72 सैनिकों के समान ही बलवान सिंह गुफाओं में लेटे-लेटे आँखे घुमाकर रघु की सेना को देख रहे थे। निर्धातोग्रैः कुञ्जलीनाञ्जिधांसुानिर्घोषैः क्षोभयामास सिंहान्। 9/64 बस उन्होंने हाथियों से बैर रखने वाले उन सिंहों को मार डाला, जिनके नुकीले अगले पंजों में अब तक गजमुक्ताएँ उलझी हुई थीं। नखाङ्कशाघात विभिन्नकुम्भाः संरब्धसिंह प्रहृतं वहन्ति। 16/16 उन चित्रित हाथियों के मस्तकों को सिंहों ने सच्चे हाथी का मस्तक समझकर नखों से फाड़ दिया है।
For Private And Personal Use Only
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
428
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
न हि सिंहों गजास्कन्दी भयाद् गिरिगुहाशयः । 17/52
क्योंकि हाथियों को मारने वाला सिंह गुफा में हाथियों के भय से नहीं सोता है, वरन् उसका स्वभाव ही वैसा होता है।
मृगायताक्षो मृगया बिहारी सिंहादवाद्विपदं नृसिंहः । 18 / 35
उनके नेत्र मृगों के नेत्रों के समान बड़े-बड़े थे और वे पुरुषों में सिंह के समान थे । एक दिन वे जंगल में आखेट करते हुए मारे गए।
कालिदास पर्याय कोश
नवेन्दुना तन्नभसोपमेयं शावैक सिहेन च काननेन । 18/37
जैसे द्वितीया के चन्द्रमा से आकाश, सिंह के बच्चे से वन शोभा देता है। 7. हरि : - [ हृ + इन्] सिंह |
स न्यस्तशस्त्रो दृश्ये स्वदेहमुपानयत्पिण्डमिवामिषस्य । 2/59
राजा दिलीप अपने अस्त्र फेंककर माँस के पिंड के समान सिंह के आगे जा पड़े। सदार
1. धर्मपत्नी सहित :- पत्नी सहित, पत्नी के साथ ।
श्रोत्राभिरामध्वनिना रथे स धर्मपत्नीसहितः सहिष्णुः । 2 / 72
सहनशील राजा दिलीप अपनी धर्मपत्नी के साथ जिस रथ पर चढ़कर चले, उसकी ध्वनि कानों को बड़ी मीठी लग रही थी ।
2. सदार :- पत्नी सहित, पत्नी के साथ ।
गुरोः सदारस्य निपीड्य पादौ समाप्य सांध्यं च विधिं दिलीपः । 2 / 23
की पूजा हो जाने पर राजा दिलीप ने पहले वशिष्ठजी की और उनकी पत्नी अरुंधती जी के चरणों की वंदना की और फिर अपने संध्या के नित्य कर्मों को समाप्त किया ।
4. सपरिग्रह :- पत्नी सहित, पत्नी के साथ ।
3. सपत्नीक :- पत्नी सहित, पत्नी के साथ ।
आराधय सपत्नीकः प्रीता कम दुधा हि सा । 1 /81
अपनी पत्नी के साथ शुद्ध मन से उसकी सेवा करो, क्योंकि यदि वह प्रसन्न हो
जाएगी, तो वह तुरंत इच्छित फल अवश्य देगी ।
For Private And Personal Use Only
तथेति प्रतिजग्राह प्रीतिमान्सपरिग्रहः । 1 / 92
उन्होंने कहा कि हम ऐसा ही करेंगे और यह कहकर उन्होंने और उनकी पत्नी ने गुरुजी से इस व्रत के लिए आज्ञा ली ।
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
429
6. सभार्या :- पत्नी सहित, पत्नी के साथ।
तस्मै सभ्याः सभार्याय गोप्चे गुप्तमेन्द्रियाः। 1/55 वहाँ के सभ्य संयमी मुनियों ने अपने रक्षक सपत्नीक राजा दिलीप का सम्मान के साथ स्वागत किया।
सपर्या
1. अर्हण :-[अर्ह + भावे ल्युट्] पूजा, आराधना, सम्मान।
आससाद मुनिरात्मनस्ततः शिष्यवर्ग परिकल्पिताहणम्। 11/23 वहाँ से मुनि अपने उस आश्रम पर पहुँचे, जहाँ शिष्यों ने पूजा की सब सामग्री
इकट्ठी कर रखी थी। 2. पूजा :-[पूज् + अ + टाप्] पूजा, सम्मान, आराधना।
सीतास्वहस्तोपहृताग्यपूजान् रक्षः कपीन्द्रान्विससर्ज रामः। 14/19 राम ने उन राक्षसों और वानर-सेनापतियों को विदा किया, जिनकी चलते समय
सीताजी ने स्वयं अपने हाथों से पूजा की। 3. बलि :-[बल् + इन्] पूजा, आराधना।
तत्सैकतोत्सङ्गबलि क्रियाभिः संपत्स्यते ते मनसः प्रसादः। 14/76 उसमें स्नान करके तुम उसकी रेती पर देवताओं को बलि दिया करो, इससे
तुम्हारा मन प्रसन्न रहेगा। 4. सपर्या :-[सपर् + यक् + अ + टाप्] पूजा, अर्चना, सम्मान, सेवा।
वत्सोत्सुकापि स्तिमिता सपर्या प्रत्यग्रहीत्सेति ननन्दतुस्तौ। 2/22 यद्यपि नंदिनी उस समय अपना बछड़ा देखने के लिए बहुत उतावली थी, फिर भी वह रानी से पूजा कराने के लिए खड़ी हो गई। सोऽहं सपर्या विधिभाजनेन मत्वा भवन्तं प्रभु शब्द शेषं। 5/22 आपके हाथ में मिट्टी का पात्र देखकर ही मैं समझ गया कि आपके पास 'राजा' शब्द को छोड़कर और कुछ भी नहीं बचा है। तस्या तिथीनामधुना सपर्या स्थिता सुपुत्रेष्विव पादपेषु। 13/46 जैसे सुपुत्र अपने पिता के धर्म का पालन करते हैं, वैसे ही अतिथि-सेवा का काम, उनके बदले ये आश्रम के वृक्ष करते हैं। ततः सपर्यां सपशूपहारां पुरः परार्ध्य प्रतिमागृहायाः। 16/39
For Private And Personal Use Only
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
430
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
फिर कुश ने अनमोल मूर्तियों से भरे घरों वाली अयोध्या का विधिपूर्वक पूजन कराया और पशुओं का बलिदान भी कराया।
सभा
1. संसद :- [ सम् + सद् + क्विप्] सभा, सम्मिलन, मंडल । तद्गीत श्रवणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ । 15/66
सारी सभा गूंगी होकर उनका गीत सुनती जा रही थी और आँखों से आँसू बहाती जा रही थी ।
तदद्भुतं संसदि रात्रिवृत्तं प्रातर्द्विजेभ्यो नृपतिः शशंस । 16 / 24
राजा ने रात की वह अचरजभरी घटना प्रातः काल सभा में ब्राह्मणों से कही।
2. सभा : - [ सह भान्ति अभीष्ट निश्चयार्थमेकत्र यत्र गृहे ] जलसा, परिषद्, गुप्तसभा ।
स ददर्श सभामध्ये सभासद्भिरुपस्थितम् । 15 / 39
राज सभा में पहुँच कर उन्होंने देखा कि राम बैठे हुए हैं और बहुत से सभासद् उनकी सेवा कर रहे हैं।
ययावुदीरितालोकः सुधर्मानवमां सभाम् । 17/27
तब वे अपनी उस सभा की ओर चले, जो किसी प्रकार देवताओं की सभा से कम नहीं थी ।
समर
1. आयोधन :- [ आ + युध् + ल्युट् ] युद्ध, लड़ाई, संग्राम ।
आयोधनाग्रसरतां त्वयि वीर याते किं वा रिपूँस्तव गुरुः स्वयमुच्छिनत्ति ।
5/71
जब तुम्हारे जैसे योग्य पुत्र युद्ध में जाकर लड़ते हैं, तब तुम्हारे पिताजी को क्या कभी शत्रुओं को स्वयं मारने का कष्ट उठाना पड़ता है, कभी नहीं । आयोधने कृष्णगतिं सहायमवाप्य यः क्षत्रियकाल रात्रिम् | 6/42
अग्नि की सहायता पा लेने से ये परशुराम जी के उस फरसे की तेज धारा को, जिसने युद्ध क्षेत्र में क्षत्रियों का संहार कर डाला था ।
2. जन्य : - [जन् + ण्यत्, जन् + णिच् + यत् वा ] संग्राम, तत्र जन्यं रघोर्घोरं पर्वतीयैर्गणैरभूत । 4/77 पहाड़ी सेनाओं से रघु की सेना की घनघोर लड़ाई हुई।
For Private And Personal Use Only
युद्ध ।
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
431
रघुवंश 3. प्रधनम् :-[प्र + धा + क्यु] युद्ध, लड़ाई, संग्राम, संघर्ष।
तिष्ठतु प्रधनमेवमप्यहं तुल्यबाहुतरसा जितस्त्वया। 11/77 युद्ध तो पीछे होगा....... मैं समझूगा कि तुम मेरे ही समान बलवान हो और मैं
इतने से ही हार मानकर लौट जाऊँगा। 4. मृध :-[मृध् + क] संग्राम, युद्ध, लड़ाई।
हत्या निवृत्ताय मृधे खरादीन्संरक्षितां त्वामिव लक्ष्मणो मे। 13/65 खरदूषण आदि राक्षसों को युद्ध में मारकर मैं जब लौटा था, उस समय जैसे
लक्ष्मण ने तुम्हें मेरे हाथ सुरक्षित रूप से सौंप दिया था। 5. युद्ध :-[युध + क्त] संग्राम, समर, लड़ाई।
बभूव युद्धं तुमुलं जयैषिणीरधो मुखैरूर्ध्वमुखैश्च पत्रिभिः। 3/57 दोनों भयंकर युद्ध कर रहे थे, रघु और इंद्र दोनों ही अपनी ही जीत चाहते थे। रघु को लक्ष्य बनाकर इंद्र नीचे की ओर अपने बाण चलाते थे और इंद्र को ताक-ताक कर रघु ऊपर बाण चला रहे थे। यन्ता गजस्याभ्यपतद्गजस्थं तुल्य प्रतिद्वन्द्वि बभूव युद्धम्। 7/37 लड़ाई छिड़ गई, रथ वाले रथ वालों से जूझ गए, हाथी-सवार, हाथी-सवारों पर टूट पड़े। इस प्रकार बराबर जोर की लड़ाई होने लगी। निर्ययावथ पौलस्त्यः पुनयुद्धाय मन्दिरात्। 12/83 जब रावण ने सब कांड सुना, तब वह अपने राजभवन से निकल कर रण-भूमि में आया। रण :-[रण् + अप्] संग्राम, समर, युद्ध, लड़ाई। रणक्षितिः शोणित मद्यकुल्या रराज मृत्योरिव पान भूमिः। 7/49 वह युद्ध क्षेत्र मृत्यु देव के उस मदिरालय सा जान पड़ रहा था, जिसमें बहता हुआ रक्त ही, मानो मदिरा हो। दिनकराभिमुखा रणरेणो रुरुधिरे रुधिरेण सुरद्विषाम्। 9/23 दशरथ ने कई बार सूर्य पर छाई हुई युद्ध की धूल राक्षसों के रक्त से सींचसींचकर दबाई है। आत्मानं रणकृतकर्मणां गजानामानृण्यं गतमिव मार्गणैरमंस्त। 9165 मानो अपने बाणों से उन हाथियों का ऋण चुका दिया, जो युद्ध में उनकी सेना में काम आ रहे थे।
For Private And Personal Use Only
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
432
कालिदास पर्याय कोश सोऽहं दाशरथिर्भूत्वा रणभूमेर्बलिक्षमम्। 10/44 इसलिए मैं राजा दशरथ के यहाँ जन्म लेकर रणभूमि को भेंट चढ़ाऊँगा। रणः प्रववृते तत्र भीमः प्लवगरक्षसाम्। 12/72 वहाँ राक्षसों और वानरों का ऐसा भयंकर युद्ध होने लगा कि। रणो गन्धद्विपस्येव गन्धभिन्नान्य दन्तिनः। 17/70 जैसे बिना मदवाले हाथी, मतवाले हाथी से नहीं लड़ पाते, वैसे ही प्रतापी राजा
अतिथि से लड़ने का कोई साहस ही नहीं करता था। 7. संग्राम :-[सङ्ग्राम् + अच्] रण, युद्ध, लड़ाई।
संग्रामस्तुमुलस्तस्य पाश्चात्त्यैरव साधनैः। 4/62 वहाँ पच्छिम देश के घुड़सवार राजाओं से रघु की घनघोर लड़ाई हुई। सङ्ग्रामनिर्विष्ट सहस्त्रबाहुरष्टादशद्वीपनिखातयूपः। 6/38 जब वे रणक्षेत्र में जाते थे, तब उनके सहस्रों हाथ निकल आते थे। उन्होंने अट्ठारह द्वीपों में यज्ञ के खंभे गाड़ दिए थे। स्मरन्तः पश्चिमामाज्ञां भर्तुः संग्रामयायिनः। 17/8
लड़ाई में जाते समय कुश ने जो आज्ञा दी थी, उसके अनुसार। 8. संयत :-(स्त्री०) [सम् + यम् + क्विप्] युद्ध, संग्राम, लड़ाई।
महेन्द्रमास्थाय महोक्षरूपं यः संयति प्राप्त पिनाकिलीलः। 6/72 उन राजा ने जब युद्ध में असुर को मारा था, तब बैल पर चढ़े हुए वे शिवजी के समान लगते थे। उत्थापितः संयति रेणुरश्चैः सान्द्रीकृतः स्यन्दनवंश चक्रैः। 7/39 युद्ध-क्षेत्र में घोड़ों की टापों से जो धूल उठी, उसमें रथ के पहियों से उठी हुई धूल मिलकर और भी घनी हो गई। ततः परं वज्रधरप्रभावस्तदात्मजः संयति वज्रघोषः। 18/21
वे इन्द्र के समान प्रभावशाली थे और युद्ध क्षेत्र में वज्र के समान गरजते थे। १. संयुग :-[सम् + युज् + क, जस्य गः] लड़ाई, संग्राम, युद्ध, संघर्ष।
स किल संयुग मूर्ध्नि सहायतां महावतः प्रतिपद्य महारथः। 9/19
यह कहा जाता है कि महारथी दशरथ ने युद्ध में इंद्र की सहायता करके। 10. सन्निपात :-[सम् + मि + पत् + घञ्] टक्कर, संपर्क, संगम, संघात।
आधोरणानां गजसंनिपाते शिरांसि चक्रैर्निशितैः क्षुराग्रैः। 7/46
For Private And Personal Use Only
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
433
जहाँ हाथियों का युद्ध हो रहा था, वहाँ पैने छुरे वाले चक्रों से जिन हाथीवानों के
सिर कट गए थे। 11. समर :-[सम + ऋ + अप्] संग्राम, युद्ध, लड़ाई।
