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-The TFIC Team.
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॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥
जैन बाल गुटका
मंथम भाग
विसको
जैन पाठशालाओं में पढ़ाने
बाव ज्ञानचंद्र नेमाने बनाकर पाया
JAIN RELIGIOUS TRACTS SERIES.
No 2. 1
बीर सं० २४३ व १९६१ १९१
मूल्य 10) पुस्तक का पता:
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बाबू ज्ञानचन्द्र जैनो मालिक पुस्तकालय अनारकली जैनगलो लाहौर।
नाव एजागोमोशनचा वार में विपर बाला खाली
स्वाधीन द
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कोई और पे] [पचार २०००
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भूमिका यह जैन बाल गुटका जैनपाठशालाभों में बच्चों को पढ़ाने के , लये बनाया है इसमें १३ श्लामा पुरुषो १८ पुण्य पुरुषो २४ तीर्थ : परों के २४ चिन्हों के २४ चिम भगवान की माता जो १६ स्वप्न गर्भ पाणक के समय देरे उन स्वप्नों के चित्र पंच परमेष्ठी के इप छत्तीसी सहित १४० मल गुण वार पदार्थ का मासा मधं सम्यक्त का वर्णन कर्म की १४८ कर्म प्रकृति ४ लाख योनियों का खुलासा आदि अनेक जैन मत के कथन जो जो बच्चों को सिखाने अरी मंजिनने मन्थो को बाध्याय हम ने मपनी साठ वर्ष की आयमें करी उन सबको साररिस] इस पुस्तक में कर काट कर भरा है यह पुस्तक हर एक जैन पाचशाला म हमारे यहां से मंगाकर बच्चों को पानी चाहिये और हर जैनो भाई को इसकी स्वानाय करना चाहिये ऐसी उपकारी इतनी बड़ी पुस्तक का दाम ताहिर जैनी खरीद सफ, केवल रखा है ।। पुस्तपा मिलले का पता वा शानचन्द्र जैनी, लाहौर,
विज्ञापन। इस, पुस्तक का नाम जैन बाल गुटका और यह, पुस्तक दोनों हमने रजिस्टरी करालिये हैं कोई महाशय भी अपनी पुस्तक का नाम जैनवाल गुटका न रक्वे और न यह पुस्तक या हमारे रचे हुए इस के मजमून छापे जो छापेगा उसे लाहौरकी कचहरीका सैर करनी पड़ेगी।
पुस्तक रचिता-बाधु ज्ञानचन्द्र जैनी लाहौर
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जैनबालगुटका ।
: प्रथम-भाग । अथ णमोकार मन्त्र:::
णमोअरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।
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नोट- जिन माइयों ने जैन ग्रंथ देखे हैं अथवा नवकार माहात्म्य पाठ पढ़ा है वह जानते हैं कि नवकार मंत्र से कितने जीवों को किस २ प्रकार सिद्धि हुई हैं सो वह 'नवकार मंत्र ४६ प्रकार के हैं सों उन का कुल खुलासा हाल और उनमें से महाशक्ति धान् २५ नवकार के जैन मंत्र, और इस नवकार मंत्र के अक्षर मक्षर और शब्द शब्द का ..खुलासेवार अलग अलग एक बहुत बड़ा 'अर्थ जैन वालगुटके दूसरे भाग में छपा ह जो हमारे यहां से 11) में मिलता है ।
अथ पंचपरमेष्ठियों के नाम
अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु । ॐ अ सि आ उ. सा नमः ।
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नोट- असिआ उसी नाम पंच परमेष्ठी का है इस में अ, अरहन्त का 'सि, सिद्ध की भा आचार्य का उ, उपाध्याय का । सा, साधु का है, और जो बाजा अक्षर हैं इस में पंचपरमेष्ठी के नाम गर्मित हैं ।
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अथ ६३ - शलाका पुरुषों के नाम ।
- २४ तीर्थंकर १२ चक्रवर्ती ९ नारायण ९ प्रति नारायण
९ बलभद्र यह मिलकर ६३ शलाका के पुरुष कहलाते हैं ।
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जैन बालगुटका प्रथम भाग |
अथ २४ - तीर्थंकरों के नाम ।
१ ऋषभदेव, २ अजितनाथ, ३ सम्भवनाथ, ४ अभिनन्दननाथ, ५ सुमतिनाथ, ६ पद्मप्रभ, ७ सुपार्श्वनाथ, ८ चन्द्रप्रभ, ९ पुष्प दन्त, १० शीतलनाथ, १९ श्रेयांसनाथ, १२ वासुपूज्य, १३ विमलनाथ, १४ अनन्तनाथ, १५ धर्मनाथ, १६ शान्तिनाथ, १७ कुन्थुनाथ, १८ अरनाथ, १९ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रतनाथ, २१ नमिनाथ, २२ नेमिनाथ, २३ पार्श्वनाथ, २४ वर्द्धमान ।
नोट - ऋषभदेव को ऋषभनाथ वृषभनाथ और आदिनाथ भी कहते हैं, पुष्पदन्त को सुविधिनाथ भी कहते हैं । वर्द्धमान को वीर, महावीर, अतिधीर, और सन्मत भी कहते हैं।
समझावट - बहुत से पुरुष तीर्थकरों के नाम के साथ श्री या जी हरफ जोड़कर वोलते हैं जैसे ऋषभदेव को श्रीऋषभदेवजी कहना सो बोलने में तो कुछ दोप नहीं, बलकि इस से उन के नाम का ताज़ीम पाई जाती है परन्तु जाप्य करने में श्री या जी हरगिज़ नहीं जोड़ने क्योंकि तीर्थकरों के नाम एक जातिके मंत्र हैं मंत्रों का हरफ कम या जियादा करके जपना योग्य नहीं, दूसरे जी हरफ हिंदी भाषा है सो भाषा तो है सो यदि इसी प्रकार हर एक जवानवाले इनके नाम के साथ अपनी भाषाके हरफ जोड़ने लग जायें तो हर एक भाषा में इनके नाम अन्य अन्य प्रकार के होजावें सो जैसा करना दूषित है इसलिये श्री और जो हरफ मंत्र जपने में हरगिज़ नहीं जोड़ने ।
१२ चक्रवर्त्ती ।
१ भरतचक्रवर्ती, २ सगरचक्रवर्ती, ३ मघवाचक्रवर्ती, ४ सनत्कुमार चक्रवर्ती, ५ शांतिनाथचक्रवर्ती, (तीर्थङ्कर) ६ कुन्थु नाथचक्रवर्ती (तीर्थङ्कर), ७ अरनाथ चक्रवर्ती (तीर्थङ्कर ), ८ सुभूम चक्रवर्ती, ९ पद्मचक्रवर्ती (महापद्म) १०हरिषेण, चक्रवर्ती, ११ जयसेन चक्रवर्ती, १२ ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती ॥
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जैनबालगुटका प्रथम भाग।
-नारायण १ त्रिपृष्ट, २ द्विपृष्ट, ३ स्वयम्भू, ४ पुरुषोत्तम ५ पुरुषसिंह, ६ पुण्डरीक, ७ दत्त, ८ लक्ष्मण ९ कृष्ण ॥
६-पतिनारायण। १ अश्वग्रीव, २तारक, ३मेरक, ४मधु (मधुकैटभ) ५ निशुंभ, ६वली,७ प्रह्लाद, ८ रावण, ९ जरासंध ।
ह-बलभद्रा १ अचल, २ विजय, ३ भद्र, ४ सुप्रभ, ५ सुदर्शन, ६ आनंद ७ नंदन (नंद), ८ पद्म (रामचन्द्र) ९ रोम (बलभद्र)। नोट-रामचंद्र का नाम पद्म और कृष्ण के भाई का नाम वलभद्र भी था। अथ १६६-पुण्यपुरुषों के नाम
ह-नारद । १ भीम२ महाभीम ३ रुद्र ४ सहारुद्र ५ काल ६ महाकाल ७ दुर्मुख ८ नरकमुख ९ अधोमुख।
१भीमवली रजितशत्रु ३रुद्र (महादेव ). ४विश्वानल ५सुप्रतिष्ठ ६अचल ७पुण्डरीक ८अजितधर ९जितनाभि • १०पीठ ११सात्यकि। .
१४-कुलकर। १सीमंकर रसन्मति ३क्षेमकर ४क्षेमंधर ५सीमंकर ६सीमंधर ७विमलवाहन चक्षुष्मान् ९यशस्वी १०अभिचंद्र ११चन्द्राभ १२मरुदेव १३प्रसेनजित १४नाभि राजा।।
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जैनबालगुटका प्रथम भाग ।
२४-कामदेव। · १ बाहुबली २ अमिततेज,३ श्रीधर ४ दशभद्र ५ प्रसेनजित् ६ चन्द्रवर्ण ७ अग्निमुक्ति ८ सनत्कुमार. (चक्रवर्ती) ९ वत्सराज १० कनकप्रभ ११ सेधवर्ण,१२ शांतिनाथ (तीर्थकर) १३ कुंथुनाथ (तीर्थंकर) १४ अरनाथ (तीर्थंकर) १५ विजयराज १६ श्रीचन्द्र १७ राजानल १८ हनुमान १९ बलगजा २० वसुदेव २१ प्रद्युम्न २२ नागकुमार २३ श्रीपाल २४ जंबूस्वामी।
नोट-५८ नाम तो यह और ६३ शलाका पुरुष और चौबीस तीर्थकरोंके ४८ माता पिता के नाम जो आगे २४ चित्रों में लिखे हैं इन में मिलाकर यह सर्व १६९ पुण्य पुरुष कहलाते हैं अर्थात् जितने पुण्यवान पुरुष हुए हैं उनमें यह मुख्य गिने जाते हैं।
.१२ प्रसिद्ध मनुष्यों के नाम। १ नाभि २ श्रेयांस ३ बाहुबली ४ भरत ५ रामचन्द्र ६ हनुमान ७ सीता रावण ९ कृष्ण१०महादेव११ भीम१२ पार्श्वनाथ। '
नोट-कलकरों में नामिराजा, दान देने में श्रेयांस राजा, तप करने में बाहुबली एक साल तक कायोत्सर्ग खड़े रहे, भावको शुद्धता में भरत चक्रवर्ती दीक्षा लेते ही केवल ज्ञान हुवा वलदेवों में रामचद्र, कामदेवों में हनुमान सतियों में सीता,मानियों में रावण, नारायणों में कृष्ण रुद्रों में महादेव, बलवानों में भीम, तीर्थंकरों में पार्श्व नाथ यह पुरुष जगत में बहुत प्रसिद्ध हुए हैं ।
.: ५-तीर्थकरबालब्रह्मचारी वालुपज्य २ मल्लिनाथ ३ नेमिनाथ४पार्श्वनाथ ५ वर्द्धमान । मोट-यह बालब्रह्मचारी हुए हैं इन्होंने विवाह नहीं किया राज्य भी नहीं किया, कुमार अवस्था में ही दीक्षा ली। ... ३-तीर्थंकर तोनपदवी के धारी। . १ शांन्तिनाथ २ कुंथुनाथ ३ अरनाथ ।
नोट-यह ३ तीर्थकर चक्रवर्ती और कामदेव भी हुए हैं।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग |
१६ - प्रसिद्ध सतियों के नाम ।
१ ब्राह्मी २. चंदनबाला ३ राजल ४ कौशल्या ५ मृगावती ६ सीता ७ समुद्रा ८ द्रौपदी ९ सुलसा १० कुन्ती ११ शीलावती १२ दमयंती १३ चूला १४ प्रभावती १५ शिवा१६ पद्मावती ।
नोट-सती तो अंजना रयणमंजूपा मैनासन्दरी विशल्या आदि अनेक हुई हैं यह उन में १६ मुख्य कहिये महान सती हुई हैं और जो पति के साथ जल मरे उसे अन्यमत में सती कहते हैं सो इन सतियोंके सतोपन का वह मतलव नहीं समझना, जैनमत में जो जलकर मरे उसे महा पाप अपघात माना है उस का फल नरक माना • है जैनमत में सती शीलवान को कहते हैं जो किसी प्रकार के भय या लोभ वगैरा से अपने शील को न डिगावे जैन मत में उस को सती माना है ।
अतीत (भूत) (पिछली) चौवीसी ॥
१ श्रीनिर्वाण, २ सागर, ३ महासाधु, ४ विमल प्रभ, ५ श्रीधर, ६ सुदत्त, ७ अमलप्रभ, ८ उद्धर९ अंगिर, १० सन्मति १९ सिन्धु नाथ, १२ कुसुमांजलि, १३ शिवगण, १४ उत्साह, १५ ज्ञानेश्वर १६ परमेश्वर, १० विमलेश्वर, १८ यशोधर, १९ कृष्णमति, २० ज्ञानमति, २१ शुद्धमति २२ श्रीभद्र २३ अतिक्रांत, २४ शान्ति ॥ अनागत (भविष्यत ) (आइन्दा) चौवीसी ॥
१ श्रीमहापद्म, २ सुरदेव, ३ सुपार्श्व, ४ स्वयंप्रभ ५ सर्वात्मभूत, ६ श्रीदेव, ७ कुलपुत्रदेव, ८ उदंकदेव, ९ प्रोष्ठिलदेव, १० जय कीर्ति, ११ मुनिसुव्रत १२ अर, (अमंम) १३ निष्पाप, १४ निःकषाय १५ विपुल, १६ निर्मल, १७ चित्रगुप्त, १८ समाधिगुप्त, १९ स्वयंभू, २० अनिवृत्त, २१ जयनाथ, २२ श्रीविमल, २३ देवपाल, २४ अनंतवीर्य ॥
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जैनवालगुष्टका प्रथम भाग। महाविदेहक्षेत्रके २० विद्यमान .. १ सीमन्धर, २ युग्मंधर, ३ बाहु, ४ सुबाहु, ५ संजातक, ६ स्वयंप्रभ, ७ वृषभानन, ८ अनंतवीर्य, ९ सूरप्रभ, १० विशाल कीर्ति, ११ वजधर, १२ चंद्रानन, १३ चन्द्रबाहु, १४ भुजंगम, १५ ईश्वर, १६ नेमप्रभ (नमि) १७ वीरसेन, १८महाभद्र १९ देव. यश, २० अजितवीर्य ।
२४ तीर्थंकरों की १६ जन्म नगरीये॥ १, २, ४,५,१४, की अयोध्या, तीसरे की श्रावस्ती नगरी, छठेकी कोशांशी ७,२३ की काशीपुरी वेंकी चन्द्रपुरी में की का. कंदी नगरी १० की भद्रिकापुरी ११३ की सिंहपुरी १२३ को चम्पापुरी १३वे की कपिला नगरी १५वेकी रत्नपुरी १६,१७,१८ का हस्तनापुर १९, २१ की मिथलापुरी २०वे की कुशाग्र नगर या राजराही २२वें की शौरीपुर या द्वारिका २४वें की कुण्डलपुर।
नोट-अयोध्या को लाकेता भावस्ती नगरी को .महेट पाम । काशी को बनारस चम्पापुरीको भागलपुर । रत्नपरीको नौराई और शौरीपुरको बटेश्वर भी कहते हैं।
तीर्थकरों की जन्म नगरियों में फरक। २२ वे तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म किसी अन्य शौरीपुर में और किसी अन्य में शारिकापुरी में २०वे तीर्थंकर का जन्म किसी ग्रन्थ में कुशाग्न नगर में और किसी ग्रन्थ मैं राजगृही में लिखा है सो इन में जो फरक है वह केवली जानें।
२४ तीर्थंकरों के निर्वाणक्षेत्र।
ऋषभदेवका कैलाश,वासुपूज्य का चंपापुरी का बन, नेमिनाथ का गिरनार,वर्द्धमान का पावापुर, बाकी के २० का सम्मेद शिखर है।
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जैनयलागुटका प्रथम भाग। अथ श्री सम्मेदशिखर जी के दर्शन।
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इस श्री सम्मेद शिखर के नकशे में एक तरफ पूर्वदिशा में सबसे ऊची टोक नम्बर ९श्री चन्द्रप्रभ की है दूसरी पश्चिम दिशा में सबसे ऊञ्चो टोक नम्वर २४ श्री पार्श्व नाथ तीर्थंकर की है इस पर्वत से २० तीर्थकर और अलख्यात केवली मोक्ष गये है पर्वत पर २४ तीर्थकरो की चौवोस ही टीक है । यह चौवीस टोक होने का कारण यह है कि एक कल्पकाल २० कोटा कोटो सागर का होय है जिस में १० कोटा कोटो सागर का पहला अव सर्पणी काल १० कोटा कोटी सागर का दूसरा उत्सर्पणी काल सो जितने अनंतानंत कल्पकाल गुजर चुके हैं उन में सिवाय इस कालके जितनी चौवीसी हुई है सब इली पर्वत से मोक्ष को गई है प्रलयकालके वाद और पर्वतो का यह नियम नहींकि जहां पहले था वहां ही फिर धने परंतु यह श्रीसम्मेद शिखर हर प्रलय के बाद यहां ही बनता है और चौवीसो इसी से मोक्षको जाती है इस लिये चौबीसों ट्रोक ही पूजनीक है। ___ जव पहाड़ पर यात्रा करने चढ़ते हैं तो सबसे पहले टौंक १ श्रीकुन्थु नाथकी टोंक पर जाते हैं फिर पूर्व दिशा में दूसरी टौक श्री नमिनाथ की है, ३ अरनाथ की है । मल्लिनाथ की ५श्रेयांस नाथ की पुष्पदन्त की ७ पद्मप्रम को सुनि सुव्रतनाथ की ९ चंद्रप्रभ की १० भादि नाथ की ११ शीतलनाथ की १२ मनंतनाथ की १३ सभवनाथ की
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जैनबालगुटका प्रथम भाग। १४ वासुपूज्य का १५ अभिनन्दन नाथ की यह १५ टौंक पूर्व दिशा में हैं फिर बीच में जल मन्दिर है, फिर पश्चिम दिशा में १६वीं टौंक श्रीधर्मनाथ को है १७ सुमतिनाथ की । १८ शांतिनाथ की १९ महावीर की २० सुपार्श्वनाथ को २१ विमलनाथ की २२ अजित नाथकी २३ नेमिनाथकी २४ पार्श्वनाथ को यह ९ टौंक १६ से २४ तक पश्चिम दिशा में हैं इनका विशेष हाल जैन तीर्थयात्रा में लिखा है जोहमारे यहां ले १)में मिलती है।
अथ श्रीगिरिनार जी के दर्शन।
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इस श्री गिरनार जी के नकशे में पहले पहाड़ के नीचे ठहरने की धर्मशाला है फिर पहाड़ पर जाने को फाटक यानी दरवाजा है फिर ऊपर चढ़ पहाइपर दर्शन करने जानेको दूसरा फाटक यानी दरवाजा है फिर श्वेताम्बरी मंदिर हैं इस जगह कोलोरठ के महल घोलते हैं फिर थोड़ी दूर पर दो दिगम्बरी मंदिर हैं यहां ही राजल जो की गुफा है यहां राजलजीने तप किया है यहांसे आगे रास्ते में अग्विका देवी : को मंदिर आता है यह इस पहाड़ की रक्षक हैं फिर जाकर 'श्री नेमिनाथं तीर्थंकर के केवलज्ञानकल्यानक की टोंक पर पहुंचते हैं फिर मोक्ष कल्याणक की टौंक पर पहुंचते होसि पर्वत से श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर आदि ९९ करोड मुनि मुक्त गये हैं इसका विशेष ' हाल हमने जैन तीर्थयात्रामें लिखा है श्रीगिरनार जी को ऊर्जयन्त गिर भी कहते हैं।
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जैनयाल गुटका प्रथम भाग। " दूसरे सिद्धक्षेत्रों के नाम ।
१ मांगीतुंगी २ मुक्तागिार (मेढगिरि)३ सिद्धवरकूट (ओंकार) ४पावागिरि ५ शत्रुजय (पालीताना) ६ बडवानी (चूलगिरि) ७ सोनागिरि नैनागिरि (नैनानंद) ९ दौनागिरि (सदेपा) १० तारंगा ११ कुंथुगिरि १२ गजपंथ १३ राजगृही पंचपहाड़ी) १४ गुणावा (नवादा) १५ पटना १६ कोटिशिला १७ चौरासी।
मोट--इसका मतलब यह नहीं समझना कितने हो सिद्धक्षेत्र हैं इसके इलावे और भी बहुत है परन्तु कालदोष से यह मालूम नही रहा है कि वह कहां हैं इसलिए ५ तोर्थकर निर्वाणक्षेत्र और १६ दूसरे जो इस समय प्रसिद्ध हैं वही २१ यहां लिखे हे निर्वाणकांड रचताने भी जो पाठ रचने के समय आम मशहूर थे उसमें घही वर्णन किए हैं बाकी के सिद्धक्षेत्रों को आखीर में तीन लोक के तीण में नमस्कार करा है।
अतिशय क्षेत्रों के नाम १ अहिक्षतजो २ चंदेरी ३ थोवनजी ४पपोराजी ५ खजराहा ६ कुण्डलपुर ७ वनड़ा ८ अंतरिक्ष पार्श्वनाथ.९. कारंजयजी १०
भातकुली ११ रामटेक १२ आबूजी१३ केसरियानाथ१४ चांदनपुर . १५जैनबद्री१६ कानूरग्राम १७ मूलबद्री १८ कारकूल १९ बारंगनगर २० चोरासी मथुरा के पास है।
नोट-चौरासी को जम्बूस्वामी का निर्माण क्षेत्र भी कहते हैं परंतु घाज शास्त्रों में जस्यूस्वामी का निर्वाण राज गृही (पंच पहाडी) में लिखा है इस कारण से हमने इस अतिशय क्षेत्रों में भी लिखा है अहिक्षतजी को रामनगर जैन बद्रीको भ्रवण विगलोर या गोमठ स्वामी मूलबद्री को सहस्र फूट, केसरियानाथ को काला वावा चांदनपुर को महावीर भी कहते हैं, यह अतिशय, संयुक्त जैन तीर्थ हैं तीर्थं से कहते हैं जिस कर भन्य जीव भवसागर कोतिरे इन का विशेष हाल जैनतीर्थ यात्रा मह!
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अनबालगुटका प्रथम भाग।
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अथ २४ तीर्थंकरों की माताओं के १६ स्वप्न
(भाषा छंदबन्दपाठ)
सुर कुब्जर सम कुज्जरधवल धुरंधरो । केहरि केसर शोभित नखशिख सुन्दरो । कमला कलश न्हौन दोउ दामसुवा वने । रविशशि मण्डल मधुर मीन युगपावने। पावन कनक घट युग्मपुरण कमल सहित सरोवरो । कल्लोल माला 'कुलितसागर सिंह पीठ मनोहरो । रमणीक अमर विमान फणिपति भवन रवि छवि छाजिये । रुचिरत्न राशि दिपन्त पावक तेजपुञ्ज विशजिये ।
(संस्कृत)
गजेंद्र वृष सिंहपोत कमलालया दाम क, शशांक रविमोन कुम्भ नलिना कराम्मो निधि, मृगाधिपघृतासनं सुर विमान नागालय, मणि प्रचय वन्हि नासह विलोकितं मंगलम्
अथं २४ तीर्थंकरों की माताओं के १६ स्वप्नों के १६ चित्र |
तीर्थकरों के गर्भ में आने के समय जो उनकी माताओं को १६ स्वप्न दिखाई देते हैं उन १६ स्वप्न के चित्र इस प्रकार हैं। १ पहले स्वप्ने में श्वेत वर्ण सुर हस्ती दीखे है ।
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जैन बालगुटका प्रथम भाग। . २ दूसर स्वप्ने में स्वेत वर्ण वल दीखे है।
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३ तीसरे स्वप्न में श्वेत वर्ण शेर दीखे है।
४ चौथे स्वप्ने में हाथियों कर होय है अभिषेक जिसका ऐसा
कमलों के सिंहासन पर लक्ष्मीबैठी दीखे हैं।
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जनबालगुटका प्रथम भाग। ५ पांचवें स्वप्नेसे आकाशतिषे दो फूल मालालटकती हुई दीखेंह
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६ छठे खाने में रात्रा के समय किरणों साहत
सम्पूर्ण चन्द्रमा दीखे है।
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. सातवे स्वप्ने में जगत को रोशन करता हुवा उदयाचल
पर्वत पर उगता हुवा सूर्य दीखे हैं।
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जैनबालगुटका प्रथम भाग। आठवें स्वप्नेमें सरोवरके जल विषे केल करते हुये युगल (दो)
मीन (मच्छी) दीखे हैं।
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१ नवमें स्वप्ने में सुगंध जलके और दो कंचन के कलश जिन के
मुख कमल से ढके हुये हैं तो दी है।
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१० दशवें स्वप्ने में महा मनोहर पौड़ियों सहित स्वच्छ जल से
भरा कमलों कर पूर्ण सरोवर दीखे है।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग ११ग्यारहवें स्वप्ने में उछलतीहुई उंची तरंगों सहित समुद्रदीखे है।
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१२ बारहवें स्वप्ने में लक्ष्मी का स्थानक महा मनोहर
.. सिंहासन दीखे है।
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१३ तेरहवें स्वप्ने में नाना प्रकार की ध्वजाओं कर शोभित
आकाश विषे आवता हुवा देव विमान दीखे हैं।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग। १४चौदहवे स्वप्न में पाताल से निकलता नागेन्द्र का भवन दीखे है
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१५ पंदरहवें स्वप्न में अरुणजे पद्मरागमणि (चुन्नी) (लाल) उज्वल जे वज्रमणि(हीरा)हरित जे मरकत मणि (पन्ना)श्याम जे इन्द्र नीलमणि (नीलम), और पीत जे पुष्प राग मणि (युषराज), इत्यादि रत्नों की बड़ी ऊंची राशि दीखे है।
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१६ सोलहवें स्वप्ने में बलती हुई निर्धूम अग्नि दीखे है।
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जैनबालगुटका प्रथम भागे। __ अथ २४ तीर्थंकरों के २४ चिन्ह।
। (भाषा छंद बंद पाठ)। दोहा-तीर्थंकर चौबीस के, कहूं चिन्ह चौबीस। जैनग्रन्थ में वर्णिये, जैसे जैन मुनीस ।
पाडी छंद। श्री आदनाथ के वैल जान, अजितेश्वर के हाथी महान संभव जिन के घोड़ा अनप, अभिनदन के बांदर सरूप। श्री समतनाथ के चकवा जान । श्रीपा प्रभुक कमल मान, सथिया सुपार्श्व के शोभवंत, चंदा के आधा चंद दिपंता नाक संयुक्त श्री पुष्पदंत वृक्ष कलप कही सीनले महंत,श्रेयांस नाथ के गैंडा देख, श्री वासु पूज्य के भैंसा रेख विमलेश्वर के सूवर बखान, सेही अनंत के कर प्रमान । श्री धर्मनाथ के वज्र दंड, प्रभु शांति नाथ के हिरण मंड। कुथु जिनके बकरा केहंत, मछली का अर प्रभु के लसन्त। श्रीमल्लिनाथ के कलसयोग. मनिसुव्रत के कछवा मनोगांचिनकमल श्रीनमिके कहत,शंख नोमनाथ के बल अनंत पारस के सर्प है जग विख्यात, सिंह सोहेवीर के दिवसरात॥ दोहा-चिन्ह बिंबपर देख यह, जानो जिन चौबीस ।
पौछी कमंडलु युक्त जे, ते बिंब जैन मुनीस ।। नहीं चिन्ह अरहंत की सिद्ध की कही अकाश।
ज्ञानचंद प्रभुदरस से कटे कर्म की राल॥ नोट-२४ तीर्थंकरों के २४ चिन्ह जो हमने इस पुस्तक में लिखे हैं इन को सही समझ कर बाको के लेख भोसो अनुसार कर देने चाहिये इस का संशोधन हमने संस्कृत प्राकृत अन्यों के प्रमाण के साथ किया है।
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जनबालगुटका प्रथम भाग। अथ २४ तीर्थंकरों के २४ चिन्हों के २४चित्र।
१-ऋषभदेव के बैल का चिन्ह। .
