Book Title: Jain Bal Gutka Part 01
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Gyanchand Jaini

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ जैनबालगुटका प्रथम भाग। ६ नाम कर्म का कर्तव्य ॥ छठे कर्म का नाम नाम कर्म है इसका स्वभाव चितेरे समान है जैसे चितेरा अनेक प्रकार के चित्र करे ऐसे ही यह आत्मा को ८४ लाख योनियों की तरह तरह की गतियों में भ्रमण करावे है। ७ गोत्र कर्म का कर्तव्य ॥ सातवे कर्म का नाम गोत्र कर्म है इस का स्वभाव कुम्हार समान है जैसे कुम्हार छोटे वडे वरतन धनावे तैसे गोत्र कर्म अन्वे नोचे कलमें उपजावे मात्मा का छोटा शरीर या वड़ा निरवल या वली उपजावे जैसे नाम कर्म ने घोड़ा बनाया तो गोत्र कर्म चाहे तो उसे बहुत बड़ा वैलर घोडा करे चाहें जराला टटवा करें। ८ वेदनी कर्म का कर्तव्य ॥ आयकर्म का नाम वेदनी कम है इस का स्वनाच शहद लपेटी खडग को धारा समान है जो किंवित मिष्ठ लगे परन्तु जीन को काटे तैसे जीव को किंचित लाता उपजाय सदा दुःख हो देवे है। . कर्म को किस तरह जीते हैं ? ईश्वर की याद ार से इस दुनिया को फानी जान इस को लज़तों से मुख मोड़ यानि तमाम धन दौलत कुटंय आदि तमाम परिग्रह को छोड़ तप अंगीकार कर समाधी ध्यान घर परमात्मा का स्वरूप वितवन करते हैं लो परमात्मा के स्वरूप के चितवन ले सर्व कर्मों का नाश हो जाता है। कों के नष्ट होने से क्या होता है ? जंब कर्म जाते रहे चितवन करने वाला आप भी वैसा ही परमात्मा सर्व का जानने वाला सर्वत्र होजाता है ! . क्या इन्सान भी परमात्मा होजाता है ? . जैसे अग्नि में जो लकड़ी डालो वह अग्निरूप होजाती है तैसे ही जो ईश्वर परमात्मा सर्वक्ष का ध्यान चितवन करे वह वैसा हो होजाता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107