काम्बोजाः समरे सोढुं तस्य वीर्यमनीश्वराः। 4/69 कंबोज के राजा भी लड़ाई में रघु के आगे नहीं ठहर सके। वामाङ्गसंसक्तसुराङ्गनः स्वं नृत्यत्कबन्धं समरे ददर्श 7/51 अपने बाएँ एक अप्सरा लिए हुए विमान पर चढ़कर आकाश से यह देखने लगा, कि मेरा धड़ रणभूमि में किस प्रकार नाच रहा है। रथतुरगरजोभिस्तस्य रूक्षालकाग्रा समरविजयलक्ष्मी: सैव मूर्ता बभूव।
7/70 उनके रथ के घोड़ों की टापों से उठी हुई धूल से इंदुमती के केश भर गए और वह साक्षात् रणभूमि की विजयलक्ष्मी जैसी जान पड़ रही थीं। रजांसि समरोत्थानि तच्छोणितनदीष्विव। 12/82 मानो राक्षसों के रक्त की नदी में रणक्षेत्र से उठी हुई धूल पड़ रही हो। दुर्जातबन्धुरयमृक्षहरीश्वरो मे पौलस्त्य एष समरेषु पुरः प्रहर्ता। 13/72 ये वानरों और भालुओं के सेनापित सुग्रीव हैं और बड़े गाढ़े दिनों में ये हमारे काम आए हैं और ये पुलस्त्य कुल में उत्पन्न हुए विभीषण हैं, ये युद्ध के समय हमसे आगे बढ़-बढ़कर शत्रुओं पर प्रहार करते थे। जघान समरे दैत्यं दुर्जयं तेन चावधि। 17/5 वहाँ युद्ध में शक्तिशाली दुर्जय नाम के राक्षस को मारकर वे स्वयं भी वीर गति को प्राप्त हुए। अनीकिनीनां समरेऽग्रयायी तस्यापि देवप्रतिमः सुतोऽभूत। 18/10 उस क्षेमधन्वा को भी इंद्र के समान पुत्र हुआ, जो युद्ध में सेना के आगे-आगे चलता था।
सर
1. कमलाकरालय :-तालाब, सरोवर। विहगाः कमलाकरालयाः समदुःखा इव तत्र चकुशुः। 8/39 उनसे डरकर तालाबों में रहने वाले पक्षी भी इस प्रकार चिल्ला उठे, मानो वे भी उनके दुःख में दुखी हों।
For Private And Personal Use Only
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
434
कालिदास पर्याय कोश 2. सर :-[सृ + अच्] झील, सरोवर, तालाब, ताल।
सरसीष्वर विन्दानां वीचिविक्षोभ शीतलम्। 1/43 मार्ग में जो ताल पड़ते थे, उनकी लहरों की झकोरों से उड़ती हुई कमलों की ठंडी सुगंध लेते हुए वे चले जा रहे थे। उषसि सर इव प्रफुल्लपद्मं कुमुदवन प्रतिपन्ननिद्रमासीत्। 6/86 उस समय वह मंडप प्रातः काल के उस सरोवर जैसा लगने लगा, जिसमें एक ओर खिले हुए कमल दिखाई दे रहे हों और दूसरी ओर मुँदे कुमुदों का झुंड खड़ा
अभिययुः सरसो मधुसंभृतां कमलिनीमलिनीरपतत्रिणः। 9/27 इसलिए जैसे उनकी लक्ष्मी के आगे बहुत से मंगन हाथ फैलाया करते थे, वैसे ही वसंत की शोभा से लदी हुई ताल की कमलिनी के आसपास भौरे और हंस
भी मंडराने लगे। 3. ह्रद :-[ह्राद् + अच्, नि०] गहरा सरोवर, गहरा तालाब।
क्षणमात्रमृषिस्तस्थौ सुप्तमीन इव हृदः। 1/73 उस समय ऋषि वशिष्ठ जी उस ताल के समान स्थिर और निश्चल हो गए, जिसकी सब मछलियाँ सो गई हों।
सर्ग 1. सर्ग :-[सृज् + घञ्] सृष्टि, प्रकृति, विश्व।
स्वमूर्ति भेदेन गुणाग्यवर्तिना पतिः प्रजानामिव सर्गमात्मनः। 3/27 जैसे ब्रह्मा ने अपने सतोगुण वाले अंश से विष्णु के प्रकट होने पर यह समझ
लिया कि अब हमारी सृष्टि अमर हो गई। 2. सृज :- सृष्टि, प्रकृति, विश्व।
नमो विश्व सजे पूर्वं विश्वं तदन बिभ्रते। 10/16
पहले विश्व को बनाने वाले फिर उसका पालन करने वाले, आपको प्रणाम है। 3. सृष्टि :-(स्त्री०) [सृज् + क्तिन्] संसार, प्रकृति।
विधाय सृष्टिं ललितां विधातुर्जगाद भूयः सुदतीं सुनन्दा। 6/37 विधाता की सुंदर रचना और सुंदर दाँतों वाली इन्दुमती को आगे ले जाकर सुनंदा बोली।
For Private And Personal Use Only
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
435
सस्य
1. शालयः :-[शाला + णिनि] चावल, धान।
तस्थुस्तेऽवाङ्मुखाः सर्वे फलिता इव शालयः। 15/78 उन्हें देखते ही सब लोगों ने उसी प्रकार अपनी आँखें नीची कर ली. जैसे फले
हुए धान के कलम झुक जाते हैं। 2. सस्य :-[सस् + यत्] अनाज, अन्न।
वृष्टिर्भवति सस्यानाम वग्रहविशोषिणाम्। 1/62 आपकी आहुतियाँ अनावृष्टि से सूखे हुए धान के खेतों पर जलवृष्टि होकर बरसने लगती हैं। खनिभिः सुषुवे रत्नं क्षेत्रैः सस्यं वनैर्गजान्। 17/66 खानों ने रत्न दिए, खेतों ने अन्न दिया और वनों ने उन्हें हाथी दिए।
सहकार
1. चूत :-[चूष् + क्त पृषो०] आम का पेड़, आम, आम्र।
अनन्तराशोकलताप्रवालं प्राप्येव चूतः प्रतिपल्लवेन। 7/21 जैसे आम का पेड़ अपनी पत्तियों के साथ, अशोक लता की लाल पत्तियों के
मिल जाने से मनोहर लगता है। 2. सहकार :-आम, आम्र, रसाल।
फलेन सहकारस्य पुष्पोद्गम इव प्रजाः। 4/9 जैसे आम के सुंदर फल देखकर लोग उसके बौर को भूल जाते हैं। मिथुनं परिकल्पितं त्वया सहकारः फलिनी च नन्विमौ। 8/61 प्रिये! तुमने उस आम और प्रियंगु लता का विवाह ठीक किया था। अमदयत्सहकारलता मनः सकलिका कलिकामजितामपि। 9/33 नए बौरे हुए आम के वृक्षों की डालियाँ मलय के वायु से झूम उठीं मानो उन्होंने अभिनय सीखना प्रारंभ कर दिया हो। मनोजगन्धं सहकारभङ्गं पुराणशीधुं नवपाटलं च। 16/52 मनोहर गंधवाली आम की बौर, पुरानी मदिरा और नए पाटल के फूल लाकर।
For Private And Personal Use Only
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
436
कालिदास पर्याय कोश
सारथ्य
1. सारथ्य :-सहायक, सहकार।
स्वयमेव हि वातोऽग्नेः सारथ्यं प्रतिपद्यते। 10/40 क्योंकि आग की सहायता के लिए वायु से कहना नहीं पड़ता, वह तो स्वयं आग
को उभाड़ देता है। 2. सहायक :-सहायता करने वाला, सहकार।
स कुलोचितमिन्द्रस्य सहायकमुपेयिवान्। 17/5 अपने कुल की चलन के अनुसार कुश भी एक युद्ध में इन्द्र की सहायता करने गए।
सीता
1. जनकात्मजा :-[जन् + णिच् + ण्वुल् + आत्मजा] जनक की पुत्री सीता का
विशेषण। लङ्केश्वर प्रणति भङ्गदृढ़व्रतं तद्बन्धं युगं चरणयोर्जनकात्मजायाः। 13/78 सीताजी के जिन चरणों ने रावण की प्रणय-प्रार्थना को दृढ़ता पूर्वक ठुकरा दिया था। इत्युक्तवन्तं जनकात्मजायां नितान्त रूक्षाभिनिवेशमीशम्। 14/43 'सीताजी की दशा पर दया करके, उसका पक्ष लेकर मेरे इस निश्चय का विरोध
मत करो', जब राम ने यह कहा तो। 2. जानकी :-[जनक + अण् + ङीप्] जनक की पुत्री सीता, राम की भार्या।
जानकी विषवल्लीभिः परीतेव महौषधिः। 12/61 चारों ओर राक्षसियों से घिरी सीताजी ऐसी लग रही थीं, जैसे विष की लताओं
के बीच में संजीवनी बूटी हो। 3. पार्थिवी :-[पार्थिव + ङीप्] सीता का विशेषण, धरती की पुत्री।
पार्थिवीमुदवहद्रघूद्वहो लक्ष्मणस्तदनुजामथोर्मिलाम्। 11/54 राम का सीता से और लक्ष्मण का सीता जी की छोटी बहन उर्मिला से विवाह
हुआ। 4. मैथिलसुता :-[मिथिलायां भव:-अण् + सुता] सीता का विशेषण।
For Private And Personal Use Only
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
437
रामेण मैथिल सुतां दशकण्ठकृच्छ्रात्प्रत्युद्धृतां धृतिमयीं भरतो ववन्दे।
13/77 वैसे ही राम ने रावण रूपी संकट से जिसे उबार लिया था, उस विमान में बैठी
हुई सीताजी को भरतजी ने जाकर प्रणाम किया। 5. मैथिली :-[मिथिलायां भवः + ङीप्] सीता का नाम। पुरमविशदयोध्यां मैथिली दर्शिनीनां कुवलयित गवाक्षां लोचनैरङ्गनानाम्।
11/93 फिर वे उस अयोध्या नगरी में पहुँचे, जहाँ सीताजी को देखने के लिए उत्सुक, नगर की सुंदर स्त्रियों की आँखें झरोखों में कमल के समान दिखाई पड़ रही थीं। स जहार तयोर्मध्ये मैथिली लोक शोषणः। 12/29 उस राक्षस ने राम और लक्ष्मण के बीच से सीताजी को हर लिया। संरम्भं मैथिली हासः क्षण सौम्यां निनाय ताम्। 12/36 वैसे ही सीताजी को हँसता देखकर, क्षण-भर के लिए सुंदर रूप धारण करने वाली शूर्पणखा भी एकदम बिगड़ गई। इत्युक्त्वा मैथिली भर्तुरङ्के निवेशिती भयात्। 12/38 सीताजी तो यह सुनते ही डर के मारे राम की ओट में जा छिपी। स रावणहृतां ताभ्यां वचसाचष्ट मैथिलीम्। 12/55 वह राम-लक्ष्मण से बोला कि सीताजी को रावण ले गया। तं दधन्मैथिलीकण्ठनिर्व्यापारेण बाहुना। 15/56 उन आभूषणों को, जो सीताजी के वन चले जाने से उनके कंठ में पड़ने से वंचित हो रहे थे, राम ने अपनी भुजाओं में। ताः स्वचारित्रमुद्दिश्य प्रत्याययतु मैथिली। 15/73
यदि सीता अपनी शुद्धता का प्रमाण देकर प्रजा को विश्वास दिलावें तो। 6. रघुवीरपत्नी :-सीता का विशेषण।
श्वश्रूजनानुष्ठितचारुवेषां कीरथस्थां रघुवीरपत्नीम्। 14/13 सीताजी उस समय पालकी पर बैठी चल रही थीं, उन्हें कौशल्या आदि सासों ने
बड़े मनोहर ढंग से वस्त्र और आभूषणों से सजा रखा था। 7. विदेहाधिपदुहिता :-सीता का विशेषण।
For Private And Personal Use Only
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
438
कालिदास पर्याय कोश स पौर कार्याणि समीक्ष्य काले रेमे विदेहाधिपतेर्दुहित्रा। 14/24 वे ठीक समय पर प्रजा का काम देखभाल कर सीताजी के साथ रमण भी करते
थे। 8. विदेहाधिपसुता :-सीता का विशेषण।
बभौ तमनुगच्छन्ती विदेहाधिपतेः सुता। 12/26
उनके पीछे-पीछे चलने वाली सीता साक्षात् लक्ष्मी ही लगती थीं। 9. वैदेहसुता :-सीता।
त्यक्ष्यामि वैदेहसुतां पुरस्तात्समुद्रनेमिं पितुराज्ञयेव। 14/39
मैं सीता को वैसे ही छोड़ दूंगा, जैसे पिता की आज्ञा से मैंने राज्य छोड़ दिया था। 10. वैदेही :-[विदेह + अण् + ङीप्] सीता।
रामोऽपि सह वैदेह्या वने वन्येन वर्तयन्। 12/20 उधर राम भी सीता के साथ वन में कंद मूल खाते हुए युवावस्था में ही व्रत करने लगे। इतस्ततश्च वैदेही मन्वेष्टुं भर्तृचोदिताः। 12/59 वैसे ही वानर भी इधर-उधर भटक कर सीताजी की खोज करने लगे। हृदयं स्वयमायातं वैदेह्या इव मूर्तिमत्। 12/64 राम को वैसा ही आनंद हुआ, मानो साक्षात् सीताजी का हृदय ही अपने आप चला आया हो। वैदेहि पथ्यामलयाद्विभक्तं मत्सेतुना फेनिलमम्बुराशिम्। 13/2 हे सीते! इस फेन से भरे हुए समुद्र को तो देखो जिसे मेरे बनाए हुए पुल ने मलय पर्वत तक दो भागों में बाँट दिया है। अयोधनेनाय इवाभितप्तं वैदेहिबन्धोर्हदयं विदद्रे। 14/33 इस भीषण कलंक को सुनकर सीतापति राम का हृदय वैसे ही फट गया, जैसे घन की चोट से तपाया हुआ लोहा फट जाता है। तन्मा व्यथिष्टा विषयान्तरस्थं प्राप्तासि वैदेहि पितुर्निकेतम्। 14/72 बेटी सीता! यहाँ भी तुम अपने पिता का घर समझो और शोक छोड़ दो। श्लाघ्यस्त्यागोऽपि वैदेह्याः पतयुः प्राग्वंशवासिनः। 15/61 सीता के त्याग से राम की एक प्रशंसा यह भी हुई, कि राम ने किसी दूसरी स्त्री से अपना विवाह नहीं किया।
For Private And Personal Use Only
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
11. सीता : - [ सि + त पृषो० दीर्घः] मिथिला के राजा जनक की पुत्री का नाम,
राम की पत्नी का नाम ।
स सीतालक्ष्मण सखः सत्याद्गुरुमलोपयन् । 12/9
अपने पिता के वचन सत्य करने के लिए वे सीता और लक्ष्मण के साथ केवल ।
कदाचिदङ्के सीतायाः शिश्ये किंचिदिव श्रमात्। 12/21
एक बार वे थके हुए सीताजी की गोद में सिर रखे।
सा सीता संनिधावेव तं वव्रे कथितान्वया । 12 / 33
439
पहले तो उसने अपने कुल का परिचय दिया और फिर सीता जी के सामने ही कहने लगी ।
निदधे विजयाशंसां चापे सीतां च लक्ष्मणे । 12/44
इन्हें तो हम अकेले ही अपने धनुष से जीत लेंगे, यह सोचकर उन्होंने सीता की रक्षा का भार लक्ष्मण को सौंप दिया।
जहार सीतां पक्षीन्द्रप्रयासक्षणविघ्नितः । 12 / 53
सीताजी को चुरा कर लंका ले गया, मार्ग में गृद्धराज जटायु उससे लड़ा भी पर वह कुछ न कर सका ।