___ पहिला भव सर्वार्थसिद्धि जन्म नगरी अयोध्या पिता नाभिराजा, मातामरुदेवो, काय ऊंची५०० धनुषा रंग स्वर्ण समान पीला आयु ८४ लाखपूर्व दीक्षा वृक्ष बट ( बड़ के नीचे दीक्षा ली ) गणधर ८४ निर्वाण आसन पद्मासन निर्वाणस्थान फैलाश यह तीसरे कालमें उत्पन्न भए और तीसरे में ही मोक्ष गए जब यह मोक्ष गए इनसे ३ वर्षसाढे आठ महीने बाद चौथा काल प्रारम्म हुआ । अंतर
इनसे५ लाख कोटि सागर गएपीछेअजितनाथभए॥ २-अजितनाथ के हाथी का चिन्ह ।
पहिला भव वैजयन्त नामा दूसरा अनुत्तर विमान जन्म नगरी अयोध्या पिता का नाम जितशत्रुमाता का नाम विजयसेनादेवी काय ऊंची४५० धनुष रंगस्वर्ण समान पीला आयु ७२ लाख पूर्व दीक्षा वृक्ष सप्तछद (सितौना) निर्वाणभासन खड़गासन निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर,अंतरानसे
३० लाख कोटि सागर गए पीछे संभवनाथ भए । . .३-संभवनाथ के घोड़े का चिन्ह ।
- पहिला भव ग्रैवेयक जन्मनगरीश्रावस्ती पिताका नाम जितारि माता का नामसुषेणा देवी काय ऊंची४००५नुष रंग रचर्ण समान पीला आयु ६० लाख पूर्व दीक्षावृक्ष शाल गणधर १०५ निर्वाण मारून खड्गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, भन्तर इनसे १०लाख कोटि सागरगए पीछे अभिनन्दन नाथ भए॥
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जैनयालगुटका प्रथम माग ४-अभिनन्दननाथ के बन्दर का चिन्ह।
पहिला भव वैजयंतनामा दूसरा अनुसर विमान जन्म नगरी अयोध्या पिताका नाम संपर माताका नाम सिद्धार्थी काय ऊंची ३५० धनुष, रंग स्वर्ण समान पोला आयु ५० लाख पूर्व दीक्षा वृक्ष सरल गणधर १०३. निर्वाण आसन खड्गासन निर्माण स्थान सम्मेदशिखर, अन्तर इनसं ९ लाख
कोटिसागर गए पीछे सुमतिनाथ भए । ५-सुमतिनाथ के चकवे का चिन्ह ।।
पहिला भव उद्धवेथक जन्म नगरी अयोध्या पिता का नाम मेघप्रम माता का नाम सुमंगला (मंगलावती) काय ऊंची ३०० धनुष रंग सुवर्ण समान पीला आयु४० लाख पूर्व धोशा वृक्षप्रियंगु (कगुनी ) गणधर ११६ निर्वाण आसनखड्गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, अंतरानसे ९० हजार
कोटि सागरगए पीछे पद्ममम भए॥ .. ६-पमप्रभ के कमल का चिन्ह। '
पहिला भव वैजयंत नामा दूसरा अनुत्तर विमान जन्म नगरी कोशाम्बी पिता का नाम धारण माता का नाम सुसीमादेवी काय ऊंची २५० धनुष, रग कमल समानमारकासुरख) आयु ३० लाख पूर्व दीक्षा वृक्ष प्रियंगु (कंगुनी) गणधर १११ निर्वाण आसन खड्गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, अंतर
इन से ९ हजार कोटि सागर गए पीछे सुपार्श्वनाथ भए-. -सुपार्श्वनाथ के साथिये का चिन्ह । । पहिला भव मध्यौवेयक जन्म नगरी काशी पिता का नाम सुप्रतिष्ठ माताकानाम पृथिवी(षेणादेवी काय ऊंची२००धनुष, रंग प्रियंगु मन्जरी , समान हरा यु २०लाख पूर्व दीक्षा वृक्ष शिरीष (सिरस) गणधर९५ निर्वाण आसन खड्गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, मंतर इन से ९ सौ कोटि सागर गए पीछे चन्द्रप्रभ भए
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जैनवालगुटका प्रथम भाग |
८- चन्द्रप्रभके अर्धचन्द्र का चिन्ह |
पहिला भव वैजयंत नामा दूसरा अनुत्तर विमान जन्मनगरी चन्द्र पुरी पिता का नाम महासेन माताका नाम लक्ष्मणादेवी काय ऊंची १५०धनुप,रंग श्वेत (सुफेद)मायु १० लाख पूर्व दीक्षावृक्ष नाग गणधर ९३ निर्माण आसन खड्गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, अंतर इनसे ९० कोटि सागर गए पीछे पुष्पदन्त भए ॥
.९ - पुष्पदन्त के नाकू (संसार) का चिन्ह |
२१
पहिला भव भपराजित नामा चौथा अनुत्तर विमान जन्म नगरी काकन्दी पिता का नाम सुत्रोव माताका नाम जयरामादेवी काय ऊंची १०० धनुष रंग श्वेत (सफ़ेद) आयु २ लाख पूर्व दीक्षा वृक्ष शाल, गणधर ८८ निर्वाण आसन खड्गासन निर्माण स्थान सम्मेदशिखर, अंतर इन से ९ कोटि सागर गए पीछे शीतलनाथ नए ॥ १० - शीतलनाथ के कल्पवृक्ष का चिन्ह |
पहिला भव आरण नामा१५वां स्वर्ग जन्मनगरी भद्रकापुरी पिता का नाम दृढरथमाताका नाम सुनन्दादेवी काय ऊंची ९०धनुष, रंग स्वर्णसमान पीला आयु एक लाख पूर्व दोक्षा वृक्ष प्लक्ष (पिलखन) गणधर ८१ निर्वाण आसन खड्गासन निर्वाणेस्थान सम्मेद शिखर अंतर इनसे १०० सागर घाटकोटि सागरगए पीछे श्रयांसनाथ भए । ११- श्रेयांसनाथ के गैंडे का चिन्ह |
पहिला भव पुष्पोत्तर विमान जन्म नगेरी सिंहपुरी पिताका नाम विष्णु माताका नाम विष्णुश्री काय ऊंची ८० धनुष, रंग स्वर्ण समान पीला, आयु ८४ लाख वर्ष दीक्षा वृक्ष तिंदुक गणधर ७७ निर्वाण आसन खड्गा सन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, अन्तर इनसे५४लाग र गए पीछे वासुपूज्य भए ।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग
१२ - वासुपूज्य के भसे का चिन्ह |
after re nafuष्ठ नामा आठवां स्वर्ग जन्म नगरी चंपापुरी पिताका नाम वासु माताका नाम विजया ( जयवतीदेवी) काय ऊंची ७० धनुष रंग केसू के फूल समान आरक्त (सुरख) आयु ७२ लाख वर्ष दीक्षा वृक्ष पाटल गणधर ६६ निर्वाण आसन खड्गासन, निर्वाण स्थान चम्पापुरीका वन अन्तर इनसे ३० सागरगए पीछे विमल नाथ भए । वासुपूज्य बालब्रह्मचारी भए न विवाह किया न राज्य किया कुमार अवस्था में ही दीक्षा ली ||
१३ - विमलनाथ के सूवर का चिन्ह ।
पहिला भव शुक्रनामा ९ वां स्वर्ग जन्म नगरी कपिला पिता का नाम कृतवर्मा माता का नाम सुग्म्या (जयमामा देवी काय ऊंची ६० धनुष रंग स्वर्णसमान पीला आयु ६० लाख वर्ष दीक्षा वृक्ष जम्बू (आमन) गणधर ५५ निर्वाण आसन खड़गासन निर्वाणस्थान . सम्मेद शिखर, अंतर इन से ९ सागर गए पीछे अनंतनाथ भए ।
१४- अनंतनाथ के सेही का चिन्ह |
,
पहिला भव सहस्रार नामा १२वां स्वर्ग जन्म नगरी अयोध्या पिता का नाम सिंहसेन माताका नाम सर्वयशा (जय श्यामादेवी) काय ऊंची ५० धनुष रंग स्वर्ण समान पीला आयु ३०लाख वर्ष' दीक्षा वृक्ष पीपल गणधर ५०
निर्वाण आसन खड्गासन निर्वाण
स्थान सम्मेदशिखर, अंतर इस से ४ सागर गए पीछे धर्मनाथ मए ॥
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जैनयालगुटका प्रथम भाग। १५-धर्मनाथ के वज़दण्डका चिन्ह । पहिला व पुष्पोतर विमान जन्म नगरी रत्नपुरी पिताका नाम भानु माताका नाम सुप्रभादेवी। काय ऊंची ४५ धनुष रंग स्वर्ण समान पीला आयु १०लाख वर्ष वीक्षा वृक्ष दधिपर्ण, गणघर ४३ निर्वाण भासन खड़गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, अंतर इन से पौणपल्य घाट तीन सागर गए पीछे शांतिनाय भए ।
१६-शान्तिनाथ के हिरण का चिन्ह ।
पहिला भवं पुष्पोत्सरविमान जन्म नगरी हस्तनापुर पिताका नाम विश्वसन माता का नाम ऐरादेवी(अजितारानी)काय ऊंची ४० धनुपरंग स्वर्ण समान पोला आयु एक लाख वर्षदीक्षा वृक्षनंदी गणधरनिर्वाण
आसन खड़गासन निर्वाण स्थानसम्मेद शिखर, अन्तर नसे आध पल्य गये पीछे कुन्थुनाथभये । शांतिनाथतीर्थंकरचक्रवर्ती
और काम देव तीन पदवीके धारी भये। १७-कुन्थुनाथ के बकरे का चिन्ह ।
: पहिला भव पुष्पोत्तरविमान जन्म नगरी हस्तनापुर पिताका नाम सूयं माता का नाम श्रीकांतादेवी, काय ऊंची ३५ धनुष रंग स्वर्ण समान पीला आयु २५हजार वर्ष दीक्षावृक्ष तिलक गणधर३५निर्वाण आसन खड़गासननिर्वाणस्थान सम्मेदशिखर,अंतर इनसे छ हजार कोटिवर्ष घाट पावपल्य गए पोछे अरनाथ भये।
नोट-कुंथुनाथ तीर्थंकर चक्रवर्ती और काम देष तीन पदधी के धारी भये।
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जैनवालगुटका प्रथम माग '१८-अरनाथ के मछली का चिन्ह ।
पहिला भव सर्वार्थसिद्धि जन्म नगरी हस्तनापुर पिता का नाम सुदर्शन माता का नाम मित्रसेनादेवी काय ऊंचो ३० धनुप रंग स्वर्ण समान पोला आयु८४ हजार वर्ष दीक्षावृक्ष आन आम) गणघर ३० निर्वाण आसन खड़गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, अंतर इनसे पैंसठलाख चौरासी हजार वर्षघाट हजारकोटिवर्पगये मल्लिनाथ नये नोट-मरनाथ तीर्थकरचक्रवर्ती और कामदेव तोनपदवीकेधारी भये १९-मल्लिनाथ के कलश का चिन्ह । पहिला भव विजय नाम पहिला अनुत्तर विमान जन्म नगरीमिथिला पुरी पिता का नाम कुम्न माता का नाम प्रजावतो काय ऊंत्री २९ धनुष रंग स्वर्ण समान पोला माय५५ हजार वर्ष दीक्षा वृक्ष अशोक गणधर ०८ निर्वाण आसन खड़गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, अन्तर इनके पीछे ५४ लाख वर्प गये श्रीमुनिसुव्रतनाथ भये। नोट-मल्लिनाथ बालब्रह्मचारी भये न विवाह किया न राज्य किया
कुमार अवस्था में हो दीक्षा ली ॥ . २०-मुनिसुव्रतनाथ के कछचेका चिन्ह ।
पहिला भव अपराजित नामा चौथा अनुत्तर विमान जन्म नगरी कुशाननगर अथवा राज्यमही पिता का नाम सुमित्र माता का नाम पदमावती (सोमानामादेवी) काय ऊंची २० धनुप, रंग अञ्जन गिरि (सुरमे का पहाड) समानश्याम आयु ३० हजार वर्ष दीक्षावृक्ष चंपक (चंलो गणधर १८ निर्वाण आसन खड़गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, * अन्तर इनक पीछे ६ लाख वर्ष गये नमिनाथ भये । २१-नमिनाथ के कमल का चिन्ह ।
पहिला भव प्राणत नामा १४ वां स्वर्ग जन्म नगरी मिथिलापुरी पिता का नाम विजय माता का नाम वमा काय ऊंची २५ धनुषरंग स्वर्णसमान पीला आयु १० हजार वर्ष दीक्षा वृक्ष चौलश्री गणधर १७निर्वाण आसन खड़गासन निर्वाण स्थान सम्मेदशिखर, भन्तर इलबे ५ लाख वर्ष गये पीछे नेमिनाथ भये ।
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जैनबालगुटका प्रथम भाग। २२-नेमिनाथ के शंख का चिन्ह ।।
पहिला भव वैजयंत नामा दूसरा अनुत्तर विमान जन्म नगरी शोरीपुर वा द्वारिका पिताका नाम समुद्रविजय माताका नाम शिवा देवी काय ऊंची १०धनुष रंग मोरके कंठ समान श्याम आयुरहजार वर्ष दीक्षावृक्ष मेषशृंग, गणधर ११निर्वाणासन खडगासननिर्वाण स्थान गिरिनार पर्वत अन्तर इनसे पौने चारासीहजारवर्षगये पीछे पाश्र्वनाथ भये ॥
नोट-नेमिनाथ बाल ब्रह्मचारी भये न विवाह किया न राज्य किया, फुमार अवस्था में ही दीक्षा ली।
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२३-पार्श्वनाथ के सर्प का चिन्ह ।
पहिला भव आनत नामा १३वां स्वर्ग जन्म नगरी काशी पुरी पिता का नाम अश्वसेन माताका नाम वामा काय ऊंची ९हाथ रंग काचीशालिाहरधान)समानहराभायु सौ वर्ष दीक्षा वृक्ष धवल गणधर१०निर्वाण आसनखडगासन निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर,अन्तरानसेनदासौ वर्षगये पोछे बर्द्धमान भये
नोट-पार्श्वनाथ बालब्रह्मचारी भये न विवाह किया न राज्य किया, कुमार अवस्था में ही दीक्षा ली ॥ २४-महाबीर के शेरका चिन्ह ।
पहिलामव पुष्पोखर विमान जन्म नगरीकुण्डलपुरपिता का
नाम सिद्धार्थ माता का नाम । प्रियकारिणीप्रसला)कायऊंची
७ हाथ, रंगस्वर्ण समान पीला आ. ७२वर्ष दीक्षा वृक्ष शाल गणधर११ निर्वाणासन खड़ा ।
गासननिर्माण स्थानपावापुर। यह बाल ब्रह्मचारी भये न विवाह क्यिा न राज्य किया कुमार भवस्था में ही 'दीक्षा ली जब यह मोक्षगये तब चौथे कालके तीनवर्ष साढे आठ महीने बाकी रहे थे।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग। अथ बच्चों के याद करने को नामावली। निम्नलिखित नाम बच्चों को याद करलेने चाहिये ।
निधि। १ काल, २ महाकाल,३ पांडुक,४ मानवाख्य, ५ नैसाख्य, ६ सर्वरलाख्य,७ शंख, ८ पध, ९ पिंगलाख्य ॥
१४ रत्न। १ सुदर्शन चक्र २ सुनंदखड़ग, ३दंड ४ चमर,५छत्र, ६चूड़ा मणि, ७ सेनापति, चिंतामणि कांकणी, ९ अंजिकजयअश्व, १० विजया पर्वतगज, ११ भजकुंडस्थापित १२ विद्यासागरपुरोहित १३ कामवृद्धि गृहपति, १४ सुभद्रानामक स्त्री ॥ . . .
१० कल्पवृक्ष। १ मद्यांग,रतुर्याङ्ग,३भूषणांग,४कुसुमांग,५दीप्त्यांग, ज्योति रंग,७ गृहांग, भोजनांग,९ भाजनोग, १० वस्त्रांग, ॥
८दीप १ जम्बूद्वीप, २धातुका द्वीप, ३ पुष्करवरद्वीप, ४वारुणीवर द्वीप, ५ क्षीरवरद्वीप, घृतवरद्वीप, ७इक्षुवर द्वीप, नन्दीश्वर द्वीप
७क्षेत्र। भरत, २ हैमवत, ३ हरिक्षेत्र, ४ विदेहक्षेत्र ५रम्यकक्षेत्र, ६ ऐरण्यवत्क्षेत्र ७ ऐरावत क्षेत्र ॥
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जैनवालगुटका प्रथम भांग।
१४ नटिये। गंगा २ सिंधु ३ रोहित ४ रोहितास्या ५ हरित ६ हरिकांता ७सीता ८ शीतोदा ९ नारी १ . नरकांता ११ सुवर्णकला १२ रूप्य कूला १३ रक्ता १४ रक्तोदा॥
६ कुण्ड (द)। १पद्म, २महापद्म,३ निगिच्छ ४केसरी ५ महापुण्डरीक ६ पुण्डरीक
७ ईति (आफतें) (मुसीवत)। १ अतिवृष्टि २अनावृष्टि (वर्षा बिलकुल न होना) ३मूसक (अनंत मूसे पैदा होकर तमाम खेती खा जावें) ४ टिड्डी (टिड्डी खेती खा जावें ।५ सुवा (अनंत सूवा पदा होकर खेती खा जावें ) ६ आपका कटक (सेना)७ परका कटक ॥
५ अनुत्तर विमान। विजय, वैजयंन, जयंत, अपराजित, सर्वार्थसिद्धि ।
१६ स्वर्ग। १ सौधर्म, २ ऐशान,३सानत्कुमार, ४ माहेंद्र ब्रह्म,६ब्रह्मोतर,७ लांतव, कापिष्ट,९ शुक्र १० महाशुक्र,११ सतार,१२सहलार, १३ आनत, १४ प्राणत, १५ आरण, १६ अच्युत ॥ .
७नरक। १ रत्नप्रभा (धम्मा), २ शर्कराप्रभा (वंशा', ३ बालुकाप्रभा (मेघा), ४ पंकप्रभा (अंजना), ५ धूमप्र का (अरिष्टा), ६तभप्रभा (मघवी),७ महातम प्रभा (माघवी)।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग |
४ काय के टेव ।
· १
भवनवासी २ व्यंतर ३ ज्योतिषी ४ वैमानिक ( कल्पवासी) । १० प्रकार के भवनवासी देव ।
१ असुरकुमार २ नागकुमार ३ विद्युत्कुमार ४ सुवर्णकुमार ५ अग्नि कुमार ६ पवनकुमार ७ स्तनितकुमार ८ उदधिकुमार ९ द्वीप कुमार १० विक्कुमार ॥
८ प्रकार के व्यंतर देव ।
१ किन्नर २ किम्पुरुष ३ महोरग ४ गंधर्व ५ यक्ष ६ राक्षस ७ भूत पिशाच ।
५ प्रकार के ज्योतिषी देव | १ सूर्य २ चंद्रमा ३ ग्रह ४ नक्षत्र ५ तारे । १६ प्रकार के वैमानिक (कल्प वासी) देव ।
नोट - इनके वही नाम हैं जो १६ स्वर्गों के हैं।
६ द्रव्य |
१
जीव २ अजीव ३ धर्म 8 अधर्म ५ काल ६ आकाश ॥ पञ्चास्तिकाय ।
छ द्रव्यों में से कालद्रव्य निकाल देने से बाकी के पांचों द्रव्य पंचास्तिकाय कहलाते हैं अर्थात् कालद्रव्य के काय नहीं है बाकी पांचों द्रव्यों के काय. हैं।
५ लब्धि |
1.
क्षयोपशम लब्धि, २ विशुद्धलब्धि, ३ देशना लब्धि, ४ प्रायोग लब्धि, ५ करण लब्धि ॥
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नोट-इन में चार तो हर जीव के हो सकती हैं परन्तु पंचमी करण लेग्धि निकट भव्य के ही होय है ।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग।
भाषा। संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाचिक अपभ्रंश।
२ प्रकार के जीव।
१ संसारी २ सिद्ध । नोट-जो जीव संसार में जन्म मरण करते हैं वह संसारी कहलाते हैं । और जो जीव कों से रहित होकर मोक्ष में चले गये वह सिद्ध कहलाते हैं।'
२ प्रकार के संसारी जीव।
१ भव्य जीव, २ अभव्य जीव । नोट - भव्य वह जीव कहलाते हैं जिनमें काग से रहित होकर मुक्ति में जाने की शक्ति है। अभव्य वह जीव कहलाते हैं जिन मैं मुक्ति में जाने की शक्ति नहीं है और वह कभी मुक्ति में नहीं जावेंगे सदैव संसार में ही जन्म मरण करते रहेंगे।
२ प्रकार के पंचेन्द्रिय नीव । . . १ संज्ञी (सैनी) २ असंज्ञी (असैनी)।
नोट-जो पचेंद्री जीव मन सहित हैं वह संज्ञी कहलाते हैं जिन के मन नहीं है यह असंशी कहलाते हैं संक्षी जीव अपनी माता के गर्भ से पैदा होते हैं असंही वगैर गर्न के ही दूसरे कारणों से पैदा होते हैं जिस प्रकार चौमाले में मृतक सांप का शरीर सड़ कर उसके आश्रय से अनेक सांप होजाते हैं इनके मन नहीं होता इसी प्रकार के पंचद्री जीव असंही कहलाते हैं। संज्ञी को सैनी और असंशी को मलैनी भी कहते हैं।
अथ ८४ लाख योनि। स्थावर ५२ लाख, त्रस ३२ लाख।
५२ लाख स्थावर। पृथ्वीकाय७ लाख, जलकाय ७ लाख, अग्नि काय ७ लाख, पवनकाय ७ लाख, बनस्पति काय २४ लाख ॥
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जैनवालगुटका प्रथम भाग। २४ लाख बनस्पतिकाय। प्रत्येक बनस्पति १० लाख, नित्यनिगोद ७ लाख, इतर निगोद ७ लाख ॥
नोट-नित्यनिगोद और इतर निगोद दोनों वनस्पति कायम शामिल हैं और यह दोनो साधारणही होती हैं फेवल १० लाख वनस्पति प्रत्येक होती है।
प्रत्येक उसको कहते हैं जो एक शरीर में एक जोव हो, साधारण उसको कहते हैं जो एक शरीर में अनेक जीव हो।
३२ लाख बसकाय। विकलत्रय ६ लाख, पंचेद्रिय २६ लाख।
६ लाख विकलचय। बेइंद्रिय २ लाख,तेइंडिय २ लाख,चौइंद्रिय २ लाख ।
नोट-वेइ द्रिव यानि दो इन्द्रिय वाले जीव तेइन्द्रिय याति तीन इन्द्रिवधारी जोव और चार इन्द्रिय धारनेवाले जीव यह तीनो जानिके जीव विकलभय कहलातेहैं।
२६ लाख पंचेंद्रिय। मनुष्य१४ लाख, नारकी४ लाख, देव ४ लाख, पशु४लाख।
चार लाख पश। शेर बगैरा दरिन्दे गौ वगैरा चरिन्दे चिड़िया वगैरा परिन्देसांप गोह धगैरा जो पञ्चेन्द्रिय जीव जमीनमें रहते हैं मोर मच्छी वगैरा जो पञ्चेन्द्रिय जीव जलमें रहते हैं यह सर्व चार लाख पशुपर्यायमें शामिल हैं।
६२ लाख तिर्यंच। __५२ लाख स्थावर, ६ लाख विकलत्रय, और ४ लाख पशु यह सर्व ६२ लाख जातिके जीव तिर्यच कहलाते हैं। ___ भोट-विर्यच शब्द का अर्थ तिरछा चलने वाला भी है और कुटिल परिणामी भी है सो स्थावरचल नहीं सके इस लिये यहां तिरछा चलने पाला अर्थ महीं बन
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जैनबालगुटका प्रथम भाग। सकता पस इस स्थान पर तिर्यंच शब्दका अर्थ कुटिल परिणामी है क्योंकि इन ६२ लाख योनि के जीवों के परिणाम कुटिल होते हैं ।
५स्थावर। त्रसके सिवाय बाकी के पाचों कायके जीव पांच स्थावर कहलाते हैं।
नोट-स्थावर उसको कहते हैं जो चल फिर नहीं सक्ते और जो चल फिर सकते है वह प्रस कहलाते हैं।
.प्रकारके वस। बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय । नोट-एक इन्द्रियके सिवाय वाकी सर्व जीव अस कहलाते हैं।
६ काय। १ पृथ्वाकाय, २ अप (जल) काय, ३ तेज (अग्नि) काय, ४ वायुकाय, ५ बनस्पतिकाय, ६ सकाय॥ नोट-संसारी जीव यह छ प्रकार के शरीर धारण करते हैं।
पृथिवीकाय । जो जीव चलने फिरने उहने वाले सूक्ष्म या मोटे पृथिवी पर रहते हैं या सांप आदि जमीन में रहते हैं वह पृथ्वीकाय में शामिल नहीं हैं जिन जीवों का शरीर खास मट्टी या पत्थर वगैरा ही है जो चल फिर नहीं सकते घही जीव पृथिवीकाय कहलाते हैं ।
. जलकाय। जो जीव चलने फिरने वाले मच्छो वगैरा बडे या सूक्ष्म पानी में रहते हैं वह जलकाय में शामिल नहीं है जिन जीवोका शरीर खालपानो ही है जो चल फिर नहीं सकते वह जीव जलकाय कहलाते हैं, जल का नाम अप भी है इसलिये जलकाय के जीव अपकाय भी कहलाते हैं ।
. अग्निकाय। । अग्निकाय के वह जीव हैं जिनका शरीर खास अग्नि ही है, वह पल फिर नहीं सकने, अग्नि का नाम तेज भी है,इसलिये अग्निकाय के जीव तेजकाय भी कहलाते हैं।
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जैनपालगुटका प्रथम भागः।
... वायुकाय। जो जीव सूक्ष्म या मोटेचलने फिरने उड़ने वाले वायु में रहते हैं, वह वायुकाय . में शामिल नहीं हैं, जिनजीवोंका शरीरखास वायुहीहै वह जीव वायुकायकहलातेहैं।
. . बनस्पतिकाय। जो जीव चलने फिरने वाले कोडे वगैरा दरखतों में या फलों में होते हैं, वह बनस्पतिकाय में शामिल नहीं हैं, जिन जीवों का शरीर खास दरखत पौदे फल फूल है वह जीव वनस्पतिकाय कहलाते हैं।
त्रसकाय। जो जीव चलने फिरने या उडनेवाले सांप, विस्छु कीडी वगैरा सूक्ष्म या मोटे जमीन में रहते हैं या मच्छी वगैरा जल में रहते हैं या हवा में उडवे फिरते रहते हैं या कीडे अल वगैरा सबजी, पात, फलों में रहते हैं यह सब प्रसकाय कहलाते हैं, अर्थात् मनुष्य देव,नारको पशुपक्षी जितने स्थलचर नभयर जलचर आदिनसनाडीके अंदर चलने फिरने वाले संसारी जीव हैं वह सर्व त्रस जीव कहलाते हैं।
सजीव स्थान। कोई भी प्रसजीव प्रसनालीले वाहिर नहीं जा सकता, हां किसी त्रसजीवके प्रसनाली में तिष्टते हुए कुछ आत्म प्रदेश वाहिर जा सकते हैं जैसे केवलीके समुदघात होने के समय तीन लोक में आत्म प्रदेश फैलते हैं या जो असजीच अस नाली से मरकर बसनाली के वाहिर स्यावर बनते हैं या प्रसनाली से बाहिर स्थावर योनि .. छोडकर त्रस नालीके अंदर घस उत्पन्न होते हैं मरती दफे जब एक शरीरसे दूसरे शरीर तक उनके आत्म प्रदेश तंतु समान वन्धते हैं तव उनके आत्मप्रदेश वाहिर भीतर जाते हैं वरने पूरा अस जीव किसी हालतमेभी प्रसनालीले बाहिर नहीं जाता। प्रसनाली तीनलोक के मध्य एक राजू चौडी एक राजू लंबी १४ राजू ऊंची है इस में नीचे निगोद में-१ राजू में त्रसजीव नहीं ऊपर सर्वार्थ सिद्धि से ऊपर प्रसजीव नहीं वाकी कुछ कम १३ राजू मनाली में उसजीव भरे हुए हैं इस प्रसनाली में स्थावर भी भरे हुए हैं बसनाली इसको इस कारण से कहते हैं कि स्थावर जीव तो असनाली के वाहिर भीतर तीनलोक में भरे हुए हैं बस सिरफ • प्रस नाली में ही हैं इस ही वजह से यह असनाली कहलाती है और इस जीव
इस में ही हैं.घाहिर नहीं ॥ .
