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एक दिन मगध सम्राट
था । वह अपने समय में नीतिशास्त्र का बहुत बड़ा पण्डित था। वह उस समय की भारतीय राजनीति का बहुत बड़ा ज्ञाता था । अपने धुन में मस्त वह मगध आ गया था । मगध में श्रेष्ठ विद्वानों का समादर होता था । चाणक्य भो महान विद्वान् था । सम्भवतः वह भी अपनी विद्या - का समादर चाहता था । ब्राह्मण तो वह था ही, नन्द राजा की भुक्तिशाला में जाकर संघ - ब्राह्मण के आसन पर बैठ -गया । नन्द द्वारा यह जानने पर कि वह कौन है, चाणक्य ने उत्तर दिया - 'यह मैं हूँ !' यद्यपि इससे चाणक्य का स्वाभिमान और तेज टपकता था; पर नन्द तो संस्कार से होन था । उसने सिपाहियों को ज्ञा - दी कि इस ब्राह्मण को निकाल बाहर किया जाय । किन्तु चाणक्य भांट - ब्राह्मण नहीं ; तेजस्वी ब्राह्मण था । उसने अपने कमंडलु को इन्द्रकील पर पटक कर क्रोध से कहा - 'राजा उद्धत हो गया है, समुद्र से घिरी हुई पृथ्वी नन्द का नाश देख ले ।' नन्द ने चाणक्य को गिरफ्तार करना - चाहा; पर चाणक्य तो चाणक्य था - तीव्र प्रतिभा का धनी । वद निकल गया ।
चाणक्य और चन्द्रगुप्त की एकता
चाणक्य को एक ऐसे निर्भीक बहादुर और योग्य सेनापति को जरूरत थी, जो मृत्यु की उपेक्षा करके मगध साम्राज्य से टकरा सके; और चन्द्रगुप्त को एक ऐसे नीति-निपुण राजनीतिज्ञ की जरूरत थी, जो - साम्राज्य की राजनीति को विफल करके प्रजा का विश्वास अर्जित कर सके। दोनों एक दूसरे के पूरक थे, इसलिए दोनों मिल गये । चाणक्य और चन्द्रगुप्त के चरित्र को देख कर ऐसा लगता है कि उस समय भारतीय मेधा और भारतीय वीरता श्राज की भाँति कुंठित नहीं हुई थी,
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उस समय भारतीय जीवन
- जो शक्तिशाली के सामने घुटने टेक देती - और समाज में पुरुषार्थ की महत्ता थी । ब्राह्मण चाणक्य और सेनापति
- चन्द्रगुप्त पुरुषार्थी थे । साधनहीन होते हुए भी दोनों धुन के पक्के थे,