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जैनवालगुटका प्रथम भाग।
भाषा। संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाचिक अपभ्रंश।
२ प्रकार के जीव।
१ संसारी २ सिद्ध । नोट-जो जीव संसार में जन्म मरण करते हैं वह संसारी कहलाते हैं । और जो जीव कों से रहित होकर मोक्ष में चले गये वह सिद्ध कहलाते हैं।'
२ प्रकार के संसारी जीव।
१ भव्य जीव, २ अभव्य जीव । नोट - भव्य वह जीव कहलाते हैं जिनमें काग से रहित होकर मुक्ति में जाने की शक्ति है। अभव्य वह जीव कहलाते हैं जिन मैं मुक्ति में जाने की शक्ति नहीं है और वह कभी मुक्ति में नहीं जावेंगे सदैव संसार में ही जन्म मरण करते रहेंगे।
२ प्रकार के पंचेन्द्रिय नीव । . . १ संज्ञी (सैनी) २ असंज्ञी (असैनी)।
नोट-जो पचेंद्री जीव मन सहित हैं वह संज्ञी कहलाते हैं जिन के मन नहीं है यह असंशी कहलाते हैं संक्षी जीव अपनी माता के गर्भ से पैदा होते हैं असंही वगैर गर्न के ही दूसरे कारणों से पैदा होते हैं जिस प्रकार चौमाले में मृतक सांप का शरीर सड़ कर उसके आश्रय से अनेक सांप होजाते हैं इनके मन नहीं होता इसी प्रकार के पंचद्री जीव असंही कहलाते हैं। संज्ञी को सैनी और असंशी को मलैनी भी कहते हैं।
अथ ८४ लाख योनि। स्थावर ५२ लाख, त्रस ३२ लाख।
५२ लाख स्थावर। पृथ्वीकाय७ लाख, जलकाय ७ लाख, अग्नि काय ७ लाख, पवनकाय ७ लाख, बनस्पति काय २४ लाख ॥