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जैनथाल गुटका प्रथम भाग।
.. ३ तीन लोक1 अलौकाकाश के बीच में तीन बातवलो कर वेष्टित यह तीन, लोक तिष्ठे है ऊई (ऊपर का) लोक मध्य (बीचका) लोक,पाताल (नीचरला) लोक, यह तीन लोक नीचे से ७ राजू चौड़े ७ राजू लंबे हैं ऊपरसे एक राजू चौड़े एक राजू लंबे हैं बीच में से कहीं घटता हुवा कहीं से बढ़ता हुचा जिस प्रकार मनुष्य अपने दोनों हाथ कटनी पर रखकर पैर छीदे करके खड़ा होजाये इस शकल में नीचे से ऊपर तक तीनों लोक १४ राज ऊंचे हैं अगर चौड़ाई लम्बाई और ऊंचाई को आपस में जरब देकर इनका रकवा निकाला जावे तो पैमायश मैं यह तीनों लोक ३४३ मुकाव राजू हैं मुकाव उस को कहतेहैं जिसके छहों पासे एकसां हो अर्थात् यदि इस लोकके एक राजू चौड़े एक राज लंबे एकहाऊंचं ऐसे खंड बनायेजावे तो तोन लोककोकुल पैमायश३४३राजूहै।
अथ मध्य लोक। इस मध्य लोक में असंख्याते द्वीप, समुद्र हैं उनके बीच लवण समुद्र कर वेढा लक्ष योजन प्रमाण यह जम्बू द्वीप है इस जम्बू द्वोप के मध्य लक्ष योजन ऊंचा सुमेरु पर्वत है, यह सुमेरु पर्वत एक हजार योजन तो पृथ्वी में जड़ है और ९९ हजार योजन ऊंचा है सुमेरु पर्वत और सौधर्म स्वर्ग के बीच में एक वाल की अणी मात्र अंतर (फासला ) है हम जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में रहते हैं।
अथ काल चक्र का वर्णन । एक कल्प २० कोटा कोटि सागर का होवे है एक कल्प काल के दो हिस्से होय हैं प्रथम का नाम अवसर्पणो काल है यह १० कोटा कोटि सागरं का होय है दूसरे का नाम उत्सर्पणा काल है यह भी १० कोटा कोटि लागर का होय है, जव अवसर्पणी काल का प्रारंभ होय है उस में पहले प्रथम काल फिर दूसरा तीसरा चौथा पांचवा छठा प्रवरते हैं छठे के पीछे फिर उत्सर्पणी काल का प्रारम्भ होय है उसमें उलटा परिवर्तन होय है । अर्थात् पहले छठा काल बीते है फिर पांचवां चौथा तीसरा दसरा पहिला प्रवरते हैं प्रथम के पोछे प्रथम और छठेके पीछे छठाकाल माघे है इस प्रकार अवसर्पणी काल के पीछे उत्सर्पणी काल मावे है और उत्सर्पणी काल 'के पीछे अवसर्पणी काल आवे है ऐसे ही सदैव से पलटना होती चली आवे है और सदैव तक होतो हुई चली जावेगी । जितने भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र हैं इन ही में यह छै काल की प्रवृति होय है। दूसरे द्वीप महाविदेह भोग भूमि आदि क्षेत्रों में तथा स्वग नरकादिक हैं उनमें कहीं भी इन छै काल की प्रवृति नहीं उनमें सदा एक ही रीति रहे है मायु कायादिक घट बढेन देव लोक और 'उत्कष्ट भोग भूमि में
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जैनवालगुटका प्रथम माग लदा प्रथम सुखम सुखमा काल की रीति रहे है मध्य भोग भूमि में जो दूसरा सुखमा काल उसकी रीति रहे है जघन्य भोग भूमि में सुखमदुनमा जो तीसरा काल सदा उसकी रीति रहे है और महाविदेह क्षेत्रों में सदा दुखमसुखमा , जो चौथा काल उसकी रीति रहे है और अंत के आधे स्वयम्भू रमण समुद्र में तथा चारों कोण विषे तथा अन्त के आधे द्वीप में तथा समुद्रों के मध्य जितने क्षेत्र हैं उनमें सदा दुखमा जो पंचम काल उसकी रीति रहे है ओर नरक में सदा दुखम दुखमा जो छठा काल सदा उसकी रीति रहे है सिवाय भरत और ऐरावत क्षेत्र के बाकी सव क्षेत्रों में एक ही रीति रहे हैं सिरफ माय कायादिक का. घटना बदना रीति का पलटना मरत क्षेत्रों और ऐरावत क्षेत्रों में ही होय है भवसर्पणी के छैः काल में दिन बदिन जीवों के सुख आयु काय घटते हुए चले जाव हैं उत्सर्पणी के छहों काल में दिनवदिन बढ़ते हुए चले जाय हैं ॥
६-काल के नाम । । . . . १ सुखमसुखमा, २ सुखमा, ३ सुखम दुःखमा, ४ दुःखम सुखमा, ५ दुःखमा, ६ दुखमदुःखमा I.. I..
६-काल की अवधि। . . प्रथम काल ४ कोटा कोटि सागर का होय है । दूसरा ३ कोटा कोटि सागर का, तीसरा २ कोटा कोटि सागर का, चौथा.४२ हजार. वर्ष घाट १ कोटा कोटि सागर का, पंचम २१ हजार वर्ष का, छठा २१ हजार वर्ष का होय है ।।
नोट-प्रथम काल में महान सुख होता है दूसरे में सुख होता है दुःख नहीं परन्तु जैसा सुख प्रथम में होता है वैसा नहीं उस से कुछ कम होता है, तीसरे में सुख है परन्तु किसी किसी को कुछ लेश मात्र दुःख भी होता है चौथे में दुःख और सुख दोनों होते हैं पुण्यवानों को सुख होता है और पुण्यहीनों को दुःख होताहै बल्कि वाजवकत पुण्यवानों को भी दुःख होजाता है पांचवें में दुःख ही है सुख नहीं सुख नाम उसका है जिसे दुश्ख न होवे सो पञ्चम काल के जीवों को किसी को कुछ दुःख है किसी को कुछ दुःख है जिस प्रकार कोई दुखी पुरुष जब सो जाता है. उसे अपने दुःख का स्मरण नहीं रहता इसी प्रकार जब इस पंचम काल के जीव किसी विणे में रत हो जाते हैं तो जो दुःख उनके अन्तष्करणमें है उसे भूल अपने तई सुखी माने हैं जव उनको फिर दुःखयाद आवे है वह फिर दुःख मानते हैं । इसलिये पंचम काल में दुल ही है सुख नहीं छठे काल में महादुःख है।
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जैन बालगुटका प्रथम भाग।
अथ ४ अनुयोग। १ प्रथमानुयोग, २ करणानुयोग, ३चरणानुयोग,४ द्रव्यानुयोग।
१ प्रथमानुयोग नाम पुराणरूप कथनी (तवारीख) (History) का है जितने जिनमत के पुराण, चरित्र, कथा है जिनमें पुण्य पाप का भेद दरशाया है वह सर्व प्रथमानुयोग की कथनी है ॥
२ करणानुयोग नाम जुगराफिये (Geography) का है जो कुछ अलोका काश और लोकाकाश आदि तोन लोक में द्वीपक्षेत्र समुद्र पहाड दरया स्वर्ग नरक आदि. की रचना है सब का वर्णन करणानुयोग में है ॥
३ धरणानुयोग नाम आचरण,चारित्र (क्रिया) (हुनर) (Arts)का है ग्रहस्थियों की जितनी क्रिया आवरण है और गृहत्यागी जो मुनि उनके चारित्र आचरणका कुल वर्णन घरणानुयोग में है ॥ '४ द्रव्यानुयोग नाम पदार्थ विया (इलमतवई) (Soience) का है दुनिया में जो जीव (रह) (Soul),अजीव (मादा) (Matter) पदार्थ हैं उन के गुण खासियत ताकत का कुल वर्णन द्रव्यानुयोग में है ॥
नोट-यह हमने चारों अनुयोगों का मतलब चालकों को समझाने को बहनही संक्षेप रूपलिखा है इस का विशेष वर्णन छोटा रत्न करंड १५० श्लोक वाला और वडा रत्नकरंडजो ताड पत्रोंपर मैसूर में भट्टारकजी के पास है आदि प्रयोसे जानना ।।
इन चारों अनुयोगमें वोह कथनी है जिसको वाकफीयतसे इस जोवका कल्याण हो अर्थात् शानकी वढवारी होनेसे यह जीव पाप कार्यको छोड कर धर्मकार्य में प्रवते ॥
तीनलोक में सब से बड़ी सडक ।। इन तीन लोक में आने जाने को पाताल लोक के नरक से लेकर उर्द्ध लोक के सर्वार्थसिद्धि तक एक प्रसनाली नामा सडक है अस जीव रूपी मुसाफिर हर दम उस पर गमन करते हैं जैनमत रूपी रास्ता बताने वाला कहता है कि उन १४ गुण स्थान नामा पौड़ियों के मार्गले ऊपर बांदने की तरफ को जाओ, नीचे नरफ रूपी महा अंधेरा खाडा है उस में गिर पडोगे, और मिथ्या मत रूपी राहवर कहता है कि अगर इस दुनिया की चौरासो लाख यूनो रूपी घरों की सैर कानी है तो नीचे को जाओ ऊपरको मत जाओ ऊपर को जाओगे तो मक्त रूपी पिंजरे में फंसजाओगे जहां से इस दुनिया में फिर न आसकोगे, वहां खानापीना चलनाफिरना जोलनातक कुछभी भवसिर न आवेगावलकि यह अपना सोहना मनमोहना शरीरभी खोबैठोगे।
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जैनबालगुरका प्रथम माग।
अथ१४ गणस्थान। १ मिथ्यात्व २ सासादन ३ मिन कहिये सम्यक्मिथ्यास्त्र ४ अविरत सम्यक्त्व ५ देशवत ६ प्रमत्त संयमी ७ अप्रमत्त संयमी ८ अपूर्वकरण ९ अनिवृतिकरण १० सूक्ष्मसापराय ११ उपशांतकषाय वा उपशांतमोह १२ क्षीणकषाय वा क्षीणमोह १३ सयोगकेवली १४ अयोगकेवली। नोट-नमें पंचम गुणस्थान तक गृहस्थ और छठेसे लेकर १४ तक मुनि होय हैं:१ पहला गुणस्थान मिथ्या दृष्टियोंके होयह भव्य कमी होय अमन्य के भी होय ॥
२ दूसरा लासादन गुणस्थान जो सम्यच से छूट मिथ्यात्त्व मैं नावे जब तक मिथ्यात्व में न पहुंचे बीच की अवस्था में होय है जैसे फल वृक्ष से टूटे जब तक भूमि पर नहीं पहुंचे तब तक वीच का मारग सासादन कहिये इस दूजे गुणस्थान से लेकर ऊपर १४ तक के भाष भन्यके ही होय अभव्य के न होय क्योंकि मभन्य असाच कभी भी न होय है और दूजे से लेकर ऊपर १४वें तक के भाव उसी के होय जिसके सम्यश्व होगया होय, जो सम्यग्दर्शन शान चारित्र की शुद्धिता कर मोल पाने को योग्य हैं वह भव्य हैं और मोक्ष से विमुख अभव्य हैं और जिनके सम्यग्दर्शन शान चारित्र की निर्मलता होय वह निकट भव्य हैं।
३ गुणस्थान सम्यत्व और मिथ्यात्व दोनों मिलकर मिश्र होय है। ४ गुणस्थान अनत सम्यग्दृष्टि गृहस्थी श्रावक के होय है। ५ गुणस्थान छुलक एलक आदि प्रतीभावक के होय है ।। 4 गुणस्थान सर्व साधारण प्रमत्त संयमी मुनि के होय है। ७ गुणस्थान १५ प्रकारके प्रमाद के अभाव से अप्रमत्त संयमी के होय है।
८, ९,१०, गुणस्थान उपशम और क्षायकश्रेणी वाले मुनि के होय है।।। “११ गुणस्थान उपांत कषाय मुनि कै होय है। १२ गुणस्थान क्षीण कषाय मुनि कै होय है। १३, १४ गुणस्थान केवली के होय है।
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जनयालगुटका प्रथम भाग।
अथ ८कर्म का वर्णन। १ कर्म क्या चीज है इस जीव का कर्तव्य । २ कर्म कितनी प्रकार के हैं कर्म ८ प्रकार के हैं चार धाति चार अधाति । ३ चारघाति कर्मफेक्या नामह शानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, मोहनीय । ४ चार मघाति कर्म के क्या नाम हैं । १ आयु, २ नाम, ३ गोत्र,४ वेदनीय । ५घाति कर्म किसको कहते हैं। जो आत्माके स्वभावको घाते (कमजोरकरें)।
मघाति कर्म किस को कहते हैं। जो आत्मा के स्वभाव को कमजोर तो नहीं करता परंतु दुख सुख का कारण बनाये है।
अथ आठों कम्मों का कर्तव्य।
१ज्ञानावरण कर्मका कर्तव्य। पहले कर्म का नाम ज्ञानावरण है इस का स्वभाव पड़दे समान है इस का कर्तव्य यह जीव के सम्याज्ञान को आछादित करे है (ढके हैं)
२ दर्शनावरण कर्म का कर्तव्य । दूसरे कर्म का नाम दर्शनावरण है इस का स्वभाव परवान समान है आस्मा को अपने निज स्वरूप का.दर्शन न होने दे ॥
३अंतराय कर्म का कर्तव्य। . तीसरे कर्मका नाम अंतराय है इसका स्वभाव भंडारी समान है यह आत्मा को लाम में मंतराय करे यानि विघ्न डाले।
मोहनीय कर्म का कर्तव्य। चौथे कर्मका नाम मोहनीय है इसका स्वभाव मदिरा समानहै यह मात्मा कोमरम हो उपजावे उसको अपने शान दर्शनमय निज स्वभाव का ठोक सरधान न होने दे।
५ आय कर्म का कर्तव्य। . पांचवे कर्म का नाम आय है इस का स्वभाव महादृढ़बेड़ी समान है. यह जीव को एक खास मियाद तक भवरूप चंदो खाने में राखे है।
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जैनबालगुटका प्रथम भाग।
६ नाम कर्म का कर्तव्य ॥ छठे कर्म का नाम नाम कर्म है इसका स्वभाव चितेरे समान है जैसे चितेरा अनेक प्रकार के चित्र करे ऐसे ही यह आत्मा को ८४ लाख योनियों की तरह तरह की गतियों में भ्रमण करावे है।
७ गोत्र कर्म का कर्तव्य ॥ सातवे कर्म का नाम गोत्र कर्म है इस का स्वभाव कुम्हार समान है जैसे कुम्हार छोटे वडे वरतन धनावे तैसे गोत्र कर्म अन्वे नोचे कलमें उपजावे मात्मा का छोटा शरीर या वड़ा निरवल या वली उपजावे जैसे नाम कर्म ने घोड़ा बनाया तो गोत्र कर्म चाहे तो उसे बहुत बड़ा वैलर घोडा करे चाहें जराला टटवा करें।
८ वेदनी कर्म का कर्तव्य ॥ आयकर्म का नाम वेदनी कम है इस का स्वनाच शहद लपेटी खडग को धारा समान है जो किंवित मिष्ठ लगे परन्तु जीन को काटे तैसे जीव को किंचित लाता उपजाय सदा दुःख हो देवे है।
. कर्म को किस तरह जीते हैं ? ईश्वर की याद ार से इस दुनिया को फानी जान इस को लज़तों से मुख मोड़ यानि तमाम धन दौलत कुटंय आदि तमाम परिग्रह को छोड़ तप अंगीकार कर समाधी ध्यान घर परमात्मा का स्वरूप वितवन करते हैं लो परमात्मा के स्वरूप के चितवन ले सर्व कर्मों का नाश हो जाता है।
कों के नष्ट होने से क्या होता है ? जंब कर्म जाते रहे चितवन करने वाला आप भी वैसा ही परमात्मा सर्व का जानने वाला सर्वत्र होजाता है ! .
क्या इन्सान भी परमात्मा होजाता है ? . जैसे अग्नि में जो लकड़ी डालो वह अग्निरूप होजाती है तैसे ही जो ईश्वर परमात्मा सर्वक्ष का ध्यान चितवन करे वह वैसा हो होजाता है ।
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जनबालगुटका प्रथम भाग। अथ ८ कर्म की १४८ प्रकृति का वर्णन। ज्ञानावरण की ५ दर्शनावरण की ९ अंतराय की ५ मोहनीय की २८ आयुकी ४ गोन की २ वेदनीय की २ नाम की ९३ ।।
ज्ञानावरण के ५ भेद। १ मति २ श्रुति ३ अवधि ४ मनपर्यय ५ केवलज्ञान ।
दर्शनावरणके । भेद। १ चक्षु २ अचक्षु ३ अवधि ४ केवल ५ निद्रा ६ निद्रा निद्रा ७ प्रचला ८ प्रचलाप्रचला ९ स्त्यानगृद्धि ॥
अन्तराय के ५ खेद। १ दान २ लाभ ३ भोग ४ उपभोग ५ वीर्य ।
सोहनीय कर्म के २८ भेद। दर्शन मोहनीय के ३ चारित्रमोहनाय के २५॥
दर्शनमोहनीय के भेद। १ सम्यक्त २ मिथ्यात्व ३ मिश्र।।
चारित्र मोहनीय के २५ भेद। ४ अनंतानुवन्धि क्रोध मान, माया लोभ । ४ अप्रत्याख्यान क्रोध, मान माया लोभ । ४ प्रत्याख्यान क्रोध, मान माया लोभ । ४ संज्वलन क्रोध मान माया लोभ १७ हास्य१८ रति १९ अरति २० शोक २१ भय २२ जगुप्ता २३ स्त्री २४ पुरुष २५ नपुंसक॥
आय कर्म को ४ प्रकृति। १ देव आयु २ मनुष्य आयु शतयंचायु ४ नरकायु ॥
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नवलपुरका प्रथम भाग ।
गोच कर्म की २ प्रकृति । १ उच्च गोत्र २ नीच गोत्र । वेदनीय के २ भेद |
१ सातावेदनीय २ असातावेदनीय।
अथ नाम कर्म की ३ प्रकृति । पिंड प्रकृति ६५, अपिंड प्रकृति २८ । अथ पिंड प्रकृति के ६५ भेद
४ गति ५ जाति ५ शरीर ३ अंगोपांग ५ बंधन ५ संघात
7
६ संहनन ६ संस्थान ५ वर्ण २ गंध ५ रस ८ स्पर्श ४ आनु
पूर्वी २ स्थान ॥
नोट- यह १४ प्रकारके बड़े भेद हैं। छोटे भेद ६५ हैं ॥
४ गति ।
नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति, देव गति । ५ जाति ।
एकेन्द्रिय, वेंद्रिय, तेंद्रिय, चतुरेंद्रिय, पंचेंद्रिय । ५ शरीर ।
f
औदरिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, कार्म्मण । ३ अंगोपांग ।
1
१ औदरिक, २ वैक्रियक, ३ आहारक ॥ २ - ५ बंधन ।
औदरिक, वैक्रियक, आहारक, तेजस, काम्मैण ॥
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जैनबालगुटका प्रथम भाग।
५संघात। औदरिक, वैक्रियक, आहारक, तेजस, कार्मण।
६ संहनन। १ वज्रवृषभनाराच २ वज्रनाराच ३ नाराच ४ अर्द्धनाराच ५कीलक ६ स्फाटिक ॥
६ संस्थान। १समचतुरस्त्र न्यग्रोध स्वाति ४वामन पकुब्जक हुंडक ॥
५ वर्ण। १ शुक्ल २ कृष्ण ३ नील ४ रक्त ५पीत ॥
२गंध। १ सुगंध, २ दुगंध ॥
पांचरस। १ तिक्त, २ कड़वा, ३ खारा, ४ खट्टा, ५ मिठा ॥
८ स्पर्श। १करडा रनरम ३भारी हलका ५चिकना रूखा ७ठंडागरम ।
४ आनुपूर्वो। १ नारक, २ तिर्यच, ३ मनुष्य, देव ४॥
२ स्थान। १प्रमाण स्थान, २ निर्णय स्थान ।
अथ अपिंड प्रकृतिके २८ भेद। प्रत्येक प्रकृति ८,त्रसादिक प्रकृति १०,स्थावरादिक प्रकृति १० ॥
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जैनवालगुटका प्रथम नागी
८प्रत्येक प्रजाति। १ पर घात २ उच्छ्वास ३ आताप ४ उद्योत ५ अगुरु ६ लघु ७विहायोगति ८ उपघात ।।
१० वसादिक प्रजाति। १ त्रस २ वादर ३ पर्याप्त ४ प्रत्येक ५ स्थिर ६ शुभ ७ सुभग ८ सुस्वर९ आदेय १० यशःकार्ति ॥
१० स्थावरादिक प्रकृति। १ स्थावर २ सूक्ष्म ३ अपर्याप्त ४ साधारण ५ अस्थिर ६ अशुभ ७ दुर्भग ८ दुस्वर ९ अनादेय १० अपयश ॥ नोट-यह ८ कर्म की १४८ प्रकृति कही।
__ अथ७ तत्व १ जीव, २ अजीव, ३ आश्रव, ४बंध, ५संवर, ६निर्जरा, ७मोक्ष ।
पदार्थ । . . . . सात तत्त्व के साथ पाप पुण्यामलाने से यह ९ पदार्थ कहलाते हैं। चोट-श्रावक को इन का स्वरूपं जानना जारी है।
___ अथ तव शब्द का अर्थ। तत्व शब्द उस जाति का शब्द है जो शब्द तो हो एक और उसके अर्थ हों अनेक, सो संस्कृत कोषों में तत्व शब्द के भी कईक अर्थ हैं।
असलियत भी है,रसनो है,रूप भीहै, अनासर भी है,पदार्थ मोहै, परमात्मा मोहै, विलम्बित नृत्य भी है, और सांख्यमत शास्त्रोक्त प्रकृति भी हैं महत, अहंकार, मनः भी है, पंच भूत भी है पंचतन्माना भी है पंच ज्ञान इद्रिय और पंच कर्मेन्द्रिय आदि कईक हैं चूंकि तत्व छान नाम ब्रह्म शान यथार्थ ज्ञानं भारिमक शान रुहानी इलम का है यानि तत्व जो परमात्मा उसका जो ज्ञान उस को तत्व ज्ञान कहते हैं. तत्व दशी ब्रह्मज्ञानी, मात्मिक शान वाला, असलियत के देखने वाले को कहते हैं यद्यपि
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जैनयालगुटका प्रथम भागा: तत्त्व शब्द का जियादातर अर्थ परमात्मा है परन्तु हमारे जैन मत म जब यह कहा । जाता है कि तत्त्व सात हैं तो यहां तत्त्व शब्द का अर्थ पदार्थ है, जैसे नव पदार्थ
कहते हैं नव में से पुण्य पाप को न गिन कर बाकी को सात तत्त्व इस वास्ते कहते हैं कि तत्व शब्द का अर्थ वो पदार्थ है जिस से परमात्मा का ज्ञान हो सो जिन . पदार्थों से परमात्मा का ज्ञान हो वह पदार्थ सात ही हैं परन्तु यहां इतनी पात: और समझनी है कि पदार्थों की संख्या के विषय में जो सांख्यमत वाले २५ तत्वं मानते हैं नैयायिक वैशेषिक १६ वौध ४ तत्त्व मानतेहैं सोजैनी तत्त्व किस प्रकारसे मानतेहैं इस का उत्तर यह है कि तत्त्वं शब्द का अर्थ जो पदार्थ है सो सामान्य रूप से है
सों जैसे पदार्थ शब्द' में दो पद हैं (पद +अर्थ) अर्थात् पदस्य अर्थाः यानि पदका जो ' अर्थ यही पदार्थ है यहां इतनी बात और जाननी जरूरी है कि जगत में भनत
पदार्थ हैं जैनी सात ही क्यो मानते हैं इस का उत्तर यह है कि इस सात पदार्थों के : अन्दर तमाम पदार्थ अन्तर्गत हैं इन सेवाहर कुछ भी नहीं था जिन वस्तुवों से जिस
के कार्य की सिद्धि हो उसके वास्ते वही पदार्थ कार्यकारी हैं वह उनही पदार्थों को 'पदार्थ कहते हैं जैसेवाज वकत रसोई खाने वाला कहता है आज तो खूबपदार्थ खाए 'इस प्रकार जिनमतमें कार्य मोक्ष की प्राप्ति का है सो मोक्ष की प्राप्ति सात पदार्थों के, .' जानने से होती है और की जरूरत नहीं इस लिये जिनमत में जिन सात पदार्थों से , मोक्ष की सिद्धि हो उन ही सात को तत्त्व माना है स्वर्गादिक की सिद्धि में पुण्य पाप
की भी जकरत पड़ती है इस वास्ते सात से आगे नौ पदार्थ माने हैं वरना अगर । । असलियत की तरफ देखो तो सामान्य रूप से तमाम दुनिया में पदार्थ एक ही रूप है में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो पदार्थ संज्ञा से बाहिर हो पदार्थ, कहने में सर्व वस्तू
आगई अन्यथा जीव और अजीव रूप से दो ही पदार्थ हैं सिवाय जीव के जितनी अंजीव यानि अचेतन वस्तु हैं सब अजीव में आगई । चूंकि जैनमत में अभिप्राय इस जीव को संसार के भ्रमण के दुःखों से छुद्धाय मोक्ष के शास्वते सुन में तिष्ठाने का. हैं तो इस कार्य की सिद्धि के वास्ते प्रयोजन मत जो पदार्थ उन को ही यहां तत्व माने हैं सो मोक्ष की प्राप्ति के लिये सात तत्त्वों का जानना ही कार्य कारी है सो उन के शानका यह तरीका है कि प्रथम तो यह जाने, कि जीव क्या वस्तु है और मजीव पचा वस्तु है, जीव का क्या स्वभावहै, भार अजीव का क्या स्वभाव है, कोकि जब तक जीव अजीवके भेद को न जाने तव तक भजीवसे मिन्न अपने आत्मा का स्वरूप..
कैसे समझे। जब यह दो बात जान जावे तब तीसरी बात यह जाने कि यह जीव । जगत में जामण मरण करता दुवा पंधों फिरे है, सोसका कारण कर्म है लो फिर
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जैनवालगुटका प्रथम भाग कम्मे की बाबत जाने सो'कर्म के जानने का क्रम यह है ॥ .
कर्मका मागमन किस प्रकार होता है ।। (शुभकर्मका मागमन रूपमाभव में पुण्य और अशुभ कर्म का आगमन रूप आभत्र में पाप मन्तर्गत है।।' कर्म को बन्ध किस प्रकार होता है। कर्म का भावना किस प्रकार रुक सका है। ४. "जो कर्म आत्मा के प्रदेशों में बंध रूपं होते हुए बढ़ते रहते हैं उनका
घटना किस प्रकार होता है यानि उनको निर्जरा किस प्रकार होती है। : ५.मात्मा से सारे कर्म किस प्रकार हट सकते हैं अर्थात् क्षय को प्राप्त हो सके हैं और जब सारे कम्भ नष्ट हो जावे तब इस आत्मा का क्या रूप होता है पस:पांच वाते यह और दो जीव--अजीव जो पहले वियान.. करे इस लिये इस जीव को . जगत भ्रमण.से.डावने के लिये इन सात पदार्थों ( तत्वों ) का जानना ही कार्य कारी है इस लिये जिनमत में सात ही तत्त्व माने हैं ...:. . . . . . . ... . . ७ तत्त्वों का स्वरूपा. . . .
१. जीव-जीव उसको कहते हैं जिस में चेतना लक्षण हो अर्थात् जो. जाने है. देखे है करता है दुःख सुखका भोक्ता है, अरक्ता कहिये तजने हारा है, उत्पाद, व्यय, धौव्या, गण सहित है, असंख्यात प्रदेशी लोक प्रमाण है और प्रदेशों का संकोच विस्तार कर शरीर प्रमाण है उसे जीव कहते हैं पुद्गल में अनंत गुणहै परंतु जानना, देखना, भोगना आदि गुण जीव में ही हैं पद्गल में यह गुण नहीं न पदगल (मजीव) को समझ है। यानि नेक बदकी तमीज नहीं, न पुद्गल को दीखे है न पुदगल दुःख सुख-मालम करता है यह गुण-आत्मा में हो हैं इसी से जाना जाय है कि जोष पुद्गल से अलग है.जब इस शरीर में सें जीव निकल जाता है तब शरीर में समझने की देखने की दुःख सुख मालूम करने की ताकत नहीं रहती. सो जीवके दो भेद हैं सिद्ध और संसारी उस में संसारी के दो भेद हैं एक भव्य दूसरा अभव्य जो मुक्ति होने योग्य है उसे भव्य कहिये और कोरडू (कुडा ) उडद समान जो कमी. भी न सीझे उसे अभन्य कहिये भगवान के भाषे तत्त्वों का श्रद्धान भव्य जीवों के ही होय. भमन्य के न होय ॥
३ अंजीव-जीव अधेतन को कहते हैं जिस में स्पर्श रस, गंध भौर वर्णमादि. भनंत गुण हैं परंतु उसमें चेतना लक्षण नहीं है अर्थात् जिस में जानने देखने दुःख __सुख भोगने की शक्ति आदि गुण नहीं वह मजीव (जड़) पदार्थ है !" , . , , .
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जैनबालगुटका प्रथम भाग। ३ भाधव-शभ और अशुभ कर्मों के माधने का नाम माश्रय है अर्थात जिस परिणाम(क्रिया)से जीवके शभ और अशुभ कर्मका भागमनहो उसकानाम आश्रवहै ।।
४ वन्धमात्माके प्रदेशों से कर्मका जुड़ना इसका नाम बंध है यहां इतनी बात और जान लेनो कि जिस प्रकार स्वर्ण आदि पदार्थ के साथ स्वर्ण आदि जुड़ कर हो जाते हैं इस तरह कर्म आत्मा से बंध रूप नहीं होता जीव निराकार है यानि माकार रहित है और अजीव (जड) भाकार सहित ह सो भाकार रहित की साथ आकार सहित जुड़ नहीं सकता इसका सम्बन्ध इस तरह है कि किसी संदूक में ऊपर नीचे आदि छहों तरफ मकनातोस पत्थरके देले लगाओ उनके बीचमै लोहा रखो सो छड़ों तरफ मिकनातीसकी कशिशसे वह लोहा इधर उधर कहीं भी नहीं जा सकता जहां उस संदूकको लेजाओगे चहाही लोहा जावेगा इसी तरह जीवके हरतरफ कर्म हैं. जहां कर्म इसको ले जाते हैं वहां इसे जाना पडता है जीव कर्मों को साथ नहीं ले जाता क्योंकि जीवमें तो उर्द्ध गमन स्वभाव है सो जो जीव कर्माको साथ लेजाता तो ऊपर को स्वर्गादिक में जाता नोचे नरकादिक में न जाता सो कर्म जीव को ले जाते हैं।
५ सम्बर-आवते फर्माको रोकना इसका नाम सम्बर है अर्थात् रोकन का नाम नमाने देने का नाम सम्बर है सो जिस क्रिया या परिणाम से शुभ या अशुभ कर्म भावे उस रूप न प्रवर्तना सो सम्बर है । अर्थात् परिणामों को अन्य विकल्पों से हटाकर अपने मामा (निज स्वरूप) के चितवन में ही काबू रखना सो संबर है।
६-निर्जरा नाम कर्म के कम होने का है कर्मका घटना या 'कमजोर होना इसका नाम निर्जरा है जैसे एक पक्षीको धूप में रख कर उसके ऊपर बहुतसो से जल से भिगोकर रखदो वह पक्षो उसके भार (बोझ) से दवेगा,धूप की तेजी से उस ई का जल कम होने से उसका बोझ घटेगा इसी तरह तप संयम में प्रवर्तन करने से तप रूपी धूप से कर्म कपो जल घटेगा इसी कमी होने का नाम निर्जरा है। : .
