Book Title: Jain Bal Gutka Part 01
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Gyanchand Jaini

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Page 74
________________ जैनवालगुटका प्रथम भाग। पुनि उपासकाध्ययन है, अन्त कृत दश ठान ॥२५॥ अनुत्तरण उत्पाद दश, विपाक सूत्र पहिचान । बहुरि प्रश्न व्याकरण युत, ग्यारह अंग प्रमान ।। २६ ॥ मर्थ- आचापंग, २ सूत्रकृतांग, ३ स्थानांग, ४ समवायांग, ५ व्याख्याप्राप्ति, ज्ञातृशयांग, ७ उपासकाध्ययनांग, ८ अन्तकृतदशांग, ९ मनुत्तरोत्पाद , दशांग,१. प्रश्न म्याकरणांग, ११ विपाकसूत्रांग । यह ग्यारह अंग हैं। चौदह पूर्व। दोहा उत्पाद पूर्व अमायणी, तीजो वीरज बाद। अस्ति नास्ति परवादपुनि, पञ्च मज्ञान प्रवाद ॥ २७ ॥ छहा कर्म परवाद है, सत्तप्रवाद पहिचान । अष्टम आत्म प्रवाद पुनि, नवमोप्रत्याख्यान ॥ २८ ॥ विद्यानुवाद पूरव दशम, पूर्व कल्याण महन्त । प्राणवाद क्रिया बहुरि, लोक विंदु है अन्त ॥ २९ ॥ मर्थ-उत्पादपूर्व २ समायणी पूर्व, ३ वीर्य्यानुवाद पूर्व, ४ अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व, ५ ज्ञान प्रवाद पूर्व, ६ कर्म प्रवाद पूर्व, ७ सत्यप्रवाद पूर्व, ८ आत्मप्रबाद पूर्व.९ प्रत्याख्यान पूर्व, १० विद्यानुवादपूर्व, ११ कल्याणवाद पूर्व,१२.प्राणानुवादपूर्व, १३ क्रियाविशाल पूर्व, १४ लोक बिन्दु पूर्व । यह१४ पूर्व हैं ॥ . अर्थ सर्व साधु के २८ मूल गुण। दोहा। पंच महावत समितिपण, पण इंद्रियन का रौध । षट् आवश्यक साधु गुण, सात शेष अवबोध ॥३०॥ मर्थ-५ महाबत, ५ समिति, ५ इन्द्रियों का शेकना, ६ आवश्यक, मवशेष यह २८ मूलगुण साधु के जानोग पंचम महाबत ॥दोहा॥. हिंसा अनृत तस्करी, अब्रह्मपरिग्रह पाए। .

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