Book Title: Jain Bal Gutka Part 01
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Gyanchand Jaini

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Page 64
________________ जैनवालगुटका प्रथम भाग | सम्यग्ज्ञान | सम्यग्ज्ञान- नाम सच्चे ज्ञान का है यानि सब्वी वाकफियत का है यानि जिस प्रकार जीवादिक पदार्थ तिष्ठे हैं उन को उसी रूप जानना तिसका नाम सम्यग्ज्ञान है, संशय कहिये संदेह विपर्यय कहिये कुछ का कुछ (खिलाफ ) भनण्यवसाय कहिये वस्तु के ज्ञान का अभाव इत्यादिक दोषों करके रहित प्रमाण नयों कर निर्णय कर पदार्थों को यथार्थ जानना तिसका नाम सम्यग्ज्ञान है ॥ 1 ર सम्यक् चारित्र | सम्यक्वारित्र - नाम सच्चे चारित्र ( यथार्थचारित्र) का है यानि सत्यरूपप्रवर्तने का है जिन क्रियाओंसे संसार में भ्रमण करनेके कारण जो कर्म उत्पन्न होवें वह क्रिया न करनी और जिन क्रिया तथा भावों से नये कर्म, उत्पन्न न होवें उस रूप प्रवर्तना अर्थात् कर्म के ग्रहण होने के कारण जे क्रिया उनका त्याग कर अतीवार रहित मूल गुणों उत्तरगुणों को पालना धारण करना) उसका नाम सम्यक् चारित्र है ॥ सम्यग्दृष्टि । , सम्यग्दृष्टि-- उसको कहते हैं जिसके सम्यक्च उत्पन्न भई हो अर्थात् सत्यता प्रकट भई हो यहां सत्यता से यह मुराद हैं कि जो अपने आत्मा और पर शरीरादिक के असली स्वरूप का श्रद्धानी हो जानकार हो वह सम्यग्दष्टि कहलाता है सोस म्fष्ट दोप्रकार के होते हैं एकअविरत दूसरा अविरतव्रती सम्पष्टि वह हैं जो केवल आत्मा और परपदार्थ के असली स्वभाव का श्रघानी और जानकार हैं और चारित्र नहीं पालते और व्रतो सम्यकदृष्टिवह हैं जो अपने आत्मा और पर पदार्थका तथा निज स्वभावका श्रद्धानो भो हैं जानकार भीहैं और चारित्र भी पालते हैं जिनके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र तीनों पाइये वह व्रती सम्यग्दृष्टि हैं । 1 यहां इतनी बात और समझनी है कि सम्यश्व नाम सम्यग्दर्शन या सम्य दर्शन-' सम्यग्ज्ञान इन दोनों या सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्वारित्र इन तीनों की प्राप्ति का है यदि किसी जीव के सम्यग्दर्शन न होवे और बाकी के दोनों होवे तो उसके सम्यक्त की उत्पत्ति नहीं, जिस जीव के केवल सम्यग्दर्शन ही होवे और सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र न भी होवे तो भी उस के सम्यत्तव है जैसे वृक्ष के जड है उसी प्रकार इन तीनों का सम्यग्दर्शन मूल है इसके बिना उन दोनों से कभी भी मोक्ष फल की प्राप्ति नहीं अर्थात् इस सम्न्यग्दर्शन के विना ज्ञान मौर वारित्र कार्यकारी नहीं प्रयोजन ज्ञान तो कुशान और चारित्रकुंचारित्र कहलाता है इसलिये संसार के जन्म मरण रूप दुःख का अभाव नहीं हो सकता ॥. .

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