७-मोक्षनाम कर्मों से छुट जाने का है नजात रिहाई का है' अर्थात् आत्मा का सर्व कर्मा से रहित होजाना इसका नाम मोक्षहै जैसे धूप से कई काजल जब विलकुल सूक जावे तब तेज हवा में रुई उड जाने से उसमें दर्गा था जो पक्षी वह उडकर वृक्ष पर जाय बैठे इसी तरह जब काँका रस तप रूपी धूपसे घट कर कर्म खश्क होजावें, तब आत्मध्यान रूपी तेज वायुफे प्रमावसे खुश्क कर्म कपी ।। काई के उड़ जाने से पक्षी रूपो मारमा उड कर मोक्ष रूपो. इस पर जाय बैठेगा तो जीव के जाने को सहाई धर्म दम्य है जैसे रेल के जाने को सहाई सड़क है सो जहांतक धर्म द्रव्य है वहां तक यह चला जाता है सो मोक्ष स्थानका जो ऊपरला
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जैनपालगुटका प्रथम भाग। हिस्सा माखिर तक धर्म द्रव्य है सी मोक्ष में उसके आखिरतक यह मारमा बल्ल जाता है उससे परे अलोकाकाश है उसमें धर्म द्रव्य नहीं इस वास्ते यह मारमा लोक में हो जाता है धर्म द्रव्य उसे कहते हैं जो गमन करने में सहकारी कारणहो जिस के जरिये से एक स्थान से दूसरी जगह पहुंचे, मोक्ष नाम इस स्थान का भी है जहां पर यह आत्मा को ले रहित हो कर जाकर तिष्टता है वह स्थान मोक्ष इस कारण से कहलाता है कि जो जीव तीन लोक में हैं सबकों के वश हैं परंतु को करि मुक्ति, जीप वहां चले गये उन जीवो पर इन काँका धेश नहीं चलता इस लिये उन मुक्तिजीवों के आधाररूप स्थानके होने से वह स्थान मोक्ष कहलाता है वह छुटा हुवा स्थान (माजाद स्थानो तीनलोक के मध्य जो चलेय के भाकार प्रसनाडी है उसमें अपरला हिस्सा है उस जगह बही भारमा जाते है जो की से रहित हो जाते हैं लो जवतक इस संसारी जीव को सम्यग् दर्शन सम्याशानं सम्यक चारित्र यह तीनों इक प्राप्त न हो तबतक इसे कभी भी मोक्षको प्राप्ति नहीं होती 'यदिन में से दो की प्राप्ति न होजावे तब तक भी मोक्ष नहीं होती तीनों के इकडे
प्राप्त होने पर ही मोक्ष हो सकती है जब यह जीव कर्मों से छुटगया अथात कर्ममलसे • रहित होगया तब इस का नाम जीव नहीं रहता क्योंकि जीव उसको कहते हैं जो
जीये, जीवना उस को कहते हैं जो मरने से पहली स्थिर रहने वाली अवस्था है चूंकि
संसारी जोव मरते भी है और फिर जन्मते मोहैं इसलिये मरनेकी अपेक्षा संसारी जीव • को जीय कहते हैं सिद्ध (मोक्षमात्मा) कमी मरते नहीं इसलिये. उन का नाम जीव , संहासे रहित है यह सिद्ध या परमात्मा कहलाते हैं परमात्मा का अर्थ:परम कहिये । श्रेष्ठ, प्रधान, महत नेक, सरवार, बड़ा असलो, पाक, पवित्र है सो परमात्मा का . :अर्थ पवित्र आत्मा श्रेष्ठ मात्मा सब आत्माओं में प्रधान सर्व में उत्कृष्ट मात्मा है ।।
नोट-इन सात तत्वो का स्वरूप, हर एक जैनी को समझ लेना चाहिये और समझकर जिससे नये कौ का मागमन न हो और पिछले कमों की निर्जरा हो उस . रूप परिवर्तन करना चाहिये ताकि सर्व कर्मों से छट जावे कर्मों से छट जाने से इस .. संसार के दुःखों से बच जावे.. इति तत्वका वर्णन सम्पूर्णम् ॥ .... '..
जैन पर्व के दिन।.. .. : . हर एक मास में दो अष्टमी'दो चतुर्दशी यह चार दिन जैन ग्रंथों में पर्व के
माने हैन दिनों में जैनी प्रत रखते हैं, जो प्रत नहीं रख सकते वह इन दिनों में भिमस्य नहीं खाते हरी नहीं खाते रात्रीको पानी नहीं पीते दुनियादारी के पाप कार्यों का स्वागत कर धर्म ध्यान सेवन करते हैं।' '.:
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नैनवाल गुटका प्रथम भाग । जैन महा पर्व के दिन . न 'एक साल में ६ वार महा पार्श्व के दिन आते हैं ३ बार अठाई ३. वार दश लाक्षणी, कार्तिक शुक्ल ८ से १५ तक फाल्गुण शुक्ल ८ मी से फाल्गुण शुक्ल १५ तक आषाढ शुक्ल ८ से १५ तक यह तीन वार भठाई आती हैं । '
माघ शुक्ल ५. से १४ तक चैत्र शुक्ल ५ से १४ तक भादों शुक्ल ५ से १४ तक यह तीन वार दशलाक्षणी आती हैं देखो रत्नत्रय व्रत कथा छंद नम्बर १० और सोलहकारण दशलक्षण रत्नत्रय प्रतों की विधि में छंद नम्बर ६ में दश लाक्षणीमें भादो माघ चैत्रमें तीनों बार लिखी हैं परंतु भवार काल दोष से, माघ, चैत्र की दश लाक्षणी में पूजन पाठ का रिवाज नहीं रहा ।।
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सब से बडा पर्व का दिन भादोंमास की दशलाक्षणी में अनंत चौदश है ॥ इन दिनों में धर्मात्मा जैनी व्रत रखते हैं वेला तेला करते हैं पाठ थापते हैं मांडला पूरते हैं पंचमेरु नंदीश्वर, दशलाक्षणी आदिका पूजन करते हैं जाप, सामायिक, स्वाध्याय, दर्शन, शास्त्रश्रवण, भात्मध्यान करते हैं शील पालते हैं ब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं दुःखित भूखितको दान बांटते हैं भोजन देते हैं वस्त्र देते हैं दवाई • वांटते हैं भूखे लावारिस पशुवों को सूकाचारा गिरवाते हैं, जानवर पक्षियों को चुगने को अन्न डलवाते हैं दाम देकर भट्टी, भाड़, तंदूर, बुचरखाना, कसाइयों की दुकान बंद कराते हैं दुशमन से क्षमा मांगद्वेष भाव को त्यागन कर मित्रता करते हैं, पाप कार्यों से हिंसा के आरंभ से बचते हैं फंदियों के जाल में. से जानवर छुड़वाते हैं जमीकंद सवजी आचार बिंदल वगैरा अभक्ष नहीं खाते, रातको भोजन पान नहीं करते रात्री को जागरणकर भगवान के गुण गाते हैं पद विनती, स्तोत्र पढते हैं मारती उतारते हैं इस प्रकार पाप कर्म की निर्जराकर धर्म का उपार्जन कर पुण्य का मंदार मरते हैं।
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श्रावक की ५३ क्रिया ।
८ मूल गुण, १२ व्रत, १२ तप, १ समता भाव, ११ प्रतिमा, ३ रत्नत्रय, ४ दान, १ जल छाणन क्रिया, १ रात्रि भोजन त्याग और दिन में अन्नादिक भोजन सोधकर खाना अर्थात् छानबीन कर देख भालकर खाना ॥
नोट- यह ५३ क्रिया श्रावक के आचरणे योग्य है यानि इन ५३ क्रियाओं को
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करने वालों श्रीवक नाम कहलाने का अधिकारी है इस में बाजे-बाजे भोले लोग
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1. जैनबालगुटका, प्रथम भाग |
समता भाव की जगह तीन काल सामायिक करना कहते हैं सो यह उनकी गलती है. ""सामायिक वारह व्रत में आचुकी है देखो चार शिक्षा व्रत का पहला भेद और ११ : प्रतिमा में तीसरी प्रतिमा इस लिये जो मूल गाथा में ऐसा पाठ है : (गुणमयतक समपठिमा) सो उस से आशय समता भाव ही है |
श्रावक के ८ मूलगुण । ५ उदंवर | ३ मकार ||
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इन आठ मूलका त्याग यानि न खाना तिलका नाम ८ मूल गुणः का पालना हैं इनके नाम भागे २२ अभश्य में लिखे हैं ।
१२ व्रत ।
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५ अणुव्रत, ३ गुणवत, ४ शिक्षाबत ॥
५ अणुव्रत ।
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.१ अहिंसा अणुव्रत, २ सत्याणुव्रत, ३ परस्त्रीत्याग अणुव्रत ४ अचौर्य (चोरी त्याग) अणुव्रत, ५ परिग्रहपरिमाण अणुव्रत ॥
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३ गुणव्रत ।
१ दिगनत, २ देशव्रत, ३ अनर्थदंड त्याग ॥ ४ शिक्षाव्रत ।
1
सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि संविभाग, भोगोपभोग परिमाण
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१२ तप ।
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१ अनशन, २ ऊनोदर, ३ व्रत परिसंख्यान, ४ रसपरित्याग, ५ विशिय्यासन, ६ कायक्लेश, यह छे प्रकार का वाह्य तप
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७ प्रायश्चित्तं, ८ पांच प्रकार का विनय ९ वैयावृत्य करना,
१० स्वाध्याय करना, ११ व्युत्सर्ग (शरीर से ममत्व, छोड़ना) १२ ।
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चार प्रकारका ध्यान करना । यह छे प्रकार का अन्तरंग तप है ॥
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जैनबालगुटका प्रथम भाग।
१समताभाव। . " क्रोध न करना अपने परिणाम क्षमा रूप राखने ॥
११ प्रतिमा। .. १ दर्शन प्रितिमा, २ व्रत, ३ सामायिक ४ प्रोषधोपवास, ५ सचित्तत्याग, ६ रात्रि भुक्ति त्याग, ७ ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग,९ परिमहत्याग १• अनुमति त्याग, ११ उदिष्टत्याग ॥ .
. रत्नचय। १ सम्यग दर्शन, २ सम्यग ज्ञान, ३ सम्यगचारित्र । यह तीन रत्न श्रावक के धारने योग्य हैं इनका नाम रत्न इस कारण से है कि जसे स्वर्णादिक सर्व धन में रत्न उसम यानि बेशकीमती होता है इसी प्रकार कुल नियम प्रत तप में यह तीन सर्व में उत्तम है जैसे विन्दियां अंक के वगैर किसी काम की नहीं इसी प्रकार वगैरन दोनों के सारे व्रत नियम कुछ मी फलदायक नहीं है सब नियम त मानिन्द विन्दी शुन्य) के हैं यह तीनों मानिन्द शुरूके अंक के हैं इस से इनको रल माना है।
चार दान। . . . १ आहारदान, २ औषधि दान, ३शास्त्रदान, ४ अभयदान ।
यह चार दान श्रावक. को अपनी शक्ति अनुसार नित्य करने योग हैं इन में. दान के चार भेद है १ सर्व दान २ पात्र दान ३ समदान ४ करुणादान। .
सर्व दान। . . . .. मुनि बत लेने के समय जो कुल परिग्रह का त्याग सो सर्च दान है। यह सर्व दान मोक्ष फल का देने वाला है ॥ पात्रदान ।
।.. . मुनि, मार्यिका उत्कृष्ट श्रावक कहिये ऐलक क्षुल्लक (मति श्रावक) हनको भक्ति कर विधि पूर्वक दान देना यह पात्र दान है। इनको, थाहार देना आहार के सिधाय कमंडलु देनापीछी देना,पुस्तक देनी और आर्यिकामों को वस्त्र (साडी देनी। अक्लक को उसको पुचि के अनुसार कोपीन (लंगोटी) देनी चादरं धोती दौहर
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जैनवालगुटका प्रथम नाग। पटाई देनी यह सर्व पात्र दान है। इसका फल भोग भूमि में सुख माग स्वर्गादिक में जाना और परम्पराय (मोक्ष का कारण है।
संसान। - - - - देखो जव गरीव से गरीब ब्राह्मण भी किसी वैष्णव मत वाले के पास जाई तो बडे बडे सेठ साहूकार पहले आप उनको प्रणाम करे हैं बैठने को उच्च स्थान देवे हैं । इसी तरह जैनियों को भी चाहिये कि जब कोई गरीब से गरीब मो धर्मात्म जैनी या जैन पंडित या अपनी जैन पाठशाला का भध्यापक अपने पास गावे तो धन का मद छोड पहले आप उस को जय जिनेंद्र करें। और वडे सत्कार से उनको अच्छा स्थान बैठने को देवे । और आवने का कारण पूछे और अपनी शक्ति अनुसार उनकी मदद करे और गौ वच्छे समान उन लें प्रीति राखे उन से जैन धर्म को चर्चा करे और यात्रा जाने वाले निर्धन जैनी या विधवा जैन स्त्री-हो:उन को रेल का किराया रास्ते का खर्च देवे। जैनी पंडितों तथा दूसरे गरीब जैनियों को भोजन देवे वस्त्र देवे. आजीविका लगवाय देवे, नौकरी करवाय देवे: दलाली क्ताय देवे, पूंजी देकर दुकान कराय देवे. थोडे सूद पर रकम दे कर व्योहार में सहारा लगाय देवे । उनको कपडे ले या अनाज से तंग देख दो चार रुपये का उनके घर भिजवाय देवे, जो विमार हो उन्हें दवा देवे, इलाज कराय टेवे
. : जो जेन पंडित मंदिर में शास्त्र पढ कर अपने को सुनाता हो या जैन पाठशाला में जो अध्यापक अपने बालकों को पढ़ाता हो सो जव कमी अपने घर में कोई व्याह हो सगाई हो त्यौहार हो या कोई और खुशी का मौका हो या जव कनी घागसे फल या सवजों आवे तो कुछ उन को भी भेजा करें और जैन बालकों को चाहिये कि अपने घर में जब कभी खुशी का मौका हो तो अपनो जैन पाठशाला के भध्यापक को ऐसे मौके पर जरूर दे आया करें। जब जैन पाठशाला में अपने घर से कुछ खाने को लेजावें या वहां फल फलेरी वगैरा खरीदे तो पहले अध्यापक के भागे कर देखें जब उस में से अध्यापक ले लेवे तव भाप खावें इस प्रकार सरल प्रणामी जो भगवान का पूजन पाउ दर्शन स्वाध्याय सामायिक मादि करने वाले जो गरीव जैनी पुरुष स्त्री बाल तथा मंदिर में शास्त्र सुनाने वाले जैन धर्म का उपदेश देने वाले जिनवाणी का प्रचार करने वाले जे जैनो पंडित तथा जैन पाठशालाओं में जैन पुस्तकोंकेपटाने वाले जे जैन अध्यापक तथा जैनतीर्थो कोसने वाले जे निर्धननैन पुरुष स्त्री उनको दान देना यह समदान है। यह समदान पात्रं दानसे जरा उतरता है यह भी महान पुण्य का नाता भोग भूमि और स्वर्गादिक के सुख देने वाला है ।।
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जैनवालंगुटका प्रथम भाग।
- करुणादान। जो दुःखित बुभुक्षित को दयाभाव कर दान देना सो करुणा दान है, परंतु इस में इतना और समझना कि नीति में ऐसा लिखा है कि पहले खेश.पीछे दरवेश' भगर कोई अपनी बहन, भानजी, चाची, ताई, भावज, भूषा, मामी आदि या भाई भतीजे वाचा, ताऊ, बाबा, बाबाका,माई, फूफड, मामा, बहनोई मादि रिश्तेदार या कुटुम्यो तंग दस्त हो तो पहले उन का हक है पहले उनकी मदद करे फिर दूसरों की करे। लंगडे लूले अन्धे अपाहज धीमार कमजोर भूखे काल पीड़ितों को भोजन खिलाना, शरद ऋतु में इनको वस्त्र देना बीमारों को दवाई बांटना तालिबइल्मों को पुस्तके तथा वजीफा देना जिस गृहस्थीकी आजीविका बिगड गई हो या बेरोजगार फिरता हो उस की सही शिफारश कर उस को नौकर रखवा देना या पूंजी देकर उसकी कुछ आजीविका का जरिया बना देना, लेन देन के मामले में ऐसा माव रखे कि जिस प्रकार कुम्हार भावे में वर्तन चढाता है वह सारे ही सावत नहीं उतरते कोई फूट भी जाता है । कोई अधपका भी रह जाता है, इसी प्रकार जितनी आसामियां हैं सबसे रुपया एकसां वसूल नहीं होता कमजोरों को अधपके वर्तन समान समझकर ब्याज छोड देना चाहिये । मल की बिना ब्याजी बहुत छोटी सी आसान किसते कर देनो चाहिये जो वह आसानी से दिये जावे ताकि उसका पाल पच्या मखान,मरे। जो आसामी बहुत गरीब तंग दस्त होजावें उनकी नालिश करके उन्हें फै न करवावे न उनकी कुडकी करवावे न उनकी नालिश करे । उन्हें फूटा भांडा , समझ कर उनको करजा माफ कर देना चाहिये। यह बड़ा भारी धर्म है। निर्धन विधवा स्त्रियों की माहवारी तनखा बांध देनी चाहिये । जब तक वह जीवें । धगैर मांगे अपने हाथ से उनको पहुंचा दिया करे। जिनके ऊपर झूठा मुकदमा पड़जावे उनकी सही शिफारिश व उगाही देकर उनको बचावे किसी.का. मात्मा नहीं सतावे कोई कुछ मांगने आवे तो उसे मानछेदक बचन नहीं कहे । देखो केवली की वाणी में यह उपदेश है कि जैसे पांचों से लुंजा चलने की इच्छा करे गंगा बोलने की इच्छा करे, अंधा देखने की इच्छा करे तैसे मूढ प्राणी धर्म बिना सुख की इच्छा करे हैं । और.जसे मेघ बिना वर्षा नहीं, वीज बिना अनाज नहीं, तैसें धर्म, पिना सुख नहीं। और जैसे वृक्षके जड़ है । तैसे सर्व धर्नामें दया धर्म मूल है और दयाका मूर्ल दान है। दान समान धर्म नहीं। जिन्होंने पीछे दान नहीं दिया यह भवरंक भये मांगते फिर हैं। उनके न कुछ यहां है म भागे पायेंगे । और जो धन पाकर दान नहीं देते उनके यह है परन्तु मागे नहीं। जो गांड में लाये थे वोह भो यहाँ खो खालो हाथ
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जैनवालगुटका प्रथम भाग 1 जावेगे। भव भव में निधन हो रोटी कपडेको भटकते फिरेंगे । और जे धनपाकर दान करते हैं. उनके यहां भी है जो पीछे कियाथा उसका फलपाया और वहां भी होवेगा इस फल.आगे भोग भूमि के सुख भोग स्वर्ग जायेंगे । फिर कर्म ममि में भी उस दानका का फल सुंदर स्त्री सुंदर मकान सुंदर पुत्र धन दौलत पायेगे। दुनियां में जो कुछ भाग्यवानों के दौलत आदि सुख का कारण देखते हैं यह सर्व पूर्व भव में दिया जो दान उसका फल है। इस लिये यदि आइंदा को सुख की इच्छाहै.तो अपनी शक्ति समान दान जरूर दो दान लमान और पुण्य नहीं जो गरीब नर नारी एकरोटी भाधी रोटी एक टुकड़ा एक मुट्ठी भर अन्त भी किसी भूखेको देखेंगे जरासी दवा भी क्सिो को देखेंगे उनके इसका फल बड़के बीज समान फलेगा जैसे राई समान. बड़ के बीज ले कितना बड़ा बैंड का वृक्ष पैदा होय है, इसी प्रकार उस एक रोटी मात्र भूखे को दिये दान ले अनंताअनंत गुना फल मिलेगा। विमारों को दवा दान दनेसे अनंता अनन्तभवमै नीरोग शरीर सुन्दररूप पायेंगे। दानका फल भोग मूमि और स्वर्गादिक में चिरकाल तक सुख भोगना है। इस लिये जो आइंदा को धन दौलत स्त्री पुत्रादिक सुख पाने के इच्छुक हैं वह अपनी शक्ति समान दान जरूर देखें। देवेगा सो पावेगा वरना.खड़ा खड़ा लखावेगा। . . . अथ छान कर जल पीना॥ . . . . '
श्रावक की 'बावनवी क्रिया जल छान कर पाना है जैन धर्म में वगैर छाना जल पीना महा पाप कहा है देखो प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में ऐसालेख है। ' चौपई-बिन छानो अंजुलि जलपान । इक घटतंकीनो जिन न्हान । ...तो अघ को हमले नहिं ज्ञान । जानत हैं केवलि भगवान ।। - यहां प्रश्नोत्तर श्रावकाचार ग्रंथ क रचता यह कहते हैं कि भन छाना एक अंजुलि नर जल पीने में इतना महान पाप है कि जो हमारे दिमाग में ही नहीं समा सकता अर्थात् हम अपनी जिव्हा कर उस महा पाप को वर्णन नहीं कर सकते यह पाप इतना बड़ा है कि इस को केवली भगवान ही कह सकते हैं। . ''पानी में अनंत जीव तो महान् सूक्ष्म जल काय के हैं यानि जले ही है काया जिनकी सिवाय जलंकाय के जल में अनंत जीव सूक्ष्म प्रसकाय के भी हैं यानि कई किसम के कीडे होते हैं अगर जल ठीक तरह से न छाना जाय तो मन छाना जल पीने के समय वह कोडे भी जल में रले हुए अंदर ही चले जाते हैं
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जैनबालगटका मयम भाग। यह कोडे अंदर जाकर अकसर मर जाते हैं इस से जीव हिंसा का महापाप लगता है और सिवाय इस के बाज किसम के कीडे जहरीले होते हैं उन के पिये जाने से हैजा वगैरा अनेक किसम की बिमारियां शरीर में उत्पन्न होजाती हैं उन बहरोलें कीडों में एक किसम का सूक्ष्म कीडा नारवा होता है मनछांना जलं पोने वाले से वह कोडा जल में रला हुवा पिया जाता है इस किसम का कीड़ा इलाके राजपूताना, मदरास, अहाता बम्बई वगैरा दक्षिण देश के जल में बहुत पाया जाता है, उन प्रांतों के इनसान जब अमछाने जल से स्नान करते हैं, या हाथ मूह धोते हैं या कुरला करते हैं या पीते हैं तो वह ऐसा बारीक हुवा रहता है कि पिया जाने के इलावे बदन की खाल में भी रास्ता बना कर बदन के अंदर चला जाता है और यह इस किसम का जानवर है कि पिया जाने ले या दूसरी तरह अंदर वला जाने से जिस प्रकार भग्नि पर सिरफ दाल गल जाती है कुडकू नहीं गलता इसी प्रकार यह अंदर जाकर भरता नहीं है वहां किसी जगह खाने दार झिल्ली में दाखल हो कर मांस खाता रहता है और परवरिश पाने लगता है और बच्चे देता रहता है आठ नौ माह तक जिस्म के अंदर ही अंदर बढ़ना हुवा जब जिस्म के बाहिर निकलता है तो उस जगह जिस्म पर खारिश सी होकर फफोला दिखाई देता है फिर खास उसी जगह दरद और सोजिश होकर कई दिन के बाद कीडे का मुह नजर आता है फिर ज्यू ज्यूं पढ़ता रहता है वाहिर निकलता रहता है इस प्रकार वर्षों दुःख देता रहता है और शरीर के जिस हिस्से या नसमें होता है उस में सोजिश होकर पोप पडं जाती है भनेक इनसान इस तकलीफ से मरजाते हैं और बैंचने से यह जिस्म के अंदर टूट जाता है तो फिर जो कोडे उस नारवे के बच्चे जिस्म के अंदर होते हैं टूट जाने को धजह से जिस्म के अंदर फैलजाते हैं जिससे इनसान को बहुत दुःख भुक्तना पड़ता है। . .
अनछाना पाने पीने वाले अनेक चार रात्री के समय अंधेरे में वगैर छाना जल पीते हुए जल में रले हुए वाल, जोंक के सूक्ष्म बच्चे या गिरे चढे कान सलाई कान खजूग, विच्छू चंगै पोजाते हैं हस्पतालों में ऐसे अनेक केस देखने में आए हैं यह संघ अनछाना जल पीने की कृपा है इसलिये सिवाय जीव हिंसा के पाप के अनछाना जलं पोने से और भो अनेक प्रकार की तकलीफे भोगनी पड़ती हैं। ... सिवाय इस के देखो जिसके सिर पर कमी टोपी देखोगे उस को तुम यह समझोगे कि यह मुसलमान है। जिसके गले में जनेऊ 'देखोगे उसे तुम ब्राह्मण
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जैनबालगुटका प्रथम भाग। समझोगे क्योंकि यह उन जातियों के चिन्ह हैं इसी तरह जब तुम कहीं सफर.म रेल में सराय में किसी जगह किसी को जल छान कर पोता देखोगे तो तुम फौरन यह समझोगे कि यह तो कोई जैनी है सो छान कर पानी पीना हमारा चिन्ह है, देखो इस बात को तो अन्यमती भी स्वीकार करें हैं दयानंद स्वामीने जो प्रति सत्यार्थ प्रकाश की पहले पहल छपवाई थी उसके समुल्लास १२ अवाव १७५ में यह लिखा ह कि पानी छान कर जो जैनी पोते है यह बात जैनियों में बहुत मच्छी है और तुलसीदास जी का यह कथन है कि पानी पोवे छान कर गुरू बनाये जानकर और मनुस्मति अध्याय ६ श्लोक ४६ में मनुजी यह लिखते हैं कि बाल और हडडी वाले जानवरों के इलावे और छोटे छोटे जीवों की रक्षा भर्थ भी जमीन पर देख कर पावरक्खो पानी छान कर पीवो ॥
इस लिये हर जैनी मरद स्त्री पालक को अपने धर्म और कुल के चिन्ह के असूल के मुताविक हमेशा पानी छान कर ही पीना चाहिये छान कर ही स्लान करो छान करही करला करो छान कर हो हाथ मूह धोवो,वगैरे छाना जल रसोई वगैरा में कभी भी मत वरतो तमाम जैनियों को हमेशा हर मुलक में जलछान कर ही वर्तना चाहिये ।
अथ छने हुए जल की मियाद॥ छने हुए जलकी मियाद । महूर्त तक है छने हुए मैं लौंग काफूर, इलायची काली मिरव या कसायली वस्तु कट कर डालने से इस चर्चे हुए जलकी मियाद दोपहर की है छान कर भोटाये हुए (उवाले हुए) जल को मियाद माठ पहर की है। इस के बाद फिर उसमें सन्मर्छन जीध पैदा होजाते हैं।
नोट-मुहर्त रघड़ी का होता है देखो ममर कोष १ कांड कालवर्ग श्लोक ११,१२, तेतु विशद होरात्र मर्थ तीस महूर्तका दिन रात होता है पस एक मुहुर्त दो घड़ी (४८ मिनट) का, दो पहर छै घंटे के, एक दिन रात्रि २४ घंटे का होता है। - . . अथ रात्री भोजन त्याग।
. श्रावक की पनवी क्रिया गत्री भोजन त्याग है सो रात को भोजन करना या रात्री का पका हुमा भोजन करना या जो बगैर निरखे देखे भन्यमती भोजन पकावे जैसेधाज, बाज हलवाई मुदत का पडी पुरानी मैदा 'कोड़े सहित ही की पूरी कचौरी भावि पकाते हैं भनेक ब्राह्मण ढाबोंम (वासा)में मौसम गरमी में पुराना पोरियों का सुरसरी,वाला मादासुरसरी सहितही पका लेते हैं वगैर निरले पुराने चावल कोडे ।
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जैनवाकगुटका प्रथम भाग |
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जहितही पका लेते हैं रातको काने बैंगन मिंडीतोरी मादि तरकारी बगैर सोधे बनार कर कीडों सहित ही पका लेते हैं अन्य मतियों के इस बात को न घिन है न क्रिया, सो उनके घरका भोजन रात्रि भोजन समान है अन्धेरे के मकानमें दिनमें भोजनखानां जहां भोजन में वाल सुरसरी चावलों में कोड़ा नजर न मावे या दिन में भी बगैर देखे air faraभोजन पकाना यह सब रात्री भोजन में है. रात्री भोजन पकाने वाले भमेक वार दाल तरकारी में चौमासे वगैरा में गिरे पडे भीडको कौरा जानवर पका लेते हैं रात्री को भोजन करने वाले अनेक बार भोजन में चढ़ी हुई कीड़ी भादि या गिरे हुए मच्छर वगैरा जोष भक्षण करते हैं पस रात्री भोजन मांस मक्षण समान है सो जो जैनो नाम धराय रात्री को भोजन करते हैं वह भपने धर्म और कुल के विरुद्ध रस आचरण के पाप से भव भव में दुःख भुकते हुए भ्रमण करें हैं ॥
यह श्रावक की ५३ क्रियाओं का वर्णन समाप्त हुवा |
४ प्रकारका आहार ।
?.