तौ सीतान्वेषिणौ गृध्रं लून पक्षमपश्यताम् । 12 / 54
राम और लक्ष्मण अब सीता को ढूँढ़ने लगे, उन्होंने मार्ग में पंख कटे हुए जटायु को देखा।
निर्वाप्य प्रियसंदेशैः सीतामक्षवधोद्धतः । 12/63
पहले तो उन्होंने रामजी का प्यार भरा संदेश सुनाकर सीताजी को ढाढ़स बँधाया ।
सीतां मायेति शंसन्ती त्रिजटा समजीवयत् । 12 / 74
पर जब त्रिजटा ने सीता जी को समझाया कि यह सब राक्षसी माया है, तब सीताजी की जान में जान आई।
तस्य स्फुरति पौलस्त्यः सीता संगमशंसिनि । 12/90
जो फड़कती हुई शुभ सूचना दे रही थी, कि अब सीताजी के प्राप्त होने में देर नहीं है, उस भुजा में रावण ने ।
क्लेशावहा भर्तुरलक्षणाहं सीतेति नाम स्वमुदीरयन्ती । 14/5 "मैं ही पति को कष्ट देने वाली कुलक्षणा सीता हूँ" - यह कहते हुए । सीतास्वहस्तोपहृता यपूजान् रक्षः कपीन्द्रान्विससर्ज रामः । 14/19
For Private And Personal Use Only
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
440
कालिदास पर्याय कोश
राम ने उन राक्षसों और वानरों के सेनापतियों को विदा किया, जिनकी चलते समय सीताजी ने स्वयं अपने हाथों से पूजा की। आनन्दयित्री परिणेतुरासीदनक्षरव्यञ्जित दोहदेन। 14 / 26 सीताजी के गर्भ के लक्षणों को देखकर राम बड़े प्रसन्न हुए ।
स्वमूर्ति लाभ प्रकृतिं धरित्रीं लतेव सीता सहसा जगाम। 14/54 जैसे लता सूखकर पृथ्वी पर गिर पड़ती है, वैसे ही सीता जी भी अपनी माँ पृथ्वी की गोद में गिर पड़ीं।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सीता तमुत्थाप्य जगाद वाक्यं प्रीतास्मि ते सौम्य चिराय जीव । 14/59 सीताजी उठीं और लक्ष्मण से बोलीं :- हे सौम्य ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम बहुत दिनों तक जियो ।
तमश्रु नेत्रावरणं प्रमुज्य सीता विलापाद्विरता ववन्दे । 14 / 71
उन्हें देखकर सीताजी ने आँसू पोंछकर, चुपचाप उन्हें प्रणाम किया।
शशंस सीतापरिदेवनान्तमनुष्ठितं शासनमग्रजाय । 14 / 83 सीताजी ने रो-रोकर जो बातें कही थीं, लक्ष्मण जी ने राम से यह सोचकर कह
दीं ।
सीतां हित्वा दशमुखरिपुर्नोपयेमे यदन्यां तस्या एव प्रति कृतिसखो यत्क्रतूना
जहार। 14/87
राम ने सीता को त्यागकर किसी दूसरी स्त्री से विवाह नहीं किया, वरन अश्वमेध यज्ञ करते समय उन्होंने सीताजी की सोने की मूर्ति को ही, अपने बाएँ बैठाया
था।
कृत सीता परित्यागः स रत्नाकर मेखलाम् । 15/1
सीताजी को छोड़ देने पर, राम जी ने केवल समुद्रों से घिरी हुई पृथ्वी का ही भोग किया।
रामं सीतापरित्यागाद सामान्य पतिं भुवः । 15/39
सीताजी को छोड़ देने पर अब राम एक मात्र पृथ्वी के ही स्वामी रह गए हैं।
कविः कारुणिको वव्रे सीतायाः संपरिग्रहम् । 15 / 71
दयालु ऋषि ने राम से कहा, कि सीताजी को स्वीकार कर लो।
स्वर संस्कार वत्यासौ पुत्राभ्यामथ सीतया । 15/76
पुत्रों के साथ राम के पास जाती हुई सीताजी ऐसी लगती थीं, मानो स्वर और संस्कार के साथ गायत्री सूर्य के पास जा रही हों ।
For Private And Personal Use Only
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
441
रघुवंश
आचभ्योदीरयामास सीता सत्यां सरस्वतीम्। 15/80 उसका आचमन करके सीताजी ने यह वचन कहा। सा सीतामङ्कमारोप्य भर्तृप्रणिहितेक्षणाम्। 15/84 उन्होंने उन सीताजी को अपनी गोद में ले लिया, जो राम की ओर टकटकी बाँधे
थीं।
धरायां तस्य संरम्भं सीताप्रत्यर्पणैषिणः। 15/85 राम को पृथ्वी पर बड़ा क्रोध आया और पृथ्वी से सीता को लौटा लेने के लिए। रामः सीतागतं स्नेहं निदधे तदपत्ययोः। 15/86 अब राम अपने पुत्रों से उतना ही प्रेम करने लगे, जितना सीताजी से करते थे।
सुख 1. शर्म :- (पुं०) [शृ + मनिन्] प्रसन्नता, आनन्द, खुशी।
संततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे। 1/69 अच्छी संतान सेवा-सुश्रूषा करके इस लोक में तो सुख देती ही है, साथ ही
परलोक में भी सुख देती है। 2. सुख :-[सुख + अच्] प्रसन्न, आनन्दित, हर्षपूर्ण, खुश, रुचिकर, मधुर,
मनोहर, सुहावना। अगृनुराददे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्वभूत्। 1/21 लोभ छोड़कर धन इकट्ठा करते थे और मोह छोड़कर संसार के सुख भोगते थे। सेव्यमानौ सुखस्पर्शः शालनिर्यास गन्धिभिः। 1/38 वन के वृक्षों की पाँतों को धीरे-धीरे कँपाता हुआ पवन, उनके शरीर को सुख देता हुआ, उनकी सेवा करता चल रहा था। लोकान्तरसुखं पुण्यं तपोदान समुद्भवम्। 1/69 तपस्या करने से और ब्राह्मणों तथा दीनों को दान देने से जो पुण्य मिलता है, वह केवल परलोक में सुख देता है। ययावनुद्धात सुखेन मार्ग स्वेनेव पूर्णेन मनोरथेन। 2/72 उस पर सुख से चढ़कर जाते हुए वे ऐसे लगते थे, मानो वे अपने सफल मनोरथ पर बैठे हुए जा रहे हों, रथ पर नहीं। वक्षस्य संघट्टसुखं वसन्ती रेजे सपत्नीरहितेव लक्ष्मीः। 14/86
For Private And Personal Use Only
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
442
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
मानो बिना सौत की होकर राज्य लक्ष्मी ही, उनके हृदय में सुख से निवास करने
लगी ।
सुदक्षिणा
1. मागधी : - [ मगध् + अण् + ङीप् ] मगध देश की राजकुमारी, सुदक्षिणा का
विशेषण |
तयोर्जगृहतुः पादान्राजा राज्ञी च मागधी । 1 / 57
राजा दिलीप और मगध की राजकुमारी रानी सुदक्षिणा ने चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया ।
न मे ह्रिया शंसति किंचिदीप्सितं स्पृहावती वस्तुषु केषु मागधी । 3/5 राजा दिलीप यह समझते थे कि सुदक्षिणा बड़ी लजीली है और अपनी इच्छा हमसे प्रकट नहीं करती है।
तथा नृपः सा च सुतेन मागधी ननन्दतुस्तत्सृदशेन तत्समौ । 3/23 वैसे ही राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा भी उन दोनों के ही समान तेजस्वी पुत्र पाकर बड़े प्रसन्न हुए ।
2. सुदक्षिणा : - [ सु + डु + दक्षिणा ] राजा दिलीप की पत्नी का नाम । प्रदक्षिणी कृत्य पयस्विनीं तां सुदक्षिणा साक्षतपात्रहस्ता । 2/21 पहले तो सुदक्षिणा ने हाथ में अक्षत आदि सामग्री लेकर नंदिनी की पूजा करके प्रदक्षिणा की।
वंशस्य कर्तारमनन्तकीर्तिं सुदक्षिणायां तनयं ययाचे | 2/64
यह वर माँगा कि मेरी प्यारी रानी सुदक्षिणा के गर्भ से ऐसा यशस्वी पुत्र हो, जिससे सूर्यवंश बराबर बढ़ता चले।
निदानमिक्ष्वाकुकुलस्य संततेः सुदक्षिणा दौर्हृदलक्षणं दधौ । 3/1
धीरे-धीरे रानी सुदक्षिणा के शरीर में उस गर्भ के लक्षण दिखाई देने लगे, जो इस बात के प्रमाण थे, कि अब इक्ष्वाकु वंश बराबर चलता रहेगा ।
नृपस्य नाति प्रमनाः सदोगृहं सुदक्षिणा सूनुरपि न्यवर्तत। 3/67 सुदक्षिणा के पुत्र रघु भी अपने पिता राजा दिलीप की सभा में खिन्न मन से लौट आए ।
For Private And Personal Use Only
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
रघुवंश
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सुन्दरी
1. सुन्दरी : - [ सुन्द + अर् + ङीप् ] मनोरम स्त्री । बभूवुरित्थं पुरसुन्दरीणां त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि । 7/5
उनको देखने के लिए नगर की सुंदरियाँ अपना-अपना काम छोड़कर । 2. सुवदना :- सुन्दरी, मनोरम स्त्री ।
सुवदनावदनासवसंभृतस्तदनुवादिगुणः कुमोद्गमः । 9 / 30
बकुल के जो वृक्ष सुन्दरी स्त्रियों के मुख की मदिरा के कुल्ले से फूल उठे थे ।
सुर
1. दिवौकस : - [ दिव + औकसः ] स्वर्ग का रहने वाला, देवता ।
न केवलं सद्मनि मागधीपतेः पथि व्यजृम्भन्त दिवौकसामपि। 3/19 केवल सुदक्षिणा के पति दिलीप के ही राजभवन में ही नहीं, वरन् आकाश में देवताओं के यहाँ भी नाच-गान हो रहा था ।
भोगिभोगासनासीनं ददृशुस्तं दिवौकसः । 10/7
देवताओं ने देखा कि विष्णु भगवान् शेष- शय्या पर लेटे हैं।
2. देव :- [ दिव् + अच्] देव, देवता ।
निशम्य देवानुचरस्य वाचं मनुष्यः देवः पुनरप्युवाच । 2/52
राजा ने एक ओर देवताओं के अनुचर सिंह की बातें सुनी और दूसरी ओर कातर गाय को देखा, फिर वे बोले ।
अथोरगारव्यस्य पुरस्य नाथं दौवारिकी देवसरूपमेत्य । 6/59 तब सुनंदा उसे देवता के समान मनोहर नागपुर के राजा के पास । साधयाम्यहम विघ्नमस्तु ते देवकार्यमुपपादयिष्यतः । 11 / 91 आप देवताओं का जो कार्य करने के लिए आए हैं, वह निर्विघ्न पूरा हो ।
वृषेव देवो देवानां राज्ञां राजा बभूव सः । 17/77
जैसे इन्द्र देवताओं के देवता हैं, वैसे ही वे भी राजाओं के राजा हो गए।
443
For Private And Personal Use Only
दधुः शिरोभिर्भूपाला देवाः पौरंदरीमिव । 17/79
जैसे देवता लोग इंद्र की आज्ञा मानते हैं, वैसे ही राजा लोग भी अपने छत्र
उतारकर ।
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
444
कालिदास पर्याय कोश 3. देवता :-[देव + तल् + टाप्] देव, सुर।
शुश्राव कुंजेषु यशः स्वमुच्चैरुद्नीयमानं वनदेवताभिः। 2/12 राजा दिलीप सुन रहे थे, कि वन-देवता वन की कुंजों में ऊँचे स्वर से उनका यश गा रहे हैं। तां देवता पित्रतिथिक्रियार्थामन्वग्ययौ मध्यमलोकपालः। 2/16 पृथ्वी का पालन करने वाले राजा दिलीप भी वशिष्ठ ऋषि के देवताओं के लिए यज्ञ, श्राद्ध, अतिथि-पूजा आदि धर्म के कार्यों के लिए दूध देने वाली। नृपतिमन्यसेवत देवता सकमला कमलाघवमर्थिषु। 9/16 जिस देवता या जिस राजा के यहाँ हाथ में कमल धारण करने वाली पतिव्रता लक्ष्मी रहती। तस्याः पुरः संप्रति वीतनाथां जानीहि राजन्नधिदेवतां माम्। 16/9 तब जिस निर्दोष अयोध्यापुरी के निवासियों को अपने साथ लेते गए, मैं उसी देवता रहित (अनाथ) अयोध्या की नगर देवी हूँ। अयोध्यादेवताश्चैनं प्रशस्तायतनार्चिताः। 17/36
अयोध्या के बड़े-बड़े मंदिरों में जिन देवताओं की पूजा की गई। 4. मरुत :-[मृ + उत्] वायु, देवता।।
वैमानिकानां मरुतापमश्यदाकृष्टलीलानरलोकपालान्। 6/1 राजा लोग ऐसे सुन्दर लग रहे हैं, जैसे विमानो पर देवता बैठे हुए हों। नृपतयः शतशो मरुतो यथा शतमखं तमखण्डित पौरुषम्। 9/13 जैसे देवता लोग इंद्र के चरण छूते हैं, वैसे ही सैकड़ों राजाओं ने पराक्रमी दशरथ के चरणों पर। वैमानिकाः पुण्यकृतस्त्यजन्तु मरुतां पथि। 10/46 अब आप देवता लोग निडर होकर, अपने-अपने विमानो पर चढ़कर आकाश में घूमिए। अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्णमेघस्तिरोदधे। 10/48 जैसे कोई बादल धान के खेत पर जल बरसा कर चला जाए, वैसे ही देवताओं पर मधुर वचन बरसाकर विष्णु भगवान भी अंतर्धान हो गए। मरुतां पश्यतां तस्य शिरांसि पतितान्यपि। 12/101 रावण के करे हुए सिरों को देखकर भी देवताओं को विश्वास नहीं हुआ।
For Private And Personal Use Only
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
445
रघुवंश 5. विबुध :-[विशेषेण बुध्यते = बुध + क] सुर, देवता।
