Book Title: Jain Bal Gutka Part 01
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Gyanchand Jaini

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Page 68
________________ जैनवालगुटका प्रथम मागे। शरीर ४ मल मूत्र रहित शरीर ५ हितमित प्रिय पचन बोलना ६ अतुल्यबल ७ दुग्ध पत् श्वेत रुधिर ८ शरीर में १००८ लक्षण, ९ सम चतुरनसंस्थान शरीर, अर्थात् भरहन्त के शरीर के अङ्गोंकी बनावट स्थिति चारों तरफ से ठीक होती है किसी अङ्ग में भी कसर नहीं होती १०वजवृषभनाराचसंहनन यह दश अतिशय अहंत के जन्म से ही उत्पन्न होते हैं। नोट-यहां बालकों को यह समझ लेना चाहिये कि यह जन्म के १० अतिशय हर एक मरहन्य (फेवली) के नहीं होते सिवाय पञ्चकल्याणक को प्राप्त होने घाले तीर्थंकरों के जितने दूसरे क्षत्री वैश्य और ब्राह्मण मुनि पदवो धार केवल शान को प्राप्त होते हैं, या जो विदेह क्षेत्र में तीन कल्याणक या दो कल्याणक वाले तीर्थंकर होते हैं उनके यह जन्मके १० अतिशय सारे नहीं होते उनका जन्म समय खून (रुधिर) लाल होता है सुफेद नहीं होता उनके निहार (टटो फिरना पिशाव करना) भी होता है उनके पशेष भी आता है उनके शरीर में जन्म समय १००८ लक्षण नहीं होते, वह जन्म समय अतुल बलके धारी नहीं होते, अतुल बल उस को कहते हैं जिसके चलकी तुलना कहिये अन्दाजा न हो, चक्रवर्ती, नारायण के वल का तुलना (अन्दाजा) होता है पञ्च कल्याणक को प्राप्त होने वाले तीर्थंकर मैं अतुल (बेहद) बल होता है देखो श्री नेमिनाथ ने नारायण को एक अंगुली से झुला दिया था। पस यह जन्म के पूरे १० अतिशय उनहो अरहन्त में जानने जो पहले भव या भवों में तीर्थकर पदवी का बन्ध बांध पञ्चकल्याणक को प्राप्त होने वाले तीर्थकर उत्पन्न होय केवल ज्ञान को प्राप्त होते हैं । केवल ज्ञान के १० अतिश्या दोहा। योजन शत इक में सुभिख, गगन गमन मुखचार। नहिं अदया उपसर्ग नहि, नाहीं कवलाहार ॥ ५॥ सब विद्या ईश्वर पनों, नाहि बढें नख केश। अनिमिषडग छाया रहित,दश केवल के वेश ॥६॥ अर्थ-१ एक लौ योजन समिक्ष, अर्थात् जिस स्थान में केवली तिप्ठे उन से चारों तरफ सौं सौ योजन सुकाल होता है, २ आकाश में गमन ३ चार मुखों का दीखना अर्थात् महैत का सुख चारों तरफ से नजर आता है । भदया का भभाव, ५ उपसर्ग रहित ६ कवल (प्रास) आहार वर्जित, ७ समस्तविधाओका स्वामी पना

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