१खाद्य, २स्वाद्य, ३लेग्र, १ पेय, (१ अन्न, २ पान, ३ खाद्य, ४स्वाय)
१ समझावट - भात रोटी दाल खिचड़ी पूरी परोधठा लड्डू, घेवर, आदि मिठाई या आम, सेव आदि जो वस्तु खाइये है खाद्य है ।
२ इलायची सुपारी पान वगैरा जो अपनी तबियत खुश करने को ऐसी वस्तु खाइये हैं जिन में स्वाद (जायका) तो भवे परंतु पेट नहीं भरे वे स्वाद्य है ।
● मलाई चटनी वगैरा जो चाटने के योग्य चीजें हैं वे सब लेख में शुमार हैं। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार के १४२ श्लोक के भर्थ से विचार लेवें) |
४ दुग्ध, शर्वत, रस, जल, आदि जे वस्तु पोईये हैं वे पेय हैं ॥ मोट - जो दवा पीड़ जावे वह पेय में है जो खाई जावे वह खाद्य में है ।
दातार के २१ गुण
९ नवधा भक्ति,
गुण, ५ आभूषण |
यह २१ गुण दातारके हैं अर्थात् पात्र को दान देने वाले दावार में यह २१ गुण होने चाहियें ॥
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जनवालगुटका प्रथम भाग) ". दातार को नवधा भक्ति। .. १ प्रति ग्रह कहिये मुनिको तिष्ठतिष्ठ तिष्ठ ऐसे नीन बार कह खडा रखना २ मुनिको उच्चस्थान देवे ३ चरणों को प्रासुक जलकर धोवें ४ पूजा करे अर्घ चढावे ५ नमस्कार करे ६ मनशुद्ध रक्खे ७वचन विनय रूप बोले काय शुद्धरक्खे९शुद्ध आहार देवे।
यह नव-प्रकार. की भक्ति दातार की है दातार वाले को यह नव प्रकार की भक्ति करनी चाहिये ॥ . . . "
. दातार के सप्त गण। १दान में जाके धर्म का श्रद्धान होय, २साधु के रत्नत्रयादिक गुणों में अनुराग रूप भक्ति होय, ३ दान देने में आनंद होय ४ दानकी शुद्धता अशुद्धता का ज्ञान होय,५दान देने से इस लोक परलोक संबंधी भोगाकी अभिलाषा जिसके नहीं होय ६ क्षमावान् होय ७ शक्ति युक्त होय ऐसे ७ गुण सहित दान देना ॥. .
दातार के ५ आभूषण। .. १ आनन्द पूर्वक देना, २ आदर पूर्वक देना, ३प्रियवचन कह कर देना, ४ निर्मल भाव रखना, ५ जन्म सफल मानना ।।
दातार के ५ दषण। ' . ' बिलम्ब से देना,विमुख होकर देना, दुर्वचन कहकर दना, निरादर करके देना, देकर पछतानां यह दातार के ५ दूषण है दातार में यह पांच दोष नहीं होने चाहिये ।। .. . : ....: : श्रावक के १७ नियम।
१ भोजन, २ सचित्त वस्तु,३ गृह, ४ संग्राम, ५ दिशांगमन,
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जैनपालगुटका प्रथम भागा, ६ औषधि विलेपन, ७तांबूल ८ पुष्प,सुगन्ध, ९ नृत्य, १० गीतश्रवण, ११ स्नान, १२ ब्रह्मचर्य, १३ आभूषण, १४ वस्त्र १५ शय्या, १६ औषधि खानी, १७ सवारी.करना॥
नोट-इन में से हर रोज जिस जिस की जरूरत हो उसका परिमाण राखे कि आज यह काग, बाकी प्रतिदिन त्याग किया करे ।। , - श्रावकों के २१ उत्तर गण । ... १ लज्जावन्त, २ दयावन्त, ३ प्रसन्नता, ४. प्रतीतिवन्त, ५परदोषाच्छादन, परोपकारी, ७सौम्यदृष्टी, गुणग्राही,९श्रेष्ठपंक्षी, १. मिष्ट वचनी, ११दीर्घविचारी, १२ दानवन्त, १३ शील
चन्त, १४ कृतज्ञ, १५ तत्त्वज्ञ, १६ धर्मज्ञ, १७ मिथ्यात्व रहित; १८ __सन्तोषवंत,१९स्याद्वाद भाषी,२०अभक्ष्यत्यागी,२१षट्कर्म प्रवीण।
श्रावक के नित्य षट् कम्म। .... षट नाम छै का है १ देव पूजा, २ गुरुसेवा, ३ स्वाध्याय, ४संयम, ५ तप, ६ दान, । यह छे कर्म श्रावकके नित्य करनेके हैं।
५७-आश्रव। ५ मिथ्यास्त्र, १२ अविरति, २५ कषाय,१५ योग । . . ५-मिथ्यात्व।। १ एकांत मिथ्यात्व, रविपरीत मिथ्यात्व, विनय मिथ्यात्व, ४ संशयमिथ्यात्व, ५ अज्ञानमिथ्यात्व ।। .
१२-अविरति। .१ पृथिवी, अप् , (जल), ३तेज, (आग), ४वायु, ५वनस्पति, ६ प्रस, इन छै काय के जीवों में अदया रूय प्रवर्तना, स्पर्शन,
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યુદ્ધ
जैनवालगुटका प्रथम भाग | '
८ रसना, (जिल्हा), ९ घ्राण, (नासिका), १० चक्षु, (अ) ११ श्रोत्र (कान), १२ मन, इनको वश में नहीं रखना यह १२ अविरति हैं । २५- कषाय ।
१४८ कर्म प्रकृति में लिखी है ॥. १५- योग ।
- १. सत्यमनोयोग, २ असत्य मनोयोग, ३ उभय मनोयोग, ४अनुमय मनो योग, ५ सत्य बचन योग, ६ असत्यवचनयोग, उभयवचन योग, ८ अनुभय बचन योग, ९ औदारिक काय योग. १० औदारिक मिश्र काय योग, ११ वैकियिक काय योग १२ वैकियिक मिश्रकाययोग, १३ आहारककाययोग, १४आहारक मिश्रकाय योग, १५ कर्माणि काययोग ॥
५७-संबर ।
३गुप्ति, ५समिति, १०धर्मं, १२ भावना, २२ परीषह जय, पंचारित्र ।
३- गुप्ति
१ मनो गुप्ति २ वचन गुप्ति ३ काय गुप्ति ।
नोट- मन, वचन, काय को अपने वश में करना ।
।
५- समिति ।
१ ईर्ष्यासमिति, २ भाषासमिति, ३ एषणासमिति, ४ आदान निक्षेपण समिति, ५ प्रतिष्ठापनासमिति ॥
१० - धर्म ।
१ उसमक्षमा, २ मार्दव, ३ आर्जव, ४ सत्य, ५ शौच, ६ संयम, ७ तप, ८ स्याग, ९ आकिंचन्य, १० ब्रह्मचर्य ॥
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जैम, बालगुटका प्रथम भाग ।
१२ भावना ।
१ अनित्य, २ अशरण, ३ संसार, ४एकत्व, ५अन्यत्वं, ६ अशुचि ७ आश्रव, “संवर, ९ निजरा, १०लाक, ११ बोधिदुर्लभ, १२ धर्म ॥ अथ बाईस परीषह |
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६९
१ क्षुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ दंश मशक, ६ नाग्न्य, ७ अरति, ८ स्त्री, ९ चर्य्या, १० आसन, ११ शयन, १२ दुर्बचन, १३ वध बंधन, १४ अयाचना, १५ अलाभ, १६ रोग, १७ तृणस्पर्श १८मल, १२ असत्कार, २० प्रज्ञा (मद न करना) २१ अज्ञान, २२ अदर्शन ॥ नोट - जैन मुनि यह २२ परीपद सहते हैं।
६ रस ।
१ दही, २ दूध, ३ घी, ४ नमक, ५ मिठाई, ६ तेल ।
५ चारिच ।
१ सामायिक, २छंदापस्थापना, ३ परिहार विशुद्धि, ४ सूक्ष्म साम्पराय, ५ यथाख्यात ॥
नोट -- यह ५७ किया ५७ लम्बर कहलाती हैं ॥
नोट- बहुत से नर नारी रस का त्याग करते हैं परन्तु कितने ही यह नहीं
कुपढ़ लोग खट्टा मिठा कडवा
जानते कि रस किस को कहते हैं उन को बाजे बाजे कसायला चरचरा और खारा इन को है रस बताते हैं यह उनकी गलती है क्योंकि तत्वार्थ सूत्र क भठवें अध्याय के ग्यारवै सूत्र में जो रसों का वर्णन है वहां खड्डा, मिट्ठा, कडवा, खारा, चरचरा, यह रस विधान करे वह बाबत कर्म प्रकृति के लिखे हैं सो सिरफ पांच लिखे हैं, चिकना शोत उष्ण की साथ स्पर्श प्रकृत्ति में वर्णन करा है सो वह और बात है । मुनिके लिये जो रस परित्याग का वर्णन है वहां दही, दूध, घी, नमक, मिठाई, और तेल यही छे रस लिखे हैं देखो रत्नकरंड श्रावकाचार पृष्ट २६१, पस जनमत में दही, दूध, घी, नमक, मिठाई, भोर तेल यही ६ रस हैं जिन को कोई रख किसी दिन छोड़ना हो इन्हीं में से ही छोड़े ।
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बाळगुटका प्रथम नाग !
8 विक्रथा ।
स्त्री कथा, भोजन कथा, देश कथा, राज कथा ॥ ३ शल्य |
१ माया, २ मिथ्यात्व, ३ निदान || ६ लेश्या ।
१ कृष्ण, २ नील, ३कापोत, ४ पीत, ५पद्म, ६शुक्ल । ७ भया
१ इस लोक का भय, २ परलोक का भय, ३मरण का भय, ४वेदना का भय, ५ अरक्षाभय, ६ अगुप्त भय, ७ अकस्मात्भय ८ मद ।
जातिका मद, २ कुलका मद, ३ बलका मद, रूपका मद, ५ विद्याका मद, ६नपका सद. ७ धन का मद, ऐश्वर्यका मद ॥ मौन धारण के ७ समय
१
भोजन करते हुए, २ वमन (उलटी) करते हुए, ३ स्नान करते हुए, ४ स्त्री सेवन समय, ५ मल मूत्र त्याग करते हुए, ६ सामायिक करते हुए, ७ जिन पूजा करते हुए
नोट- यह ७ क्रिया करते हुए नहीं बोलना चाहिये ||
१६ कारण भावना |
१ दर्शनत्रिशुद्धि, २ विनय संपन्नता, ३शील प्रतेष्वनविचार,
४ आभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, ५ संवेग, ६ शक्तितस्त्याग, ७ तप, साधु · समाधि, ९ वैश्यावृत्य करण, १० अर्हद्भक्ति, ११ आचार्य भक्ति,
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[जैनबालगुटका प्रथम भागा १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति, १४ आवश्यकापरिहाणि, १५मार्गप्रभावना १६प्रवचनवात्सल्य ॥
नोट-यह तीर्थकर पद के देन वाली हैं, जो इन को भावे यानि इन रूप प्रवर्ते उस के तीर्थंकर गोत्र का बन्ध पड़ता है।
. अथ सम्यक्त्व का वर्णन। हे वालको भव हम तुम्हें कुछ सभ्यता का स्वरूप समझाते हैं ।
सम्यक्त्र॥ अब यह बताते हैं कि सभ्यता किसको कहते हैं इसके तीनजुज़ हैं सम्यग्दर्शन २ सम्यग्ज्ञान ३ सम्यक् चारित्र सो इनका अलग अलग मतलव इस प्रकार है कि
सम्यक् । सम्यक् शब्द का अर्थ सत्य यथार्थ, असल, ठोक है सम्यक शब्द का अर्थ सत्यता यथार्थता, असलीयत है।
- दर्शन। . दर्शन नाम देखने का है परंतु जिस प्रकार बाज बाज स्थानों पर इसका अर्थ जानना सोना धर्म नियम नेत्र दर्पण भी है अन्य मत में १ सांख्य र योग ३ न्याय । वैशेषिक ५ मीमांसा ६ वेदांत इन छै शास्त्र का नाम भी षट् दर्शन है इसी प्रकार हमारे जैन मत में दर्शन नाम श्रद्धान का है ईमान लाने का ऐतकाद लाने का है निश्चय लाने का है मानने का है ॥
ज्ञान। शाम नाम जानना, पाकफियत तमोज लियाकत मालूमात समझतथा बुद्धिका है ।।
चारित्र। चारित्र नाम माचरण प्रवर्तन चलन आदत चाल चलन का है।
सम्यग्दर्शन। सम्यग्दर्शन-नाम सत्य श्रद्धान का है जिस प्रकार जीवादिक पदार्थों का जो असली स्वरूप असली स्वभाव है उस का उस हो रूप श्रद्धान होना जैसे कि अपने तेई ऐसा समझना कि यह मेरा शरीर मेरी आत्मा से भिन्न है यह जड़ें हमें इस से मिन्न चेतन हूं मान दर्शन मेरा स्वभाव ह ऐसे कंवली कर कहे तत्वों में शंकादि दोप रहित जो मचल प्रधान तिसका नाम सम्यग्दर्शन है।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग |
सम्यग्ज्ञान |
सम्यग्ज्ञान- नाम सच्चे ज्ञान का है यानि सब्वी वाकफियत का है यानि जिस प्रकार जीवादिक पदार्थ तिष्ठे हैं उन को उसी रूप जानना तिसका नाम सम्यग्ज्ञान है, संशय कहिये संदेह विपर्यय कहिये कुछ का कुछ (खिलाफ ) भनण्यवसाय कहिये वस्तु के ज्ञान का अभाव इत्यादिक दोषों करके रहित प्रमाण नयों कर निर्णय कर पदार्थों को यथार्थ जानना तिसका नाम सम्यग्ज्ञान है ॥
1
ર
सम्यक् चारित्र |
सम्यक्वारित्र - नाम सच्चे चारित्र ( यथार्थचारित्र) का है यानि सत्यरूपप्रवर्तने का है जिन क्रियाओंसे संसार में भ्रमण करनेके कारण जो कर्म उत्पन्न होवें वह क्रिया न करनी और जिन क्रिया तथा भावों से नये कर्म, उत्पन्न न होवें उस रूप प्रवर्तना अर्थात् कर्म के ग्रहण होने के कारण जे क्रिया उनका त्याग कर अतीवार रहित मूल गुणों उत्तरगुणों को पालना धारण करना) उसका नाम सम्यक् चारित्र है ॥
सम्यग्दृष्टि ।
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सम्यग्दृष्टि-- उसको कहते हैं जिसके सम्यक्च उत्पन्न भई हो अर्थात् सत्यता प्रकट भई हो यहां सत्यता से यह मुराद हैं कि जो अपने आत्मा और पर शरीरादिक के असली स्वरूप का श्रद्धानी हो जानकार हो वह सम्यग्दष्टि कहलाता है सोस म्fष्ट दोप्रकार के होते हैं एकअविरत दूसरा अविरतव्रती सम्पष्टि वह हैं जो केवल आत्मा और परपदार्थ के असली स्वभाव का श्रघानी और जानकार हैं और चारित्र नहीं पालते और व्रतो सम्यकदृष्टिवह हैं जो अपने आत्मा और पर पदार्थका तथा निज स्वभावका श्रद्धानो भो हैं जानकार भीहैं और चारित्र भी पालते हैं जिनके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र तीनों पाइये वह व्रती सम्यग्दृष्टि हैं ।
1
यहां इतनी बात और समझनी है कि सम्यश्व नाम सम्यग्दर्शन या सम्य दर्शन-' सम्यग्ज्ञान इन दोनों या सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्वारित्र इन तीनों की प्राप्ति का है यदि किसी जीव के सम्यग्दर्शन न होवे और बाकी के दोनों होवे तो उसके सम्यक्त की उत्पत्ति नहीं, जिस जीव के केवल सम्यग्दर्शन ही होवे और सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र न भी होवे तो भी उस के सम्यत्तव है जैसे वृक्ष के जड है उसी प्रकार इन तीनों का सम्यग्दर्शन मूल है इसके बिना उन दोनों से कभी भी मोक्ष फल की प्राप्ति नहीं अर्थात् इस सम्न्यग्दर्शन के विना ज्ञान मौर वारित्र कार्यकारी नहीं प्रयोजन ज्ञान तो कुशान और चारित्रकुंचारित्र कहलाता है इसलिये संसार के जन्म मरण रूप दुःख का अभाव नहीं हो सकता ॥. .
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नैनवाल गुटका प्रथम भाग।
उपशम। उपशम नाम है दयजाने का शांत हो जाने का कमजोर हो जाने का जैसे तेज भग्नि चलती हुई शांत हो जावे उसको तेजो घट जावे उसी प्रकार जब कर्मका बल घट जावे उसे उपशम कहते हैं।
क्षयोपशम । इस पद में क्षय और उपशम दो शब्द हैं उपशम का अर्थ ऊपर बता चुके हैं क्षयका भर्थ है नष्ट हो जाना जाता रहना नाश को प्राप्त हो । सो जब कर्म की दो हालत होती है उस का जोर भी घट जाता है वह शांत हो जाता है और किसी कदर घटता भी जाता है नष्ट भी होता जाता है उस हालत में जो कर्म हो उसे कर्म का क्षयोशम कहते हैं।
क्षय का अर्थ नष्ट होना बता चुके हैं सो जैसे काफूर की डली पडी २ घटनी शुरू हो जाती है इस हालत में जब कर्म हो जो घटता ही चला जावे उसका नाम कर्म का क्षय कहलाता है अर्थात् कर्म का क्षय होता है।
सम्यत्तव की उत्पत्ति। जब इस जीव के दर्शन मोह का उपशम या क्षय या क्षयोपशम होय तब इस के सम्यक उत्पन्न होय है वगैर दर्शन मोह के उपशम या क्षय या क्षयोपशम के सम्यश्व की उत्पत्ती होती नहीं सो यह सम्यक दो प्रकार से उत्पन्न होय है या तो स्वतःस्वभाव या दूसरे के उपदेश से सो इन में से एक तो निसरगंज सम्यक्त्व कहलाता है दूसरा अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता है।
निसर्गज सम्यक्त्व। निसर्गज शब्द का अर्थ है (स्वतःस्त्रमाव) कुदरती खुदयखद सो जो सम्याच स्वतःस्वभाव खुदवखुद वगैर किसीके उपदंशके उत्पन्न होवहनिसर्गज सम्यक्त्व है।
अधिगमज सम्यक्त्व । भधिगमज शब्दका अर्थ है प्राप्तता हासिलना सो जो सम्यतय किसी दूसरे के उपदेश से उत्पन्न होवे यह अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता है जो सम्यतव पढ़ने से होवे यह भी अधिगमजसम्यत्व है शास्त्र भी दूसरे का उपदेश है किसी को जवानी समझाना या लिखकर समझाना दोनों ही उपदेश हैं।
बीतराग सम्यक्त्र । निजात्म स्वरूपकी विशुद्धता सो पीतराग सम्यतय है।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग अथ पंचपरमेष्ठि के १४३ मल गण।
गाथा। अरहता छिय्याला सिद्धा अठ्ठव सूर छत्तीसा । उवज्झायापणबीसा, साहणं होंति अडवीसा ॥
मर्थ-अरहंत के गुण ४६ सिद्ध के गुण ८ आचार्य के गुण ३६ उपाध्याय के गुण २५ साधु के गुण २८ होते हैं।
नोट-वहां बालकों को यह समझ लेना चाहिये कि पंचपरमेष्ठि के इन १४३ मूलगुणों के सिवाय और भी अनेक गुण होते हैं, पांचौ परमेष्ठि के गुणों को तो क्या ठिकाना सिरफ मुनि के ही शास्त्र में ८४ लाख गुणों का होना लिखा है । सो यहां इस का मतलब यह समझ लेना चाहिये कि गुण दो प्रकार के होते हैं एक मूल गुण (लाजमी) (compulsary) दूसरे उत्तर गुण (अखत्यारी) (optional) होते हैं सो मूल गुण उसको कहते हैं जो उनमें वह जरूर होवें और उत्तर गुण उसको कहते हैं कि वह उनमें होवे भो या उनमें से कुछ न भी होवें उतर गुण उनके शरीरको ताकत और भावों की निलमता के अनुसार होते हैं और मूलगुणों में शरीर को ताकत और भावोंकी दृढ़ताका विचार नहीं यह तो उनमें होने जरूरी लाजमी हैं इन विना उनका पद दूषित है । सो कवि बुधजन जो ने इन १५३ मूल गुणों को ३६ छन्दों में . ग्रन्थ कर उस पाठका नाम इष्ट-छतीलो रक्खा है सो वह १४३ मूल गुण अर्थ सहित , हम यहां लिखते हैं ताकि सर्व बालक उसका मतलब समझ सके।
इष्ट छत्तीसी।
मंगलाचरण । सोरठा। प्रणाम श्रीअरहत, दया कथित जिन धर्म को। गुरु निग्रंथ महन्त, अवर न मानं सर्वथा ॥ विनगुण की पहिचान, जाने वस्तु समानता।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग। तातें परम बखान, परमेष्ठी के गुण कहूं ॥ राग द्वेषयुत देव, माने हिंसाधर्म पुनि।। सग्रन्थिनि की सेव, सो मिथ्याती जग भ्रमें॥
मर्थ-दयामय जैन धर्म को प्रकाश करने वाले श्रीअरहंतदेव मौर परिग्रह रहित गुरु को मैं नमस्कार कई अन्य (देवादिक) को नहीं ।।
क्योंकि विना गुणोंको पहिवानके समस्त अच्छी बुरीवस्तु घरावर मालूम होती है इस लिये पंचपरमेष्ठि को परमोत्कृष्ट जानकर मैं उनके गण वर्णन कर्क हूं ॥
जो राग द्वेष युक्त देव और हिंसारूप धर्म के मानने वाले हैं भौर परिग्रह सहित गुरु की सेवा करते हैं वह मिथ्याती जगत में भ्रमें हैं। __ अथ अहंत के ४६ मल गुण (दोहा) चौंतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनन्त चतुष्टय गुण सहित, छीयालीसों पाठ ॥१॥. . अर्थ-३४ अतिशय प्रातिहार्य ४ अनन्तचतुष्टय यह अस्तके ४क्ष्मूलगुण होते हैं
३४ अतिशय । दोहा। जन्में दश अतिशय सहित, दश भए केवल ज्ञान। चौदह अतिशय देवकृत, सब चौंतीस प्रमान ॥२॥ ___ अर्थ-१० अतिशय संयुक्त जन्मते हैं १० केवल ज्ञान होने पर होते हैं १४ देव कृत होते हैं महंत के यह ३४ अतिशय होते हैं ।
जन्म के १० अतिशय । दोहा। अतिसुरूप सुगन्ध तन, नाहिं पसेव निहार । प्रियहित वचन अतौल बल, रुधिर श्वेत आकार ॥३॥ लक्षण सहस अरु आठतन, समचतुष्कसंठान । बज्रवृषभ नाराच युत, ये जन्मत दश जान ॥ ४ ॥ जर्थ-१ अत्यन्त सुन्दर शरीर; २ भतिसुगन्धमय शरीर, ३ पसेव रहित
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जैनवालगुटका प्रथम मागे। शरीर ४ मल मूत्र रहित शरीर ५ हितमित प्रिय पचन बोलना ६ अतुल्यबल ७ दुग्ध पत् श्वेत रुधिर ८ शरीर में १००८ लक्षण, ९ सम चतुरनसंस्थान शरीर, अर्थात् भरहन्त के शरीर के अङ्गोंकी बनावट स्थिति चारों तरफ से ठीक होती है किसी अङ्ग में भी कसर नहीं होती १०वजवृषभनाराचसंहनन यह दश अतिशय अहंत के जन्म से ही उत्पन्न होते हैं।
नोट-यहां बालकों को यह समझ लेना चाहिये कि यह जन्म के १० अतिशय हर एक मरहन्य (फेवली) के नहीं होते सिवाय पञ्चकल्याणक को प्राप्त होने घाले तीर्थंकरों के जितने दूसरे क्षत्री वैश्य और ब्राह्मण मुनि पदवो धार केवल शान को प्राप्त होते हैं, या जो विदेह क्षेत्र में तीन कल्याणक या दो कल्याणक वाले तीर्थंकर होते हैं उनके यह जन्मके १० अतिशय सारे नहीं होते उनका जन्म समय खून (रुधिर) लाल होता है सुफेद नहीं होता उनके निहार (टटो फिरना पिशाव करना) भी होता है उनके पशेष भी आता है उनके शरीर में जन्म समय १००८ लक्षण नहीं होते, वह जन्म समय अतुल बलके धारी नहीं होते, अतुल बल उस को कहते हैं जिसके चलकी तुलना कहिये अन्दाजा न हो, चक्रवर्ती, नारायण के वल का तुलना (अन्दाजा) होता है पञ्च कल्याणक को प्राप्त होने वाले तीर्थंकर मैं अतुल (बेहद) बल होता है देखो श्री नेमिनाथ ने नारायण को एक अंगुली से झुला दिया था।
पस यह जन्म के पूरे १० अतिशय उनहो अरहन्त में जानने जो पहले भव या भवों में तीर्थकर पदवी का बन्ध बांध पञ्चकल्याणक को प्राप्त होने वाले तीर्थकर उत्पन्न होय केवल ज्ञान को प्राप्त होते हैं ।
केवल ज्ञान के १० अतिश्या दोहा। योजन शत इक में सुभिख, गगन गमन मुखचार। नहिं अदया उपसर्ग नहि, नाहीं कवलाहार ॥ ५॥ सब विद्या ईश्वर पनों, नाहि बढें नख केश। अनिमिषडग छाया रहित,दश केवल के वेश ॥६॥
अर्थ-१ एक लौ योजन समिक्ष, अर्थात् जिस स्थान में केवली तिप्ठे उन से चारों तरफ सौं सौ योजन सुकाल होता है, २ आकाश में गमन ३ चार मुखों का दीखना अर्थात् महैत का सुख चारों तरफ से नजर आता है । भदया का भभाव, ५ उपसर्ग रहित ६ कवल (प्रास) आहार वर्जित, ७ समस्तविधाओका स्वामी पना
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जैनवाल गुटका प्रथम भाग । 1 नख केशों का नहीं बड़ना, ९ नेत्रों को पल के नहीं टिमकना, १० छाया कर रहित | शरीर । यह देश अतिशय केवल ज्ञान के होने पर उत्पन्न होते हैं ।
देव कृत १४ अतिशय ॥ दोहा । देव रचित हैं चार दश, अद्ध मागधो भाष। आपस माही मित्रता, निर्मल दिश आकाश ॥ ७॥ होत फूल फल ऋतु सबै, पृथिवी काच समान। चरण कमल तल कमल है, नभ से जयजय बान ॥८॥ मन्द सुगन्ध बयारि पुनि, गन्धोदक की वृष्टि । भूमि विषे कंटक नहीं, हर्ष मई सब सृष्टि ॥९॥ धर्म चक्र आगे रहै, पुनि वसु मंगल सार। अतिशय श्रीअरहन्त के, यह चौतीस प्रकार ॥१०॥
अर्थ-भगवान को अर्धमागधी भाषा का होना, समस्त जीवों में परस्पर मित्रता का होना, ३ दिशा का निर्मल होना, आकाश का निर्मल होना, ५ सय ऋतु के फल फूल धान्यादिक का एक हो समय फलना, ६एक योजन तक को पृथिवी का दर्पणवत निर्मल होना, ७ चलते समय भगवान के चरण कमल के तले स्वर्ण कमल का होना, ८ आकाश में जय जय ध्वनि का होना, ९ मन्द सुगन्ध पवन का चलना, १० सुगंध मय जल की वृष्टि का होना. ११ पवनकुमार देवन कर भूमि का कण्टक रहित करना, १२ समस्त जीवों का आनन्द मय होना, १३ भगवान के आगे धर्म चक्र का चलना,१४ छत्र धमर ध्वजा घण्टादि अष्टमंगल द्रव्यों का साथ रहना ॥ इस प्रकार ३४ अतिशय महंत तीर्थकर के होते हैं।
८प्रातिहाय्यं ॥दोहा॥ तरु अशोक के निकट में, सिंहासन छविदार ॥
तीन छत्र शिर पर लस, भामंडल पिछवार ॥११॥ । दिव्यध्वनि मुख तें खिरे, पुष्प वृष्टि सर होय।
ढारें चौंसठि चमर जख, बाजें दुंदुभि जोय ॥१२॥
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जैनबालगुटका प्रथम भाग। अर्थ- अशोक वृक्षका होना जिस कं देखने से शोक नष्ट होजाय, सरल भय सिंहासन ३ भगवान् के सिर पर तीन छत्र का फिरना, ४ भगवान के पीछे मामंडल का होना ५ भगवान के मुख से निरक्षरी दिव्यध्वनि का होना, देवों कर पुष्प वृष्टि का होना, यक्ष,देवों कर चौंसठ चवरों का ढोलना, ८ दुन्दुभी बाजों का बजना यह ८ प्रातिहार्य हैं।
समवशरन की १२ सभा। समवशरण में गंधकुटी के हर तरफ गोलाकर प्रदक्षिणा रूप १२ सभा होय हैं। १-पहली सभा में गणधर और अन्य मुनि विराजे हैं। २-दूसरी सभा में कल्पवासी देवों की देवी तिष्ठे हैं। ३-तीसरी सभा में आर्यिका और श्राविकायें निष्ठे हैं। ४-चौथी सभामें ज्योतिषी देवों की देवी तिष्ठे हैं। ५-पांचवी सभा में व्यंतर देवों की दवी तिष्ठे हैं। ६-छठी सभा में भवनवासी देवों की देवी तिष्ठे हैं। .. ७-सातवीं सभा में १० प्रकार के भवनवासी देव तिष्ठे हैं। ८-आठवीं सभा में प्रकार के व्यंतर देव विष्ठे हैं। ९ नवमी सभा में चन्द्र स्थादि विमानों में रहने वाले ५ प्रकार । के ज्योतिषी देव तिष्ठे हैं। १०-दशा सभा में १६ स्वर्गों के वासी इन्द्र और देव तिष्ठेह। ११-ग्यारवी सभा में मनुष्य तिष्ठे हैं। १२-धारहवीं सभा में पशु, पक्षी, और तिर्यंच तिष्ठे हैं ।
___ नोट-समवशरण में इन का आना जाना लगा रहता है कोई आवे है, कोई जावे है कोई धर्मोपदेश सुने है समवशरण का यह अतिशय है । कि समवशरण में रात दिन का भेद नहीं हर वक्त दिन ही रहे है रात्री नहीं होती और कितने ही देव मनुष्य आजा परन्तु समवशरण में सब समाजाते हैं जगह कामभाव कमी भी नहीं
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जैनबालगुटका प्रथम भाग। होता है और समवशरण में मोह, भय, द्वेष, विषयों को अभिलाषा, रति, अदेख का भाव, छींक, जम्माई, खांसी डकार, निद्रा, तंद्रा (उघना) क्लेश, विमारी, भख, प्यास, आदि किसी जीत्र के भी मकल्याण तथा विघ्न नहीं होता और जैसे जल जिस वृक्ष में आता है उसो रूप होजाता है जैस ही भगवान की वाणो अपनी अपनी भाषा में सव समझे हैं।
अनन्त चतष्टय ॥दोहा॥ ज्ञान अनन्त अनन्त सुख, दरशअनन्त प्रमाल । बल अनन्त अरहंतसो, इष्टदेव पहिचान ।। १३॥ .
