Book Title: Jain Bal Gutka Part 01
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Gyanchand Jaini

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Page 38
________________ जैनबालगुरका प्रथम माग। अथ१४ गणस्थान। १ मिथ्यात्व २ सासादन ३ मिन कहिये सम्यक्मिथ्यास्त्र ४ अविरत सम्यक्त्व ५ देशवत ६ प्रमत्त संयमी ७ अप्रमत्त संयमी ८ अपूर्वकरण ९ अनिवृतिकरण १० सूक्ष्मसापराय ११ उपशांतकषाय वा उपशांतमोह १२ क्षीणकषाय वा क्षीणमोह १३ सयोगकेवली १४ अयोगकेवली। नोट-नमें पंचम गुणस्थान तक गृहस्थ और छठेसे लेकर १४ तक मुनि होय हैं:१ पहला गुणस्थान मिथ्या दृष्टियोंके होयह भव्य कमी होय अमन्य के भी होय ॥ २ दूसरा लासादन गुणस्थान जो सम्यच से छूट मिथ्यात्त्व मैं नावे जब तक मिथ्यात्व में न पहुंचे बीच की अवस्था में होय है जैसे फल वृक्ष से टूटे जब तक भूमि पर नहीं पहुंचे तब तक वीच का मारग सासादन कहिये इस दूजे गुणस्थान से लेकर ऊपर १४ तक के भाष भन्यके ही होय अभव्य के न होय क्योंकि मभन्य असाच कभी भी न होय है और दूजे से लेकर ऊपर १४वें तक के भाव उसी के होय जिसके सम्यश्व होगया होय, जो सम्यग्दर्शन शान चारित्र की शुद्धिता कर मोल पाने को योग्य हैं वह भव्य हैं और मोक्ष से विमुख अभव्य हैं और जिनके सम्यग्दर्शन शान चारित्र की निर्मलता होय वह निकट भव्य हैं। ३ गुणस्थान सम्यत्व और मिथ्यात्व दोनों मिलकर मिश्र होय है। ४ गुणस्थान अनत सम्यग्दृष्टि गृहस्थी श्रावक के होय है। ५ गुणस्थान छुलक एलक आदि प्रतीभावक के होय है ।। 4 गुणस्थान सर्व साधारण प्रमत्त संयमी मुनि के होय है। ७ गुणस्थान १५ प्रकारके प्रमाद के अभाव से अप्रमत्त संयमी के होय है। ८, ९,१०, गुणस्थान उपशम और क्षायकश्रेणी वाले मुनि के होय है।।। “११ गुणस्थान उपांत कषाय मुनि कै होय है। १२ गुणस्थान क्षीण कषाय मुनि कै होय है। १३, १४ गुणस्थान केवली के होय है।

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