ते रामाय वधोपायमाचरव्युर्विबुधद्विषः। 15/5 तब मुनियों ने राम को बताया, कि जब तक देवताओं के शत्रु लवणासुर के हाथ में भाला रहेगा, तब तक उसका हारना कठिन है। स विभुर्विबुधांशेषु प्रतिपन्नात्ममूर्तिषु। 15/102 देवताओं के अंशधारी रीक्ष-वानरों ने भी अपना देवरूप धारण कर लिया। सुर :-[सुष्ठु राति ददात्यभीष्टम् :-सु + रा + क] देव, देवता। पर्याय पीतस्य सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाघ्यतरो हि वृद्धोः। 5/16 आप उस चंद्रमा के समान बड़े सुंदर लग रहे हैं, जिसकी सारी कलाएँ धीरे-धीरे देवताओं ने पी डाली हो। इति प्रसादयामासुस्ते सुरास्तमधोक्षजम्। 10/33 उनकी स्तुति करके देवताओं ने उन्हें प्रसन्न कर लिया। अवभृथ प्रयतो नियतेन्द्रियः सुरसमाजसमाक्रमणोचितः। 9/22 यज्ञ समाप्त हो जाने पर, जब वे स्नान करके पवित्र हुए, तब देवताओं के साथ बैठने योग्य संयमी राजा दशरथ ने। तस्मै कुशलसंप्रश्नव्यञ्जित प्रीतये सुराः। 10/34 विष्णु भगवान ने प्रसन्न होकर देवताओं से कुशल-मंगल पूछा। पुरुहूतप्रभृतयः सुरकार्योद्यतं सुराः। 10/49 जब भगवान विष्णु देवताओं का कार्य करने चले, तब इंद्र आदि देवताओं ने भी अपने-अपने अंश उनके साथ भेज दिए। कृतप्रतिकृतप्रीतैस्तयोर्मुक्तां सुरासुरैः। 12/94 देवता राम के ऊपर और राक्षस रावण के ऊपर फूलों की बरसा कर रहे थे। उपनत मणिबन्ध मूर्ध्निपौलस्त्यशत्रोः सुरभि सुरविमुक्तं पुष्पवर्षं पपात।
_____ 12/102 जिस राम पर राज्याभिषेक का जल छिड़का जाने वाला था, उन्हीं के सिर पर देवताओं ने वे फूल बरसाए, जिनकी सुगंध पाकर। क्वचित्पथा संचरते सुराणां क्वचिद्घनानां पततां क्वचिच्च। 13/19 यह कभी तो देवताओं के मार्ग में उड़ता चलता है, कभी बादलों के मार्ग में पहुँच जाता है, तो कभी पक्षियों के मार्ग में उड़ने लगता है।
For Private And Personal Use Only
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
446
कालिदास पर्याय कोश निर्वत्यैवं दशमुखशिरश्छेदकार्यं सुराणां। 15/103 विष्णु भगवान ने इस प्रकार रावण का वध करके देवताओं का कार्य पूरा किया।
सुरभि 1. सुगन्धि :-[सु + गन्धिः ] खुशबूदार, सुरभित, सुरभि ।
अंय सुजातोऽनुगिरं तमाल: प्रवालमादाय सुगन्धि यस्य। 13/49 पहाड़ के ढाल पर जो तमाल का वृक्ष दिखाई दे रहा है यह वही है, जिसकी सुगंधित कोपलों का। सुरभि :-[सु + रभ् + इन्] मधुर गंध युक्त, खुशबूदार, सुगंध युक्त, सुगंध, खुशबू, सुवास। तदाननं मृत्सुरभि क्षितीश्वरी रहस्यसुपाघ्राय न तृप्ति माययौ। 3/3 वैसे ही मिट्टी खाने से रानी सुदक्षिणा का जो मुँह सोंधा हो गया था, उसे एकांत में बार-बार सूंघकर भी राजा दिलीप अघाते नहीं थे। सुरभि गन्धिषु शुश्रु विरे गिरः कुसुमितासु मिता वनराजिषु। 9/34 जिस समय मनहर सुगंध वाली वन की लताओं पर बैठकर कोयल ने कूक सुनाई तो। ललित विभ्रमबन्धविचक्षणं सुरभिगन्धपराजित केसरम्। 9/36 चितवन आदि मधुर हाव-भाव कराने को उकसाने वाले और बकुल को भी अपनी गंध से हराने वाले। वायवः सुरभिपुष्परेणुभिश्छायया च जलदाः सिषेविरे। 11/11 वायु ने सुगंधित पराग फैलाकर और बादलों ने शीतल छाया देकर, मार्ग में उन दोनों की बड़ी सेवा की।
सूर्य 1. अंशुमान :-[अंशु + मान्] सूर्य। विरराज रथप्रष्ठैर्वालखिल्यैरिवांशुमान्। 15/10 जैसे रथ पर चढ़े हुए सूर्य को वालखिल्य नाम के ऋषि लोग, मार्ग दिखाते चलते
हैं। 2. अरुण :-[ऋ + उनन्] सूर्य।
यावत्प्रतापनिधिराक्रमते न भानुरहायतावदरुणेन तमो निरस्तम्। 5/71
For Private And Personal Use Only
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
447
सूर्य के उदय होने के पहले ही उनका चतुर सारथी अरुण, संसार से अंधेरे को भगा देता है। यह ठीक भी है, क्योंकि जब सेवक चतुर रहता है, तब स्वामी स्वयं कार्य करने का कष्ट नहीं उठाता। शस्त्रक्षताश्वद्विपवीरजन्मा बालारुणोऽभूदुधिर प्रवाहः। 7/42 शस्त्रों से घायल घोड़ों, हाथियों और योद्धाओं के शरीर से निकला हुआ लहू,
प्रातः काल के सूर्य की लाली जैसा लगने लगा। 3. अर्क :-[अ + घञ्- कुत्वम्] सूर्य, प्रकाश किरण ।
नभसा निभृतेन्दुना तुलामुदितार्केण समारोह तत् 8/15 उस आकाश के समान लग रहा था, जिसमें एक ओर चंद्रमा छिप रहे हों और दूसरी ओर सूर्य निकल रहे हों। बालार्कप्रतिमेवाप्सु वीचिभिन्ना पतिश्यतः। 12/100
जैसे चंचल लहरों में प्रातः काल के सूर्य का प्रतिबिंब शोभा देता है। 4. अहरपति :-[न जहाति त्यजति सर्वथा परिवर्तनं, न + हा + कनिन न०ता० +
पतिः ] सूर्य। द्यावापृथिव्योः प्रत्यग्रमहर्पति रिवातपम्। 10/54
जैसे सूर्य अपनी नई धूप पृथ्वी और आकाश दोनों में बाँट देता है। 5. उष्णतेज :-[उष् + नक् + तेजः] सूर्य।
आरोप्य चक्रभ्रममुष्णतेजास्त्वष्टेव यत्नोल्लिखितो विभाति। 6/32 ये पतली गोल कमर वाले सूर्य के समान जो राजा चमक रहे हैं, ऐसा जान पड़ता
है, विश्वकर्मा ने अपने शान चढ़ाने के चक्र पर इन्हें बड़े यत्न से खराद दिया है। 6. उष्णदीधिति :-[उष् + नक् + दीधितिः] सूर्य।
अनृणत्वमुपेयिवान्बभौ परिधेर्मुक्त इवोष्ण दीधितिः। 8/30 अपने पितरों के ऋण से मुक्त होकर अज वैसे ही शोभित हो रहे हैं, जैसे मंडल
से छूटकर सूर्य शोभा देता है। 7. उष्णरश्मि :-[उष् + नक् + रश्मिः ] सूर्य।
यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं लोकेन चैतन्यमिवोष्णरश्मेः। 5/4 जैसे सूर्य अपने प्रकाश से सोए हुए संसार को जगा देता है, वैसे ही जिस गुरु ने आपको ज्ञान की ज्योति देकर जगाया है। तस्मादपावर्तत कुण्डिनेश: पर्वात्यये सोम इवोष्णरश्मेः। 7/33
For Private And Personal Use Only
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
448
www. kobatirth.org
कालिदास पर्याय कोश
कुण्डिनपुर के राजा भोज फिर वैसे ही लौट आए, जैसे अमावस्या होने पर सूर्य
के पास से चंद्रमा लौट आता है।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
8. गभस्ति :- [ग: + स् + क्तिच्] सूर्य ।
विभावसुः सारथिनेव वायुना घनव्यापयेन गभस्तिमानिव । 3 / 37
जैसे वायु की सहायता से अग्नि, शरद ऋतु के खुले आकाश को पाकर सूर्य प्रचंड हो जाता है।
9. तपन : - [ तप् + ल्युट् ] सूर्य ।
यथ प्रह्लादनाच्चन्द्रः प्रतातात्तपनो यथा । 4/12
जैसे सबको आनंद देकर चंद्रमा ने अपना चंद्रमा नाम सार्थक किया और सबको तपाकर सूर्य ने अपना तपन नाम सार्थक किया है।
10. दशरश्मिशत : - [ दंश् + कनिन् + शतम् + रश्मिः ] सूर्य ।
दशरश्मि शतोपमद्युतिं यशसा दिक्षु दशस्वपि श्रुतम् । 8/29
जो दक्ष, सौ किरणों वाले सूर्य के समान तेजस्वी थे, जिनका यश दसों दिशाओं में फैला था ।
11. दिनकर :- [ द्युति तमः, दो (दी) + नक् ह्रस्वः + करः ] सूर्य । दिनकराभिमुखा रणरेणवो रुरुधिरे रुधिरेण सुरद्विषाम् । 9/23
कई बार सूर्य पर छाई हुई युद्ध की धूल, राक्षसों के रक्त से सींचकर दबाई है। 12. दिवाकर :- [ दिव + असच् + क्विच कर: ] सूर्य ।
दिवाकरादर्शन बद्धकोशे नक्षत्रनाथांशुरिवारविन्दे । 6 / 66
जैसे सूर्य के न दिखाई देने पर भी बंद कमल के भीतर चंद्रमा की किरणें नहीं पहुँच पातीं।
पश्यतिस्म जनता दिनात्यये पार्वणौ शशिदिवाकराविव । 11/82
इस प्रकार वे दोनों ऐसे जान पड़ने लगे, जैसे वे संध्या के समय के चंद्रमा और
सूर्य हों । भेजिरे
नवदिवाकरातपस्पृष्टपङ्कजतुलाधिरोहणम् । 19 / 8
उस चरण का नमस्कार करके अराधना करते, जो प्रभात के सूर्य की लाल किरणों से भरे हुए कमल के समान था ।
13. पतंग : - [ पतन् उत्प्लवन् गच्छति :- गम् + ड, नि०] सूर्य ।
प्रचक्रमे पल्लवरागताम्रा प्रभा पतङ्गस्य मुनेश्च धेनुः । 2 / 15
For Private And Personal Use Only
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
449
नए पत्तों की ललाई के सामने सूर्य की ललाई चारों ओर फैल रही थी, उधर नंदिनी गाय भी आश्रम की ओर लौट पड़ी। कौशल्य इत्युत्तरकोशलानां पत्युः पतङ्गान्वय भूषणस्य। 18/27 उत्तर कोशल के स्वामी और सूर्य कुल के भूषण उन हिरण्यनाभ को कौशल्य
नाम का पुत्र हुआ। 14. प्रभाकर :-[प्र + भा + अङ् + टाप् + करः] सूर्य।
कृशानुरपधूमत्वात्प्रसन्नत्वात्प्रभाकरः। 10/74
अग्नि का धुआँ निकल गया और सूर्य भी निर्मल हो गए। 15. भानु :-[भा + नु] सूर्य।
प्रतापस्तस्य भानोश्चयुगपद्व्यानशे दिशः। 4/15 खुले आकाश में चमकते हुए प्रचंड सूर्य का प्रकाश चारों ओर फैल गया था, वैसे ही रघु का प्रचंड प्रताप भी चारों ओर फैल गया। यावत्प्रतापनिधिराक्रमते न भानुरहाय तावदरुणेन तमो निरस्तम। 5/71 सूर्य के उदय होने के पहले ही उनका चतुर सारथी अरुण संसार से अंधेरे को भगा देता है, यह ठीक भी है, क्योंकि जब सेवक चतुर रहता है, तब स्वामी को
स्वयं कार्य नहीं करना पड़ता। 16. भास्कर :-[भास् + क्विप् + करः] सूर्य।
रेजतुर्गतिवशात्प्रवर्तिनौ भासकरस्य मधुमाधवाविव। 11/7 मानो सूर्य के पीछे-पीछे चैत्र और वैशाख मास चले जा रहे हों। ज्योतिरिन्धननिपाति भास्करात्सूर्यकान्त इव ताडकान्तकः। 11/21 जैसे सूर्य, लकड़ी जलाने का तेज सूर्यकांत मणि को दे देता है, वैसे ही ताड़का के मरने से महर्षि विश्वामित्र। भास्करश्च दिश मध्युवास यां तां श्रिताः प्रतिभयं ववासिरे। 11/61 जिधर सूर्य था, उधर की सियारिनियाँ भयानक रूप से रोने लगीं। दक्षिणां दिशमृक्षेषु वार्षिकेष्विव भास्करः। 12/25
जैसे वर्षा के दस नक्षत्रों में ठहरता हुआ सूर्य, दक्षिण को घूम जाता है। 17. भास्वन :-[भास् + मतुप, मस्य वः] सूर्य।
ततः प्रतस्थे कौवेरी भास्वानिव रघुर्दिशम्। 4/66 जैसे सूर्य उत्तर की ओर घूम जाता है, वैसे ही रघु भी उत्तर की ओर घूम पड़े।
For Private And Personal Use Only
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
450
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
अगस्त्य चिह्ना दयनात्समीपं दिगुत्तरा भास्वति संनिवृत्ते । 16/44
मानो दक्षिण दिशा से सूर्य के लौट आने की प्रसन्नता में उत्तर दिशा ने आनंद के ठंडे आँसुओं के समान ।
18. रवि :- [ रु+ इ] सूर्य ।
दिशि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि । 4/49
दक्षिण दिशा में महाप्रतापी सूर्य का तेज भी मंद पड़ जाता है।
दिन मुखानि रविर्हिमनिग्रहैर्विमलयन्मलयं नगमत्यजत् । 9/25
सर्दी दूर करके, प्रातः काल का पाला हटाकर उसे और भी अधिक चमकाते हुए, सूर्य ने मलय पर्वत से विदा ली।
न खलु तावदशेषमपो हितुं रविरलं विरलं कृतवाह्निमम् । 9/32
अभी वह ठंड भली प्रकार दूर नहीं हुई थी, पर हाँ सूर्य ने कुछ जाड़ा कम अवश्य कर दिया था ।
लक्ष्यते स्म तदनन्तरं रविर्बद्ध भीमपरिवेषमण्डलः । 11/59
उससे सूर्य के चारों ओर एक बड़ा भारी मंडल बन गया और वह ऐसा लगने
लगा।
राजर्षिवंशस्य रविप्रसूतेरुपस्थितः पश्यत कीदृशोऽयम् । 14 / 37
वैसे ही देखो, सूर्यवंशी राजर्षियों के कुल में मेरे कारण कैसा कलंक लग रहा है।
धूमादग्नेः शिखाः पश्चादुदया दंशवो रवेः । 17/34
आग की लपट धुआँ निकलने के पीछे उठती हैं और किरणें सूर्य के उदय होने के पीछे दिखाई देती हैं।
For Private And Personal Use Only
19. विवस्वत : - [ विशेषेण वस्ते आच्छादयति :- वि + वस् + क्विप् + मतुप् ]