अर्थ- अनन्त दर्शन, २ अनन्तज्ञान, ३ अनन्तसुख, ४ अनन्त योर्य इतने गुण जिस में हो वह अर्हत हैं चतुष्टयनाम चार का है अनन्त चतुष्टयनामधार अनन्त का है भनन्त नाम जिस का अन्त न हो अर्थात् जिस की कोई हद न हो जब यह मारमा भरहन्त पद को प्राप्त होता है तब इस को अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति होती है।
१८ दोष वर्णन। दोहा। जन्म जरा तिरषा क्षुधा, विस्मय आरत खेद। रोग शोक मद मोह भय, निद्रा चिन्ता स्वेद ॥१४॥ राग द्वेष अरु मरण पुनि,यह अष्टा दश दोष । नाहि होत अरहन के सो छवि लायक मोष ॥१५॥
मर्थ-१ जन्म, २ जरा, ३ तृषा, ४ क्षधा, ५ आश्वयं अति (पीडा) ७ खेद (दुःख), ८ रोग, ९ शोक, १० मद, ११ मोह, १२ भय, १३ निद्रा, १४ चिन्ता, पसीना, १६ वेप, १७ प्रीति, १८ मरण । यह १८ दोष अरहंत के नहीं होते।
अथ सिद्धों के मूल गुण। सोरठा। समकित दरसन ज्ञान अगुरु लघु अवगाहना ।
सूक्षम वीरजवान निरावाध गुण सिद्ध के ॥ १६ ॥ , म सम्यक्त्व, २ दर्शन, ३ शान, ४ अगरुलधुत्व, ५ अवगाहनस्य, १ सूहमपना, ७ अनंत वीर्य ८ अव्यायाधत्व यह सिद्धों के ८ मूल गुण होते हैं ।।
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जैनवालगुटका प्रथम भांग। अंथ आचार्य के ३६ मल गुण । दोहा। . ___ द्वादश तप दश धर्म युन, पाले पंचाचार।
षट आवशिक त्रय गुप्ति गुण,आचारज पदसार ॥ १७॥
अर्थ-तप १२, धर्म १०, आचार ५, मावश्यक ६, गुप्ति । यह भाचार्य के ३६ मल गुण होते हैं ।
१२ तपादोहा। अनशन ऊनोदर करे, व्रत संख्या रस छोर ॥ . . . .
विविक्तशयन आसन धरे, कायक्लेश सुठोर ॥१८॥ . “ प्रायश्चित धर विनय युत, वैयावत स्वाध्याय। : । ___ पनि उत्सर्ग विचार के, धरे ध्यान मन लाय ॥ १९॥...
अर्थ-१ अनशन (न खाना),२ ऊनोदर (थोडासाखाना) ३ प्रतपरिसंख्यान, ४ रस परित्याग, विविकशय्यासन, ६ कायक्लेश, (यह छै प्रकार का बाह्य तप है। ७ प्रायश्चित्त, ८ पांच प्रकार का विनय ९ वैयाघृत्य करना. १० स्वाध्याय करना, . १९ ग्युत्सर्ग (शरीर से ममत्व छोड़ना)१२ ध्यान (यह छै प्रकार का अन्तरंग तप है)।
१०धर्म (दोहा)। क्षमा मारदव आरजव, सत्य वचन चित्त पाग। . संयम तप त्यागीसरब, आकिंचन तिय त्याग ॥ २० ॥
. अर्थ- उत्तम क्षमा, २ मार्दव, ३ मार्जव, ४ सत्य,५ शौच, संयम, तप, ८ त्याग, ९ आकिंचन्य, १० ब्रह्मचर्य यह दश प्रकार के उत्तम धर्म हैं।
. ६ आवश्यक ।दोहा। . . समताधर बन्दन करे, नानास्तुति बनाय) • प्रति क्रमण स्वाध्याय युक्त, कायोत्सर्ग लगाय ॥२१॥ .. भर्थ-५समता (समस्त जीवों में समता भाष रखना), २ बन्दना, ३ स्तुति (पंचपरमेष्ठी की स्तुति करना) ४ प्रतिक्रमण (लगे हुए.दोषों का पश्चाताप करना) ५ स्वाध्याय, ६,कायोत्सर्ग ध्यान करना यह छ आवश्यक हैं। .
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जैन बालगुटका प्रथम भाग। ५ आचार और ३गुप्ति । दोहा। दर्शन ज्ञान चरित्र तप, बीरज पंचाचार। गोपे मन बचन काय को, गिणछतीस गणसार ॥२२॥
मर्थ-। दर्शनाचार, २ ज्ञानाचार, ३चरित्राचार, ४ तपाचार, ५ वीर्याचार, यह पांच आधार है और सर्वसावध योग जो पाप सहितमन, वचन, काय, की प्रति , उसका रोषना सो गुप्ति है अर्थात् १ मनोगप्ति मन को वश में करना, १ वचन गप्ति (वचनको वश में करना),३ काय गुप्ति(शरीर को वशम करना)यहतीन गुप्तिहैं।
तीन गुप्ति के अतिचार। १ रागादि सहित स्वाध्यायमें प्रवृति तथा अंतरंग में भशुभ परिणाम इत्यादि मनोगन्ति के भतिचार हैं।
२ द्वेप से तथा राग से तथा गर्व से मौनधारण करना इत्यादि बचन गुप्ति के भतिधार है।
३ असावधानी से काय की क्रिया का त्याग करना तथा एक पैर से खड़ा रहना तथा जीव सहित भूमि में तिष्ठना तथा गर्वधको निश्चल तिष्ठना तथा शरीर मैं ममता सहित कायोत्सर्ग करना तथा कायोत्सर्ग के जो ३२ दोष हैं उनमें से कोई दोष लगावना इत्यादि काय गुप्ति के अतिवार हैं जैन के मनि इत्यादि दोष टार तीन गुप्ति का पालन करते हैं । यह आवार्य के ३६ मूल गुण कहे। अथ उपाध्याय के २५ मूल गुण । दोहा।
चौदह पूर्व को धरे, ग्यारह अंग सुजान ।
उपाध्याय पच्चीस गुण, पढ़े पढ़ावे ज्ञान ॥२३॥ मर्थ-उपाध्याय ११ भंग १४ पर्व के धारी होतेहै इनको आप पढे औरोंको पढ़ावें।
११ अंग। दोहा। प्रथम हि आचारांग गण, दूजा सूत्र कृतांग । स्थानांग तीजा सुभग, चौथा समवायांग ॥२४॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिपञ्चमो, ज्ञातृकथा षट् आन।
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जैनवालगुटका प्रथम भाग। पुनि उपासकाध्ययन है, अन्त कृत दश ठान ॥२५॥ अनुत्तरण उत्पाद दश, विपाक सूत्र पहिचान । बहुरि प्रश्न व्याकरण युत, ग्यारह अंग प्रमान ।। २६ ॥
मर्थ- आचापंग, २ सूत्रकृतांग, ३ स्थानांग, ४ समवायांग, ५ व्याख्याप्राप्ति, ज्ञातृशयांग, ७ उपासकाध्ययनांग, ८ अन्तकृतदशांग, ९ मनुत्तरोत्पाद , दशांग,१. प्रश्न म्याकरणांग, ११ विपाकसूत्रांग । यह ग्यारह अंग हैं।
चौदह पूर्व। दोहा उत्पाद पूर्व अमायणी, तीजो वीरज बाद। अस्ति नास्ति परवादपुनि, पञ्च मज्ञान प्रवाद ॥ २७ ॥ छहा कर्म परवाद है, सत्तप्रवाद पहिचान । अष्टम आत्म प्रवाद पुनि, नवमोप्रत्याख्यान ॥ २८ ॥ विद्यानुवाद पूरव दशम, पूर्व कल्याण महन्त । प्राणवाद क्रिया बहुरि, लोक विंदु है अन्त ॥ २९ ॥
मर्थ-उत्पादपूर्व २ समायणी पूर्व, ३ वीर्य्यानुवाद पूर्व, ४ अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व, ५ ज्ञान प्रवाद पूर्व, ६ कर्म प्रवाद पूर्व, ७ सत्यप्रवाद पूर्व, ८ आत्मप्रबाद पूर्व.९ प्रत्याख्यान पूर्व, १० विद्यानुवादपूर्व, ११ कल्याणवाद पूर्व,१२.प्राणानुवादपूर्व, १३ क्रियाविशाल पूर्व, १४ लोक बिन्दु पूर्व । यह१४ पूर्व हैं ॥ . अर्थ सर्व साधु के २८ मूल गुण। दोहा।
पंच महावत समितिपण, पण इंद्रियन का रौध ।
षट् आवश्यक साधु गुण, सात शेष अवबोध ॥३०॥ मर्थ-५ महाबत, ५ समिति, ५ इन्द्रियों का शेकना, ६ आवश्यक, मवशेष यह २८ मूलगुण साधु के जानोग
पंचम महाबत ॥दोहा॥. हिंसा अनृत तस्करी, अब्रह्मपरिग्रह पाए। .
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जनवालगुटका प्रथम भाग। .' मनवचतनतेत्यागवो, पञ्च महाबत थाप॥ ३१ ॥
मर्थ-१ महिंसा महाबत, २ सत्यमहानव, ३ अचौर्य महाव्रत, ४ ब्रह्मचर्य महा. वत, ५परिग्रहत्याग महानत यह पांच महावत हैं ।।
नोट-सुनों के वास्ते यह पांच महावत हैं श्रावक के वास्ते यह पांच मानत हैं इन पांच व्रतों के घरखिलाफ पांच पापो की पांच कथा बडे सुकुमाल चरित्र में पृष्ट २२ले ३२ तक लिखी हैं जो मोती समान छपा हुवा हमारे यहां से १) रुपये में मिलता है जिसे वह कथा देखनी हो उसमें देखें ।।
• " ५ समिति । दोहा। ईर्ष्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान।
प्रतिष्ठापनायुत क्रिया, पांचों समिति विधान ॥ ३२॥ अर्थ- या समिति-परमागम की आज्ञा प्रमाण प्रमाद रहित यलाधार से जीवों की रक्षा निमित भूमि को देख कर गमन करना तिस का नामईयासमिति है।
२भाषा समिति काल के योग्य अयोग्य को विचार कर संदेह रहित सूत्र की माशा प्रमाण हित मित वचन बोलना तिसका नाम मापा समिति है।
३ एषणा समिति-जिहा इंद्रियको लंपटताको याग आचारांग सूत्रके हुकम प्रमाण उन्हमादि ४६ दोष ३२ अंतराय टार आहार करना तिसका नाम एषणा समिति है।
४ आदान निक्षेपणा समिति-प्रमाद रहित यानाचार से शरीरादिक मयूर पिच्छिका, कमंडलु, शास्त्र यह उपकरण जीव हिंसा के कारण टार सहज से रखने सहज से उठावने तिसका नाम आदान निक्षेपणा समिति है।
५प्रतिष्ठापना समिति-जीव रहित भूमि विषे तथा जहां जीवों की उत्पत्ति होने का कारण न हो ऐसो भूमि विषे यत्नाचार से मल मूत्र, कफ, नासिका का मल नख,केशादि क्षेपना(डालना)तिस का नाम प्रतिष्ठापना समिति है यह पांचसमिति हैं
५ समिति के अतिचार (दोष) । १ गमन करते समय भूमिको मले प्रकार नहीं देखना और धन, पर्वत, वृक्ष नगर, बाजार, तथा मनुष्यों का रूप आदि देखते हुए चलना इत्यादि ईर्यासमिति के अतिवार हैं।
२ देश, काल के योग्य अयोग्य का नहीं विचार करके पूर्ण सुने बिना पूर्ण जाने बिना बोलना इत्यादि भाषा समिति के अतिवार हैं।
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नैनवालगुटका प्रथम भाग ३ उहमादि कोई दोष लगाय तथा रसकी लंपटता से तथा प्रमाण से अधिक भोजन करना इत्यादि एपणा समिति के अतिचार है। . ___ ४ ममि तथा शरीरादि उपकरणों को शोवता से उठावना मेंलना अच्छी तरह नेत्रों से नहीं देखना तथा मयूर पिच्छिका से भले प्रकार झाडन पंछन नहीं करना । जलदो से करना इत्यादिक आदान निक्षेपणा समिति के अतिवार हैं।. ...
.५ अशुद्ध भूमि विषे तथा जीयों सहित भूमि विषे.जहां जोत्रों को उत्पत्ति होने का कारण हो ऐसी भूमि विषे मल मूत्रादिक्षेपना(डालना)इत्यादि प्रतिष्ठापनासमिति के अतिवार हैं जैन के मुनि इत्यादि दोषों को दूरकर पांचों समितिका पालनकरते हैं। ..
५ इन्द्रियदमन और बाकी दोहा। -स्पर्शन रसना नासिका, नयन श्रोत्र का रोध । षट्-आवशि मंजन तजन, शयन भूमि को शोध ॥३३॥ वस्त्रत्याग कचलौंच अरु, लघु भोजन इकबार !' दांतन मुख में ना करें, ठाडे लेय अहार ॥३४॥. . बरणे गुण आचार्य में, षट् आवश्यक सार।. . ते भी जानो साधु के, ठाइस इस परकार।। ३५ ॥ साधर्मी भविपठन को, इष्टछतीसी ग्रन्थ । ..
अल्पबुद्धि बुधजन रचो, हितमित शिवपुर पन्थ ।।३६ ।। ' अर्थ-१ स्पर्शन (त्वक्) २रसना,३ घाण, ४वक्षु, ५ श्रोत्र इन पांच इन्द्रियों को वश करना ।और १ यावज्जीव स्नान त्याग, र भूमि पर सोना, ३वस्त्रत्याग, ४ केशों का लौच करना, ५ एक वार लधु भोजन करना, ६ दांतन नहीं करना, खड़े माहार लेना सात तो यह और आवश्यक जो आचार्य के गुणों में वर्णन कर चुके हैं इस . पुकार २८ मूल गुण सर्व सामान्य मुनि आचार्य और उपाध्याय के होते हैं।
तीन गप्ति का प्रश्न उत्तर। .. .... - यदि यहां कोई यह प्रश्न करे कि पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति यह तेरह प्रकार के चारित्र पालन वाले जो हमारे दिगम्बर गुरु (मुनि) (साधू), उनके
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जैनवाल गुटका प्रथम भाग मानने वाले हम तेरह पंथी जैनी कहलाते हैं सो मुनि के २८ मूल गर्णा में तो मुक्ति नहीं कही सो क्या जैन मुनि तीन गुप्ति नहीं पालते? " .
इस का उत्तर यह है कि जैन के सर्वसाधु अपनी शकि समान तोन मुक्ति का पालन करते हैं उन तीन गुप्ति का वर्णन भावार्य, के गुणो में होचका है. यहाँ साधु के गुणों मै दुवारा इस धास्ते नहीं लिखा कि भावार्य के तो वह मूल गुणों में श्यामिल हैं आचार्य को उन का पालना लाजमी है जो भाषाव्य तीन गुप्ति को न पाले उस का भाचार्य पद खंडित है और साधु के यह तीन गुप्ति । उत्तर गुणों में हैं अगर किसी साधु से कोई गुप्ति किसी काल में न भी पले तो उस से उस का साधुपना खंडित नहीं होता देखो हरिवंश पुराण सफा ५७२ मतिमुक्त महामूनि अषधि मानी ने कंश की राणी जीवंजशा को कहा महो जीवंजशा जिस देवकी के यह वस्त्र तू मुझे दिखाती है इसके पुत्र तेरे पति और पिता के मारने वाला होयगा और भी श्रेणिक चरित्र आदि ग्रंथों में मुनियों से गुप्ति न पलने की ऐसी अनेक कथा है सो मुनि के यह तीन गुप्ति मूल गुणोंमें नहीं है उत्तर गुणों में हैं।
सर्वजैन मुनि इन तीन गुप्तिकाअपनी शक्ति अनुसार पालन करें, परन्तु किसी काल. __मैं किसी साधु से नहीं भी पलती इस धास्ते इनको साधुवों के मूल गुणो नहीं लिया।
. . इति पंच. परमेष्ठि.के १४३ मूल गुणों का वर्णन समाप्तम् ॥ ...: . .: अथ ७ व्यसन का वर्णन।
- १ जुवा, २ मांस, ३ मदिरा, ४ गणिका, [रंडी] ५ शिकार ६ चोरी, ७ परस्त्री।
नोट: इनका खुलासा इस प्रकार है । जूवा उसे कहते हैं जो पैसा,रुपैयां,गिनी, नोट, जेवर वगैरा या मकान, जमीन, असबाब, कपडा, हाथी, घोडास्त्री पर भांग को दावपर लगाकर खेलना या ताश शतरंज चौपड घुडदौड,अंटा मादि दूसरे का धन लेने ;
और निज-धना देनेकी बाजी लगाकर खेलना, पानीका सष्टा अफीमका सहावा अनाज सोना चांदी भादि का सष्टा बधनी यह सब जूधाहै जिसके ज्वे का त्याग हो वह किसी प्रकार का सक्ष या पधनी का सौदा नहीं कर सकता और ने धुड़दौड़ का टिकट सकता न किसी वस्तु की लाटरीमैं आप हिस्सा ले सकताहै यह सब गया है जिसके पो जूधे का ऐब लग जाता है यह मेहनत करके कमाने लायक नहीं रहतावह जो
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जैनबालगुटको प्रथम मागी" कमाता है किहा करके सदा सब जूवे में हार आता है जुवारी संदा गरीव दुखी रहता है सारी उमर तडफता ही मरता है जब उसके पास धन नहीं रहता तब चोरी करते लगता है दूसरे के बच्चों को जरा से धन के वास्ते मार डालता है इसलिये राजी कर सूली दिया जाता है कैद किया जाता है जुवारी का कोई ऐतबार नहीं करता उसकी कोई इज्जत नहीं करता। - .. . ....... :
: ' (२) मांस का खाना अमक्ष्य में लिखा है यहां दुवारा इस यास्ते वयान किया है कि जिसके मुंह के खून लगजावे जैसे राजा के मुंह के बच्चों का खून लग गया था सारे बच्चे नगर के खागया था इस का नाम मांस व्यसन है। . . . . .
· , (६"मदका अर्थ यह है कि ऐसी वस्तु खानी जिससे नशा पैदा हो योनी' वेहोशी या मस्त होने को बदचलनी करने को नशे वाली चीज खानी इसका नाम मद है जैसे माजून (मार्जुम) खांकर नई वनना भंग पोरं नशई बनना ताड़ी पीकर नशई बनना शेयव पोकर नशई बनना अफोम स्नाकर दशई बनना यह सर्व मद में हैं । जो मनुष्य अपनी वायु वादी का बदन तन्दुरुस्त रखने की आखों से पानी चहना कम करने को अफीम खान लगते हैं या ऊपर वयान को जो वस्तु उनमें से कोई अपनी जान बचाने की बीमारी दूर करने को खानी, वह मद में शामिल नहीं मद का मतलब ही नशे बाज बनने का है.और यहां यह लेख व्यसन में है म्यसन का अर्थ ऐव का है जान बचाने वीमारी दूर करने को कोई नशीली वस्तु खाना पेब नहीं है परन्तु माम्नाय विरुद्ध न खावें । अन्यों केलेलं और आवाग्यों के आशय को समझना बड़ा कठिन है एक लफ़जके अनेक अर्थ होते हैं जहां जो संभवे वहाँ वही लेना चाहिये यह जो जितने मत भेद हुये हैं सब असंभव अर्थ के ग्रहण करने से ही हुये हैं।
(8) रंडी बाजी करना जिसको रंडी वाजी की लत लग जावे यानी जिस को यह पता लग जाये वह अपने सारे धन को खो देता है अपनी स्त्री के पास नहीं जाता उस से मुहब्बत नहीं रहती जब उस स्त्री को काम सतावे उस से न रहा जावे तो ऐसी अनेक स्त्री खाविंदको वदचलन देख उसके पास रंडी आती जाती देखकर वह भी ऐवदार हो जाती हैं वचलन की सौहवत से दूसरा भी बदचलन हो जाता है, पस उसको स्त्रीभी बदलन होजाती है वह नौकरों से संगम करने लग जाती है दूसरे रंडीबाज के आतशक होजाती है उसका वीर्य भुने.अनाज की तरह होजाता है उसमें हमल रखने का गुण नहीं रहता तसे रंडीवाज के मौलादा नहीं होती और ऐयो में तोधन ही जाता है परन्तु रंडी वाली में धन भी जाताहै वंशनी नहीं चलता
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जनबालगुटका मया माग शरीर में मातशक होनेसे. अधडा माराजाता है जवान ही मरजाता है: डीयाज प्रारे ही जवान मरते हैं पल रंडीवाजी दुनिया में सख्त ऐया है। . . .. . .(५) चोरी, किसी का धन नकब लगाकर (पंडा देकर) था. किसी के घर में पड़ कर किसी का धन तथा वस्तु ले । माना किली की जेब काट लेनी किसी का मोले मार लेना किसी का लेकर मकर जाना अमानत में खियानत करना किली के नाम झूट लिखना किसी के ऊपर. झूठी नालिश करनी किलो, को कम बोले देना दूसरे का माल जियादा तोल लेना किसी अनजान का बहु मूल्य धन थोड़ी कीमत में लेना चोरी का माल लेना यह सब चोरी है चोर का ऐतवार माता पिता भी नहीं करते सारी दुनिया में जोर का मुंह काला होता है अनेक राजा चोर को फांसी देदेते हैं । कैद कर देते हैं। . ... ६) खेटक नाम शिकार खेलने का है जीव तो मांस के व्यसनोमी मारते हैं
खेटकं उस से अलग इस कारण से है कि जो पनी तवियत बहलाने खुश करने को तमाशा देखने के लिये किसी जीवको मारना यह खेटक है यानी जिसको पेसा बालग नावे कि दूसरे जानवरों को मार कर या मारते हुषों को देखकर अपनी तबियत बहलाया करे सुश हुवा करे यह संब खेटक है शिकार करते हुये तमाशा देखना या किसी को फांसी देते हुये कतल करते हुये अपनी तवियत खुशकरने के लिये, देखना., यह सय खेटक है फौज में नौकरी करनी दुशमनों को मारना या रहजनों करना हिंसा रूप पाप में शामिल है खेटक में नहीं जो आदमी या जानवर अपने को या अपनी स्त्रो धन्धों को मारने या खाने को आधे तव अपने ताई या अपने बाल पक्षों को बचाने के वास्ते उसको मारना उसका संहार करना यह खेटक नहीं व्यसन के मायने ऐब के है अपनी जान बचाना ऐप नहीं है।
.. . ..(७) परनारी, परनारी का अर्थ जिस स्त्री के खाविंद हो उस के साथ मना तिल का नाम परस्त्री गमन है इसी कारण से रंडी को अलग लिखा है क्यों कि उसके मार नहीं परस्त्री के मायने दूसरे की जोक है रंडी किसी की जोक नहीं मगर सारी स्त्री ही परस्त्री में हो। तो फिर अपना ब्याह करना परस्त्री व्यसन में होजावे सो इसका मतलव यही है कि दूसरों की जोरूओं से रमने का ऐवं लगजानां जिसको यह ऐब लगजाता है वह अपनी स्त्री जोगा. घरघाट का नहीं रहता और जो वीर्य का खराब होना मोलाद पैदा करने के काबिल न रहना मावशक होजाना अंधडंग मारना जो ऐक रंडीबाजी में हैं वह भी इसमें हैं यह भलग इस वास्ते है कि रामजी में
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अंबालगुटका प्रथम भाग। वो सिरफ धन का नाश वंशका कान चलना बीमारी होजाना ही है इसमें राजासे क्वक करजाना कैद करना अनेक राजा परस्त्री सेवने वाले को जीवते हुये ही को पिंजरे में डाल कर पिंजरा दरबत में लटका देते हैं जहां वह तड़फ तड़फ कर सूक सूक कर मरता है और परस्त्री के धारिसों कर कतल किया जाना लाठियों से माप मामा इतना नाम इसमें और भी फालतू है इसीलिये इसे महा व्यसन जान कर सबसे पीछे लिखा है कि यह सब व्यसनों का थाप महा व्यसन महा ऐप महापाप है
. अथ २२ अभक्ष्य के त्याग का वर्णन।
(आचार्य रचित प्राकृत पाठ) — यता पंचुरी घडविगई, हिंम विस करए असर्वमहीये ।। रयणी भोषण गंचिों, बहुबाआ अर्णत संघाणं ॥ १ ॥ घोलवडावार्यगण, अनुणि अनामाणि फुल्ल फलयाणि। तुच्छफलं चलिअरसं बझह वझाणि बीवीस ॥२॥ ' भाषा छंद वंद पाठ (कृप्पै छंद)।
चारा घोलवरा निशिभोजन, बलुबीना बॅगेन संधान । बर पीपर उमर कर्टमर, पाकर फल जोहोत अजान । कंदमूल भाटी विच आमिष मधु माखन और मदिरापान । फल अतितुच्छ तुषार
चलितरस, जिनमत यह बाईस अखान ।
नोट-पह सब २२ ममक्ष्य कहलाते हैं।
जो इन बाईस ममक्षों में से सब का या किसी एक का स्याग करे तो इन कबुलसा इस प्रकार है।
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जैनवालगटका प्रथम भाग।
प्राकृत पाठ का अर्थ। पंचुंबरी-पांच उदुंवर वर, पीपर, ऊमर, कठूमर, पाकर । चउविगई-मद्य,मांस, मधु, मक्खन,१० हिम-वरफ११ विस-जहर .१२ करए-करका [ओला] १३ असन मट्टीये-मांटी, १४ रयणी भोमण-रात्रि भोजन १५गंचिअ-कंद मूल, १६ बहुबीअ-बहुवीजा १७ अणंत संधाण-आचार वगैरह १८ घोलवड़ा-विदल १९ पायंगण-बैंगण, २० अमुणि अनामाणि फुल्ल फलयानि-अजान फल २१ तुच्छ फलं-तुच्छ फल, २२ चलिअरसं-चलितरस।
९) उमर गुल्लर को कहते हैं। पीपल फल,३ वड फल, 8 कठमर जो काठ फोड कर निकले,जैसे सिंवलफल कटहलवढल जिसके फलसे पहले फूल नहीं आवे।
(५) पाकर फल यह यनान ईरान आदि में बहुत होता है इस का जिकर यूनानी हिकमत की किताबो में लिखा है यह पांचों पांच उदंबर कहलाते है।
(६) मद्य (मदिरा) शयव ७ मांस (आमिष) ८मधु ( शहत) इन तीनों का पहला अक्षर "म"है इस पास्ते इन को तीन मकार कहते है।
९वोरा (ओला) (गडा) जो किसी समय भासमान से वर्षा करते हैं। {१०) विदल-उड़द, चना, मूंग, मोठ, मसूर, लोविया (महा) (सूंठा) अरहर, मटर, कुलथी, वगैग ऐसे हैं जिन को तोडने से उन के अलग अलग दो टुकड़े होजावे उन की दाल, भल्ले, पकौड़ी, पापड़, सीवी, पूड़ा, रोटी, उड़दी, बूंदी, वगैरा कच्चो पदो पा छाछ की साथ मिलाकर नही खाने या तोरी, टीडे, करेला, धीया, खीरा, ककडी, सेम, घगैरा जितनी सबजी या खरबूजा, तरबूज, सरदा, आम, बादाम, धनियां, चारोमगज, वगैरा ऐसे है जिन के फल के या गुठली के या वीज के या गिरी के तोड़ने से दो टुकड़े बरावर बरावर के होजावे इन को कच्ची दही या छाछ में मिला कर या साथ नहीं खाने यह सब विदल हैं ।
इस में यह दोष है कि कच्ची दही या छाछ में ऐसी वस्तु मिलाने से जव उस को मुख में दो तो मुख की राल लगते ही उस में अनंत जीवराशि पैदा हो जाती है पस लिये इस के खाने में महा पाप लिखा है । यहां इतनी बात समझ लेनी
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जैनवालगुटका प्रथम नाग। चाहिये कि कच्ची दही या कच्ची छाछ की साथ खाने में दोष है पक्की की साथ खाने में कोई दोष नहीं। अगर दही या छाछ को अलग पकाई जावे
और वेसन को अलग पकाकर फिर उन को मिलाकर उनकी कढ़ी बनाकर खावो तो उस में कोई दोष नहीं कच्ची दही छाछ में कच्चा वेसन मिला कर कड़ी बनाकर मत खाना दही या छाछ पकाकर उस की साथ दाल सीवी पापड़ पकौड़ी पड़ा वगैर एक पहर तक यानि तीन घण्टे तक खा सकते हो उसके बाद नहीं । अगर एक बार मोजन कच्चा दही और दाल वगैरा खाना चाहतेहो तो पहले दाल या दाटको बनो हुई वस्तु खालो फिर कुरला करके मंह साफ हो जाने पर पीछे दही या छाछ खाको या पहले दही या छाछ खाकर कुरलाकरकेफिर दाल यादालकीवनी हुई वस्तखाओ।
(११) रात्रि भोजन-इस का खुलाला पहले भावकको ५३ क्रियाओंमें लिखा है वहां से देखो।
(१२) बहुवीजा जिस फल के बीजों के अलग अलग हर वीज के घर नहीं होय जो फल को चीरते ही गरणदेकर बाहिर आपड़े जैसे अफीम का डोडा, धतूरे का फल आदि यह वठुचीजे फल अकसर जहरीले होते हैं इस लिये यह अभक्ष्य हैं।
(१३ बैंगन(१४)चारपहरसे जियादा देर का सधाना कहिये भाचार नहीं माना। • (१५) जिस फल को आप न जानता हो कि यह फल खाने योग्य है या नहीं।
(१६) जमीकंद-जमीकंद उस को कहते हैं जो जमीन के अंदर पैदा हो, जैसे हल्दी, मूंगफली, अदरख, मालू, कचालू (डिडू), अरवी (गागली) (गुल्या) मूली कसेरू मिल (कवलककड़ी) सराल, गाजर, शकरकदो, रताल, सवन कालो मसली, सवज सुफौद मूसली गुलेयाल की जड़ का आचार, जमीकंद, सवन सालम मिश्री हाथोपिच, गठा (पियाज, लसन, शलगम वीट जिस की विलायन से मोरस (दानेदार) खांड आती है इत्यादि जितने इस किसम के जमीन के अंदर पैदा होते हैं यह सर्व जमीकंद हैं यह हरे (सवज्ञ) नहीं खाने ।
समझावट। · यहां इतनी बात और समझनी कि सूके हुये खाने में कोई दोष नहीं और इन के सबज पवे या फल मसलन मूली के पत्ते या फल मगरे अरवी के पवे वगैरा जो जमीन के ऊपर लगते हैं उन के खाने में कोई दोष नहीं है कंदमूल की यावत शास्त्र में यह लेख है कि इन सबज में मत जीव राशि होती है इस लिये इन के खाने में महा पाप लिखा है परन्तु वह जीवराशि सिरफ हरे में ही होती है सूके में नहीं रहती
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जनबालगुटका प्रथम मांगा इस लिये हलदी सूठ मूंगफली शालम मिसरी वगैरा सूके जमीकंद के खाने को दोष नहीं है चाहे तो सूका हुआ खामो चाहे सूके हुए को तर करके या पका कर के मांबो कोई दोष नहीं है ।
मौर बाज अनजान जैनी जो ऐसा करते हैं कि यदि उन के कंदमूल का त्यांग है अगर उन के भोजन की थाली में या पतल पर कोई आलू वगैरा की भांजी (तरकारी' सांग रख देखें तो यह जो भोजन उस पतल पर या थाली में रखा है सारे को ही अपवित्र मान कर उठा देते हैं। फिर हट कर दूसरी थाली या पतल पर और भोजन रसवा कर खाते हैं सो यह उन की संखतं गलती हैं भालू वगैराका पक्का हुमा लागे रखने से तारा भोजन अपवित्र नहीं होजाता मुनि भी कन्दमूल भोजन में आया हुर्मा भलंग कर वाकी भोजन खाते हैं। पके हुए जमीकंद में कोई दोष नहीं होता सिरफ' रिचाज विगड़ जाने वा जिला इंद्रिय कर कृत कारित दोष उत्पन्न होने के वास्ते उन को खाने के लिये इजाजत नहीं है इस कारण से अगर अपने भोजन की थाली में कोई नावाकिफ आल धगैरा पका हुआ कंद रस्न मो देवे तो लाया ही भोजन मतं उठा दीं' सिरफ उस कंद को मत खावो वाकी भोजन सर खा सकते हो ॥ .
