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। १६ ) अजातशत्रु की श्रद्धा का प्रमाण है। अजातशत्रु के ही काल में राजगृह की सप्तपर्णिगुहा में बौद्ध धर्म को प्रथम संगीति हुई थी, जिसमें सभी प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु एकत्र हुए थे और जिसमें बुद्ध को शिवाओं का प्रथम संकलन हुआ। बुद्ध के प्रिय शिष्य आनन्द को मृत्यु के बाद
आनन्द का भी स्तूप, बुद्ध स्तूप के पास ही बना । धर्म और राज्य
अजातशत्रु स्वयं बौद्ध था। पर उसकी नीति जैन धर्म के प्रति भी इतनी उदार थी कि उसे कुछ लोग जैन भो कहते हैं । अजातशत्रु विजेता
और साम्राज्यवादी था। उसने मगध साम्राज्य का विस्तार भी किया। अजातशत्रु के प्रभाव से उसके साम्राज्य के साथ ही साथ बैद्ध और जैन धर्म का प्रभाव भी बढ़ा। डॉ० याकोवी आदि कुछ विद्वानों का मत है कि बौद्ध और जैन धर्म के स्थानीय रूप से उठकर व्यापक महत्त्व प्राप्त करने का मुख्य कारण इन दोनों धर्मों को महत्वपूर्ण साम्राज्यवादो राजाओं का सहयोग था। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि धार्मिक सम्प्रदायों के विकास और प्रसार में राजाओं और प्रभु-वर्ग का हाथ नहीं होता । वस्तुतः बिना राजाश्रय के धार्मिक सम्प्रदायों का महत्त्वपूर्ण प्रसार सम्भव ही नहीं होता। और कोई भी राजा अपनी राजनीति के विरुद्ध जाकर धर्मों को प्रश्रय नहीं देता। बिम्बिसार के रुख को देखकर बुद्ध ने बौद्ध संघ में दासों, ऋणियों और सैनिकों का प्रवेश रोक दिया था। अशोक जरूर एक ऐसा सम्राट था, जिसने अपने धर्म के लिए अपनी राजनीति की उपेक्षा की ; पर इसी कारण उसके बाद ही उसका साम्राज्य नष्ट हो गया। उदयि और पाटलिपुत्र
अजातशत्रु ने अपने पिता को कैद कर राज-शक्ति को प्राप्त किया था । अन्त में अजातशत्रु भी अपने पुत्र उदयि अथवा उदयिभद्र के षड्यन्त्रों द्वारा मारा गया। उदयिभद्र कोई बहुत बड़ा विजेता अथवा सेनापति नहीं था ; पर निर्माण कार्य में इसको विशेष दिलचस्पी थी।