Book Title: Jain Bal Gutka Part 01
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Gyanchand Jaini

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Page 54
________________ जैनवालगुटका प्रथम भाग 1 जावेगे। भव भव में निधन हो रोटी कपडेको भटकते फिरेंगे । और जे धनपाकर दान करते हैं. उनके यहां भी है जो पीछे कियाथा उसका फलपाया और वहां भी होवेगा इस फल.आगे भोग भूमि के सुख भोग स्वर्ग जायेंगे । फिर कर्म ममि में भी उस दानका का फल सुंदर स्त्री सुंदर मकान सुंदर पुत्र धन दौलत पायेगे। दुनियां में जो कुछ भाग्यवानों के दौलत आदि सुख का कारण देखते हैं यह सर्व पूर्व भव में दिया जो दान उसका फल है। इस लिये यदि आइंदा को सुख की इच्छाहै.तो अपनी शक्ति समान दान जरूर दो दान लमान और पुण्य नहीं जो गरीब नर नारी एकरोटी भाधी रोटी एक टुकड़ा एक मुट्ठी भर अन्त भी किसी भूखेको देखेंगे जरासी दवा भी क्सिो को देखेंगे उनके इसका फल बड़के बीज समान फलेगा जैसे राई समान. बड़ के बीज ले कितना बड़ा बैंड का वृक्ष पैदा होय है, इसी प्रकार उस एक रोटी मात्र भूखे को दिये दान ले अनंताअनंत गुना फल मिलेगा। विमारों को दवा दान दनेसे अनंता अनन्तभवमै नीरोग शरीर सुन्दररूप पायेंगे। दानका फल भोग मूमि और स्वर्गादिक में चिरकाल तक सुख भोगना है। इस लिये जो आइंदा को धन दौलत स्त्री पुत्रादिक सुख पाने के इच्छुक हैं वह अपनी शक्ति समान दान जरूर देखें। देवेगा सो पावेगा वरना.खड़ा खड़ा लखावेगा। . . . अथ छान कर जल पीना॥ . . . . ' श्रावक की 'बावनवी क्रिया जल छान कर पाना है जैन धर्म में वगैर छाना जल पीना महा पाप कहा है देखो प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में ऐसालेख है। ' चौपई-बिन छानो अंजुलि जलपान । इक घटतंकीनो जिन न्हान । ...तो अघ को हमले नहिं ज्ञान । जानत हैं केवलि भगवान ।। - यहां प्रश्नोत्तर श्रावकाचार ग्रंथ क रचता यह कहते हैं कि भन छाना एक अंजुलि नर जल पीने में इतना महान पाप है कि जो हमारे दिमाग में ही नहीं समा सकता अर्थात् हम अपनी जिव्हा कर उस महा पाप को वर्णन नहीं कर सकते यह पाप इतना बड़ा है कि इस को केवली भगवान ही कह सकते हैं। . ''पानी में अनंत जीव तो महान् सूक्ष्म जल काय के हैं यानि जले ही है काया जिनकी सिवाय जलंकाय के जल में अनंत जीव सूक्ष्म प्रसकाय के भी हैं यानि कई किसम के कीडे होते हैं अगर जल ठीक तरह से न छाना जाय तो मन छाना जल पीने के समय वह कोडे भी जल में रले हुए अंदर ही चले जाते हैं

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