(१७) मिट्टोमें पृथ्वी कार्य के अनेक जीव है और मिट्टी खानेले आत खराब होतों हैं यह भीतों में हिंसजाती है इसके खाने वाला जल्दी मर जाता है इस वास्ते कच्ची मिही नहीं खानी जिन बच्चों को कच्ची महो खाने की आदत पड़ जाती है वह दों चार वर्ष में जकर मर जाते हैं जिन के बच्चे मट्टी बाना सीख जावे यदि उनके वारिस उनकी जिंदगी चाहे तो जिस तरह हो उन का मिट्टी खाना छुड़ावे; एक बच्चा मिट्टी - सांता थी उस की माता ने मिट्टी में वारीक बहुत सी मिरच डाल छोटी छोटी डेली' बना सुनाली वसुत सी इली रसोत डाल कर इसी तरह कड़वी बनाई जहाँ बच्चा खेलता चुपके से उसके सामने एक डली डाल देवी बच्चे का मुंह खाते ही जेलता या कड़वी लगती पस बच्चे ने मिट्टी का खाना छोड़ दिया .... ___(८) नहर सस्त्रिया मीठा तेलिया रसंकपूर दालचिकना विषफल धतूरी अफीम कुचला असटिकनिया गैरा वस्तु जिंन के खाने से आदमी मरजावे बेह'सर्व जहर में शामिल हैं इन को बतौर जहर के मरने को खाना उस का नाम जहर अभक्ष्य है जो जहर दवाई में जिदंगी येचाने को दिये जाते हैं, जैसे दस्त बंद करने की अफीम बांसी गठिया दूर करने को धतूरा के बीजों की गोली जुलाव में जमाल गोटे का जुलाब सून साफ करने को संस्त्रिया दिल को ताकत देनेको 'स्ट्रिकनिया दरद रफै करने को कुचले बाली गोली आदि दवा दी जाती है यह जहरमें शामिल नहीं भस्य
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नवलगुटका प्रथम भाग |
के माइने हो खाने योग्य नही अपनी जान बचाने को बीमारी दूर करने को दवा खाना अभक्ष्य नही जहर दवा भी है दवा का साना समस्य नहीं एक वस्तु में भनेक गुण होते हैं सारे हे (त्याज्य) नहीं होते जिसे कबज हो उस के वास्ते अफीम का खाना जहर है जिसे दस्त लग रहे हो उसके वास्ते अफोम का खाना अमृत है सो जहर खाने के काबिल नही दवा खाने के काबिल है |
(१९) तुच्छ फल -- तुच्छ फल नाम जरा से जामते फल (निहर) का है यह अभक्ष्य इस वास्ते है कि अनेक फल ऐसे है जो छोटे जहरीले होते हैं सिरफ बड़े हो कर खाने योग्य होते हैं अगर उन छोटों को खावेतो खान वाला सखन विमार होजाता है ऐसे अनेक फलों का हाल यूनानी हिकमत की किताब में लिखा है, मिठ्ठा हूँ जिसको कौला या हलवा कद्दू वाज मुलकों में पेठा या कांसी फल भी कहते हैं यह बहुत छोटा निहर कच्चा नही खाना विमारी करता है बहुत छोटा जरासा ही अलमी का फल भी बिमारी करता है एसे अनेक फल हैं इस वास्ते तुच्छ फलको अमश्य कहा है, परन्तु यहां इतनी बात और समझ लेनीकि जो फल बड़े होकर खाने काविल नहीं रहते जैसे गुवारे की फली लोवियेकी फली भिडी घियातोरी टोंडे यह छोटे कच्चे खाना तुच्छ में शामिल नहीं यह छोटे ही भक्ष्य है बड़े होकर अभस्य यानी खाने काबिल नही रहते ॥
(२०) तुषार नाम बरफ का है जो आसमान से गिरती है वह भमक्ष्य है वह जह रीली है और उसमें अनेक जीव अल कायके दब कर मरजाते है इस वास्तेवह अमस्य है परन्तु यहां इतनी बात औरसमझनोकि कलको थरफ जहरीली नहीं होती है न इसमें कस जीव गिर कर मरते हैं इस वास्ते यह अमक्ष्य नहीं, छोटे प्रन्थोंमें सिरफ नाम होते हैं इनकी तरारीह बड़े ग्रन्थों में होती है कि वह अमस्य यानो खाने योग्य क्यों नहीं ॥
(२१) चलित रस मोसम गरमी में जिस भोजन पर फूही (ऊलण) भाजावे बदबू कर जावे सड़जावे उस का जायका बदल जावे यह सब चलित रसमें हैं जैसे बूसी हुई रोटी तरकारी फूहो आई हुई दही सड़ा गला फल इनके खानेसे अनेक बीमारी होती हैं इनमें अनन्ता अनन्त सूक्ष्म जीव (जिरम) पैदा होजाते हैं ऐसी सब वस्तु अभक्ष्य है | नोट- जो चीजां खमीर उठाकर बनाई जाती हैं जैसे मैदे को घोल कर समीर उठा कर जलेबी बनाते हैं, पीठी को कई दिन तक रख कर खमीर उठाकर खट्टी कर उस की उडदी बनाते हैं । बेर खड़ा कर उसका खमीर उठाकर खमीरा तमाखु बनाते है । इत्यादिक वस्तु भी चलित रस में है ॥
(२२) मक्खन दही से या दूध से निकल कर अलहदे कर के खाना अभक्ष्य है दही में मिला हुआ जैसे दही का अधरिङका पीना यह भ्रमस्य नदी है ॥ इति
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जैन मालगुटका प्रथम माग अथ कल जैन धर्म के शब्दों का मतलब। अब हम चालकों को कुछ जैन धर्म के शब्दों का मतलब समझाते ह क्योंकि भनेक जैनो ऐसे हैं, अपने धर्म में हररोज बोलने में आने वाले जो अनेक शब्द न तो उन का मतलब वह आप समझते हैं और यदि कोई अन्य मती उन से उन का मतलब (अर्थ) पूछे न उस को बता सकते हैं इस लिये हम बच्चों को यहां समझाते हैं, कि हे वालको यदि तुमसे कोई यह पूछे कि तम कौन हो तो तुम भनवाल, पल्लीवाल, खंडेलवाल, वाकलीवाल, लमेचू, हुमड़ सोनी आदि अपनी जाति या गांव का नाम मत लो, सिरफ को जैनी॥
जैनी किसको कहते हैं। ... जो जैन धर्म को पाले (माने)
जैन धर्म किस को कहते हैं। '. जिन का उपदेशा जो धर्म वह जन धर्म कहलाता है।
.. जिन किस को कहते हैं। . जो कर्म शत्रु को जीते। . .. श्रावगी औरजैनी में क्या फरक है। - एक ही बात है चाहे श्रावक कहो चाहे जैनी ।
श्रावक शब्द का क्या मतलब। सर्व का शाता सर्व का जानने वाला जो सर्वश उसके मानने वाला उसके धर्म में प्रवर्त करने वाला सोश्रावक कहलाता है। ___. . . जैनियों में कितने फिरके (थोक) हैं। .. जैनियों में बड़े थोकदो हैं एक दिगाम्बरी दूसरे श्वेताम्बरी।' :...:
श्वेताम्बरी किन को कहते है। . .. । श्वेत नाम है सुफेद का, अन्वर नाम है कपड़े का, लो सुफेद कपड़े वाले इस का अर्थ है अर्थात् उन के साधु श्वेत वस्त्र रखते हैं, सुरन, पेला, वगैरा रंगदार नहीं रखते उन श्वताम्बर साधुवों के मानने वाले श्वेताम्बरी कहलाते हैं।
दिगम्वरी किनको कहते हैं। . . इस के दो अर्थ है भनेक जैनी तो इस का अर्थ इस प्रकार करते हैं कि दिन
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जैनवाल का प्रथमक्षा |
दिशा को कहते हैं अश्वर नाम है कपड़े का, अर्थात् दिशा हो हैं कपड़े जिस के यानि जिस के पास कोई कपड़ा नहीं विलकुल नग्न हो उस को दिगम्बर कहते हैं ||
परन्तु बाबू ज्ञानचंद जैनी लाहौर निवासी इस का अर्थ इस प्रकार करते हैं कि दिगं (sids) (तरफ) को कहते हैं अंबर नाम है आसमान का अर्थात हर तरफ यानि चारों तरफ है आसमान जिन के भावार्थ सिवाय आसमान के और उन के बदन के हर तरफ कपड़ा जेवर, बास, कुसा, शुङ्गार, पड़दा, मकान, (गृह) वगैरा कुछ भी नहीं यामि, जो ग्रह त्यागी जंगलों, बियावान, बनों में खुली जगह में बसने वाले बिलकुल नग्ग हो उन को दिगम्बर कहते हैं सो दिगम्बर साधुवों के मानने वाले दिग वरी कहलाते हैं ।
रियों में कितने थोक हैं ॥
श्वेतांवरियों में दो थोक हैं एक साधु पन्थी उन को थानक पन्थी या इंडिये भी कहते हैं वह साधुषों को मानते है मंदिर प्रतिमा को नही मानते हैं दूसरे पुजेरे (मंदिरमार्गी) कहलाते हैं यह मंदिर प्रतिमा को भी मानते है साधुओं को भी मानते है, ढडियों के शास्त्र साधु थलग हैं पुजेरों के शास्त्र साधु अलग हैं।
ढूंढिये किस को कहते हैं ।
जो ढूढे तलाश करे कि मैं क्या वस्तु हूं मेरा क्या स्वरूप है मेरा इस संसार मा कर्तव्य है मेरी मजात किस तरह होगी ईश्वर का क्या रूप है उस का ध्यान कैसे करूं जो इस प्रकार की अपनी नजान (मुक्ति) की बातों को ढूंढे तलाश करे उसे दूढिया कहते हैं ॥
पुजेरे किस को कहते हैं ।
जो प्रतिबिम्ध को पूजे वह पूजेरे कहलाते हैं चूंकि ढूंढिये प्रतिमा को न मानते न पूलते इस वास्ते ढूंढियों के बरखिलाफ प्रतिमा को पजने वाले जो दूसरे थोक वाले हैं वह पूजेरे कहलाते हैं।
भावडे किन को कहते हैं ।
पंजाब में श्वेतांबरी जैनियों को भावडे कहते हैं ॥
भावड़े का क्या मतलव १
पहले पंजाब में जैनी नहीं थे जब राजपूताने में जैनियों पर सखती हुई तब वहाँ से जहां तहां चले गये कुछ पंजाब में भी भाकर वसे सो पहले जमाने के जैनी
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થયું
'जैनवाल गुडका प्रथमं भागं
बड़े धर्मात्मा थे हररोज अपना नित्य नियम करना भगवान का पूजन करना जीव दया पालना कोडो मो मरने से बचानी महा दयावान सहा क्षमावान मंहा शांत परणामी सत्य बोलने वाले मांस शराव वगैरा समक्ष्य के त्यागी छल छिद्र न करने वाले थे जब पंजाब के भादमियों ने इन का ऐसा चलन देखा पंजाब के आदमी घड़े सीधे थे सय ने यह कहा इन के ईश्वर की भक्ति अपने धर्म नियम में भाव बढे हुये हैं सब यही कहते थे कि इन के भाव घढे हुये हैं सो वह शब्द विगड कर भावडे बन गया सो यह संसारी जीव धन दौलत कुटंब की मुहयत में उलझे हुये हैं इस से निकल कर जिस के भाव चढ जावे तरक्की पाजावें शुद्ध होजाने की यादगार में लग आवे सो भाव कहलाते हैं |
दिगम्बरियों में कितने थोक
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दिगम्बरियों में पहले तीन, थोक थे भष चार होगये हैं ? तेरह पंथी २ बीस पंथी ३ समैया जैनी ४ शुद्धभास्ताय ।
१३ पंथी किस को कहते हैं ।
पांच महावत पांच समिति तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र पालने वाले ओ दिगम्बर महामुनि उनके पैरोकार (माननेवाले) जो श्रावक वह तेरहपंथी कहलाते हैं बीस पंथी किस को कहते हैं ।
पील पंधी की घायत सोमप्रभ आचार्य ने ऐसा लिखा है :- मर्कितीर्थंकरे.गुरौ जिनमते संघे च हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाद्युपरमं क्रोधाद्यरीणां जयं सौजन्यंगुणि सकमिन्द्रियदमं दानं तपो भावनांवेराग्यं च कुरुष्वनिर्वृतिपदे यद्यस्तिगंतु मनः ।
अर्थ-३ भब्य जो मोक्षमार्ग में जाने की इच्छा है तो१तोर्थंकर की भक्ति (पूजन) २ गुरु भक्ति १ जिनमतभक्ति ४ संघभक्ति इन ४ प्रकार की भक्ति का तो करना और हिंसा अनृत (झूठ) ३ स्तेय (चोरी) ४ अब्रहा (पर पदार्थ में आत्म बुद्धि) (या परस्त्री भोगादिक) ५ परिग्रह इन पांचका त्याग ओर १ क्रोध २ मान ३ माया ४ लोभ इन चार दुशमनों का जीतना सुजनता गुणियों की संगति ३ इंन्द्रिय दमन ४ दान ५ तप ६ भावना और वैराग्य यह कार्य कर इन बीस पंथों ( रास्तों पर चल ।
यह बीस बातां मानने वाले बोस पंधी कहलाते हैं ।
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१३ पंथी २० पंथी में क्या फरक ॥
1 तेरह पंथी बोस पंथी दोनों थोकों के शास्त्र तो एक ही हैं दोनों के दिगम्बर
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जबबाल गुटका प्रथममा। एकही आधार क धारी दोनों थोक 'परफमापस के चंद बातों में तमाजेसे माम भेद कर लिया है।
तनाजा किनबातों का है। तनाजा सिरफ पूजन वगैय की विधि में है बीसपंथी श्रावक जब पूजन करते है तो प्रतिविम्ब के केसर को टोकी लगाते हैं दूसरे पूजन में सब्ज फल फूल चढ़ाते हैं । लण्ड घेवर पकवान वगैरा चढाते हैं । रात्रि के समय भी सामग्री बढाकर पजन करते हैं ५ सांझ को दीपक जलाकर भगवान को आरती करते हैं। मंदिर में क्षेत्रपाल भैरव पद्मावती की थडी बनाते हैं और उनपर भीफूल वगैरा बढ़ाते हैं।
१३ पंथी ऐसी ऐसी बातों का निषेध करते है इस से १३पंथीभौर वीसपंथियों में देष भाव यहां तक बढा है कि १३ पन्थी बोलपंथियों के मंदिर में दर्शन करने तक भी नहीं जाते।
१३ पंथ पहला है या २० पंथ ॥ असल में पहले दिगम्बर मत एक ही था संवत् विक्रमी १७७७ में पंडित दौलतराम बसवानिवासी जो आगर में रहते थे उन की राय से १३ पंथ अलग होगया जिन दौलतराम ने पद बनाये यह दूसरे दौलतराम थे वह इनसे पहले हुये है और एक ग्रंथ में यह लिखा है कि पहिले पहल यह भेद संवत ११३ में मागरे से महारक मरेंद्र कीर्ति भामेर वालो की राय के विरुद्ध हुवा है।
समैया जैनी किन को कहते हैं। समैया जैनियों को दूसरे थोक वाले खफा करने को (चिडाकर) हुंडी पंथी कहते हैं संवत १५०५ में तारख जी का जन्म हुवा है और संवत १५७२ में इन का परलोक हवा है इन्होंने १४ प्रथ रचे है समैया जैनी इन ग्रन्थों को मानते हैं इन प्रन्यों में और दिगम्बरियों के बाल मन्थो के लेखो में फरक है।
चौथाशद्ध आम्नाय पंथ कौनसा है। यह पथ अभी जन्मा तुरत का पालक है अभी गुडलियां नहीं चला परन्तु उम्मेद है बहुत जल्द तरुण होजावेगा इस का नाम पता हम सभी बताना मुनासिव नहीं समझते
जहार शब्द काक्या मतलब है। जैनियों में जो जुहार बोलते हैं, सो जुहार शब्द का मतलब इस प्रकार है।
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जैनवाल गुटका प्रथममाग
: श्लोक! जुगादिवृषभोदेवः हारकः सर्वसंकटान्। रक्षकःसर्वप्राणानां, तस्माज्जुहारउच्यते ॥ .
अर्थ-जुहार शब्द में तीन अक्षर है १ जु २ हा ३ र । लो जुसे मुराद है जुग के आदि में भए जो श्रीदेवाधिदेव ऋषभदेव भगवान ओर,हा, से सर्व संकटों के हरने वाले और र से कुल प्राणियों की रक्षा करने वाले उन के अर्थ नमस्कार हो । अर्थात् जव कभी अपने से बड़े या घरावर केसे मिले तो मुलाकात के समय 'जुहार कहने से यह मतलब है कि श्रीऋषभदेव जो इन गुणों कर के भूषित हैं उन को हमारा और तुम्हारा दोनों का नमस्कार हो। और वह कल्याण करता परमपूज्य हमाप और तुम्हारा दोनों का कल्याण करें। और दूसरे का अदब करना मस्तक नवा कर उस को ताजीम करना यह इस का लौकिक मतलब है ॥
पांच प्रकार का शरीर। -औदारिक र वैक्रियिक ३ आहारक ४ तैजस ५ कार्माणः । :... मौदारिक-उदारकार्य (मोक्षकाय) को सिद्ध करै याते इस को औदारिक
कहिये तथा उदार कहिये स्थल है याते औदारिक कहिये यह शरीर मनुष्य और तिर्यंचों के होता है ।
: वैक्रियिक अनेक तरह की विक्रिया करे आकृति बदल लेवे जो चाहे बन जावे मोति पर्वत आदि में पार हो जा सके उस को क्रियिक कहते हैं यह देव और नारकियों के होता है।
आहारक-यह शरीर छठे गुण स्थान वर्ती महामुनीश्वरों के होय जब पंद वा पदार्थ में मुनि के संदेह उपजे तव दशमाद्वार (मस्तक) से २४ व्यवहारांगुल से १हाथ परिमाण वाला चन्द्रमा की किरणवत् उज्ज्वल होय सो केवली के चरण कमल परसि आवे तव तमाम शक रफा होजाय ॥
तैजस-तैजस शरीर दो प्रकार है एक तो शुभ वैजल और दूसरा अशुभ तेजस शुभ तैजस तो शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव के होय है किसी देश में जब पीड़ा उपजे तथा दुःख उपजे उस समय दाहिनी भुजा से शुम तैजस प्रकट होय और उस पीडा को दूर करे और अशुभ तैजस मिथ्याइष्टि जीव के कषाय के, उदय से प्रकट होता है
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जैनवाल गुटका प्रथमभाग ।
और बारह योजन प्रमाण सब देश देशांन्तर को भस्म करके सत्र आधार भूत पर्याय को भस्म करता है प्रसिद्ध इष्टान्त डोपायन मुनि ||
"
कार्माण-कार्माण शरीर उल को कहते हैं अष्ट कर्म संयुक्त हो यह निखालिस अनाहारक अवस्था में रहता है और सर्व जीवों के होता है ।।
चार कथा ।
आक्षेपिणी -- आक्षेपणी कथा उस को कहते है जो जिनमत में श्रद्धा बढ़ाये यह साधर्मी पुरुषों के समीप करनी चाहिये ॥
२ विक्षेपिणी - विक्षेपिणी कथा उस को कहते हैं जो पाप पंथ (कुमार्ग) का खंडन करे परवादियों के साथ करनी चाहिये ||
३ संवेगिनी — संवेगिती कथा उस को कहते हैं जो धर्म में अनुराग (प्रीति) घढावे या धर्म रुचि बढावने वास्ते करे --
४ निर्वेदिनी - निर्वेदिनो कथा उस को कहते हैं जो वैराग्य उपजाये इस कथा को विरक्त पुरुषों के निकट वैराग्य चढायवावास्त करे-
६ प्रकार के पुङ्गल (अजीव ) ॥
प्रकारका जो दीख सके और तीन प्रकारका जो दीख नहीं सकता ॥
३ प्रकारका दीखने वाला पुङ्गलं
। १ स्थूल स्थूल, पत्थर लकड़ी वगैरा जो टूटकर फिर जुड न सके। २ स्थूल स्वर्ण चांदी जल दुग्ध वगैरा जो अलग होकर फिर मिल सके ॥
३ स्थूल सूक्ष्म जो नजर तो आवे पर हाथ से पकड़ा नहीं जासके जैसे छाया धूप. रोशनी वगैरा ॥
तीन प्रकार का न दीखने वाला पुद्गल ।
१ सूक्ष्म स्थूल खुशबू बदबू आवाज वगैरा ॥
२ सूक्ष्म कर्म वर्गणा ।
·३ सूक्ष्म सूक्ष्म परमाणु ॥
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___ जैनवाल गुटका प्रथमभाग। . . ... जैन नामावली का संशोधन। .
विदित हो कि २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती । नारायण- ९ प्रतिनारायण ९ चलभद्र २४ काम देव आदि घाज २ नाम 'जैन प्रथम पुस्तक में एक प्रकार लिखे हैं जैनधर्मामृतसार में दूसरे प्रकार लिखे हैं मुधर जैनशतक में कुछ लिखा है जैन सुधा सागर में कुछ लिखा है ३ शलाका पुरुषों की किताब में कुछ और लिखा है हस्त लिखित भाषा ग्रन्थों व पुस्तकों में कुछ और ही. दर्ज है. इस लिये हमने वडे २ संस्कृत वा प्राकृत के ग्रन्थों को सहायता से सब गलतियां दूर करके यह जैन नामावली इस पुस्तक में शुद्ध लिखी है संस्कृत भऔर प्राकृत ग्रन्थों में लेख इस प्रकार हैं।
. . . . . . . . . संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थों के लेख। ।
एतस्यामवसर्पिण्यामृषभोऽजितसंभवौ अभिनन्दनः सुमतिस्ततः पद्मप्रमाभिधासुपार्श्वश्चन्द्रप्रभश्चसुविधिश्चायशीतलाश्रेयांसोवासुपूज्यश्च विमलोऽनन्ततीर्थ कृन् धर्म:शान्तिः कुन्धुररो मलिश्च मुनिसुव्रतः नमिनेमिः पार्थो धीरश्चतुरविंशतिरहताम् ।ऋपमो वृपमः श्रेयान् श्रेयांसः स्यादनन्तजिदानन्तः सुविधिस्तु- पुष्पदन्ती मुनिसतत सुनती तुल्यौ । अरिष्टनेमिस्तु नेमिर्वीरश्चरमतीर्थकृत् । महावीरोवर्द्धमानो देवार्योशातनन्दनः .
. ... ... .. आर्पमिभरतस्तन सगरस्तु सुमित्रभू मघवा वैजयिरथाश्वसेनो नृपनन्दनः । सनत्कुमारोथ शान्तिः कन्युररो जिनामपि सुमस्त कार्तवीर्यः पनः पोचरात्मजः हरिषेणो हरिस्तो जयो विजयनन्दनः ब्रह्मसूनुर्ब्रह्मदव सर्वेपोख्वाकुवंशजाः। ...
