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रघुवंश
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तं कर्णभूषण निपीडितपीवरांसंशय्योत्तरच्छदविमर्दकृशाङ्गरागम्। 5/65 एक करवट सोने के कारण अज के भरे हुए कन्धों पर कुण्डल के दबने से उसका चिह्न पड़ गया था और शय्या के बिछौने की रगड़ से उनका अंगराग भी पुंछ गया था। रात्रिर्गता मतिमतांवर मुञ्च शय्यां धात्रा द्विथैव ननु धूर्जगतो विभक्ता।
5/66 हे परम बुद्धिमान् ! रात्रि ढल गई है, अब शैय्या छोड़िये, ब्रह्मा ने पृथ्वी का भार केवल दो भागों में बाँटा है। शय्यां जहत्युभय पक्ष विनीतनिद्राः स्तम्बरमा मुखरशृङ्खलकर्षिणस्ते। 5/72 तुम्हारी सेना के हाथी, दोनों ओर करवटें बदलकर खनखनाती हुई साँकलों को खींचते हुए उठ खड़े हुए हैं। संभाव्य भर्तारममुं युवानं मृदुप्रवालोत्तरपुष्प शय्ये। 6/50 इनके साथ विवाह करके कोमल पत्तों और फूलों की शैयाओं पर विहार करना। स ललित कुसुम प्रवाल शय्यां ज्वलित महौषधि दीपिकासनाथाम्। 9/70 कभी-कभी उन्हें सारी रात फूल-पत्तों की शैय्या पर रात को चमकने वाली बूटियों के प्रकाश के सहारे काटनी पड़ी। अथार्धरात्रे स्तिमितप्रदीपे शय्यागृहे सुप्तजने प्रबुद्धः। 16/4 एक दिन आधी रात को, जब शयन-गृह का दीपक टिमटिमा रहा था और सब लोग सोए हुए थे।
शर
1. आशुग :-[अश् + उण् + ग] बाण।
पपावनास्वादितपूर्वमाशुगः कुतूहलेनेव मनुष्यशोणितम्। 3/54 उस बाण ने वहाँ का रक्त बड़े चाव से पिया, क्योंकि उसे मनुष्य के रक्त का स्वाद तो मिलता ही नहीं था। स्वं च संहितम मोघमाशुगं व्याजहार हरसूनुसंनिभः। 11/83 फिर धनुष पर चढ़े अपने अचूक बाण को देखा और बोले। रावणास्यापि रामास्तो भित्त्वा हृदयमाशुगः। 12/91 राम ने जो बाण छोड़ा, वह रावण की छाती को छेदकर।
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