सूर्य ।
नीहार मग्नो दिन पूर्व भाग: किंचित्प्रकाशेन विवस्वतेव । 7/60
जैसे कोहरे के दिन, प्रभात होने का ज्ञान धुंधले सूर्य को देखकर होता है।
उदधेरिव रत्नानि तेजांसीव विवस्वतः । 10/30
जैसे समुद्र के रत्न और सूर्य की किरणें गिनी नहीं जा सकती ।
अदृष्टम भवत्किंचिद्वयभ्रस्येव विवस्वतः । 17/48
जैसे खुले आकाश में सूर्य की किरणों के फैल जाने से कुछ भी छिपा नहीं रह
जाता ।
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
451
20. सविता :-[सू + तृच] सूर्य।
दिनान्ते निहितं तेजः सवित्रेव हुताशनः। 4/1 जैसे साँझ के सूर्य से तेज लेकर आग चमक उठती है। गगनमश्वखुरोद्धतरेणु भिसविता स वितानमिवाकरोत्। 9/50 तब उनके घोड़ों की टापों से इतनी धूल उठी, कि सूर्य के सामने आकाश में चँदोवा सा तन गया। अपुनात्सवितेवोभौ मार्गावुत्तर दक्षिणौ। 17/2 जैसे तेजस्वी सूर्य अपने प्रकाश से उत्तर और दक्षिण दोनों दिशाओं को पवित्र
कर देता है। 21. सूर्य :-[सरति आकाशे सूर्यः-सृ + क्यप्, नि०] सूरज ।
क्व सूर्य प्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः। 1/2 कहाँ तो सूर्य से उत्पन्न हुआ वह वंश, कहाँ मोटी बुद्धि वाला मैं। ग्रहैस्ततः पञ्चभिरुच्चसंश्ररसूर्यगैः सूचितभाग्य संपदम्। 3/13 जिसके सौभाग्यशाली होने की सूचना वे पाँच शुभ ग्रह दे रहे थे, जो उस समय उच्च स्थान पर थे और साथ में सूर्य के न होने से फल देने में समर्थ थे। सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टे: कल्पेत लोकस्य कथं तमित्रा। 5/13 जैसे सूर्य के रहते हुए संसार में अँधेरा नहीं ठहर पाता। सूर्यांशुसंपर्क समृद्ध रागैर्व्यज्यन्त एते मणिभिः फणस्थैः। 13/12 पर जब सूर्य की किरणों से इनकी मणियाँ चमक जाती हैं, तब ये साँप पहचान में आ जाते हैं। साहं तपः सूर्यनिविष्ट दृष्टिरूर्ध्वं प्रसूतेश्चरितुं यतिष्ये। 14/66 पर पुत्र हो जाने पर मैं सूर्य में दृष्टि बाँधकर ऐसी तपस्या करूँगी कि। ऋचे वोदर्चिषं सूर्यं रामं मुनिरुपस्थितः। 15/76 वाल्मीकि जी लव, कुश और सीताजी को साथ लेकर सूर्य के समान राम के आगे उपस्थित हुए। विडम्बयत्यस्तनिमग्नसूर्यं दिनान्तमुग्रानिल भिन्नमेघम्। 16/11
जैसे सूर्यास्त के समय की वह संध्या, जिसमें वायु के वेग से इधर-उधर छितराए हुए बादल दिखाई देते हों। समग्रशक्तौ त्वयि सूर्यवंश्ये सति प्रपन्ना करुणामवस्थाम्। 16/10
For Private And Personal Use Only
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
452
कालिदास पर्याय कोश आजकल तुम्हारे जैसे प्रतापी सूर्यवंशी राजा के होते हुए भी मेरी बहुत बुरी दशा हो गई है। विरराजोदिते सूर्ये भेरौ कल्पतरोरिव। 17/26 मानो सूर्योदय के समय सुमेरु पर्वत पर कल्पवृक्ष का प्रतिबिंब पड़ रहा हो। प्रजाः स्वतन्त्रयां चक्रेशश्वत्सूर्य इवोदितः। 17/74 जैसे निकलते हुए सूर्य के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं, वैसे ही उनके दर्शन से प्रजा के पाप भाग जाते थे। इन्दोरगतयः पद्मे सूर्यस्य कुमुदेंऽशवः। 17/75
चंद्रमा की किरणें कमलों में तथा सूर्य की किरणे कुमुदों में नहीं पैठ पातीं। 22. हरितामीश्वर :-[हृ + इति + ईश्वरः] सूर्य।
ततार विद्या: पवनातिपातिभिर्दिशो हरिद्भिर्हरितामिवेश्वरः। 3/30 जैसे सूर्य अपने सरपट दौड़ने वाले घोड़ों की सहायता से थोड़े ही समय में चारों दिशाओं को पार कर लेता है, वैसे ही रघु ने तीव्र बुद्धि की सहायता से चारों
विद्याएँ सीख लीं। 23. हरिदश्व :-[ह + इति + अश्वः] सूर्य।
पुपोष वृद्धिं हरिदश्वदीधितेरनु प्रवेशादिव बाल चन्द्रमाः। 3/22 जैसे शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चंद्रमा सूर्य की किरणें पाकर दिन-दिन बढ़ने लगता है। तस्यावसाने हरिदश्वधामा पित्र्यं प्रपेदे पदमश्वि रूपः। 18/23 उनके पीछे सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र राजा हुए और घोड़ों को समुद्र के तट पर ठहराया।
सैन्य 1. अनीक :-[अन् + ईकच्] सेना, सैन्य पंक्ति, सैनिक दस्ता, दल।
तस्यानीकैर्विसर्पद्भिरपरान्तजयोद्यतैः। 4/53
फिर भी उसके पास से जाती हुई रघु की सेना ऐसी लगती थी कि। 2. अनीकिनी :-[अनीकानां संघः-अनीक + इनि + ङीप्] सेना, सैन्य दल,
सैन्यश्रेणी। अनीकिनीनां समरेऽग्रयायी तस्यापि देवप्रतिमः सुतोऽभूत्। 18/10
For Private And Personal Use Only
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
453 उस क्षेमधन्वा को भी इंद्र के समान पुत्र हुआ, जो युद्ध में सेना के आगे-आगे
चलता था। 3. दण्ड :-[दण्ड् + अच्] सेना, सैन्यव्यवस्था का एक रूप, व्यूह।
तस्यदण्डवतो दण्डः स्वदेहान्न व्यशिष्यत। 17/62 युद्ध करने में समर्थ जो उनकी सेना थी, उसे दण्डधर अतिथि अपने उस शरीर
के समान ही प्यार करते थे। 4. ध्वजिनी :-[ध्वज + इनि + ङीप] सेना।
मत्स्यध्वजा वायुवशाद्विदीणैर्मुखैः प्रवृद्धध्वजिनीरजांसि। 7/40
वायु के कारण सेना की मछली के आकार वाली झंडियों के मुँह खुल गए थे। 5. पताकिनी :-[पताका + इनि + ङीप्] सेना।
रथवमरजोऽप्यस्य कुत एव पताकिनीम्। 4/82 जब रथ के पहियों की धूल से ही वह बहुत घबरा गया, तो फिर सेना से वह
लड़ता ही क्या। 6. बल :-[बल् + अच्] सेना, चमू, फौज, सैन्यदल।
परेण भग्नेऽपि बले महौजा ययावजः प्रत्यरिसैन्यमेव। 7/55 यद्यपि शत्रुओं ने अज की सेना को मारकर भगा दिया था, पर अज शत्रु की सेना में बढ़ते ही चले गए। कुल ध्वजस्तानि चलध्वजानि निवेशयामास बलीबलानि। 16/37 फहराती हुई ध्वजा वाली अपनी सेना को ठहरा दिया। यो नड्वलानीव गजः पेरषां बलान्यमृद्नान्नलिना भवक्तः। 18/5 (उस कमल के समान सुंदर मुख वाले राजा ने) शत्रुओं के बल को वैसे ही तोड़
डाला, जैसी हाथी नरकट के गढे को तोड़ डालता है। 7. वरूथिनी :-[वरूथ + इनि + ङीप्] सेना। चिल्किशु शतया वरूथिनीमुत्तरा इव नदीरयाः स्थलीम्। 11/58 जैसे बढ़ी हुई नदी की धारा आसपास की भूमि को उजाड़ देती है, वैसे ही एक दिन मार्ग में सेना के ध्वजारूपी वृक्षों को। अप्रबोधाय सुश्वाप गृधच्छाये वरूथिनी। 12/50 वह राक्षसों की सेना गिद्धों के पंखों की छाया में सदा के लिए सो गई। रामं पदातिमालोक्य लंकेन च वरूथिनम्। 12/84
For Private And Personal Use Only
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
454
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
रावण को सैन्य रथ पर और राम को पैदल देखकर इंद्र ने । तस्य प्रयातस्य वरुथिनीनां पीडामपर्याप्तवतीव सोढुम् | 16 / 28 चलते समय कुश की सेना का भार पृथ्वी नहीं संभाल सकी। 8. वाहिनी : - [ वाहो अस्त्यस्याः इनि ङीप् ] सेना ।
प्रत्यग्रहीत्पार्थिव वाहिनीं तां भागीरथीं शोण इवोत्तरंग : | 7/36
स्वयं उस सेना को रोककर उसी प्रकार खड़े हो गए, जैसे बाढ़ के दिनों में ऊँची तरंगों वाला शोण नद गंगाजी की धारा को रोक लेता है।
आशिषं प्रयुयुजे न वाहिनीं सा हि रक्षणविधौ तयोः क्षमा । 11/6
राजा ने उनकी सहायता के लिए अपना आशीर्वाद ही दिया, सेना नहीं। क्योंकि उनका आशीर्वाद ही उनकी रक्षा के लिए पर्याप्त था ।
तेजसः सपदि राशिरुत्थितः प्रादुरास किल वाहिनीमुखे । 11 /63
इसी बीच अचानक एक ऐसा प्रकाशपुंज सेना के आगे उठता दिखाई दिया, जिसे देखकर सब सैनिकों की आँखें चौंधिया गईं।
असौ पुरस्कृत्य गुरुं पदातिः पश्चादवस्थापित वाहिनीकः । 13/66
देखो इनके आगे वशिष्ठजी चल रहे हैं और पीछे-पीछे सेना चली आ रही है।
9. सेना :- [ सि + न + टाप्, सह इनेन प्रभुणा वा ] फौज़ ।
सेना परिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थ साधनम् । 1/19
राजा दिलीप के पास भी बड़ी भारी सेना थी, पर वह सेना केवल शोभा के लिए ही थी। उससे वे कोई काम नहीं लेते थे ।
अनुभावविशेषात्तु सेना परिवृताविव। 1/37
उससे जान पड़ता था, मानो साथ में बड़ी भारी सेना चली जा रही हो ।
स सेना महतीं कर्षन्पूर्व सागरगामिनीम् । 4/32
अपनी विशाल सेना के साथ जब वे पूर्वी समुद्र की ओर जा रहे थे । विलङ्घिता धोरणतीव्रयतनाः सेना गजेन्द्रा विमुखा बभूवुः । 5/48 तब सेना के हाथियों ने हाथीवानों के बार-बार रोकने पर भी इधर-उधर भाग चले ।
For Private And Personal Use Only
सेना रथोदारगृहा प्रयाणे तस्याभवज्जंगम राजधानी । 16 / 26 यात्रा के समय चलती हुई कुश की सेना चलती-फिरती राजधानी के समान लगती थी, क्योंकि उसके रथ ऊँची-ऊँची अटारियों जैसे लग रहे थे । सा यत्र सेना ददृशे नृपस्य तत्रैव सामग्य्रमूर्ति चकार । 16 / 29
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
455
मार्ग में चलने वाली जितनी भी कुश की सेना की टुकड़ियाँ थीं, वे सब पूरी सेना ही प्रतीत होती थीं। मार्गेषिणी सा कटकान्तरेषु वैन्ध्येषु सेना बहुधा विभिन्ना। 16/31 मार्ग भूल जाने के कारण वह सेना विंध्याचल के आसपास मार्ग ढूंढ़ने लगी और
कई भागों में बँट गई। 10. सैन्य :-[सेनायां समवैति ज्य] सेना, सेना की टुकड़ी।
स तीर्वा कपिशां सैन्यैर्बद्ध द्विरद सेतुभिः। 4/38 रघु ने हाथियों का पुल बनाकर अपनी पूरी सेना को कपिशा नदी के पार कर दिया। स सैन्य परिभोगेण गजदान सुगन्धिना। 4/45 रघु के सैनिक जी भर कर नहाए, फिर हाथियों के नहाने से मद की गंध भी जल में आने लगी। शशंस तुल्य सत्त्वानां सैन्यघोषेऽप्य संभ्रमम्। 4/72 सैनिकों के समान ही बलवान सिंह, सेना के कोलाहल से तनिक भी नहीं घबराते थे। प्रस्थापयामास ससैन्यमेनमृद्धां विदर्भाधिप राजधानीम्। 5/40 उन्होंने सेना के साथ अज को विदर्भ देश की राजधानी भेज दिया। निवेशयामास विलङ्गिताध्वा क्लान्तं रजोधूसरकेतु सैन्यम्। 5/42 अपनी उस थकी हुई सेना का पड़ाव डाला, जिसकी पताकाएँ मार्ग की धूल लगने से मटमैली हो गई थीं। स विद्धमात्रः किल नागरूपमृत्सृज्य तद्विस्मितसैन्य दृष्टः। 5/51 बाण लगते ही वह अपना हाथी का शरीर छोड़कर देवताओं के समान सुंदर हो गया, यह देखकर अज के सैनिक तो अचरज से देखते रह गए। परेण भग्नेऽपि बले महौजा ययावजः प्रत्यरिसैन्यमेव। 7/55 यद्यपि शत्रुओं ने अज की सेना को मारकर भगा दिया था पर अज, शत्रु की सेना में बढ़ते ही चले गए। तस्थौ ध्वजस्तम्भनिषण्णदेहं निद्राविधेयं नरदेव सैन्यम्। 7/62 उन राजाओं की सारी सेना झंडियों के डंडों के सहारे सो गई। ससैन्यश्चान्वगादामं दर्शितानाश्रमालयैः। 12/14
For Private And Personal Use Only
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
456
