Book Title: Jain Bal Gutka Part 01
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Gyanchand Jaini

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Page 69
________________ जैनवाल गुटका प्रथम भाग । 1 नख केशों का नहीं बड़ना, ९ नेत्रों को पल के नहीं टिमकना, १० छाया कर रहित | शरीर । यह देश अतिशय केवल ज्ञान के होने पर उत्पन्न होते हैं । देव कृत १४ अतिशय ॥ दोहा । देव रचित हैं चार दश, अद्ध मागधो भाष। आपस माही मित्रता, निर्मल दिश आकाश ॥ ७॥ होत फूल फल ऋतु सबै, पृथिवी काच समान। चरण कमल तल कमल है, नभ से जयजय बान ॥८॥ मन्द सुगन्ध बयारि पुनि, गन्धोदक की वृष्टि । भूमि विषे कंटक नहीं, हर्ष मई सब सृष्टि ॥९॥ धर्म चक्र आगे रहै, पुनि वसु मंगल सार। अतिशय श्रीअरहन्त के, यह चौतीस प्रकार ॥१०॥ अर्थ-भगवान को अर्धमागधी भाषा का होना, समस्त जीवों में परस्पर मित्रता का होना, ३ दिशा का निर्मल होना, आकाश का निर्मल होना, ५ सय ऋतु के फल फूल धान्यादिक का एक हो समय फलना, ६एक योजन तक को पृथिवी का दर्पणवत निर्मल होना, ७ चलते समय भगवान के चरण कमल के तले स्वर्ण कमल का होना, ८ आकाश में जय जय ध्वनि का होना, ९ मन्द सुगन्ध पवन का चलना, १० सुगंध मय जल की वृष्टि का होना. ११ पवनकुमार देवन कर भूमि का कण्टक रहित करना, १२ समस्त जीवों का आनन्द मय होना, १३ भगवान के आगे धर्म चक्र का चलना,१४ छत्र धमर ध्वजा घण्टादि अष्टमंगल द्रव्यों का साथ रहना ॥ इस प्रकार ३४ अतिशय महंत तीर्थकर के होते हैं। ८प्रातिहाय्यं ॥दोहा॥ तरु अशोक के निकट में, सिंहासन छविदार ॥ तीन छत्र शिर पर लस, भामंडल पिछवार ॥११॥ । दिव्यध्वनि मुख तें खिरे, पुष्प वृष्टि सर होय। ढारें चौंसठि चमर जख, बाजें दुंदुभि जोय ॥१२॥

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