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का बहुत कुछ एक मौखिक रूप में रहा । इसके बाद भी तरह तरह से जैनागमों के संरक्षण की मौखिक परम्परा जारी रही । आचार्य वज्र दशपूर्वी के ज्ञाता थे और उनकी मृत्यु ११४ विक्रमी में हुई । पर उनका ज्ञान भी मौखिक ही था । जैन साहित्य के अनुसार अन्तिम वाचना वि० सं० ५१० में वलभी में हुई ।
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पालि और अर्धमागधी
बुद्ध वचनों का अन्तिम रूप से संकलन अशोक के काल में हुआ । यही नहीं उसकी तिथि निश्चित है । तीसरी संगीति बुद्ध - निर्वाण के २३६ वर्षं बाद पाटलिपुत्र में हुई । अर्थात् ई० पू० ३०७ में बुद्ध के उपदेशों का अन्तिम रूप से संकलन हो गया । पर इस सम्बन्ध में विद्वानों में विवाद है । अतः इसे हम छोड़ भी दें तो दो और प्रमाण हैं । एक हैं अशोक के शिलालेख, जिसकी भाषा पालि है और जिसका समय निश्चित है । दूसरा यह कि वट्टगामणि अभय के समय में सिंहल में पालि भाषा में त्रिपिटक लेखबद्ध हुए । वडगामणि का समय प्रथम शती ई० पू० माना जाता है । पर अर्धमागधी का जो रूप जैनागमों में मिलता है, उसकी इतनी प्राचीनता का प्रमाण निश्चय ही नहीं मिलता । जिस रूप में अर्धमागधी के स्वरूप का साक्ष्य जैनागमों में मिलता है, उसकी ध्वनी और रूप को दृष्टि से पालि से समानताएँ तो हैं, पर उसके आधार पर भी अर्धमागधी को पालि के विकास की अवस्था ही कह सकते हैं । वस्तुतः जैनागमों की अर्धमागधी का रूप पालि के बहुत बाद का है । किन्तु पालि भी ठीक-ठीक मगध की भाषा नहीं है । वस्तुतः पालि का विकास मध्यमण्डल में बोले जाने वाली उस अन्तर्प्रान्तीय सभ्य भाषा से हुआ, जिसमें भगवान् बुद्ध ने ने उपदेश दिए थे और जिसको संज्ञा बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार 'मागधी ' है । इसी मागधी के विकसित विकृत या अधिक ठीक कहें तो विभिन्न
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