कालिदास पर्याय कोश उन्होंने अपने साथ सेना ली और राम को ढूँढ़ने निकल पड़े, जब मार्ग के आश्रम वासियों ने उन्हें वे वृक्ष दिखलाए। स प्रतस्थेऽरिनाशाय हरिसैन्यैरनुदुतः। 12/67 वे वानरों की अपार सेना साथ लेकर शत्रु का संहार करने लगे। शङ्के हनूमत्कथितप्रवृत्तिः प्रत्युद्गतो मां भरतः ससैन्यः। 13/64 ऐसा जान पड़ता है कि हनुमान जी से मेरे आने का समाचार सुनकर, भरत सेना लेकर मेरा स्वागत करने आ रहे हैं। समौलरक्षो हरिभिः ससैन्यस्तूर्यस्वनानन्दित पौरवर्गः। 14/10 वृद्ध मंत्रियों, राक्षसों और वानरों को साथ लेकर राम ने अपनी सेना के साथ उस राजधानी में पैर रखे, जहाँ के निवासी तुरही आदि बाजों को सुन-सुनकर बड़े प्रसन्न हो रहे थे। अनुदुतो वायुरिवाभ्रवृन्दैः सैन्यैरयोध्याभिमुखः प्रतस्थे। 16/25 जैसे वायु के पीछे-पीछे बादल चलते हैं, वैसे ही पीछे चलने वाली सेना के साथ शुभ मुहूर्त में अयोध्या के लिए चल दिए। तं क्लान्तसैन्यं कुलराजधान्याः प्रत्युज्जगामोपवनान्तवायुः। 16/36 अयोध्या के उपवनों में फूले हुए वृक्षों की डालियों को हिलाते हुए वायु ने, आगे बढ़कर सेना के साथ थके हुए कुश का स्वागत किया।
स्कन्द
1. कुमार :-[कम् + आरन्, उपधायाः उत्वम्] युद्ध के देवता कार्तिकेय, पुत्र,
बालक, राजकुमार, युवराज। ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देवी कुमार कल्पं सुषुवे कुमारम्। 5/36 रघु की रानी की कोख से तड़के ब्राह्ममुहूर्त में कार्तिकेय के समान तेजस्वी पुत्र
जन्मा। 2. गुह :-[गुह् + क] कार्तिकेय का विशेषण।
भूयिष्ठमासीदुपमेयकान्तिर्मयूर पृष्ठाश्रयिणा गुहेन। 614 उस पर बैठे हुए वे ऐसे सुन्दर लग रहे थे, मानो कार्तिकेय अपने मोर पर चढ़े बैठे
हों। 3. नगरन्ध्रकर :-[न गच्छति :-न + गम् + ड (नगः) + रन्ध्रकरः] कार्तिकेय
का विशेषण।
For Private And Personal Use Only
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
अभवदस्य ततो गुणवत्तरं सनगरं नगरन्ध्रकरौजसः । 9/2
क्रौंच पहाड़ को फाड़ देने वाले कार्तिकेय के समान वे बलवान थे, सारी प्रजा उन्हें पहले के सभी राजाओं से बढ़कर मानने लगी।
457
4. शरजन्मना :- [ शृ + अच् + जन्मन् ] कार्तिकेय का विशेषण |
उमावृषाङ्कौ शरजन्मना यथा यथा जयन्तेन शची पुरंदरौ । 3 / 23
जैसे कार्तिकेय के समान पुत्र को पाकर शंकर और पार्वती को अत्यन्त प्रसन्नता हुई थी और जयंत जैसे पुत्र को पाकर इन्द्र और शची प्रसन्न हुए थे ।
5. षडानन : - [ सो + क्विप्, पृषो० + आननः ] कार्तिकेय का विशेषण ।
षडाननापीत पयोधरासु नेता चमूनामिव कृत्तिकासु । 14 / 22
जैसे स्वामी कार्तिकेय अपने छः मुखों से छहों कृत्तिकाओं का स्तन पीकर समान रूप से प्रेम दिखलाते थे ।
6. षण्मुख :- [ सो + क्विप्, पृषो० + मुखः] कार्तिकेय का विशेषण |
सगुणानां बलानां च षण्णां षणमुखविक्रमः । 17/67
कार्तिकेय के समान पराक्रमी राजा अतिथि यह भलीभाँति जानते थे, कि छः राज गुणों और छः प्रकार की सेनाओं के साथ ।
7. सेनानी :- [सि + न + टाप्, सह इनेन प्रभुणा वा + नी ] कार्तिकेय का नाम । अथैनमद्रेस्तनया शुशोच सेनान्यमालीढमिवासुरास्त्रैः 1 2 / 37
इतने पर ही पार्वती जी को ऐसा शोक हुआ, जैसा दैत्यों के बाणों से घायल स्वामी कार्तिकेय को देखकर हुआ था ।
8. स्कन्द :- [ स्कन्द + अच्] कार्तिकेय का नाम ।
1
यो हेमकुम्भस्तननिःसृतानां स्कन्दस्य मातुः पयसां रसज्ञः । 2/36 स्वयं कार्तिकेय की माता पार्वती जी ने अपने सोने के घटरूप स्तनों के रस से सींच-सींचकर, इसे इतना बड़ा किया है।
अथोपयन्त्रा सदृशेन युक्तां स्कन्देन साक्षादिव देवसेनाम् । 7/1
अपनी पत्नी इंदुमती के साथ जाते हुए अज ऐसे लग रहे थे, मानो साक्षात् देवसेना के साथ स्कंद चले जा रहे हों।
1
For Private And Personal Use Only
9. हरकुमार : - [ हृ + अच् + कुमार:] शिवपुत्र कार्तिकेय ।
हरेः कुमारोऽपि कुमार विक्रमः सुरद्विपास्फालनकर्कशाङ्गलौ । 3/55 कार्तिकेय के समान पराक्रमी रघु ने भी अपना नाम खुदा हुआ एक बाण इन्द्र की
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
458
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
उस बाईं भुजा में मारा, जिसकी उँगलियाँ ऐरावत को बार-बार थपथपाने से कड़ी हो गई थीं।
स्कन्ध
1. अंस :- [ अंस् + अच्] कंधा, अंसफलक, भाग ।
तं कर्णभूषणनिपीडितपीवरांसं शय्योत्तरच्छदविमर्दकृशाङ्गरागम् । 5/65 एक करवट सोने के कारण, अज के भरे हुए कंधों पर कुंडल के दबने से, उसका चिह्न पड़ गया और बिछौने की रगड़ से उनके शरीर पर लगा अंगराग भी पूँछ गया था।
निवेश्य वामं भुजमासनार्थे तत्संनिवेशादिध कोन्नातांसः । 6/16
कोई राजा सिंहासन के एक ओर बाईं भुजा टेककर बैठ गया, जिससे उसका बायाँ कंधा उठ गया ।
2. स्कन्ध :- - [ स्कन्ध्यते आरुह्यतेऽसौ सुखेन शाखया वा कर्मणि घञ्, पृषो०]
कंधा ।
व्यूढोरस्को वृषस्कन्धः शालप्रांशुर्महाभुजः । 1 / 13
उनकी चौड़ी छाती, साँड के से ऊँचे और भारी कंधे, शाल के वृक्ष जैसी लंबी भुजाएँ और अपार तेज देखकर ।
दुधुवुर्वाजिनः स्कन्धाँल्लग्नकुङ्कुमकेसरान्। 4/67
लोटने से घोड़ों के शरीर मे जो केशर लग गई थी उसे, उठ उठकर उन्होंने अपने कंधे हिलाकर झाड़ दिया ।
तुरङ्गमस्कन्ध निषण्णदेहं प्रत्याश्वसन्तं रिपुमाचकाङ्क्ष | 7/47
एक घुड़सवार ने अपने शत्रु घुड़सवार पर पहले चोट की, चोट खाते ही वह घोड़े के कंधे पर झुक गया और उसमें इतनी भी शक्ति न रही कि सिर तक उठा सके।
स्तम्भ
1. अवष्टम्भ :- [ अव् + स्तम्भ् + घञ् ] थूनी, स्तंभ, सहारा । रघोरवष्टम्भमयेन पत्रिणा ह्यदि क्षतो गोत्र भिदप्यमर्षणः । 3 / 53
रघु ने खंभे के समान दृढ़ एक बाण इन्द्र की छाती में मारा, इससे इंद्र बड़े क्रोधित हुए।
2. स्तम्भ :- [ स्तम्भ् + अच्] स्थूण, खंभा, पोल, तना ।
For Private And Personal Use Only
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
459
श्रेणीबन्धातिन्वद्भिरस्तम्भां तोरणस्रजम्। 1/41 बगुले पाँत में उड़ते हुए ऐसे जान पड़ते थे, मानो खंभे के बिना ही बंदनवार टंगी हुई हो। निचरवान जयस्तम्भानगङ्गास्रोतोन्तरेषु सः। 4/36.
उन्हें जीतकर रघु ने गंगा सागर के द्वीपों में अपना विजय का खंभा गाड़ दिया। 3. स्थाणु :-[स्था + नु, पृषो० णत्वम्] टेक, पोल, स्तम्भ ।
सोढुं न तत्पूर्वमवर्णमीशे आलानिकं स्थाणुमिव द्विपेन्द्रः। 14/38 जैसे हाथी अपने अलान से खीझकर उसे उखाड़ने की चेष्टा करता है, वैसे ही मैं भी अपने इस कलंक को अब नहीं सह सकता।
स्नान
1. अभिषेक:-[अभि + सिच् + घञ्] छिड़कना, पानी के छींटे देना, राज्यतिलक
करना। निर्वय॑ते यैर्नियमाभिषेको येभ्यो विपाञ्जलयः पितृणाम्। 5/8 उन नदियों का जल तो ठीक है न जिसमें आप लोग प्रतिदिन स्नान, संध्या, तर्पण आदि करते हैं। स तावदभिषेकान्ते स्नातकेभ्यो ददौ वसु। 17/17
अभिषेक के पश्चात उन्होंने यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणों को इतना धन दिया कि। 2. मज्जन :-[मस्णं भावे ल्युट्] स्नान करना, नहाना, डुबकी लगाना।
यद्गोप्रतरकल्पोऽभूत्संमर्दस्तत्र मज्जताम्। 15/101 वहाँ स्नान करने वालों की वैसी ही भीड़ हुई, जैसे गौओं को पार कराते समय होती है। परस्पराभ्युक्षण तत्पराणां तासां नृपो मज्जनरागदर्शी। 16/57 रानी एक दूसरे पर जल के छींटे उड़ाने लगीं। उन रानियों के स्नान की शोभा
देखकर नाव पर बैठे हुए राजा। 3. स्नान :-[स्ना भावे ल्युट्] धोना, मार्जन करना, स्नान द्वारा शुद्धि, कोई धार्मिक
या सांस्कारिक मार्जन। बलिक्रियावर्जित सैकतानि स्नानीयसंसर्गमनाप्नुवन्ति। 16/21 अब न तो सरयू के घाटों पर देवताओं के लिए बलि दी जाती है और न स्त्रियों के स्नान करने से, उसमें से अंगराग आदि की गंध ही निकल रही है।
For Private And Personal Use Only
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
460
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
स्नानार्द्रमुक्तेष्वनुधूपवासं विन्यस्त सायंतनमल्लिकेषु । 16 / 50
जो स्नान करने पर खोल दिए जाते थे और जिनमें धूप से सुगंधित करके शाम को फूलने वाली चमेली के सुगंधित फूल खोंस दिए जाते थे । तस्य सन्मन्त्रपूताभिः स्नानमद्भिः प्रतीच्छतः । 17/16
मंत्रों से पवित्र हुए जल से स्नान करते समय उनके शरीर का तेज ।
स्वर्ग
1. त्रिदिव :- [त्रि + दिवम् ] स्वर्ग ।
नहीष्टमस्य त्रिदिवेऽपि भूपतेरभूदनासाद्यमधिज्य धन्वनः । 3/6 क्योंकि धनुषधारी राजा दिलीप को स्वर्ग की भी वस्तुएँ मिल सकती थी, फिर इस लोक की वस्तुओं की तो बात ही क्या।
विषयेषु विनाशधर्मसु त्रिदिवस्थेष्वपि निःस्पृहोऽभवत् । 8 / 10 स्वर्ग के उन सुखों की चाह भी उन्होंने छोड़ दी, जो कभी न कभी नाश हो ही जाते हैं।
त्रिदिवोत्सुकयाप्यवेक्ष्य मां निहिताः सत्यममी गुणास्त्वया । 8 / 60 अपने स्वर्ग जाने की उतावलेपन में, यद्यपि तुमने मुझे बहलाने के लिए अपने गुण यहीं छोड़ दिए।
चक्रे त्रिदिवनिश्रेणिः सरयूरनुयायिनाम् । 15 / 100
सरयू को उन्होंने अपने पीछे आने वालों के लिए स्वर्ग की सीढ़ी बना दिया । व्यश्रूयतानीकपदावसानं देवादि नाम त्रिदिवेऽपि यस्य । 18 / 10
जिसका देव शब्द से आरंभ होने वाला और अनीक शब्द से अंत होने वाला देवानीक नाम स्वर्ग में भी प्रसिद्ध हो गया ।
For Private And Personal Use Only
2. त्रिविष्टप : - [त्रि + विष्टपम् ] इन्द्रलोक, स्वर्ग ।
असौ कुमारस्तमजोऽनुजातस्त्रिविष्टपस्येव पतिं जयन्तः । 6/78
जैसे स्वर्ग के राजा इंद्र के पुत्र जयंत बड़े प्रतापी हुए थे, वैसे ही कुमार अज भी उन्हीं प्रतापी रघु के पुत्र हैं।
3. दिव : - [ दीव्यन्त्यत्र दिव + बा आधारे डि वि :- तारा०; दिव + क] स्वर्ग आकाश, दिन ।
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
461
रघुवंश
दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम्। 1/26 राजा दिलीप प्रजा से जो कर लेते थे, वह स्वर्ग के राजा इंद्र को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ में लगा देते थे। दिवं मरुत्वानिव भोक्ष्यते भुवं दिगन्त विश्रान्तरथो हि तत्सुतः। 3/4 भविष्य में उसका पुत्र भी संपूर्ण पृथ्वी पर उसी प्रकार राज करे, जैसे इंद्र स्वर्ग पर राज करते हैं। समारु रुक्षुर्दिवमायुषः क्षये ततान सोपान परम्परामिव। 3/69 उन्होंने मानो स्वर्ग जाने के लिए यज्ञों की सीढ़ी सी बना ली थी। उपलब्धवती दिवश्च्युतं विवशा शापनिवृत्तिकारणम्। 8/82 जैसे ही उसे स्वर्गीय पुष्प दिखाई पड़े, वैसे ही वह शाप से छूटकर, शरीर
छोड़कर चली गई। 4. द्यौ :-[द्युत् + डो] स्वर्ग, बैकुण्ठ, आकाश।
क्रममाणश्चकार द्यां नागेनैरावतौजसा। 17/32 इन्द्र के समान राज अतिथि, जब ऐरावत के समान बलवान हाथी पर चढ़कर अयोध्या में निकले, तो नगरी स्वर्ग के समान लगने लगी। कौमुद्वतेयः कुमुदावदातैामर्जितां कर्मभिरारुरोह। 18/3 कुमुद्वती के पुत्र अतिथि ने बहुत दिनों तक सुख भोगा और फिर अपने पुण्यों के बल से पाए हुए स्वर्गलोक में, सुख भोगने चले गए। तस्मिन्यते द्यां सुकृतोपलब्धां तत्संभवं शङ्खणमर्णवान्ता। 18/22 उन्होंने अपने पुण्य के बल से स्वर्ग प्राप्त किया और उनके पीछे शंखण नाम का
उनका शत्रुविनाशक पुत्र । 5. नाक :-[न कम् अकम् दुःखम्, तत् नास्ति अत्र इति नि० प्रकृति भावः]
स्वर्ग। तस्मिन्नात्मचतुर्भागे प्राङ्नाकमधितस्थुषि। 15/96
अपने चौथाई अंश लक्ष्मण के स्वर्ग चले जाने पर राम। 6. सुरालय :-[सुष्ठु राति ददात्यभीष्टम् :-सु + रा + क + आलय:] स्वर्ग,
