Book Title: Jain Bal Gutka Part 01
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Gyanchand Jaini

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Page 51
________________ जैनबालगुटका प्रथम भाग। १समताभाव। . " क्रोध न करना अपने परिणाम क्षमा रूप राखने ॥ ११ प्रतिमा। .. १ दर्शन प्रितिमा, २ व्रत, ३ सामायिक ४ प्रोषधोपवास, ५ सचित्तत्याग, ६ रात्रि भुक्ति त्याग, ७ ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग,९ परिमहत्याग १• अनुमति त्याग, ११ उदिष्टत्याग ॥ . . रत्नचय। १ सम्यग दर्शन, २ सम्यग ज्ञान, ३ सम्यगचारित्र । यह तीन रत्न श्रावक के धारने योग्य हैं इनका नाम रत्न इस कारण से है कि जसे स्वर्णादिक सर्व धन में रत्न उसम यानि बेशकीमती होता है इसी प्रकार कुल नियम प्रत तप में यह तीन सर्व में उत्तम है जैसे विन्दियां अंक के वगैर किसी काम की नहीं इसी प्रकार वगैरन दोनों के सारे व्रत नियम कुछ मी फलदायक नहीं है सब नियम त मानिन्द विन्दी शुन्य) के हैं यह तीनों मानिन्द शुरूके अंक के हैं इस से इनको रल माना है। चार दान। . . . १ आहारदान, २ औषधि दान, ३शास्त्रदान, ४ अभयदान । यह चार दान श्रावक. को अपनी शक्ति अनुसार नित्य करने योग हैं इन में. दान के चार भेद है १ सर्व दान २ पात्र दान ३ समदान ४ करुणादान। . सर्व दान। . . . .. मुनि बत लेने के समय जो कुल परिग्रह का त्याग सो सर्च दान है। यह सर्व दान मोक्ष फल का देने वाला है ॥ पात्रदान । ।.. . मुनि, मार्यिका उत्कृष्ट श्रावक कहिये ऐलक क्षुल्लक (मति श्रावक) हनको भक्ति कर विधि पूर्वक दान देना यह पात्र दान है। इनको, थाहार देना आहार के सिधाय कमंडलु देनापीछी देना,पुस्तक देनी और आर्यिकामों को वस्त्र (साडी देनी। अक्लक को उसको पुचि के अनुसार कोपीन (लंगोटी) देनी चादरं धोती दौहर

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