प्राजपत्यस्त्रिमष्ठोथ द्विपृष्ठो ब्रह्मसम्भवः स्वयम्भू रुद्रतनयः सोमभूर पुरुषोत्तमः । शैव पुरुपसिंहोथ महाशिरस्समुद्भवः स्यात्पुरुषपुण्डरीको दचोग्नि सिंहनन्दनः नारायणो दाशरथिः कृष्णस्तु वसुदेवम् वासुदेवा मी कृष्णा नव शुक्लावलास्त्वमी । अवलो विजयो भन्दा सुप्रभश्च सुदर्शनः आनन्दो नन्दनः पनो रामो विष्णु द्विपस्त्वमी । अश्यग्रीवस्तारकश्वमेरकोमधुरेवच निशुम्म. बलिप्रल्हाद लंकेशमगधेश्वराः जिनः सह त्रिषष्ठिः स्पुः शलाका पुरुषा अमी
मह भणा जिणवरिंदोजारिसमोतनरिंदसदुलो। एरिसगं एकझारस भन्ने हो हिति गयाणो 1 होहि अगरोमघवं सणंकुमारोय रायसदुलो । सन्तीकुन्थुम मरीहवासभूमोय कोरब्यो नयमो यमहाप उमोह रिसेणो घेत्र राय सददूलो जय नामोय नरवई बार समायभदतोय । होहिषतिासुदेवानव अन्ने नील पीयको खेज्जा । हलमुस
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जैनवाल गुटको प्रथम भाग |
लचक जोहीलताल रुळल्या दो दो । तिविष्य दुविध्य लयंभु पुरि सोसमे पुरि ससिदे | तह पुरिस पुण्डरी एदतेनारायणेकर हे मयले बिजये भददे सुप्पमेय सुदंसणे आपणदे नंदणे पउमे रामे याविश्रपच्छिमे ॥ आसगोवे तारण मेरय महुकेदवै निसुभेय चलि पल्हाए तह रावणोय नवमे जरासिंधू ।
उत्सर्पिण्यामतीतायां चतुर्विंशतिरर्हताम् । केवल ज्ञानी निर्वाणी लागरोऽथ महायशाः । विमल: सर्वानुभूतिः श्रीधरो दसतीर्थं कृत । दामोदरः सुतेजाश्च स्वाम्यऽयोमुनि सुत्रतः सुमतिः शिवगतिश्चैवाऽथमिमीश्वरः अनिलो यशोधराख्यः कृतार्थोऽथ जिनेश्वरः शुद्धमतिः शिवकराः स्यंदनश्चाऽय सम्पति माविन्यान्तु पद्मनामः शूरदेवः सुपार्श्वकः स्वयंप्रभश्च सर्वानुभूतिर्देवश्रुतोदयौपेढा पोलिश्बापिशतकीर्तिश्व सुव्रतः । अममोनिष्कषायश्च निप्पलाको ऽथ निर्ममः । चित्रगुप्तः समाधिश्वसंवरश्चयशोधरः विजयोमल्ल देवश्वा ऽनन्तवीर्यश्च भद्रकृत् । एवं सर्वावसि व्युरसर्पिणी पुजिनोत्तमाः ॥
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अंगरेजी अक्षर जाने बिना तकलीफ और हरजा ।
हम में इस जैनवाल गुटके में अंगरेजी अक्षर और साथ में थोडे से अंगरेजी शब्द भी रोज सरह काम में आने वाले इस खियाल से लिख दिये हैं कि इस समय अंगरेजी अक्षर जाने बिना, रेल के सफर में अपने टिकट पर किराया व मुकाम न पढ सकने से अनेक वार मुलाफरों को तकलीफ उठानी पडती है चाल वक्त धोके से किराया जियादा दिया जाता है और ठग थोडे फासले का टिकट देकर बजे फालिले का टिकट चालाकी से बदल लेते हैं और खास कर जिनके यहाँ चार आने जाने का काम होता है उनको तो अंगरेजी अक्षर आनने अजहद जरूरीहै ताकि अपना वार आप पढ लेनेसे अपने तार का गुप्त मतलव दूसरों पर प्रकाशित होने से बच सके सो जेन पाठशालाओं में बच्चों को यह अंगरेजी अक्षर और शब्द जरूर सीख लेने चाहिये । अंगरेजी वर्ण माला ॥
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अंगरेजी वर्ण माला के २६ अक्षर दो प्रकार के होते हैं जो अक्षर पुस्तकादि मैं छपते हैं वह और हैं जो लिखने मे माते हैं वह दूसरे हैं और इन में भी बड़े छोटे अक्षर दो प्रकार के होते है जब कमो किसी इनसान तथा स्थान का नाम कोई कथन या नया पैरा लिखना शुरू करते हैं तो उल के प्रथम शब्द का प्रथम अक्षर बड़ी वर्णमाला का लिख कर फिर सारे अक्षर सर्व शब्दों के छोटी वर्णमाला से ही लिखते हैं सो बालकों को लेख लिखने के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये
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अथ अंगरेजी के अक्षर अंगरेजी की बड़ी | अंगरेजी की छोटी
अक्षर का नाम वर्णमाला के अक्षर | वर्णमाला के अक्षर
अक्षरकी आवाज किस अक्षरमें लिखा जाताहे
थ, आ,ए
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क,
ई,ए, भ,
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ORGA HD BAAN
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य, उ,म
R
य, माइ
काल में पहले लिखाई, दूसरे छपाई के अक्षर हैं।
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जैनवालगुरका प्रथम भाग। ' अंग्रेजा में निम्न लिखित अक्षर नहीं होते!
, स, घ, च, छ, अ, उ, द, ताथ, ध, म। . - अंग्रेजी के २६ मक्षर होते हैं बाकी अक्षर उनही से कहीं दो का कहीं तीन का संबन्ध करने से लिखे जाते हैं । सो ऊपरले अक्षर इन अक्षरों से लिखे जाते हैं।
Kh, a Gh, a Ch, Chb, Jh; 7 Tl, a 1, 7, Dh, 9 Th, ED, E Dh, म Bh, से लिखते हैं। अंग्रेजी के अधोलिखित अक्षर इन अक्षरों की जगह लिखे जाते हैं। . (भ) तथा (भा) को जगह लिखी जाती है कहीं (ए) की जगह भी लिखी
जाती है।
(क) की जगह लिखी जाती है कहीं (स) की जगह भी लिखी जाती है ।। • (2) की जगह लिखी जाती है कहीं, (ए) (अ) की जगह भी लिखी जाती है । h (इ) को जगह लिखा जाता है। 1 () की जगह लिखी जातीहै, कहीं (आर) को जगह भो लिखो जाती है ।। . s (स) की जगह लिखा जाता है कहीं ने की आवाज भी देता है। ॥ () की जगह लिखा जाता है कहीं (ड. (म) को जगह भी लिखा जाता है । w (ब) की जगह लिखा जाता है। . 7 (य) की जगह लिखी जाती है कहीं आई। की जगह भी लिखी जाती है।
. (ज) (2) की जगह लिखा जाता है। महाजनोंकी तजारतके तारों में रोजमर्रह वरताव में आनेवाले अक्षर। soll सैल बेचना तथा चो। Sold लोल्ड वेचा तथा वेचदी। Buy बाई खरीदना तथा बरी। Bought ' चौट खरीदा तथा खरीदी। Purchase परवेज खरीदना तथा खरोदो। Purohased परवेज्ड खरीदा तथा खरीदी। Purchaser परचे जर खरीदार (खरीदने वाला) . Seller सैलर बेचने वाला ।' Baga बैग बोरी ( एक बोरी के पास है।
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पेस्
Ton
न
Tons
जनपालगुटका प्रथम भाग। वैगस् बोरियां (एकले जियादा धोरीयोंके वास्ते विलाजाताहै
( अंगरेजी में 8 अक्षर किसी शब्द के साथ जोड़ देने स रवाहद से जमा वन जाता है अर्थात् एकवचन से व?
( वचन बन जाता है। टन
एक से जियावा टन के वास्ते लिखा जाता है। , Bale बेल गांठ तथा गठरी।
एक ने जिया वेलके वास्ते लिखा जाता है। चैस्ट पेटी संदूक ।
बौक्स संदूक Boxes पोक्सिज एक से जियादा संदूकों के वास्ते लिखा जाता है। Thela थेला अफीम के थेले को लिखते हैं। Thelas थेलास एकसे जियादा थेलों के वास्ते लिखते हैं। Handred weight इंडेड घट १२ पौंड का होता है जो परावर ५४ र १. छटांक
Baler
Chest
Bor
Rate रेट निरख । Monds मौउस् मन । Silver brick सिलबर कि चांदी की ईंट को कहते हैं। Golden bar गोल्डन वार सोने के पासे को कहते हैं यह 'वजन में २१ तोले ८
मासे का होता है अर्थात् १ सेर के ३ पासे परते हैं। Opium chest ओपीयम चेस्ट (मफीम की पेटी को कहते हैं)। Guinee गिनी आठ मासे सोने की होती हैं विलायत में इसे पौड
योलाते हैं। Shilling शिलिंग पौंड का वीसवां हिस्सा विलायत में चलता है।' Petiny
पैनो यह भी विलायत में चलता है १२ पैनी का एक शिलिंग
होता है। Farthing फारदिंग यह भी विलायते में चलता है ४ फारदिंग एक पैनी ,
में चलता है अर्थात् पैनी का चौथा हिस्सा है। Panu 4 बहुत ले भर्थात् एफ से जियादा पैनी के बने दिया
जाता है।
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मैलबालगुटका प्रथम भाग। Rupee
रूपी रुपये को कहते हैं। Rupees रूपीज़ एक से जियादा रुपयों को कहते हैं। . . Tola टोला , अंगरेजो तोला अंगरेजी रुपये भर का होता है। Ton
20 हंड्रेड वेटका एक टन होता है जो सताईस मन
आठ सेर तेरह छंटाक के वरावर होता है। Cotton कौटन कौटन (काटन) रूई । Wheat हीट गहू।। Gram 1 बने। Poppyssed पौपीसीड दाना (खशखास)। Opium भोपियम अफीम । Gold गोल्ड सोना। Silver सिलवर चांदी। Copper
तावा। Silk सिल्क रेशम Cloth क्लोथ कपडा। Wool
H
कोपर
में तुम में व ब * वैरा में # ३४३.
Power
पावर
ताकत
प्रोफिट
Note नोट . नोट। . Loss . ., लौस नुकसान। Prost..
फायदा (मुनाफा)। Pay : तनखा (पगार)। Dont डोण्ट नहीं करो मत)। Not नोट नहीं। Ves . यस हां। . Are . मार हैं। Or और या। ' And : पैड और।
Beply .. रिपलाई · जबाब तथा जवाव दो।
Replied . रिप्लाइड जबाव दिया गया। • Send सैंड भेजना तथा भेजो। ।
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Get
घट
जैनयालगुटका प्रथम माग। Sent सैंट भेजा त्या भेजदिया। Receive रिसीव पाना, हासिल करना तथा हासिल करो। Received रिसीवड पाया हासिल किया मिलगया।
गैट
लो, पामो, हासिल करो। Got गोट पाया तथा पाई, हासिल करी। But
सिरफ, परंतु । Baranee विकाज क्योकि। Other भदर. दुसरा तथा दूसरो। Laat लास्ट आखोगे। Lost लोस्ट खोई गई। rake मेक बनाना। करना। Enquiry इनस्थायरी तलाश । दरयाफ्त । Enquire इनफ्यायर दरयाफ्तकगे। तहकीकात करो।
मेरा तथा मेरी। Your
नम्दाग तथा तुम्हारी। Our अवर
ALAS
यभर
मा
His
We
हम। You यू तुम । Thou दाउ Thiue दाइन् तेरा। Mino
मेरा।
उसका। Ho
वोह। She
घह स्त्री।.
हर उस स्त्री का। Mereliant_मग्चैट सौदागर । ferelyandise मरचैनडाइज (तजारत सीदगरी)। Trade देह तजारत । Business विजिनल कारोवार व्यौपार ।
Her
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Wire
जैनबालगुटका मपम माग 'Polegraph टेलीग्राफ तार के जिरिये बावरी भेजना। Office भौफिस दफतर। Telegraph Office (टेलीग्राफ भौफिस) तार घर।
वायर तारस Telegram टेलीग्राम तार खवर । Post पोस्ट डाका Man मैन मादमी। Past man पोस्ट मैन चिटीरसां । Master मास्टर अफसर। Post Master (पोस्ट मास्टर) डाक खाने का मफसर (सकपा)। Totter लैटर विटो। Card कार्ड कार्ड। Wavelope नबीलोप लफाफा Registration रजिस्ट्रेशन रजीस्टरी। Packet पैकट पैकट । Insurance इनश्यूरेस बीमा! Insure नश्यू बीमाकरना। Insured नश्यूई बीमाकराया। Money order (मनीमार्डर) मनीमार्डर। Seal सोल मोहर तथा मोहर लगाना। Sealed सील्ड मोहर लगादी। Despatoh डिसपैच रवाना करना। , Despatohed डिसपैच्ड रवाना किया। Deliver डिलिवर बांटना तकसीम करना। Delivered डिलिवई वांटी तकसीम की। Delivery office (डिलिवरी भौफिस) विट्ठी तकसीम करने का दफतर। Stamp स्टैम्प डाक टिकट तथा तमसुन बैनामे वगैरा का सरकारी
मोहर पाला कागज़। Railway रेलवे रेल। . Lin, बान लाना
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1
Railway line रेलवे लाइन रेलकी सड़क ।
Waggon
वैगन
Truck
Ticket
Parcel
Basket
Bundlo
Receipt
Invoice
Oarriage
Station
Platform
Room
कम
कमरा ।
Writing room वेटिंगरूम ( स्टेशन पर ठहने का कमरा ) ।
टिकट टिकट |
पारसल पारसल ।
वासकट टोकरी ।
वंडल वंडल गट्ठा (गठडी ) ।
माल लादने की रेल की गाडी ।
ट्रक
माल लादने का रेलका छकडा ।
फैरिज मुसाफर सवार होने को रेल को गाडो ।
स्टेशन रेल के ठहरने का स्थान ।
प्लैटफारम स्टेशन का वधूतरा ।
जैनबालगुटका प्रथमं भाग ।
Class
Goods
Goods office
Arrive
Arrived
1 One
2 Two
3 Three
4 Four
5 Five
Number
Booking office बुकिंग भौफिस (टिकट घर ) | फेयर किराया ।
Fare
Railway fare रेलवे फेयर ( रेल का किराया ) ।
दरजा ।
रिसीट विलटी ( रसीद )
इनवायल तफसील वार कागज ( चालान ) । नम्बर नम्बर ( गिनती) ।
क्लास
गुड्स
माल ।
गुड्स भौफिस (माल गुदाम ) ।
भराइव पहुंचना |
मराईन्ड पहुंची।
घन
थी
फोर
फाइव
एक
तीन
घार
पांच
6 Six
17 Seven
8 Eight
9 Nine
10 Ten
सिक्स
सेवन
पट
नाइन
4555
टेन
418
९७
सात
आठ
नौ
1
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Greater प्रथम माग |
10 Forty
20 Fifty
60 Sixty
70 Senly
80 Eighty
९८
11 Eleven
इलैवन
ग्यारह
12 Twelve बैटर
भारत
13 Thirteen थरटीन तेरह
14 Fourteen फोरटीन चोदह
15 Fifteen
फिफ्टीन पन्द्रह
16 Sixteen
सिक्सटीन सोलह
17 Seventeen रौवनटीन सतरह
18 Eighteen पट्टीन अठारह 19 Nineteen नाईनटीन उन्नीस 20 Twenty ट्वैनटी बीस
21 Twenty one ट्वैनटो धन इक्कीस 22 Twenty two ट्वेंनटी टू वाईस ( इसी तरह आगे गिनो )
30 Thirty
थर्टी
तीस
31 Thirty one थर्टी वन इकतीस (इसी तरह आगे गिनो)
1
चालीत
फिफटी पचास
पिक्सटी
सष्ठ
सेचन्टी सत्तर
पट्टी अस्सी
नाइन्टी नब्वे
90 Ninety
100 Hundred
ड सौ
200 To Hundreds टू हंडरेडज दोसी 1000 Ihousand थौजेंड हज़ार 2000 Two Thousandsट् थौजेंडज़ दो हजार
100000 Iundred Thousands. ! "इंडरेड थौजेंड
लाख
Sell 100 Bales cotton बेचो १०० गांठ रुई की। Sold 100 Bales cotton वेवदी १०० गांठ रूई की । Buy 100 Bag wheat, खरीदो १०० वोरी गेहूं । Bought 100 Bags wheat खरीदलो १०० बोरी गेहूं ।
फार्टी
Sell 50 Tons Sarson 1ate 6/4 per hundered weight वेचो ५० टन सरसो निरख ६ ।
1 }
Purchase 5 petty opium खरीदो ५ पेटी अफीम ।
Dont sell my wheat भत वेचो मेरा गेहूं ।
Arnived 5 Bags lost 1, make enquny पहुंची५ चोरी खोई गई एक तलाश करो Send 2 Bales Littha Cloth भेजो २ गांठ लट्टे कपड़े को ।
You have no power to sell my wheat तुम को मेरा गेहूं बेचने का कुछ अखतियार नही |
• Got 5 Thousands profit in cotton रूई में ५ हजार का मुनाफा हुवा |
hu
इति
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Maroh
गवारगुटका प्रथम भाषा अंगरजी १२ मोस (मंथस्) (Months) के नाम । January जनवरी १ दिन का होता है। February फरवरी २८ दिन का होता है चौथे सास दिनका रोल
मार्च ३१ दिन का होता है। April एमल ३० दिन का होता है। MAY में दिन का होता है। June जून ३० दिन का होता है।
जुलाई ३१ दिन का होता है। August अगस्त ३१ दिन का होता है। September संपटम्बर ३० दिनका होता है। October मौकटूबर ३१ दिन का होता है। November नोवम्बर ३० दिन का होता है।
December दिसम्बर दिन का होता है। नोट- अंगरेजी सन् चार पर वट सके उस साल में फरवरी ५ मि होता हैयाको सालों में २८ दिन का होता है।
अंगरेजी वक्त Time टाइम की गिणती।। १. सविड (second) का १ मिनट (minute) 1 १.मिनट का घंटा (hour)(अवर)। २४ का दिन (day) (३)।
दिनका १६फना (week) (वीक)। रफत तथा १२ मास तया ३६५ दिन का रसास (year) पर होता है।
अब फरवरी २९ दिन का हो तब सात ३६६ दिनका होता है। .३५ दिन के सास को (leap year) लीप ईयर करते हैं। मोट-एक हिरनो देश का नाम है जितनी देर में मुंह से एक कहे मिनद उतनी देरीका नाम है जितनी देरी में सहब से १० गिने २५ सैक्सिको पल पौर ४ मिनट की कमी होती है जितनी देरमै २४ गिने उस कानाम है।
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• जमवाल गुटका प्रथम भाग। ११-इंच (inches) का ६ फुट (font) 1
'फीट कागज (Jard यार्ड। २१. गज का रफरलांग (furlong)।
८ फरलाग तथा १७६० गल का १ मील।
१४ गुरमे इनका मुरग्या फुट।
१ मुरमे फुटका १ मुरमा गज । ४८. मुरबे गजका एक एकर १४. एकड का १ मुरग्ये मील।
१. लिंक को तया २२ गजको को १ जंजीर (chain) ! १. मुरम्बे जंजीर का तथा ४८४० मुरगणे गवका १ एकर।
१५ मुरम्बे गज तथा २२५ मुराणे कुटका मरा। ३. मरने तथा ५०० मुरबे गजका १क्नाला ४ कमाल तया २... मुरबे गज का वीषा।
१ बौधे में ५० गज लंबी ४. गज चौडी जमीन होती है। १७२८ मविक इंच का १ क्युबिक फुट। १२७ क्युविक फुट का र क्युविक गज ।
एक मुरब्बे जमीन का हिसाब ।। ११. फीट लवा ११०.फोटचोडा किता जमीनको एक मरना कहतेहैं,जो भन्दाजन २५॥साढ़े पच्चीस नाल तथा ६ सवा सड़सठ बीघे जमीनका होता है ।
अंग्रेजी वजन का हिसाब। १५ ड्राम (diams) का १औंस (ounce) (1 oz)। १॥ मौसका १ पौड (Pound) । १६ पौरका कारटर (qual ter)।
कारटरका तथा ११२ पौड का १ हंड्डवेट (hundred weight) | २. hundred weight का १ टन (Ton) ।
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.'जैनवाल गुटका प्रथमभाग। . . . . . Fluid पतली वस्तुका अंदाजा ६. द (Minims) को १ ड्राम (Drachm)।
४ अंम का.१ भौंत (ounds) २. मौसका १ पिंट (Pinthi १२ इकाई (units) का दरजन (dozen) | १२. दरजन का १ प्रोस् (gross) !' ... ' ... हिंदुस्तानी वकका हिसाब ।.,. ६० अनुपल की १ चिपल। ... .... .
विपलं की,१ पल । ' ६० पल को १ घडी . . . on साढे सात घडी का १ पहर। ६. घडी तथा ८ पहर को दिन रानि (dny) (ड)
७ दिनका १ इफता (week) बीक। १५ दिनको १ पक्षं (fortnight) (फोर्टनाइट)। २ पक्ष तथा ३० दिन का १ मास (महीना) (manth) (म)। ६ मास की भयन। .. . . . . . . . . २ अयन तथा १२ मास का १ साल ! .
... . '. ५. साल का १ युग। ... ..
२०. यातया १०० साल को १ संदी (cintury) (संचरी) .. __ माघ से मापाड तक जब दिन यढे उसे उत्तरायण कहते हैं।
श्रावण से पौष तक जब दिन घटे उसे दक्षणायन कहते हैं। ..
८ चांवल तथा धान घरावर १ रखी।
८ रती का १ माशा' , '.१२ - माशेका १ तोला । । ५. सोले की ? छटाक छटांक का १,पाव (पqu) !,
४. पाच का-१-सेर (seer)| .:. . ५. सेर की १ पसेरी! ८. पंसेरी तथा ४.सेर का १ मन (Maund) (मांड)...: . .
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जैन बाल गुटका प्रथम माग
.
जैनभाषापुस्तकं जो हमारे यहां विकती है।
हमारी छपवाई हुई पुस्तकें। .
शुरु पंचकल्याणक विधियोंके चौवीसी, ३०५दिगम्बरमापा जनप्रन्योरेमान) पूजन पाठ संग्रह का महान अन्य भर्थात । कुवेरदचकुवेदचामना माते) (संस्कृत चौबीसी पूजा पाठ ५ वाईस परीषद संपह ) १ भाषा चौबीसी पूजा पाठ रामचंद्रात
निर्वाणका संग्रह भाषा चौबीसी पूजापाठ मंदावन कृतः यंबकल्यान मंगल चित्र सहित ४ भाषा चौबीसी पूजापाठवखतावरकृत बारह भावना संग्रह यह पारोपाठ एक अन्य खुले पत्रों में शुद्ध छहदाला संग्रह चालन, बुधजन दौलत पंचकल्याणक तिथियों के उप है ) तोनों पाठों को इकठी एक पुस्तक) भी महावीर पुराण महान ग्रन्थ )
.श्री नेमिनाथ का ब्याहला, प्रलोचर, हरिवंश पुराण महान प्रस्थ
वारह मासादि राजुल नौ पाठा चौपाल चरित्र भाषा छंद पन्द ) যমন স্ব স্বনিৰংগ नई जैन तीर्थयात्रा तीर्थों का मार्ग १) की विधि सुकमाल चरित्र बअभाषावचनका भूधर जैन शतकमर्थ सहित जैन कथा संग्रह स्त्रियों के संतान पैदा मजामसंस्कृत हिंदीमय शालार्थ, होने की विधि मौर इलाज सहित ) पार्थ,भावार्थ भाषापाठ सपाकडे जैन वालगुटका दूसरा भाग २५ जैन । भकामरमापाकठिनरामोदनसहित। महा मत्र और नवकार मंत्र के मार | सीता पारह मासा संग्रह मक्षर और शब्द शब्दकेमर्थ सहित ) तत्वार्थ सब मन संपूर्ण दर्शन कथा भाषा छंद बन्द ) प्रतिमा चालीती चार दान क्या बड़ी
कृपण पचीसी शोल कथा भाषा छंद्र बंद ) जेन ११ मारती संग्रह दो निश भोजनकथावडोमौरछोटी) संकट हरण बिनती 'नित्यं नियम पूजा देव शास्त्र गुरु शुद्ध सामायिक
রুষ মুলা খাই , যুগান্য ভাল কাতালে पूजा विधमान सिह पूजा भादि । স্থায় মার
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'प्रोतबाट पुष्टका प्रथम भाग . . . दूसरों की छापी पुस्तकें भी यह हमारे यहाँ विकती हैं।
গনী আগা মা
धर्म परीक्षा . . मानार्णव महानग्रन्थ -
परमामा मास, .. : पुण्याभय कथा को महान अन्य ३१ पार्च पुष छांगा बना की पम्पमहाननंधा पशन संग्रह एबीर दशलक्षण शादि) भाराधना सार कशा काय ... || माघटीत (मोक्ष शास्त्री - समयसार धामयाति
श्रावक पनिता बेथिनी ) पाडा पुगण बंद थे . ज्ञानानन्दशनेक नसावन नाथूरामकृता। शो घर परिष ..
दीप पूजा विधान ).. जन पद संग्रह दौलन समत ) · खट पाटुंद
जैन पद संग्रह भूधरमास ) रन कड श्रावकाचार बडा लवासा :जैन पद संत्रा बध जना ) हत भाषा यवन का महान ग्रंथ. ४) । जनमजन र तिपयनसुखजीत ) धर्म संनद प्रावकाचार . . . २) .. औन गजत प्रभु रिलास . . ) यानन्दी धारकर धार ). गुपपा सिद्धोपय भाग्य शर्यसंदित ।) हलधुरंड अन्वयार्थ
या संत्रा बड़ी टीश के प्राचीन ग्रंथ प्रद्युमन चरित्र.. . " ) जैन मंदीरों में हैं.
दिगम्बर जैनधर्म पुस्तकालय लाहोर के नियम ।। .. ओ मादक हमले पुस्तक मंगाते हैं सब का डाक थानेले का गहसूल हम अपने । पाल से देते हैं, बदल बंधवाई सिलाई और दाट के दाम भी नहीं लेते ॥ . :
जोमादक हमसे एक मपये से जियादा रकर को पुस्तकें मंगाते हैं उनको हस । भी रुपयों कमीशन काददेते हैं परन्तु उपयों की रकम पर काटते हैं आनो का नहीं। '। जो प्रारक पक जातिको इकाळी पुस्तया ग्रंथ हमसे मंगाते हैं उन को इन पत्रि" को मध्य में , वश मल्य में १३, पंदर केल्यम २०, घीस के मूल्य में २८पञ्चीस : कोमल्य में ३५ पचास के मध्य में ७५ प्रति भेजने हैं या रेल का महसूल नो इम • अपने पास से ही देते हैं भारी मातोशा भोका देते।
एस्तक मिलनेका पता बाबालाजचन्द्रजनालाकात
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सन
.
.
.
.
- 2
8..
-
"जैनवाल गुटके दूसरा भाग में नवकार मंत्र के २५ महामा
जैनबाल गुटके दूसरे काम में नई कार मय के साई शष्ट और मार का सलग मनन्द अर्थ और भत्रकार के महान कार छपे हैं ।
इन मंत्रों में चार रक्षा में ही होनी चरण से गाव नलवार को देव को मार सके दो हमें अन्दरकने इसने की हैसही मातानुगजी आकार एक हो । ... के स्परा से लोग मारे १ मा पाने के अस्ति मागन को शांत हो जाए। भाषा लोलो साता देवी की कानात का ताप मारण मन्त्र
बाद में जीत पानेको मन्द मैले भन्दा देव और हार जाते एविया आति मन्त्र पूर्व को मोशिया ९ परदन में लान महाकर सरावाच -हो, ऐसा मुन्न । १ द्रश्य पारि मन्त्र । सन्तान रो) शव पोला मन्त्र (
हमने मुझे मर्गलाचरण और उसका शब्द शब्दना अलग मार्य भोइसी पुस्तक में छाश है ऐसे अनेक कंथतः यो उकासे पुस्तकका काम हमने केवल हो रहा शुद्ध पञ्चकल्याणक तिथियों का चार नावीसी पूजा पाठ संग्रह। . इस सप जैन मंदिरों में जो वायत्री पूजा गर कमियों के नागार "मौजद है इन में पंचकल्याणक की अनेक तिथि मालवा रविवार को दूर करने की जो সুমন মুখ খুঁই বলা যায় না জানি না মুহাজেল আর কােজর तिथियों के पास अन दार एक महान अंध में कुल पन्धाकार उपहाखे हैं कि की शुद्धता का रकासा हमारे सुकी पावर सध्यार । ईप चका है, जिसे में उसकता है। खोयीसो पूजापाठ हैं दूसँच नगरच्चन्द साव को असल जिसका कत, माया बोलाई असतांवरसिंह कृत भाषा वाँधी जी यूजा गार हैं जिन पका दाम पिये है
तिमाह जेन को लाहोर । सद पाठकों को विदित किया जाता है कि तिमाही जैन पत्रिका जाहोर) एस नाम का इमाग भजन सर माता का नया धमाधम होता है
स्त्रियों को गर्भ रहने का इलाज जिन सा पान की श्रियों को कभी न रहता हो मिली के संचार पवार होने पर लाज को विनि और हमारे वीज कॉल के नियम रन के भीतर कर पाई किरा
न का पता वा जनचन्द्र जैनी बाहोर
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