बैकुण्ठ। सुराऽलयप्राप्तिनिमित्तमम्भस्त्रैस्रोतसं नौलुलितं ववन्दे। 16/34 क्योंकि कपिल के कोप से जले हुए उनके पूर्वज सगर के पुत्र उसी जल की कृपा से स्वर्ग पहुँचे थे।
For Private And Personal Use Only
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
462
कालिदास पर्याय कोश 7. स्वर्ग :-[स्वरितं गीयते :-गै + क, सु + ऋज् + घञ्] बैकुंठ, इन्द्र का स्वर्ग।
मोक्षध्वे स्वर्गवन्दीनां बेणीबन्धानदूषितान्। 10/47 स्वर्ग की जिन स्त्रियों को अपने यहाँ बंदी किया है, आप लोग ही उन बंदी स्त्रियों के जूड़े अपने हाथों से खोलेंगे। अन्वगादिव हि स्वर्गो गां गतं पुरुषोत्तमम्। 10/72 मानो विष्णु भगवान के साथ-साथ स्वर्ग भी पृथ्वी पर उतर आया हो। पीडयिष्यति न मां खिलीकृता स्वर्ग पद्धतिर भोगलोलुपम्। 11/87 मुझे भोग की तो इच्छा है नहीं, इसलिए यदि मुझे स्वर्ग न भी मिले, तो कुछ दुःख नहीं होगा। कृताञ्जलिस्तत्र यदम्ब सत्यानभ्रश्यत स्वर्ग फलाद्गुरुर्नः। 14/16 राम ने हाथ जोड़कर कैकेयी से कहा :-माँ ! तुम्हारे ही पुण्य के प्रताप से हमारे पिताजी, अपने उस सत्य से नहीं डिगे, जिससे स्वर्ग मिलता है। त्रिदशीभूतपौराणां स्वर्गान्तरमकल्पयत्। 15/102 इसलिए इतने लोग स्वर्ग में पहुँच गए कि सामर्थ्यशाली राम को एक दूसरा स्वर्ग बनाना पड़ा।
स्वसा
1. अनुजा :-[अनु + जन् + ड, क्त वा] छोटी बहन।
पार्थिवीमुदवहद्रघूद्वहो लक्ष्मणस्तदनुजामथोर्मिलाम्। 11/54
राम का सीता से और लक्ष्मण का सीता की छोटी बहन उर्मिला से विवाह हुआ। 2. वरजा :-छोटी बहन।
प्रलोभिताप्या कृतिलोभनीया विदर्भराजा वरजा तयैवम्। 6/58 विदर्भ राज की छोटी बहन सुंदरी इंदुमती, अपनी दासी की लुभावनी बातों को सुनकर। अमँस्त कण्ठार्पित बाहुपाशां विदर्भराजावरजां वरेण्यः। 6/84 अज ने यही समझा मानो विदर्भ राज की छोटी बहन इंदुमती ने मेरे गले में अपनी भुजाएं ही डाल दी हों। रावणावरजा तत्र राघवं मदनातुरा। 12/32
काम से पीड़ित रावण की छोटी बहन शूर्पणखा राम के पास जा पहुंची। 3. स्वसा :-[सू + अस् + ऋन्] बहन, भगिनी।
For Private And Personal Use Only
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
463
रघुवंश
अथेश्वरेण क्रथकैशिकानां स्वयंवरार्थं स्वसुरिन्दुमत्याः। 5/39 इसी बीच विदर्भ देश के राजा ने अपनी बहन इंदुमती के स्वयंवर में अज को। स्वसुर्विदर्भाधिपतेस्तदीयो लेभेऽन्तरं चेतसि नोपदेशः। 6/66 सुनंदा की बातें विदर्भराज की बहन इंदुमती के मन में वैसे ही नहीं घर कर सकी। स्वसारमादाय विदर्भ नाथः पुरप्रवेशाभिमुखो बभूव। 7/1 स्वयंवर हो चुकने पर अपनी बहन इन्दुमती को साथ लेकर विदर्भ नरेश नगर की ओर चले। इति स्वसुर्भोजकुलप्रदीपः संपाद्य पाणिग्रहणं स राजा। 7/29 उस भोज-कुल के दीपक, लक्ष्मीवान् राजा ने अपनी बहन का विवाह-संस्कार पूरा करके। इमां स्वसारं च यवीयसी में कुमुद्वतीं नार्हसि नानुमन्तुम्। 16/85 हे राजन्! यह मेरी छोटी बहन कुमुद्वती जीवन भर आपकी सेवा करके। तं स्वसा नागराजस्य कुमुदस्य कुमुद्वती। 17/6 वैसे ही नागराज कुमुद की बहन कुमुद्वती भी कुश के साथ ही सती हो गई।
हरि
1. अच्युत :-विष्णु, सर्वशक्तिमान, प्रभु।
पृषतैर्मन्दरोद्भुतैः क्षीरोर्मय इवाच्युतम्। 4/27 जैसे मंदराचल से मथते समय क्षीर सागर की लहरों की उछलती हुई उजली
फुहारें भगवान् विष्णु के ऊपर बरस रही थीं। 2. अधोक्षज :-[अधर + असि, अधरशब्दस्य स्थाने अधादेश + अक्षजः] विष्णु।
इति प्रसादयामासुस्ते सुरास्तमधोक्षजम्। 10/33 जो भगवान विष्णु किसी भी इंद्रिय से प्राप्त नहीं होते हैं, उनकी स्तुति करके
देवताओं ने उन्हें प्रसन्न कर लिया। 3. आदिपुरुष :-[आ + दा + कि + पुरुषः] विष्णु, कृष्ण या नारायण।
ते च प्रादुरुदन्वन्तं बुबुधे चादिपुरुषः। 10/6 ज्यों ही देवता लोग क्षीर सागर पहुँचे, त्यों ही विष्णु भगवान् भी योग निद्रा से जाग उठे।
For Private And Personal Use Only
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
464
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कालिदास पर्याय कोश
4. आदिपुंस : - [ आ + दा + कि पुंसः] विष्णु, कृष्ण या नारायण ।
अनुप्रवेशाद्यस्य पुंसस्तेनापि दुर्वहम् | 10 / 51
उस खीर में सारे ब्राह्माण्ड को सँभालने वाले विष्णु भगवान पैठे हुए थे, इसलिए वह दिव्य पुरुष भी कटोरे को बड़ी कठिनाई से सँभाल पा रहा था।
5. केशव :- [ केशाः प्रशस्ताः सन्त्यस्य, केश + वः] विष्णु का विशेषण । श्री वत्सलक्षणं वक्ष: कौस्तुभेनेव कैशवम् | 17/29
जैसे श्रीवत्स के चिह्न वाला विष्णु का वक्ष स्थल कौस्तुभमणि से चमक उठता है ।
6. चक्रधर :- [ चक्र + धर: ] विष्णु का विशेषण |
विगाहितुं श्रीमहिमानुरूपं प्रचक्रमे चक्रधर प्रभावः । 16/55
यह निश्चय करके विष्णु के समान प्रभावशाली कुश, सरयू के जल में विहार करने चले ।
7. चतुर्भुज :- [ चत् + उरन् + भुजः] विष्णु की उपाधि ।
चतुर्भुजांशप्रभवः स तेषां दानप्रवृत्तेरनुपारतानाम् । 16/3
वैसे ही विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए राम का दानी कुल भी आठ भागों में फैला । 8. नारायण :- [ नारा + अयनं यस्य ब०स०] विष्णु की उपाधि ।
पद्मेव नारायणमन्यथासौ लभेत कान्तं कथमात्मतुल्यम्। 7/13
जैसे स्वयंवर में लक्ष्मी ने विष्णु भगवान को वर लिया था, वैसे ही इंदुमती ने अज को वर लिया है। बिना स्वयंवर के उसे ऐसा योग्य वर कैसे मिलता ।
For Private And Personal Use Only
9. पुण्डरीकाक्ष :- [ पुंड् + ईकन् नि० + अक्षः ] विष्णु का विशेषण |
शान्ते पितर्याहृत पुण्डरीका यं पुण्डरीकाक्षमिव श्रिता श्रीः । 18 / 8 पिता के स्वर्ग चले जाने पर कमल धारण करने वाली लक्ष्मी ने पुण्डरीक को ही विष्णु मानकर वर लिया ।
10. पुरुष :- [ पुर् + कुषन् ] परमात्मा, ईश्वर ।
तमपहाय ककुत्स्थ कुलोद्भवं पुरुषमात्मभवं च पतिव्रता । 9/16
और फिर भगवान् विष्णु और दशरथ को छोड़कर और दूसरा राजा ही कौन था, जिसके यहाँ प्रतिव्रता लक्ष्मी जाकर रहतीं।
11. पुरुषोत्तम : - [ पुर् + कुषन् + उत्तमः ] परमात्मा, विष्णु या कृष्ण का विशेषण ।
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
465
रघुवंश
अन्वगादिव हि स्वर्गो गां गतं पुरुषोत्तमम्। 10/72
मानो विष्णु भगवान के साथ-साथ स्वर्ग भी पृथ्वी पर उतर आया हो। 12. पंकजनाभ :-[पंकजम् + नाभः] विष्णु का विशेषण।
सुतोऽभवत्पंकजनाभकल्पः कृत्स्नस्य नाभिर्नुपमण्डलस्य। 18/20 विष्णु के समान पराक्रमी होने के कारण शिल के उन्नाभ नाम के पुत्र संसार के
सभी राजाओं के मुखिया बन गए। 13. मधुमथ :-[मन्यत इति मधु, मन् + उ नस्य धः + मथः] विष्णु का विशेषण।
नरपतिश्चकमे मृगयारतिं स मधुमन्मधुमन्मथ संनिभः। 9/48 विष्णु के समान पराक्रमी, वसंत ऋतु के समान प्रसन्न और कामदेव के समान
सुंदर दशरथजी के मन में आखेट की इच्छा होने लगी। 14. विभु :-[वि + भू + डु] ब्रह्मा, शिव, विष्णु।
बभौ सदशनज्योत्स्ना सा विभोर्वदनोद्गता। 10/37 भगवान विष्णु की दाँतों की चमक से जगमगाती हुई उनकी वाणी जब मुख से
निकली। 15. विष्णु :-[विष् + नुक्] देवत्रयी में दूसरा।
अंशैरनुययुर्विष्णुं पुष्पैर्वायुमिव द्रुमाः। 10/49 जैसे वायु के चलने पर वन के वृक्ष स्वयं उसके पीछे अपने फूल भेज देते हैं, वैसे ही जब विष्णु चले, तब देवताओं ने अपने-अपने अंश उनके साथ भेज दिए। विष्णोरिवास्यानवधारणीयमीदृक्त या रूपमियात्तया वा। 13/5
जैसे विष्णु भगवान के विषय में नहीं कहा जा सकता कि वे ऐसे और इतने बड़े हैं, वैसे ही यह नहीं कहा जा सकता कि यह ऐसा है या इतना बड़ा है। विडोजसा विष्णुरिवाग्रजेन भ्रात्रा यदित्थं परवानसि त्वम्। 14/59 जैसे इंद्र के छोटे भाई विष्णु सदा अपने बड़े भाई की आज्ञा मानते हैं, वैसे ही तुम भी अपने बड़े भाई की आज्ञा मानने वाले हो। अवैमि कार्यान्तरमानुशस्य विष्णोः सुताख्यामपरां तनुं त्वाम्। 16/82 मैं यह जानता हूँ कि आप, राक्षसों का नाश करने के लिए मनुष्य का शरीर धारण करने वाले विष्णु के ही दूसरे रूप अर्थात् पुत्र हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
466
कालिदास पर्याय कोश 16. विष्वक्सेन :-[विषुम् अञ्चति :-विषु + अच् + ल्किन् + सेनः] विष्णु का
विशेषण। विष्वक्सेनः सवतनुमविशत्सर्वलोक प्रतिष्ठाम्। 15/103 तीनों लोकों को धारण करने वाले भगवान् विष्णु अपने विराट शरीर में लीन हो
गए। 17. शांर्गिण :-[शाङ्ग + इनि + अच्] विष्णु का विशेषण।
रसातलादिवोन्मग्नं शेषं स्वप्नाय शांर्गिणः। 12/70 मानो विष्णु को अपने ऊपर सुलाने के लिए स्वयं शेषनाग ही उतर आए हों। धर्मसंरक्षणार्थव प्रवृत्तिर्भुवि शाङ्गिणः। 15/4 धर्म की रक्षा के लिए ही तो भगवान विष्णु संसार में अवतार लेते हैं। कालनेमिवधात्प्रीतस्तुराषाडिव शाङ्गिणम्। 15/40
जैसे इंद्र ने कालनेमि को मारने वाले विष्णु का स्वागत किया था। 18. हरि :-[ह + इन् + अच्] विष्णु का नाम।
हरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मृतो महेश्वरत्र्यम्बक एव नापरः। 3/49 देखो! जिस प्रकार पुरुषोत्तम केवल विष्णु ही हैं, त्र्यम्बक केवल शंकर ही हैं। लक्ष्मीकृतस्य हरिणस्य हरिप्रभावः प्रेक्ष्य स्थितां सहचरीं व्यवधाय देहम्।
9/57 विष्णु या इंद्र के समान शक्तिशाली राजा दशरथ ने देखा कि वे जिस हरिण को मारना चाहते थे, उसकी हरिणी बीच में आकर खड़ी हो गई। तस्मिन्नवसरे देवाः पौलस्त्योप्लुता हरिम्। 10/5 ठीक उसी समय रावण के अत्याचार से घबराकर देवता लोग, उसी प्रकार विष्णु की शरण में गए। हरिरिव युगदीधैर्दोर्भिरंशैस्तदीयैः पतिरवनिपतीनां तैश्चकाक्षे चतुर्भिः।
10/86 जैसे रथ के जुए के समान अपनी लंबी-लंबी चार भुजाओं से विष्णु भगवान् शोभा देते हैं, वैसे ही राजा दशरथ भी अपने चार सुयोग्य पुत्रों से सुशोभित हुए। रत्नाकरं वीक्ष्य मिथः स जायां रामाभिधानो हरिरित्युवाच। 13/1
For Private And Personal Use Only
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
467 राम कहलाने वाले विष्णु भगवान्, समुद्र को देखकर सीताजी से एकांत में
बोले। 19. हरिण्याक्षरिपु :-[ह + इनन् + अक्ष + रिपुः] विष्णु का विशेषण, विष्णु।
अंशे हरिण्याक्षरिपोः स जाते हिरण्यनाभे तनये नयज्ञः। 18/25 उस नीतिज्ञ विश्वसह को हिरण्यनाभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो साक्षात विष्णु का अंश था।
हरि (ii)
1. कपि :-[कम्प् + इ, न लोपः] लंगूर, बन्दर।
कपयश्चेरुरार्तस्य रामस्येव मनोरथाः। 12/59 जैसे राम का मन सीताजी की खोज में भटकता था, वैसे ही वानर भी सीताजी की खोज करने लगे। तस्यै भर्तुरभिज्ञानमङ्गुलीयं ददौ कपिः। 12/62
उनके पास जाकर हनुमान वानर ने राम की अंगूठी उन्हें दी। 2. प्लवग :-[प्लु + अच् + गः] बन्दर।
स सेतुं बन्धयामास प्लवगैर्लवणाम्भसि। 12/70 राम ने वानरों को लगाकर समुद्र पर तो पत्थरों का धवल पुल बनवाया। रण: प्रववृते तत्र भीमः प्लवंगरक्षसाम्। 12/72
