Book Title: Magadh
Author(s): Baijnath Sinh
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal

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Page 11
________________ ( ४ ) भी स्पष्ट होता है कि मगध के ब्राह्मण भी वेद और वेदानुमोदित यागयज्ञ को आसानी से छोड़ देते थे। उन पर श्रमण और यति विचारधारा का प्रभाव शीघ्र पड़ता था। जैन धर्म के प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख है कि मगध के अच्छे-अच्छे विद्वान् ब्राह्मणों ने जैन धर्म स्वीकार किया। जैन तीर्थंकर महावीर के प्रथम शिष्य और प्रमुख गणधर इन्द्रभूति गौतम मगध के प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान् थे, जिहोंने जैन धर्म स्वीकार किया था। ब्राह्मण धर्म के बाहर शतपथ ब्राह्मण ( १, ४, १, १०) में इस बात का भी जिक्र है कि मागधों की तो बात ही क्या कोसल और विदेह भी प्राचीनकाल में पूर्ण रूप से ब्राह्मणधर्म में दीक्षित नहीं थे। वस्तुतः भारतवर्ष के पूर्वी भाग में वैदिक आर्यों का पूरा बल नहीं था। इसीलिए देश के इस भाग में निग्गन्थ, सांख्य, भागवत और यति धर्म जोरों पर था। इन धर्मों का उपदेश करने वालों को श्रमण, यति, अर्हत, जिन, तीर्थंकर श्रादि कहते थे । इन धर्मों को मानने वाले सभी सांप्रदायों में यह एकता थी कि कोई भी वेदों को प्रमाण नहीं मानते थे। आगे चलकर इनमें से भागवत और सांख्य ने तो वेदों को प्रमाण रूप में स्वीकार भी कर लिया। पर श्रमणों की परम्परा के निग्गन्थों और बौद्धों ने वेदों को प्रमाण रूप में नहीं ही स्वीकार किया। महावीर से पूर्व __ इन निग्गन्थों का अपना साधु संघ भी था। अति प्राचीन काल में इस साधु संघ का मुख्य अाधार अहिंसा और योग अथवा तप था। पर ८०० ई० पू० में पार्श्वनाथ ने सम्प्रदाय में संशोधन करके उसके चार आधार बनाए-अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह । इसे पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म भी कहते हैं। पार्श्वनाथ ने इस चातुर्याम धर्म का खूब प्रचार किया । बंगाल के राढ़ देश में भी पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्मका

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