वहाँ वानरों और राक्षसों का ऐसा भयंकर युद्ध होने लगा कि। 3. वानर :-[वानं वनसंबंधि फलादिकं राति गृह्णति :-रा + क, वा विकल्पेन
नरो वा] बंदर, लंगूर। द्वितीयं हेम प्राकारं कुर्वद्भिरिव वानरैः। 12/71 वानरों से घिरी हुई लंका ऐसी जान पड़ती थी, मानो लंका के चारों ओर सोने का एक दूसरा परकोटा बन गया हो। इतराण्यपि रक्षांसि पेतुर्वानरकोटिषु। 12/82 और भी बहुत से राक्षस करोड़ों वानरों की सेना के बीच में। वन्यैः पुलिन्दैरिव वानरैस्ताः क्लिश्यनत उद्यान लता मदीयाः। 16/19 उद्यान की उन मेरी प्यारी लताओं को जंगली मलेच्छों के समान उत्पाती बंदर झकझोर डालते हैं।
For Private And Personal Use Only
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
468
कालिदास पर्याय कोश
4. हरि :-[ह + इन् + अच्] लंगूर, बंदर।
मुमूर्च्छ सख्यं रामस्य समान व्यसने हरौ। 12/57 इस वानर सुग्रीव के भी राज्य और स्त्री को बालि ने छीन लिया था, इसलिए उसने स्त्री से बिछुड़े हुए राम से शीघ्र मित्रता कर ली। सप्रतस्थेऽरिनाशाय हरिसैन्यैरनु दुतः। 12/67 वे वानरों की अपार सेना लेकर शत्रु का संहार करने लगे। समौलरक्षो हरिभिः ससैन्यस्तूर्य स्वनानन्दित पौर वर्गः। 14/10 वृद्ध मंत्रियों, राक्षसों और वानरों को साथ लेकर राम ने अपनी सेना के साथ उस अयोध्या में प्रवेश किया, जहाँ के निवासी तुरही आदि बाजों को सुन-सुनकर बड़े प्रसन्न हो रहे थे। जगृहुस्तस्य चितज्ञाः पदवी हरिराक्षसाः। 15/99 राम के मन की बात जानने वाले वानर और राक्षस भी उनके पीछे-पीछे चले।
हार
1. आवलि :-[आ + वल् + इन् पक्षे ङीष्] हार, रत्नमाला।
मन्दाकिनी भाति नगोपकण्ठे मुक्तावली कण्ठगतेव भूमेः। 13/48 चित्रकूट के पर्वत के नीचे बहती हुई मंदाकिनी ऐसी जान पड़ रही है, मानो
पृथ्वी रूपी नायिका के गले में मोतियों की माला पड़ी हुई हो। 2. माला :-हार, स्रज, गजरा।
अथ प्रजानामधिपः प्रभाते जायाप्रतिग्राहित गन्धमाल्याम्। 2/1 दूसरे दिन प्रातः काल रानी सुदक्षिणा ने पहले फूल-माला चन्दन लेकर। एवं त्योक्ते तमवेक्ष्य किंचिद्विस्त्रं सिदूर्वाङ्कमधूकमाला। 6/25 सुनंदा की बातें सुनकर इंदुमती ने तनिक सी आँख उठाकर राजा को देखा, उसके हाथ की दूब में गुथी हुई महुए की माला कुछ सरक गई। स स्वयं प्रहतपुष्करः कृती लोलमाल्यवलयो हरन्मनः। 19/14 जब नर्तकियों के नाचते समय वह स्वयं मृदंग बजाने लगता था, तब उसके गले की माला हिल उठती थी और नर्तकियाँ सुध-बुध खोकर नाचना भी भूल जाती
थीं।
3. स्रज :-[स्रज्यते :-स्रज् + क्विन्, नि०] गजरा, माला, हार।
For Private And Personal Use Only
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
469 तया स्त्रजा मङ्गलपुष्पमय्या विशालवक्षः सलिलम्बया सः। 6/84 जब अज के गले में वह फूलों की मंगल माला पड़ी और उनकी चौड़ी छाती पर झूल गई। कुसुमैर्ग्रथितामपार्थिवैः स्रजमातोघशिरोनिवेशिताम्। 8/34 उनकी वीणा के सिरे पर स्वर्गीय फूलों से गुथी हुई माला लटकी हुई थी। स्रगियं यदि जीवितापहा हृदये किं निहिता न हन्ति माम्। 8/46 यदि इस माला में ही प्राण हरने की शक्ति है, तो लो मैं भी इसे छाती पर रखे लेता हूँ, पर यह मुझे क्यों नहीं मार डालती है। तेऽस्य मुक्ता गुणोन्नद्धं मौलिमन्तर्गत स्रजम्। 17/23 फूल और मोतियों की मालाओं से गुंथे हुए राजा के सिर पर। चूर्णंबभ्रुललित स्रगाकुलं छिन्नमेखलमलक्तकाङ्कितम्। 19/25 उसका पलंग फैले हुए केशर के चूर्ण से सुनहरा दिखाई देता था, उस पर फूलों की मसली हुई मालाएँ और टूटी हुई तगड़ियाँ पड़ी रहती थीं और जहाँ-तहाँ
महावर की छाप पड़ी रहती थी। 4. हार :-[ह + घञ्] मोतियों की माला, हार।
उवाच वाग्मी दशनप्रभाभिः संवर्धितोरः सीलतारहारः। 5/52 जब उसने बोलने के लिए मुँह खोला, तब उसके दाँतों की चमक से उसके गले में पड़ा हुआ हार दमक उठा। ताम्रोदरेषु पतितं तरुपल्लवेषु निधौत हार गुलिकाविशदं हिमाम्भः। 5/70 हार के उजले मोतियों के समान निर्मल ओस के कण वृक्षों के लाल पत्तों पर गिरकर वैसे ही सुन्दर लग रहे हैं। भवति विरलभक्तिर्लान पुष्पोपहारः स्वकिरणपरिवेशोद्भेददशून्याः प्रदीपाः। 5/74 रात की सजावट के माला के फूल मुरझा कर झड़ गए हैं, उजाला हो जाने के कारण दीपक का प्रकाश भी अब अपनी लौ से बाहर नहीं जाता। कश्चिद्विवृत्तत्रिकभिन्नहारः सुहृत्सभाभाषणतत्परोऽभूत्। 6/16 कोई राजा अपने पास बैठे हुए मित्र से बातें करने लगा, जिससे उसके गले की माला पीठ पर लटक गई।
For Private And Personal Use Only
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
470
कालिदास पर्याय कोश प्रत्यार्पितः शत्रु विलासिनी नामुन्मुच्य सूत्रेण विनैव हाराः। 6/28 मानो इन्होंने शत्रुओं की स्त्रियों के गले से मोतियों के हार उतार कर उन्हें बिना डोरे वाले हार पहना दिए हों। पाण्ड्योऽयमंसार्पितलम्बहारः क्लुप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन। 6/60 ये पांड्य देश के राजा हैं, जिनके कंधे पर बड़ा-सा हार लटका हुआ है और जिनके शरीर पर हरिचंदन का लेप किया हुआ है। हृद्यमस्य भयदापि चाभवद्रलजातमिव हारसर्पयोः। 11/68 इसलिए जैसे गले के हार और सर्प दोनों में रहने वाली मणि आनंद भी देती है और भय भी।
हेम
1. कनक :-[कन् + वुन्] सोना।
कन्याकुमारौ कनकासनस्थावार्द्राक्षतारोपणमन्वभूताम्। 7/28 फेरे हो चुकने पर सोने के सिंहासन पर बैठे हुए वर वधू के ऊपर बारी-बारी से गीले अक्षत छोड़कर आशीर्वाद दिए। कनकयूपसमुच्छ्रयशोभिनो वितमसा तमसासरयूतटाः। 9/20 अश्वमेध यज्ञ करते समय तमसा और सरयू के किनारे सोने के यज्ञ-स्तंभ खड़े
कर दिए। 2. काञ्चन :-[काञ्च + ल्युट्] सोना, प्रभा, दीप्ति, संपत्ति, धन-दौलत ।
त्वमात्मनसतुल्यममुं वृष्णीव रत्नं समागच्छतु काञ्चनेन। 6/79 तुम इनसे विवाह कर लो, जिसमें रत्न और सोने का ठीक-ठीक मेल हो जाए। रघुराप्यजयद्गुणत्रयं प्रकृतिस्थं समलोष्ठकाञ्चनः। 8/21 दूसरी और मिट्टी और सोना दोनों को बराबर समझने वाले रघु ने भी प्रकृति के सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों को जीत लिया। निवर्तयामासुर मात्यवृद्धास्तीर्थाहतैः काञ्चनकुम्भतोयैः। 14/7 उस अभिषेक को सोने के घड़ों में भरे तीर्थों से लाए हुए जल से राम को नहलाकर बूढ़े मंत्रियों ने पूरा कर दिया। वर्णोदकैः काञ्चनशृङ्ग मुक्तैस्तमायताक्ष्यः प्रणया दसिञ्चन्। 16/70 वे स्त्रियाँ सोने कि पिचकारियों से रंग छोड़-छोड़कर उन्हें भिगोने लगीं।
For Private And Personal Use Only
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रघुवंश
471
3. चामीकर :-[चमीकर + अण] सोना।
तेजोमहिम्ना पुनरावृतात्मा तद्वयाप चामीकरपिञ्जरेण। 18/40 पर उनके शरीर से जो सुवर्ण के समान तेज निकलता था, उससे वह सिंहासन
भरा सा ही जान पड़ता था। 4. जाम्बूनद :-[जम्बूनद् + अण्] सोना। निर्वृत्तजाम्बूनदपट्ट शोभे न्यस्तं ललाटे तिलकं दधानः। 18/44 सोने का पट्टा बंधे हुए अपने ललाट पर वे स्वयं तिलक लगाते थे और सदा
हँसमुख रहते थे। 5. सुवर्ण :-[सुष्ठुवर्णोऽस्य :-प्रा०ब०] सोना, सोने का सिक्का।
ततो निषङ्गादसमग्रमुद्धृत सुवर्णपङ्खातिरञ्जिताङ्गुलिम्। 3/64 तूणीर से आधे निकाले हुए उस बाण को फिर से उसमें डाल दिया, जिसके
सुनहरे पंख की चमक से रघु की उँगलियों के नख भी चमक उठे थे। 6. हिरण्य :-[हिरणमेव स्वार्थे यत्] सोना।
स मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात्पात्रे निधायार्थ्यमनर्धशीलः। 5/2 यशस्वी रघु मिट्टी का पात्र लेकर विद्वान अतिथि की पूजा करने चले क्योंकि सोने-चाँदी के पात्र तो उन्होंने सब दान ही कर डाले थे। हिरण्मयीं कोशगृहस्य मध्ये वृष्टिं शशंसुः पतितां नभस्तः। 5/29 रक्षकों ने आकर यह अचरज-भरा समाचार दिया कि कोश में बहुत देर तक
सोने की वर्षा होती रही है। 7. हेम :-[हि + मनिन्] सोना।
हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा। 1/10 क्योंकि सोने का खरापन या खोटापन आग में डालने पर ही जाना जाता है। तं भूपतिर्भासुर हेमराशिं लब्धं कुबेरादभियास्यमानात्। 5/30 रघु की चढ़ाई की बात कान में पड़ते ही कुबेर ने रात को ही सोने की वर्षा कर
दी।
तिर्यग्वि संसर्पिनखप्रभेण पादेन हैमं विलिलेख पीठम्। 6/15 पैर के नखों की तिरक्षी चमक डालते हुए पैर की उँगलियों से सोने के पाँव-पीढ़े पर कुछ लिखने लगा।
For Private And Personal Use Only
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
472
कालिदास पर्याय कोश हेमपात्रगतं दो मादधानः पयश्चरुम्। 10/51 उस पुरुष के हाथ में खीर से भरा हुआ सोने का कटोरा था। हेमपक्षप्रभाजालं गगने च वितन्वता। 10/61 अपने सोने के पंखों से प्रकाश फैलाता हुआ आकाश में उड़ाकर हमें ले जा रहा
तत्रैनं हेमकुम्भेषु संभृतैस्तीर्थवारिभिः। 17/10 राजा अतिथि को सोने के घड़ों में भरे हए तीर्थों के जल से नहलाया।
For Private And Personal Use Only
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private And Personal Use Only
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
डॉ० त्रिभुवननाथ शुक्ल जन्म - 13 जुलाई 1953 ई० पिता - पण्डित रामचन्द्र शक्ल माँ - (स्व०) श्रीमती सुखराजी शुक्ला ग्राम - मधु का पूरा, करछना, इलाहाबाद (उ०प्र०)। प्रकाशित कृतियाँ: 1. रामचरितमानस के शब्दों का अर्थतात्विक
अध्ययन 2. अवधी का स्वनिमिक अध्ययन 3. मध्यकालीन कविता का पाठ । 4. कोश निर्माण : प्रविधि एवं प्रयोग 5. भाषिक औदात्य 6. विद्यापति 7. अनुबंध 8. रंगसप्तक 9. अवधी साहित्य की भूमिका 10. अवधी साहित्य का आधार स्तंभ 11.अवधी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास 12. हिंदी भाषा का आधुनिकीकरण एवं मानकीकरण 13.हिंदी कप्यूटिंग, 14. समीक्षक आचार्य नंददुलारे बाजपेयी 15. भारतीय बाल साहित्य की भूमिका 16. सहित्यशास्त्र के सौ वर्ष
17. कालिदास पर्याय कोश (दो खंड)।। सम्मान - फलोरिडा विश्वविद्यालय, मियामी,
अमेरिका द्वारा 'विश्व तुलसी सम्मान' संप्रति- 1. प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी एवं भाषाविज्ञान
विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय,
जबलपुर (म० प्र०) 2. अध्यक्ष, भारतीय हिंदी परिषद्, इलाहाबाद 3. निदेशक (मानद) रामचरितमानस
अंतरराष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र, प्रमोदवन, चित्रकूट (उ०प्र०) 4. अध्यक्ष, राष्ट्रीय आल्हा अनुसंधान परिषद्,
जबलपुर (म०प्र०) 5. सदस्य, हिंदी परामर्श मंडल, साहित्य
अकादमी नई दिल्ली For Private And Personal Use Only
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jin Shasan 137315 gyanmandir kohatirth.org ISBN 817702180-x RATIBHA 97881771021806 // प्रतिभा प्रकाशन (प्राच्यविद्या प्रकाशक एवं पुस्तक विक्रेता) 7259/20 अजेन्द्र मार्केट, प्रेमनगर, शक्तिनगर, दिल्ली-110007 For Private And Personal Use Only